राजनीति विज्ञान में अनुसंधान पद्धतियाँ, महत्वपूर्ण तथ्य : भाग- 3

  • डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कॉलेज, झाँसी (उत्तर-प्रदेश) भारत । email : drrajbahadurmourya @ gmail.com, website : themahamaya.com (साक्षात्कार, अवलोकन, वैयक्तिक अध्ययन, अन्तर्वस्तु विश्लेषण)
  • 1- साक्षात्कार अंग्रेज़ी के शब्द ‘Interview’ का हिंदी रूपांतरण है जो दो शब्दों ‘Inter’ तथा view से मिलकर बना है । Inter का अर्थ है आन्तरिक अथवा भीतरी तथा view का अर्थ है देखना अथवा अवलोकन करना । इस प्रकार साक्षात्कार का शाब्दिक अर्थ है- सूचना दाता के जीवन को देखना अर्थात् इसके भीतरी तथ्यों की जानकारी प्राप्त करना तथा आन्तरिक अवलोकन करना । साक्षात्कार का सामान्य अर्थ होता है कि आमने सामने एकत्र होकर उस व्यक्ति के बारे में प्रश्नोत्तर द्वारा कुछ सूचनाएं प्राप्त करना । यह अनुसंधान क्षेत्र में सामग्री संकलन के लिए प्रयोग लायी जाने वाली सर्वाधिक प्रचलित तकनीक है । यह एक मनोवैज्ञानिक स्थिति है जहाँ साक्षात्कारकर्ता और सूचनादाता एक दूसरे के निकट आते हैं तथा स्वतंत्र विचार- विमर्श करते हैं ।
  • 2- प्रोफेसर गुड एवं हट्ट के अनुसार, “मौलिक रूप से साक्षात्कार सामाजिक अन्त:क्रिया की एक प्रक्रिया है ।” सिन पाओ यंग के अनुसार, “साक्षात्कार कार्य क्षेत्र की एक विशेष प्रविधि है, जिसका उपयोग किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के व्यवहार को देखने, उनके कथनों को लिखने तथा सामाजिक या समूह अन्त: क्रिया के स्पष्ट परिणामों का अध्ययन करने के लिए किया जाता है ।” ई. ई. मैकोबी के अनुसार, “साक्षात्कार का अर्थ आमने- सामने मौखिक विचारों का आदान- प्रदान करना है जिसमें साक्षात्कार कर्ता यह प्रयास करता है कि दूसरे व्यक्ति या व्यक्तियों से उनके विश्वासों, मतों और विचारों की सूचना प्राप्त कर लें ।” पी. वी. यंग के अनुसार, “साक्षात्कार को एक ऐसी क्रमबद्ध विधि के रूप में माना जा सकता है जिसके द्वारा एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के आन्तरिक जीवन में थोड़ा बहुत कल्पनात्मक रूप से प्रवेश करता है जो कि उसके लिए सामान्यतः तुलनात्मक रूप से अपरिचित है ।”
  • 3- करलिंगर के अनुसार, “साक्षात्कार अन्तर- वैयक्तिक भूमिका की एक ऐसी स्थिति है, जिसमें एक व्यक्ति, साक्षात्कारकर्ता, एक दूसरे व्यक्ति, जिसका साक्षात्कार किया जा रहा है, या उत्तरदाता से उन प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करना चाहता है जिसकी रचना सम्बन्धित अनुसंधान समस्या के लक्ष्य की पूर्ति के लिए की गई है ।” वी. एम. पामर ने लिखा है कि, “साक्षात्कार दो व्यक्तियों के बीच एक सामाजिक स्थिति की रचना करता है, इसमें प्रयुक्त मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया के अंतर्गत दोनों व्यक्तियों को परस्पर प्रति उत्तर देने पड़ते हैं ।” सी. ए. मोजर के अनुसार, “औपचारिक साक्षात्कार जिसमें पूर्व निर्धारित प्रश्नों को पूछा जाता है तथा उनके उत्तरों को प्रमाणीकृत रूप में संकलित किया जाता है, बड़े सर्वेक्षणों में निश्चित रूप से सामान्य है ।”
  • 4- एम. एन. बसु के अनुसार, “एक साक्षात्कार को कुछ विषयों को लेकर व्यक्तियों के आमने- सामने का मिलन कहा जा सकता है ।” हैडर तथा लिंडमैन ने कहा है कि, “दो या अनेक व्यक्तियों के बीच वार्तालाप या मौखिक प्रत्युत्तर को साक्षात्कार कहते हैं ।” लूथर फ्राई का मत है कि, “साक्षात्कार सामग्री संग्रहण की एक प्रणाली है, यह किसी निश्चित उद्देश्य हेतु वार्तालाप के अलावा कुछ भी नहीं है । इसमें दो या अधिक व्यक्ति परस्पर एक-दूसरे से प्रेरणा पाते हुए उत्तर- प्रत्युत्तर करते हैं ।” साक्षात्कार की विशेषता यह है कि यह एक क्रमबद्ध तकनीक है जो दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच सम्पन्न होती है । यह एक अन्तर- वैयक्तिक स्थिति है जिसमें विशिष्ट उद्देश्य के लिए तथ्यों का संकलन किया जाता है ।
  • 5- साक्षात्कार के प्रमुख उद्देश्य हैं : प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित करके सूचनाओं का संकलन करना । साक्षात्कार उपकल्पनाओं का प्रमुख स्रोत है । साक्षात्कार का उद्देश्य गुप्त एवं व्यक्तिगत सूचना प्राप्त करना है । साक्षात्कार निरीक्षण का अवसर प्रदान करता है । साक्षात्कार प्रतिक्रियाओं को जानने का अवसर देता है । साक्षात्कार के दौरान गुणवत्तापूर्ण तथ्यों की जानकारी प्राप्त होती है । साक्षात्कार समस्याओं के निदान में प्रभावी भूमिका निभाता है तथा तथ्यों का सत्यापन करता है ।
  • 6- साक्षात्कार के प्रकार : जॉन मैज ने साक्षात्कार के दो प्रमुख प्रकार बताए हैं : स्वरूपात्मक साक्षात्कार और सामूहिक साक्षात्कार । स्वरूपात्मक साक्षात्कार के उन्होंने फिर चार उप प्रकार बताए हैं : अनिर्देशित साक्षात्कार, केन्द्रित साक्षात्कार, जीवन इतिहास साक्षात्कार और औपचारिक साक्षात्कार । गुट्टे एवं हट्ट ने साक्षात्कार के चार प्रकार बताए हैं : अनिर्देशित साक्षात्कार, गहन साक्षात्कार, निर्वाचन साक्षात्कार और संरचित साक्षात्कार । पी. वी. यंग ने साक्षात्कारों का वर्गीकरण उनके कार्यों के आधार पर, भाग लेने वाले सूचनादाता की संख्या के आधार पर, सम्पर्क की अवधि के आधार पर तथा उपागम के आधार पर किया है । यंग ने केवल उन साक्षात्कारों का विस्तार से वर्णन किया है जो साक्षात्कार कर्ता और उत्तरदाता की भूमिका पर आधारित हैं : निर्देशित साक्षात्कार, अनिर्देशित साक्षात्कार, केन्द्रित साक्षात्कार, पुनरावृत्ति साक्षात्कार तथा गहन साक्षात्कार ।
  • 7- असंरचित साक्षात्कार, साक्षात्कार का वह तरीक़ा है जहाँ साक्षात्कार कर्ता पहले से कोई प्रश्नों की सूची, साक्षात्कार प्रश्नावली या साक्षात्कार की कोई योजना नहीं बनाता बल्कि वह उत्तरदाता के मनोभावों और मनोदशा को देखते हुए आवश्यक प्रश्न पूछता है । इस साक्षात्कार में उत्तरदाता को स्वतंत्रता से बिना किसी झिझक के अपने विचार व्यक्त करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है । इसमें साक्षात्कार की प्रक्रिया को आवश्यकतानुसार परिवर्तित करने की सुविधा होती है । परन्तु महत्वपूर्ण तथ्य छूटने की भी संभावना रहती है । इसका मुख्य दोष यह है कि इसमें पक्षपात की सम्भावना रहती है । यह असंतुलित अध्ययन है ।
  • 8- संरचित साक्षात्कार में अनुसंधानकर्ता पहले से ही प्रश्नों का निर्धारण कर लेता है तथा उसे लिपिबद्ध कर देता है ताकि महत्वपूर्ण विषय छूटने न पाए । इस प्रकार के साक्षात्कार में पक्षपात की संभावना कम होती है । वस्तुपरकता अधिक होती है । मापन में परिशुद्धता रहती है । इसके परिणाम अधिक विश्वसनीय होते हैं । इसका मुख्य दोष यह है कि इस प्रक्रिया में कृत्रिम उत्तर की सम्भावना अधिक होती है । जिसके परिणामस्वरूप वैधता में कमी आती है । इसे निष्क्रिय अध्ययन भी माना जाता है ।
  • 9- केन्द्रित साक्षात्कार वह साक्षात्कार होता है जिसमें अध्ययन की जाने वाली अनुसंधान समस्या किसी घटना, अवस्था या परिस्थिति से सम्बन्धित होती है और समस्त साक्षात्कार उस घटना, अवस्था या परिस्थितियों पर ही केंद्रित होता है । यह साक्षात्कार सूचनादाता के अनुभव दृष्टिकोण, भावना तथा प्रतिक्रियाओं पर केंद्रित रहता है । इस साक्षात्कार में बहुत अधिक सतर्कता, तैयारी और कुशलता की आवश्यकता होती है । मर्टन और कैन्डल जैसे विद्वानों ने इसके अध्ययन पर जोर दिया है ।
  • 10- निदानात्मक साक्षात्कार वह साक्षात्कार है जिसका उद्देश्य किसी भी सामाजिक समस्या अथवा बीमारी के कारणों की खोज करना है । इस प्रक्रिया का उपयोग भ्रष्टाचार, रिश्वत, चोर बाज़ारी, जमाख़ोरी, बेकारी और ग़रीबी जैसी समस्याओं के कारणों की खोज के लिए किया जाता है । यह एक अनियंत्रित साक्षात्कार है । इसी तरह से उपचारात्मक साक्षात्कार में उपरोक्त समस्याओं का उपचार किया जाता है ।
  • 11- साक्षात्कार के चरण – जॉन मैज ने साक्षात्कार के तीन चरणों का उल्लेख किया है : प्रारंभिक साक्षात्कार, तथ्यों को एकत्र करना तथा साक्षात्कार में प्रेरणा देना । पी. वी. यंग ने साक्षात्कार के तीन चरण बताए हैं : प्रारंभिक विचार, साक्षात्कार की ओर प्रयास, सहानुभूति, सम्मानित श्रोता की खोज, साक्षात्कार में जटिल बिंदु और साक्षात्कार की समाप्ति । सामान्य रूप से साक्षात्कार की प्रक्रिया को अग्रलिखित चरणों में व्यवस्थित कर सकते हैं : सर्वप्रथम अध्ययन की समस्या और उसके उद्देश्य का निर्धारण करना। साक्षात्कार की तैयारी करना । साक्षात्कार की प्रक्रिया को सम्पन्न कराना । साक्षात्कार की प्रक्रिया की समाप्ति । रिपोर्ट तैयार करना ।
  • 12- मैकाबी ने साक्षात्कारकर्ता के कारण होने वाली छह त्रुटियां गिनाई हैं : साक्षात्कारकर्ता का रंगरूप और हावभाव, साक्षात्कारकर्ता का बोलना, साक्षात्कारकर्ता की अभिनति का प्रभाव, साक्षात्कारकर्ता की गहन पूछताछ का प्रभाव और त्रुटिपूर्ण अभिलेखन का प्रभाव । इस प्रकार साक्षात्कारकर्ता को निष्पक्ष और तटस्थ होकर ऑंकडों का संग्रह करना चाहिए । अपने वैचारिक परिप्रेक्ष्य को उस पर हावी नहीं होने देना चाहिए । साक्षात्कारकर्ता को तकनीकी ज्ञान वाला और व्यवहार कुशल होना चाहिए । साक्षात्कार के दौरान मानक स्थितियों जैसे पर्याप्त समय, साक्षात्कार की विधि और साक्षात्कार अनुसूची का ध्यान रखना चाहिए ।
  • 13- साक्षात्कार के माध्यम से किसी भी व्यक्ति का मनोवैज्ञानिक अध्ययन किया जा सकता है । अधिक से अधिक सूचनाएं प्राप्त की जा सकती हैं । विस्तृत अध्ययन के लिए उपयुक्त निदर्शन अथवा प्रतिचयन हासिल किया जा सकता है । भूतकाल की घटनाओं का अध्ययन किया जा सकता है । सुसंगत साक्षात्कार के आधार पर गहन अध्ययन किया जा सकता है । यह पारस्परिक प्रेरणा का स्रोत भी है । इससे विविध प्रकार की जानकारी हासिल होती है और यह एक लचीली प्रक्रिया है ।
  • 14- साक्षात्कार की आलोचना करते हुए कहा जा सकता है कि यह एक खर्चीली विधि है और अधिक से अधिक स्मरण शक्ति पर निर्भर करती है । यदि साक्षात्कार कर्ता अपने दायित्व के प्रति सजग, संवेदनशील और निष्पक्ष नहीं है तो सूचना दोषपूर्ण हो सकती है । इसमें साक्षात्कारकर्ता को अत्यधिक भागदौड़ करनी पड़ती है । यदि उत्तरदाता सच नहीं बोलता तो इससे अप्रमाणित सूचनाएं मिलती हैं । यह एक अवैज्ञानिक पद्धति मानी जाती है । यह बड़े अध्ययनों के लिए अनुपयोगी है । इसमें बहुत अधिक समय की बर्बादी होती है । अधिकतर उत्तरदाता साक्षात्कारकर्ता का सहयोग नहीं करते । उपर्युक्त कमियों के बावजूद साक्षात्कार एक महत्वपूर्ण विधि है तथा शोध में सहायक सिद्ध होती है ।
  • 15- ऑंकडों के संकलन की तकनीक में अवलोकन का भी महत्व होता है । अवलोकन शब्द अंग्रेज़ी के शब्द Observation का हिंदी रूपांतरण है, जिसका अर्थ होता है देखना, अवलोकन करना, निरीक्षण करना, प्रेक्षण करना, पर्यवेक्षण करना । यह मनुष्य के जीवन में प्रारम्भ से लेकर अंत तक ज्ञान प्राप्त करने का मुख्य साधन है । आक्सफोर्ड कन्साइज शब्दकोश के अनुसार, “कारण और परिणाम अथवा पारस्परिक सम्बन्धों के आधार पर जिस रूप में घटनाएँ घटित होती हैं उन्हें ठीक उसी परिशुद्ध रूप में देखना और उनका आलेखन करना ही अवलोकन है ।” पी. वी. यंग के अनुसार, “अवलोकन ऑंखों द्वारा विचारपूर्वक अध्ययन की एक प्रविधि है जिससे कि सामूहिक व्यवहार और जटिल सामाजिक संस्थाओं एवं समग्र की विभिन्न इकाइयों का अध्ययन किया जाता है।”
  • 16- मोजर तथा कैल्टन के अनुसार, “विशिष्ट अर्थ में अवलोकन में कानों तथा वाणी की अपेक्षा नेत्रों का प्रयोग अधिक होता है ।” डॉलर्ड के मुताबिक़, “अवलोकन अनुसंधान के एक प्राथमिक यंत्र के रूप में मानव बुद्धि का अवलोकन तथा अनुभवों के आधार पर ज्ञान प्राप्त करना है ।” ए. वुल्फ ने अवलोकन विधि के सम्बन्ध में लिखा है कि, “वस्तुओं तथा घटनाओं, उनकी विशेषताओं एवं उनके मूर्त सम्बन्धों को समझने और उनके सम्बन्ध में हमारे मानसिक अनुभवों की प्रत्यक्ष चेतना को जानने की क्रिया को अवलोकन कहते हैं ।” ब्राउन ने बताया है कि, “यह वैज्ञानिक निरीक्षण और घटनाओं के प्रति निष्क्रिय अनुक्रिया नहीं है बल्कि एक सक्रिय अनुक्रिया है ।”
  • 17- अवलोकन की विशेषताएं : यह मानव इन्द्रियों, विशेष रूप से ऑंखों का प्रयोग करके ज्ञान प्राप्त करने की एक पद्धति है । इसे अनुसंधान के क्षेत्र में उद्देश्यपूर्ण और सुविचारित प्रणाली माना जाता है । यह मूलभूत वैज्ञानिक पद्धति है । यह अध्ययन की प्रत्यक्ष विधि है जिससे सूक्ष्म और गहन अध्ययन सम्भव होता है । अनुसंधान में इसका प्रयोग करके कार्य- कारण सम्बन्धों की व्याख्या की जा सकती है । अवलोकन सामूहिक व्यवहार का अध्ययन करने में सहायक है । इस प्रविधि के द्वारा एकत्रित की गयी जानकारी अधिक विश्वसनीय होती है ।
  • 18- अवलोकन के प्रकारों में सहभागी अवलोकन, असहभागी अवलोकन, अर्द्ध- सहभागी अवलोकन प्रमुख हैं । सहभागी अवलोकन सामाजिक अनुसंधान की वह तकनीक है जिसमें अवलोकनकर्ता स्वयं उन सामाजिक घटनाओं तथा क्रियाओं में शामिल होता है जिनका वास्तव में अध्ययन किया जाता है । अनुसंधान कर्ता स्वयं उस समूह में रहकर व्यक्तिगत अवलोकन तथा समूह अथवा समाज के कार्यों में सहभागी होकर समूह की क्रियाओं का अध्ययन करता है । इसलिए इस अवलोकन को सहभागी अवलोकन कहा जाता है । लुण्डबर्ग के अनुसार, “इसमें अवलोकन कर्ता अवलोकित समूह से यथा सम्भव घनिष्ठ संबंध स्थापित करता है अर्थात् वह समुदाय में बस जाता है और समूह के दैनिक जीवन में भाग लेता है ।”
  • 19- सहभागी अवलोकन की विशेषता यह है कि इसमें विस्तृत सूचनाओं का संकलन हो जाता है । इस प्रक्रिया में सूक्ष्म और गहन अध्ययन सम्भव होता है । यह प्रत्यक्ष अध्ययन पद्धति है । इसके माध्यम से यथार्थ व्यवहार का अध्ययन किया जा सकता है । इस तरह के अध्ययन में अधिक विश्वसनीयता होती है । यह पद्धति बहुत ही सरल और विविध सांस्कृतिक विशेषताओं का ज्ञान प्रदान करती है । यद्यपि इसमें इस बात की सम्भावना रहती है कि वस्तुपरकता तथा तथ्यों की प्रामाणिकता में कमी रह जाए । यह अत्यधिक खर्चीली तथा अध्ययन के लिहाज़ से धीमी होती है । इसमें रिकॉर्डिंग की समस्या, भूमिका सामंजस्य की कठिनाई, समुचित प्रतिनिधित्व की कमी तथा पूर्ण सहभागिता का अभाव होता है ।
  • 20- असहभागी अवलोकन में शोधकर्ता एक तटस्थ दृष्टि और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाता है । वह न तो अवलोकित समुदाय का सदस्य बनता है और न ही उसकी किसी क्रिया में भागीदार बनता है । वह दूर से ही जो कुछ देखता है उसी के आधार पर उनकी गहराइयों में पहुँचने का प्रयास करता है । रंगमंच, विवाहोत्सव, मेला या त्योहारों के अध्ययन में यह पद्धति कारगर साबित होती है । फोरेक्स तथा रिचर के अनुसार, “असहभागी अवलोकन में अवलोकन कर्ता अपने व्यक्तित्व को बिना छुपाए घटना का अवलोकन करता है ।” पीटर एच. मान के अनुसार, “असहभागी अवलोकन एक ऐसी विधि है, जिसमें अवलोकन कर्ता अवलोकित से छिपा रहता है ।”
  • 21- असहभागी अवलोकन के गुणों का ज़िक्र करते हुए कहा जा सकता है कि इस प्रकिया में वस्तुनिष्ठ अध्ययन सम्भव होता है । यह अधिक विश्वसनीय है । इसमें जन सहयोग अधिक मिलने की संभावना होती है । यह कम खर्चीली है । इससे बड़े समूहों का अध्ययन किया जा सकता है । परन्तु इस पद्धति का यह दोष भी होता है कि इसमें गहन अध्ययन सम्भव नहीं होता । प्राप्त जानकारी की विश्वसनीयता कम होती है ।
  • 22- अर्द्ध – सहभागी अवलोकन, सहभागी अवलोकन और असहभागी अवलोकन के बीच की स्थिति है । इस प्रकार की पद्धति में अध्ययन कर्ता अध्ययन किए जाने वाले समुदाय के कुछ साधारण कार्यों में ही भाग लेता है तथा अधिकांशतः वह तटस्थ भाव से बिना किसी सहभागिता के उसका अवलोकन करता है । इसी प्रकार से सामूहिक अवलोकन की पद्धति भी अनुसंधान में प्रयुक्त की जाती है । इस प्रविधि में एक ही समस्या या सामाजिक घटना का अवलोकन कई अनुसंधानकर्ताओं द्वारा किया जाता है, जो कि उस सामाजिक घटना के विभिन्न पहलुओं के विशेषज्ञ होते हैं । इस प्रविधि का सर्वप्रथम प्रयोग जमैका में वहाँ की स्थानीय दशाओं के अध्ययन के लिए किया गया था ।
  • 23- अवलोकन पद्धति के आधार पर शोध करने के लिए सर्वप्रथम समस्या तथा उद्देश्य का निर्धारण किया जाता है तत्पश्चात अध्ययन की योजना तथा निरीक्षण की योजना तैयार की जाती है । ऑंकडों के संकलन के लिए उपकरण, यंत्र और सामग्री का संकलन किया जाता है । शोधकर्ता उपकरणों के माध्यम से सामाजिक घटना या व्यवहार का अवलोकन करता है । इसके बाद संकलित ऑंकडों का विश्लेषण कर परिणाम दिए जाते हैं और उनकी व्याख्या की जाती है । यदि अवलोकन दोषपूर्ण है तथा व्यवहार में बनावटी पन है अथवा अवलोकन कर्ता ने पक्षपात किया है तो अवलोकन पद्धति की विश्वसनीयता संदेह के घेरे में आ जाती है ।
  • 24- अवलोकन पद्धति की विश्वसनीयता के लिए यह आवश्यक है कि कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व विस्तृत अवलोकन योजना बनाना चाहिए । अनुसूची का उपयोग करना चाहिए । अवलोकन में यांत्रिक तकनीक का प्रयोग करना चाहिए । गणना तथा वर्णन के लिए समाजमितीय पैमाने का प्रयोग करना चाहिए । अवलोकन करने से पूर्व उपकल्पना का निर्माण कर लेना चाहिए । यथासंभव सामूहिक अवलोकन की प्रक्रिया को अपनाना चाहिए और व्यवहार में स्वाभाविकता होनी चाहिए ।
  • 25- अवलोकन पद्धति के गुण : यह परिकल्पना के निर्माण में सहायक है । अवलोकन पद्धति का प्रयोग अत्यंत सरल कार्य है । यह एक विश्वसनीय प्रविधि है । इसमें सत्यापन की सुविधा होती है । अवलोकन पद्धति द्वारा ज्ञान में वृद्धि होती है । यह सर्वाधिक प्रचलित पद्धति है । इस पद्धति के द्वारा अनेक तथ्यों का सूक्ष्म और गहन अध्ययन किया जा सकता है । यह आनुभाविक अध्ययन प्रक्रिया है । इस विधि के द्वारा वास्तविक व्यवहार के अध्ययन की सुविधा रहती है । इस विधि में अनुसंधान कर्ता ऐसे समूहों का भी अध्ययन कर सकता है जिनकी भाषा से वह परिचित नहीं होता क्योंकि इसमें अधिकतर नेत्रों का उपयोग किया जाता है । इस पद्धति में वैधता और विश्वसनीयता का स्तर उच्च होता है ।
  • 26- अनेक विशेषताओं के बावजूद अवलोकन पद्धति की अपनी सीमाएं हैं । पी. वी. यंग ने लिखा है कि, “वास्तव में सभी घटनाओं का अवलोकन नहीं किया जा सकता । सभी घटनाओं के घटित होते समय अवलोकनकर्ता वहाँ उपस्थित भी नहीं होता न ही विभिन्न अवलोकन प्रविधियों के द्वारा सभी प्रकार की घटनाओं का अध्ययन किया जा सकता है ।” सामान्यतः इस प्रविधि की सीमाएं हैं : सीमित उपयोग, पक्षपात की समस्या, ज्ञानेन्द्रियों का दोषपूर्ण उपयोग, अनेक अध्ययनों में अनुपयुक्त, घटनाओं की आकस्मिकता, अध्ययन में कठोर नियंत्रण का अभाव, अवलोकन से सम्बन्धित निश्चित समय व स्थान का अभाव, अनावश्यक सूचनाओं का संकलन और सीमित विश्वसनीयता ।
  • 27- वैयक्तिक अध्ययन भी अनुसंधान में ऑंकडों के संकलन की एक तकनीक है । यह वह विधि है जिसके द्वारा मनुष्य, परिवार और आदत, जाति, घटना और संस्था आदि का गहन अध्ययन गुणात्मक आधार पर किया जाता है । यह एक प्राचीन अध्ययन पद्धति है । इस विधि के जनक फ्रेडरिक प्ले (1806-1881) थे । हरबर्ट स्पेन्सर और हेली ने इसे और अधिक लोकप्रिय बनाया । पी. वी. यंग के अनुसार, “वैयक्तिक अध्ययन वह विधि है जिसके द्वारा सामाजिक इकाई के जीवन की खोज और विवेचना की जाती है । यह इकाई एक व्यक्ति, एक परिवार, एक संस्था, एक सामाजिक वर्ग या समुदाय कुछ भी हो सकता है ।”
  • 28- वैयक्तिक अध्ययन को परिभाषित करते हुए बीसैंज ने लिखा है कि, “वैयक्तिक अध्ययन विधि एक प्रकार की गुणात्मक व्याख्या है जिसमें एक व्यक्ति, एक परिस्थिति या एक संस्था का अति सावधानी से और पूर्ण अध्ययन किया जाता है ।” एफ. ए. गिडिंग्ज के अनुसार, “अध्ययन किया जाने वाला वैयक्तिक विषय केवल एक व्यक्ति अथवा उसके जीवन की एक घटना, अथवा विचारपूर्ण दृष्टि से यह एक राष्ट्र या इतिहास का एक युग भी हो सकता है ।” गुडे एवं हट्ट के अनुसार, “यह सामाजिक तथ्यों को संगठित करने की एक ऐसी विधि है जिससे अध्ययन किए जाने वाले सामाजिक विषय की एकात्मक प्रकृति की पूर्णता रक्षा होना चाहिए ।” बर्गेस के अनुसार, “वैयक्तिक अध्ययन विधि सामाजिक सूक्ष्म दर्शक यन्त्र है ।”
  • 29- वैयक्तिक अध्ययन व्यक्तिगत अध्ययन है जिसमें चुनी गई इकाई का एक सम्पूर्ण के रूप में अध्ययन किया जाता है । यह गहन तथा सूक्ष्म अध्ययन के लिए उपयुक्त है । वैयक्तिक अध्ययन गुणात्मक अध्ययन है न कि परिमाणात्मक । यह पद्धति मानव व्यवहार के तरीक़ों से कारणों का अध्ययन करती है । वैयक्तिक अध्ययन की आधारभूत मान्यता है कि यह वहीं कारगर सिद्ध होती है जहाँ व्यवहार में समानता हो ।घटनाओं में जटिलता हो । इस पर समय का प्रभाव पड़ता है । इसमें इकाई की समग्रता होती है ।
  • 30- अन्तर्वस्तु विश्लेषण भी अनुसंधान की एक प्रविधि है जो समस्याओं की गहन रूप से खोज के लिए विकसित की गई है । इस पद्धति में संचार की सामग्री को अनुमानों के मुख्य आधार के रूप में प्रयुक्त किया जाता है । इस प्रक्रिया में गुणात्मक ऑंकडों को वस्तुनिष्ठ तथ्यों में प्रस्तुत किया जाता है । सामाजिक दंगों, जातीय हिंसा, तलाक़, दहेज इत्यादि के विश्लेषण में इस पद्धति का प्रयोग किया जाता है । अंतर्वस्तु विश्लेषण को परिभाषित करते हुए कापलॉन ने कहा है कि, “अंतर्वस्तु विश्लेषण एक विशिष्ट सम्प्रेषण के अंतर्गत निहित अर्थ का क्रमबद्ध और मात्रात्मक ढंग से विवेचना प्रस्तुत की जाती है ।
  • 31- अंतर्वस्तु विश्लेषण के बारे में बेरेलसन ने कहा है कि, “अन्तर्वस्तु विश्लेषण अनुसंधान की वह प्रविधि है जिसमें सम्प्रेषण के द्वारा प्राप्त सामग्री के व्यक्त रूप का वस्तुनिष्ठ और मात्रात्मक ढंग से वर्णन किया जाता है ।” चैपलिन के अनुसार, “अन्तर्वस्तु विश्लेषण अध्ययन की वह विधि है जिसके द्वारा निश्चित शब्दों, विचारों या संवेगात्मक प्रतिक्रियाओं की अभिव्यक्ति की आवृत्ति के आधार पर प्रलेख की सम्प्रेषण सामग्री का अध्ययन किया जाता है ।” करलिंगर के मतानुसार, “वस्तु विश्लेषण चरों को मापने के लिए संचारों के व्यवस्थित, वस्तुनिष्ठ और मात्रात्मक ढंग से अध्ययन और विश्लेषण की पद्धति है ।”
  • 32- अंतर्वस्तु विश्लेषण एक प्रलेख और सम्प्रेषण विश्लेषण है जिसमें यह ज्ञात करने का प्रयास किया जाता है कि सम्प्रेषित व्यक्ति का मनोविज्ञान क्या है अथवा सम्प्रेषण करने वाला व्यक्ति क्या कहना चाहता है । इस प्रकार के विश्लेषण में वस्तुनिष्ठता होती है । इस विश्लेषण से प्राप्त निष्कर्ष में निश्चितता का गुण होता है । इस अध्ययन में विश्लेषण करते समय अनुसंधानकर्ता मात्रात्मकता पर अधिक बल देता है अर्थात् अंकों के प्रयोग और उनकी बारंबारता पर जोर दिया जाता है । यह एक क्रमबद्ध अध्ययन और विश्लेषण की प्रक्रिया है ।
  • 33- अंतर्वस्तु विश्लेषण की एक विधि का वर्णन बेरेलसन ने अपनी पुस्तक, “Content analysis in communication research” में किया है । उनके अनुसार अंतर्वस्तु विश्लेषण के दो पद हैं : इकाइयाँ और वर्गीकरण । उनके अनुसार शब्द, प्रसंग, चरित्र, मद और स्थान व समय माप इकाइयाँ हैं । जबकि वर्गीकरण इस बात को दर्शाता है कि क्या कहा गया है । इसके दस बिंदु होते हैं : विषय सामग्री, दिशा, मापदण्ड, मूल्य, साधन, लक्षण, अभिनेता, स्रोत, उद्गम और लक्ष्य । इसे किस प्रकार कहा गया है इसमें दो बिंदु आते हैं : संचार का स्वरूप और कथन का स्वरूप ।
  • 34- अंतर्वस्तु विश्लेषण की पद्धति का प्रयोग करने के लिए सबसे पहले यह आवश्यक है कि अंतर्वस्तु के समग्र की स्पष्ट परिभाषा की जाए । दूसरा, उपकल्पनाओं का निर्माण किया जाए । तीसरा, निदर्शन का प्रयोग किया जाए और पाँचवाँ, प्रमुख श्रेणियों का विभाजन किया जाए । छठां, माप के लिए संकेत और संदर्भ इकाइयों का प्रयोग किया जाए और अंततः सांख्यिकीय विश्लेषण का सहारा लिया जाए । यदि उपरोक्त सभी प्रक्रियाओं का पालन किया जाए तो अंतर्वस्तु विश्लेषण बहुत व्यवस्थित, विश्वसनीय और वैध तथ्यों की विधि है । इससे अतीत की तथा जटिल समस्याओं का अध्ययन किया जा सकता है ।
  • 35- ऑंकडों का भी अनुसंधान पद्धति में अत्यधिक महत्व होता है । ऑंकडों को एकत्रित करने के बाद उनका सम्पादन, वर्गीकरण, संकेतीकरण, कम्प्यूटरीकरण तथा तालिकाओं और आरेखों को तैयार किया जाता है । संकेतीकरण की प्रक्रिया में उत्तरों को संख्यात्मक मूल्यों में बदला जाता है । सेलिज के अनुसार, “संकेतीकरण तकनीकी प्रणाली है जिसके द्वारा तथ्यों को श्रेणीबद्ध किया जाता है । संकेतीकरण के ज़रिए कोरे तथ्यों को संकेतों में परिवर्तित किया जाता है जिनका सारणीयन किया जाता है और गिना जाता है ।” पी. वी. यंग के अनुसार, “तथ्यों को प्रस्तुत करने के लिए, संकेतीकरण में वर्गों या श्रेणियों का निर्माण किया जाता है और इनको संकेत प्रदान किया जाता है ।”
  • 36- संकेतीकरण संकेत पुस्तिका, संकेत शीट तथा कम्प्यूटर कार्ड के द्वारा प्रयोग किया जाता है । संकेत यह व्याख्या करती है कि प्रश्नावली/ सूची में उत्तर वर्गों को किस प्रकार संख्यात्मक संकेत दिए जाएँ । यह भी संकेत करती है कि कम्प्यूटर कार्ड पर कोई चर कहाँ स्थित है । मूल स्रोत से कार्डों पर ऑंकडों को स्थानांतरित करने में प्रयुक्त शीट ही संकेत होती है । वे अनुसंधान कर्ता द्वारा प्राप्त उत्तरों को संकेत देने के लिए तैयार की जाती हैं । कोड सीटें कम्प्यूटर कार्डों की तरह होती हैं । इन सीटों को की पंचर को दे दिया जाता है जो सामग्री को कार्डों पर स्थानांतरित करते हैं । कम्प्यूटर कार्ड में 80 कॉलम क्षितिजीय क्रम में और 9 कॉलम लम्बवत क्रम में होते हैं । इनका प्रयोग ऑंकडों का संग्रह करने के लिए किया जाता है ।
  • 37- संकेतीकरण शुद्धता को प्रोत्साहन देता है । यह समय और स्थान की बचत करता है । पुन: सारणीयन करने से छुटकारा मिलता है या उसे कम करना पड़ता है । शोधकर्ता को अधिकतम श्रम से बचाता है । सरांताकोज ने ऑंकडों के आवंटन के तीन प्रकार बताए हैं : आवृत्ति आवंटन, प्रतिशत आवंटन और संचयी आवंटन । आवृत्ति आवंटन कुछ वर्गों के घटने की आवृत्ति को दिखाता है । जबकि प्रतिशत आवंटन में आवृतियों को पूर्ण संख्या में न देकर प्रतिशत में दिया जाता है । संचयी आवंटन में अनेक प्रकरण शामिल होते हैं जिसका विशेष मापन मूल्य होता है ।
  • 38- ऑंकडों का सारणीयन समाज विज्ञान अनुसंधान में संकेतन और वर्गीकरण की प्रक्रिया के बाद किया जाता है । सारणीयन पद्धति द्वारा तथ्यों को व्यवस्थित करके अधिक सरल और स्पष्ट रूप में प्रदर्शित किया जाता है । इसके अंतर्गत तथ्यों को स्तम्भों और क़तारों में प्रस्तुत किया जाता है ताकि तथ्यों के विश्लेषण में सुविधा रहे । एल. आर. कोन्नर के अनुसार, “किसी विशेष समस्या को स्पष्ट करने के लिए ऑंकडों को नियमित एवं सुव्यवस्थित रूप में रखने का नाम सारणीयन है ।” प्रोफेसर नीस्वैंगर के अनुसार, “सारणी स्तम्भों एवं पंक्तियों में ऑंकडों का क्रमबद्ध संगठन है ।” सी. बी. गुप्ता के मुताबिक़, “सांख्यिकीय सारणी ऑंकडों का स्तम्भों एवं पंक्तियों में तर्कपूर्ण और व्यवस्थित संगठन है ।”
  • 39- एक अच्छी सारणी वह होती है जो स्पष्ट एवं सरल हो । जिसका आकार समुचित हो । उसकी आकृति, खानों का अनुपात, संख्याओं को लिखने का ढंग आकर्षक व प्रभावशाली हो । सारणी उद्देश्य के अनुकूल हो तथा सत्यता और प्रामाणिकता पर आधारित हो । किसी सामग्री को सुव्यवस्थित करना, उसे बोधगम्य बनाना तथा विशेषता को स्पष्ट करना, तथ्यों की तुलना करने में सहायता करना तथा उन्हें न्यूनतम स्थान में प्रस्तुत करना सारणीयन के उद्देश्य होते हैं । सारणी बनाते समय उसका शीर्षक, खानें व पंक्तियाँ, खानों की रूलिंग, मदों की व्यवस्था, टिप्पणियाँ, स्रोत तथा इकाइयों एवं व्युत्पन्न समंकों का ध्यान रखना चाहिए ।
  • 40- सारणी दो प्रकार की होती है : सरल सारणी और जटिल सारणी ।सरल सारणी को एकल सारणी भी कहा जाता है । इसके अंतर्गत केवल एक लक्षण को प्रदर्शित किया जाता है । जबकि जटिल सारणी के अंतर्गत तथ्यों के एक से अधिक गुणों या लक्षणों पर प्रकाश डाला जाता है । इस सारणी को द्विगुण, त्रिगुण और बहुगुण सारणी में विभाजित किया जाता है । सारणीयन की दो पद्धतियाँ होती हैं : हस्त सारणीयन और यांत्रिक सारणीयन । हस्त सारणीयन का अर्थ है हाथ से किया हुआ सारणीयन और यांत्रिक सारणीयन मशीनों के द्वारा निर्मित सारणी को कहा जाता है ।
  • 41- ऑंकडों का विश्लेषण और व्याख्या का भी अनुसंधान में विशिष्ट योगदान है । शोध प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने के लिए ऑंकडों को इनके निहित भागों में व्यवस्थित करना विश्लेषण कहलाता है । विश्लेषण के साथ ऑंकडों की व्याख्या करना भी आवश्यक होता है । व्याख्या में परिणामों का विश्लेषण किया जाता है, कुछ अनुमान लगाए जाते हैं, तब सम्बन्धों के बारे में निष्कर्ष निकाले जाते हैं । इस प्रकार व्याख्या का आशय अर्थ निकालना और उसको समझाना है । अनुसंधान विश्लेषण के चार चरण होते हैं : वर्गीकरण, आवृत्ति आवंटन, मापन और व्याख्या । आवृत्ति आवंटन दो प्रकार का होता है : प्राथमिक और द्वितीयक आवंटन । मापन के लिए चार प्रकार के पैमाने प्रयोग किए जाते हैं : सामान्य पैमाना, कोटिकीय पैमाना, अन्तराल पैमाना और अनुपात पैमाना
  • 42- आरेखीय प्रदर्शन का अर्थ होता है कि ऑंकडों को सारणियों अथवा संख्याओं के रूप में न दिखाकर आरेखों (चित्रों) द्वारा दिखाना है । यह एक कला है जिसके द्वारा शोधकर्ता नीरस और जटिल संकलित ऑंकडों को रुचिकर, आकर्षक एवं सरल रूप में दर्शाता है । ऑंकडों को प्रदर्शित करने के लिए चित्रों और बिंदु रेखाओं का सांख्यिकी में सर्वप्रथम प्रयोग 1786 में विलियम प्लेफेयर के द्वारा किया गया था । श्रीमती पी. वी. यंग के अनुसार, “चित्र सांख्यिकीय सूचनाओं के विशाल समूहों को स्पष्ट तथा समझ योग्य बनाने में अधिक महत्वपूर्ण होते हैं ।
  • 43- ऑंकडों के आरेखीय प्रदर्शन की उपयोगिता यह है कि इससे ऑंकडों को आकर्षक एवं प्रभावशाली ढंग से प्रदर्शित किया जा सकता है । ऑंकडों को अधिक बोधगम्य बनाया जा सकता है । चित्रों से समय की बचत होती है । ऑंकडों का चित्रमय प्रदर्शन सामग्री की तुलना को आसान बनाता है ।इसका प्रचार करने में भी महत्व होता है । यह सबके लिए उपयोगी होता है । इससे भविष्यवाणी करने में मदद मिलती है । श्रीमती पी. वी. यंग ने माना है कि आरेखीय प्रदर्शन उप कल्पनाओं के निर्माण में सहायक होता है । यह मनोरंजन और जानकारी से भरपूर होता है ।
  • 44- एक अच्छा आरेख वह होता है जो आकर्षक हो अर्थात् उसमें अच्छे काग़ज़, अनुकूल रंग, उपयुक्त स्थान तथा संकेतों का ठीक से प्रदर्शन किया गया हो । चित्र में शब्द, विवरण और संख्या कम से कम होनी चाहिए । पैमाने की सही माप और पैमाने का उल्लेख होना चाहिए । चित्रों में स्पष्टता होनी चाहिए । चित्र वास्तविकता पर आधारित और मितव्ययी होना चाहिए । चित्र के ऊपर एक उपयुक्त, स्पष्ट और संक्षिप्त शीर्षक होना चाहिए । चित्र का स्रोत भी बताना चाहिए ।
  • 45- आरेखीय प्रदर्शन के लिए रेखाचित्र, सरल दण्ड चित्र, विपुल दंड चित्र, उप विभाजित दण्ड चित्र, प्रदर्शित दण्ड चित्र, विचलन दण्ड चित्र, स्तूप चित्र, सरकन दण्ड चित्र, आयताकार चित्र, वर्गाकार चित्र और वृत्ताकार चित्र का प्रयोग किया जाता है ।
  • 46- बिन्दुरेखीय प्रदर्शन अनुसंधान में तथ्यों को सरल, स्पष्ट एवं आकर्षक बनाने के लिए किया जाता है । बिन्दु रेखाचित्र जनसामान्य एवं विशेषज्ञ सभी के लिए उपयोगी होते हैं । बिन्दुरेखीय प्रदर्शन के द्वारा दो तथ्यों के पारस्परिक सम्बन्धों का प्रदर्शन स्पष्ट रूप से किया जाता है । बिन्दु रेखीय प्रदर्शन को परिभाषित करते हुए ब्लेयर ने लिखा है कि, “समझने व रचना करने में सर्वाधिक लोचदार तथा अधिकतम प्रयुक्त चित्र का रूप ही बिन्दुरेखा है ।” वैसेलो ने भी कहा है कि, “संख्यात्मक रूप से पठन में सबसे अधिक सरल तथा व्यापक विधि बिन्दु रेखा है । यह संख्याओं का इस तरह से चित्रण करती है कि उनके सम्बन्ध में नेत्रों को एक साथ ज्ञात हो जाता है । इसका संख्याओं को स्पष्ट करने में सर्वाधिक महत्व है ।”
  • 47- बिन्दु रेखा चित्र ग्राफ़ काग़ज़ पर बनाया जाता है । सबसे पहले ग्राफ़ पेपर पर एक दूसरे को काटती हुई दो रेखाएँ इस प्रकार से खींची जाती हैं कि वह एक दूसरे के ऊपर 90 अंश का कोण बनाएँ । इन रेखाओं को अक्ष कहा जाता है । पड़ी रेखा को अ- अक्ष तथा खड़ी रेखा को ब- अक्ष कहा जाता है । जहाँ पर दोनों रेखाएँ एक-दूसरे को काटती हैं उस बिंदु को के्द्रक बिंदु कहा जाता है । ग्राफ बनाने के लिए बिन्दु अंकित किये जाते हैं । O से ऊपर की रेखा को OX और दाएँ हाथ की ओर से रेखा को OY नाम दिया जाता है । ग्राफ़ बनाने के लिए मूल बिंदु O से चलना प्रारम्भ करते हैं । प्रत्येक अक्ष के लिए उपयुक्त पैमाना चुना जाता है । पैमाना यह बतलाता है कि अक्ष की वह लम्बाई है जो कि इकाई चर को प्रदर्शित करता है ।
  • 48- बिन्दु रेखा चित्र की रचना करते समय यह बात याद रखना चाहिए कि उसके लिए उपयुक्त तथा स्पष्ट शीर्षक होना चाहिए ।दूसरा, भुजाक्ष (X-axis) की लम्बाई कोटिकाक्ष (Y-axis) से डेढ़ गुनी होनी चाहिए । तीसरे, पैमाने का चुनाव ग्राफ़ पेपर के आकार और समंकों की प्रकृति को ध्यान में रखकर करना चाहिए । चौथे, बिंदु रेखा चित्र के ऊपर की तरफ़ पैमाने का विवरण देना चाहिए । पांचवें, यदि आश्रित चर मूल्य बड़े आकार के हों तो कृत्रिम आधार रेखा का प्रयोग करना चाहिए । छठें, बिंदु रेखा चित्र के साथ-साथ समंकों की सारणी देना चाहिए । सातवें, ग्राफ़ पेपर पर विभिन्न बिन्दुओं को अंकित करने के बाद उन्हें पैमाने से मिला देना चाहिये । ग्राफ़ पेपर पर संकेत इंगित कर देना चाहिए ।
  • 49- सामान्य रूप से ग्राफ पेपर पर दो प्रकार की सांख्यिकीय श्रेणियां प्रदर्शित की जाती हैं : समय श्रेणी और आवृत्ति वितरण बिंदु रेखीय चित्र । किसी तथ्य में होने वाले परिवर्तन को जब सामयिक आधार पर दर्शाया जाता है तो उसे समय श्रेणी कहते हैं । इसमें समय क्रम अर्थात् दिन, माह, वर्ष आदि सांख्यिकीय परिवर्तनों को प्रदर्शित किया जाता है । इनके प्रदर्शन के लिए समय को पड़ी तथा मूल्यों की खड़ी रेखा पर दिखाया जाता है । विभिन्न बिंदुओं को परस्पर जोड़ देने से एक वक्र बन जाता है । इस प्रकार के चित्रों को कालिक- चित्र भी कहा जाता है ।
  • 50- आवृत्ति वितरण बिन्दु रेखीय चित्र विभिन्न वर्गान्तरों के अंतर्गत आवृतियों को आयतों की रचना के द्वारा प्रदर्शित किया जाता है । इसे तीन श्रेणियों में विभाजित किया जाता है : आवृत्ति वक्र चित्र, आवृत्ति बहुभुज तथा संचयी आवृत्ति वक्र । आवृत्ति वक्र चित्र उन चित्रों को कहते हैं जिनमें प्रत्येक वर्गान्तर के मध्य बिन्दुओं को अंकित करके उन्हें सुडौल और सहज रूप में मिला दिया जाता है । आवृत्ति बहुभुज उन रेखा चित्रों को कहते हैं जिनमें सर्वप्रथम आवृत्ति आयत चित्रों का निर्माण किया जाता है तथा फिर आयतों के शीर्ष भाग के मध्य बिंदुओं को मिला दिया जाता है । इसमें जो आकृति बनती है उसके चार से अधिक कोण एवं भुजाएँ होती हैं ।
  • नोट : उपरोक्त सभी तथ्य, “राजनीति विज्ञान में अनुसंधान पद्धतियाँ” पुस्तक, लेखक : डॉ. एस. सी. सिंहल, प्रकाशक : लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, आगरा (उत्तर- प्रदेश), ISBN: 978-81-89770-35-8, तृतीय संस्करण, 2018 से साभार लिए गए हैं ।
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Dr. RB Mourya:

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