राजनीति विज्ञान/ समाज विज्ञान, महत्वपूर्ण तथ्य, (भाग- 31)

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– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर- प्रदेश), Email : drrajbahadurmourya @ gmail.com, Website : the mahamaya.com

(आचार्य चतुरसेन, तस्लीमा नसरीन, सामाजिक न्याय की राजनीति, राजनय, राजनीतिक अर्थशास्त्र, राजनीतिक मनोविज्ञान, राजनीतिक समाजशास्त्र, राजा राममोहन राय, राधाकमल मुखर्जी, रामअवतार शर्मा, रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर, रामविलास शर्मा, राम शरण शर्मा, स्वामी रामानन्द, रामानुजाचार्य, रुक्मिणी देवी अरुंडेल, रूथ बेनेडिक्ट)

1- दिनांक, 26 अगस्त, 1891 को उत्तर- प्रदेश के बुलन्दशहर ज़िले में जन्में आचार्य चतुरसेन हिन्दी साहित्य की अनमोल धरोहर हैं । उन्होंने उपन्यास, नाटक, गद्य काव्य तथा कहानी संग्रह के लेखन में ख्याति अर्जित की । उनकी आत्मकथा मेरी कहानी है । उपन्यासों में वैशाली की नगर वधू बहुत चर्चित है । इसके अतिरिक्त सोमनाथ, वयंरक्षाम्, गोली, सोना और खून, रक्त की प्यास, हृदय की प्यास, अमर अभिलाषा, नरमेघ, अपराजिता, धर्म पुत्र तथा देवांगना उनके प्रमुख उपन्यास हैं । राज सिंह, मेघनाद, छत्रसाल, गांधारी, श्रीराम, अमर राठौर, उत्सर्ग और क्षमा आचार्य चतुरसेन के प्रमुख नाटक हैं । उन्होंने हिन्दी भाषा और साहित्य का इतिहास (सात खंडों में प्रकाशित) लिखा । 2 फ़रवरी, 1960 को उनका निधन हो गया ।

2- आचार्य चतुरसेन का सबसे प्रसिद्ध उपन्यास वैशाली की नगर वधू है । उस उपन्यास के प्रथम चरण के प्रवेश नामक शीर्षक अध्याय में ही आचार्य चतुरसेन ने लिखा है कि तत्कालीन वैशाली एक विशाल नगरी थी । यह अति समृद्ध थी । उसमें 7777 प्रासाद, 7777 कूटागार, 7777 आराम और 7777 पुष्करिणियाँ थीं । यह लिच्छिवियों के वज्जी संघ की राजधानी थी। विदेह राज्य टूटकर यह वज्जी संघ बना था । इस संघ में विदेह, लिच्छवि, क्षात्रिक, वज्जी, उग्र, भोज, इक्ष्वाकु और कौरव यह आठ कुल सम्मिलित थे । इनमें प्रथम चार प्रधान थे । विदेहों की राजधानी मिथिला, लिच्छिवियों की वैशाली, क्षात्रिकों की कुण्डपुर और वज्जियों की कोल्लाग थी । वैशाली पूरे संघ की राजधानी थी ।आजकल जिसे गण्डक कहते हैं उन दिनों उस नदी का नाम सिही था ।

3- आचार्य चतुरसेन ने लिखा है कि वज्जी संघ का शासन एक राज परिषद करती थी, जिसका चुनाव हर सातवें वर्ष उसी राष्ट्र कुल में से होता था । निर्वाचित सदस्य परिषद में एकत्र होकर वज्जी- चैत्यों, वज्जी -संस्थाओं और राज व्यवस्था का संचालन करते थे । शिल्पियों के संघ श्रेणी कहलाते थे और प्रत्येक श्रेणी का संचालन उसका जेट्ठक करता था । जल, थल और अट्टवी के नियामकों की श्रेणियाँ अलग थीं । नगर में श्रेणियों के कार्यालय और निवास अलग-अलग थे सेट्ठयों के संघ निगम कहलाते थे ।सब निगमों का प्रधान नगर सेठ कहलाता था । व्यापारी, जौहरी, शिल्पकार और यात्रियों से वैशाली हमेशा परिपूर्ण रहती थी । पूर्व से पश्चिम का रास्ता नदियों द्वारा था ।

4- आचार्य चतुरसेन ने लिखा है कि वैशाली से मिथिला के रास्ते गान्धार को, राजगृह के रास्ते सौवीर को, भरुकच्छ के रास्ते वर्मा को और पतित्थान के रास्ते बेबीलोन तथा चीन को भारी सार्थवाह जल और थल पर चलते थे । ताम्रपर्णी, स्वर्णद्वीप आदि सुदूर- पूर्व के द्वीपों का यातायात चम्पा होकर था ।वैशाली का सभा मंडप मत्स्य देश के उज्ज्वल श्वेतमर्मर का बना हुआ था । इसकी छत 108 खम्बों पर आधारित थी ।सभा भवन के चारों ओर भीतर की ओर 999 हाथीदांत की चौकियाँ रखी थीं । इसी संथागार में अम्बपाली को वैशाली की नगर वधू घोषित किया गया था और उसे जनपद कल्याणी की उपाधि दी गई थी । वह भन्ते महानामन् की पुत्री थी ।

5- आचार्य चतुरसेन के उपन्यास वैशाली की नगर वधू में इस बात का उल्लेख है कि अम्बपाली ने किसी नारी को वैशाली की नगर वधू बनाने के वज्जी संघ के क़ानून को धिक्कृत क़ानून कहा था ।सभा मंडप में अपनी बात रखते हुए अम्बपाली ने कहा था कि, “मेरा अपराध केवल यही है कि विधाता ने मुझे अथाह रूप दिया । इसी अपराध के लिए आज मैं अपने जीवन के गौरव को लांछना और अपमान के पंक में डुबो देने को विवश की जा रही हूँ । इसी से मुझे स्त्रीत्व के उन सब अधिकारों से वंचित किया जा रहा है जिन पर प्रत्येक कुल वधू का अधिकार है । अब मैं अपनी रूचि और पसंद से किसी व्यक्ति को प्रेम नहीं कर सकती, उसे अपनी देह और अपना हृदय अर्पित नहीं कर सकती ।आप जिस क़ानून के बल पर मुझे ऐसा करने को विवश कर रहे हैं, वह एक बार नहीं, लाख बार धिक्कृत योग्य क़ानून है ।

6- अम्बपाली ने वैशाली की नगर वधू बनने से पहले तीन शर्तें रखी थीं : पहली, उसे रहने के लिए सप्तभूमि प्रासाद, नौ कोटि स्वर्ण भार,प्रासाद के समस्त साधन और वैभव सहित दिया जाए । दूसरी, उसके आवास की दुर्ग की भाँति व्यवस्था दी जाए और तीसरे, उसके आवास में आने- जाने वाले अतिथियों की जॉंच- पड़ताल गणकाध्यक्ष न करें । उपरोक्त तीनों शर्तों को संघ ने स्वीकार किया था । केवल तीसरी शर्त में आंशिक संशोधन कर यह कहा गया था कि जब कभी अम्बपाली के आवास की जॉंच करने की आवश्यकता समझी जाए तो उसे एक सप्ताह पहले इसकी जानकारी दी जाए ।

7- तस्लीमा नसरीन (25 अगस्त, 1962) बांग्लादेशी मूल की लेखिका, फ़िज़िशियन, नारीवादी लेखिका हैं । उन्होंने महिलाओं के हक में लेखन कार्य किया है । उनकी कुछ पुस्तकें बांग्लादेश में प्रतिबंधित हैं । उनका जन्म बांग्लादेश के मैमनसिंह में हुआ है ।अपने लेखन से जहाँ उन्होंने लोकप्रियता हासिल की वहीं वह विवादों में भी रही हैं । 8 अगस्त, 1994 में उन्हें बांग्लादेश छोड़ना पड़ा । यूरोप के बाद वह भारत में कोलकाता में रहीं, लेकिन उन्हें वहाँ से भी निर्वासित कर दिया गया । उन्हें दुनिया के अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त हुए जिसमें फ़्रांस का सिमोन द बोउवार पुरस्कार भी शामिल है । हार्वर्ड और न्यूयार्क विश्वविद्यालयों से उन्हें फ़ेलोशिप मिली । उनकी पुस्तकों का लगभग 30 भाषाओं में अनुवाद हुआ है ।

8- कलोल चक्रवर्ती द्वारा अनुवादित तथा नयी किताब प्रकाशन, नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित तसलीमा नसरीन की पुस्तक एकला चलो (प्रथम संस्करण : 2021) में इस बात का ज़िक्र किया गया है कि पश्चिम एशिया के कुछ देशों, जैसे – बहरीन, जॉर्डन, कुवैत, लेबनान, कतर, ओमान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात में प्रवासी श्रमिकों को कफाला नियम के तहत बीजा दिया जाता है । इसमें शर्त होती है कि मालिक की अनुमति के बिना काम करने वाली महिला घर छोड़कर नहीं जा सकती ।एक घर का काम छोड़कर दूसरे घर का काम नहीं पकड़ सकती । काम न करने अथवा मालिक की बात न मानने की स्थिति में दंड भुगतना होगा । घर से भागने पर गिरफ़्तार कर जेल में बंद कर दिया जाएगा ।

9- तस्लीमा नसरीन ने अपनी पुस्तक एकला चलो में लिखा है कि नेशनल रजिस्टर फ़ॉर सिटीज़नशिप के तहत असम में जिन 19 लाख लोगों को घुसपैठियों के रूप में चिन्हित किया गया था उसमें 12 लाख हिंदू थे । उसी पुस्तक में उन्होंने ज़िक्र किया है कि वर्ष 1901 से नोबेल पुरस्कार दिए जा रहे हैं । जनसंख्या के हिसाब से सबसे ज़्यादा नोबेल यहूदियों को मिले हैं । जबकि सबसे कम नोबेल मुस्लिमों को मिले हैं । तस्लीमा नसरीन ने लिखा है कि हिन्दू होते हुए भी ममता बनर्जी नमाज़ पढ़ती हैं, रोजा रखती हैं और क़ुरान की आयतें पढ़ती हैं । ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में 30 हज़ार मस्जिदों के इमामों को 2,500 और मुअज्जिनों को 1,500 रूपये प्रतिमाह देने की घोषणा की है ।उन्होंने यह भी कहा है कि हर इमाम को घर बनाने के लिए ज़मीन तथा उनके बच्चों की पढ़ाई के लिए धन देंगी ।

10- तस्लीमा नसरीन ने लिखा है कि कश्मीरी किशोरी जायरा वसीम भारतीय फ़िल्म जगत की अत्यंत भाग्यशाली अभिनेत्री हैं । उनकी पहली फ़िल्म दंगल असाधारण है । उनकी दूसरी फ़िल्म सीक्रेट सुपर स्टार भी बेहतरीन फ़िल्म है । दोनों हिट फ़िल्में हैं और दोनों में अपने अभिनय के कारण जायरा पुरस्कृत हुई हैं ।अब जायरा ने अभिनय छोड़ देने की बात कही है । उनके मुताबिक़, फ़िल्म जगत में आने से उनका ईमान भ्रष्ट हो गया है । निर्देशक अनुभव सिन्हा ने भारत में थप्पड़ नामक फ़िल्म बनाई है ।यह नारीवादी मुद्दों पर आधारित है । फ़िल्म के माध्यम से अनुभव सिन्हा ने कहना चाहा है कि अगर स्त्रियाँ आत्म- सम्मान के साथ जीने को महत्व देतीं, तो आधे से अधिक महिलाएँ पति को तलाक दे चुकी होतीं ।

11- तस्लीमा नसरीन ने लिखा है कि नारीवादी नेत्री सुसान वी एन्थॉनी ने कहा है कि, पत्नी द्वारा पति को तलाक देना बर्बर मालिक से दासी के मुक्ति पाने जैसा है । ग़ुलामी की प्रथा ख़त्म होने से हमें ख़ुशी मिली । तो फिर पत्नी द्वारा पति को तलाक देने पर हम खुश क्यों नहीं होते । तस्लीमा नसरीन ने लिखा है कि एक गणतंत्र को तो आस्तिक और नास्तिक, दोनों के अधिकार को बराबर का सम्मान देना चाहिए । घृणा और विद्वेष को प्रेम से दूर किया जा सकता है । ग़लत सोच उदार चिंतन से ही दूर हो सकती है । तर्क से ही कट्टरवाद को ख़त्म किया जा सकता है ।

12- तस्लीमा नसरीन ने लिखा है कि भारत में आर्टिकल- 15 नाम से एक फ़िल्म बनी है ।इसमें दिखाया गया है कि यहाँ पर जाति प्रथा अब भी मौजूद है । निचली जाति के स्त्री- पुरूषों पर अब भी ऊँची जाति के लोग अत्याचार करते हैं । जाति प्रथा को ईश्वर के विधान के रूप में ही जाना जाता है । ऊँची जाति भी इस पर विश्वास करते हैं और नीची जाति भी ।उन्होंने यह भी बताया है कि चर्चित जापानी फ़िल्म शॉपलिफ्टर देखने के बाद आर्टिकल- 15 मेलोड्रामा लगती है । इसके बावजूद यह फ़िल्म सत्य घटना पर आधारित है । अब तो आनलाइन नारी विरोधी संगठन अस्तित्व में आ गए हैं, जिनमें मैनश्च राइट्स, इंसेल रेबेलियन, पिक अप आर्टिस्ट प्रमुख हैं ।

13- तस्लीमा नसरीन अपनी पुस्तक एकला चलो के पेज नंबर 102 पर लिखा है कि वर्ष 1989 में मार्क लेपिन नामक व्यक्ति ने कनाडा के मांट्रियाल में एक पॉलिटेक्निकल स्कूल में घुसकर छात्रों को दूर हटाकर सिर्फ़ छात्राओं को गोलियों का निशाना बनाया था । जिसमें 14 लड़कियाँ मारी गई थीं ।चार्ल्स शोभराज ने, जिसे बिकनी किलर भी कहा जाता था, बीती सदी के 70 और 80 के दशक में नेपाल और थाईलैण्ड में लड़कियों की हत्या किया । यार्क शायर के रिपर पीटर सटक्लिफ ने 1975 से 1980 के बीच 13 लड़कियों की हत्या की । आस्ट्रेलिया के किस्टोफर वाइल्ड ने 12 लड़कियों की जान ली थी । अमेरिका के रोडनी अल्काला, कार्ल युजिन वॉट्स, ल्योनार्ड लेक, जेराल्ड स्टैनो नारी की हत्याओं में लिप्त थे ।

14- अपनी उसी पुस्तक में तस्लीमा नसरीन ने लिखा है कि क्लीवलैंड के आरियल कैस्ट्रै ने 10 साल तक तीन किशोरियों को अपने घर में ज़ंजीरों में जकड़कर रखा था । वे किशोरियाँ उसकी यौन दासी थीं, जिनके साथ वह बलात्कार और अत्याचार करता था । उन्होंने लिखा है कि एक देश कितना सभ्य है, इसका पता इससे भी चलता है कि उस देश में बेज़ुबान जीव कितने सुरक्षित हैं । जो देश कुत्ते- बिल्लियों की हत्या करता है, वह सिर्फ़ असभ्य ही नहीं बल्कि निर्मम है ।प्राचीन मिस्र में तो कुत्ते- बिल्लियों को ईश्वर का दर्जा दिया गया था । तस्लीमा नसरीन ने लिखा है कि यदि पुरुष आत्महत्या कर ले तो सहज यक़ीन नहीं होता, लेकिन स्त्री आत्म हत्या कर ले तो क्या कारण है कि सहज ही यक़ीन हो जाता है ।

15- तस्लीमा नसरीन की उक्त पुस्तक में इस बात का ज़िक्र किया गया है कि पश्चिम में वेलेण्टाइन डे बहुत पहले से अस्तित्व में है । कहते हैं कि प्राचीन रोम में 13-14 फ़रवरी को प्रेम का उत्सव मनाया जाता था ।ईसाइयत में सेंट वैलेण्टाइन के नाम से यह उत्सव मनाना शुरू किया गया । यह वही सेंट वैलेण्टाइन थे, जिनके ईसाइयत में दीक्षित होने से नाराज़ होकर रोमन सम्राट क्लाडियस द्वितीय ने उन्हें मरवा दिया था । मध्यकालीन अंग्रेज कवि जेफ्री चॉसर और विख्यात लेखक विलियम शेक्सपियर ने वैलेण्टाइन डे को सिर्फ़ प्रेम का दिन ही नहीं कहा था, बल्कि उन्होंने इस दिन की याद में काव्य रचनाएँ भी की थीं ।

16- जेफ्री चॉसर ने अगर वैलेण्टाइन डे को प्रेम का दिन नहीं कहा होता, अगर उन्होंने अपनी कविताओं में इसका ज़िक्र नहीं किया होता कि इस दिन रंग- बिरंगे पक्षी भी अपना साथी चुनने के लिए झुंड में आते हैं, तो वैलेण्टाइन डे को प्रेम के दिन के रूप में ऐसी व्यापक मान्यता शायद ही मिलती । रोमन सम्राट क्लाडियस द्वितीय ने जब अपने सैनिकों के विवाह पर प्रतिबन्ध लगा दिया था, तब एक सन्त वैलेण्टाइन सम्राट के आदेश के खिलाफ खड़े हुए थे । उन्होंने अनेक सैनिकों की शादियाँ कराया । 14 फ़रवरी को उन्हें मरवा दिया गया था । कहते हैं कि मारे जाने से पहले जेलर की बेटी से उनका प्रेम हो गया था और उसे भेजी गई एक चिट्ठी में उन्होंने लिखा था कि- फ्रॉम योर वैलेण्टाइन ।

17- तस्लीमा नसरीन ने लिखा है कि अगर मनुष्य के पास वाक्- स्वाधीनता या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार न हो, तो गणतंत्र निरर्थक हो जाता है । समाज को बदलने के लिए लोगों की भावना में ठेस लगानी पड़ती है । किसी की भावना को ठेस न लगे तो समाज को बदला नहीं जा सकता है । राष्ट्र से धर्म को अलग-अलग करने की कोशिश में लोगों की धार्मिक भावनाओं को चोट लगती है । यूरोप में चर्च को शासन से अलग करते समय भी बहुत लोगों की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुँची थी । गैलीलियो की बातों से, डार्विन की बातों से भी लोगों की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुँची थी । उन्होंने लिखा है कि धार्मिक भावना में आघात करने से अच्छा काम इस दुनिया में अभी तक नहीं हुआ है ।

18- तस्लीमा नसरीन ने लिखा है कि विज्ञान की निरंतर उन्नति से अन्धविश्वास सम्पन्न लोगों की भावनाओं को चोट पहुँचती है । किन्तु लोगों की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुँची, यह सोचकर अगर हम लोग अपने विचार व्यक्त करना बन्द कर दें, यदि हम वैज्ञानिक आविष्कार और उसका प्रयोग बन्द कर दें, यदि सभ्यता के पहिए को रोक दें, तो उसका मतलब इस समाज को निर्बाध बहती नदी के बजाय बन्द जलाशय बनाकर ही रखना होगा । जिस बात पर सब लोग ख़ुश हों, वही बात करनी है, तो फिर वाक्- स्वाधीनता का कोई मतलब ही नहीं है । वाक्- स्वाधीनता का मतलब उनके लिए ही है, जिनके विचार दूसरों से नहीं मिलते । जो बात आप सुनना नहीं चाहते, वह बात कहने का नाम ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है ।

19- अभय कुमार दुबे ने समाज विज्ञान विश्वकोश के खंड- 5 में पेज नंबर 1561 पर भारत में राज्यों की राजनीति, अध्याय में लिखा है कि भारत में तमिलनाडु और केरल राज्य के पास सामाजिक न्याय के आन्दोलन की विरासत है जबकि महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के पास आम्बेडकर आन्दोलन की विरासत है । नागालैंड, मिज़ोरम और पंजाब में आज भी पृथकतावादी रुझान दिखाई पड़ते हैं ।तमिलनाडु को द्रविड़ आन्दोलन ने, असम को बहिरागत विरोधी मुहिम ने, मिज़ोरम को पृथकतावादी बग़ावत ने और पश्चिम बंगाल को कम्युनिस्ट आन्दोलन ने एक राजनीतिक समुदाय में संगठित कर दिया है । जबकि आन्ध्रप्रदेश, महाराष्ट्र और पंजाब ने भाषायी आधार पर अपनी अलग अस्मिता प्राप्त की है ।

20- गुजरात, महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक, हरियाणा और पंजाब में मंझोली जातियों ने अपना वर्चस्व क़ायम करने में सफलता प्राप्त की है । केरल, तमिलनाडु, बिहार और उत्तर प्रदेश में यह प्रक्रिया इन जातियों के परे चली गई है । पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हिमाचल और उत्तराखंड जैसे राज्यों में पारम्परिक रूप से ऊँची जातियों के हाथ में सत्ता की बागडोर है । उत्तर बंगाल, पश्चिमी उड़ीसा, पूर्वांचल, हरित प्रदेश, बुंदेलखंड, तेलंगाना और विदर्भ जैसी उप- क्षेत्रीय अस्मिताओं की दावेदारी पहले के मुक़ाबले और मुखर हुई है ।

21- राजनय अथवा डिप्लोमेसी वह कला है जिसके ज़रिए कोई राज्य किसी दूसरे राज्य या राज्यों से युद्ध, शांति, व्यापार, अर्थशास्त्र, संस्कृति, पर्यावरण और मानवाधिकार सम्बन्धी मसले सुलझाता है । राजनय के दो मुख्य पहलू होते हैं : प्रथम, इसी के ज़रिए राज्य दुनिया के सामने अपना प्रतिनिधित्व करते हुए अपनी दावेदारियाँ पेश करता है और दूसरे, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली राष्ट्रीय हितों की प्रतियोगिता में राज्य के हितों की रक्षा की जाती है । विदेश नीति, एक- दूसरे को काटते स्वरों और व्याख्याओं के बीच से निकालकर सुसंगत संरचना प्रदान करने का काम राजनयिकों द्वारा किया जाता है ।

22- आधुनिक राजनय का उद्गम तेरहवीं सदी के इटली में माना जाता है जब मिलान के फ्रांसेस्को सेफरोजा उत्तरी इटली के दूसरे नगर राज्यों में अपने स्थायी दूतावास क़ायम किए । पहले रिनेसॉं के इस दौर में त्युस्केनी और वेनिस भी राजनय के केन्द्र बने ।राजदूत द्वारा अपना परिचय- पत्र राज्य के मुखिया के सामने पेश करने की परम्परा भी यूरोप के इसी क्षेत्र में पड़ी । मिलान ने ही 1455 में पहली बार अपना प्रतिनिधि फ़्रांस के राजदरबार में भेजा । स्पेन ने 1487 में पहली बार इंग्लैंड के दरबार में अपना स्थाई प्रतिनिधि भेजा । सूचना एकत्र करना, छवि का प्रबंधन और नीतिगत कार्यान्वयन राजनय के प्रमुख कार्य हैं । शटल डिप्लोमेसी या विशेष दूत के चलन का श्रेय अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन और उनके विदेश मंत्री हेनरी किंसिंगर की देन है ।

23- भारत में ईसा पूर्व तीसरी सदी में सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के महामात्य (प्रधानमंत्री), विष्णुगुप्त चाणक्य (कौटिल्य) द्वारा रचित ग्रन्थ अर्थशास्त्र में राजनय से सम्बन्धित सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया है । इसके मुताबिक़ राजनय की भूमिका राजा को दूसरे राज्यों से गठबंधन बनाने के ज़रिए प्रतिद्वंद्वी राज्यों को मात देने की होनी चाहिए । कौटिल्य ने सिफ़ारिश की है कि दूसरे दरबारों में भेजे गए दूतों को वहाँ लम्बी अवधियों तक रहना चाहिए । वे यह भी सलाह देते हैं कि ज़रूरत पड़ने पर विदेशी दूतों को निष्कासित करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए । ईसा से 600 वर्ष पूर्व चीन के सामरिक रणनीतिकार सुन जू द्वारा रचित ग्रन्थ द आर्ट ऑफ वार में भी राजनय की कला के बारे में जानकारी दी गई है ।

24- नीत्शे ने अपनी रचना दस स्पोक जरथ्रुस्त (1883-85) में सुपरमैन का विचार प्रतिपादित किया ।सुपरमैन के ज़रिए वे एक ऐसे व्यक्ति की सम्भावनाओं की तरफ़ इशारा कर रहे थे जो चालू नैतिकताओं की सीमाओं से आगे जाकर अपने लिए अलग तरह के मूल्यों और जीवन की सृष्टि कर सके । कार्ल मार्क्स ने भी कहा कि, “मुर्दा पीढ़ियों की परम्पराओं का बोझ ज़िंदा पीढ़ियों के दिमाग़ पर एक दु:स्वप्न की तरह लदा रहता है”।

25- राजनीतिक अर्थशास्त्र उन बुद्धिसंगत फ़ैसलों का अध्ययन करता है जो राजनीतिक और आर्थिक संस्थाओं के संदर्भ में लिए जाते हैं । इस अध्ययन में तर्कसंगत आधारों की रोशनी में समष्टिगत प्रभावों पर गौर किया जाता है ।अठारहवीं सदी के मध्य में प्रकाशित एडम स्मिथ की रचना वेल्थ ऑफ नेशंस से लेकर उन्नीसवीं सदी में प्रकाशित जॉन स्टुअर्ट मिल की रचना प्रिंसिपल्स ऑफ पॉलिटिकल इकॉनामी और कार्ल मार्क्स की रचना कैपिटल : अ क्रिटीक ऑफ पॉलिटिकल इकॉनॉमी तक के लम्बे दौर में अर्थशास्त्र का अनुशासन मुख्य तौर से राजनीतिक अर्थशास्त्र के नाम से ही जाना जाता है । जोसेफ शुम्पीटर की रचना कैपिटलिज्म, सोशलिज्म् एंड डेमॉक्रैसी एक ऐसी कृति थी जिसमें अंतर्निहित था कि अर्थशास्त्र का अध्ययन राजनीति के अध्ययन से जुड़ा है ।

26- पॉलिटिकल इकॉनॉमी के नाम का प्रयोग पहली बार 1615 में मोंक्रेतीन द वातविले द्वारा प्रयोग किया गया था ।फ़्रांस का यह वणिकवादी विद्वान चाहता था कि आर्थिक विज्ञान की परिभाषा को उन सीमाओं से बाहर निकाला जाए जिनमें यूनानी चिंतकों ने उसे सीमित कर दिया है । प्राचीन यूनानियों के अनुसार अर्थशास्त्र का क्षेत्र घर- ख़र्चे तक सीमित था । सन् 1761 में सर जेम्स स्टुअर्ट पहले अंग्रेज अर्थशास्त्री थे जिन्होंने इस पद का उल्लेख अपनी पुस्तक ऐन इनक्वैरी इनटु द प्रिंसिपल्स ऑफ पॉलिटिकल इकॉनॉमी के शीर्षक में किया । द थ्री वर्ल्ड्स ऑफ वेलफ़ेयर कैपिटलिज्म में गोस्ता एस्पिंग- ऐंडरसन ने लोकोपकारी राज्य की पूँजीवादी जड़ों को स्पष्ट किया ।

27- नारीवाद ने उदारतावादी लोकतंत्र को भी गहराई से प्रभावित किया है । नारीवादी दार्शनिक राजनीतिक सिद्धान्त में प्रचलित न्याय की उस परिभाषा से सहमत नहीं हैं जिसके आधार में नीतिशास्त्र की सार्वभौम, वस्तुनिष्ठ और निर्वैयक्तिक मान्यताएँ मौजूद हैं । इस परिप्रेक्ष्य में कैरल गिलिगन, कैथरीन मैकिनन और जोआन ट्रोंटो जैसी विदुषियों ने गम्भीर प्रश्न उठाया है । सूजन मोलर ओकिन ने नारीवादी नज़रिए से न्याय के सिद्धांत को गढ़ने का सबसे ज़ोरदार प्रयास किया है ।अपनी रचना जस्टिस, जेंडर ऐंड फेमिली में वे कहती हैं कि न्याय पर होने वाली दार्शनिक चर्चाओं में परिवार के दायरे को शायद ही कोई महत्व दिया जाता हो । परिवार को निजी दायरे में मान लिया जाता है और न्याय को सार्वजनिक ।

28- राजनीतिक मनोविज्ञान, राजनीतिशास्त्र और मनोविज्ञान का एक ख़ास तरह का जोड़ है ।जिसके ज़रिये मनोविश्लेषण का इस्तेमाल करके राजनीतिक नेतृत्व और राजनीतिक प्रवृत्तियों के बारे में गहरी अंतर्दृष्टियॉं विकसित की गई हैं । राजनीतिक मनोविज्ञान की मदद से वोट डालने का फ़ैसला लेने, जनमत बनाने की प्रक्रिया और प्रतीकों का राजनीतिक विश्लेषण किया गया है ।भारतीय राजनीतिशास्त्र में भी प्रशिक्षित मनोविदों ने योगदान किया है । इसमें आशीष नंदी और सुधीर कक्कड़ प्रमुख हैं । इसी तरह भारत के प्रमुख राजनीतिशास्त्री रजनी कोठारी ने मनोविज्ञान की मदद लेकर भारतीय राजनीतिक शख़्सियत के समाजीकरण का सूत्रीकरण किया है ।

29- हैरल्ड लैसवेल को राजनीतिक मनोविज्ञान का पितामह माना जाता है । तीस के दशक में लैसवेल ने राजनीति में भागीदारी के आधारभूत निजी कारणों की बेहद सृजनशील जॉंच करते हुए राजनीति विज्ञान और मनोविज्ञान के संश्रय से हो सकने वाले बौद्धिक लाभों पर रोशनी डाली थी ।मनोविश्लेषकों की मदद से तैयार की गई एडोर्नो की रचना द एथॉरिटेरियन पर्सनैलिटी राजनीतिक मनोविज्ञान की एक बेहतरीन कृति है । अमेरिकी लोकतंत्र के फ़्रांसीसी अध्येता टॉकवील ने भी राजनीतिक प्रणालियों के कामकाज की पड़ताल करते समय उसमें अंतर्निहित मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर विशेष ध्यान दिया था ।

30- फ्रॉयड ने लियोनार्डो द विंची की मनोवैज्ञानिक जीवनी लिखने के लिए उनके मानस में झांककर यह पता लगाने की कोशिश की थी कि युरोपीय ज्ञानोदय के इस अनूठे महारथी की रचनात्मकता के स्रोत कहॉं निहित थे । फ्रॉयड द विंची द्वारा देखे गए एक सपने का विश्लेषण करके नतीजा निकाला था कि उनकी सृजनशीलता का उद्गम उनकी दमित समलैंगिक यौन- कामनाओं में निहित था । फ्रॉयड की इस रचना ने मनोवैज्ञानिक जीवनी लिखने की विधा का ही सूत्रपात कर दिया ।राजनीतिक मनोविज्ञान ने कई मशहूर राजनीतिक हस्तियों जैसे वुड्रो विल्सन, हिटलर और स्तालिन और उनके द्वारा किए गए फ़ैसलों के भीतरी कारणों का पता लगाने में कामयाबी हासिल की ।

31- राजनीतिक समाज की अवधारणा भारतीय समाज- वैज्ञानिक पार्थ चटर्जी की देन है ।वर्ष 2004 में प्रकाशित अपनी किताब द पॉलिटिक्स ऑफ गवर्न्ड : रिफ्लेक्शंस ऑन पॉलिटिकल सोसाइटी में पार्थ चटर्जी ने राजनीतिक समाज का सिद्धांत पेश किया है । वे भारतीय राजनीतिक जीवन को दो दायरों में बाँटकर देखते हैं : नागर समाज और राजनीतिक समाज । नागर समाज वह है जिसकी रचना विधिसम्मत और सुपरिभाषित घटकों से मिलकर हुई है । दूसरी तरफ़ राजनीतिक समाज वह है जिसकी गतिविधियाँ पूँजीपति वर्ग द्वारा स्थापित मानकों के मुताबिक़ नहीं चलतीं। पार्थ चटर्जी का कहना है कि नागर समाज से इतर मौजूद राजनीतिक समाज ही भारत को पश्चिमी लोकतंत्रों की प्रतिकृति होने से बचाता है ।

32- राजनीतिक समाजशास्त्र सामाजिक विन्यास के राजनीतिक परिणामों और राजनीतिक विन्यास के सामाजिक परिणामों पर ध्यान केंद्रित करता है । राजनीतिक समाजशास्त्री हित- समूहों, राज्य की रचना -प्रक्रिया, पुराने और नए सामाजिक आन्दोलनों, वर्गीय आधार, जनमत, अभिजनों, मज़दूर संगठनों, नागर समाज और राजनीतिक सहभागिता जैसी विषय- वस्तुओं का अध्ययन करते समय सत्ता और प्रभुत्व की संरचनाओं को रेखांकित करते हैं । वे पता लगाते हैं कि सामाजिक जीवन में सत्ता किस प्रकार काम करती है, व्यक्तियों, संगठनों, समुदायों और देशों में उसका बँटवारा किस तरह होता है और सत्ता के किसी भी बँटवारे के सामाजिक कारण और फलितार्थ क्या हो सकते हैं ।

33- राजनीतिक समाजशास्त्रियों के पहली पीढ़ी के प्रमुख हस्ताक्षरों में गैब्रियल आलमोंड, सेमूर मार्टिन लिपसेट, स्टाइन रोक्कन और रॉबर्ट डाहल प्रमुख हैं । इन लोगों ने पूँजीवादी समाज में लोकतंत्र की सम्भावनाओं का आकलन करने के लिहाज़ से सत्ता के बँटवारे पर सामाजिक विन्यास के प्रभाव का अध्ययन किया । इस विमर्श के गर्भ से तीन तरह की सैद्धान्तिकियॉं निकलीं : अभिजन सिद्धान्त, बहुलवादी सिद्धान्त और वर्ग आधारित सिद्धांत । 1066 में प्रकाशित बैरिंगटन मूर की रचना सोशल ओरिजंस ऑफ डिक्टेटरशिप एंड डेमॉक्रेसी : लॉर्ड ऐंड पीजेंट इन द मेकिंग ऑफ मॉडर्न वर्ल्ड इस विमर्श का बेहतरीन परिणाम है ।

34- नव मार्क्सवादी चिंतन ने टकराव सिद्धांत को जन्म दिया ।टकराव सिद्धांत की आधारभूत मान्यता यह है कि संसाधन सीमित हैं इसलिए उन पर क़ब्ज़े के लिए या उनके बँटवारे के लिए स्वाभाविक तौर पर टकराव और प्रतियोगिता होनी है । इसलिए मानवीय सम्बन्धों की आधारभूत प्रकृति सहयोग और सहमति न होकर टकराव मानी जानी चाहिए ।इस बौद्धिक रवैये के गर्भ से पॉवर इलीट जैसी धारणाएँ निकलीं । इन्हीं प्रयासों ने बोर्दियो के ज़रिए सांस्कृतिक पूँजी और हैबरमास के ज़रिये पब्लिक स्फेयर्स या सार्वजनिक दायरा जैसे विमर्शों को जन्म दिया ।

35- राजा राममोहन राय (1772-1833) भारतीय आधुनिकता के पहले सिद्धांतकार और स्त्री- मुक्ति के पुरोगामी थे । राजा राममोहन राय के जीवन का मनो- राजनीतिक अध्ययन करने वाले आशीष नंदी के मुताबिक़ वे पहले आधुनिक भारतीय थे जिन्होंने अपनी प्राचीनता पर गर्व करने वाले एक कृषि प्रधान समाज में स्त्रीत्व और पुरुषत्व की स्थापित भूमिकाओं और समझ को सिद्धांत और व्यवहार में प्रश्नांकित करते हुए उलटने की कोशिश की । उन्होंने आग्रह किया कि चिंतन की दृढ़ता, संकल्प, भरोसे और पुण्य के सन्दर्भ में स्त्री पुरुष के मुक़ाबले में श्रेष्ठ होती है । इसलिए उसे अपना सत साबित करने के लिए मृत पति की चिता पर जलने की ज़रूरत नहीं है ।उनके प्रयासों से ही सती प्रथा पर क़ानूनी रोक लगाने की पुख़्ता ज़मीन तैयार हुई ।

35-A- राजा राममोहन राय का जन्म 1772 में बंगाल के राधा नगर में हुआ था । वे इस्लाम, बौद्ध धर्म, हिन्दू धर्म और ईसाई धर्म के अच्छे अध्येयता थे । ईसाई धर्म के विशेष लगाव के कारण उन्होंने ग्रीक और हिब्रू भाषाएं सीखीं । बी. मजूमदार के अनुसार, “आधुनिक भारत में राजनीतिक चिंतन का क्रम राजा राममोहन राय से ठीक उसी तरह से प्रारम्भ होता है जैसे पाश्चात्य राजनीतिक चिंतन का इतिहास अरस्तू से ।” मिस सोफिया डोबसन कोलेट ने राजा राममोहन राय को नव भारत का पैग़म्बर कहा है । वे उच्च कोटि के राजनीतिक विचारक और दृष्टा थे । 1821 में संवाद कौमुदी पत्रिका प्रारम्भ कर उन्होंने वर्षों से सुप्त राजनीतिक चिंतन को नई दिशा दी । वे सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्षतावादी थे ।

35-B- राजा राममोहन राय के विचारों पर मोन्थेको, ब्लेकस्टोन तथा बेन्थम की छाप थी । मान्टेस्क्यू के प्रभाव में उन्होंने शक्ति पृथक्करण और विधि के शासन को स्वीकार किया । बेन्थम के प्रभाव में शासन, नैतिकता तथा व्यवस्थापन सम्बन्धी विषयों पर लेखन किया । बेन्थम ने राजा राममोहन राय को, “अत्यंत प्रशंसित तथा मानवता की सेवा में रत प्रिय स्नेही सहयोगी” वाक्य से सम्बोधित किया । बिपिन चन्द्र पाल ने राजा राममोहन राय को राजनीति में स्वतंत्रता आन्दोलन का अग्रदूत कहा । राजा राममोहन राय ने प्रेस की स्वतंत्रता का सदैव समर्थन किया । शासन के सम्बन्ध में राजा राममोहन राय का विचार सीमित या संवैधानिक राजतंत्र के पक्ष में था । उन्होंने हिन्दू उत्तराधिकार क़ानून के सन्दर्भ में पुत्रियों को पिता की सम्पत्ति का एक चौथाई भाग देने का समर्थन किया ।

35-C- राजा राममोहन राय ने क़ुरान का अरबी भाषा से बंगाली भाषा में अनुवाद किया । 1802 में एकेश्वरवाद के समर्थन में आपने फ़ारसी में तुहफात- उल- मुवाहिदीन नामक ग्रन्थ लिखा । धर्म और दर्शनशास्त्र सम्बन्धी सत्संग के निमित्त आत्मीय सभा की स्थापना की । 1816 में राजा राममोहन ने वेदान्तसार नामक ग्रंथ प्रकाशित किया । वस्तुतः हिन्दू धर्म तथा इस्लाम का समन्वय राजा राममोहन राय के विचारों का मूल आधार है ।

36- राजा राममोहन राय ने धर्म, राजनीति, सार्वजनिक प्रशासन, शिक्षा, भाषा और साहित्य के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान दिया ।उनके नेतृत्व में समाज सुधारकों, विद्वानों और समर्पित कार्यकर्ताओं की लम्बी परम्परा शुरू हुई जिसने बीसवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों तक बंगाली समाज को परिवर्तनशील और विचारोत्तेजित बनाए रखा । रजनी कोठारी ने अपनी क्लासिक रचना भारत में राजनीति : कल और आज में राममोहन राय के बारे में लिखा है कि भारतवासियों को उदारतावादी मूल्यों की शिक्षा देने में उन्होंने अपना सारा जीवन खपा दिया । दरअसल उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की सबसे बड़ी विशेषता थी “पूर्व और पश्चिम का संश्लेषण ।

37- राजा राममोहन राय का कहना था कि, “हिन्दुओं की मौजूदा व्यवस्था उनके राजनीतिक लाभ की दृष्टि से सुनियोजित नहीं है ।… जरूरी है कि कम से कम राजनीतिक लाभ और सामाजिक राहत के लिए ही उनके धर्म में कुछ तब्दीलियाँ की जाएं ।” सन् 1816 में अंग्रेज़ी भाषा में हिन्दुइज्म शब्द का का पहली बार प्रयोग करने वाले राममोहन ने ईसाई, इस्लाम और हिन्दू धर्मों के श्रेष्ठ तत्वों को आपस में जोड़कर ब्रम्ह समाज आन्दोलन की स्थापना की ।सन् 1820 में उनकी रचना परसेप्ट्स ऑफ जीसस का प्रकाशन हुआ । 20 अगस्त, 1828 को उन्होंने ब्रम्ह सभा का गठन किया और इसी वर्ष वेदान्त कालेज की स्थापना किया । उनकी पत्रिका संवाद कौमुदी काफ़ी लोकप्रिय थी ।

38- राजा राममोहन राय सन् 1831 में मुग़ल साम्राज्य के राजदूत के रूप में इंग्लैंड की यात्रा पर गए ताकि लार्ड बेंटिक द्वारा जारी किए गए सती विरोधी क़ानून के पक्ष में पैरोकारी की जा सके । वहाँ से उन्होंने फ़्रांस की भी यात्रा भी की । 27 सितम्बर, 1833 को ब्रिस्टल के पूर्व में स्थित स्टैपलेटन नामक गाँव में मेनिनजाइटिस के रोग से उनका देहान्त हो गया । राममोहन को दक्षिणी ब्रिस्टल के एमोस वेल क़ब्रिस्तान में दफन किया गया । सन् 1843 में राममोहन राय के साथी और अनुयायी द्वारकानाथ ठाकुर ने इसी जगह उनका मक़बरा बनवाया ।

39- राधाकमल मुखर्जी (1889-1968) अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और कला चिंतन के महारथी हैं ।वह बंगाली नवजागरण से जन्मीं बौद्धिक संस्कृति की देन थे । उनका विमर्श समाजशास्त्र, इतिहास, सामाजिक पारिस्थितिकी, नैतिक मूल्य और भारतीय सभ्यता- संस्कृति से सम्बन्धित विषयों पर गहराई से गौर करता है । बहरामपुर और कोलकाता विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य करने के बाद 1921 में वह लखनऊ विश्वविद्यालय में आ गए । यहाँ पर वह समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर और विभागाध्यक्ष बने और तीस वर्ष तक शिक्षण कार्य किया । मुखर्जी मानव व्यवस्था व शहरीकरण की प्रक्रिया में भारतीय मूल्यों की उपेक्षा न करने की वकालत भी करते थे ।

40- राधाकमल मुखर्जी की कुल 27 पुस्तकें प्रकाशित हुईं जिनमें प्रमुख हैं : द रीजनल बैलेंस ऑफ मैन (1938), इंडियन वर्किंग क्लास (1940), सोशल इकॉलॉजी (1945), द सोशल स्ट्रक्चर ऑफ वैल्यूज (1955) में आयी ।वर्ष 1960 में उनकी पुस्तक द फिलॉसफी ऑफ सोशल साइंस तथा 1964 में द डेस्टिनी ऑफ सिविलाइजेशन प्रकाशित हुई । उन्होंने मूल्यों को दो भागों में विभाजित किया : साध्य मूल्य और साधन मूल्य ।साध्य मूल्य वह होते हैं जो स्वयं में पूर्ण होते हैं और व्यक्ति उन्हें अपने आचरण में आत्मसात् करता है । साधन मूल्यों का सम्बन्ध समाज के भौतिक जीवन अर्थात् शिक्षा, जीवन यापन, सम्पत्ति और सुरक्षा से होता है ।

41- बिहार प्रान्त के जनपद छपरा में एक भूमिहार ब्राह्मण परिवार में जन्में कवि और दार्शनिक रामअवतार शर्मा (1877-1928) परमार्थ दर्शनम् जैसी विलक्षण कृति के रचियता हैं ।विख्यात साहित्यकार गोविन्द चन्द्र पाण्डेय ने लिखा है कि रामऔतार शर्मा एक मौलिक आलोचना प्रवण तथा आधुनिक दार्शनिक थे । वे अपने विचारों में दयानंद से कहीं अधिक ज़्यादा क्रांतिकारी थे ।उनके शिष्यों में से एक डॉ. राजेंद्र प्रसाद बाद में भारत के राष्ट्रपति बने । रामऔतार शर्मा के दर्शन में न परब्रम्ह है, न ईश्वर है, न माया, न मुक्ति ।न निर्गुण निराकार है, न सगुण साकार । जो है वह सर्वगुण और सर्वाकार है । परमार्थ दर्शन के इस प्रवक्ता का प्रश्न है कि सर्वत्र साकार व्याप्त है, तो यह साकार निराकार से कैसे जन्म ले सकता है ? असत् से सत् नहीं उपज सकता ।

42- रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर प्राच्यवादी अध्ययन शास्त्र के बहुश्रुत विद्वान तथा भारत के पहले आधुनिक स्वदेशी इतिहासकार थे । उनका जन्म 6 जुलाई, 1837 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी ज़िले में मालवण में हुआ था । सन् 1853 में भण्डारकर जब मुम्बई के एल्फिंसटन कालेज में पढ़ने के लिए आए तब दादाभाई नौरोजी वहाँ अध्यापन कार्य कर रहे थे ।1862 में भण्डारकर एल्फिंस्टन कालेज के पहले बैच से ग्रेजुएट होने वालों में से एक थे । वह पुणे के डेक्कन कॉलेज में संस्कृत के प्रथम भारतीय प्रोफ़ेसर हुए । सन् 1885 में उन्होंने जर्मनी की गोतिन्गे युनिवर्सिटी से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की । 1894 में वह मुम्बई विश्वविद्यालय के उप कुलपति रहे । 1911 में रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर को नाइट की उपाधि से सम्मानित किया गया ।24 अगस्त, 1925 को उनका निधन हो गया ।

43-रामविलास शर्मा (1912-2000) हिन्दी जगत के शलाका पुरुष माने जाते हैं । उनकी पहचान साहित्यालोचक, भाषाशास्त्री, इतिहासकार, सभ्यता समीक्षक, मार्क्सवादी सिद्धांतकार, कवि, अनुवादक और संगठक के रूप में है । उत्तर प्रदेश के उन्नाव ज़िले के ऊंचगॉंव में उनका जन्म हुआ था । उन्होंने प्रेमचंद से लेकर वेदों तक साहित्य- संस्कृति और इतिहास के विविध पहलुओं पर अधिकारपूर्वक लिखा और सर्वाधिक पढे- गुने गए । वर्ष 1977 में उनकी पुस्तक महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण, वर्ष 1999 में भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश (दो खंडों में), वर्ष 2000 में गाँधी, लोहिया और अम्बेडकर प्रकाशित हुई । भारत में अंग्रेज़ी राज और मार्क्सवाद उनकी अन्य महत्वपूर्ण पुस्तक है ।

44- दिनांक 26 नवम्बर, 1919 को बिहार प्रान्त के बेगूसराय ज़िले के बरौनी नामक स्थान पर एक भूमिहार ब्राह्मण परिवार में जन्में रामशरण शर्मा (1921-2011) दामोदर धर्मानंद कोसम्बी द्वारा स्थापित प्राचीन भारत की मार्क्सवादी इतिहास लेखन परम्परा के बेहतरीन प्रतिनिधियों में से एक थे ।सौ पुस्तकों के लेखक और 15 भाषाओं में अनूदित रामशरण शर्मा की कृतियाँ आज भी भारत ही नहीं बल्कि पश्चिम के भी कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं । प्रोफ़ेसर ए.एल. बाशम के शोध निर्देशन में उन्होंने अपनी पी एच. डी. यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन के स्कूल ऑफ ओरियंटल ऐंड अफ्रीकन स्टडीज़ से की थी । वर्ष 1958 में उनकी पुस्तक शूद्राज इन ऐंशिएंट इंडिया प्रकाशित हुई ।

45- रामशरण शर्मा की अन्य प्रमुख कृतियाँ हैं : आस्पेक्ट्स ऑफ पॉलिटिकल आइडियाज़ ऐंड इंस्टीट्यूसंस इन ऐंशिएट इंडिया (1959), ऑरिजिन ऑफ स्टेट इन इंडिया (1960), इंडियन फ्यूडलिज्म (1965), लाइट ऑन अर्ली इंडियन सोसाइटी ऐंड इकॉनॉमी (1966), अरबन डिके इन इंडिया (1987) ।वर्ष 1977 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ऐंशिएंट इंडिया काफ़ी लोकप्रिय हुई 1979 में उन्होंने डिफ़ेंस ऑफ ऐंशिएंट इंडिया नामक पुस्तक लिखी । वर्ष 1995 में रामशरण शर्मा की चर्चित पुस्तक लुकिंग फ़ॉर आर्यंस और 1999 में एडवेंट ऑफ आर्यंस इन इंडिया प्रकाशित हुई

46- वैष्णव आचार्य स्वामी रामानन्द (1299-1410) मध्यकालीन भारतीय चिंतन और साहित्य के मेरुदण्ड माने जाते हैं । भक्ति मार्ग में उदारता और सहिष्णुता के बीज बोने वाले स्वामी रामानन्द पहले लोकसिद्ध आचार्य हैं जिन्होंने भेदभाव भुलाकर हिन्दुओं को ही नहीं मुसलमानों को भी अपना शिष्य बनाया । आज भी रामानन्द के रचे हुए संस्कृत के दो ग्रन्थ मिलते हैं : वैष्णवमताब्ज भास्कर तथा श्री रामार्चन पद्धति । प्रयाग में जन्में रामानन्द ने श्री सम्प्रदाय की दीक्षा काशी में आचार्य राघवानन्द से ली । राघवानन्द, रामानुजाचार्य की चौथी पीढ़ी में आते हैं जो आलवारों की संत परम्परा में थे । भक्तमाल ग्रन्थ में रामानन्द के 12 शिष्य कहे गए हैं : अनन्तानन्द, सुखानंद, सुरसुतनंद, नरहर्यानंद, भावानंद, पीया, कबीर, धन्ना भगत, रैदास, पद्मावती तथा सुरसुरी ।

47- ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य में दक्षिण भारत में कांचीपुरम के निकट श्री पेरुपुथुर में जन्में रामानुजाचार्य (1037-1137) को भारतीय दर्शन प्रणाली में विशिष्टाद्वैत के संस्थापक माना जाता है । उन्हें आदि शंकर और मध्वाचार्य के साथ तीन प्रमुख विभूतियों में एक माना जाता है जिनकी विद्वता और प्रयास से हिन्दुओं के आध्यात्मिक जीवन को वह मज़बूत और समेकित आधार मिला जिस पर वह आज तक खड़ा है । उन्होंने न्यायतत्व और योग रहस्य के रचयिता नाथ मुनि और उनके पौत्र यमुनाचार्य को अपना गुरु बनाया । उनकी सबसे महत्वपूर्ण कृति श्री भाष्य है जो उन्होंने वादरायण के ब्रम्हसूत्र के भाष्य के तौर पर लिखी थी ।

48- विशिष्टाद्वैत दर्शन के अनुसार मुख्य तत्व तीन होते हैं – चित्त अर्थात् जीवन, अचित् अर्थात् जगत् तथा ईश्वर ।इन तीनों में ईश्वर ही प्रधान तत्व है ।जीवन तथा जड़ यह दोनों ईश्वर के अधीन हैं ।विशिष्टाद्वैत के मुताबिक़ चित्त या जीवन देह, इंद्रिय प्राण तथा मन से विलक्षण होता है । वह नित्य, अनन्त, आनन्दमय तथा अणु होता है । रामानुज ने शंकर के माया सम्बन्धी सिद्धांत का विरोध किया तथा भक्ति की आवश्यकता को रेखांकित किया ।रामानुज के अनुसार मुक्ति के तीन मार्ग हैं – कर्म योग, ज्ञान योग और भक्ति योग । विशिष्टाद्वैत दर्शन के अनुसार जीवात्मा का अंतिम लक्ष्य ब्रम्ह से एक्य स्थापित करना है ।

49- रुक्मिणी देवी अरुंडेल (1904-1986) को भारत के सांस्कृतिक नवजागरण की अग्रदूत माना जाता है । उन्होंने न केवल दक्षिण भारत की अत्यंत प्राचीन नृत्य शैली भरतनाट्यम को पुनर्जीवित किया बल्कि उसे शास्त्रीय कलाओं के क्षेत्र में प्रतिष्ठित करने में सफलता प्राप्त की । मात्र 23 वर्ष की आयु में उन्होंने नाट्य शास्त्र का अध्ययन किया और तमिलनाडु में नृत्य के एक प्रसिद्ध गुरु मीनाक्षी सुन्दरम पिल्लै से नृत्य सीख कर महारत हासिल किया । वर्ष 1957 में उन्होंने भारत में विश्व शाकाहार सम्मेलन का आयोजन किया । वह अपने पिता नीलकण्ठ शास्त्री और माँ शेषअम्मल की आठवीं सन्तान थीं ।

50- अमेरिका के न्यूयार्क शहर में जन्मीं रूथ बेनेडिक्ट (1887-1948) सांस्कृतिक मानवशास्त्र की शीर्ष विद्वान और सिद्धांतवेत्ताओं में से एक हैं । सैद्धान्तिक रूप से उनका विमर्श मनोवैज्ञानिक मानवशास्त्र की श्रेणी में आता है । मानवशास्त्र की इस प्रवृत्ति को कल्चर ऐंड पर्सनैलिटी के लकब से भी जाना जाता है । उनकी सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक 1935 में प्रकाशित पैंटर्स ऑफ कल्चर है ।जो नारी अधिकार की वकालत करती है । इस पुस्तक का दुनिया की 14 भाषाओं में अनुवाद हुआ । वह कोलम्बिया जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर रहीं । वे अमेरिकी एंथ्रोपोलॉजिकल एसोसिएशन की अध्यक्ष और अमेरिकी फोकलोर सोसाइटी की प्रमुख सदस्य रहीं ।

नोट : उपरोक्त ब्लॉग में क्रमांक नम्बर 19 से 50 तक में वर्णित तथ्य , अभय कुमार दुबे, द्वारा सम्पादित पुस्तक, समाज विज्ञान विश्वकोश, खण्ड- 5, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से साभार लिए गए हैं । तथ्य क्रमांक 1 से 6 तक आचार्य चतुरसेन के उपन्यास “वैशाली की नगर वधू” से साभार लिए गए हैं जबकि तथ्य क्रमांक 7 से 18 तक तस्लीमा नसरीन की पुस्तक “एकला चलो” (कलोल चक्रवर्ती द्वारा अनुवादित तथा नयी किताब पब्लिकेशन, नई दिल्ली, द्वारा प्रकाशित) से साभार लिए गए हैं ।

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Dr. Raj Bahadur Mourya:
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