राजनीति विज्ञान / समाज विज्ञान, महत्वपूर्ण तथ्य (भाग- 33)

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– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर-प्रदेश) भारत । email : drrajbahadurmourya @ gmail.com, website : themahamaya.com

(लोकविद्या, लोकायत दर्शन, लोकतंत्र, व्यक्तिवाद, वर्धा शिक्षा योजना, व्यवहारवाद, व्लादिमीर लेनिन, व्याख्या- शास्त्र, दार्शनिक व्याख्या शास्त्र, इरफ़ान हबीब, हेजेमनी, वृत्त- चित्र, वल्लत्तोल नारायण मेनन, सरदार वल्लभ भाई पटेल, वाचिकता, आचार्य वात्स्यायन, वासुदेव शरण अग्रवाल, बोल्शेविक क्रांति, वि- उपनिवेशीकरण, विक्रम साराभाई, विचलन, विजय लक्ष्मी पंडित)

1- लोकविद्या वह ज्ञान है जो समाज में व्याप्त है । आदिवासियों, किसानों, कारीगरों, छोटे दुकानदारों और तरह- तरह के काम करने वाले करोड़ों लोगों का ज्ञान लोकविद्या है । लोकविद्या के चिंतकों ने माना है कि लोकविद्या का दर्शन संत परम्परा का दर्शन है और अपने समय की आततायी ताक़तों से असहयोग का दर्शन है । यह मनुष्य को सत्य और अहिंसा में मौलिक आस्था रखने वाले जीव के रूप में देखता है । लोकविद्या की अवधारणा पर आधारित पहला सार्वजनिक कार्यक्रम 1998 में वाराणसी में आयोजित लोकविद्या महाधिवेशन को माना जा सकता है । इस अधिवेशन में लगभग डेढ़ हज़ार लोगों ने हिस्सा लिया तथा समाज से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर वार्ता हुई । इसके पूर्व 1993 तथा 1995 में चेन्नई में पारम्परिक ज्ञान और प्रौद्योगिकी पर दो बड़े सम्मेलन हो चुके थे ।

2- वर्ष 2003 से समाज में ज्ञान पर संवाद का एक सिलसिला शुरू किया गया जो कि विश्व सामाजिक मंच के हैदराबाद, मुम्बई, दिल्ली तथा कराची सम्मेलनों में आयोजित हुआ । वर्ष 2005 में सारनाथ, वाराणसी में विद्या आश्रम की स्थापना हुई । इसमें सक्रिय कार्यकर्ता समूह किसान आन्दोलनों की देन हैं । वर्ष 2002-09 में यूरोप में स्थित कार्यकर्ता – चिंतकों के एक नेटवर्क एडू- फ़ैक्टरी द्वारा आज के विश्वविद्यालय में आ रहे बदलावों पर चलायी गई बहसों में विद्या आश्रम ने भाग लिया और उनसे सम्पर्क बनाया । इस क्रम में लोकविद्या जन आन्दोलन का विचार सामने आया और नवम्बर, 2011 में लोकविद्या जन -आन्दोलन का प्रथम अधिवेशन सारनाथ में हुआ जिसमें देश के विभिन्न भागों से आए क़रीब चार कार्यकर्ताओं ने भाग लिया ।

3- लोकायत दर्शन वह दर्शन है जिसे जड़वादी या चार्वाक दर्शन के नाम से भी जाना जाता है । लोकायत का अर्थ है- लोक में आयत अर्थात् व्याप्त सिद्धांत । लोकप्रियता एवं जनसामान्य में व्याप्ति की वजह से ही इस दर्शन को लोकायत कहा गया । इसकी प्रस्थापना आचार्य ब्रहस्पति के शिष्य चार्वाक ने की है । लोकायत मत बहुत सी प्रचलित परम्पराओं और मान्यताओं को अस्वीकार करता है क्योंकि वे न तो इंद्रियबोध्य हैं और न ही प्रमाण- सिद्ध । भारतीय चिंतन परम्परा में यह एकमात्र दर्शन है जो किसी चीज़ के अस्तित्व के लिए उसके प्रति प्रमाण -सिद्धता का आग्रही है । वह हर चीज़ को तर्क की कसौटी पर कस कर मानता है । इस तरह से यह दर्शन वेद, ईश्वर, अंधविश्वास आदि को नकारता हुआ वैज्ञानिक- दृष्टिकोण लेकर प्रस्तुत होता है।

4- चार्वाक सिद्धांतों का उल्लेख ब्रम्हसूत्र शंकर भाष्य, कमलशील कृत तत्व संग्रह, न्याय मंजरी, सर्वसिद्धांत संग्रह, सर्व दर्शन संग्रह, नैषधीय चरित्र आदि ग्रन्थों में पाया जाता है । बार्हस्पत्य सूत्र के आधार पर पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु तत्व लोकायत के सैद्धान्तिक आधार हैं ।इनके मिलन से शरीर, इंद्रिय और विषय बनते हैं । जड़ तत्वों से चैतन्य उत्पन्न होता है, काम ही एकमात्र पुरुषार्थ है, मरण ही मोक्ष है । बृहस्पति का कहना है कि चारों मूलभूत तत्वों से चैतन्य की उत्पत्ति होती है । चेतनायुक्त स्थूल शरीर ही पुरुष या आत्मा है । शरीर के साथ ही इस आत्मा का भी नाश हो जाता है । दुखों से मुक्ति ही मोक्ष है । दुःखों का ज्ञान हमें शरीर के ज़रिये ही होता है ।मरने के बाद उसका ज्ञान नहीं रह जाता है इसलिए मरण ही मोक्ष है और यही मुक्ति है ।

5- लोकतंत्र यानी डेमॉक्रैसी यूनानी भाषा के दो शब्दों डेमोस और क्रेटिया से मिलकर बना है ।इसका सीधा मतलब निकलता है- जनता का तंत्र । लोकतंत्र न केवल एक निर्णय लेने की विधि है, बल्कि वह कुछ विशेष मूल्यों और आचरणों की संहिता भी है जिसके ज़रिये लोग फ़ैसलों पर पहुँचते हैं । लोकतंत्र इस मानक पर चलता है कि मत, हित और नैतिकता के लिहाज़ से प्रत्येक व्यक्ति का मूल्य समान होता है । इसी आग्रह से एक व्यक्ति, एक वोट के सिद्धांत का जन्म हुआ है । लोकतंत्र उदारवादी होता है, सामाजिक होता है, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हो सकता है । लोकतंत्र रैडिकल हो सकता है, विचारधारात्मक हो सकता है, क्रियाविधि या तात्त्विक हो सकता है । बहुलवादी या अभिजनोन्मुख हो सकता है ।

6- ईसा पूर्व पाँचवीं और चौथी सदी में प्राचीन एथेंस के नगर राज्य में प्रत्यक्ष लोकतंत्र का स्वरूप प्रचलित था । जिसमें प्रत्येक निर्णय में प्रत्येक नागरिक भागीदारी करता था । एक सार्वजनिक स्थान पर सभी जमा होते थे और आपस में बहस करके शासन सम्बन्धी फ़ैसले लिए जाते थे । पर्चियाँ डालकर खुली सभाओं में कार्याधिकारी का चुनाव होता था और सभी अधिकार अल्पावधि के लिए ही अधिकार सम्पन्न किए जाते थे ताकि एक- एक कर सभी को शासन में सीधी भागीदारी मिल सके ।वहाँ उच्च स्तर की राजनीतिक जबाबदेही, राजनीतिक सक्रियता और राजनीतिक जागरूकता होती थी । नागरिकों के लिए सहभागिता एक पवित्र कार्य था । यद्यपि वहाँ पर स्त्रियों, दासों और बाहर से आने वाले लोगों को नागरिक अधिकार प्राप्त नहीं थे ।

7- अप्रत्यक्ष लोकतंत्र या प्रतिनिधि लोकतंत्र में जनता अपने प्रतिनिधि चुनकर भेजती है जो जनता और सरकार के बीच सूत्र बनते हैं । उनके ज़रिये जनता सत्ता के बेजा इस्तेमाल को रोकती है । अपने चुनाव क्षेत्र की जनता के हितों का ध्यान रखना प्रतिनिधियों का पहला कर्तव्य होना चाहिए । जनप्रतिनिधि को अपने विवेक का इस्तेमाल कर सक्रिय रहना चाहिए और उसे अपने राजनीतिक दल के द्वारा निर्धारित नीतियों और कार्यक्रमों को अमल करने का दायित्व निभाना चाहिए ।

8- सी. राइट मिल्स द्वारा किए गए अमेरिकी लोकतंत्र के अध्ययन में पॉवर इलीट की अवधारणा उभरती है । यह सत्तारूढ़ अभिजन घनिष्ठ रूप से एकजुट होने के साथ-साथ समान पृष्ठभूमि और मूल्यों से सम्पन्न दिखाए गए हैं । जोसेफ शुमपीटर ने अपनी रचना कैपिटलिज्म, सोशलिज्म ऐंड डेमॉक्रैसी में प्रतियोगिता मूलक अभिजन वाद का मॉडल पेश करते हुए दावा किया कि यह मॉडल आधुनिक औद्योगिक समाजों के लिए सबसे ज़्यादा कारगर है । वे मानते थे कि निष्क्रिय नागरिकता अच्छे शासन के लिए अच्छी बात है ।

9- व्यक्तिवाद मुख्यतः एक पश्चिमी विचार है और उदारतावाद जैसे महा- सिद्धांत के लिए इसका महत्व है ।उदारतावादी चिंतक व्यक्ति के अविभाज्य अधिकारों के समर्थक हैं । सामाजिक समझौते का सिद्धांत राजनीतिक व्यक्तिवाद की पद्धति का इस्तेमाल करके ही रचा गया है । राज्य के अधिकार सीमित रखने के आग्रह, मुक्त बाज़ार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और व्यक्तिगत सम्पत्ति जैसी अवधारणाएँ व्यक्तिवाद के बिना पनप नहीं सकती थीं । सभी व्यक्तिवादी चिंतक इस बात पर एकमत हैं कि व्यक्ति की गरिमा, उसकी निजता और उसके अंतर्भूत मूल्य को हर परिस्थिति में सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए ।

10- एल. टी. हॉबहाउस और टी.एच. ग्रीन ने व्यक्तिवाद के सिद्धांत का प्रयोग आर्थिक जीवन में राज्य के हस्तक्षेप को जायज़ ठहराने के लिए किया है । जॉन स्टुअर्ट मिल ने अपनी रचना ऑन लिबर्टी में वैयक्तिकता के सिद्धांत का सूत्रीकरण किया । उन्होंने मुक्त व्यापार की वकालत ऐडम स्मिथ की तरह भौतिक ख़ुशहाली की ख़ातिर न करके व्यक्तिगत स्तर पर आत्म- विकास की ख़ातिर की है । उन्होंने तर्क दिया कि किसी व्यक्ति के मत का समाज या राज्य के सामूहिक निर्णय के आधार पर दमन नहीं किया जा सकता है । मिल ने स्वाधीनता के तीन आयाम बताए हैं : विचार और बहस की स्वतंत्रता, वैयक्तिकता का सिद्धांत और व्यक्ति की क्रियाओं पर राज्य और समाज के नियंत्रण की सीमा ।

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11- फ़्रांसीसी समाजवादी ज्यॉं जौरेज ने उन्नीसवीं सदी में समाजवाद को व्यक्तिवाद की तार्किक परिणति करार दिया था ।सेमुअल स्माइल्स ने 1859 में सेल्फ- हेल्प नामक किताब लिखी थी, जिसे व्यक्तिवाद की बाइबिल समझा जाता है । स्माइल्स ने उद्यम, एकाग्रता और टिकाऊपन की विक्टोरियन खूबियों की सराहना करते हुए बिना किसी बाहरी मदद से की गई सेल्फ- हेल्प को व्यक्ति के सच्चे विकास का आधार करार दिया ।इन विचारों को हरबर्ट स्पेंसर द्वारा प्रतिपादित सामाजिक डार्विनवाद को सर्वोच्च अभिव्यक्ति मिली । इस तरीक़े से स्पेंसर ने व्यक्तिवाद को जैविक आधार प्रदान करने की कोशिश की । इन विचारों को अस्सी के दशक में रेगनोमिक्स और थैचराइजेशन के तहत नव दक्षिण पंथी स्वर मिला । नव दक्षिण पंथियों ने लोकोपकारी राज्य को निर्भरता की संस्कृति कह कर आड़े हाथों लिया । उनकी भाषा में गरीब और बेरोज़गार वेलफेयर जंकी करार दिए गए ।

12- वर्धा शिक्षा योजना महात्मा गांधी की देन है । इस योजना के पीछे आधारभूत विचार इस प्रकार था, “राष्ट्र के रूप में हम शिक्षा में इतने पिछड़े हुए हैं कि यदि हमने शिक्षा का यह कार्यक्रम धन पर आधारित किया, तो हम राष्ट्र के प्रति शिक्षा के उत्तरदायित्वों का इस पीढ़ी से थोड़े समय में निर्वाह करने की आशा नहीं कर सकते । अंत: मैंने रचनात्मक योग्यता की ख्याति को संकट में डालकर यह प्रस्ताव करने का साहस किया है कि शिक्षा आत्मनिर्भर होनी चाहिए । शिक्षा से मेरा तात्पर्य है बच्चे एवं पुरुष की सम्पूर्ण मानसिक तथा आत्मिक शक्तियों का सर्वतोमुखी विकास । साक्षरता न तो शिक्षा का अंत है और न आदि ।”

13- स्वीडन ने 1842 में प्रारम्भिक शिक्षा अनिवार्यत: लागू की । 1852 में संयुक्त राज्य अमेरिका ने, 1860 में नार्वे ने, 1870 में इंग्लैंड ने और 1905 में हंगरी ने भी प्रारम्भिक शिक्षा को अनिवार्य कर दिया था । भारत में गाँधी जी ने 1937 में वर्धा शिक्षा सम्मेलन में प्रारम्भिक शिक्षा को बुनियादी तालीम नाम दिया । इसे आगे बढ़ाने के लिए वर्धा में 22 एवं 23 अक्तूबर, 1937 को मारवाड़ी हाई स्कूल की रजत जयंती के अवसर पर अखिल भारतीय स्तर का शिक्षा सम्मेलन आयोजित किया । जिसमें बुद्धिजीवियों, शिक्षाविदों, राजनीतिकों शिक्षकों सहित समाज के अन्य वर्गों के प्रतिनिधियों ने भी शिरकत की । इसका सभापतित्व स्वयं गांधी ने किया था ।

14- वर्धा शिक्षा योजना में प्राथमिक शिक्षा सात वर्ष आयु वर्ग के सभी बच्चों को अनिवार्यत: देने की बात कही गई । शिक्षा हस्तशिल्प पर आधारित होगी । उपरोक्त प्रस्ताव को कार्य रूप में परिणत करने के लिए जामिया मिलिया विश्वविद्यालय के तत्कालीन उपकुलपति डॉ. ज़ाकिर हुसैन की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया । समिति ने अपना पहला प्रतिवेदन 1937 में ही गांधी के समक्ष प्रस्तुत किया था । इसे हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में स्वीकार कर लिया गया । 1938 में हुसैन समिति ने दूसरा प्रतिवेदन गांधी के समक्ष पेश किया । वर्ष 1938 में हरिपुरा कांग्रेस सम्मेलन में पार्टी ने आल इंडिया एजुकेशन बोर्ड की स्थापना का प्रस्ताव पारित किया । हिन्दुस्तानी तालीमी संघ नामक संस्था बनाई गई जिसके अध्यक्ष ज़ाकिर हुसैन नियुक्त किए गए ।

15- राजनीति विज्ञान में व्यवहारवाद एक ऐसा प्रभावशाली राजनीतिक सिद्धांत है जिसने राजनीतिक अध्ययन करने में मूल्यों को तरजीह देने का विरोध किया । यह राजनीति को प्राकृतिक विज्ञानों की तर्ज़ पर समझना चाहता है ।व्यवहारवादी विद्वानों ने राजनीति को एक प्रणाली के रूप में देखा और गुणात्मक के बजाय मात्रात्मक विश्लेषण पर ज़ोर देकर उसे एक विशुद्ध विज्ञान बनाने की कोशिश की । हिन्दी का पद व्यवहारवाद समाज- विज्ञान के दो पदों, बिहेवियरिज्म और विहेवियरलिज्म, के लिए प्रयोग किया जाता है । इस अवधारणा को विकसित करने में अमेरिकी विद्वान डेविड ईस्टन का बड़ा योगदान रहा है ।

16- व्यवहारवाद के अंतर्गत आग्रह किया गया कि, राजनीति का विज्ञान सम्मत अध्ययन तभी सम्भव है जब किसी भी तरह के नीतिगत, निजी या आस्थागत रुझान से साफ बचते हुए सिर्फ़ तथ्यों और ऑंकडों के दम पर राजनीति और समाज को समझने के मॉडल बनाए जाएँ ।औपचारिक संस्थाओं की जगह मतदाताओं, हित समूहों, राजनीति दलों और अन्य राजनीतिक कर्ताओं के व्यवहार पर रोशनी डाली जाए । इसमें नार्मेटिव की जगह इम्पीरिकल विश्लेषण पद्धति और अनुसंधान पर ज़ोर दिया गया । ध्यान रहे कि लेवी- स्त्रॉस, एरिक वोजलिन, हन्ना आरेंट, थियोडोर एर्डोनों और हरबर्ट मारक्यूज जैसे समाज वैज्ञानिक इसे वस्तुनिष्ठ बनाने के पक्ष में नहीं थे ।

17- मनोविज्ञान में व्यवहारवाद की शुरुआत बीसवीं सदी के पहले दशक में जे. बी. वाटसन के द्वारा की गई । वाटसन का कहना था कि किसी व्यक्ति का व्यवहार उसकी भीतरी और निजी अनुभूतियों पर आधारित नहीं होता । वह अपने माहौल से निर्देशित होता है । वाटसन के इस सूत्रीकरण के बाद व्यवहारवाद अमेरिकी मनोविज्ञान में प्रमुखता प्राप्त करता चला गया ।एडवर्ड हुदरी, क्लार्क हुल और बी. एफ. स्किनर ने व्यवहारवाद के सिद्धांत को अधिक परिष्कृत स्वरूप प्रदान किया । इन विद्वानों की प्रेरणा से मनोचिकित्सकों ने व्यवहार मूलक थिरेपी की विभिन्न तकनीकें विकसित कीं ताकि मनोरोगियों को तरह-तरह की भीतों और उन्मादों से छुटकारा दिलाया जा सके ।

18- आधुनिक साम्यवाद के पितामह व्लादिमीर इलीच लेनिन (1870-1924) रूस की अक्तूबर क्रान्ति के नायक और दुनिया के पहले समाजवादी राज्य के संस्थापक थे जिन्होंने अपनी बौद्धिक और सांगठनिक सफलताओं के कारण बीसवीं सदी की राजनीति पर निर्णायक छाप छोड़ी । उन्होंने मज़दूर वर्ग की क्रांतिकारी पार्टी की संरचना, समाज में वर्गों के साथ उसके सम्बन्ध और राजनीतिक गोलबंदी में उसकी भूमिका का सैद्धान्तिक सूत्रीकरण किया । साम्राज्यवाद को पूंजीवाद की चरम अवस्था के रूप में परिभाषित किया । सर्वहारा की तानाशाही का चरित्र स्पष्ट किया और मज़दूर वर्ग की हुकूमत के चरित्र की सैद्धान्तिक- संरचनागत व्याख्या की ।

18- वोल्गा नदी के किनारे बसे हुए एक प्रान्तीय शहर शिम्बुर्स्क में एक मध्यवर्गीय शिक्षित परिवार में 22 अप्रैल, 1870 में जन्में लेनिन का मूल नाम व्लादिमीर इलीच उल्यानोव था । लेनिन पार्टी का नाम था । लेनिन का एक मौलिक योगदान राष्ट्रीयता के सवाल पर आत्म- निर्णय के अधिकार का सूत्रीकरण था । लेनिन के बड़े भाई अलेक्सांदर को क्रांतिकारियों के साथ मिलकर जार की हत्या करने की साज़िश के आरोप में फाँसी पर चढा दिया गया । उस समय लेनिन की उम्र 17 साल की थी । लेनिन की पत्नी का नाम क्रुप्सकाया था । पूरी दुनिया ने लेनिन के सिद्धांत और व्यवहार के मेल से निकले सिद्धांतों का लोहा माना ।

19- वर्ष 1902 में लेनिन की रचना क्या करें ? प्रकाशित हुई । वर्ष 1904 में उनकी पुस्तक एक कदम आगे, दो कदम पीछे प्रकाशित हुई । वर्ष 1916 में उनकी सबसे विख्यात रचना साम्राज्यवाद पूंजीवाद की चरम अवस्था का प्रकाशन हुआ । लेनिन ने सत्ता हासिल करने के बाद उत्पादन तेज़ी से बढ़ाकर पूँजीवादी देशों का मुक़ाबला करने के उद्देश्य से मक़सद से फ़ैक्टरियों को मज़दूर कौंसिलों के अधीन करने के टेलर सिस्टम के तर्ज़ पर वन मैन मैनेजमेंट की पद्धति की वकालत की । 21 जनवरी, 1924 को मास्को से थोड़ी दूर गोर्की गाँव में उनका देहान्त हो गया ।

20- किसी भी पाठ या वैचारिक संरचना को समझने और उसका भाष्य करने की विधियाँ व्याख्या- शास्त्र के अंतर्गत आती हैं । यूनानी देवताओं के दूत हरमीज के नाम से हरमेनुइन और हरमेनुटाइनिक शब्द बने जिसका मतलब होता है व्याख्या करना और व्याख्या की कला । व्याख्या- शास्त्र या हरमेनुटिक्स इस बुनियादी मान्यता पर आधारित है कि इस जगत की संतोषजनक व्याख्या महज़ प्राकृतिक विज्ञानों द्वारा बतायी गई विधियों से नहीं हो सकती । मानवीय गतिविधियाँ और उन्हें व्यक्त करने वाले पाठ किसी न किसी सामाजिक- सांस्कृतिक दायरे में ही सम्पन्न होते हैं । हरमेनुटिक्स के संस्थापक फ्रेड्रिख डेनियल अंर्स्ट श्लीमाकर की गिनती प्लेटो के अध्येता के साथ-साथ महान प्रोटेस्टेंट धर्मशास्त्री के रूप में भी होती है ।

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21- फ्रेड्रिख डेनियल अंर्स्ट श्लीमाकर ने 1819 में अपने व्याख्यानों में पाठ और वक्तृता की व्याख्या का व्यवस्थित सिद्धांत प्रस्तुत किया । उनसे पहले 1808 में प्लेटो के एक अन्य अध्येता फ्रेड्रिख एस्ट की रचना एलीमेन्ट्स ऑफ ग्रामर, हरमेनुटिक्स ऐंड क्रिटिसिज्म का प्रकाशन हो चुका था । श्लीमाकर के अनुसार व्याख्याकार का पहला काम तो यह है कि वह किसी पाठ को उसके मूल लेखक जितना तो समझे ही । इसके बाद दूसरे चरण में व्याख्याकार को मूल लेखक से भी बेहतर समझ बनाने की कोशिश करनी चाहिए । पाठ की व्याख्या करने की यह प्रक्रिया दो तरह से चलती है : व्याकरण और भाषा की ज़मीन पर तथा मनोविज्ञान के धरातल पर ।

22- श्लीमाकर के बाद उनके जीवनीकार विल्हेल्म डिल्थी ने व्याख्याशास्त्र के दायरे का विस्तार सभी तरह के मानवीय व्यवहार और उत्पादों तक किया । उन्होंने समझ और व्याख्या के बीच अंतर करते हुए कहा कि समझने का काम प्राकृतिक विज्ञानों का है, पर पाठ का व्याख्यात्मक अर्थ- ग्रहण सांस्कृतिक आयामों के साथ-साथ अतीत की सामाजिक संरचनाओं से निकले उत्पादों की रोशनी में किया जाना चाहिए । व्याख्या -शास्त्र को और गहन बनाने का श्रेय मार्टिन हाइडैगर को जाता है । अपनी रचना बीइंग ऐंड टाइम में उन्होंने दासीन के रूप में एक ऐसे मानवीय अस्तित्व की अवधारणा पेश की जो खुद अपने वजूद के बारे में सवाल पूछता रहता है ।वह हर समय व्याख्या की गतिविधि में संलग्न रहता है ।

23- हाइडैगर के शिष्य हैंस- गियोर्ग गैडमर ने दार्शनिक व्याख्या- शास्त्र का सूत्रीकरण किया ।गैडमर का पहला दावा तो यह है कि व्याख्या का आधार पूर्व धारणा, पूर्व दृष्टि और पूर्व ज्ञान में निहित है । उनका दूसरा दावा है कि व्याख्या ज्ञानोदय प्रदत्त मॉडल के हिसाब से आगे नहीं बढ़ सकती । वह निष्कर्ष निकालते हैं कि व्याख्या का आधार तो पूर्वाग्रह होता है पाठ का तात्पर्य भाषा, मानक परम्परा और ऐसे ही उन तत्वों की वजह से होता है जिनकी सामग्री से आत्मपरकता रची जाती है । आत्मपरकताओं की अन्योन्यक्रिया से परम्परा निकलती है और परम्परा से व्याख्या से पहले का दृष्टि- बिन्दु मिलता है ।

24- अर्ली- मॉडर्न इतिहास लेखन ने मध्ययुगीन समाज के उन रूपों को रेखांकित किया जिनके तहत व्यापारी वर्ग कारीगरों से माल बनवा कर मुनाफ़ा कमाने के लिए विश्व- मंडी में भागीदारी करता था । इस प्रक्रिया में स्थानीय बाज़ारों और विश्व बाज़ार के बीच एक तरह का संश्रय बनता जाता था । भारत में अर्ली- मॉडर्न इतिहास लेखन में ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद, इरफ़ान हबीब और रामविलास शर्मा के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । वर्ष 1951 में कम्युनिस्ट नेता और बुद्धिजीवी ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद ने द नेशनल क्वेश्चन ऑफ केरला में मलयाली समाज में पूंजीवाद के प्राक्- औपनिवेशिक रूपों की तरफ़ इशारा किया ।

25- इतिहासकार इरफ़ान हबीब ने साठ के दशक के आख़िरी दौर में मुग़ल काल में व्यापारिक पूँजी की गतिविधियों के विस्तृत ब्योरे पेश किए ।उन्होंने अपनी रचना पोटेंशियलिटीज ऑफ कैपिटलिस्ट डेवलपमेंट इन द इकॉनॉमी ऑफ मुग़ल इंडिया में दिखाया कि मुग़ल काल में निजी उपभोग से परे जाकर बाज़ार के लिए होने वाला खेतिहर और गैर खेतिहर उत्पादन तत्कालीन अर्थव्यवस्था के बहुत बड़े हिस्से का निर्माण करता था । हबीब ने मैक्स वेबर के इस अवलोकन को मानने से इनकार कर दिया कि जाति प्रथा जैसी सामाजिक संस्थाओं की वजह से भारत में दस्तकारी उत्पादन में जड़ता आयी । उन्होंने पगार का भी ज़िक्र किया है ।

26- अनाल स्कूल के नाम से मशहूर इतिहास लेखन की पद्धति के उत्तराधिकारी फर्नैंद ब्रॉदेल ने अपने तीन खंडों के महाग्रन्थ सिविलाइजेशन ऐंड कैपिटलिज्म, 15थ-18थ सेंचुरी में पन्द्रहवीं से अठारहवीं सदी के बीच की अवधि को मध्ययुग कहने के बजाय अर्ली- मॉडर्न करार दिया था । अनाल स्कूल इतिहास को प्राचीन, शुरुआती मध्य, बाद का मध्य और आधुनिक युगों में बाँटकर देखने का विरोध करते हुए आग्रह करता था कि सारी दुनिया के इतिहास को अलग-अलग करके पढ़ने के बजाय समग्र दृष्टि से देखना चाहिए ।

27-वर्चस्व या हेजेमनी यूनानी भाषा के शब्द हेजेमन से बना हुआ है जिसका अर्थ होता है नेता, मार्गदर्शक या शासक । समाज विज्ञान में वर्चस्व के सिद्धांत को प्रचलित करने का श्रेय इतालवी मार्क्सवादी चिंतक एंतोनियो ग्राम्शी को है । वर्चस्व का तात्पर्य प्रभुत्व की उस संरचना से है जो सहमति के आधार पर लागू की जाती है । ग्राम्शी के अनुसार किसी शासक वर्ग का वर्चस्व तब स्थापित होता है जब वह बाकी सभी वर्गों को यह यक़ीन दिला देता है कि उसी के हित में सभी का हित है । ग्राम्शी के मुताबिक़ हेजेमनी विचारधारा नहीं है । विचारधारात्मक होना इसका एक पहलू है जो ज़रूरत पड़ने पर आर्थिक रूप भी ले सकता है ।

28- ग्राम्शी ने कहा कि बुर्जुआ शासन बल- प्रयोग एवं जन सहमति दोनों की संयुक्त बुनियाद पर टिका हुआ है । उन्होंने बल प्रयोग के कार्य क्षेत्र के रूप में राज्य और जनसहमति के कार्य क्षेत्र के रूप में नागर समाज की शिनाख्त की ।परिवार, शिक्षा संस्थान, धर्म- संस्थान, संचार माध्यम आदि नागर समाज के घटक हैं । बल प्रयोग और हिंसा पर राज्य का एकाधिकार है । पुलिस, सेना, न्यायालय दंड विधान के प्रमुख घटक हैं । इस तरह वर्चस्व की अवधारणा से मार्क्सवादी चिंतन परम्परा के तहत विचारधारा की अवधारणा भी समृद्ध हुई है । विचारधारा की अमूर्त संरचना को ग्राम्शी ने रोज़ाना की ज़िंदगी के तहत विचार एवं व्यवहार में आबद्ध होने की बात कहकर जीवंत बना दिया ।

29- रेमंड विलियम के मुताबिक़ हेजेमनी कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे एक बार हासिल कर लेने के बाद बेफ़िक्र हुआ जा सकता है । यह निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है । संसदीय जनतंत्र के सन्दर्भ में मार्क्सवादी चिंतक एजाज़ अहमद ग्राम्शी से सहमत नहीं हैं । उनके मुताबिक़ ग्राम्शी के जेल लेखन का निकट परिप्रेक्ष्य संसदीय जनतंत्र नहीं बल्कि फासीवाद है । व्यवस्था को मिलने वाली सहमति की जो बात वे करते हैं वह भी प्रायः फासीवाद के लिए है न कि संसदीय जनतंत्र के लिए ।

30- वृत्त- चित्र या डॉक्यूमेंटरी की परम्परा कथा- चित्र अथवा फ़ीचर फ़िल्म से भी अधिक पुरानी है । बीस के दशक में वृत्त- चित्र का इस्तेमाल मानवशास्त्री उद्देश्यों से अन्य संस्कृतियों को रिकार्ड करने के लिए भी किया गया और एस्किमो लोगों पर फ़िल्म बनाई गई । द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान कवि और चित्रकार हम्फ्री जेनिंग्स की पहलकदमियों से वृत्त चित्रों के संसार में अतियथार्थवाद, मार्क्सवाद, साहित्य और विज्ञान का आगमन हुआ । मानवशास्त्री फ़िल्मकार ज़्याँ रूस ने पचास के दशक में फ़्रेंच प्रभाव वाले अफ़्रीका में जाकर देशज लोगों के जीवन को सेल्युलाइड पर उतारने का प्रयास किया ।

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31- वल्लत्तोल नारायण मेनन (1878-1957) मलयालम के महाकवि और राष्ट्रीय- सांस्कृतिक जागरण के अग्रदूत माने जाते हैं । उनका कृतित्व मातृभूमि- पूजा और गॉंधी विचार- दर्शन की चेतना से सम्पन्न था । उन्होंने हिन्दू धर्म की असमानताओं, जाति – प्रथा और दलित पीड़ा पर जमकर लिखा है । छुवाछूत में जकड़ा हिन्दू समाज कवि वल्लत्तोल की चिंता का मुख्य विषय रहा है । उन्होंने स्वामी श्रद्धानंद की मृत्यु पर ग़ुलामी शीर्षक से कविता लिखी थी । ब्राह्मण पिता और वल्लत्तोल घराने की कुहिपारू अम्मा के इकलौते पुत्र का गाँव चेन्नारा वेहंतुनारं में साहसी राजाओं और कवियों की भाव स्थली थी । मलयालम काव्य के जन्मदाता तुंचत्तु एषुत्तच्छन यहीं के थे ।

32- सरदार वल्लभ भाई पटेल (1885-1950) उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन के सर्वोच्च नेताओं में से एक, स्वतंत्र भारत के पहले गृहमंत्री और उप प्रधानमंत्री थे । 562 देशी रियासतों को भारतीय संघ में सफलतापूर्वक मिलाने वाले सरदार वल्लभ भाई पटेल की गणना उन राष्ट्र- निर्माताओं में की जाती है जिनके बिना आधुनिक भारत के वर्तमान रूप की कल्पना भी नहीं की जा सकती । सरदार पटेल का जन्म गुजरात के खेड़ा ज़िले में नांदेड नामक स्थान पर 31 अक्टूबर, 1875 को एक साधारण किसान परिवार में हुआ था । इनके पिता झबेर भाई एक छोटे किसान थे जिनके पास 11-12 एकड़ ज़मीन थी ।

33- सरदार वल्लभ भाई पटेल की धर्म पत्नी जवेरी बाई का जब अल्पकाल में निधन हुआ तब उनकी बेटी मणिबेन छह साल की थी और बेटा दयाभाई चार साल का ।बल्लभ भाई पटेल ने दोबारा शादी नहीं की । वर्ष 1910 में क़ानून की पढ़ाई के लिए वह लंदन के मिडिल टैम्पल गए । गांधी उनके राजनीतिक गुरू थे और जीवन भर उनके नेता रहे । मज़ाक़िया लहजे में पटेल कहा करते थे कि उन्होंने अपने दिमाग़ में ताला लगा लिया है और उसकी चाबी गांधी को दे दी थी । वर्ष 1928 में सरदार वल्लभ भाई पटेल ने बारदोली में गरीब किसानों के संघर्ष का नेतृत्व किया । यहीं गाँव के किसानों ने पटेल को सरदार का दर्जा दिया और इसी उपनाम से वह पूरे देश में जाने गए ।

34- सरदार वल्लभ भाई पटेल ने वर्ष 1931 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कराची अधिवेशन की अध्यक्षता की । इसी अधिवेशन में ही कांग्रेस ने औपचारिक रूप से नागरिकों के मूल अधिकारों की अवधारणा को स्वीकार किया और इसी दौरान केसरिया, सफ़ेद और हरे रंग के साथ भारत के तिरंगे झंडे को अपनाया गया । उन्होंने मध्य युग में महमूद गजनवी के द्वारा तोड़े गए सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण भी कराया। दिनांक 15 दिसम्बर, 1950 में अपनी मृत्यु तक वे एक मज़बूत, समृद्ध और एकताबद्ध भारत के लिए काम करते रहे ।

35- वाचिकता अथवा ओरलिटी वह स्थिति होती है जहॉं सम्प्रेषण का माध्यम केवल बोलने और सुनने तक सीमित हो । शिक्षाशास्त्रियों और अकादमीशियनों ने इसे ओरेसी या ओरेलसी का नाम दिया है । लिखित पाठ की मदद के बिना भाषण देने की कला अथवा आर्ट ऑफ ओरेशन राजनीति में सफल होने के लिए बहुत ज़रूरी है । जिनके पास यह कला है, माना जाता है कि उनमें नेतृत्व के गुण हैं । वाचिक संस्कृति की अवधारणा उन महत्वपूर्ण सांस्कृतिक आख्यानों के संदर्भ में विकसित की गई थी जो अपने लिखे जाने से पहले केवल बोले गए रूपों में मौजूद थे । वाचिकता के दो प्रकार हैं : प्राथमिक और द्वितीयक । प्राथमिक वाचिकता का सम्बन्ध प्राचीन संस्कृतियों और समाजों से है जबकि द्वितीय वाचिकता आधुनिक संस्कृतियों और समाजों की परिघटना है ।

36- वाचिकता और साक्षरता के बीच तुलनात्मक बहस की केन्द्रीय विभूति वाल्टर जैक्सन ओंग हैं । वर्ष 1982 में उनकी रचना ऑरिलिटी ऐंड लिटरेसी प्रकाशित हुई । साहित्यिक और समाज वैज्ञानिक स्रोतों की मदद से ओंग ने दिखाया कि किस तरह से साक्षरता का जन्म वाचिकता से हुआ है । ओंग का कहना है कि प्राथमिक क़िस्म की वाचिकता सहभागिता और परानुभूति को प्रोत्साहित करती है । इस वाचिकता में दो पक्षों का आमने सामने होना ज़रूरी है जबकि द्वितीय वाचिकता के लिए दोनों पक्षों का होना आवश्यक नहीं होता है । मसलन, टेलीफोन के ज़रिए होने वाला संवाद । वाचिक संस्कृतियों की दुनिया अपने तत्कालीन परिवेश और शारीरिक क्षमताओं से परे जाने में दिलचस्पी नहीं रखती है । वह उस क्षण में जीवित रहती है जिसमें उसका वास है ।

37- आचार्य वात्स्यायन और उनकी कृति कामसूत्र को यौनक्रिया, स्त्री- पुरुष सम्बन्ध और उनसे जुड़ी हुई सामाजिकता की सेकुलर आचार- संहिता के रूप में जाना जाता है । कामसूत्र में सात अधिकरण, 36 अध्याय, 64 प्रकरण और 1250 सूत्र संकलित हैं । अपनी रचना के बारे में वात्स्यायन का कहना है कि उन्होंने समाज को जीवंत और जाग्रत बनाए रखने के लिए कामसूत्र की रचना की है, कामुकता के प्रचार के लिए नहीं । कामशास्त्र के तत्व को भलीभाँति समझने वाला व्यक्ति धर्म, अर्थ, काम आत्मविश्वास और लोकाचार को समझते- देखते हुए आगे बढ़ता है न कि राग या कामुकता से । कामशास्त्र को शास्त्रीय रूप प्रदान करने का श्रेय बाभ्रव्य को दिया जाता है ।

38- दिनांक 7 अगस्त, 1904 को उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ियाबाद ज़िले के गाँव खेड़ा, पिलखुआ में जन्में वासुदेव शरण अग्रवाल (1904-1966) प्राच्यविद्या के अप्रतिम विद्वान तथा राष्ट्रवादी चेतना से लबरेज़ थे । उन्होंने संहिताओं, ब्राह्मणों, उपनिषदों और पुराणों जैसे साहित्यिक स्रोतों के साथ-साथ वास्तुशास्त्र, शिलालेख, पुरालिपि और पुरातत्व जैसे प्रामाणिक वैज्ञानिक विधाओं के संगम से भारतीय सभ्यता और संस्कृति की ऐतिहासिक संरचना प्रस्तुत की । पाणिनि कृत अष्टाध्यायी के सूत्रों में वर्णित भारतीय सभ्यता के बिखरे सूत्रों को इकट्ठा कर उन्होंने इंडिया ऐज नोन टु पाणिनि (1941) की रचना की ।

39- वासुदेव शरण अग्रवाल की प्रमुख कृतियों में 1939 में प्रकाशित हैंडबुक टु द स्कल्पचर्स इन द कर्ज़न म्यूज़ियम ऑफ आर्कियोलॉजी, मथुरा, वर्ष 1947 में प्रकाशित अ गाइड टु प्रोविंशियल म्यूज़ियम, लखनऊ, वर्ष 1966 में प्रकाशित चक्रध्वज ऑर द व्हील फ्लेम ऑफ इंडिया हैं । अग्रवाल ने 1931-1941 तक दस साल मथुरा संग्रहालय में, 1941-1946 तक लखनऊ संग्रहालय में काम किया । 1946 -1951 तक वे तत्कालीन नवनिर्मित राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली में एशियन एंटीक्विटीज डिपार्टमेंट के अध्यक्ष रहे जिसके पहले निदेशक मार्टिमर व्हीलर थे । 1951 में वह बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में भारतविद्या के अध्ययन हेतु नव स्थापित कॉलेज ऑफ इंडोलॉजी से सम्बद्ध रहे ।

40- बोल्शेविक क्रांति की पहली रात्रि, 7, 8 नवम्बर, 1917 को सेंट पीटर्सबर्ग के एक मकान के छज्जे पर खड़े होकर लेनिन ने डिक्री ऑन पीस फ़रमान जारी किया था जिसमें युद्धरत शक्तियों से तुरंत लड़ाई बंद करने और गुलाम देशों को आज़ाद करने की अपील की गई थी । यह डिक्री आगे चलकर सोवियत विदेश नीति का मुख्य घटक बनी । प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जब वर्साई की संधि हुई तो इसी सोवियत नीति के प्रभाव में अमेरिकी राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन द्वारा चौदह सूत्रीय चार्टर पेश किया गया जिसके परिणामस्वरूप लीग ऑफ नेशंस गठित हुआ । लेनिन ने इस संस्था को लीग अगेंस्ट नेशंस करार दिया क्योंकि विजयी राष्ट्र पराजित राष्ट्रों के उपनिवेश हड़प रहे थे ।

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41- वि- उपनिवेशीकरण के विचार को मज़बूत बनाने में 1942 में भारत में चले अंग्रेजों भारत छोड़ो और मैन्चेस्टर में हुई पैन- अफ्रीकी कांग्रेस के द्वारा राजनीतिक आज़ादी की माँग की महत्वपूर्ण भूमिका थी । 1947 से 1980 के बीच में ब्रिटेन को क्रमशः भारत, बर्मा, घाना, मलाया और ज़िम्बाब्वे का क़ब्ज़ा छोड़ना पड़ा । 1949 में डचों को इंडोनेशिया से जाना पड़ा । 1974-75 में पुर्तगाल ने अपने उपनिवेशों को आज़ाद कर दिया । 1954 में इंडो- चीन क्षेत्र और 1962 में अल्जीरिया के संघर्ष के सामने फ़्रांस को घुटने टेकने पड़े । साठ के दशक में ही भारत के प्रान्त गोवा से पुर्तगाल ने अपना बोरिया बिस्तर समेट लिया । 1980-85 के बीच ज़िम्बाब्वे, बेलीज, एंटीगा और ब्रुनेई को ब्रिटेन से आज़ादी मिली ।

42- अहमदाबाद के एक सम्पन्न और प्रतिष्ठित परिवार में जन्में विक्रम साराभाई (1919-1971) स्वतंत्र भारत के प्रमुख वैज्ञानिक, अंतरिक्ष अनुसंधान के पितामह एवं संस्थान निर्माताओं में से एक हैं ।वह चाहते थे कि वैज्ञानिक- शोध अनुसंधान को भारत में सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक परिवर्तन लाने के लिए इस्तेमाल किया जाए । अपने जीवन में विक्रम साराभाई ने 35 वैज्ञानिक, औद्योगिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक संस्थाओं की स्थापना की । केवल 28 वर्ष की आयु में उन्होंने अपने संसाधनों से भारत में पहली बार फ़िज़िकल रिसर्च लेबोरेटरी की स्थापना की । 1942 में उन्होंने मृणालिनी स्वामिनाथन से विवाह किया । उनका एक पुत्र कार्तिकेय और पुत्री मशहूर नृत्यांगना मल्लिका साराभाई हैं ।

43- विक्रम साराभाई ने 1949 में अहमदाबाद टेक्स्टाइल इंडस्ट्री रिसर्च एसोसिएशन की स्थापना की । 1957 में उन्होंने प्रबंधन शिक्षा के प्रसार हेतु अहमदाबाद मैनेजमेंट एसोसिएशन की स्थापना की । 1960 में उत्पादन प्रकिया में गुणवत्ता सुधार हेतु सांख्यिकी के प्रयोग के लिए बने ऑपरेशन रिसर्च ग्रुप की स्थापना भी उन्हीं की देन थी । भारत में पेशेवर प्रबंधन के शिक्षण व अनुसंधान के लिए 1962 में शुरू हुए अहमदाबाद स्थित भारतीय प्रबंधन संस्थान को स्थापित करने में विक्रम साराभाई अग्रणी थे । स्थापना के बाद से 1965 तक वे इस संस्थान के मानद महानिदेशक रहे । वह कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के रिसर्च स्कॉलर रहे थे ।

44- विक्रम साराभाई 1962 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान की राष्ट्रीय समिति के अध्यक्ष बनाए गए । साराभाई के पर्यवेक्षण में ही थुम्बा इक्वेटोरियल राकेट स्टेशन आरम्भ हुआ और भारत में राकेट निर्माण का कार्यक्रम शुरू हुआ । इसके तहत थुम्बा में रोहिणी और मेनका नामक रॉकेट बनाए गए ।डॉ. होमी जहांगीर भाभा की आकस्मिक मृत्यु के बाद 1966 में विक्रम साराभाई को भारतीय परमाणु ऊर्जा आयोग का अध्यक्ष बनाया गया । 1965 में बच्चों में विज्ञान की शिक्षा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रसार के लिए विक्रम साराभाई ने सामुदायिक विज्ञान केन्द्र अहमदाबाद की स्थापना की । 1948 में पत्नी मृणालिनी साराभाई के साथ मिलकर उन्होंने सांस्कृतिक संस्था दर्पण की स्थापना की ।

45- विक्रम साराभाई का पूरा जीवन ज्ञान और विज्ञान के लिए समर्पित था । 30 दिसम्बर, 1971 को जब केरल के कोवलम में विक्रम साराभाई का नींद में दिल का दौरा पड़ने से निधन हुआ तो भी उनके शरीर पर एक अधखुली किताब पड़ी हुई थी, मानो अंतिम समय में भी वे कुछ नया सीखने को तैयार हों । अपने जीवन में उन्होंने 40 संस्थान खोले । उनके पिता अम्बालाल साराभाई तथा माँ सरला साराभाई थीं । 1966 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया । 1972 में मरणोपरान्त विक्रम साराभाई को पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया ।

46- विचलन को ऐसा व्यवहार, आचरण या जीवन शैली माना जाता है जो समाज की अपेक्षाओं, नियम, आचार- प्रथाओं तथा परम्पराओं आदि का उल्लंघन करता हो । दुर्खाइम द्वारा प्रवर्तित प्रतिमानहीनता या एनॉमी की धारणा विचलन के स्रोत को परिभाषित करती है । रॉबर्ट मर्टन ने कहा कि विचलन केवल व्याधकीय व्यक्तित्व या पैथोलॉजिकल पर्सनालिटी से पैदा नहीं होता है बल्कि इसकी जड़ें संस्कृति तथा सामाजिक संरचना में मौजूद होती हैं । उन्होंने विचलन को व्यक्ति की प्रकृति के स्थान पर समाज की प्रकृति के सन्दर्भ में व्याख्यायित किया । विचलन की व्याख्या करने के लिए 1920 के दशक में कुछ समाजशास्त्रियों ने सामाजिक जीवन की भौगोलिक- जलवायु परक व्याख्या की जिसे शिकागो स्कूल के नाम से जाना जाता है ।

47- विचलन की सबसे प्रामाणिक व्याख्या अंत:क्रियावादियों में हावर्ड एस. बेकर ने अपनी लेबरिंग थियरी के अंतर्गत प्रस्तुत की । वर्ष 1963 में प्रकाशित अपनी पुस्तक आउटसाइडर्स में उन्होंने कहा कि सामाजिक समूह नियमों का निर्माण करके विचलन को पैदा करते हैं क्योंकि कई परिस्थितियों में उन नियमों की अवहेलना करना आवश्यक हो जाता है । फ़्रैंक पियर्स जैसे अध्येता अपनी पुस्तक क्राइम्स ऑफ द पावरफुल में इस नतीजे पर पहुँचे कि समाज के ग़रीब, साधनहीन एवं श्रमिक वर्ग की तुलना में कॉरपोरेट जगत में अपराध अधिक हैं पर प्रायः उन्हें विचलन की श्रेणी में न रखकर कॉरपोरेट संस्कृति का सामान्य हिस्सा मान लिया जाता है ।

48- विजय लक्ष्मी पंडित (1900-1990) भारतीय स्वाधीनता सेनानी, राजनेता और राजनयिक थीं । पंडित मोतीलाल नेहरू की बेटी तथा पंडित जवाहरलाल नेहरू की बहन विजय लक्ष्मी पंडित झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई से प्रेरित और सरोजिनी नायडू से प्रभावित थीं । इंडियन कौंसिल ऑफ वर्ल्ड एफैयर्स के प्रतिनिधि मंडल की नेता के रूप में उन्होंने अमेरिका का दौरा किया । उनके बचपन का नाम स्वरूप कुमारी था । 1921 में विजय लक्ष्मी ने पोरबंदर के एक बैरिस्टर और महात्मा गाँधी के अनुयायी रंजीत सीताराम पंडित से विवाह किया । उनकी तीन बेटियाँ थीं । वर्ष 1941 में उनके पति का आकस्मिक निधन हो गया । एक दिसम्बर, 1990 में देहरादून में विजय लक्ष्मी पंडित का निधन हुआ ।

49- विजय लक्ष्मी पंडित को स्वतंत्रता संग्राम में सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौरान भाग लेने के कारण 1931 में 18 महीने की जेल हुई । जेल से छूटकर उन्होंने इलाहाबाद नगर पालिका का चुनाव लड़ा और भारी बहुमत से जीतकर नगरपालिका शिक्षा समिति की अध्यक्ष नामांकित हुई । 1937 में विजय लक्ष्मी पंडित ने संयुक्त प्रान्त में कानपुर शहर से विधानसभा का चुनाव जीता और उन्हें स्वास्थ्य तथा लोक प्रशासन विभाग का मंत्री नियुक्त किया गया । विजय लक्ष्मी पंडित भारत में मंत्रीपद सम्भालने वाली पहली महिला थीं । 1940-42 के दौरान वह अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की अध्यक्ष भी रहीं । 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में भाग लेने के कारण उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और नैनी जेल में रखा गया । 9 महीने बाद उनकी रिहाई हुई ।

50- विजय लक्ष्मी पंडित ने एक राजनयिक के रूप में सोवियत रूस, अमेरिका, मैक्सिको, आयरलैंड, इंग्लैंड और स्पेन में भारत के राजदूत के रूप में काम किया । 1952 में भारत के पहले आम चुनाव में वह लोकसभा की सदस्य निर्वाचित हुई । 1953 में विजय लक्ष्मी पंडित को संयुक्त राष्ट्र की आम सभा का अध्यक्ष नियुक्त किया गया ।यह गौरव प्राप्त करने वाली वह विश्व की पहली महिला और पहली एशियाई महिला थीं । 1964 में जवाहरलाल नेहरु के निधन से रिक्त हुए फूलपुर लोकसभा क्षेत्र से विजय लक्ष्मी पंडित ने चुनाव जीता । वह 1964 से 1968 तक भी लोकसभा की सदस्य रहीं । महाराष्ट्र के राज्यपाल के रूप में भी उन्होंने ज़िम्मेदारी का निर्वहन किया ।

नोट : उपरोक्त सभी तथ्य, अभय कुमार दुबे, द्वारा सम्पादित पुस्तक, समाज विज्ञान विश्वकोश, खंड 5, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण : 2016, ISBN : 978-81-267-2849-7 से साभार लिए गए हैं ।

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Dr. Raj Bahadur Mourya:
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