राजनीति विज्ञान / समाज विज्ञान, महत्वपूर्ण तथ्य (भाग- 30)

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– राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर- प्रदेश), फ़ोटो गैलरी एवं प्रकाशन प्रभारी : डॉ. संकेत सौरभ, नई दिल्ली. mail id : drrajbahadurmourya @ gmail . Com, website : the mahamaya. Com

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1- यथार्थवादी अवधारणा के अनुसार वस्तुएँ मनुष्य द्वारा किए जा सकने वाले अपने हर सम्भव वर्णन से स्वतंत्र अस्तित्व रखती हैं ।अर्थात् यथार्थवादी वह है जिसकी मान्यता के अनुसार यह जगत हमारे विचारों के बाहर स्थित है । हम इस बाहरी हक़ीक़त की कसौटी पर कसकर अपने विचारों और चिंतन में निहित सच्चाई को माप सकते हैं ।यथार्थवादी चिंतन का प्रस्थान बिंदु स्वतंत्रता की बजाय आवश्यकता की धारणा के इर्द-गिर्द रहता है । वे शक्ति सन्तुलन की राजनीति के तहत लगातार संकटों और अंदेशों से घिरे अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को परिकल्पित करते हैं । उनके चिंतन में सम्प्रभु राज्यों के बीच सम्भव सार्वदेशिक न्याय के लिए कोई जगह नहीं होती है ।

2- यथार्थवादी मानवीय प्रकृति को मूलतः त्रुटिपूर्ण मानते हैं । इसलिए उन्हें अनुदारवादी और निराशावादी भी कहा जाता है । यथार्थवादी चिंतन के अनुसार अंतरराष्ट्रीय सम्बन्ध प्रभुत्व के लिए होड़ और संघर्ष के लिए अभिशप्त हैं । इतिहास में सतत शांति जैसा कुछ नहीं होता ।यथार्थवादी दृष्टिकोण की स्थापना में ब्रिटिश मार्क्सवादी ई.एच.कार और हैंस जे. मोरगेन्थाऊ की मुख्य भूमिका रही है । उनकी मान्यता थी कि विभिन्न देशों के हितों के बीच किसी तरह की स्वाभाविक समरसता की कल्पना करना भी उचित नहीं है । यह उम्मीद भी नहीं करना चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय क़ानून, लोकतंत्रीकरण और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार जैसी प्रक्रियाओं से उनके बीच होने वाला शक्ति संघर्ष मंद किया जा सकता है ।

3- ई.एच. कार और मोरगेन्थाऊ ने लीग ऑफ नेशंस की नाकामी का उदाहरण देते हुए कहा कि आदर्शवादी नज़रिए की नाकामी का नतीजा ही है कि यह संस्था द्वितीय विश्वयुद्ध रोक पाने में नाकाम रही है और इसीलिए हिटलर को यूरोप विजय से नहीं रोका जा सका । कार ने 1946 में प्रकाशित अपनी रचना द ट्वेंटी इयर्स क्राइसिस में तर्क दिया कि आदर्शवाद अपने प्रभुत्व और सत्ता से संतुष्ट हो जाने वाली महाशक्तियों के राजनीतिक दर्शन की नुमाइंदगी करने वाला सिद्धांत है । उसके आधार में सार्वभौमिक लक्ष्यों से प्रेरित किसी तरह की चिरंतन नैतिक संहिता देखने की कोशिश करना बेकार है ।

4- नव यथार्थवाद के मुख्य प्रवक्ता कैनेथ वाल्ज हैं ।उन्होंने 1979 में प्रकाशित अपनी पुस्तक थियरी ऑफ इंटरनेशनल पॉलिटिक्स में लिखा है कि यथार्थवाद को मनुष्य की प्रकृति में बुराई तलाश करके युद्धों का कारण खोजने की कोई ज़रूरत नहीं है । वे अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में व्याप्त अराजकता की संरचनाओं को युद्धों के प्रमुख कारण के रूप में देखने के पक्षधर हैं । यथार्थवाद की इस धारणा को कठोर आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा है कि युद्धों का मुख्य कारण मनुष्य की अंतर्निहित बुराई है ।

5- आधुनिक युग में दो या दो से अधिक देशों की सेनाओं का अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं पर संघर्ष युद्ध कहलाता है ।अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के अनुशासन के अनुसार ऐसी किसी लड़ाई को बाक़ायदा युद्ध मानने के लिए ज़रूरी है कि उसमें कम से कम एक हज़ार लोग मारे जाएँ । किसी देश के भीतर विभिन्न राजनीतिक ताक़तों के बीच होने वाले हथियार बंद संघर्ष को गृहयुद्ध की संज्ञा दी जाती है ।मरने वालों की संख्या के लिहाज़ से भी ऐसी कई हिंसाओं को युद्ध की श्रेणी में रखा जा सकता है ।महाद्वीपों के आर- पार फैली हुई और कई- कई वर्षों तक विभिन्न देशों के गठजोड़ों के बीच होने वाली विश्व युद्ध की संज्ञा दी जाती है ।

6- कुछ विद्वानों की मान्यता है कि अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों में सत्ता और गठजोड़ की संरचनाओं में जब परिवर्तन होते हैं तब उनका परिणाम युद्ध में निकलता है । कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि युद्धों का जन्म राज्य की संस्था के भीतरी राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं से होता है । तीसरे क़िस्म के विद्वान उदार लोकतांत्रिक देशों को शान्तिप्रिय मानते हैं और अधिनायकवादी शासन प्रणाली वाले देशों को युद्धप्रिय करार देते हैं । मार्क्सवादी विद्वानों का मानना है कि पूँजीवादी राज्य अपनी सीमाओं के बाहर अपने बाज़ारों का विस्तार करने के लिए, निवेश के अवसरों को बढ़ाने के लिए और सस्ता कच्चा माल पाने के लिए युद्धों की स्थितियाँ पैदा करते हैं ।

7- कैनेथ वाल्ज ने निष्कर्ष निकाला था कि यदि दुनिया में कोई विश्व सरकार होती तो युद्धों को टाला जा सकता था । उन्नीसवीं सदी को रेशनल युद्धों की सदी माना जाता है । जिसमें कई बार युद्ध छेड़ने के पहले से तय परिणाम निकले । रेवोल्यूशन इन मिलिट्री एफेयर्स के कारण इक्कीसवीं सदी ख़त्म होते- होते उनके देश द्वारा किए जाने वाले सभी युद्ध ज़्यादा से ज़्यादा स्वचालित और सैनिक विहीन होते चले जाएँगे । वर्ष 1999 में प्रकाशित के. होल्त्सी की पुस्तक पीस एंड वार : आर्म्ड कांफि्लक्ट आर्डर, 1648-1989 एक प्रमुख रचना है ।

8- युरगन हैबरमास (1929-) जर्मनी के चर्चित समाजशास्त्री और दार्शनिक हैं जिन्हें उपयोगिता मूलक विवेकवाद, जीवन संसार और पब्लिक स्फेयर्स जैसे सूत्रीकरणों के लिए जाना जाता है । वह ऐसे विचारक हैं जिन्होंने यूरोपीय ज्ञानोदय से जन्मी और विकसित हुई आधुनिकता की अवधारणा को सही मानते हुए उसके पक्ष में बहस की । हैबरमास ने प्रभावशाली सैद्धांतिक संरचनाएँ निर्मित कीं जिनमें भाषा सिद्धांत तथा बोधात्मक- विकासमूलक मनोविज्ञान की व्याख्या, नीतिशास्त्र, राज्य, क़ानून एवं इतिहास का मार्क्सवादी मूल्यांकन और यूरोप तथा जर्मनी की समकालीन घटनाओं पर विचारोत्तेजक टिप्पणियाँ शामिल हैं ।

9- हैबरमास ने वर्ष 1970 और 1980 के दशक में सम्प्रेषणात्मक क्रिया का सिद्धांत विकसित किया, जो 1981 में प्रकाशित उनकी पुस्तक द थियरी ऑफ कम्युनिकेटिव एक्शन में विस्तार से मौजूद है । इसके अनुसार सभी मानव मूलतः सम्प्रेषणशील अस्तित्व होते हैं ।वे परस्पर विचारों का आदान-प्रदान करते हैं । वह कहते हैं कि अभिव्यक्ति के दौरान कोई भी वक्ता अपने श्रोता के बरक्स अपनी वैधता के ऊपर चार प्रकार के दावों का सामना करता है : अभिव्यक्ति की सार्थकता, अभिव्यक्ति की सत्यता, अभिव्यक्ति का प्राधिकार तथा अभिव्यक्ति की गंभीरता । इसी आधार पर हैबरमास ने आदर्श अभिव्यक्ति की अवस्था की अवधारणा का प्रतिपादन किया ।

10- हैबरमास ने लोक -वृत्त की अवधारणा का प्रतिपादन किया । यह समस्याओं का निदान सुझाने वाला राजनीतिक सिद्धांत न होकर परिस्थितियों पर विचार करने वाली ऐसी अवधारणा है जिसके माध्यम से एक स्वस्थ तथा न्यायपूर्ण राजनीतिक जीवन सम्भव होता है । हैबरमास के मुताबिक़ लोक- वृत्त को व्यावसायिक हितों या राज्य के नियंत्रण से बचाना चाहिए । जब तक वह इस तरह के नियंत्रण से मुक्त रहेगा तभी तक वह लोकतांत्रिक परिस्थितियाँ भी पैदा कर सकता है ।हैबरमास की यह अवधारणा मुख्यतः बहस और ज्ञान पर आधारित है । हैबरमास ने जीवन संसार या लाइफ़ वर्ल्ड और व्यवस्था या सिस्टम को सामाजिक अस्तित्व के दो पूरक अंगों के रूप में विश्लेषित किया ।

11- यूरोकेन्द्रीयता एक ऐसी अवधारणा है जो बीसवीं सदी में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के आलोचकों द्वारा विकसित की गई । ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी में 70 के दशक से पहले यह शब्द नहीं था । अस्सी के दशक में समीर अमीन के मार्क्सवादी लेखन ने इसे बौद्धिक जगत में अक्सर प्रयोग की जाने वाली अवधारणा में बदल दिया ।सन् 1851 से ही दुनिया के नक़्शों के लोंगीट्यूड मेरीडियन के केन्द्र में ग्रीनविच, लंदन को रखा जाना यूरोकेन्द्रीयता का ही एक तथ्य है ।उत्तर औपनिवेशिक अध्ययन के तहत यूरोकेंद्रीयता का एक उल्लेखनीय उदाहरण मरकेटर एटलस को माना जाता है ।

12-एडवर्ड सईद की कृति ओरियंटलिज्म में यूरोकेंद्रीयता की कड़ी जाँच- पड़ताल की गई है ।सईद का कहना है कि यह विचार न केवल अन्य संस्कृतियों को प्रभावित करके उन्हें अपने जैसा बनाने की तरफ़ धकेलता है, बल्कि उन्हें अपने अनुभव के दायरे में एक ख़ास मुक़ाम पर रखने के ज़रिए उन पर पश्चिम का प्रभुत्व थोप देता है । यूरोकेंद्रीयता साहित्य अध्ययन, इतिहास लेखन और मानवशास्त्र के अनुशासन के माध्यम से भी पुष्ट हुई है ।यह विचार पन्द्रहवीं सदी में यूरोपीय साम्राज्यवाद के साथ साथ सुदृढ़ हुआ । वैज्ञानिक और वाणिज्यिक क्रान्ति तथा औपनिवेशिक साम्राज्यों के विस्तार ने आधुनिक युग के उदय के रूप में स्वयं को अभिव्यक्त किया ।

13- योग संस्कृत की दो धातुओं युजिर्योगे तथा दूसरी धातु युज- समाधो से बना है । पहली धातु का अर्थ होता है जोड़ना और दूसरी धातु का अर्थ है चित्त- वृत्तियों का निरोध । मन को परमात्मा या ईश्वर के चिंतन में लगाना अथवा ब्राह्य विषयों से हटाना ही योग है ।इन्हीं को पतंजलि ने क्रमशः सम्प्रज्ञात समाधि और असम्प्रज्ञात समाधि की संज्ञा दी है । योग दर्शन का मुख्य विषय साधना है ।योग दर्शन में विकासवादी पारमाणविक सिद्धांतों को सांख्य प्रणाली के पच्चीस तत्वों और प्रत्यक्ष, अनुमति और साक्ष्य इन तीन प्रमाणों को अपनाया । सांख्य ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार करता है और योग ईश्वर को स्वीकार करता है । चंचलता का समूल नाश ही योग का काम है ।

14- सांख्य सम्मत बुद्धि,अहंकार और मन इन तीनों को मिलाकर योग के अंतर्गत चित्त नाम दिया गया है ।क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध पाँच तरह की चित्त की अवस्थाएँ होती हैं । विक्षिप्तता अवस्था में रजो गुण की प्रधानता होती है और चित्त एक विषय से दूसरे विषय पर दौड़ता रहता है ।मूढ़ावस्था में चित्त में तम की प्रधानता होती है ।क्षिप्तावस्था चित्त की आंशिक स्थिरता की अवस्था है ।एकाग्रावस्था में चित्त देर तक एक विषय में लगा रहता है । यह किसी वस्तु पर मानसिक केन्द्रीयकरण की अवस्था है ।अंतिम अवस्था निरुद्धावस्था की अवस्था है जहाँ चित्त की वृत्तियों का लोप हो जाता है ।

15- प्रज्ञा के लिए आवश्यक है कि अन्त:करण सर्वथा निर्विकार, शुद्ध और शांत हो ।जो अहिंसा को जीवन में उतार लेता है, उसके समीप अन्य प्राणी भी परस्पर वैर भाव भूल जाते हैं । जो सत्य को जीवन में उतार लेता है, उसे वचन- सिद्धि प्राप्त हो जाती है ।उसके मुँह से निकली हुई बात निष्फल नहीं होती ।अस्तेय को जीवन में उतार लेने पर संसार की सारी सम्पत्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं ।ब्रम्हचर्य को उतारने पर शक्ति प्राप्त होती है ।अपरिग्रह से पूर्व जन्म स्मृति होने लगती हैं । ध्यान, धारणा और समाधि का एक ही विषय पर अभ्यास संयम कहा जाता है । इसके सिद्ध होने पर प्रज्ञालोक अर्थात् बौद्धिक प्रकाश प्राप्त होता है ।

16- योगेश अटल (1937-) समकालीन दौर में भारत के विख्यात् समाजशास्त्री हैं ।उन्होंने भारतीय गॉंवों में आ रहे बदलावों तथा जाति सम्बन्धी अध्ययन में महत्वपूर्ण योगदान दिया है । वर्ष 1968 में प्रकाशित उनकी कृति द चेंजिंग फ़्रंटिअर्स ऑफ कास्ट में जाति व्यवस्था में हो रहे बदलावों को रेखांकित किया है । भारत में चुनाव अध्ययन हेतु पेनल तकनीक का प्रयोग भी सबसे पहले अटल ने 1967 के चुनावों के दौरान किया था । उन्होंने इंसुलेटर्स तथा अपर्चर्स की अवधारणाएँ प्रतिपादित करते हुए तर्क प्रस्तुत किया कि राष्ट्रीय एकीकरण की प्रक्रिया में इनका महत्वपूर्ण स्थान है । उन्होंने सैंडविच कल्चर की अवधारणा भी दी ।

17- आदर्शवाद और यथार्थवाद के मुक़ाबले रचनात्मकतावाद अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के अध्ययन का तीसरा दृष्टिकोण है ।यह विश्व राजनीति की जॉंच और परख सामाजिक धरातल पर करने की वकालत करता है । रचनात्मकता वादियों के अनुसार सम्प्रभु राज्यों के बीच बनने वाले सम्बन्ध केवल उनके स्थिर राष्ट्रीय हितों पर ही आधारित नहीं होते बल्कि उन्हें लम्बी अवधि के दौरान बनी अस्मिताओं के प्रभाव में उठाए जाने वाले कदमों को प्रारूपों के तौर पर देख कर समझना पड़ता है ।वह अंतरराष्ट्रीय समुदाय के स्तर पर मौजूद संस्थाओं पर केन्द्रित करते हुए अंतरराष्ट्रीय क़ानून, राजनय और सम्प्रभुता को अहमियत देते हैं ।

18- रजनी कोठारी (1928-2022) भारत के प्रमुख राजनीतिशास्त्री और विकासशील समाज अध्ययन पीठ के संस्थापक थे । उनका जन्म एक समृद्ध गुजराती व्यापारिक घराने में हुआ था ।उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स से उच्च शिक्षा प्राप्त की थी । उनकी प्रमुख पुस्तक 1969 में पॉलिटिक्स इन इंडिया प्रकाशित हुई ।द्विदलीय और बहुदलीय प्रणालियों की प्रचलित व्याख्याओं से अलग हटकर उन्होंने भारतीय दलीय प्रणाली की एक पार्टी के वर्चस्व वाली प्रणाली के रूप में मौलिक व्याख्या की और कांग्रेस को प्रचलित परिभाषाओं के तहत एक राजनीतिक दल के रूप में देखने के बजाय कांग्रेस प्रणाली के रूप में पेश किया ।

19- दिनांक 23 मई, 1922 को तत्कालीन बंगाल के बारीसाल डिवीजन में सिद्धकट्टी गॉंव के एक मध्यमवर्गीय परिवार में जन्में रणजीत गुहा इतिहास लेखन की सबाल्टर्न धारा के प्रणेता हैं । उनका कहना था कि, ‘जनता की राजनीति एक स्वायत्त अधिकार क्षेत्र है ।’ 1859 में वे इंग्लैंड में जाकर बस गए और अभी वह आस्ट्रिया की राजधानी वियना में रहते हैं । 1928 में रणजीत गुहा ने ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया में रह रहे आठ अन्य इतिहासकारों के साथ मिलकर सबाल्टर्न स्टडीज़ नाम से शोध- ग्रन्थों का सम्पादन शुरू किया । इस लेखन के माध्यम से रणजीत गुहा ने मॉंग की कि इतिहास को निम्न वर्गों की दृष्टि से लिखा जाना चाहिए ।

20- रणजीत गुहा की वर्ष 1983 में सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक द एलीमेंटरी आस्पेक्ट्स ऑफ पीजेंट इंसर्जेंसी इन कोलोनियल इंडिया का प्रकाशन हुआ । वर्ष 2002 में इटैलियन एकेडमी व्याख्यानमाला के तहत दिए गए उनके व्याख्यानों का संग्रह हिस्ट्री ऐट द लिमिट ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री का प्रकाशन हुआ । वर्ष 1988 में उनकी पुस्तक ऐन इंडियन हिस्टोरियोग्राफी ऑफ इंडिया प्रकाशित हुई । वर्ष 1997 में उनकी पुस्तक डोमिनैंस विदाउट हेजेमनी : हिस्ट्री ऐंड पावर इन कोलोनियल इंडिया सामने आई । वर्ष 2009 में उनके निबंधों का संकलन द स्मॉल वॉइस ऑफ हिस्ट्री प्रकाशित हुआ ।

21- सतारा ज़िले के एक ब्राह्मण परिवार में जन्मीं रमाबाई रानाडे (1862-1924) महाराष्ट्र के नवजागरण की प्रमुख हस्ती थीं जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी न केवल अपना जीवन संवारा बल्कि कई विपदाग्रस्त स्त्रियों को स्वाभिमान के साथ जीने के साधन प्रदान किए ।उन्होंने सेवा सदन नामक संस्था की स्थापना की । वर्ष 1904 में भारतीय महिला सम्मेलन की स्थापना हुई जिसका अध्यक्ष रमा बाई को ही बनाया गया था । वह न्यायमूर्ति महादेव गोविन्द रानाडे जैसे महान समाज सुधारक की पत्नी थीं । सन् 1873 में जब उनका विवाह 32 वर्षीय विधुर न्यायाधीश रानाडे से हुआ तब उनकी उम्र मात्र 11 साल की थी ।

22- रमेश चन्द्र दत्त (1848-1909) भारतीय राष्ट्रवाद के पुरोधा थे जिनका आर्थिक विचारों के इतिहास में भी प्रमुख स्थान है । उन्होंने औपनिवेशिक शासन के तहत भारतीय अर्थव्यवस्था को हुए नुक़सान के प्रामाणिक विवरण पेश किया तथा विख्यात ड्रेन थियरी का प्रतिपादन किया । अपने गहन अनुसंधान और विश्लेषण से दत्त ने दिखाया कि ब्रिटिश हुकूमत न केवल भारत की भौतिक स्थिति सुधारने में विफल रहा, बल्कि उसके काल में भारत का वि- औद्योगीकरण हुआ ।भारतीय समाज का देहातीकरण होता चला गया । अंग्रेजों द्वारा शुरू किए गए रेल परिवहन के कारण भारत की पारम्परिक परिवहन सेवाएँ मारी गईं ।

23- रमेश चन्द्र दत्त का जन्म 1848 में कोलकाता में हुआ था । 1869 में वह आई. सी. एस. बने । 1848 में वह ज़िला मजिस्ट्रेट बने तथा 1894 में बर्दवान ज़िले के डिप्टी कमिश्नर नियुक्त किए गए ।उन्नीसवीं सदी में इतने बड़े पद पर पहुँचने वाले वह पहले भारतीय थे । 1897 में उन्होंने आई सी एस से अवकाश ग्रहण किया और 1904 तक की अवधि यूरोप में गुज़ारी । वे लंदन के यूनिवर्सिटी कॉलेज में इतिहास के प्रोफ़ेसर भी रहे । 1899 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने लखनऊ अधिवेशन में उन्हें अपना अध्यक्ष निर्वाचित किया । उनकी रचना फेमिंस ऐंड लैण्ड एसेसमेंट इन इंडिया की सराहना रूसी अराजकतावादी दार्शनिक प्रिंस क्रोपाटकिन ने भी की थी ।

24- रमेश चन्द्र दत्त की वर्ष 1902 में महान रचना द इकॉनॉमिक हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया का पहला खंड प्रकाशित हुआ । इसे ब्रिटिश हुकूमत पर लिखे गए सबसे बेहतरीन ग्रन्थ की संज्ञा दी जाती है । इसमें 1757 में अंग्रेजों की सत्ता की स्थापना से लेकर साम्राज्ञी की हुकूमत लागू होने तक का आर्थिक इतिहास पेश किया गया था । इसमें ईस्ट इंडिया कम्पनी के तहत अपनाई गई खेती और भूमि बन्दोबस्त सम्बन्धी नीतियों, व्यापार और कारख़ाना उत्पादन सम्बन्धी नीतियों के साथ ही साथ वित्त और प्रशासन सम्बन्धी नीतियों का विश्लेषणात्मक विवरण था । पुस्तक के ब्रिटिश समीक्षकों ने भी इसकी निष्पक्षता और गहराई का लोहा माना ।

25- रमेश चन्द्र दत्त आर्थिक इतिहासकार के अलावा एक प्रतिभाशाली और कुशल सांस्कृतिक इतिहासकार भी थे । बंगीय साहित्य परिषद के संस्थापक अध्यक्ष रहने के साथ-साथ उन्होंने महाभारत और रामायण का अंग्रेज़ी में संक्षिप्त काव्यानुवाद भी किया । संस्कृत साहित्य के प्रमाणों के आधार पर दत्त ने भारत की प्राचीन सभ्यता के इतिहास की रचना भी की ।उन्होंने सिफ़ारिश की थी कि भारतीय मिल उद्योग से उत्पादन शुल्क हटा लिया जाए । इंग्लैंड में होने वाली फ़ौजी और शाही खर्च भारत से नहीं वसूले जाने चाहिए और भारत में भी फ़ौजी खर्च घटाए जाने चाहिए ।

26- दिनांक 4 दिसम्बर, 1884 को वर्तमान बांग्लादेश के फरीदपुर ज़िले के खंदारपाडा गाँव में जन्में, राष्ट्रवादी इतिहास लेखन के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर रमेश चन्द्र मजूमदार आधुनिक, मध्यकाल तथा प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति विषयक अध्ययन के साथ-साथ दक्षिण- पूर्व एशियाई इतिहास एवं संस्कृति पर शोध करने वाले एकमात्र इतिहासकार थे । मजूमदार ने आन्ध्रा कुषाण एज नाम से शोध प्रबन्ध लिखा । 91 साल की अवस्था में 12 फ़रवरी, 1980 में उनका निधन हुआ । रमेश चन्द्र मजूमदार द्वारा के. के. दत्त और एच. सी. रायचौधरी के साथ पुरातात्विक, मुद्राशास्त्रीय, भाषाशास्त्रीय और साहित्यिक स्रोतों को आधार बनाकर लिखी गई महत्वपूर्ण पुस्तक ऐन एडवांस हिस्ट्री ऑफ इंडिया है ।

27- रमेश चन्द्र मजूमदार ने अपनी रचना द सिपॉय म्युटिनी इन द रिवोल्ट ऑफ 1857 में इस आन्दोलन को सिपाही विद्रोह की संज्ञा दी । उन्होंने इसे 1857-58 की विभीषिका और रक्तपात भारत में स्वतंत्रता आन्दोलन की प्रसव पीड़ा के बजाय मध्यकाल के जीर्ण- शीर्ण अभिजन और सामन्तवाद के विघटन की प्रक्रिया की तरफ़ इशारा माना ।मजूमदार ने भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष का मूल अंग्रेज़ी शिक्षा से लैस भारतीय मध्य वर्ग को माना और बताया कि इसकी पहली उपस्थिति 1905 के बंग- भंग आन्दोलन से हुई । भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सम्बन्धी उनके विचारों का प्रतिबिम्बन हिस्ट्री ऑफ द फ़्रीडम मूवमेंट ऑफ इंडिया में हुआ ।

28- विश्व कवि और गुरूदेव की उपाधियों से विभूषित रवीन्द्रनाथ ठाकुर (1861-1941) एशिया के सबसे पहले नोबेल पुरस्कार विजेता थे । रवीन्द्रनाथ टैगोर का चिंतन अपने युग की उत्तर- आधुनिकता का प्रतिनिधित्व करता है । विख्यात समाज मनोवैज्ञानिक आशीष नंदी के अनुसार रवीन्द्रनाथ अपने युग के असहमतों के बीच असहमत थे ।अंग्रेजों का विरोध करते हुए भी उन्होंने स्वदेश चिंता की पृथक धारा का सूत्रीकरण किया । रवीन्द्रनाथ टैगोर ने राष्ट्रवादी आन्दोलन की गांधीवादी प्रविधियों की आलोचना की, परन्तु गांधी की तरह ही पश्चिमी सभ्यता को आड़े हाथों लिया । रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म कोलकाता के एक पिराली ब्राह्मण परिवार में हुआ था । वह पिता देवेन्द्र नाथ और माता शारदा देवी की तेरह संतानों में से एक थे ।

29- रवीन्द्रनाथ टैगोर अपनी लोक परम्पराओं से जुड़े हुए थे ।उन्होंने राष्ट्रवाद को भौगोलिक राक्षस कहकर उसकी आलोचना किया ।रवीन्द्रनाथ की दो रचनाएँ आज भी भारत (जन-गण-मन) और बांग्लादेश (आमार शोनार बांग्ला) के राष्ट्रगीत बने हुए हैं ।विपिनचंद्र पाल जैसे प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी ने डंडाधारी ब्रिटिश पुलिस का सामना रवीन्द्रनाथ की कविताएँ गाते हुए ही किया था ।उन्होंने 1901 में नष्टनीड की रचना की जिस पर कालांतर में सत्यजीत राय ने चारुलता जैसी क्लासिकल फ़िल्म बनाई । वर्ष 1919 में जलियाँवाला बाग़ के हत्याकांड के विरोध में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ब्रिटिश सरकार के द्वारा दी गई नाइटहुड की उपाधि वापस कर दी ।

30- रवीन्द्रनाथ टैगोर में अलोकप्रियता का ख़तरा उठाकर भी अपने विचार व्यक्त करने की दुर्लभ क्षमता थी । उन्होंने जापान में राष्ट्रवाद- प्रेमी श्रोताओं के सामने राष्ट्रवाद की आलोचना की और सोवियत संघ में जाकर कम्युनिस्टों में क्षमाभाव की कमी रेखांकित करने का साहस दिखाया ।दूसरी तरफ़ सोवियत साम्यवाद के प्रति प्रशंसा भाव के कारण अमेरिका में उनकी किताबों की बिक्री पर विपरीत असर पड़ा । घरे- बाइरे, चार अध्याय और गोरा की रचना करके उन्होंने न केवल राजनीतिक आधुनिकता पर आधारित भविष्य निर्माण की लोकप्रिय दावेदारियों की कड़ी जॉंच पड़ताल की बल्कि सावरकर और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आविर्भाव से बहुत पहले ही हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद के ख़तरों के प्रति सचेत कर दिया था ।

31- रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचनाओं चित्त जेठा भयसून्यो और एकला चलो रे जैसी राजनीतिक- आवेशित रचनाओं ने उन्हें स्वतंत्रता सेनानियों के बीच काफ़ी लोकप्रियता दिलाई । गॉंधी- अम्बेडकर विवाद के दौरान गांधी का आमरण अनशन ख़त्म कराने में भी रवीन्द्रनाथ की उल्लेखनीय भूमिका रही है ।हुमायूँ कबीर के मुताबिक़ भारतीय विदेश नीति को गुटनिरपेक्षता पर आधारित करने का विचार उन्हीं की देन था । रवीन्द्रनाथ को भारतीय संघवाद का आदि प्रणेता भी माना जाता है । बीसवीं सदी के शुरुआत में ही उन्होंने घोषित किया था कि, ‘अगर ईश्वर चाहता है तो सारे भारतवासियों को एक ही भाषा बोलने वाला बना सकता था… भारत की एकता हमेशा से विविधता में एकता के उसूल पर ही निर्भर थी और रहेगी ।’

32- रंगभेद अंग्रेज़ी भाषा के शब्द एपार्थाइड का हिन्दी रूपांतरण है । अफ्रीकी भाषा के इस मूल शब्द का अर्थ है- पार्थक्य या अलहदापन । रंगभेद के दार्शनिक और वैचारिक पक्षों के सूत्रीकरण की भूमिका डच मूल के बोअर राष्ट्रवादी चिंतक और समाजशास्त्री हेनरिक वरवोर्ड ने निभाई । वर्ष 1948 में दक्षिण अफ़्रीका में हुए चुनावों में वहाँ की नेशनल पार्टी ने रंगभेद के मुद्दे को हवा दी ।चुनाव के बाद जब डी एफ मलन के नेतृत्व में वहाँ पर सरकार बनी तो कालों के खिलाफ और श्वेतांगों के पक्ष में रंगभेदी नीतियों को क़ानूनी और संस्थागत जामा पहना दिया गया । नब्बे के दशक में अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस और नेल्सन मंडेला के नेतृत्व में बहुसंख्यक अश्वेतों का लोकतांत्रिक शासन स्थापित होने के साथ ही रंगभेद का अंत हो गया ।

33- दक्षिण अफ़्रीका में नस्ली भेदभाव की शुरुआत डच उपनिवेशवादवादियों के द्वारा कैप टाउन को अपने रिफ्रेशमेंट स्टेशन के रूप में स्थापित करने से मानी जाती है ।। अफ़्रीका में गोरे यूरोपियन मालिकों के जीवन में कालों की अंतरंग उपस्थिति के परिणामस्वरूप एक मिली- जुली नस्ल की रचना हुई जो अश्वेत कहलाए । अफ़्रीका में आबादी के तीन चौथाई लोग काले थे और अर्थव्यवस्था उन्हीं के श्रम पर आधारित थी । लेकिन सारी सुविधाएँ मुट्ठी भर गोरे श्रमिकों को मिलती थीं ।सत्तर फ़ीसदी ज़मीन भी गोरों के क़ब्ज़े के लिए सुरक्षित थी ।

34- वर्ष 1911 तक दक्षिण अफ़्रीका में ब्रिटिश उपनिवेशवाद पूरी तरह से पराजित हो गया था लेकिन कालों को कोई इंसाफ़ नहीं मिला । 1912 में साउथ अफ़्रीकन यूनियन के गठन की प्रतिक्रिया में अफ़्रीकी नैशनल कांग्रेस की स्थापना हुई जिसका मक़सद उदारतावाद, बहुसांस्कृतिकता और अहिंसा के उसूलों के आधार पर कालों की मुक्ति का संघर्ष चलाना था । वर्ष 1943 में ए. एन सी ने अपनी युवा शाखा बनायी जिसका नेतृत्व नेल्सन मंडेला और ओलिवल टाम्बो को मिला । 1955 में ए एन सी ने फ्रीडम चार्टर पारित किया जिसमें सर्वसमावेशी राष्ट्रवाद के प्रति प्रतिबद्धता जारी की गई ।

35- दिनांक 3 जून, 1922 को पंजाब के सूबे झेलम (वर्तमान पाकिस्तान) में पैदा हुए राजकुमार तलवार (1922-2002) को भारतीय लघु उद्योग क्षेत्र का मसीहा कहा जाता है ।उन्होंने इम्पीरियल बैंक से स्टेट बैंक बने भारत के सबसे बड़े बैंक की शाही कार्यशैली को बदला । वर्ष 1943 में तलवार इम्पीरियल बैंक ऑफ इंडिया में परिवीक्षाधीन अधिकारी के रूप में शामिल हुए ।वर्ष 1967 में तलवार को केवल 47 साल की उम्र में स्टेट बैंक का प्रबंध निदेशक बनाया गया । 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद स्टेट बैंक का भी सरकारीकरण हुआ । वे स्टेट बैंक के सबसे युवा मुखिया थे ।मुम्बई के स्टेट बैंक मुख्यालय की लिफ़्ट लॉबी में तलवार ने लिखवाया था कि, ईमानदारी सर्वोत्तम सुरक्षा है । कालान्तर में उनका सरकार से टकराव हो गया और उन्हें पद से हटाने के लिए सरकार ने बैंक अधिनियम में परिवर्तन किया उसे आज भी तलवार संशोधन के नाम से जाना जाता है ।

36- भारत के पश्चिमी भाग में स्थित राजस्थान को राजपूताना के नाम से भी जाना जाता है ।इसका गठन 1 नवम्बर, 1956 को हुआ था । क्षेत्रफल के हिसाब से यह देश का सबसे बड़ा राज्य है ।इस राज्य में भारत के रेगिस्तान का अधिकांश हिस्सा (थार मरुस्थल) आता है । इस राज्य की पश्चिमी सीमा पाकिस्तान से लगी हुई है ।इसके दक्षिण-पश्चिम में गुजरात, दक्षिण-पूर्व में उत्तर- प्रदेश, उत्तर- पूर्व में उत्तर प्रदेश और हरियाणा तथा उत्तर में पंजाब है । राजस्थान का क्षेत्रफल 3 लाख, 42 हज़ार, 269 है । 2011 की जनगणना के अनुसार यहाँ की कुल जनसंख्या 6 करोड़, 86 लाख, 21 हज़ार, 012 है । राजस्थान की साक्षरता दर 68 प्रतिशत है ।यहाँ का जनसंख्या घनत्व 220.25 प्रति वर्ग किलोमीटर है ।

37- राजस्थान की विधानसभा में कुल 200 सदस्य होते हैं ।यहाँ से लोकसभा के 25 और राज्य सभा के 10 सदस्य चुने जाते हैं । मारवाड़ी, राजस्थानी और हिन्दी राजस्थान की आधिकारिक भाषाएँ हैं ।सी एस डी एस के एक अध्ययन के मुताबिक़ अगडी जातियाँ राजस्थान की जनसंख्या का लगभग 20 प्रतिशत हैं ।अन्य पिछड़ी जातियों की संख्या लगभग 40 फ़ीसदी, अनुसूचित जनजातियों का हिस्सा लगभग 17 फ़ीसदी और जनजातियों का हिस्सा लगभग 13 फ़ीसदी है । राजस्थान की जनसंख्या में मुसलमानों की संख्या लगभग 8.5 फ़ीसदी और सिक्ख 1.4 प्रतिशत हैं । बरकतुल्लाह खान राज्य के एकमात्र मुसलमान मुख्यमंत्री बने थे जिनका कार्यकाल 9 जुलाई, 1971 से 11 अगस्त, 1973 तक रहा था ।

38- राज्य आधुनिक विश्व की अनिवार्य सच्चाई है । दुनिया के अधिकांश लोग किसी न किसी राज्य के नागरिक हैं । राज्य शब्द का प्रयोग तीन अलग-अलग तरीक़े से किया जाता है ।पहला, इसे एक ऐतिहासिक सत्ता माना जाता है ।दूसरा, इसे एक दार्शनिक विचार तथा तीसरे, इसे आधुनिक परिघटना के रूप में देखा जा सकता है । वैचारिक स्तर पर राज्य को मार्क्सवाद, नारीवाद और अराजकतावाद आदि से चुनौती मिली है । कई राजनीतिक दार्शनिकों की मान्यता है कि सबसे पहले निकोलो मैकियावेली के लेखन में आधुनिक अर्थों में राज्य के प्रयोग को देखा जा सकता है ।1532 में प्रकाशित अपनी विख्यात रचना द प्रिंस में उन्होंने स्टेटो या राज्य शब्द का प्रयोग भू- क्षेत्रीय सम्प्रभु सरकार का वर्णन करने के लिए किया ।

39- मैकियावेली के अनुसार राजशाही में केवल प्रिंस ही स्वाधीन है, पर गणराज्य में हर व्यक्ति प्रिंस है ।राजशाही के मुक़ाबले गणराज्य अधिक नफ़ासत से काम कर सकेगा, उसमें प्रतिरक्षा की क्षमता अधिक होगी । मैकियावेली का मानना था कि गणराज्य को आक्रमणों से बचाने के लिए नागरिकों की सेना होनी चाहिए ।क्वेंटिन स्किनर मानते हैं कि मैकियावेली ने जब राज्य की चर्चा की तो वे एक प्रिंस के राज्य की बात कर रहे थे । वह उस अर्थ में निर्वैयक्तिक नहीं था, जिस अर्थ में आज इसका प्रयोग किया जाता है । एक संगठित व्यवस्था के रूप में राज्य शब्द का उदय भी चौदहवीं सदी के अंत और सत्रहवीं सदी के बीच हुआ । राज्य शब्द का अंग्रेज़ी शब्द स्टेट लैटिन शब्द स्टेयर से निकला है जिसका अर्थ है खड़ा होना ।

40- दार्शनिक स्तर पर समाज के लिए राज्य की अनिवार्यता स्थापित करने का श्रेय सत्रहवीं सदी के विचारक थॉमस हॉब्स और उनकी रचना लेवायथन को जाता है । इस पुस्तक के पहले संस्करण के आवरण पृष्ठ पर एक दैत्याकार मुकुटधारी व्यक्ति का चित्र उकेरा गया था जिसकी आकृति छोटी- छोटी मानवीय उँगलियों से बनी थी । इस दैत्याकार व्यक्ति के एक हाथ में तलवार थी और दूसरे में राजदंड ।हॉब्स ने कैथोलिक चर्च को अंधकार के साम्राज्य की संज्ञा दी । राज्य को एक आधुनिक अवधारणा मानने के पीछे एक मुख्य विचार यह भी है कि आधुनिक राज्य का उभार प्रभुसत्ता की अवधारणा के साथ हुआ ।

41- मिशेल फूको का कहना था कि राज्य के पक्ष में सहमति पैदा करने की ज़िम्मेदारी सांस्कृतिक ज़िम्मेदारी निभाती हैं । उदारतावादियों ने राज्य को एक तटस्थ संस्था के रूप में देखा ।अराजकतावादियों ने राज्य को एक अप्राकृतिक सत्ता मानते हुए इसे पूरी तरह से ख़त्म करने की वकालत की है । मार्क्स और एंगेल्स मानते थे कि राज्य मनुष्य की स्वाभाविक प्रकृति के खिलाफ हिंसा पर आधारित है । अनुदारवादी राज्य की तरफ़दारी इसलिए करते हैं ताकि वह कई पीढ़ियों से संचित परम्पराओं और मूल्यों का संरक्षण कर पाए ।

42- उदारतावादी- नारीवाद यह मानता है कि एक संस्था के रूप में राज्य पुरुष वर्चस्व की ओर झुका हुआ है, लेकिन क़ानून बनाकर राज्य की इस प्रवृत्ति में सुधार किया जा सकता है और इसका उपयोग पुरुष- महिला समानता स्थापित करने के लिए किया जा सकता है । दूसरी ओर समाजवादी- नारीवाद राज्य के पूँजीवादी चरित्र को महिलाओं की समस्या का मुख्य कारण मानता है ।इसकी मान्यता है कि पूँजीवादी राज्य करने से ही स्त्रियों की स्थिति में सुधार हो सकता है । कार्ल मार्क्स ने अपनी पुस्तक क्रिटीक ऑफ हीगेल्स फिलॉसफी ऑफ स्टेट (1843), क्लास स्ट्रगल इन फ़्रांस (1859), तथा एट्टींथ ब्रूमेर ऑफ लुई बोनापार्ट (1852) में काफ़ी गहनता से राज्य की अवधारणा का विश्लेषण किया था ।

43- एंगेल्स ने अपनी रचना एंटी- ड्यूरिंग (1878) और ऑरिजिन ऑफ फ़ैमिली (1894) में राज्य पर विस्तार से चर्चा की है ।लेनिन ने बोल्शेविक क्रांति से ठीक पहले लिखे गए अपने ग्रन्थ स्टेट ऐंड रेवोल्यूशन में राज्य के मार्क्सवादी सिद्धांत की पुनर्व्याख्या करने की कोशिश की । परवर्ती मार्क्सवादी चिंतकों में ग्राम्शी ने भी राज्य की भूमिका पर गहराई से विचार किया । साठ के दशक में मार्क्सवाद के भीतर राज्य और इसकी सापेक्षिक स्वायत्तता के बारे में काफ़ी गहराई से वाद विवाद हुआ । इसमें अलथुसे, पोलांत्साज, और मिलिबैंड जैसे विद्वानों ने योगदान दिया । हीगल के अनुसार राज्य एक ऐसा दायरा है जो सार्वभौमिक परार्थवाद का प्रतिनिधित्व करता है । वे इसे मानवीय चेतना का आख़िरी और सर्वोच्च पड़ाव मानते हैं ।

44- फ़्रांसीसी विद्वान लुई अलथुसे ने विचारधारात्मक राज्य- तंत्र और दमनकारी राज्य- तंत्र का विचार विकसित किया । अलथुसे संरचनावादी हैं । उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि विचारधारात्मक राज्य- तंत्र और दमनकारी राज्य- तंत्र दोनों ही शासक वर्ग के हितों के अनुरूप व्यवस्था बनाए रखने का काम करते हैं । दमनकारी राज्य तंत्र में क़ानून, न्यायालय, पुलिस और सेना शामिल हैं जबकि विचारधारात्मक राज्य तंत्र ताक़त के बजाय विचारधारा के माध्यम से काम करता है । इसमें चर्च और स्कूल जैसी संस्थाएँ आती हैं । अलथुसे ने व्यक्ति की बजाय संरचनाओं की भूमिका को अधिक महत्व दिया ।

45- निकोस पोलांत्साज ने अलथुसे के द्वारा मार्क्स की संरचावादी व्याख्या का प्रयोग राज्य के अध्ययन के लिए किया । उनकी पहली किताब पॉलिटिकल पॉवर एंड सोशल क्लासेज़ 1968 में प्रकाशित हुई और दूसरी स्टेट पॉवर ऐंड सोशलिज्म 1978 में ।पहली किताब पूरी तरह से संरचनावादी थी । जिसमें राज्य वर्ग संरचना का पुनरुत्पादन करता दिखाया गया है । विद्वान लेखक रैल्फ मिलिबैंड ने 1969 में प्रकाशित अपनी पुस्तक द स्टेट इन कैपिटलिस्ट सोसाइटी में पोलांत्साज द्वारा प्रस्तुत राज्य के बहुलवादी मॉडल की आलोचना की है । अमूमन मिलिबैंड के नज़रिए को यांत्रिकवाद और पोलांत्साज के नज़रिए को संरचनावाद की संज्ञा दी जाती है ।

46- भारत की संविधान सभा ने भाषावार प्रदेशों के प्रस्ताव की जॉंच के लिए 17 जून, 1948 को डार आयोग की नियुक्ति की थी । अंग्रेजों से पहले का भारत 21 प्रशासनिक इकाइयों में बँटा हुआ था ।राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम में कांग्रेस ने उपनिवेशवाद विरोधी गोलबंदी की थी और जो कार्यनीति अपनाई थी वह भाषा आधारित थी, जबकि मुसलिम लीग की राजनीति धर्म- आधारित थी ।संविधान ने अपने अनुच्छेद, 5, 11, 14, 15, 44, 131-41 और 312 में भी साफ़ कर दिया था कि भारतीय राज्य संघात्मक होते हुए भी केन्द्राभिमुख है । एल्फ्रेड स्तेपान ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 3 के बारे में कहा था कि इसके प्रावधान जीवंत राजनीतिक बहुराष्ट्रीयता से सम्पन्न भारत जैसे देश के लिए काफ़ी उपयोगी है ।

47- आज़ादी के समय भारत चार तरह के प्रदेशों में बँटा हुआ था । अ श्रेणी के राज्य वे राज्य थे जिन्हें ब्रिटिश भारत का सदस्य माना जाता था, इसमें असम, बिहार, बम्बई, मद्रास, उड़ीसा, पंजाब, उत्तर- प्रदेश और पश्चिम बंगाल आते थे । बी श्रेणी के राज्य वे प्रान्त थे जो देशी रियासतों के भारत में विलय के कारण बने थे, इसमें हैदराबाद, जम्मू और कश्मीर, मैसूर, राजस्थान, सौराष्ट्र, मध्य भारत और ट्रावणकोर कोचीन थे । सी श्रेणी में अजमेर, भोपाल, नई दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, कछ, मणिपुर और त्रिपुरा के इलाक़े थे । डी श्रेणी में अंडमान और निकोबार द्वीप था । 1953 में तेलुगुभाषियों की प्रमुखता वाला आन्ध्र प्रदेश राज्य बना ।इस आन्दोलन में एक आन्दोलनकारी श्री रामुलु ने अनशन करते हुए अपनी शहादत दे दी थी ।

48- वर्ष 1956 में भारत में राज्यों का पुनर्गठन किया गया और चार तरह की श्रेणियों को समाप्त कर देश में केवल राज्य और केन्द्रशासित प्रदेश रह गए ।वर्ष 1960 में बम्बई के प्रान्त को महाराष्ट्र और गुजरात में बाँटा गया । वर्ष 1966 में पंजाब को तीन हिस्सों में बाँटा गया- पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश । राज्य निर्माण के इस इस आन्दोलन में भी दर्शन सिंह फेरुमान ने अनशन करते हुए शहादत दी । झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के लम्बे आन्दोलन के परिणामस्वरूप वर्ष 2000 में बिहार और मध्य प्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों को मिलाकर दो आदिवासी प्रान्त झारखण्ड और छत्तीसगढ़ गठित किए गए ।इसी के साथ ही प्रशासनिक उपेक्षा के आधार पर उत्तराखंड प्रान्त बना ।

49- पॉल ब्रास ने वर्ष 1990 में प्रकाशित अपनी पुस्तक द पॉलिटिक्स ऑफ इंडिया सिंस इण्डिपेंडेंस में लिखा है कि भारत का भाषायी संघवाद चार नियमों के आधार पर काम करता है : पहला, अलग राष्ट्र बनाने की माँग को स्वीकार नहीं किया जाएगा । दूसरा, धार्मिक आधार पर राज्य के गठन की कोई माँग स्वीकार नहीं की जाएगी । तीसरा, केवल अलग भाषायी समुदाय होना ही काफ़ी नहीं है, उसकी राजनीतिक अभिव्यक्ति भी होनी चाहिए । चौथा, अगर किसी इलाक़े के केवल एक ही भाषायी समुदाय ने अलग राज्य की माँग की है तो उसे नहीं माना जाएगा । भारत के संविधान के अनुच्छेद 350 A, के अनुसार हर बच्चे को प्राथमिक शिक्षा के दौरान अपनी मातृभाषा में पढ़ने का अधिकार है ।

50- वर्ष 2009 में केंद्र सरकार ने अलग तेलंगाना राज्य को बनाने के प्रस्ताव पर सिद्धांततः सहमति दी ।अगस्त, 2013 में तेलंगाना राज्य बनाने का औपचारिक ऐलान किया । यह बात ध्यान देने की है कि आज भी उत्तर प्रदेश जनसंख्या की दृष्टि से बड़ा राज्य है ।महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और आन्ध्र प्रदेश फ़्रांस और ब्रिटेन से भी बड़े हैं । भारत में राज्यों की राजनीति को आधार बना कर सैद्धान्तिक सूत्रीकरण की शुरुआत साठ के दशक में मायरन वीनर ने 1968 में प्रकाशित अपनी पुस्तक स्टेट पॉलिटिक्स इन इंडिया से की थी ।वर्ष 2009 में राज्यों की राजनीति को आधार बनाकर प्रोफ़ेसर योगेन्द्र यादव और सुहास पलशीकर ने टेन थिसिज ऑन स्टेट पॉलिटिक्स इन इंडिया नामक पुस्तक लिखी ।

नोट : उपरोक्त सभी तथ्य, अभय कुमार दुबे, द्वारा सम्पादित पुस्तक, समाज- विज्ञान विश्वकोश , खण्ड 5, दूसरा संस्करण : 2016, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, ISBN : 978-81-267-2849-7 से साभार लिए गए हैं ।

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Dr. Raj Bahadur Mourya:
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