“प्रबल वेग से लौटकर आती हुई प्रतिध्वनि – जय भीम…”

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आज बाबा साहेब डॉ.अम्बेडकर(14 अप्रैल 1891- 6 दिसम्बर 1956 ई.) का जन्म दिन है। सभी को बधाई। आज से ठीक 129 साल पहले कोई उन्हें जानता भी नहीं था और आज उनके परि निर्वाण के 63 साल बाद देश और दुनिया में कोई ऐसा जागरूक व्यक्ति नहीं होगा जो उनके नाम को जानता न हो। दुनिया का शायद ही कोई ऐसा देश हो जहां उनकी प्रतिमा न हो। शायद ही दुनिया का कोई प्रसिद्ध पुस्तकालय हो जहां उनकी पुस्तकें न हों। बाबा साहेब का और बाबा साहेब पर लिखा गया साहित्य आज बड़े-बडे पुस्तकालयों का आकार ले चुका है।

भारत का कोई ऐसा कोना नहीं होगा जहां “जय भीम” का नारा बुलंद करने वाले लोग न हों। अपने मज़हब से आगे बढ़ने में संकोच करने वाले लोगों के हाथों तथा बैनरों में भी बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर की लहराती हुई फोटो, संविधान की प्रति व जुबां पर “जय भीम” के नारे आने लगे हैं। दलित, वंचित, उपेक्षित, लाचार और बेबस समाज में अधिकाधिक रूप से बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर की स्वीकार्यता बढ़ी है। वातावरण में चारों तरफ “जय भीम” की प्रतिध्वनि सुनाई दे रही है। कितनी विवशताओं, लाचारियों, मजबूरियों, झंझावातों के बीच अदम्य साहस के साथ जिए थे बाबा साहेब। बावजूद इसके उनके अंदर मानव मात्र के लिए अपार स्नेह और प्यार था। उनके मनोभावों में समुद्र से स्तम्भ बनकर आकाश तक उड़ने का प्रयत्न था। दूर-दूर तक फैली हुई अंधकारमयी गुहाओं में पवन का कल- कल करता एक झोंका था। उनका सारा जीवन आज़ भी एक “लौटकर आती हुई प्रतिध्वनि’ है, जो सभी को चमत्कृत करती है तथा सभी प्रणत हो उसे नमन के लिए झुकते हैं।

बाबा साहेब के नेत्रों में अभय है। उनकी खड़ी हुई मूर्ति यदि कुरूप भी हो जाए तो वह अपने अंदर छिपी अपराजेय,अशोष्य,अजडित अक्षय तरलता को नष्ट नहीं करेगी। क्योंकि वह प्यार की आंख है।जब आंख अंतस में प्रतिबिंबित होती है तो वह अपना आलोक बिखेरने लगती है और यही आलोक प्रेम है,दया है, करूणा है, जीवन की अनन्त मर्यादा है। बाबा साहेब का आज़ वैसा ही आकर्षक है जैसे सूर्य का, जिसने पृथ्वी को अपनी ओर खींच रखा है। परंतु पृथ्वी भी अपनी धुरी पर घूमकर उससे टकरा कर विनष्ट नहीं हो गई बल्कि अपरिमेय चक्र से घूमी चली जा रही है। यही महासृष्टि का उल्लास है, निरंतर बढ़ते रहने का चिन्ह है। बाबा साहेब कह रहे हैं कि मेरे आलोचक भी यदि गहराई से देखेंगे तो उन्हें गति दिखेगी, उसमें जीवन और जीवन का सौंदर्य भी दृष्टि गोचर होगा। यद्यपि प्रेम, ममता, वासना, प्रजनन और जीवन सभी आकर्षण के भिन्न रूप हैं। यही मानवीय जीवन का द्वंद्व है जिसकी प्ररेणा वासना तथा उससे उद्गमित कर्म की चेतना है, परंतु बाबा साहेब के प्रति करोड़ों लोगों की दर्शन दृष्टि का आकर्षण उनका अथाह ज्ञान है, जिसमें शाश्र्वत सौंदर्य है। उन्होंने इतनी विशाल परिक्रमा खींची है कि आज श्रेष्ठ मानव विवेक जगत भी उन्हें “ज्ञान का प्रतीक” मानता है। यह सम्मान की श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति है।

बाबा साहेब का जीवन हमें सिखाता है कि “जुर्म” के पांव कच्चे होते हैं। जिस – जिस ने अत्याचार किया है, वह सदा -सर्वदा के लिए मिट गया है। करूणा, जीवन की आधारभूत संवेदना है जिसके पट अज्ञात और अपरिचित के लिए भी खुले होते हैं।वही आकाश की अनंत नीलिमा है। घृणा की छलनियों से टपकती करूणा में प्रेम नहीं होता।नीच कहे जाने वाले भी मूलतः मनुष्य हैं और उनकेे भावों का स्थायित्व उनके मनुष्यत्व में है।सम्मान और गरिमा सबकी साझी विरासत है।आसमान को छूने की कोशिश करने वालों को अपने पैरों को धरती पर टिकाना चाहिए। दौलत का जाल एक पिंजरा है। जिसमें फंस कर आदमी तोते से भी गया बीता हो जाता है कि द्वार खुलने पर भी उडकर नहीं जाता। हुकुम उनका ही चलता है जो गद्दी पर बैठता है। जीवन उतना ही नहीं है जितना जिया जाता है। मिट्टी में मिल जाने के बाद भी जीवन अनन्त है, क्योंकि मौत का मौन अनवरत वाणी का स्रोत है।

डॉ. राजबहादुर मौर्य, झांसी




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Dr. RB Mourya:

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