– डॉ राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर-प्रदेश) भारत । email : drrajbahadurmourya @ gmail.com, website : themahamaya.com (परिकल्पना, अनुसंधान अभिकल्प, न्यादर्श, ऑंकडों का संकलन, प्रश्नावली, अनुसूची)
1- उपकल्पना, प्राक्कल्पना, परिकल्पना, पूर्व कल्पना आदि शब्द पर्यायवाची हैं । परिकल्पना को अंग्रेज़ी भाषा में हाइपोथिसिज कहा जाता है । हाइपोथिसिज शब्द हाइपो +थिसिज शब्दों से मिलकर बना है । हाइपो का अर्थ है सम्भावित तथा थिसिज का अर्थ है समस्या के समाधान का कथन । इस प्रकार हाइपोथिसिज का शाब्दिक अर्थ है : वह सम्भावित कथन जो समस्या का समाधान प्रस्तुत करता है । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि आरम्भिक जानकारी के आधार पर किया गया पूर्वानुमान, जिसके आधार पर सम्भावित अनुसंधान को एक निश्चित दिशा प्रदान की जा सके, उपकल्पना कहा जाता है । गुडे एवं हट्ट ने परिकल्पना को परिभाषित करते हुए कहा है कि, “परिकल्पना भविष्य की ओर देखती है । यह एक तर्कपूर्ण वाक्य है, जिसकी वैधता की परीक्षा की जा सकती है । यह सत्य भी हो सकती है और असत्य भी ।”
2- जॉर्ज लुण्डबर्ग ने परिकल्पना को परिभाषित करते हुए लिखा है कि, “परिकल्पना एक सामयिक तथा कामचलाऊ सामान्यीकरण अथवा निष्कर्ष है जिसकी सत्यता की जाँच करना शेष रहता है । अपने बिलकुल प्रारम्भिक चरणों में परिकल्पना कोई मनगढ़ंत, अनुमान कल्पनापूर्ण विचार अथवा सहज ज्ञान इत्यादि कुछ भी हो सकता है जो क्रिया अथवा अनुसंधान का आधार बन जाता है ।” एफ. जे. मैक्गुइगन ने लिखा है कि, “परिकल्पना दो या दो से अधिक चरों के कार्यक्षम सम्बन्धों का परीक्षण योग्य कथन है ।” पी. वी. यंग के अनुसार, “एक कार्यवाहक परिकल्पना एक कार्यवाहक केन्द्रीय विचार है जो उपयोगी अध्ययन का आधार बन जाता है ।” विद्वान करलिंगर के अनुसार, “परिकल्पना दो या दो से अधिक चर राशियों अथवा चरों के सम्बन्धों का कथन है ।”
3- वेबस्टर अन्तर्राष्ट्रीय नवीन शब्दकोश के अनुसार, “एक परिकल्पना एक विचार, दशा या सिद्धांत है, जिसे सम्भवतः बिना विश्वास के मान लिया जाता है । जिससे उसके अनुसार तार्किक परिणाम प्राप्त किये जा सकें कि वह उन तथ्यों, जो ज्ञात हैं अथवा जिनका निश्चय करना है, के अनुसार है ।” बार तथा स्केट्स ने परिकल्पना के बारे में कहा है कि, “परिकल्पना एक अस्थायी रूप से सत्य माना हुआ कथन है, जिसका आधार उस समय तक उस विषय अथवा घटना के बारे में ज्ञान है और उसे नए सत्य की खोज के लिए आधार बनाया जाता है ।” जॉर्ज जी मौले के अनुसार, “परिकल्पना एक धारणा अथवा तर्क वाक्य है जिसकी स्थिरता की परीक्षा उसकी अनुरूपता, उपयोग, अनुभव जन्य प्रमाण और पूर्व ज्ञान के आधार पर करनी होती है ।”
4- परिकल्पना को परिभाषित करते हुए टाउन्सेण्ड ने लिखा है कि, “समस्या के समाधान हेतु एक प्रस्तावित हल के रूप में परिकल्पना को परिभाषित किया जा सकता है ।” एडवर्ड्स के अनुसार, “परिकल्पना दो या दो से अधिक चरों के सम्भावित सम्बन्ध के विषय में कथन होता है । यह प्रश्न का ऐसा सम्भावित उत्तर है जिससे चरों के सम्बन्ध का पता चलता है ।” ब्राउन और घिसली के अनुसार, “परिकल्पना एक ऐसा प्रस्ताव है जो तथ्यात्मक और सम्प्रत्यात्मक तत्वों और उनके सम्बन्धों के विषय में होता है । जिसका उद्देश्य ज्ञान तथ्यों और अनुभवों से परे ज्ञान और जानकारी में वृद्धि करना होता है ।” जेम्स ई. ग्रीटन के अनुसार, “परिकल्पना सम्भावित माना हुआ समस्या का हल होता है जिसकी व्याख्या उस परिस्थिति से निरीक्षण के आधार पर की जा सकती है ।”
5- परिकल्पना के बारे में जॉन डब्ल्यू. बेस्ट ने लिखा है कि, “परिकल्पना एक विचारयुक्त कथन है जिसका प्रतिपादन किया जाता है और अस्थायी रूप से सही मान लिया जाता है तथा निरीक्षण प्रदत्तों के आधार पर व्याख्या की जाती है जो आगे शोध कार्यों को निर्देशन देता है ।” ब्रूस डब्ल्यू. टकमन के अनुसार, “परिकल्पना की परिभाषा अपेक्षित घटना के रूप में की जा सकती है जो चरों के माने हुए सम्बन्ध का सामान्यीकरण होता है ।” मनोविज्ञान- अनुसंधान विशेषज्ञ जॉन गालटुंग ने गणितीय आधार पर परिकल्पना को स्पष्ट करने का प्रयास किया है और उनका कहना है कि सभी अनुसंधानों में तीन तत्व होते हैं : इकाई, चर और मूल्य । जिसके सम्बन्ध में सूचना ग्रहण की जा रही है वह इकाई है । जिसके बारे में सूचना ली जा रही है वह चर है । किसी इकाई में प्राप्त किसी चर के गुण अथवा परिमाण को मूल्य कहा जाता है ।
6- परिकल्पना को परिभाषित करते हुए बोगार्डस ने लिखा है कि, “परीक्षित किए जाने वाले विचार को उपकल्पना कहते हैं ।” बर्नार्ड फ़िलिप्स के शब्दों में, “वे उपकल्पना किसी घटना में विद्यमान सम्बन्धों के विषय में अस्थायी कथन है….उपकल्पनाओं को प्रकृति से पूछे गए प्रश्न कहा जाता है और वे वैज्ञानिक अनुसंधान में प्राथमिक महत्व के मंत्र होते हैं ।” गैरेट के अनुसार, “वह अंतर सार्थक अंतर है जिसके सम्बन्ध में अत्यधिक प्रसम्भाव्यता इस तथ्य की हो कि उसके घटित होने का कारण संयोग नहीं है अथवा किसी क्षणिक कारण अथवा घटनाचक्र पर आधारित नहीं है बल्कि जिसके कारण एक सम्पूर्ण जाति के दो न्यादर्शों में वास्तविक अंतर देखने में आता है । इसके विपरीत एक ऐसा अंतर जिससे कोई विशेष अंतर नहीं जान पड़ता है, वह अंतर, अंतर नहीं कहलाता है ।”
7- उपकल्पना के निर्माण में कुछ सामान्य कठिनाई होती है : सैद्धान्तिक सन्दर्भ की अनुपस्थिति, सैद्धान्तिक सन्दर्भ के आवश्यक ज्ञान का अभाव, सैद्धान्तिक सन्दर्भ के तर्कपूर्ण प्रयोग का अभाव, अध्ययन प्रविधियों की विविधता, परिकल्पना अल्पदृष्टि तथा अन्य सामान्य कठिनाइयाँ । जैसे: रचनात्मक चिंतन का अभाव, अंतर्दृष्टि और प्रेरणा का अभाव, समस्या के गहन अध्ययन का अभाव इत्यादि । परिकल्पनाओं के मुख्य दो स्रोत होते हैं : पहला, वैयक्तिक या निजी स्रोत तथा दूसरे वाह्य स्रोत । वैयक्तिक या निजी स्रोतों में अनुसंधान कर्ता की अपनी स्वयं की अन्तर्दृष्टि, सूझ बूझ, कोरी कल्पना, विचार अथवा अनुभव होते हैं जबकि वाह्य स्रोतों में साहित्य, कल्पना, कहानी, कविता, विचार, अनुभव, दर्शन, नाटक, उपन्यास अथवा प्रतिवेदन हो सकते हैं ।
8- गुडे एवं हट्ट ने मैथड्स इन सोशियल रिसर्च में उपकल्पना के निम्न प्रमुख स्रोतों का उल्लेख किया है : एक, सामान्य संस्कृति, दो, वैज्ञानिक सिद्धांत, तीन सादृश्यताएं, चार, व्यक्तिगत प्रकृति- वैशिष्ट्य अनुभव, पाँच, अनुसंधान एवं साहित्य, छह, अंत:प्रज्ञा, सात, रचनात्मक चिंतन, आठ, विशेषज्ञों से मार्गदर्शन, नौ, समस्या समाधान के प्रति मानसिक तत्परता और संकलित तथ्यों का विश्लेषण । सामान्य संस्कृति को उन्होंने तीन भागों में विभाजित किया है : सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, सांस्कृतिक चिन्ह और सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन । मनरो ने परिकल्पना के निर्माण में रचनात्मक चिंतन को अत्यधिक सहायक मानते हुए उसके चार चरण बताया है : तैयारी, विकास, प्रेरणा और परीक्षण ।
9-विद्वान चिंतक मैक्गुईन ने एक अच्छी परिकल्पना की विशेषताओं को रेखांकित करते हुए लिखा है कि, परिकल्पना परीक्षण योग्य होनी चाहिए । परिकल्पना सामान्यतया अपने अनुसंधान क्षेत्र से सम्बन्धित अन्य परिकल्पनाओं के अनुरूप होनी चाहिए । परिकल्पना अल्पव्ययी होनी चाहिए । परिकल्पना अपनी समस्या का स्पष्ट उत्तर होना चाहिए । परिकल्पना में तर्क संगत सरलता होनी चाहिए । परिकल्पना का कथन मात्रात्मक रूप में होना चाहिए । गुडे एवं हट्ट ने श्रेष्ठ परिकल्पना की पॉंच विशेषताओं का उल्लेख किया है : उपकल्पनाएं अवधारणात्मक दृष्टि से स्पष्ट होनी चाहिए । उपकल्पना का सम्बन्ध आनुभाविक प्रयोगसिद्धता से होना चाहिए । उपकल्पनाएं विशिष्ट होनी चाहिए । उपकल्पना का सम्बन्ध उपलब्ध प्रविधियों से होना चाहिए । उपकल्पनाओं का सम्बन्ध सिद्धांत समूह से होना चाहिए ।
10- डॉ. सुरेंद्र सिंह ने उपकल्पनाओं को दो भागों में विभाजित किया है : तात्विक उपकल्पना तथा सांख्यिकीय उपकल्पना । विद्वान लेखक हेज ने भी दो प्रकार की उपकल्पना की चर्चा की है : सरल उपकल्पना और जटिल उपकल्पना । सांख्यिकीय परिकल्पनाओं को दो भागों में विभाजित किया है : प्रायोगिक परिकल्पना और सून्य उपकल्पना । सून्य परिकल्पना वह परिकल्पना है जो यह बताती है कि दो चर, जिनमें सम्बन्ध ज्ञात करने जा रहे हैं, उनमें कोई अंतर नहीं है । गैरेट के अनुसार, “सून्य उपकल्पना की यह मान्यता है कि समष्टि के दो प्रतिदर्श मध्यमानों में सत्य अन्तर नहीं है और यदि प्रतिदर्श मध्यमानों में कोई अंतर नहीं है तो यह संयोग जन्य है और महत्वपूर्ण नहीं है ।”
11- जॉन गालटुंग ने उपकल्पनाओं के दस आयामों का उल्लेख किया है : सामान्यतया, जटिलता, विशिष्टता, निश्चयवादिता, मिथ्यात्मकता, परीक्षणीयता, भविष्यवाणियता, संवहनशीलता, पुनरुत्पादकता और विश्वसनीयता । सामाजिक अनुसंधान में उपकल्पना समुद्रों में जहाज़ों को रास्ता दिखानेवाले प्रकाश स्तम्भ के समान है जो अनुसंधानकर्ता को इधर-उधर भटकने से बचाता है । एम. कोहेन के अनुसार, “उपकल्पनाओं के बिना अथवा प्रकृति में आशा किए बिना आनुभाविक तथ्यों के संचय के ढंग के माध्यम से भी वैज्ञानिक अंतर्दृष्टि में वास्तविक प्राप्ति नहीं हो सकती । पथ प्रदर्शन करने वाले किसी न किसी विचार के बिना हम यह नहीं जानते कि किन तथ्यों का संग्रह करना है ।सिद्ध करने के लिए किसी वस्तु के बिना हम यह निश्चित नहीं कर सकते हैं कि क्या संगत और क्या असंगत है ।”
12- उपकल्पना का महत्व यह है कि वह अध्ययन में निश्चितता स्थापित करती है । उपकल्पना अध्ययन क्षेत्र को सीमित करने में सहायक सिद्ध होती है । उपकल्पना अनुसंधान की दिशा तय करने में मदद करती है । उपकल्पना उद्देश्य को स्पष्ट करती है । उपकल्पना उपयोगी तथ्यों के संकलन में सहायक होती है । वह तर्क संगत निष्कर्षों में सहायक होती है । उपकल्पना सिद्धांतों के निर्माण में योगदान देती है । परिकल्पना चरों के विशिष्ट सम्बन्धों पर प्रकाश डालती है । परिकल्पना से अध्ययन का पुनः परीक्षण सम्भव हो जाता है । परिकल्पना के निर्माण की कुछ कमियों को भी पहचाना गया है जो इस प्रकार हैं : अनुसंधानकर्ता की असावधानी, सामाजिक घटनाओं की जटिलता, सिद्धांत की कमियाँ, सांस्कृतिक विशेषताएँ, अनुसंधान क्षेत्र का पूर्ण ज्ञान न होना, पूर्व अनुसंधानों का ज्ञान न होना तथा मापन यन्त्रों एवं उपकरणों की जानकारी का अभाव, इत्यादि ।
13- सिद्धांत निर्माण में उपकल्पना की भूमिका को स्पष्ट करते हुए टॉलकौट पारसंस ने लिखा है कि, “एक वैज्ञानिक सिद्धांत को अनुभवाश्रतिता के सन्दर्भ में तार्किक रूप से परस्पर सम्बन्धित सामान्य अवधारणाओं के रूप में परिभाषित किया जा सकता है ।” गुडे एवं हट्ट के अनुसार, “सिद्धांत तथ्यों के अन्तर्सम्बन्धों अथवा इनको किसी अर्थपूर्ण विधि से व्यवस्थित करने का नाम है ।” रॉबर्ट के. मर्टन के अनुसार, “एक वैज्ञानिक द्वारा अपने परीक्षणों के आधार पर तर्क वाक्यों के रूप में सुझाए गए तार्किक परस्पर सम्बन्धित अवधारणा ही एक सिद्धांत को बनाते हैं ।” इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि उपकल्पना एक विचार है, एक तर्क वाक्य होता है और यह अनुसंधान की दिशा निर्धारित करती है ।उपकल्पना यह व्यक्त करती है कि हमें किस चीज़ की तलाश है । जब तथ्यों को एकत्रित करके उन्हें व्यवस्थित करते हुए उनके पारस्परिक सम्बन्धों की स्थापना की जाती है तो सिद्धांत का निर्माण होता है ।
14- अनुसंधान प्ररचना एक ऐसी योजना या रूपरेखा है जो समस्या के प्रतिपादन से लेकर अनुसंधान प्रतिवेदन के अंतिम चरण तक के विषय में भलीभाँति सोच- समझकर तथा समस्त उपलब्ध विकल्पों पर ध्यान देकर इस प्रकार से निर्णय लेती है कि न्यूनतम प्रयासों, समय एवं लागत से अधिकतम अनुसंधान उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके । सेलिज, जहोदा, ड्यूश एवं कुक ने अपनी पुस्तक रिसर्च मेथड्स इन सोशल रिलेशन में लिखा है कि, “एक अनुसंधान प्ररचना ऑंकडों के एकत्रीकरण एवं विश्लेषण के लिए उन दशाओं का प्रबन्ध करती है जो अनुसंधान के उद्देश्यों की संगतता को कार्यरीतियों में आर्थिक नियंत्रण के साथ सम्मिलित करने का उद्देश्य रखती हैं ।”
15- अनुसंधान प्ररचना को परिभाषित करते हुए आर.एल.एकॉफ ने अपनी पुस्तक द डिज़ाइन ऑफ सोशल रिसर्च में लिखा है कि, “प्ररचित करना नियोजित करना है, अर्थात् प्ररचना उस परिस्थिति के उत्पन्न होने के पूर्व निर्णय लेने की प्रक्रिया है जिसमें निर्णय को लागू किया जाना है । यह एक सम्भावित स्थिति को नियंत्रण में लाने की एक पूर्व आशा की प्रक्रिया है ।” सेनफोर्ड लेबोबिज एवं रॉबर्ट हैगडार्न ने अपनी पुस्तक इन्ट्रोडक्शन टू सोशल रिसर्च में लिखा है कि, “एक अनुसंधान प्ररचना उस तार्किक ढंग को प्रस्तुत करती है, जिसमें व्यक्तियों एवं अन्य इकाइयों की तुलना एवं विश्लेषण किया जाता है । यह ऑंकडों के लिए विवेचन का आधार है । प्ररचना का उद्देश्य ऐसी तुलना का आश्वासन दिलाना है, जो विकल्पीय विवेचनों से प्रभावित न हो ।”
16- अनुसंधान प्ररचना को परिभाषित करते हुए एफ. एम. कर्लिंगर ने अपनी पुस्तक फ़ाउन्डेशन ऑफ बिहेवरीयल रिसर्च में लिखा है कि, “अनुसंधान प्ररचना अन्वेषण की योजना, संरचना एवं एक रणनीति है जिसकी रचना इस प्रकार की जाती है कि अनुसंधान प्रश्नों के उत्तर प्राप्त हो सकें तथा विविधताओं को नियंत्रित किया जा सके । यह प्ररचना या योजना अनुसंधान की सम्पूर्ण रूपरेखा अथवा कार्यक्रम है, जिसके अंतर्गत प्रत्येक चीज की रूपरेखा सम्मिलित होती है जो अनुसंधानकर्ता उपकल्पनाओं के निर्माण एवं उनके परिचालनात्मक अभिप्रायों से लेकर ऑंकडों के अंतिम विश्लेषण तक करता है ।” बरलसन बी. के शब्दों में, “अनुसंधान प्ररचना को अध्ययन की तार्किक युद्ध नीति के रूप में बहुत अच्छे ढंग से परिभाषित किया जाता है ।”
17- अनुसंधान प्ररचना को परिभाषित करते हुए अल्फ्रेड जे. कान्ह ने लिखा है कि, “अनुसंधान प्ररचना की सर्वोत्तम परिभाषा अध्ययन की तार्किक युक्ति के रूप में की जा सकती है । यह एक प्रश्न का उत्तर देने, परिस्थिति का वर्णन करने अथवा परिकल्पना का परीक्षण करने से सम्बन्धित है ।” इस प्रकार उपरोक्त सभी परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि अनुसंधान प्ररचना, अनुसंधानकर्ता को एक निश्चित दिशा का बोध कराती है । वह सामाजिक घटनाओं की जटिल प्रकृति को सरल रूप में प्रस्तुत करती है । अनुसंधान प्रक्रिया के दौरान आगे आने वाली परिस्थितियों को नियंत्रित करती है तथा मानवीय श्रम को कम कर अच्छा परिणाम हासिल करने में सहायता देती है ।
18- अनुसंधान अभिकल्प की विषयवस्तु में, शोध का विषय, अध्ययन की प्रकृति, प्रस्तावना एवं पृष्ठभूमि, अध्ययन का सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं भौगोलिक सन्दर्भ, अवधारणा, चर एवं प्रकल्पना, काल- निर्देश, तथ्य सामग्री के चयन के आधार एवं संकलन प्रविधियाँ, विश्लेषण एवं निर्वचन तथा सर्वेक्षण काल, समय एवं धन को सम्मिलित किया जाता है । यंग एवं रोले ने एक आदर्श अनुसंधान अभिकल्प में बारह बातों को शामिल किया है : शोध विषय की प्रकृति, घटनाओं की संख्या, सामाजिक- भौतिक परिवेश, घटनाओं को चुनने का प्राथमिक आधार, समय का तत्व, शोधकर्ता के नियंत्रण की सीमा, आधार सामग्री का मूल स्रोत, आधार सामग्री को एकत्र करने की पद्धति, शोध में प्रयुक्त चरों या गुणों की संख्या, एक गुण का विश्लेषण करने की पद्धति, विभिन्न चरों के गुणों का विश्लेषण तथा सामूहिक रूप में व्यवस्था के गुणों का विश्लेषण ।
19- अनुसंधान प्ररचना के सामान्यतया छह चरण माने जाते हैं : अध्ययन किये जाने वाले विषय को स्पष्ट करना, अध्ययन अभिकल्प का प्रारूप तैयार करना, प्रतिदर्श को नियोजित करना, आधार सामग्री का संग्रहण करना, आधार सामग्री का विश्लेषण करना तथा रिपोर्ट तैयार करना । ब्लैक एवं चैम्पियन ने अनुसंधान प्ररचना के तीन प्रमुख कार्य बताया है : यह रूपरेखा उपलब्ध कराता है, यह अनुसंधान क्रिया को सीमित करता है तथा यह सम्भावित समस्याओं का पूर्वानुमान लगाकर अन्वेषण को आसान बनाता है । इसी प्रकार बर्गर एवं हेनरी मेनहेम ने भी अनुसंधान प्ररचना के कार्य बताया है ।
20- अनुसंधान अभिकल्प के स्वरूप का निर्धारण करते हुए पी. वी. यंग ने निम्नलिखित भागों को सम्मिलित किया है : स्रोत (सरकारी, गैर सरकारी, समाचार पत्र, पुस्तकालय), अध्ययन की प्रकृति (व्यक्तिगत, तुलनात्मक, प्रायोगिक), अनुसंधान के उद्देश्य, अध्ययन का सामाजिक सांस्कृतिक सन्दर्भ, भौगोलिक क्षेत्र का अध्ययन, समय अवधि, अध्ययन के आयाम, तथ्य सामग्री को चयनित करने का आधार तथा तथ्य सामग्री को एकत्रित करने की पद्धति। क्लेयर सेलिज ने अपनी पुस्तक, रिसर्च मेथड्स इन सोशल रिलेशन में अनुसंधान प्ररचना का वर्गीकरण तीन भागों में किया है : प्रतिपादनात्मक अथवा अन्वेषणात्मक अध्ययन, विवरणात्मक अथवा निदानात्मक अध्ययन और प्रयोगात्मक अध्ययन ।
21- प्रतिपादनात्मक अथवा अन्वेषणात्मक अनुसंधान प्ररचना का सम्बन्ध नवीन तथ्यों की खोज एवं मानवीय ज्ञान में वृद्धि करना है । इसका उद्देश्य किसी सामाजिक घटना के अंतर्निहित कारणों को ढूँढ निकालना होता है । इन कारणों के ढूँढ निकालने की सम्बद्ध रूपरेखा को अन्वेषणात्मक अनुसंधान प्ररचना कहा जाता है । अनुसंधान विषय की जानकारी करना, अनुसंधान की सम्भावनाओं एवं क्षेत्र का निर्णय, अवधारणाओं का स्पष्टीकरण एवं नवीन अवधारणाओं की खोज तथा उपकल्पनाओं का निर्माण इस अनुसंधान प्ररचना के उद्देश्य हैं । इस प्ररचना में सम्बन्धित साहित्य का सर्वेक्षण एवं सिंहावलोकन किया जाता है । समाज के अनुभवी व्यक्तियों से सम्बद्ध विषय पर बातचीत की जाती है । आवश्यकतानुसार एकल- विषय अध्ययन भी किया जाता है ।
22- विवरणात्मक अथवा निदानात्मक अनुसंधान प्ररचना में एक दी हुई परिस्थिति की विशेषताओं को व्यक्त करने का प्रयास किया जाता है । इस प्ररचना के उद्देश्य हैं : समूह अथवा परिस्थिति के लक्षणों का परिशुद्ध वर्णन, किसी चर की आवृत्ति निश्चित करना तथा चरों के साहचर्य के विषय में पता लगाना । अनुसंधान उद्देश्यों का निरूपण, तथ्य संकलन एवं पद्धतियों का चयन, निदर्शन का चयन, आधार सामग्री का संकलन एवं परीक्षण, परिणामों का विश्लेषण एवं प्रतिवेदन, वर्णनात्मक अनुसंधान प्ररचना के चरण होते हैं ।इन समस्त चरणों से सफलतापूर्वक गुजरने के साथ ही वर्णनात्मक अनुसंधान प्ररचना के उद्देश्यों की प्राप्ति होती है । निदानात्मक प्ररचना में समस्या के निदान से सम्बन्धित ब्योरा प्रस्तुत किया जाता है ।
23- प्रयोगात्मक अनुसंधान प्ररचना प्रयोग की अवधारणा पर आधारित है । प्रयोग मूलतः एक प्रकार का नियंत्रण अन्वेषण है । आर. एल. एकॉफ ने लिखा है कि, “प्रयोग एक क्रिया है और एक ऐसी क्रिया है जिसे हम अन्वेषण कहते हैं ।” यह प्ररचना दो प्रकार की होती है : केवल पश्चात् परीक्षण तथा पूर्व पश्चात् परीक्षण । एक अच्छे अनुसंधान अभिकल्प निर्माण के लिए आवश्यक है कि उसमें लचीलापन परिशुद्धता और विश्वसनीयता होना चाहिए । पुस्तकालय पत्रिकाओं आदि का प्रयोग किया जाना चाहिए । सारभूत अवधारणाओं के चुनाव में सावधानी बरतें और चरों को परिभाषित करते हुए उनके मूल्यों का वर्णन करें ।
24- अनुसंधान कार्य मुख्यतः दो पद्धतियों के आधार पर किया जाता है : संगणना पद्धति और निदर्शन पद्धति । संगणना पद्धति में समग्र अथवा क्षेत्र की सभी इकाइयों का अध्ययन किया जाता है जबकि समग्र में से कुछ इकाइयों को अध्ययन के लिए प्रतिनिधि के रूप में चयन कर लेना न्यादर्श अथवा प्रतिचयन या निदर्शन कहलाता है । संगणना पद्धति का उपयोग उन अनुसंधानों में उपयोगी होता है जहाँ : अनुसंधान का क्षेत्र सीमित हो, जिनमें विविध गुणों वाली इकाइयाँ हों, जब प्रत्येक इकाई का अध्ययन आवश्यक हो, जब अनुसंधानों में परिशुद्धता की अत्यधिक मात्रा अपेक्षित हो और जहां अनुसंधानकर्ता को पर्याप्त साधन उपलब्ध हों ।
25- न्यादर्श पद्धति के बारे में पी. वी. यंग ने लिखा है कि, “एक सांख्यिकीय प्रतिदर्श सम्पूर्ण समूह अथवा योग का ही एक अति छोटे आकार का चित्र है ।” गुडे तथा हट्ट के शब्दों में, “प्रतिदर्श, जैसा कि नाम से स्पष्ट है कि एक विस्तृत समूह का छोटा प्रतिनिधि है ।” चैपलिन के अनुसार, “प्रतिदर्श किसी जनसंख्या का वह भाग है जो जनसंख्या का प्रतिनिधि होता है ।” रेबर के शब्दों में, “प्रतिदर्श किसी जनसंख्या का वह भाग है जिसका चयन कुछ इस तरह से किया जाता है कि उसे उस जनसंख्या का सामूहिक रूप से प्रतिनिधि समझा जा सके ।” करलिंगर के अनुसार, “किसी जनसंख्या या समष्टि से उसके प्रतिनिधिस्वरूप एक अंश चुन लेने को प्रतिचयन कहते हैं ।” जॉन गाल्टुंग के शब्दों में, “अध्ययन के लिए चुनी गई इकाइयों का समूह सम्भावित इकाइयों के सम्पूर्ण समूह का उप– समूह है ।”
26- एक अच्छे न्यादर्श के लिए ज़रूरी है कि वह : जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करे, प्रतिदर्श का आकार उचित हो, इकाइयों को चुने जाने की समान सम्भावना हो, प्रतिचयन पक्षपात रहित होना चाहिए, अध्ययन इकाइयों का उचित अनुपात होना चाहिए, अनुसंधान उद्देश्यों के अनुरूप हो, कम खर्चीला होना चाहिए, प्रतिदर्श सम्भाव्यता सिद्धांत पर आधारित हो, प्रतिचयन अशुद्धियों से मुक्त हो, प्रतिचयन तर्क पर आधारित हो तथा उसकी विश्वसनीयता उच्च स्तर की हो । मिलड्रेड पार्टेन के शब्दों में, “एक सर्वेक्षण में वह निदर्शन उत्तम होता है जो कुशलता, प्रतिनिधित्व, विश्वसनीयता तथा लोच की आवश्यकताओं की पूर्ति करता हो । अनावश्यक व्यय बचाने की दृष्टि से निदर्शन पर्याप्त छोटा होना चाहिए ।”
27- न्यादर्श प्रणाली के गुण : इस पद्धति के प्रयोग से धन और समय तथा श्रम की बचत होती है । अध्ययन में गहनता आती है तथा परिणामों में शुद्धता रहती है । शोधकर्ताओं के लिए यह बहुत सुविधाजनक रहती है । इसमें प्रशासनिक सुविधा के साथ ही संगणना पद्धति की कठिनाइयों से छुटकारा मिल जाता है । इसमें व्यावहारिकता का गुण होता है । यह प्रयोगात्मक अध्ययनों के लिए अधिक उपयुक्त है । इस पद्धति से प्राप्त ऑंकडों में विश्वसनीयता और बोधगम्यता रहती है । इस पद्धति से प्राप्त ऑंकडों को सरलतापूर्वक प्रस्तुत किया जा सकता है । इसके साथ ही निदर्शन पद्धति के कुछ दोष भी माने जाते हैं : उचित प्रतिनिधित्व की समस्या, पक्षपात की सम्भावना, आधारभूत एवं विशेष ज्ञान की आवश्यकता, प्रतिदर्श चुनने में कठिनाई, प्रतिदर्श इकाइयों की अस्थिरता इत्यादि ।
28- प्रतिचयन के सोपान : प्रतिदर्श चयन के लिए आवश्यक है कि, अध्ययन उद्देश्यों को परिभाषित किया जाए, चुनाव के पूर्व समष्टि को स्पष्ट किया जाए, स्रोत सूची की पूरी जानकारी हासिल किया जाए, प्रतिदर्श की इकाइयों को निर्धारित किया जाए, अर्थपूर्ण एवं आवश्यक ऑंकडों का चयन किया जाए । मापन विधि को परिभाषित किया जाए । एक निर्देश सूची बनाया जाए । प्रतिचयन विधि का चयन किया जाए । आवश्यकतानुसार पूर्व परीक्षण किया जाए । ऑंकडों का विश्लेषण तथा सारांश तैयार किया जाए ।
29- न्यादर्श के चयन की प्रमुख पद्धतियाँ : दैव (संयोग) न्यादर्श पद्धति, उद्देश्यपूर्ण न्यादर्श पद्धति तथा वर्गीय निदर्शन पद्धति । अनियमित प्रतिदर्श चुनने की अग्रलिखित प्रचलित विधियाँ हैं : लाटरी विधि, कार्ड या टिकिट विधि, नियमित अंकन प्रणाली, अनियमित अंकन प्रणाली, टिप्पेट प्रणाली तथा ग्रिड प्रणाली । दैव न्यादर्श पद्धति के द्वारा प्रतिदर्श चुनने के लिए सर्वप्रथम सम्पूर्ण जनसंख्या की इकाइयों की सूची बनाकर उसकी प्रत्येक इकाई को समान मात्रा में महत्व देते हुए आवश्यक इकाइयों को बिना किसी भी पक्षपात के चुन लिया जाता है । करलिंगर के अनुसार, “संयोगिक प्रतिचयन वह विधि है जिससे समष्टि के एक अंश या प्रतिदर्श का इस प्रकार चयन किया जाता है कि उस समष्टि की प्रत्येक इकाई को चुनने का समान संयोग रहता है ।” हार्पर के अनुसार, “एक दैव न्यादर्श वह निदर्शन है जिसका चयन इस प्रकार हुआ हो कि समग्र की प्रत्येक इकाई को सम्मिलित होने का समान अवसर प्राप्त हुआ हो ।”
30- उद्देश्यपूर्ण निदर्शन पद्धति वह प्रणाली है जहाँ अध्ययनकर्ता सम्पूर्ण समूह में से किसी विशेष उद्देश्य से कुछ इकाइयाँ निदर्शन के रूप में चयनित करता है । एडोल्फ जेन्सन के अनुसार, “सविचार निदर्शन से अर्थ है इकाइयों के समूह की एक संख्या को इस प्रकार चयन करना कि चयनित समूह मिलकर उन विशेषताओं के सम्बन्ध में यथासम्भव वही औसत तथा अनुपात प्रदान करें जो कि समग्र में है और जिनकी सांख्यिकीय जानकारी पहले से ही है ।” जे. पी. गिलफोर्ड के शब्दों में, “उद्देश्य पूर्ण प्रतिदर्श एक स्वेच्छानुसार चयन किया गया प्रतिदर्श होता है । इस सम्बन्ध में इस तथ्य का ठोस प्रमाण रहता है ऐसा प्रतिदर्श सम्पूर्ण सृष्टि का पूर्णरूपेण प्रतिनिधित्व करता है ।”
31- वर्गीय निदर्शन प्रणाली में समग्र को सजातीय वर्गों में बाँटकर प्रत्येक वर्ग में निश्चित संख्या में इकाइयाँ दैव निदर्शन आधार पर चयनित की जाती हैं । पार्टेन के अनुसार, “इसमें प्रत्येक श्रेणी के अंतर्गत मामलों का अंतिम चुनाव तो संयोग द्वारा की होता है ।” समानुपातिक वर्गीय निदर्शन, असमानुपातिक वर्गीय निदर्शन तथा भारयुक्त वर्गीय निदर्शन, वर्गीय निदर्शन के प्रकार हैं । निदर्शन प्रणाली के अन्य प्रकार : क्षेत्रीय निदर्शन प्रणाली, बहुस्तरीय निदर्शन प्रणाली, सुविधाजनक निदर्शन प्रणाली, स्वयं चयनित निदर्शन प्रणाली, पुनरावृत्ति निदर्शन प्रणाली, अभ्यंश निदर्शन प्रणाली आदि ।
32- क्षेत्रीय निदर्शन प्रणाली के अंतर्गत विभिन्न छोटे-छोटे क्षेत्रों में से किसी एक का चयन कर लिया जाता है और उसी क्षेत्र में रहने वाले समस्त लोगों का सम्पूर्ण अध्ययन किया जाता है । बहुस्तरीय निदर्शन प्रणाली का प्रयोग बहुत बड़े क्षेत्र से निदर्शन निकालने के लिए किया जाता है । सुविधाजनक निदर्शन प्रणाली का चयन अनुसंधानकर्ता अपनी सुविधानुसार करता है । स्वयं चयनित निदर्शन प्रणाली में सम्बन्धित व्यक्ति स्वयं ही उसके अंग बन जाते हैं । पुनरावृत्ति निदर्शन प्रणाली में निदर्शन कार्य एक बार न होकर अनेक बार होता है । अभ्यंस निदर्शन प्रणाली में समग्र को कई वर्गों में विभाजित किया जाता है ।
33- निदर्शन प्रणाली की अनेक समस्याएँ हैं : आकार की समस्या, समग्र की प्रकृति, अध्ययन की प्रकृति, वर्गों की संख्या, उपलब्ध साधन एवं स्रोत की समस्या, निदर्शन प्रणाली के चयन की समस्या, परिशुद्धता की मात्रा की समस्या, चयनित इकाइयों की प्रकृति की समस्या और अध्ययन के उपकरणों की समस्या । इसके अलावा अभिनति निदर्शन की भी कुछ समस्याएँ होती हैं । अभिनति निम्नलिखित कारणों से उत्पन्न हो सकती है : आकार छोटा होने से, दोषपूर्ण वर्गीकरण होने से, अपूर्ण स्रोत सूची के कारण तथा दोषपूर्ण दैव निदर्शन के कारण ।
34- सामाजिक अनुसंधान के में क्षेत्रीय अथवा प्रलेखीय आधार पर हम जो भी सामग्री एकत्र करते हैं वह ऑंकडा कहलाती है । ऑंकडा या डेटा शब्द बहुवचन है । इसके एकवचन को डेटम कहते हैं । ऑंकडा शब्द से हमारा अभिप्राय प्रत्युत्तरों के अभिलेखन से है । ऑंकडों की एक सामान्य संरचना के तीन अंग होते हैं : विश्लेषण के तत्व अथवा विश्लेषण की इकाइयाँ, विमितियॉं अथवा चर और इकाइयों के मूल्य । जॉन गॉल्टुंग ने ऑंकडों से संबंधित निम्नलिखित सिद्धांतों का उल्लेख किया है : तुलनात्मकता का सिद्धांत, वर्गीकरण का सिद्धांत, पूर्णता का सिद्धांत, अभ्यंतर रागात्मकता अथवा विश्वसनीयता का सिद्धांत, अन्तर्रागात्मकता का सिद्धांत और प्रामाणिकता का सिद्धांत ।
35- ऑंकडों के संकलन का महत्व यह है कि इससे: अनुसंधान का आधार मज़बूत होता है, कार्य- कारण सम्बन्ध की खोज की जाती है । इससे यथार्थ का बोध होता है । यह समस्या के निदान में सहायक होता है । तुलनात्मक अध्ययनों में सहायक होता है ।परिवर्तन के अध्ययन में भी सहायक होता है । यह प्रशासन के लिए महत्वपूर्ण होता है तथा नियोजन के लिए आवश्यक है । सामान्यतया ऑंकडों के दो प्रकारों का उल्लेख दो आधारों पर किया जाता है : प्रकृति के आधार पर और मौलिकता के आधार पर । प्रकृति के आधार पर ऑंकडों को पुनः दो भागों में विभाजित किया जाता है : गणनात्मक ऑंकडे और गुणात्मक ऑंकडे । मौलिकता के आधार पर भी ऑंकडों को दो भागों में विभाजित किया जाता है : प्राथमिक ऑंकडे और द्वितीयक ऑंकडे ।
36- प्राथमिक ऑंकडा उसे कहते हैं जिसके अंतर्गत अनुसंधानकर्ता स्वयं घटना स्थल पर जाकर या सम्बन्धित व्यक्तियों से साक्षात्कार, प्रश्नावली और अनुसूची द्वारा ऑंकडे प्राप्त करता है । श्रीमती पी. वी. यंग के शब्दों में, “प्राथमिक सामग्री सबसे पहले स्तर पर इकट्ठी की जाती है एवं इसके संकलन तथा प्रशासन का उत्तरदायित्व उस अधिकार पर रहता है जिसने मौलिक रूप से उन्हें एकत्र किया था ।” रॉबर्ट्सन तथा राइट के अनुसार, “ वे प्राथमिक तथ्य होते हैं, जिन्हें एक विशेष शोध समस्या को हल करने के लिए विशेष उद्देश्य हेतु संकलित किया गया हो ।” प्राथमिक ऑंकडों को एकत्रित करने के दो स्रोत हैं : समस्या से सम्बन्धित व्यक्ति तथा प्रत्यक्ष अवलोकन द्वारा ।
37- द्वितीयक ऑंकडे उन ऑंकडों को कहा जाता है जिनका पहले से ही अन्य व्यक्तियों या संस्थाओं द्वारा संकलन एवं प्रकाशन किया जा चुका है एवं अनुसंधानकर्ता केवल उनका प्रयोग करता है । ब्लेयर के अनुसार, “द्वितीयक ऑंकडे वे हैं जो पहले से ही अस्तित्व में हैं और जो वर्तमान प्रश्नों के उत्तर नहीं बल्कि किन्हीं दूसरे उद्देश्यों के लिए एकत्रित किए जाते हैं ।” श्रीमती पी. वी. यंग के शब्दों में, “द्वितीयक तथ्य सामग्री वह है जिन्हें मौलिक स्रोतों से एक बार प्राप्त कर लेने के पश्चात् काम में लिया गया हो एवं जिनका प्रसारण अधिकारी उस व्यक्ति से भिन्न होता है जिसने प्रथम बार तथ्य संकलन को नियंत्रित किया था ।” द्वितीयक ऑंकडों के दो स्रोत होते हैं : व्यक्तिगत प्रलेख एवं सार्वजनिक प्रलेख ।
38- जार्ज लुण्डबर्ग ने ऑंकडों के दो प्रमुख स्रोतों का उल्लेख किया है : ऐतिहासिक स्रोत और क्षेत्रीय स्रोत । प्रोफ़ेसर बेगले के अनुसार दो प्रमुख स्रोत हैं : प्राथमिक स्रोत और द्वितीयक स्रोत । प्राथमिक स्रोतों को दो भागों में विभाजित किया जाता है : प्रत्यक्ष प्राथमिक स्रोत और अप्रत्यक्ष प्राथमिक स्रोत । प्रत्येक प्राथमिक स्रोत को दो प्रमुख भागों में विभाजित किया जाता है : अवलोकन और साक्षात्कार । अवलोकन तीन प्रकार का होता है : सहभागी अवलोकन, अर्द्ध- सहभागी अवलोकन और असहभागी अवलोकन । साक्षात्कार भी दो प्रकार से सम्पन्न किया जाता है : प्रत्यक्ष साक्षात्कार तथा प्रश्न अनुसूची । अप्रत्यक्ष प्राथमिक स्रोत : रेडियो अपील, दूरभाष साक्षात्कार और दलीय पद्धति ।
39- प्राथमिक स्रोत विश्वसनीय, स्वाभाविक, विषय पर आधारित और कम खर्चीले होते हैं परन्तु इसमें पक्षपात का भय रहता है । अनुसंधान के द्वितीयक स्रोतों में व्यक्तिगत प्रलेख, डायरियॉं, पत्र और संस्मरण शामिल किए जाते हैं। अनुसंधान में सार्वजनिक प्रलेख भी सम्मिलित होते हैं । यह सार्वजनिक प्रलेख दो प्रकार के होते हैं : प्रकाशित प्रलेख और अप्रकाशित प्रलेख । प्रकाशित प्रलेख के अन्तर्गत : अंतरराष्ट्रीय प्रकाशन, सरकारी प्रकाशन, अर्द्ध सरकारी प्रकाशन, समितियों और आयोगों की रिपोर्ट, अनुसंधान एवं शोध संस्थानों के प्रकाशन, व्यापारिक संस्थाओं एवं परिषदों के प्रकाशन तथा पत्र- पत्रिकाएँ व व्यक्तिगत अनुसंधान सम्मिलित होते हैं । अप्रकाशित प्रलेख में गोपनीय रिकॉर्ड, दुर्लभ हस्तलेख और शोध रिपोर्ट आते हैं ।
40- प्रश्नावली ऑंकडों के संकलन की एक तकनीक है । प्रश्नावली अनेक प्रश्नों से युक्त एक ऐसी सूची होती है, जिसमें अध्ययन विषय से सम्बन्धित विभिन्न पक्षों के बारे में पहले से तैयार किए गए प्रश्नों का समावेश होता है । बोगार्ड्स के अनुसार, “प्रश्नावली विभिन्न व्यक्तियों को उत्तर देने के लिए दी गई प्रश्नों की एक तालिका है । इससे निश्चित प्रमापीकृत परिणाम प्राप्त होते हैं जिनका सारणीयन किया जा सकता है तथा सांख्यिकीय उपयोग भी संभव है ।” वॉन डैलन के शब्दों में, “प्रश्नावली एक उपकरण है, जो शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वालों के द्वारा वर्तमान परिस्थितियों तथा क्रियाओं के विषय में तथा अभिवृत्ति एवं मत को ज्ञात करने के लिए व्यापक रूप में प्रयोग किया जाता है ।”
41- प्रश्नावली को परिभाषित करते हुए अलोलकर ने लिखा है कि, “प्रश्नावली विचारपूर्वक और निश्चित रूप से चुने हुए शब्दों वाले प्रश्नों की एक सूची है । प्रश्नावली डॉक द्वारा या व्यक्तिगत रूप से उन्हें दिया जा सकता है या साक्षात्कार करने वाला व्यक्ति प्रश्नावली के प्रश्नों को स्मरण रखकर उनको अपनी बात-चीत के दौरान पूछ सकता है ।” जे. डी. पोप के अनुसार, “प्रश्नावली प्रश्नों का वह समूह है जिनके उत्तर सूचनादाता अनुसंधानकर्ता की व्यक्तिगत सहायता के बिना देता है ।” इस प्रकार प्रश्नावली प्रश्नों की एक ऐसी अनुसूची होती है जिसे डाक या अन्य किसी मानवीय संस्था के माध्यम से उत्तरदाता को भेजा जाता है और उत्तरदाता उनके उत्तरों को भरकर अनुसंधानकर्ता को लौटाता है ।
42- एक अच्छी प्रश्नावली की विशेषताएँ : प्रश्नों की संख्या संतुलित होनी चाहिए अर्थात् न बहुत कम और न ही बहुत अधिक । प्रश्नों का क्रम इस प्रकार से हो कि पिछले प्रश्न का उत्तर अगले प्रश्न से क्रमिक सम्बन्ध होना चाहिए । प्रश्नों की भाषा सरल और स्पष्ट होनी चाहिए । ऐसे प्रश्न नहीं पूछे जाने चाहिए जिनका उत्तर देने में उत्तरदाता संकोच करे । प्रश्नों का वर्गीकरण होना चाहिए जैसे -विवाह सम्बन्धी प्रश्न, शिक्षा सम्बन्धी और व्यवसाय सम्बन्धी प्रश्न । प्रश्नावली का आकार भी संतुलित होना चाहिए । विषय से सम्बन्धित सभी पक्षों को प्रश्नों में समान महत्व दिया जाना चाहिए । प्रश्नों के साथ एक आमुख पत्र भी भेजा जाना चाहिए जिसमें प्रश्नावली के उद्देश्य एवं सूचनादाता के सहयोग के महत्व को स्पष्ट किया गया हो ।
43- प्रश्नावली के उद्देश्य : प्रश्नावली अध्ययन की सुविधा और सरलता के लिए बनायी जाती है । प्रश्नावली के माध्यम से दूरस्थ तथा विस्तृत क्षेत्रों का अध्ययन किया जा सकता है । प्रश्नावली की सहायता से समस्या का व्यवस्थित अध्ययन किया जाता है । प्रश्नावली के माध्यम से वस्तुपरक अध्ययन किया जा सकता है और निजी विचारों, मतों, भावनाओं और पक्षपातों से बचा जा सकता है । प्रश्नावली ऑंकडों के संकलन में कम खर्चीली होती है । प्रश्नावली की सहायता से अध्ययन अपेक्षाकृत शीघ्र होता है । लुण्डबर्ग ने प्रश्नावली के दो प्रकार बताए हैं : तथ्य सम्बन्धी प्रश्नावली तथा मत एवं मनोवृत्ति सम्बन्धी प्रश्नावली । श्रीमती पी. वी. यंग ने भी प्रश्नावली के दो प्रकार बताए हैं : संरचित प्रश्नावली और असंरचित प्रश्नावली । करलिंगर के अनुसार : बन्द प्रश्नों वाली प्रश्नावली और निश्चित विकल्प वाले प्रश्नों की प्रश्नावली ।
44- प्रश्नावली के प्रकार : संरचित प्रश्नावली, असंरचित प्रश्नावली, बन्द प्रश्नावली, खुली हुई प्रश्नावली, तथ्य सम्बन्धी प्रश्नावली, मत या अभिवृत्ति प्रश्नावली, चित्रमय प्रश्नावली और मिश्रित प्रश्नावली । प्रश्नावली के निर्माण में निम्नलिखित चीज़ों का ध्यान रखना चाहिए : वांछित सूचनाओं का निर्धारण अर्थात् अध्ययनकर्ता को विषय के किन- किन पक्षों से सम्बन्धित तथ्यों का संग्रह करना है । प्रश्नावली के प्रकार का निर्धारण अध्ययन की प्रकृति, उत्तरदाताओं की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए करना चाहिए । प्रश्नों का निर्माण इस ढंग से हो कि वह अधिक से अधिक यथार्थ और गहन सूचनाएँ प्राप्त कर सके । अनुपयोगी, दोषपूर्ण और पक्षपात रहित प्रश्नों को शामिल करना चाहिए । प्रश्नों की वाह्य आकृति अर्थात् काग़ज़ का आकार, रूप रंग तथा प्रिंटिंग आकर्षक हो ।
45- प्रश्नावली की विश्वसनीयता तब संदेह के घेरे में आती है जबकि, प्रश्न ग़लत एवं असंगत हों, निदर्शन पक्षपात पूर्ण हो, उत्तर नियंत्रित एवं पक्षपात पूर्ण हो, प्रश्नावली में दिये गए उत्तरों में विश्वसनीयता का अभाव हो । यदि उपरोक्त बातें हो तो अवश्य ही प्रश्नावली को पुनः संशोधित किया जाए । यह ध्यान रखना चाहिए कि बच्चों के किसी भी अध्ययन में प्रश्नावली का प्रयोग न किया जाए । सीज़र ने लिखा है कि, “प्रश्नावली द्वारा प्राप्त उत्तरों से यह पता लगाना असम्भव है कि कौन सा उत्तर सूचनादाता का लापरवाही पूर्ण अनुमान है और कौन सा जानबूझकर कर दी गई ग़लत सूचनाएँ भरी हैं ।”
46- अनुसूची, प्राथमिक सामग्री का संकलन करने के लिए एक ऐसी प्रविधि है जिसमें अवलोकन, साक्षात्कार तथा प्रश्नावली की विशेषताओं का समन्वय होता है । इसके अंतर्गत प्रश्नकर्ता प्रश्नों की एक निश्चित सूची लेकर उत्तरदाताओं से साक्षात्कार के रूप में विभिन्न सूचनाएँ प्राप्त करता है तथा स्वयं विभिन्न तथ्यों का अवलोकन करते हुए उत्तरों की सत्यता को जाँचने का प्रयत्न करता है । पी. वी. यंग के अनुसार, “अनुसूची एक मार्गदर्शक है, अन्वेषण के क्षेत्र को निश्चित करने का एक तरीक़ा है, याद दिलाने वाला एक साधन है, लेखाबद्ध करने की एक विधि है ।” गुडे तथा हट्ट के शब्दों में, “अनुसूची उन प्रश्नों के समूह का नाम है जो साक्षात्कार द्वारा आमने- सामने की स्थिति में अन्य व्यक्तियों से पूछे और भरे जाते हैं ।”
47- अनुसूची की विशेषताएँ : प्रश्नों का क्रम उचित रूप से होना चाहिए । प्रश्न सरल और स्पष्ट हों । प्रश्नों का आकार सीमित हो तथा संचार उचित हो। यथा संभव क्रास प्रश्नों का प्रयोग किया जाए । श्रीमती पी. वी. यंग ने अनुसूची के उद्देश्य बताते हुए कहा कि, “एक अवलोकन अनुसूची एक साथ कई प्रयोजन सिद्ध करती है : वह एक विशिष्ट स्मृति प्रोत्साहन है, वह एक वैषयिक रूप से सूचना संकलन की विधि है, वह एक प्रमाणीकरण की विधि है और वह अध्ययन के क्षेत्र को सीमित करने और आवश्यक तत्वों पर ध्यान केन्द्रित करने में मदद करती है ।” अनुसूची के माध्यम से अध्ययन में प्रामाणिकता आती है, अनुपयोगी संकलन से बचाव होता है और सही उत्तर मिलता है । अनुसूची के प्रमुख रूप से पॉंच प्रकार हैं : अवलोकन अनुसूची, मूल्यांकन अनुसूची, प्रलेख अनुसूची, संस्था सर्वेक्षण अनुसूची और साक्षात्कार अनुसूची ।
48- अनुसूची निर्माण में प्रमुख पहलू : समस्या का ज्ञान होना चाहिए । प्रश्नों का उप-भागों में विभाजन किया जाए । प्रश्नों की रचना करते समय अनावश्यक विवाद से बचा जाना चाहिए । प्रतिबंधित प्रश्नों को शामिल नहीं करना चाहिए । उत्तर दाता को उत्तर देने के लिए विकल्प प्रश्न अवश्य देना चाहिए । अस्पष्ट प्रश्नों को नहीं शामिल करना चाहिए । अनुसूची में प्रश्न छोटे और संख्या में कम हों । केवल अनुसंधान समस्या से सम्बन्धित प्रश्न रखे जाएँ । प्रश्नों की भाषा जटिल न हो । अनुसूची का वाह्य भाग सुन्दर होना चाहिए । काग़ज़ और छपाई उत्तम प्रकार की हो ।
49- अनुसूची के गुण : अधिक से अधिक प्रत्यक्ष संपर्क स्थापित करके सूचना एकत्र करने की कोशिश की जानी चाहिए । अनुसूची के माध्यम से ठोस सूचनाएँ प्राप्त होती हैं । इस माध्यम की एक विशेषता यह भी है कि अधिकतम सूचनाओं की प्राप्ति हो जाती है । यह सारणीयन में सहायक होती है । यहाँ अभिनति की सम्भावना नहीं होती । अनुसूची के माध्यम से अवलोकन की गहनता में वृद्धि होती है । स्पष्टीकरण की सम्भावना बढ़ जाती है । तथ्यों का वस्तुपरक विश्लेषण होता है । विश्वसनीय सूचना प्राप्त होती है । यह अनेक उत्तरदाताओं के लिए उपयोगी है ।
50- अनुसूची के कुछ दोष भी हैं : यह अधिक खर्चीली विधि है । इसमें समय अधिक लगता है । व्यक्तिगत पक्षपात की सम्भावना बनी रहती है । सूचनादाता से सम्पर्क स्थापित करने में कठिनाई होती है । बड़ी और अधिक जनसंख्या के लिए अनुपयुक्त है क्योंकि प्रशासनिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है । इसमें सार्वभौमिक तथ्यों का अभाव होता है । यहाँ पर यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अनुसूची और प्रश्नावली में अंतर होता है । अनुसूची को अनुसंधानकर्ता स्वयं भरता है जबकि प्रश्नावली को सूचनादाता भरकर डॉक से भेजता है । अनुसूची का क्षेत्र सीमित होता है जबकि प्रश्नावली का क्षेत्र व्यापक होता है । प्रश्नावली में प्रश्न अनुसूची की अपेक्षा अधिक स्पष्ट होते हैं । प्रश्नावली की अपेक्षा अनुसूची में खर्च भी अधिक होता है ।
नोट : उपरोक्त सभी तथ्य, “राजनीति विज्ञान में अनुसंधान पद्धतियाँ” लेखक : डॉ. एस. सी. सिंहल, प्रकाशक : लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, आगरा (उत्तर-प्रदेश) ISBN : 978-81-89770-35-8, तृतीय संस्करण, 2018, से साभार लिए गए हैं ।