– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर-प्रदेश) email : drrajbahadurmourya @ gmail. Com, website : themahamaya. Com
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1- बेलारूस के एक खुशहाल परिवार में जन्में साइमन कुज्नेत्स (1901-1985) ने आर्थिक विज्ञान को आनुभाविक विवेचन का आयाम प्रदान किया । वह विलियम पेटी द्वारा स्थापित राजनीतिक अंकगणित वाली परम्परा की सर्वाधिक प्रतिभावान कड़ियों में से एक थे । राष्ट्रीय आमदनी का लेखा- जोखा लगाने में आज सारी दुनिया में कुज्नेत्स द्वारा बतायी गयी विधियों का प्रयोग किया जाता है । अगर अर्थशास्त्र आर्थिक जीवन की ज़मीन पर हो रही घटनाओं के अध्ययन का शास्त्र है तो कुज्नेत्स को उसके कुछ सर्वाधिक महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों में से एक माना जाना चाहिए । 1971 में उन्हें आर्थिक विज्ञान का नोबेल पुरस्कार देते हुए राष्ट्रीय आय का अनुमान लगाने के क्षेत्र में उनके काम की अहमियत स्वीकार की गई ।
2- साइमन कुज्नेत्स ने खारकोव विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र का अध्ययन किया और यहीं पर उनका परिचय जोसेफ शुमपीटर द्वारा प्रवर्तित नवपरिवर्तन और व्यापार चक्रों के सिद्धांत से हुआ । अमेरिका के कोलम्बिया विश्वविद्यालय में वेल्जी क्लेयर के शिष्यत्व में कुज्नेत्स ने आनुभाविक अर्थशास्त्र की पद्धतियों पर महारत हासिल की । यहीं से पी एच डी करके कुज्नेत्स ने नैशनल ब्यूरो ऑफ इकॉनॉमिक रिसर्च में तीन साल तक काम किया और फिर पेंसिलवेनिया विश्वविद्यालय चले गए । सेवानिवृत्ति से पहले के अंतिम दस वर्ष उन्होंने जॉन हॉपकिन्स विश्वविद्यालय में गुज़ारे । उन्होंने 1929-1932 के बीच के वर्षों में अमेरिका की राष्ट्रीय आमदनी का पहला लेखा- जोखा पेश किया ।
3- आर्थिक गतिविधि के फैलने और सिकुड़ने के क्षेत्र में रूसी अर्थशास्त्री निकोलाई कोंद्रातीफ ने भी उल्लेखनीय कार्य किया था । कुज्नेत्स के अध्ययन से पहले उन्होंने आर्थिक चक्रों की पहचान की थी ।इन्हीं चक्रों को आगे चलकर शुमपीटर ने अपने अध्ययन में कोंद्रातीफ लहरों की संज्ञा दी । आर्थिक उतार- चढ़ाव के अपने अध्ययन में कुज्नेत्स में बीस- बीस साल तक चलने वाले मध्यवर्ती चक्रों की खोज की जो अर्थशास्त्र की शब्दावली में कुज्नेत्स चक्र के नाम से जाने जाते हैं । कुज्नेत्स ने निष्कर्ष निकाला कि यह चक्र आबादी में हुए परिवर्तनों पर निर्भर हैं । उन्होंने यह भी नोट किया कि आर्थिक वृद्धि के कई अवांछित नतीजे भी निकलते हैं । मसलन, अनावश्यक शहरीकरण, ट्रैफ़िक जाम तथा प्रदूषण की समस्या ।
4- साझा संसाधनों की त्रासदी वह अवधारणा है जो आर्थिक विकास और पर्यावरण सुरक्षा के अंतर्विरोधों, ग्लोबल वार्मिंग की परिघटना और टिकाऊ विकास जैसी अवधारणाओं का सूत्रीकरण करता है । यह सूत्रीकरण सबसे पहले 1968 में साइंस नामक पत्रिका में प्रकाशित गैरेट हार्डिन के लेख में किया गया था । हार्डिन ने अपने निबंध में लिखा कि अगर मनुष्य के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए आवश्यक पृथ्वी की क्षमता बरकरार रखनी है तो पुनरुत्पादन की स्वतंत्रता पर रोक लगानी होगी । ट्रैजेडी ऑफ कॉमंस के रूप से प्रेरणा लेकर अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, गेम थियरी और समाजशास्त्र के साथ- साथ कई और अनुशासनों में उल्लेखनीय विश्लेषण हुए हैं ।
5- हार्डिन ने जिस रूपक का इस्तेमाल किया था वह 1833 में प्रकाशित विलियम फ़ॉस्टर लॉयड के एक पैम्फलेट से लिया गया था । मानवशास्त्री जी.एन.एपिल के अनुसार हार्डिन के निबन्ध को उन विद्वानों और विशेषज्ञों ने एक धार्मिक रचना की तरह ग्रहण कर लिया है जो दूसरी समाज व्यवस्थाओं पर अपनी आर्थिक और पर्यावरणीय समझ के आधार पर गढ़े गए भविष्य को थोपना चाहते हैं । साझा संसाधनों की त्रासदी ने कुछ उपयोगी धारणाओं को जन्म दिया जो अभी विकास के दौर में हैं । इनमें से एक है कुछ साझा संसाधनों का बाक़ायदा मूल्यांकन न करने की प्रवृत्ति । इसका सबसे अच्छा उदाहरण हवा है ।
6- सामंतवाद अंग्रेज़ी भाषा के फ्यूडलिज्म शब्द का हिन्दी तर्जुमा है । फ्यूडल शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द फियोडेलिस से हुई है । मध्ययुगीन यूरोप में फ्यूडल शब्द का कानूनगत इस्तेमाल हुआ और यह एक प्रकार के सम्पत्तिगत अधिकार का द्योतक बन गया । फ्यूडलिजम शब्द के प्रचार का श्रेय मुख्य रूप से अठारहवीं सदी के फ़्रांसीसी दार्शनिक बूलैवीये और मोंतेस्क्यू की रचनाओं को जाता है । वे इस शब्द का इस्तेमाल मध्ययुग के दौरान छोटे-छोटे राजकुमारों और अधिपतियों की सम्प्रभुता में साझेदारी व्यक्त करने के लिए कर रहे थे । प्रारम्भिक दौर में सामंतवाद को परम्परागत क़ानूनों पर टिके भूमि स्वामी और दास सम्बन्धों के रूप में देखा गया । बाद में उसे एक पिछड़ी और धीमी गति से बदलने वाली व्यवस्था के रूप में परिभाषित किया जाने लगा ।
7- भारतीय संदर्भों में सामंतवाद की प्रथम अभिव्यक्ति कर्नल टेम्स टॉड की रचना अनाल्स ऐंड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान इन 1829-1832 में मिलती है । टॉड ने यह पुस्तक उन्नीसवीं सदी के आरम्भिक दौर में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के मुलाजिम के तौर पर काम करते हुए लिखी थी । इसमें कर्नल टॉड ने सामंतवाद को अपने समकालीन हेनरी हेलम कृत हिस्ट्री ऑफ द मिडिल एजेज की तर्ज़ पर परिभाषित किया गया । टॉड ने दिखाया कि भारत के राजपूत नस्ली तौर पर कैसे उसी मध्य एशियाई सिंथियन श्रेणी से सम्बद्ध थे जिन्होंने प्रारम्भिक यूरोप में क़बीलाई संस्कृति का निर्माण किया । सम्प्रभु और मातहत वर्ग के बीच इस दायित्व बोध ने एक प्रकार के सामंती समझौते को जन्म दिया ।
8- दामोदर धर्मानंद कोसम्बी ने 1956 में प्रकाशित अपनी पुस्तक एन इंट्रोडक्शन टू द स्टडी ऑफ इंडियन हिस्ट्री में सामंतवाद की गंभीर पड़ताल की । कोसम्बी ने बौद्धिक और सांस्कृतिक उत्पादन को मौजूदा सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों से जोड़ने का प्रयास किया । उन्होंने भारत में दो तरह के सामंतवाद की चर्चा किया । एक था ऊपर से आरोपित सामंतवाद और दूसरा था नीचे से आया सामंतवाद । ऊपर से आये सामंतवाद का तात्पर्य राज्य से था । नीचे से आए सामंतवाद का तात्पर्य उस अगले चरण से था जिसमें गाँव में राज्य और किसानों के बीच भूमिपतियों के एक ऐसे वर्ग का उदय होता है जो धीरे-धीरे स्थानीय जनता पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लेता है ।
9- रामशरण शर्मा ने 1965 में प्रकाशित अपनी रचना इंडियन फ्यूडलिजम में 1920-30 के दशकों के दौरान बेल्जियम के इतिहासकार हेनरी पिरेन द्वारा निरूपित सामंतवाद के उत्थान और पतन सम्बन्धी प्रतिमान का अनुसरण किया । 1979 में भारतीय इतिहास कांग्रेस के अध्यक्षीय संबोधन में हरबंस मुखिया ने वाज देयर फ्यूडलिजम इन इंडियन हिस्ट्री शीर्षक से एक पर्चा पढ़ा और इसके माध्यम से सामंतवाद की अवधारणा पर शर्मा के तर्कों से असहमत होते हुए कई सैद्धांतिक और तथ्यगत सवाल उठाए । मुखिया ने यूरोप और भारतीय पृष्ठभूमि का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए दोनों के बीच पाये जाने वाले मौलिक अंतरों को स्पष्ट किया ।
10- बी.एन.एस. यादव ने 1973 में प्रकाशित अपनी पुस्तक सोसाइटी ऐंड कल्चर इन नॉर्दर्न इंडिया इन द ट्वेल्थ सेंचुरी में कलियुग सम्बन्धी अवधारणा के लक्षणों पर दृष्टिपात करते हुए बताया कि समाज की एक अवस्था से दूसरी अवस्था में संक्रमण से कलियुग भी अछूता नहीं रह गया है । डी.एन.झा ने वर्ष 2000 में प्रकाशित अपनी पुस्तक द फ्यूडल ऑर्डर : स्टेट, सोसाइटी एन आइडियोलॉजी इन अर्ली मिडिवल इंडिया में उत्तर भारत की जगह प्रायद्वीपीय भारत में मिले प्रमाणों पर ध्यान दिया । भैरवी प्रसाद साहू ने वर्ष 1997 में प्रकाशित अपनी पुस्तक लैण्ड सिस्टम ऐंड रूरल सोसाइटी इन अर्ली इंडिया में संकट के सूचक स्वरूप कलियुग की अवधारणा के साक्ष्य की वैधता पर सवाल खड़ा किया ।
11- वर्ष 2001 में प्रकाशित अपनी पुस्तक अर्ली मिडिवल इंडियन सोसाइटी : ए स्टडी इन फ्यूडलाइजेशन में ऐतिहासिक भौतिकवाद के सैद्धान्तिक नज़रिए का प्रयोग करते हुए सामाजिक भेद और आर्थिक विकास के चरण तथा विचारधारा के क्षेत्र में आए बदलावों को चिन्हित किया । वर्ष 1946 में प्रकाशित अपनी पुस्तक स्टडीज़ इन द डिवलेपमेंट ऑफ कैपिटलिजम में मोरिस डॉब ने व्यापार और सामंतवाद के बीच विरोधाभास पर सवाल खड़ा करते हुए तर्क दिया कि पश्चिमी यूरोप में व्यापार के उभार की वजह से सामंतवाद का पतन नहीं हुआ, बल्कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि गाँवों में भू स्वामियों के बढ़ते शोषण के कारण कृषक शहरों की ओर पलायन करने लगे थे ।
12- बी. डी. चट्टोपाध्याय ने वर्ष 1994 में प्रकाशित अपनी पुस्तक द मेकिंग ऑफ अर्ली मिडिवल इंडिया में दर्शाया है कि भारत में व्यवसाय की परिघटना कम से कम एक शताब्दी पहले घटित हो चुकी थी । रणबीर चक्रवर्ती ने वर्ष 2001 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ट्रेड इन अर्ली इंडिया में पर्याप्त प्रमाण के साथ फलते -फूलते व्यापार के साक्ष्य प्रस्तुत किए हैं । बी. डी. चट्टोपाध्याय ने मुद्रा की कमी सम्बन्धी अवधारणा का जहां ज़बरदस्त प्रतिवाद किया वहीं जॉन एस डेल ने 1990 में प्रकाशित अपनी पुस्तक लिविंग विदाउट सिल्वर : द मोनिटरी हिस्ट्री ऑफ अर्ली मिडिवल नार्थ इंडिया में मुद्रा के अभाव को चुनौती दिया ।भारत में प्रयुक्त की जाने वाली कौड़ियाँ सुदूर मालदीव से आती थीं ।
13- पश्चिमी सन्दर्भ में कम्युनलिजम का अर्थ है समुदाय आधारित कार्रवाई । भारतीय और दक्षिण एशियाई सन्दर्भ में साम्प्रदायिकता का मतलब हो जाता है समुदायों के बीच, आमतौर पर धार्मिक समुदायों के बीच, होड़ और टकराव जो अक्सर हिंसा का रूप ले लेती है । इतिहासकार बिपन चन्द्र के अनुसार साम्प्रदायिकता एक ऐसा आग्रह है जिसके तहत एक धर्म के अनुयायी अपने सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक हितों को समान मान लेते हैं । वस्तुतः साम्प्रदायिकता को एक शत्रु की ज़रूरत होती है और यह शत्रु एक दूसरा धर्मावलम्बी भी हो सकता है । इसके तहत एक समुदाय के सदस्यों को विश्वास दिलाया जाता है कि उनके लौकिक और पारलौकिक हित एक दूसरे के हितों को चोट पहुँचाकर ही सुरक्षित रखे जा सकते हैं ।
14- दिलीप सीमियन ने 1986 में प्रकाशित अपने लेख कम्युनलिजम इन मॉडर्न इंडिया : द थियरीटकल एग्जामीन में लिखा है कि साम्प्रदायिकता का सार ऐतिहासिक स्मृति में निहित है । जिसकी अभिव्यक्ति मिथकों, प्रतीकों और सांस्कृतिक पूर्वजों से जुड़े हुए जज़्बात में होती है । रणधीर सिंह मानते हैं कि साम्प्रदायिकता का राजनीतिक खेल एक ऐसे समाज में खेला जाता है जो अपनी सामंती औपनिवेशिक विरासत की जकड़ में बुरी तरह से फँसा हुआ है, जो गहरे धार्मिक विभाजन का शिकार है और जो पूँजीवादी विकास के अपने एक विशिष्ट रूप से गुजर रहा है । आशीष नंदी के अनुसार साम्प्रदायिकता की सतत और व्यापक उपस्थिति राष्ट्रवादी, सेकुलरवादी और आधुनिकतावादी परियोजना की देन है ।
15- सत्तर के दशक में एक नए सिद्धांत ने जन्म लिया जिसे रिसोर्स मोबिलाइजेशन थियरी अथवा संसाधनों की लामबंदी का सिद्धांत के नाम से जाना जाता है ।इस सिद्धांत ने सामाजिक आन्दोलनों को एक ऐसी सामाजिक प्रक्रिया के रूप में देखा जिसके तहत राजनीतिक उद्यमी किसी इच्छित सामाजिक परिवर्तन की ख़ातिर पहले तो संसाधनों का तर्क संगत संचय करते हैं और फिर लक्ष्यों को बेधने के लिए संसाधनों का उपयोग करते हैं । इस सिद्धांत के पैरोकार मानते हैं कि सामाजिक आन्दोलन पूरी तरह से अपनी संसाधन उपलब्ध कर पाने की क्षमता पर ही निर्भर करते हैं ।
16- आन्द्रे ग्रोज, रूडोल्फ़ बाहरो, एलॉं तूरेन और युरगन हैबरमास ने अपने- अपने तरीक़े से दावा किया कि सामाजिक- राजनीतिक अस्मिता और राजनीतिक कार्रवाई की ख़ातिर की जाने वाली गोलबंदी के लिए वर्ग अब एक कारगर प्रत्यय नहीं रह गया है । इन विद्वानों ने नव सामाजिक आन्दोलनों को उत्तर- औद्योगिक सामाजिक संरचनाओं की पैदाइश करार दिया । फ़्रांसीसी समाजशास्त्री एलॉं तूरेन ने द रिटर्न ऑफ द एक्टर की रचना की । तूरेन ने रैडिकल रवैया अख़्तियार करते हुए कहा कि समाजशास्त्रियों को सामाजिक आन्दोलनों की केवल व्याख्या तक ही सीमित न रहकर उनमें भागीदारी करते हुए उनकी गहरी पड़ताल करनी चाहिए ।
17- सामाजिक एकजुटता की अवधारणा उन सामाजिक प्रक्रियाओं और आग्रहों को रेखांकित करती है जो इन विभेदों के बीच समूहों और व्यक्तियों को मिल-जुलकर परस्पर एकजुटता के साथ रहने की तरफ़ ले जाते हैं । दरअसल सभी समाज अपनी अंतर्निहित अनेकता के बावजूद एकजुटता के कुछ रूपों को पैदा करते ही हैं । इन रूपों की संरचना उन समाजों के उदय और विकास की ऐतिहासिक परिस्थितियों पर निर्भर करती है । एकजुटता साझे विश्वासों, आस्थाओं और मूल्यों से उपज सकती है । समाज के प्राधिकार के पारम्परिक रूपों से उसका जन्म हो सकता है, बहिर्वेशन और समावेशन के समीकरण से एकता निकल सकती है ।
18- एमील दुर्खाइम ने वर्ष 1984 में प्रकाशित अपनी पुस्तक द डिवीजन ऑफ लेबर इन सोसाइटी में सबसे पहले सामाजिक एकजुटता के विचार का सूत्रीकरण किया । चालू बौद्धिक फ़ैशन के लिहाज़ से इस अवधारणा को सोशल कोहिजन कहा जाता है । दुर्खाइम के विमर्श में यह विचार सोशल सोलिडरिटी के रूप में उभरता है । दुर्खाइम ने इसकी दो श्रेणियाँ बनाई थीं – यांत्रिक एकता और सावयविक एकता । यांत्रिक एकता का मतलब था इकाइयों द्वारा किसी एक समष्टि में पूरी तरह से विलीन हो जाना जबकि सावयविक एकजुटता का मतलब होता है अलग-अलग काम करते हुए भी कामों की परस्पर निर्भर प्रवृत्ति के कारण एक दूसरे से जुड़ा रहना ।
19- यांत्रिक एकता की आकांक्षा के अनुरूप लोग रीति- रिवाजों, परम्पराओं और धर्म के कठोर नियंत्रण में पूरा जीवन गुज़ार देते हैं । सावयविक एकता की अभिव्यक्ति समानता में एकता के बजाय विभिन्नता में एकता के रूप में होती है । दुर्खाइम ने यह माना कि सामाजिक एकजुटता एक आर्थिक परिघटना से ज़्यादा एक सांस्कृतिक परिघटना है जिसकी रचना धार्मिक या उसके समकक्ष सेकुलर घटकों से मिलकर होती है । कार्ल मार्क्स इसका आधार वर्गीय एकता में मानते हैं । इसीलिए उन्होंने नारा दिया ‘दुनिया के मज़दूरों एक हो जाओ’। गियोर्ग जिमेल का विचार है कि एकजुटता सबसे ज़्यादा सीक्रेट सोसायटियों में ही सम्भव है ।
20- उलरिख बेक और एंथनी गिडेंस जैसे विचारकों ने दलील दी है कि निरंतर बढ़ते हुए सामाजिक और भौगोलिक आवागमन और आव्रजन ने वर्ग और समुदाय से निकलने वाली पारम्परिक एकजुटताओं को कमज़ोर कर दिया है । जिग्मण्ड बाउमैन का विचार स्व- हित को चालक शक्ति मानता है । मेरी डगलस का विचार है कि एकजुटता तब तक हासिल नहीं की जा सकती है जब तक लोग त्याग की भावना से प्रेरित न हों । सामाजिक एकजुटता के समुदायवादी परिप्रेक्ष्य का मानना है कि सहकार और समर्थन सामुदायिक संगठनों की तरफ़ से ही आ सकता है ।
21- एक- दूसरे से भिन्न निजी, सामूहिक और संस्थागत प्राथमिकताओं, गतिविधियों और सरोकारों के बीच समग्र कल्याण, समग्र जन हित और समग्र ग़रीबी के सन्दर्भ में पूरे समाज को प्रभावित करने वाले निर्णय को सामाजिक चयन करार दिया जाता है । पूरे समाज की ख़ुशहाली का आग्रह करने वाले इस सिद्धांत के दायरे में नागरिक अधिकार और स्वतंत्रताओं पर भी विचार किया जाता है । इस सिद्धांत का ज़ोर समतामूलक वितरण पर रहता है । बीसवीं सदी में सामाजिक चयन की थियरी प्रतिष्ठित करने का श्रेय कैनेथ जे.एरो की रचना सोशल चॉयस ऐंड इंडिविडुअल वैल्यूज को जाता है । अठारहवीं सदी में फ़्रांसीसी क्रांति के इर्द-गिर्द इस विमर्श को एक सुसंगत सिद्धांत का रूप देने का प्रयास किया गया ।
22- कैनेथ एरो की प्रमेय को असम्भाव्यता की प्रमेय के रूप में भी जाना जाता है । एरो ने निष्कर्ष निकाला कि सामाजिक चयन का प्रश्न विशुद्ध गणितीय या औपचारिक रवैये से हल नहीं हो सकता । उसके लिए समाज की असली समस्याओं से जूझना होगा और उस प्रक्रिया में किसी भी तरह की व्यक्तिगत प्राथमिकताओं से बचने के रुझान को भी त्यागना होगा । इसके अलावा दो फ़्रांसीसी गणितज्ञों जे. सी. बोरदा और मार्क्विस द कोंदोर्स ने मतदाताओं के व्यवहार का सूत्रीकरण प्रमेयों के रूप में किया ताकि लोकतांत्रिक सिद्धांत को एक तर्क संगत रूप मिल सके । अमर्त्य सेन ने 1977 में ऐरो के विमर्श का नए सिरे से मूल्यांकन किया और मुख्यतः उसकी मुश्किलों को रेखांकित किया ।
23- सामाजिक पूँजी के सिद्धांत के मर्म में आग्रह यह है कि सामाजिक नेटवर्कों के महत्व को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि सामाजिक संम्पर्क व्यक्तियों और उनके समूहों की उत्पादकता को प्रभावित करते हैं । लोग विभिन्न मक़सदों से अपने सम्पर्कों और रिश्तों को एक महत्वपूर्ण संसाधन की तरह इस्तेमाल करते हैं । वे जैसे ही किसी समस्या में फँसते हैं या उनके जीवन में कोई परिवर्तन होता है, वे दोस्तों, नाते- रिश्तेदारों और परिजनों को आवाज़ देते हैं । लोगों का समूह आपस में जुड़कर अपने समान हितों को साधने का प्रयास करता है । वर्ष 2000 में रॉबर्ट पुटमैन की ऑंकडों से भरी हुई उनकी विश्लेषणात्मक पुस्तक बौलिंग एलोन प्रकाशित हुई ।
24- फ़्रांसीसी समाजशास्त्री पियर बोर्दियो ने अपने साथी लोइक वाकॉं के साथ प्रकाशित रचना में लिखा था कि सामाजिक पूँजी ऐसे वास्तविक और निराकार संसाधनों का योगफल है जो किसी व्यक्ति या समूह को किसी सामाजिक नेटवर्क की सदस्यता की बदौलत हासिल होते हैं । व्यक्ति अपनी सामाजिक पूँजी के आधार पर हासिल की गई उस सामाजिक- आर्थिक हैसियत को अगली पीढ़ी के हवाले कर पाता है जो उसने प्रभावशाली परिजनों, महँगे स्कूलों में पढ़ने वाले अपने सहपाठियों और किसी ख़ास क्लब के साथी सदस्यों की सोहबत की बदौलत हासिल की होती है । इसको लगातार प्रभावी रखने के लिए व्यक्ति आपसी मेल- जोल में अपने समय का योजनाबद्ध निवेश करता है ।
25- सामाजिक बहिर्वेशन समान अवसरों से वंचित करने की उस प्रक्रिया का नाम है नाम है जो समाज के कुछ समूहों पर थोप दी जाती है । नतीजा यह निकलता है कि उन समूहों के सदस्य निजी तौर पर राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक प्रक्रिया में भागीदारी करने की हैसियत में नहीं रह जाते । सामाजिक बहिर्वेशन का दायरा बहुत बड़ा होता है । उसमें रोजी- रोटी न कमा पाने और गृह विहीनता की स्थितियों से लेकर जेंडर या जातीयता से जुड़ा पक्षपात भी शामिल है । कोई व्यक्ति या समूह बहिर्वेशन के एक सिलसिले से क्रमशः गुजरता हुआ अलगाव, तिरस्कार, अवमानना और असुरक्षा का शिकार होता चला जाता है । समाज विज्ञान में सामाजिक बहिर्वेशन की अवधारणा नब्बे के दशक में ख़ास तौर से प्रचलित हुई ।
26- अमर्त्य कुमार सेन ने वर्ष 2000 में प्रकाशित अपनी पुस्तक सोशल एक्सक्लूजन : कंसेप्ट, एप्लिकेशन ऐंड स्क्रूटनी में सामाजिक बहिर्वेशन की बारीक व्याख्या किया है । उन्होंने कहा कि कुछ लोग शामिल न किए जाने के कारण और कुछ लोग शामिल किए जाने के बावजूद भेदभाव का शिकार होने के कारण परित्यक्तता की अनुभूति से गुजरते हैं । यानी बहिर्वेशन न केवल खुले तौर से अलगाव में डाल दिया जाने का परिणाम है बल्कि वह उपेक्षा और अन्याय से भी उपजता है । अमर्त्य सेन ने सक्रिय और निष्क्रिय बहिर्वेशन की भी चर्चा की है । सरकार द्वारा बनाई गयी नीतियों के परिणामस्वरूप होने वाला बहिर्वेशन सक्रिय श्रेणी में आता है और समाज की खामोशी से चलने वाली प्रक्रियाओं के कारण होने वाले परिस्थितिजन्य बहिर्वेशन को निष्क्रिय करार दिया जा सकता है ।
27- फ़्रांसीसी विद्वान ज्यॉं क्लैनफर की वर्ष 1965 में प्रकाशित रचना सोशल एक्सक्लूजन : द स्टडी ऑफ मार्जिनलिटी इन वेस्टर्न सोसाइटी से इस विचार की शुरुआत मानी जाती है । इस रचना में ज़्यादातर बहिर्वेशन के आर्थिक रूपों को रेखांकित किया गया है । इसके बाद सत्तर के दशक में एक और फ़्रांसीसी विद्वान रेने लेनोइर ने दिखाया कि किस तरह ग़रीबी और अधिकारहीनता के कारण फ़्रांसीसी नागरिकों का एक हिस्सा आर्थिक और सामाजिक प्रक्रियाओं में भागीदारी से वंचित है । 1997 में ब्रिटेन में लेबर पार्टी के टोनी ब्लेयर ने सत्ता सम्भालते ही खुद को बहिर्वेशन के खिलाफ जिहाद करने वाले योद्धा के रूप में चित्रित किया । यूरोपियन यूनियन ने वर्ष 2000 में एक दस्तावेज जारी किया जिसका शीर्षक था- फाइट अगेंस्ट पॉवर्टी ऐंड सोशल एक्सक्लूजन ।
28- सामाजिक समझौता एक ऐसा सिद्धांत है जिसके केन्द्र में मुख्य विचार यह है कि वैध सरकार स्वतंत्र नैतिक कर्ताओं के बीच स्वैच्छिक समझौते का कृत्रिम नतीजा होती है । इसके पीछे मान्यता है कि प्राकृतिक राजनीतिक प्राधिकार जैसी कोई चीज नहीं है । आधुनिक युग में इस सिद्धांत ने दैवीय सिद्धांत का खंडन करके व्यक्तियों की नैतिक समानता का तथ्य रेखांकित किया । इसलिए माइकल ओकशॉट ने 1946 में प्रकाशित अपनी पुस्तक इंट्रोडक्शन टू लेवायथन में समझौतावाद को इच्छा और कौशल का सिद्धांत कहा है । लॉक के इस कथन से पूरा महत्व सामने आता है कि स्वैच्छिक सहमति गवर्नर को राजनीतिक सत्ता देती है । 1650-1800 के बीच के दौर को समझौता सिद्धांत का स्वर्ण युग माना जाता है ।
29- सामाजिक समझौता सिद्धांत की शुरुआत थॉमस हॉब्स की रचना लेवायथन से और कांट के मेटाफिजिकल एलीमेन्ट्स ऑफ जस्टिस से हुई । बीसवीं सदी में जॉन रॉल्स जैसे उदारतावादी चिंतक ने वर्ष 1971 में प्रकाशित अपनी पुस्तक अ थियरी ऑफ जस्टिस में इस उसूल का नए सिरे से प्रयोग किया । संत ऑगस्टीन के लेखन ने सामाजिक चिंतन को निर्णायक रूप से स्वेच्छावाद की ओर मोड़ा । ऑगस्टीन ने अपने नैतिक सिद्धांत में सहमति और इच्छा के बीच गहरा जुड़ाव क़ायम किया । इस जुड़ाव के बिना सामाजिक समझौता सिद्धांत की कल्पना नहीं की जा सकती थी । लेकिन सामाजिक समझौता स्कूल के उभार के पहले राजनीतिक स्वेच्छावाद का सबसे विकसित रूप फ़्रैंसिस्को सुरेज के लेखन में पाया जाता है
30- फ़्रैंसिस्को सुरेज ने कहा कि मुक्त इच्छा और राजनीतिक सहमति एक- दूसरे के समानांतर हैं । इच्छा को राज्य का सबसे महत्वपूर्ण कारण माना जा सकता है । सुरेज ने अपने सिद्धांत को संक्षिप्त रूप में व्यक्त करते हुए यह टिप्पणी की कि आदमियों को एक पूर्ण समुदाय में संगठित करने के लिए मानव इच्छा आवश्यक है । सत्रहवीं सदी से इच्छा पर आधारित सहमति को एक नैतिकता के रूप में स्वीकार किया जाने लगा । हॉब्स, लॉक और रूसो के विचारों ने सामाजिक समझौता की अवधारणा को बहुत लोकप्रिय बना दिया । इन सभी लेखकों ने मनुष्य की प्रकृति, प्राकृतिक अवस्था, सामाजिक समझौता और इसके बाद सम्प्रभु के निर्माण की एक पूरी कहानी पेश की । इन विद्वानों ने स्पष्ट किया कि राज्य का प्राधिकार व्यक्तियों की सहमति पर निर्भर होता है ।
31- हॉब्स ने लेवायथन में इस बात पर ज़ोर दिया कि मूल रूप से सभी सम्प्रभु अधिकार शासित होने वाले हर व्यक्ति की सहमति से उत्पन्न होते हैं । उन्होंने कहा कि मनुष्यों की इच्छाएँ हर तरह के समझौते की बुनियाद हैं । रूसो ने भी इस बात पर ज़ोर दिया कि ‘मैंने कोई वायदा नहीं किया, उनके प्रति मेरी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है… नागरिक साहचर्य इस दुनिया में सबसे स्वैच्छिक कार्य है, चूँकि हर व्यक्ति इस दुनिया में स्वतंत्र पैदा होता है और खुद अपना मालिक होता है इसलिए किसी भी आधार पर किसी को उसकी सहमति के बिना अपने अधीन नहीं किया जा सकता है।’ कांट ने इस बात पर ज़ोर दिया कि सभी वैध नियम ऐसे होने चाहिए कि तार्किक व्यक्ति उन्हें अपनी स्वीकृति दे सकें । हीगल ने भी माना कि प्राचीन काल में व्यक्ति परक साध्य राज्य की इच्छा के अनुरूप होते थे ।
32- ड्वॉर्किन का मानना है कि ‘यह बात सही है कि काल्पनिक सहमति वास्तविक समझौते का धुंधला रूप है, या फिर यह कोई समझौता ही नहीं है ।’ उनके अनुसार सामाजिक समझौता के तर्कों को हमें एक ऐसे साधन के रूप में देखना चाहिए जिससे लोगों की नैतिक समानता से जुड़े निश्चित नैतिक आधार- वाक्यों के अर्थ को समझा जा सके । प्राकृतिक अवस्था के विचार का सहारा लेने का मतलब यह नहीं है कि समाज के ऐतिहासिक निर्माण या सरकार और लोगों के ऐतिहासिक दायित्वों को स्पष्ट किया जा रहा है । दरअसल इसका उपयोग व्यक्तियों की नैतिक समानता का मॉडल बनाने के लिए किया जाता है ।वर्ष 1946 में प्रकाशित ई. बार्कर की पुस्तक द सोशल कांट्रैक्ट सामाजिक समझौता सिद्धांत पर विस्तृत प्रकाश डालती है ।
33- साम्राज्य स्थापित करने की प्रक्रिया को आधुनिक अर्थों में साम्राज्यवाद की संज्ञा पन्द्रहवीं सदी में मिली जब यूरोपियन ताक़तों ने अपना विस्तार शुरू किया । सन् 1500 के आस-पास स्पेन, पुर्तगाल, ब्रिटेन, फ़्रांस और हालैंड की विस्तारवादी कार्रवाइयों को साम्राज्यवाद का पहला दौर माना जाता है । इसका दूसरा दौर 1870 के आस-पास शुरू हुआ जब मुख्य तौर पर ब्रिटेन साम्राज्यवादी विस्तार के शीर्ष पर था । अगली सदी में संयुक्त राज्य अमेरिका और जर्मनी उसके प्रतियोगी के तौर पर उभरे । साम्राज्यवादी विजेताओं ने दुनिया के विभिन्न हिस्सों को जीतकर शक्ति, प्रतिष्ठा, सामरिक लाभ, सस्ता श्रम, प्राकृतिक संसाधन और बाज़ार हासिल किया ।इसी दौर में यूरोपियनों ने अपनी सांस्कृतिक श्रेष्ठता का ढिंढोरा पीटा ।
34- साम्राज्यवाद की दूसरी लहर ने सबसे पहले अफ़्रीका को अपना शिकार बनाया । इस महाद्वीप की हुकूमतें यूरोपियन फ़ौजों के सामने आसानी से परास्त हो गयीं । बेल्जियम के लिए हेनली स्टेनली ने कांगो नदी घाटी पर क़ब्ज़ा कर लिया, फ़्रांस ने अल्जीरिया को हस्तगत करके स्वेज नहर का निर्माण किया और उसके जबाब में ब्रिटेन ने मिस्र पर क़ब्ज़ा करके स्वेज नहर पर नियंत्रण कर लिया ताकि एशिया की तरफ़ जाने वाले समुद्री रास्तों पर उसका प्रभुत्व स्थापित हो सके । इसी के बाद फ़्रांस ने ट्यूनीशिया और मोरक्को को अपना उपनिवेश बनाया । इटली ने लीबिया को हड़प लिया । लातीनी और दक्षिणी अमेरिका में मुख्य तौर पर स्पेन के उपनिवेश रहे । इन क्षेत्रों की कई अर्थव्यवस्थाओं की लगाम अमेरिका और यूरोपीय ताक़तों के हाथों में रही ।
35- साम्राज्यवाद का सर्वाधिक प्रचलित मार्क्सवादी सिद्धांत प्रतिपादित करने का मुख्य श्रेय रूसी बोल्शेविक क्रांति के जनक व्लादिमीर इलीच लेनिन को है । उन्होंने आस्ट्रियायी मार्क्सवादी अर्थशास्त्री रूडॉल्फ़ हिल्फडरिंग की रचना फ़ायनेंस, कैपिटल और अंग्रेज अर्थशास्त्री की जॉन ए हॉब्सन की 1902 की रचना इम्पीरियलिज्म : अ स्टडी को आधार बनाते हुए आर्थिक आयामों को केन्द्रस्थ किया । लेनिन ने साम्राज्यवाद को पूंजीवाद की सर्वोच्च अवस्था के तौर पर दिखाया और निष्कर्ष निकाला कि प्रथम विश्व युद्ध नये बाज़ारों और निवेश के अवसरों को पूँजीवादी देशों के बीच हुई होड़ का नतीजा था ।
36- लेनिन ने अपनी रचना इम्पीरियलिज्म, हाइएस्ट स्टेज ऑफ कपिटलिज्म में साम्राज्यवाद के लक्षणों की सूची पेश की है : जिंसों के निर्यात के साथ-साथ साम्राज्यवाद के तहत पूँजी का निर्यात महत्वपूर्ण हो जाना, बड़े– बड़े ट्रस्टों या कार्टेलों में उत्पादन और वितरण का संकेंद्रण, बैंकिंग और औद्योगिक पूँजी का आपस में विलय हो जाना, पूँजीवादी ताक़तों द्वारा दुनिया को अपने– अपने प्रभुत्व क्षेत्रों में बाँट लेना, परिणामस्वरूप अगले दौर में पूँजीवादी ताक़तों द्वारा विश्व के पुनः विभाजन की सम्भावना पैदा हो जाना । हैंस मारगेंथाऊ के अनुसार साम्राज्यवाद उस प्रक्रिया का हिस्सा है जिसके तहत विभिन्न शक्तियाँ यथास्थिति को अपने पक्ष में झुकाने की कोशिश करती हैं ।
37- विद्वान जोसेफ शुम्पीटर का मानना था कि साम्राज्यवाद एक ध्येय विहीन गतिविधि है ताकि राज्य की संस्था अपना जबरन असीमित विस्तार कर सके । वे इस गतिविधि को एक मनोभाव के रूप में देखते हैं जो साम्राज्यिक राज्यों को योद्धा वर्ग की देन है । हालाँकि योद्धा वर्ग की रचना राज्य की विदेशी आक्रमणों से प्रतिरक्षा के उद्देश्य से हुई थी, पर उसने अपनी निरंतरता बनाए रखने के लिए साम्राज्यवाद का सहारा लिया । सत्तर के दशक के बाद चीन के नेता माओ– त्से– तुंग ने सोवियत संघ को सामाजिक साम्राज्यवाद की संज्ञा देकर साम्राज्यवाद की समझ में एक नया आयाम जोड़ा ।
38- हिमालय की पहाड़ियों के बीच बसे सिक्कम का भारत में विलय 16 मई, 1975 को हुआ था । इससे पहले सिक्किम पर विदेशी मामलों, राजनय, रक्षा और संचार के सम्बन्ध में भारत का नियंत्रण था, लेकिन अन्य मामलों में सिक्किम प्रशासनिक रूप से एक स्वायत्त राज्य था जिस पर उसके शासक चोग्याल की हुकूमत थी ।सिक्किम की राजधानी गांतोक है । इसके पश्चिम में नेपाल, उत्तर और पूर्व में चीन का स्वायत्तशासी क्षेत्र तिब्बत, दक्षिण- पूर्व में भूटान और दक्षिण में पश्चिम बंगाल स्थित है । वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार यहाँ की जनसंख्या 6 लाख, 7 हज़ार, 688 है । इस लिहाज़ से यह भारत का सबसे छोटा राज्य है ।
39- सिक्किम भारत में सबसे कम जनसंख्या घनत्व वाला राज्य है । यहाँ की साक्षरता दर 76.6 प्रतिशत है । यहाँ की विधायिका एक सदनीय है जिसमें कुल 32 सदस्य होते हैं । इन 32 सीटों में से 12 सीट भूटिया लेपचा समुदाय के लोगों के लिए और दो सीटें अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित हैं । यहाँ से लोकसभा के लिए एक और राज्य सभा के लिए भी एक सदस्य चुना जाता है । सिक्किम की राजकीय भाषाओं में नेपाली, भूटिया, लेपचा, लिम्बू, नेवारी, राय, गुरूंग, मंगार, शेरपा, तमांग और सुनवार शामिल हैं । सिक्किम में नेपाली जातीय मूल के लोगों का बहुमत है । मूल सिक्किमी लोगों में भूटिया और लेपचा शामिल हैं ।
40- सिक्किम के उत्तरी और पूर्वी भागों में तिब्बती लोग रहते हैं । इसके अलावा यहाँ बिहारी, बंगाली और मारवाड़ी समुदायों के भी लोग हैं जो मुख्य रूप से दक्षिणी सिक्किम और गांतोक में बसे हुए हैं । जनसंख्या का कुल 60.93 प्रतिशत लोग हिन्दू हैं । बौद्ध धर्म सिक्किम का दूसरा सबसे बड़ा धर्म है । 28.2 प्रतिशत जनसंख्या बौद्ध धर्म को मानती है । इसके अलावा यहाँ पर ईसाई, मुसलमान और जैन भी हैं । 1642 में तिब्बत के एक संत खेये बैमसा के पाँचवीं पीढ़ी के वंशज फुंटसोल नामग्याल ने यहाँ पर राजतंत्र की स्थापना की । यहाँ के शासक को चोग्याल या पुरोहित- नरेश के रूप में जाना गया । 1890 में सिक्किम ब्रिटेन का प्रोटेक्टोरेट (संरक्षित राज्य) बना । 1947 में सिक्किम ने भारत में विलय के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया ।
41- 1975 में सिक्किम के प्रधानमंत्री ने यह अपील की कि सिक्किम को औपचारिक रूप से भारत का राज्य बना दिया जाए । 1975 में हुए एक जनमत संग्रह में 97.5 प्रतिशत लोगों ने भारतीय संघ में शामिल होने और राजतंत्र को ख़त्म करने के पक्ष में मत दिया । सिक्किम को भारतीय संघ में शामिल करने के लिए भारतीय संसद ने 45 वां संविधान संशोधन किया । इसे सहायक राज्य या एसोसिएट स्टेट का दर्जा दिया गया । बाद में 36 वें संविधान संशोधन के द्वारा 35 वें संविधान संशोधन को ख़त्म करके सिक्किम को भारत के पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया । वर्ष 1975 में प्रकाशित रंजन गुप्ता की पुस्तक सिक्किम : द मर्जर विद इंडिया एक महत्वपूर्ण पुस्तक है ।
42- सिक्ख धर्म के संस्थापक, संत कवि और समाज सुधारक गुरु नानक देव जी महाराज (1469-1539) ने पारम्परिक शिक्षा, कर्मकाण्ड और प्रपंच की आलोचना करते हुए अपना संदेश दिया ।उन्होंने परमात्मा के संधान को बोलचाल की पंजाबी में व्यक्त किया । सिक्ख स्टडीज़ के डब्ल्यू.एच. मैक्लयोड जैसे विद्वान गुरु नानक को केवल आत्मिक अनुभूति के रस में सरोबार संत परम्परा की सीमा में ही ऑंकते हैं । जबकि पंजाबी मार्क्सवादी चिंतक किशन सिंह ने गुरु वाणी में और विशेष तौर पर नानक बाणी में सामाजिक संघर्ष की उस केन्द्रीयता को स्थापित किया है जो नाम और माया के परस्पर विरोधी संकल्पों पर आधारित है । गुरु नानक ने तत्कालीन दौर के हुक्मरानों और धर्माधिकारियों का तीखा प्रतिकार किया ।
43- गुरु नानक देव जी महाराज का जन्म लोधी वंश के शासन के दौरान आज के पाकिस्तान में स्थित गॉंव राय भोयं दी तलवंडी जिसे आमतौर पर ननकाणा साहिब के नाम से जाना जाता है, में 1469 सत् में गुरु नानक का पटवारी कालू मेहता के घर माता तृप्ता की कोख से हुआ । बड़ी बहन का नाम नानकी था इसलिए भाई का नाम नानक रखा गया । नानक की शादी बटाला में माता सुलक्खनी से हुई जिससे दो पुत्र श्री चंद और लखमी चंद पैदा हुए । पन्द्रहवीं सदी के आख़िरी सालों में वेईं नदी में स्नान के समय हुई गहन अनुभूति को नानक का रुहानी साक्षात्कार माना जाता है । नानक ने सोदरू के ज़रिए परमात्मा के सानिध्य का वर्णन किया है । गुरु नानक देव जी ने 1539 में करतार पुर में आख़िरी साँस ली और भाई लहणा को गुरु अंगद कहकर सिक्ख धर्म के संस्थागत निर्माण की शुरुआत की ।
44- सिक्ख धर्म में इहलोक में कूड़ की श्रृंखला तोड़ना हर सिक्ख के लिए अनिवार्य है और ऐसा करके ही वह साचा होने से भी आगे सचु आचार का वाहक बन सकता है ।यही गुरु नानक का शब्द है । इसी रुख से सिक्ख धर्म के नैतिक सदाचार और राजनीतिक अवधारणाओं का उद्भव होता है जिसके इर्द-गिर्द तवील अध्ययन हो रहे हैं और सामाजिक सरगर्मियाँ बनी हुई हैं । अपनी उदासियों अथवा यात्राओं के बाद गुरु नानक ने डेरा बाबा नानक के नज़दीक ही करतारपुर गाँव बसाया और स्वयं खेती करनी शुरू की । श्रम और सामाजिकता की बुनियाद पर खड़ी हो रही संगत ने यहीं बसेरा किया और सामूहिक लंगर की प्रथा डाली । संगत– पंगत– लंगर– कीर्तन आदि को यहाँ अभ्यास में उतारा गया ।
45- गुरु नानक देव जी ने सिक्ख सिद्धांत का वैचारिक चौखटा बड़े परिश्रम से तैयार किया जिससे परवर्ती गुरुओं के लिए ज़मीन तैयार हुई । दूसरे गुरु अंगद देव जी महाराज ने पंजाबी लिखने के लिए गुरूमुखी लिपि को प्रामाणिकता दी और खडूर में संगत को संगठित किया । गुरु अमर दास जी महाराज ने गोइंदवाल बसाया तथा रस्मों के लिए बाणी रचना किया, मंजीयॉं और मंजीदार नियुक्त किए जो बाद में मसंद कहे जाने लगे । चौथे गुरु रामदास जी महाराज ने चक रामदास या अमृतसर बसाया । इसके लिए 500 बीघा ज़मीन अकबर ने दिया था । पाँचवें गुरु अर्जुन देव जी महाराज ने संकलित बाणी को तथा भक्तों और सूफ़ियों की रचनाओं को सम्पादित करके आदि ग्रन्थ सम्पूर्ण किया जिसका प्रकाश हरमिंदर साहिब में किया गया ।
46- सिक्ख धर्म के छठें गुरु हर गोविंद जी महाराज (19-06-1595 से 28-02-1644)) हुए । सातवें गुरु हरि राय जी महाराज (16-01-1630 से 6-10-1661), आठवें गुरु हरि किशन जी महाराज (07-07-1656 से 30-03-1664), नवें गुरु तेग बहादुर जी महाराज (01-04-1621 से 11-11-1675) तथा दसवें गुरु गुरु गोविंद सिंह जी महाराज (22-12-1666 से 07-10-1708) हुए । अंतिम गुरु गोबिन्द सिंह महाराज के बाद फिर गुरु ग्रन्थ साहिब को ही गुरु माना गया । मूर्ति पूजा से दूर सिक्ख धर्म के अनुयायी सिर्फ़ गुरु ग्रन्थ साहिब के आगे ही मत्था टेकते हैं । सिक्ख धर्म में धार्मिक स्थल को गुरुद्वारा कहते हैं ।
47- गुरु गोबिन्द सिंह महाराज ने मीरी यानी दुनियावी और पीरी यानी आध्यात्मिक सम्प्रभुता की तलवारें धारण कीं ।अकाल तख़्त स्थापित किया, ढाडीयों से वीर रस में वारों के गायन की माँग की और सिक्खों की एक फ़ौजी टुकड़ी खड़ी करनी शुरू की । खालसा पंथ की स्थापना की ।कीरतपुर और आनन्दपुर साहिब बसाया । खालसा प्रतिबद्धता, समर्पण और सामाजिक चेतना के सर्वोच्च गुणों को उजागर करता है । गुरु अर्जुन देव जी ने अमृतसर को सिक्खों की राजधानी के रूप में स्थापित किया । अमृतसर एवं सन्तोष सर नामक दो तालाब खुदवाया । अमृतसर तालाब के मध्य में 1589 में हरमिंदर साहिब का निर्माण कराया । यही स्वर्ण मंदिर के नाम से जाना जाता है ।
48- हजूर साहिब, सिक्खों के पॉंच तख़्तों में से एक है । यह महाराष्ट्र राज्य के नांदेड नगर में गोदावरी नदी के किनारे स्थित है । इसमें स्थित गुरुद्वारा सच खंड (सत्य का क्षेत्र) कहलाता है । गुरुद्वारा का निर्माण 1832 और 1837 के बीच किया गया । यहीं पर सन् 1708 में दसवें तथा अंतिम गुरु गोबिन्द सिंह महाराज जी ने अपने प्रिय घोड़े दिलबाग के साथ अंतिम सांस ली थी । गुरुद्वारा का आन्तरिक कक्ष अंगीठा साहिब कहलाता है । यह पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह के द्वारा ठीक उसी स्थान पर बनाया गया है जहाँ गुरु गोबिन्द सिंह जी का दाह संस्कार किया गया था । तख़्त के गर्भ ग्रह में गुरुद्वारा पटना साहिब की तर्ज़ पर श्री गुरु ग्रन्थ साहिब तथा श्री दश्म ग्रन्थ दोनों स्थापित हैं ।
49- तख़्त श्री पटना साहिब या श्री हरमिंदर जी, पटना साहिब, बिहार की राजधानी पटना में स्थित सिक्ख आस्था से जुड़ा एक ऐतिहासिक एवं पवित्र स्थल है । यह सिक्खों के दसवें गुरु गोबिन्द सिंह महाराज का जन्म स्थान है । इसका निर्माण महाराजा रणजीत सिंह के द्वारा करवाया गया है । यह स्थापत्य कला का सुन्दर नमूना है ।यह सिक्खों के पॉंच पवित्र तख़्त में से एक है । यहाँ पर गुरु गोबिन्द जी से सम्बन्धित अनेक प्रमाणिक वस्तुएँ रखी हुई हैं ।जिसमें लोहे के चार तीर, तलवार, पादुका तथा हुकुमनामा सुरक्षित है । पटना को प्राचीन इतिहास में पाटलिपुत्र के नाम से जाना जाता था ।
50- गुरु गोरखनाथ को नाथ सम्प्रदाय का प्रवर्तक- आचार्य माना जाता है ।सिद्धाचार्यों में सिद्ध गोरक्षपा की महिमा बखानी जाती है ।विद्वानों का मत है कि नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक गुरु गोरखनाथ ही सिद्ध गोरक्षपा हैं । माना जाता है कि पहले गोरखनाथ वज्रयानी सिद्ध थे और बाद में शैव धर्म के उपासक हो गए । नाथ सम्प्रदाय निवृत्ति मार्गी- ज्ञानयोग पर केन्द्रित है और गुरु की महिमा का बखान करता है । वैराग्य प्राप्ति के लिए इंद्रिय निग्रह पर विशेष बल देता है । नाथ सम्प्रदाय में नौ नाथों की चर्चा की जाती है : आदिनाथ, मत्स्येंद्र नाथ, गोरखनाथ, चर्पट नाथ, गाहिमिनाथ, चौरंगीनाथ, ज्वालेन्द्र नाथ, भर्तनाथ तथा गोपीचंद्र नाथ । पीताम्बरदत्त बडथ्वाल ने गोरखनाथ की रचनाओं का संग्रह गोरख बानी नाम से किया है ।
नोट : उपरोक्त सभी तथ्य, अभय कुमार दुबे, द्वारा सम्पादित पुस्तक, समाज विज्ञान विश्वकोश, खण्ड 6, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण : 2016, ISBN : 978-81-267-2849-7, पेज नंबर 2020 से 2055 से साभार लिए गए हैं ।
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Thanks sir
It’s okay, Kapil bhai
Brilliant work sir!
Thank you somya ji