– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर-प्रदेश), भारत । email : drrajbahadurmourya @ gmail.com, website : themahamaya.com
(राष्ट्र-भाषा, राष्ट्रवाद, भारत में राष्ट्रत्व, राहुल सांस्कृत्यायन, रेने देकार्त, रोज़ा लक्जेमबर्ग, रोमिला थापर, रोलॉ बार्थ, रॉबर्ट ओवेन, सीमियोटिक्स, लिबरेशन थियोलॉजी, लियोन ट्रॉटस्की, लुई अलथुसे, ल्यूइस इरगिरे, ल्यूसियॉं फ्रेब लेनिनवाद, तॉलस्तॉय)
1- आधुनिक राज्यों को एक तरफ़ तो प्रशासनिक सुसंगतीकरण के लिए राज-भाषा की ज़रूरत पड़ती है और दूसरी ओर सांस्कृतिक समरूपता और वर्चस्व क़ायम करने के लिए राष्ट्र-भाषा की आवश्यकता होती है । भाषाशास्त्री जोशुआ फ़िशमैन ने राज-भाषा की आवश्यकता को राष्ट्रता (नैशनिज्म) की संज्ञा दी है और राष्ट्र भाषा की आवश्यकता को राष्ट्रवाद (नैशनलिज्म) करार दिया है । विश्व में लगभग दो सौ राष्ट्र होंगे जिनमें मोटे तौर पर 6,800 भाषाएँ हैं ।एक भाषा-एक राष्ट्र के आग्रह के तहत फ़्रांस में लोग फ़्रेंच बरतने के लिए बाध्य हैं । बावजूद इसके फ़्रांस के बहुत से क्षेत्रों में लोग बचपन में अल्सेशियन, जर्मन, डच, ब्रेटन, बेस्क, कैटलन, ऑक्सिटन मातृभाषा के रूप में सीखते हैं ।
2- स्पेन में भी स्पेनिश के साथ ही साथ गैलिसियन, बेस्क और कैटलन भाषाएँ हैं । जर्मनी में फ्रिजियन और वेंडिस है ।अमेरिका में अंग्रेज़ी के साथ ही साथ दूसरे देशों से आए हुए लोगों की भाषाएँ तो हैं ही, नैवाहो, होपी, लाकोटा और दर्जनों देशज भाषाएँ भी हैं । रूस और चीन में सौ से ज़्यादा अल्पसंख्यक भाषाएँ हैं । समान भाषा, साझी परम्परा, समरूप प्रजातीय आधार, जातीयता और ऐतिहासिक चेतना से किसी राष्ट्र का सांस्कृतिक आधार बनता है । स्विट्ज़रलैंड कई भाषाओं और इंडोनेशिया कई धर्मों का राष्ट्र है ।भारत में कई धर्म और कई भाषाएँ हैं । अमेरिकी राष्ट्र कई तरह की ऐतिहासिक परम्पराओं और जातीय पृष्ठभूमियों से मिलकर बना है ।
3- राष्ट्र- राज्य की अवधारणा और संरचना दो भिन्न प्रत्ययों से मिलकर बनी है । राज्य एक निश्चित सीमा वाले भू-क्षेत्र के निवासियों पर शासन करता है, उनका अनुपालन करवाता है और टैक्स लगाता है । राष्ट्र साझा इतिहास, जातीयता और संस्कृति के तत्वों को मिलाकर कल्पित किए जाने वाला राजनीतिक समुदाय है । फ़्रांसीसियों, डचों, मिस्रियों, जापानियों, चीनियों, भारतीयों आदि को उनका राज्य मिल गया है ।लेकिन यही बात फ़िलिस्तीनियों, श्रीलंकाई तमिलों, तिब्बतियों, चेचेन्यावासियों और कुर्दों के लिए नहीं कही जा सकती । राष्ट्रों को बहुत लम्बी अवधि तक बिना किसी भू-क्षेत्र के रहना पड़ सकता है । इसका उदाहरण यहूदियों का राष्ट्रत्व है जो सन् 1948 तक अपनी धरती और अपने राज्य के बिना रहे हैं ।
4- एक राष्ट्र- राज्य के भीतर अपने राज्य की कामना करने वाले राष्ट्र हो सकते हैं । जैसे, म्यांमार के भीतर करेन और संयुक्त राज्य के भीतर सियोक्स । राज्य की कामना करने वाला राष्ट्र कई राज्यों की सीमाओं में फैला हो सकता है, जैसे कुर्द जिनकी आबादी कम से कम चार राज्यों में रहती है ।अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का बहुमत मानता है कि फ़िलिस्तीनियों को उनका राज्य मिलना चाहिए, फिर भी उन्हें दूसरे राज्यों के न्याय क्षेत्रों के तहत रहना पड़ता है । लेकिन इसी तरह के दूसरे राष्ट्रों के दावे को इस तरह की मान्यता नहीं है, जैसे कोसोवो । कभी-कभी पैसे के लिए अपने राज्य की सीमा का एक हिस्सा दूसरे राज्य को बेच दिया जाता है, जैसे, अलास्का का रूस से अमेरिका को हस्तांतरण ।
5- फ़्रांस में बेस्क राष्ट्रवादी अपना आन्दोलन केवल अपनी भाषा केवल और संस्कृति की हिफ़ाज़त तक सीमित रखते हैं, पर स्पेन के बेस्क राष्ट्रवादी पृथक राष्ट्र के लिए संघर्ष तक जाने के लिए भी तैयार हैं । भारत में सिक्ख राष्ट्रीयता का बड़ा हिस्सा एक तरफ़ एक तरफ़ आनन्दपुर साहब प्रस्ताव में दर्ज माँगों के आधार पर क्षेत्रीय अधिकारों और स्वायत्तता की राजनीति तथा लोकतान्त्रिक ढंग से करता है । जबकि दूसरी तरफ़ उसका छोटा सा उग्रवादी हिस्सा खालिस्तान के नाम से पृथक राष्ट्र की माँग के लिए आतंकवादी हिंसा का रास्ता अपनाता है । भूमण्डलीकरण के कारण ग्लोबल सिटी जैसी परिघटना का भी उदय हुआ है ।न्यूयार्क, लंदन और टोक्यो पहले दर्जे के ग्लोबल सिटी हैं ।
6- वेल्स राष्ट्रवाद मुख्यतः भाषा और संस्कृति की रक्षा में अपनी दिलचस्पी रखता है । ब्रिटनी के ब्रेटन लोगों का राष्ट्रवाद फ़्रांस से अलग होने के बजाय सिर्फ़ सांस्कृतिक आन्दोलन के रूप में ही अभिव्यक्त होता है । ब्रिटेन चार राष्ट्रीयताओं के सांस्कृतिक मिलन पर स्थापित है । यह हैं इंगलिश, वेल्श, स्कॉट और नार्दन आयरिस । संयुक्त राज्य अमेरिका में अफ्रीकी- अमेरिकी और अफ्रीकी- कैरेबियायी मूल के नागरिकों के बीच काफ़ी विकसित सांस्कृतिक समरसता है ।पर वे अमेरिकी राष्ट्र के दायरे में रहते हुए ही अपनी विशिष्टता व्यक्त करना चाहते हैं । भारतीय राष्ट्रवाद के संविधानसम्मत रूप के कारण ही उसकी बहुसांस्कृतिक, बहुजातीय और बहुभाषिकता ने अनूठी भारतीयता का निर्माण किया है ।
7- राष्ट्रवाद लोगों के किसी समूह की उस आस्था का नाम है जिसके तहत वे खुद को साझा इतिहास, परम्परा, भाषा, जातीयता और संस्कृति के आधार पर एकजुट मानते हैं ।राष्ट्रवाद का उदय अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के यूरोप में हुआ । राष्ट्रवाद की भावना के साथ रहने वाले लोगों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी विभिन्न अस्मिताओं के ऊपर राष्ट्र के प्रति निष्ठा को ही अहमियत देंगे । वे राष्ट्र के क़ानून का पालन करेंगे और उसकी आन्तरिक और बाह्य सुरक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान भी दे देंगे । राष्ट्रवाद अनिवार्य तौर पर किसी न किसी कार्यक्रम और परियोजना का वाहक होता है, जबकि देश भक्ति की भावना ऐसी किसी शर्त की मोहताज नहीं है ।
8- स्तालिन ने अपनी रचना मार्क्सिज्म ऐंड नैशनल क्वेश्चन में राष्ट्रवाद की थियरी देने की कोशिश की । स्तालिन ने राष्ट्र के पाँच मुख्य तत्व बताए : एक स्थिर और नैरंतर्य से युक्त समुदाय, एक अलग भू -क्षेत्र, समान भाषा, आर्थिक सुसंगति और सामूहिक चरित्र । चूँकि स्तालिन राष्ट्रों के उभार को औद्योगीकरण की ज़रूरतों से जोड़कर देख रहे थे इसलिए उनका सिद्धांत राष्ट्रवाद की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और उससे उभरने वाले बहुत से प्रश्नों की उपेक्षा कर देता था । कुल मिलाकर मार्क्सवादी मानते रहे थे कि राष्ट्रवाद पूंजीवाद के विकास में उसका सहयोगी बन कर उभरा है ।इस लिहाज़ से उसे एक बुर्जुआ विचारधारा की श्रेणी में रखा जाना चाहिए ।
9- सत्तर के दशक में होरेस बी. डेविस ने मार्क्सवादी तर्कों का सार- संकलन करते हुए राष्ट्रवाद के एक रूप को ज्ञानोदय से जोड़कर बुद्धिसंगत करार दिया और दूसरे रूप को संस्कृति और परम्परा से जोड़कर भावनात्मक बताया । लेकिन डेविस ने भी राष्ट्रवाद को एक औज़ार से ज़्यादा अहमियत नहीं दी और कहा कि हथौड़े से हत्या भी की जा सकती है और निर्माण भी । राष्ट्रवादी विचार जैसे-जैसे यूरोपीय ज़मीन से आगे बढ़कर एशिया, अफ़्रीका और लातीनी अमेरिका में पहुँचा, उसकी यूरोप से भिन्न क़िस्में विकसित होने लगीं । इन क्षेत्रों में उपनिवेशवाद विरोधी मुक्ति संघर्षों को राष्ट्रवादी भावनाओं ने जीत के मुक़ाम तक पहुँचाया ।
10-राष्ट्रवाद और आधुनिक राज्य के इतिहास के बीच एक संरचनागत सम्बन्ध है । सोलहवीं और सत्रहवीं सदी के आस-पास यूरोप में आधुनिक राज्य का उदय हुआ जिसने राष्ट्रवाद के उभार में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । यूरोपीय आधुनिकता की शुरुआत में राजशाही और संसद के बीच टकराव के परिणामस्वरूप 1688 में इंग्लैण्ड में ग्लोरियस रेवोल्यूशन हुई । इस द्वन्द्व में पूँजीपति वर्ग के लिए लैटिन भाषा का शब्द नेशियो महत्वपूर्ण बना । इसका मतलब था जन्म या उद्गम या मूल । इसी से नेशन बना । फ़्रांस में इसकी अभिव्यक्ति हिंसक जन-भागीदारी में हुई ।
11- भारत में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन गैर कांग्रेसी एवं गैर- कम्युनिस्ट दलों का एक गठजोड़ है ।इसी गठजोड़ ने वर्ष 1999 में भाजपा को सत्ता तक पहुँचाया । यह सरकार केवल 13 माह तक चली थी । कारगिल युद्ध के कुछ महीने बाद 1999 में फिर से लोकसभा का मध्यावधि चुनाव हुआ जिसमें राजग को कुल 270 सीटों पर जीत हासिल हुई । इसमें भाजपा को 182 सीटों पर जीत हासिल हुई थी । वर्ष 2004 में राजग ने इंडिया साइनिंग या भारत उदय के नारे के आधार पर चुनाव लड़ा, परन्तु सत्ता तक नहीं पहुँच सके । वर्ष 2014 तथा वर्ष 2019 में पुनः राजग ने चुनावों में स्पष्ट रूप से बहुमत हासिल किया तथा सरकार बनाई ।
12- भारत के राष्ट्रत्व को सांस्कृतिक और धार्मिक सन्दर्भों में परिभाषित करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना वर्ष 1925 में दशहरे के दिन नागपुर में हेडगेवार के द्वारा की गई थी ।इसका मक़सद भारत के स्वर्णिम अतीत से मिलने वाली प्रेरणाओं के आधार पर हिंदू समाज के विभिन्न समूहों को एकताबद्ध करना है ताकि भारत का चौतरफ़ा विकास हो सके । संघ मानता है कि भारत- भूमि पर रहने वाले सभी लोग हिन्दू हैं, भले ही उनकी पूजा- पद्धति कोई भी हो । संघ अखंड भारत की पैरवी करता है । संघ को तीन बार ग़ैरक़ानूनी संगठन भी घोषित किया जा चुका है । संघ प्रकटत: राजसत्ता को औज़ार बनाने के बजाय त्याग- तपस्या और समाज- सेवा को प्रोत्साहित करता है ।
13- संघ के संस्थापक डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार सेन्ट्रल प्रोविंसिज की कांग्रेस कमेटी के एक सक्रिय नेता थे । वह डॉ. बालकृष्ण मुंजे तथा सावरकर से प्रभावित थे । संघ के गठन के बाद हेडगेवार ने शिवाजी के भगवा ध्वज को संघ का झंडा बनाया । स्वयंसेवकों की वर्दी थी- ख़ाकी क़मीज़, ख़ाकी निक्कर (अब पैंट), काली टोपी, लम्बे मोज़े और बूट । 1929 में संघ के नेताओं की बैठक में हेडगेवार ने तय किया कि संगठन का एक सर्वोच्च नेता होना चाहिए जिसे सरसंघचालक कहा जाएगा । साथ ही सरकार्यवाह अर्थात् महामंत्री और सेनापति के दो मुख्य पद और बनाए ।संघ का एक लिखित संविधान है ।
14- दिनांक 21 जून, 1940 को अपने निधन से ठीक पहले डॉ. हेडगेवार ने स्वयंसेवकों में गुरूजी के नाम से लोकप्रिय माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया ।गोलवलकर ने 33 साल तक संघ का नेतृत्व किया । वर्ष 1973 में उनके निधन के बाद मधुकर दत्तात्रेय देवरस, राजेंद्र सिंह, और कुप्पहल्ली सीतारमैया सुदर्शन ने एक के बाद संघ की कमान सम्भाली । इस समय मोहन मधुर भागवत सरसंघचालक हैं ।संगठन की धुरी जीवनदान और ब्रम्हचर्य की शपथ लेने वाले प्रचारकों से मिलकर बनती है ।
15- महापंडित की उपाधि से विख्यात हुए राहुल सांस्कृत्यायन (1893-1963) का जन्म उत्तर- प्रदेश के आज़मगढ़ ज़िले के पंद्रहा ग्राम में गोवर्धन पांडेय और श्रीमती कुलवंती के घर हुआ था ।वर्ष 1930 के आस-पास जब वह बौद्ध हुए तो उनका नाम राहुल पड़ा । वह इतिहास, भाषा, पुरातत्ववेत्ता होने के साथ ही दर्शन, साहित्य और संस्कृति के प्रकांड विद्वान थे । वर्ष 1961 में उनकी पुस्तक दर्शन- दिग्दर्शन प्रकाशित हुई । वह यायावर थे ।वोल्गा से गंगा जैसा अद्भुत उपन्यास उन्होंने लिखा । कुल मिलाकर राहुल सांस्कृत्यायन ने लगभग डेढ़ सौ कालजयी ग्रन्थों की रचना की ।
16- फ़्रांस के ला हाये ऐन तौराइन के एक अमीर परिवार में जन्में रेने देकार्त 1596-1650) सत्रहवीं सदी की वैज्ञानिक क्रान्ति की प्रमुख हस्ती, महान गणितज्ञ और आधुनिक दर्शन के पितामह कहे जाते हैं । उनकी विख्यात रचना वर्ष 1641 में प्रकाशित मेडीटेशंस ऑन फ़र्स्ट फिलॉसफी आज भी दर्शन के क्षेत्र में मानक पुस्तक मानी जाती है । 1637 में प्रकाशित उनकी दूसरी कृति डिस्कोर्स ऑन मैथड में उन्होंने लिखा है कि मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ । देह और मस्तिष्क से जुड़ी सारी बहसों का स्रोत देकार्त के चिंतन में निहित है । वे विश्लेषणात्मक ज्यामितिक के संस्थापक थे जिसने बीजगणित और ज्यामिति के बीच सेतु की भूमिका निभाई । देकार्त के सिद्धांतों ने न्यूटन की भौतिकी के लिए रास्ता साफ़ किया ।
17- रेने देकार्त ने दर्शन के क्षेत्र में भी गणितीय पद्धतियों को अपनाया । संत ऑगस्तीन की भाँति उन्होंने भी बाक़ायदा संदेह से सोचना शुरू किया । दर्शन की यह विधि संशयमूलक पद्धतिवाद कहलाती है ।जिसमें दार्शनिक संदेश से आरम्भ करके विश्वास तक यात्रा करता है । उनकी पुस्तक पैशंस ऑफ द सोल (1649) एक महत्वपूर्ण रचना है । वर्ष 1647 में प्रकाशित अपनी पुस्तक द डिस्क्रिपप्शन ऑफ द ह्यूमन बॉडी में देकार्त दिखाते हैं कि शरीर मशीन की तरह काम करता है ।धार्मिक भावनाओं को प्रश्नांकित करने के कारण चर्च के अधिकारी उन्हें छिपे हुए नास्तिक कहते थे । सन् 1663 में पोप द्वारा उनकी रचनाओं को प्रतिबंधित कर दिया गया था ।
18- रेने देकार्त ने वेक्स आर्गूमेंट नाम से एक तर्क प्रस्तुत किया । मोम से बनी एक वस्तु की मिसाल से उन्होंने इन्द्रियों की सीमा का प्रदर्शन किया । अपने तर्क के ज़रिए देकार्त दिखाते हैं कि इंद्रियाँ मोम के टुकड़े के रंग, आकर, गंध आदि के प्रति निश्चित हैं, लेकिन आग की लौ के पास जाते ही इस टुकड़े के लक्षण पूरी तरह से बदल जाते हैं । फिर भी लगता है कि वह चीज वही है । इंद्रियाँ उसके बदले हुए रूप को समझने में मदद नहीं कर पातीं, जिसके लिए मस्तिष्क की मदद लेनी पड़ती है ।देकार्त के चिंतन की नारीवादियों ने आलोचना किया । नारीवाद चिंतकों ने कहा कि देकार्त ने विचार प्रकिया को ही पौरुषपूर्ण बना दिया । यदि सारे जगत की व्याख्या गणितीय समीकरणों के ज़रिये की जाएगी तो इंसान एक डरावने पराएपन का शिकार हो जाएगा ।
19- पोलैंड के एक मध्यवर्गीय यहूदी परिवार में पैदा हुई रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग (1870-1919) असाधारण प्रतिभाशाली मार्क्सवादी चिंतक और एक्टिविस्ट थीं । उनका पूरा जीवन क्रान्ति के लिए समर्पित रहा और क्रान्ति की वेदी पर ही उन्होंने अपने जीवन की आहुति दी । रोज़ा लक्जेमबर्ग ने पोलैंड, जर्मनी और रूस के समाजवादी आन्दोलन में प्रमुख भूमिका निभाई । वह सोशल डेमोक्रेसी ऑफ पोलैंड की प्रमुख संस्थापकों में से एक थी । वह यह तो मानती थीं कि पूँजीवादी शासन का हिंसक तख्तापलट ज़रूरी है, लेकिन साथ में उनका यह भी आग्रह था कि मज़दूरों के शासन को आज़ादी और लोकतंत्र से भरपूर होना चाहिए ।
20- रोज़ा लक्जेमबर्ग का कहना था कि, केवल सरकार के समर्थकों के लिए और केवल एक पार्टी के सदस्यों के लिए, भले ही वह संख्या में कितने ही अधिक क्यों न हों, स्वतंत्रता अपने सार में स्वतंत्रता होती ही नहीं… भिन्न विचार रखने वाले को दी जाने वाली स्वतंत्रता ही हमेशा सच्ची स्वतंत्रता होती है ।सन् 1899 में उनकी पुस्तक रिफॉर्म ऑर रेवोल्यूशन तथा 1903 में स्टेगनेशन ऐंड प्रोगेस ऑफ मार्क्सिज्म का प्रकाशन हुआ । उनका कहना था कि समाज सुधार और सामाजिक क्रान्ति का आपस में कोई मुक़ाबला नहीं किया जा सकता है । वर्ष 1913 में प्रकाशित उनकी पुस्तक द एक्युमुलेशन ऑफ कैपिटल को रोज़ा की सर्वश्रेष्ठ रचना माना जाता है ।
20A- रोज़ा लक्जेमबर्ग ने अपनी पुस्तक सोशल रिफॉर्म ऑर रिज़ोल्यूशन के अंतर्गत इस दृष्टिकोण का खंडन किया कि समाजवाद को पूंजीवाद के भीतर सामाजिक सुधारों की लम्बी श्रृंखला के सहारे धीरे-धीरे स्थापित किया जा सकता है । उन्होंने तर्क दिया कि कामगार आन्दोलन को मज़दूर संघ और संसदीय गतिविधियों के माध्यम से सुधारों के लिए अवश्य संघर्ष करना चाहिए, परन्तु सारा प्रयत्न पूंजीवादी उत्पादन सम्बन्धों का अंत करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा । सर्वहारा का अंतिम लक्ष्य क्रांति है जिसके लिए राजनीतिक शक्ति पर विजय प्राप्त करना सर्वथा आवश्यक है । पूंजीवादी व्यवस्था के संकट और अंतर्विरोधों को केवल सुधारों के माध्यम से नहीं सुलझाया जा सकता है ।
21- उत्तर-प्रदेश की राजधानी लखनऊ में दिनांक 30 नवम्बर, 1031 को एक सम्पन्न पंजाबी परिवार में जन्मीं रोमिला थापर भारतीय इतिहास लेखन की नवीन मार्क्सवादी धारा से जुड़ी हुई हैं । पंजाब विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद थापर ने युनिवर्सिटी ऑफ लंदन के स्कूल ऑफ ओरियंटल ऐंड अफ्रीकन स्टडीज़ से ए.एल.बाशम के शोध निर्देशन में 1958 में पी एच डी की उपाधि अर्जित की । पंजाब में अपने अध्यापन की शुरुआत के बाद 1963 में वे नई दिल्ली के विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग से बतौर रीडर जुड़ीं । 1970 में वे जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में प्राचीन भारतीय इतिहास की विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर बनीं और सेवानिवृत्त के बाद से वहीं 1993 से प्रोफ़ेसर एमेरिटस हैं ।
22- रोमिला थापर ने भारत के प्राचीन इतिहास को एक नई दृष्टि से देखा और प्राच्यवादी निरंकुशता, आर्य प्रजाति और अशोक की अहिंसा सम्बन्धी स्थापित मान्यताओं का खण्डन करते हुए अनुसंधान का दायरा विकसित किया । उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं : अशोक ऐंड द डिक्लाइन ऑफ द मौर्याज (1963), हिस्ट्री ऑफ इंडिया (1966), ऐंसिएंट इंडियन सोशल हिस्ट्री (1978), फ्रॉम लीनिएज टू स्टेट (1983) और इंटरप्रिटिंग अर्ली इंडिया (1992) ।
23- फ़्रांसीसी विद्वान बीसवीं सदी की साहित्य समीक्षा और सांस्कृतिक चिंतन में विशिष्ट स्थान रखने वाले रोलॉ बार्थ (1915-1980) को साहित्य का सिद्धान्तकार, आलोचक, दार्शनिक, भाषाशास्त्री और लोकप्रिय संस्कृति का अध्येता कहा जाएगा । लेखक की मृत्यु जैसे बहु- व्याख्यायित उक्ति का सृजन करने वाले बार्थ का रचना कर्म भाषा, लोकप्रिय संस्कृति से लेकर फ़ोटोग्राफ़ी और संगीत जैसे भिन्न-भिन्न विषयों तक फैला है । अपनी पुस्तक राइटिंग डिग्री ज़ीरो में बार्थ कहते हैं कि रूढ़ियों ने भाषा और शैली दोनों को इतना आक्रान्त कर रखा है कि उनकी सर्जनात्मकता नष्ट हो गई है । उन्होंने अपनी रचना एम्पायर ऑफ साइंस में तोक्यो के शाही महल को सत्ता के सर्वोच्च केन्द्र के बजाय एक मौन, अव्यक्त और विनम्र उपस्थिति बताया ।
24- ब्रिटेन के एक प्रान्त, वेल्स स्थित एक छोटे से क़स्बे न्यूटाउन के मामूली से परिवार में पैदा हुए रॉबर्ट ओवेन (1771-1858) ब्रिटिश समाजवाद के प्रमुख संस्थापक तथा उन्नीसवीं सदी के विचारक और क्रांतिकारी सुधारक थे । उन्होंने श्रमिक वर्ग की संवृद्धि को राष्ट्र की संवृद्धि से जोड़ा और उन्हीं के प्रयासों से कम्युनिस्ट विचारधारा और आन्दोलन का रास्ता साफ़ हुआ । मानवीय पूँजी की अवधारणा उन्हीं के प्रयासों का फल है ।ओवेन की मान्यता थी कि बिना मानवीय पूँजी का विकास किए गरीबी का उन्मूलन नहीं किया जा सकता है । ओवेन का विचार था कि पूँजीवादी प्रणाली मानवता के एक बड़े हिस्से को बदहाली के गर्त में धकेलने के लिए ज़िम्मेदार है ।
25- रॉबर्ट ओवेन ने कहा कि न तो मशीनरी का इस्तेमाल बन्द किया जा सकता है और न ही लाखों लोगों को बिना रोज़गार के भूखों मरने दिया जा सकता है । न ही सरकार बेरोज़गारी बीमा के ज़रिए राहत बाँट सकती है । ओवेन ने प्रस्ताव रखा कि सरकार को 1200- 1200 लोगों के छोटे-छोटे गाँव क़ायम करने में अपने संसाधन खर्च करने चाहिए । यह समुदाय सहयोग आधारित गाँव होंगे और अपना जीवन यापन करने के लिए बाज़ार से न्यूनतम ख़रीददारी करते हुए स्वयं उत्पादन करेंगे । अगर उनके पास कुछ अधिशेष बचता है तो उसका व्यापार करके गाँव वाले उन चीज़ों को ख़रीदेंगे जिनका उत्पादन उनके लिए मुमकिन नहीं है ।
26- रॉबर्ट ओवेन के प्रयासों से पहला फ़ैक्टरी एक्ट 1819 में पारित हुआ जिसमें बाल श्रम को केवल कुछ ख़ास तरह के कारख़ानों में ही थोड़ा सा सीमित किया गया । पहली बार सरकार की तरफ़ से फ़ैक्टरी मालिकों को किसी नियंत्रण में लाने की कोशिश हुई और सरकार ने यह भी समझा कि दुर्बलों की रक्षा करना उनके दायित्वों में से एक है । रॉबर्ट ओवेन ने 1824 में अमेरिका जा कर इंडियाना में न्यू हार्मनी नाम से एक आदर्श सहकारी समुदाय की स्थापना की ।
27- रॉबर्ट ओवेन के समकालीन अर्थशास्त्री माल्थस ने कहा कि अगर आमदनी का वितरण अधिक समतामूलक कर दिया गया और सामाजिक सुधारों के ज़रिए मज़दूर वर्ग की हालत सुधार दी गई तो मज़दूर और ज़्यादा बच्चे पैदा करना शुरू कर देंगे । नतीजन उनकी ग़रीबी वैसी की वैसी ही बनी रहेगी ।इसी तर्क के आधार पर माल्थस ने ग़रीबों को राहत देने के लिए क़ानून बनाने का विरोध किया । वे ग़रीबों को किसी भी तरह का अनुदान देने के विरोधी थे । माल्थस ने यह भी तर्क दिया कि ग़रीबों को दी जाने वाली राहत के कारण ही इंग्लैंड में मक्का के दाम बढ़ गए हैं ।
28- लक्षण -विज्ञान या सीमियोटिक्स मानवीय अन्योन्यक्रियाओं के सामाजिक और सांस्कृतिक लक्षणों का भाषाशास्त्रीय अध्ययन है । बीसवीं सदी की शुरुआत में स्विस भाषाशास्त्री फर्दिनैंद द सस्यूर ने संरचनात्मक भाषाशास्त्र पर दिए गए अपने व्याख्यानों के दौरान इस पद्धति का प्रतिपादन किया था । लक्षण- विज्ञान के विकास के साथ- साथ ही यह समझ विकसित हुई कि भाषा किस तरह अर्थवान बनती है और उसके अर्थ समाज के धरातल पर किस तरह सम्प्रेषित होते हैं । सीमियोटिक्स के अनुसार लक्षण के तीन मुख्य गुण होते हैं : उसका कोई एक दैहिक रूप होना चाहिए, जिससे उसे देखा- सुना और स्पर्श किया जा सके । दूसरे, उसके ज़रिए खुद उसके बजाय किसी और का हवाला मिलना चाहिए और उसकी शिनाख्त किसी न किसी साझा सांस्कृतिक संहिता के एक तत्व की तरह होनी चाहिए ।
29- सस्यूर ने अपनी इस पद्धति को सीमियॉलॉजी का नाम दिया था । समाज- विज्ञान में इसके महत्व की स्थापना 1957 में हुई जब रोलॉं बार्थ की रचना मायथोलॉजी के साथ ही संरचनावाद सामने आया । लक्षण- विज्ञान में अमेरिकी भाषाशास्त्री सी. एस. पर्स का योगदान भी उल्लेखनीय है ।उन्होंने लक्षण (साइन) और चिन्ह (सिम्बल) के बीच अंतर की स्थापना की । पर्स ने लक्षण को स्वाभाविक और चिन्ह को गढ़ा करार दिया । पर्स के बाद इस अनुशासन को उन्हीं के दिए गए नाम सीमियॉटिक्स से जाना गया । सस्यूर ने पहली बार यह पता लगाने की कोशिश की कि भाषा काम कैसे करती है और उसके अर्थों का उत्पादन किस तरह होता है ।
30- रोलॉं बाथ ने सीमियोटिक्स का प्रयोग करके पचास के दशक में प्रचलित रूपों के तात्पर्य का पता लगाया और मास कल्चर की भाषा का पता लगाया । उन्होंने दिखाया कि संस्कृति के क्षेत्र में सूचित होने की प्रक्रिया डिनोटेशन (सतही शाब्दिक अर्थ) और फिर कनोटेशन (गुणार्थ) के क्रम से चलती है जिसके परिणामस्वरूप एक तीसरी चीज़ पैदा होती है जिसे विचारधारा कहते हैं । नारीवाद सिद्धांतशास्त्र में जूलिया क्रिस्टेवा ने प्राक-भाषायी रूपों (जैसे ध्वनियाँ, धुनें, बच्चे के गले से निकलने वाली आवाज़ें, कविता की भाषा आदि) को सीमियॉटिक की संज्ञा दी । क्रिस्टेवा का कहना है कि ये प्राक्- भाषाई रूप अर्थहीन नहीं होते, लेकिन इन्हें भाषा सम्बन्धी लक्षणों और प्रतीकों में सीमित भी नहीं किया जा सकता है ।
31- लिबरेशन थियोलॉजी की सैद्धान्तिक रचना मार्क्सवाद- लेनिनवाद और ईसाइयत की शिक्षाओं के संयोग से हुई है ।इस आन्दोलन की शुरुआत साठ और सत्तर के दशक में लातीनी अमेरिकी देशों से हुई । निकारागुआ में हुई मार्क्सवादी सेंडिनिस्टा क्रान्ति में लिबरेशन थियोलॉजी का उल्लेखनीय योगदान था । इस सैद्धान्तिकी ने दावा किया कि तीसरी दुनिया के देशों की दरिद्रता और उत्पीडन के पीछे उत्तर के विकसित देशों यूरोप, अमेरिका, कनाडा आदि का हाथ है । लिबरेशन थियोलॉजी के पैरोकारों के मुताबिक़ क्राइस्ट की निगाह में ग़रीबों का स्थान सबसे ऊँचा है इसलिए चर्च को गरीब देशों में रैडिकल समाजवादी क्रान्ति का नेतृत्व करना चाहिए ।
32- जीसूट पादरी गुस्तावो गुतिरेज मेरिनो ने वर्ष 1971 में प्रकाशित अपनी रचना अ थियोलॉजी ऑफ लिबरेशन में लिबरेशन थियोलॉजी का सैद्धान्तिक प्रतिपादन किया था । उनका आग्रह था कि धर्मशास्त्र को निजी दायरे से निकालकर सामाजिक विश्लेषण के दायरे में लाया जाना चाहिए ।पाउलो फ्रेरे की विख्यात रचना उत्पीडितों का शिक्षाशास्त्र के सूत्र भी लिबरेशन थियोलॉजी से जुड़े हुए हैं । आज सारी दुनिया में लिबरेशन थियोलॉजी के कई संस्करण प्रचलित हो चुके हैं जैसे ब्लैक लिबरेशन थियोलॉजी, ज्युइस लिबरेशन थियोलॉजी, एशियन लिबरेशन थियोलॉजी और लातीनी अमेरिकी लिबरेशन थियोलॉजी ।
33- वर्ष 1955 में लातीनी अमेरिका के रोमन कैथोलिक चर्च के तहत बिशप्स की एक कांफ्रेंस हुई जिससे कोसेंजो इपिस्कोपल लैटिनो अमेरिकानो (सिलम) का जन्म हुआ । सिलम ने 1968 में कोलंबिया में और 1974 में मैक्सिको में दो सम्मेलन आयोजित किए । लिबरेशन थियोलॉजी ने लातीनी अमेरिका में साठ और सत्तर के दशक में कई राजनीतिक और सामाजिक आन्दोलनों को जन्म दिया। इसकी प्रेरणा से 1980 तक दक्षिण अमेरिका में एक लाख से ज़्यादा छोटे-छोटे क्रांतिकारी समूह उभर चुके थे । इसी प्रक्रिया के परिणामस्वरूप निकारागुआ में अनास्तासियो समोजा की तानाशाही के खिलाफ मार्क्सवादी- लेनिनवादी आन्दोलन को बल मिलने लगा और 1979 में सेंडिनिस्टा क्रान्ति ने उसे उखाड़ फेंका ।
34- निकारागुआ की सेंडिनिस्टा क्रान्ति के नेतृत्व में अर्नेस्टो कार्डिनल जैसे पादरी और लिबरेशन थियोलॉजी के पैरोकार भी शामिल थे । एल सल्वाडोर के आर्कबिशप ऑस्कर रोमेरो ने भी लिबरेशन थियोलॉजी अपना ली जिसका नतीजा अर्धसैनिक बलों के हत्यारे दस्तों द्वारा उन्हें जान से मार दिए जाने में निकला । 1976 में दार- ए- स्सलाम, तंज़ानिया में इक्युमेनिकल एसोसिएशन ऑफ थर्ड वर्ल्ड थियोलॉजियंस का गठन हुआ । अमेरिका के धर्मशास्त्री जेम्स एच कॉन ने काले अमेरिकनों के लिए उसका विकास किया । लिबरेशन थियोलॉजी के कदम अमेरिका में नारीवादी, अश्वेतों और कालों के सामाजिक न्याय के आन्दोलन के ज़रिए ही पड़े ।
35- लियोन ट्रॉटस्की (1879-1940) सोवियत क्रान्ति के शीर्ष नेता, प्रतिभाशाली मार्क्सवादी चिंतक, करिश्माई नेता, प्रचुर लेखक और नाटकीय वक्ता थे । उनका असली नाम लेव डेविडोविच ब्रोंस्टीन था । सोवियत संघ में क्रान्ति के बाद हुए भीषण गृह युद्ध में विजयी रही लाल सेना की कमान ट्रॉटस्की के हाथों में रही थी । एक सिद्धांतकार के रूप में स्थायी क्रान्ति की थियरी के ज़रिये उन्होंने मार्क्सवादी विमर्श में योगदान दिया । अपने निष्कासन के दौरान ट्रॉटस्की ने परमानेन्ट रेवोल्यूशन (1930), रेवोल्यूशन बिट्रेड (1937) और तीन खंडों में द हिस्ट्री ऑफ रशियन रेवोल्यूशन (1931-33) जैसे क्लासिक ग्रन्थ की रचना की ।
36- लुई अलथुसे (1918-1990) फ़्रांसीसी दार्शनिक और मार्क्सवाद के प्रभावशाली व्याख्याकार थे । उन्होंने बीसवीं सदी के छठें दशक में पश्चिम के अकादमिक जगत में संरचनावादी सूत्रों और औज़ारों का इस्तेमाल करके एक अनूठा भाष्य खड़ा किया । अलथुसे की रचनाएँ फ़ॉर मार्क्स तथा रीडिंग कैपिटल मार्क्स के चिंतन और कृतित्व को मौलिक ढंग से प्रश्नांकित करती है ।अलथुसे छठे दशक में प्रचलित मार्क्सवाद के रूमानी संस्करण के लिए एंतोनियो ग्राम्शी तथा फ़्रैंकफ़र्ट स्कूल के चिंतकों को ज़िम्मेदार मानते थे । उनका कहना था कि इन विचारकों ने अपने मानववादी आग्रहों के मोह में मार्क्स को महज़ मनुष्य के बेगानेपन का सिद्धांतकार बना दिया जिससे उसकी वैज्ञानिकता अपदस्थ हो जाती है ।
37- लुई अलथुसे पूँजीवाद को एक ऐसी व्यवस्था मानते हैं जो अपनी बनावट में ही अंतर्विरोधी है ।वह परवर्ती मार्क्सवाद को पूर्ण वैज्ञानिक चिंतन मानते हैं । अलथुसे के अनुसार राजनीति या अर्थशास्त्र जैसे क्षेत्र न केवल अपेक्षाकृत स्वायत्त होते हैं बल्कि उनकी एक अपनी अंदरूनी गतिशीलता भी होती है । इसलिए अगर राजनीति के दायरे में कोई घटना घटती है तो वह आर्थिक गतिविधियों और फ़ैसलों को भी प्रभावित करती है ।अलथुसे ने विचारधारा का सिद्धांत भी प्रतिपादित किया ।जिसके अनुसार विचारधारा ही व्यक्ति या समूहों की चेतना का निर्माण करती है और इस नाते वह व्यक्ति या समूह के दृष्टिकोण और मूल्यों को भी रचती है । इस संदर्भ में वह फ्रॉयड और लकॉं की बातों से सहमत हैं ।
38- दिनांक 3 मई, 1930 को बेल्जियम में जन्मीं ल्यूस इरिगरे फ्रेंच नारीवादी दार्शनिक, भाषाशास्त्री और मनोविश्लेषक के रूप में प्रसिद्ध हैं । ज्ञान के क्षेत्र में इरिगरे अपने इस दावे के लिए विख्यात हैं कि विचारों की पुरूष प्रधान प्रणालियाँ स्त्री और उसकी कामना को समझ पाने, उसे अभिव्यक्त कर पाने और उसका प्रतिनिधित्व कर पाने में पूरी तरह से विफल हैं । इरिगरे ने अपनी दो रचनाओं वर्ष 1974 में प्रकाशित स्पेकुलम ऑफ द अदर वुमन और वर्ष 1977 में प्रकाशित सेक्स विच इन नॉट वन के ज़रिए पुरुषवादी दार्शनिक विचार का विकल्प सूत्रीकरण करने के अनूठे प्रयास किए हैं । वे मानती हैं कि अपने विशिष्ट ऐंद्रिक अनुभव में स्त्री अनन्या है । उनके विचारों ने उत्तर- नारीवादी विमर्श को भी गहराई से प्रभावित किया है ।
39- ल्यूस इरिगरे का आधारभूत तर्क यह है कि स्त्री को अपनी सेक्शुअलिटी के दमन के लिए हमेशा मजबूर किया गया है । इरिगरे का कहना है कि मनोविश्लेषण को पितृसत्ता की जॉंच के विमर्श के तौर पर पेश किया जाता है, पर दरअसल वह पितृसत्ता का ही एक उदाहरण है । स्पेकुलम (वक्राकार दर्पण नुमा वीक्षण- यंत्र) के ज़रिये स्त्री के यौनांगों की जॉंच की जाती है । स्पेकुलम का इस्तेमाल करके पुरुष चिकित्सक स्त्रीत्व के भीतर झांकता है, लेकिन उसे उस वक्राकार दर्पण में महज अपना ही अश्क़ दिखता है । इरिगरे के मुताबिक़ प्लेटो का दर्शन हिस्टिरा (गुफा यानी उद्गम यानी स्त्री का गर्भ) के आकारहीन रूप के ऊपर एक विन्यास थोपने की कोशिश करता है ।
40- ल्यूस इरिगरे के मुताबिक़ फ्रॉयड की मनोवैज्ञानिक प्रणाली फैलस यानी लिंग की प्रधानता के आस-पास बुनी गई है । चूँकि स्त्री के पास लिंग नहीं है, इसलिए लिंग की कमी ही उसकी परिभाषा का आधार बन जाती है । स्त्री की भूमिका केवल ऐसे पात्र की रह जाती है जिसे पुरूष के उत्पाद को अपने भीतर रखना भर है । इरिगरे बड़ी बेबाक़ी से कहती हैं कि फ्रॉयड कहते हैं कि बालिका का सेक्शुअल सफ़र भगनासा से योनि प्रदत्त आनन्द के मुक़ाम तक होता है जिसके कारण वह पुरूष के लिए एक सुराखनुमा म्यान बन जाती है जिसका काम शिश्न की मालिश करना भर है । इस तरह उनका विमर्श स्त्री की सेक्शुअलिटी और यौनान्द को अदृश्य कर देता है ।
41- अपनी दूसरी महत्वपूर्ण रचना दिस सेक्स विच इज नॉट वन (1977) में इरिगरे ने लकॉं की इस धारणा का खंडन किया कि स्त्री की भगनासा दरअसल एक छोटा शिश्न-भर है । उन्होंने दावा किया कि स्त्री अपने यौन सुख के लिए केवल जननांगो पर निर्भर नहीं है । उनके अनुसार स्त्री के यौन सुख देखने में नहीं बल्कि स्पर्श में हैं । स्पर्श वह परिघटना है जो स्त्री के भीतर स्थित है और उसे ऐसी कामना का वाहक बना देता है जो देखने के अर्थशास्त्र द्वारा सीमित नहीं की जा सकती । उसकी योनि दो होंठों से मिलकर बनी है जो लगातार एक- दूसरे के स्पर्श में है । अपने भीतर वह दो है, पर उन दो को एक- एक के रूप में विभाजित करके अलग-अलग नहीं किया जा सकता । पुरूष सेक्शुलिटी के मुक़ाबले यह सेक्स की बहुल- प्रकृति है ।
42- ल्यूसियॉं फ्रेब (1878-1956) फ़्रांसीसी इतिहास लेखन और दर्शन की एक बेहद प्रभावशाली धारा अनाल के संस्थापक और सूत्रधार थे ।फेब्र की बौद्धिक बनावट में उनके भाषाविद् पिता, दार्शनिक हेनरी बर्गसॉं, भूगोलवेत्ता ब्लांचे, कला इतिहासकार, एमिले मेले, साहित्यालोचक हेनरी ब्रीमोन तथा भाषाशास्त्री एंतोइन मेली का अहम योगदान है । अपनी पुस्तक अ जियोग्राफ़िकल इंट्रोडक्शन टु हिस्ट्री में फेब्र तत्कालीन चिंतक फ्रेड्रिख रैट्जेल के इस प्रतिपादन का खंडन करते हैं कि मनुष्य का भाव जगत, बदलती आकांक्षाएँ और उनकी नियति मूलतः भौतिक परिस्थितियों से तय होती है । फेब्र आग्रह करते हैं कि भौतिक परिस्थितियों के प्रति मनुष्य अलग-अलग ढंग से अनुक्रिया करता है ।
43- ल्यूसियॉं फ्रेब मानते हैं कि भौतिक परिस्थितियाँ मनुष्य पर सीधे- सीधे नहीं बल्कि सामाजिक संरचनाओं तथा विचारों के ज़रिये प्रभाव डालती हैं ।उनके मुताबिक़ किसी व्यक्ति के दुनियावी नज़रिए के पीछे उसके समाज की मान्यताएँ सक्रिय रहती हैं । फ़्रांस के स्त्रॉसबर्ग विश्वविद्यालय में फेब्र ने रहकर अपने साथी ब्लॉक के साथ मिलकर 1929 में आधुनिक इतिहास लेखन की सबसे विचारोत्तेजक धारा और उसके मुखपत्र अनाल की स्थापना की । अनाल के ज़रिये फेब्र मानविकी के अनुशासनों को एक मंच पर लाने के अलावा इतिहास को प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक काल में बाँटने के चलन को प्रश्नांकित करना चाहते थे । उनकी दृष्टि में समाज को आदिम या सभ्य की श्रेणियों में बाँटना एक अतार्किक समझ थी ।
44- ल्यूसियॉं फ़ेब्र का एक अन्यतम योगदान रिनेसॉं और पुनर्जागरण की नई व्याख्या है ।उनके मुताबिक़ धर्म के इतिहास को चर्च की किन्हीं ख़ास संस्थाओं तक सीमित न होकर जनता के धार्मिक विचारों, भावनाओं और प्रवृत्तियों का भी जायज़ा लेना चाहिए । फ़ेब्र का कहना था कि पुनर्जागरण की परिघटना इसलिए सम्भव हुई क्योंकि नए उभर रहे बूर्ज्वाजी को एक ऐसे स्पष्ट, मानवीय और बन्धुत्व की भावना से भरे चर्च की तलाश थी जो बाइबिल के अध्ययन पर लगी वर्गीय बंदिशों का प्रतिकार करके आस्तिक और ईश्वर के बीच सीधे संवाद को प्रश्रय दे सके । उनकी पुस्तक द प्रॉब्लम ऑफ अनबिलीफ इन द सिक्सटींथ सेंचुरी धार्मिकता के अध्ययन पर आधारित है ।
45- लेनिनवाद एक उत्तर- लेनिन वैचारिक परिघटना है ।लेनिन का देहान्त 1924 में हुआ ।अपने जीवन में उन्होंने ख़ुद न तो लेनिनवाद शब्द का प्रयोग किया और न ही उसके प्रयोग को प्रोत्साहित किया ।आज लेनिनवाद का जो रूप हमारे सामने है, उस पर मुख्य रूप से स्तालिन की व्याख्याओं की छाप है । स्तालिन ने 1934 में दो पुस्तकें लिखीं : फ़ाउंडेशन ऑफ लेनिनिज्म और प्रॉब्लम्स ऑफ लेनिनिज्म जो लेनिनवाद की आधिकारिक समझ का प्रतिनिधित्व करती हैं । स्तालिन के अनुसार, लेनिनवाद साम्राज्यवाद और सर्वहारावाद क्रान्ति के युग का मार्क्सवाद होने के साथ-साथ सर्वहारा की तानाशाही की सैद्धांतिकी और कार्यनीति है ।
46- लेनिनवाद क्रांतिकारी राजनीतिक कार्रवाई को सर्वोच्च प्राथमिकता देता है और इस कार्रवाई की बागडोर उसने पेशेवर क्रांतिकारियों द्वारा संचालित और लोकतांत्रिक केन्द्रवाद पर आधारित अनुशासित कम्युनिस्ट पार्टी को थमाई है । लेनिनवाद की मान्यता है कि मज़दूर वर्ग केवल अपने आर्थिक संघर्षों और अन्य राजनीतिक गतिविधियों के चलते स्वत: स्फूर्त ढंग से क्रांतिकारी नहीं बन सकता । उसके लिए क्रांतिकारी चेतना की वाहक यह पार्टी ही बनेगी । मज़दूर वर्ग की पार्टी को एक क्रांतिकारी मार्क्सवादी कार्यक्रम पर आधारित होना चाहिए । पार्टी की सदस्यता क्रांतिकारी कार्यक्रम से पूर्णतः सहमत कार्यकर्ताओं को ही दी जाएगी । ऊपर से नीचे चुनाव के ज़रिये पदाधिकारी तय होंगे । विभिन्न स्तरों पर कमेटियाँ गठित होंगी ।
47- लेव निकोलाइविच तॉल्सतॉय (1828-1910) उन्नीसवीं सदी के प्रमुख चिंतक और महान साहित्यकार थे । एक इतिहासकार, शिक्षाविद, नैतिकतावादी, कला- सिद्धांतकार, समाज सुधारक और एक नए धर्म के संस्थापक के रूप में लेव तॉलस्तॉय के चिंतन ने बीसवीं सदी की राजनीति पर भी गहरा प्रभाव डाला । तॉलस्तॉय द्वारा प्रवर्तित बुराई के अप्रतिरोध के संदेश को भारत में महात्मा गाँधी ने व्यावहारिक राजनीति में उतारा । युद्ध और शांति (1869) एवं अन्ना कैरिनीना (1875-77) जैसे क्लॉसिक उपन्यासों के लेखक तॉलस्तॉय ने राज्य की संस्था का भी विरोध किया । उनका जन्म मास्को के दक्षिण भाग में स्थित तुला प्राविंस के यास्याना पोल्याना नामक स्थान पर एक ज़मींदार परिवार में हुआ था ।
48-तॉलस्तॉय एक प्रचुर लेखक थे । उनका वांगमय 90 से ज़्यादा खंडों में संकलित है । आख़िरी दौर में प्रकाशित अपनी रचना व्हाट इज टु बी डन ? में उन्होंने स्पष्ट संदेश दिया कि, “तुम्हें क्या करना है यह इससे तय नहीं होता कि जार, गवर्नर, पुलिस अफ़सर, ड्यूमा या कोई राजनीतिक दल तुमसे क्या करवाना चाहता है । तुम्हें तो वह करना चाहिए जो एक व्यक्ति के रूप में करना तुम्हारे लिए सबसे ज़्यादा स्वाभाविक है और जो तुमसे वह ताक़त करवाना चाहती है जिसने तुम्हें इस दुनिया में भेजा है ।” भाईचारा तॉलस्तॉय का केन्द्रीय आदर्श था । वह रूसी यूटोपियाई दार्शनिक एन. फ्योदोरोव और रूसो से प्रभावित थे । तॉलस्तॉय को ईसाई अराजकतावाद का सिद्धान्तकार भी माना जाता है ।
49- तॉलस्तॉय ने वर्ष 1893 में प्रकाशित अपनी पुस्तक द किंगडम ऑफ गॉड इज विदिन यू में घोषणा किया कि बुराई के मुक़ाबले अप्रतिरोध के सिद्धांत को सरकारों पर लागू करना चाहिए । सरकारें अनैतिक होने के साथ-साथ अमीरों और शक्तिशालियों के लिए बनी व टिकी हुई हैं । टैक्स वसूल कर सरकारें जेलों का निर्माण करती हैं और युद्ध में हिंसा का सहारा लेकर जनता को उसमें शामिल करना भी उनका काम है । तॉलस्तॉय ने आधुनिक प्रगति को भी प्रश्नांकित किया । अपने एक निबंध में वह साफ़- साफ़ कहते हैं कि राष्ट्रभक्ति एक झूठा प्रचार है जो ईसा की सीख के खिलाफ जाता है । एड्रेस टू स्वीडिश पीस कांग्रेस (1909) में उन्होंने युद्ध नीति का सशक्त विरोध किया ।
50- तॉलस्तॉय थोरो के साहित्य से भी परिचित थे । गांधी के साथ उन्होंने पत्र व्यवहार किया था ।तॉलस्तॉय के द्वारा गांधी जी को लिखा पत्र अ लेटर टू अ हिन्दू बहुत प्रसिद्ध हुआ ।1889 में तॉलस्तॉय का उपन्यास रिजरेक्शन आया । वर्ष 1910 में एक रेलवे स्टेशन ऐस्तापोवो पर हृदय गति रुक जाने से उनका देहान्त हो गया । तॉलस्तॉय की वर्ष 1893 में रिलीजन ऐंड मॉरलिटी, 1898 में द क्रिश्चियन टीचिंग्स, 1901 में साइनोनाड्स इडिक्ट ऑफ एक्सकम्युनिकेशन पुस्तक प्रकाशित हुई । तॉलस्तॉय मानते थे कि मनुष्य केवल शरीर मात्र नहीं है । अगर ऐसा होता तो उसे नैतिक विचारों की ज़रूरत नहीं होती । वह कहते हैं कि मनुष्य मूलतः आत्मा है । विवेक इसी आत्मा की आवाज़ है ।
नोट : उपरोक्त सभी तथ्य, अभय कुमार दुबे, द्वारा सम्पादित पुस्तक, समाज विज्ञान विश्वकोश, खंड 5, द्वितीय संस्करण : 2016, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, ISBN : 978-81-267-2849-7 से साभार लिए गए हैं ।
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सराहनीय
धन्यवाद आपको