सेकुलरवाद की अवधारणा और उसका भारतीय परिप्रेक्ष्य

– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर- प्रदेश) भारत । email : drrajbahadurmourya @gmail.com, website : themahamaya.com

सारांश

यूरोप में हुए धार्मिक संघर्षों के दौरान प्रोटेस्टेंट और बुद्धिवाद के द्वंद्व से सेकुलरवाद का विचार पैदा हुआ । तीसरी दुनिया के देशों में सेकुलरवाद को ही धार्मिक भाईचारा समझ लिया गया जबकि वह तो उसे हासिल करने का एक माध्यम था । भारत जैसे देश में धार्मिक परम्पराओं के आपसी संवाद से सेकुलरवाद निकलना चाहिए था । लेकिन वह कृत्रिम तरीक़े से विकसित हुआ । राज्य द्वारा कार्यान्वित किए जाने के कारण सेकुलरवाद को प्रशासकीय और कार्यविधिक प्राथमिकताएँ तो मिल गयीं, पर वह सामाजिक प्रामाणिकता हासिल नहीं कर पाया । भारतीय समाज की हक़ीक़तों से कटे होने के कारण सेकुलरवादियों के पास दरअसल समाज को कोई मज़बूत दर्शन ही नहीं था । आज यह समझना ज़रूरी है कि सेकुलरवाद के कई मायने हो सकते हैं । एक धर्मप्राण व्यक्ति भी सेकुलर हो सकता है और पूरी तरह से नास्तिक भी । प्रस्तुत शोध पत्र इन्हीं कुछ सारगर्भित बिन्दुओं पर रौशनी डालता है ।

परिचय

सेकुलरवाद की व्युत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द सेकुलरिस से हुई है । सेकुलरिस से फ़्रेंच भाषा ने सेकुलर शब्द हासिल किया जिसे मध्यकालीन अंग्रेजों ने अपना लिया । इसका मतलब है आज का समय अर्थात् जो दैवी समय से भिन्न है । आज के समय की अवधारणा में ही इहलोक का विचार निहित है जो इस दुनिया यानी परलोक से अलग है । सेकुलरवाद मनुष्य और उसके संसार की इहलौकिकता का सिद्धांत है । वह धर्म के वर्चस्व, उसकी निंरकुशता और उसके आधार पर खड़े किए जाने वाले किसी भी क़िस्म के बहिर्वेशन के विरोध में खड़ा है । लेकिन वह अनिवार्यत: धर्म का उन्मूलन करने वाली विचारधारा नहीं है । वह धर्मों की स्वतंत्रता, धर्म से स्वतंत्रता, धर्मों की आपसी समानता और आस्तिकों व नास्तिकों के बीच समानता की वकालत करता है । वस्तुतः सेकुलरवाद धर्म के उदात्त और आध्यात्मिक पहलुओं के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैया नहीं अपनाता बल्कि उसका रवैया धर्म के प्रति आलोचनात्मक आदर का है । सेकुलरवाद आग्रह करता है कि सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था संस्थागत धार्मिक प्रभुत्व से पूरी तरह से मुक्त होनी चाहिए । इंग्लैंड के एक रैडिकल अनीश्वरवादी जॉर्ज जैकब होलियॉक ने सन् 1851 में पहली बार सेकुलरवाद शब्द का प्रयोग किया ।(1)

जार्ज होलियॉक राबर्ट ओवेन के समाजवादी विचारों, उपयोगितावाद और गणराज्यवाद से प्रभावित थे । नास्तिकता का झंडा बुलंद करने के कारण वे जेल यात्रा भी कर चुके थे । उनकी कोशिश थी कि नास्तिक, काफ़िर, फ्री थिंकर्स और अनीश्वरवादी शब्दों की जगह कोई नई अभिव्यक्ति खोजी जाए । उन्हें लगा कि यह ज़रूरत सेकुलरवाद पूरा कर सकता है । वर्ष 1860 से 1914 की अवधि यूरोपीय देशों में सेकुलरीकरण का दौर माना जाता है । फ्राँस ने सेकुलर शब्दावली में लाइसिजम जैसी अभिव्यक्ति जोड़ी जो सम्भवतः राज्य और धर्म के अलगाव को सर्वाधिक कड़ाई से परिभाषित करती है । मुस्तफ़ा कमाल पाशा का तुर्की, रज़ा शाह पहलवी का ईरान, बौरगुइया का ट्यूनीशिया, लेनिन का सोवियत संघ, माओ का चीन और कम्युनिस्ट हुकूमतों वाले पूर्वी यूरोप के देश सेकुलरवाद के उदाहरण माने जाते हैं । सेकुलरवाद का विचार धीरे-धीरे बुद्धिवाद, गैरधार्मिकता, आधुनिकतावाद और राष्ट्रवाद के साथ साथ गुँथता चला गया । (2) एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के अनुसार, “ धर्मनिरपेक्ष शब्द का तात्पर्य है गैर आध्यात्मिक वस्तु जो धार्मिक तथा आध्यात्मिक तथ्यों की विरोधी तथा उससे असंबद्ध होने के कारण स्वयं में पहचान योग्य है, आध्यात्मिक तत्वों के विपरीत सांसारिक है ।” (3)

जियनवादी इज़राइल के संस्थापक थियोडोर हर्जल, मुसलमानों के लिए पाकिस्तान की स्थापना करने वाले मुहम्मद अली जिन्ना और राजनीतिक हिन्दुत्व के संस्थापक विनायक दामोदर सावरकर के निजी जीवन में सेकुलर आग्रहों का महत्व निर्णायक था । इन तीनों की मिसाल यह भी बताती है कि किसी एक समुदाय के दबदबे वाले राष्ट्र की स्थापना के लिए गैर सेकुलर मुहिम चलाने के बाद उसे सेकुलर रूप देने की कोशिश की जा सकती है । जियनवादी आधार के बावजूद इज़राइली समाज आज एक सेकुलर समाज बन चुका है । जिन्ना की बात उनके उत्तराधिकारियों ने नहीं मानी । सावरकर के हिन्दुत्व का एक महत्वपूर्ण तात्पर्य यह भी है कि वह अल्पसंख्यकों के लिए गैर सेकुलर, लेकिन हिन्दू समाज के लिए सेकुलर मन्तव्यों वाला सिद्धांत है । ज़ाहिर है कि अगर सेकुलरवाद को बहुलतावाद से आवेशित न किया जाए और उसे केवल धर्मतंत्रीय राज्य की मुख़ालफ़त तक ही सीमित रखा जाए तो कोरी आधुनिकता, निर्मम बुद्धिवाद और सामाजिक- सांस्कृतिक समरूपीकरण का बुल्डोजर उसे अनुदार, बहुसंख्यकवादी और यहाँ तक कि फासीवादी हाथों का औज़ार भी बन सकता है । बहुलवाद से रहित सेकुलरवाद किसी समुदाय के आंतरिक आधुनिकीकरण का वाहक तो हो सकता है, पर समुदाय की सीमाओं से बाहर वह अन्यीकरण अर्थात् चुने हुए समुदायों को पराया घोषित करने वाली राजनीति के खिलाफ कुछ नहीं कर सकता । (4)

सेकुलरवाद आधुनिक राज्य के वैचारिक औज़ार के रूप में उभरा जिसके मुताबिक़ धर्म और उसकी संस्थाओं को सरकारी नियंत्रण में रखा जाता है, क़ानून बनाकर धर्म का स्वरूप बदला जाता है और सामाजिक, आर्थिक आधुनिकीकरण किया जाता है । सेकुलरवाद के ऐसे सरकारी इस्तेमाल के उदाहरण हैं : मुस्तफ़ा कमाल पाशा का तुर्की, रजा शाह पहलवी का ईरान, बौरगइबा का ट्यूनीशिया, लेनिन का सोवियत संघ, माओ का चीन और कम्युनिस्ट हुकूमतों वाले पूर्वी यूरोपीय देश । आगे चलकर सेकुलरवाद को भारत जैसे बहुधार्मिक देशों के लिए भी उपयुक्त माना गया । यह भी कहा गया कि सेकुलरवाद के माने होगा कि राज्य किसी धर्म को अपने मामलों में हस्तक्षेप नहीं करने देगा, उसका कोई अपना धर्म नहीं होगा, वह सभी धर्मों के प्रति तटस्थ रहेगा लेकिन इसका मतलब यह नहीं माना जाएगा कि उसे किसी धर्म में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होगा । वह सभी धर्मों का बराबर सम्मान करेगा, कुछ वाजिब सीमाओं के भीतर सभी को अपने धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता होगी, धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा की जाएगी, इत्यादि । (5) वस्तुतः सेकुलरीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जो धार्मिकता के स्वरूप को और अन्ततः धर्म के स्वरूप को ही बदल देती है । वह एक ऐसी अस्मिता रचती है जो भले ही किसी पुराने या परम्परागत नाम से पुकारी जाती हो, पर अपने सार रूप में बदली हुई होती है ।

तीसरी दुनिया के देशों को गुलाम बनाने वाली पश्चिमी ताक़तों का विचार था कि उन्होंने उपनिवेशवाद के ज़रिए इन समाजों को सेकुलर राष्ट्रवाद की महान विरासत थमाई है । परन्तु इतिहास की कसौटी पर उनकी यह दावेदारी पूरी तरह से सही नहीं बैठती है । पश्चिमी ताक़तों ने यद्यपि अपने उपनिवेशों में प्रशासनिक कामकाज में राज्य और धर्म के अलगाव के सिद्धांत का पालन किया, चुनिन्दा हिस्सों में आधुनिकता और बुद्धिवाद का साक्षात्कार कराया बावजूद इसके यह भी हक़ीक़त है कि सेकुलरीकरण की प्रक्रिया चलाने में उन्होंने ढीला- ढाला रवैया अपनाया । मसलन फ़्रांसीसियों ने अपने देश में तो धार्मिक शिक्षा को निरुत्साहित किया, पर उपनिवेशों में ईसाई शिक्षा को बढ़ावा दिया । भारत में बाबा साहेब अम्बेडकर ने जहां आधुनिक विचारों का अवदान देने के लिए अंग्रेज़ों की प्रशंसा की वहीं हिन्दू समाज के सेकुलरीकरण की उपेक्षा करने के लिए उनकी कड़ी आलोचना की ।(6)

भारतीय सेकुलरवाद

भारतीय सेकुलरवाद पर कोई भी चर्चा गाँधी- नेहरू विरासत की साझी वैचारिक संरचना के बिना अधूरी है । गाँधी राजनीति को धार्मिकता से आवेशित करना चाहते थे और नेहरू धर्म विरोधी थे । गाँधी को अपनी सभी प्रेरणाएँ अपने सनातनी होने से मिला करती थीं । 1920-21 में असहयोग आन्दोलन को एक धार्मिक शुद्धि आन्दोलन बताने से लेकर 1946 तक धर्म को जीवन की प्रत्येक गतिविधि का आधार बताने वाले गाँधी ने चालीस के दशक में धर्म और राजनीति के सम्बन्धों पर विशेष ध्यान दिया था । 1940 में अपनी धार्मिक राजनीति को उन्होंने दो बार ठोस रूप से परिभाषित किया कि वह जिस धर्म का ज़िक्र करते हैं वह हिन्दू, इस्लाम या ईसाइयत से परे जाता है । गाँधी ने ज़ोर देकर कहा कि धर्म एक निजी सरोकार है जिसके ज़रिए व्यक्ति ईश्वर से तादात्म्य स्थापित करता है । अगस्त, 1942 में उन्होंने साफ़ कहा कि इस प्रकार के धर्म का राजनीति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए । अक्टूबर, 1946 में केन्द्रीय और प्रांतीय सरकारों के सन्दर्भ में उनका कहना था कि उनमें हिन्दू या मुसलमान का कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए क्योंकि सभी भारतीय हैं और धर्म एक निजी मामला है । गाँधी जी ने धर्म को राजनीति से अलग करने की वकालत की । उन्होंने यह भी कहा कि, ‘ मेरे ताजे लेखन को सही मानकर उसके मुक़ाबले कहीं पुराने कथनों और क़दमों को ख़ारिज कर देना चाहिए ।’ (7) नेहरू गांधी की तरह धर्म पर ज़ोर न देने के बावजूद धार्मिकता से रहित आध्यात्मिकता की खोज में लगे रहे । वे इस मामले में पूरी तरह से साफ़ थे कि राज्य का कोई धर्म नहीं होना चाहिए । उनकी कोशिश थी कि किसी तरह सेकुलरवाद भारतीय स्वभाव का अंग बन जाए ।

1960 का दशक और भारतीय सेकुलरवाद

साठ के दशक में भारतीय सेकुलरवाद पर बहस का नेतृत्व करते हुए विल्फ़्रेड केंटवेल स्मिथ ने कहा था कि भारत का सेकुलरवाद एक ऐसी आकांक्षा है जिसे धरती पर उतारा जाना अभी बाक़ी है । केंटविल स्मिथ ने यह बात इस उम्मीद से कही थी कि अगर भारत में सेकुलरवाद का प्रयोग कामयाब हो गया तो विश्व मानवता के इतिहास की बहुत बड़ी उपलब्धि होगी । यहाँ पर यह बात भी महत्वपूर्ण है कि 42 वें संविधान संशोधन से पहले भारतीय संविधान में भारतीय गणराज्य को स्पष्ट रूप से सेकुलर करार नहीं दिया गया था । सेकुलरवाद के प्रश्न पर नेहरू के पुरुषोत्तम दास टंडन, वल्लभ भाई पटेल और गोविन्द वल्लभ पन्त से मतभेद थे । जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया जैसे वामपंथी सिद्धांतकारों की निगाह में सेकुलरवाद कोई बहुत अहम मसला नहीं था । इसी ज़माने में वेद प्रकाश लूथरा ने सेकुलरवाद के अमेरिकी मॉडल को आदर्श बनाते हुए ऐलान किया कि भारत में सेकुलर राज्य न है और न हो सकता है । यहाँ का राज्य तो ज़्यादा से ज़्यादा धर्मों के प्रति तटस्थता का रुख़ ही अख़्तियार कर सकता है और यह भूमिका भारतीय राज्य ठीक से निभा रहा है । (8) भारतीय सेकुलरवाद पर दूसरी बहस डोनाल्ड यूजेन स्मिथ ने शुरू किया । उन्होंने कहा कि नेहरू के नेतृत्व में भारत एक सेकुलर राज्य है और ऐसे कई आधार हैं जिनकी वजह से भारतीय सेकुलरवाद का भविष्य उज्जवल है । लेकिन स्मिथ के अनुसार अंदेशे भी कम नहीं हैं । उनके अनुसार भारत का आधुनिक राज्य हिन्दू धार्मिक मामलों में बहुत ज़्यादा हस्तक्षेप करके अपनी हिन्दू छवि पेश कर रहा है । ऊपर से उसने धार्मिक समुदायों को अलग-अलग निजी क़ानून रखने की इजाज़त भी दे रखी है जो सेकुलर सिद्धांत के पूरी तरह से ख़िलाफ़ है । इसी तरह धार्मिक समूहों के सांस्कृतिक अधिकारों की सुरक्षा का वायदा भी सेकुलरवाद के अनुकूल नहीं है । स्मिथ का ख़्याल था कि सेकुलर राज्य के द्वारा इन समूहों की सुरक्षा की जा सकती है, पर केवल समान नागरिकता के सिद्धांत के तहत । (9)

भारतीय सेकुलरवाद पर डोनाल्ड यूजेन स्मिथ के अंदेशों का जबाब मार्क गैलेंटर ने दिया । उनका कहना था कि जिन बातों को स्मिथ भारतीय सेकुलरवाद की ख़ामी मान रहे हैं, वे दरअसल उसकी खूबियाँ हैं । मार्क गैलेंटर ने कहा कि भारतीय सेकुलरवाद प्रगति और धार्मिक स्वतंत्रता के आग्रहों के बीच सन्तुलन बनाते हुए विकसित हो रहा है । उनके अनुसार आधुनिक सेकुलर राज्य धर्म को उसके धर्मावलंबियों की मर्ज़ी पर नहीं छोड़ सकता । धर्म के बारे में अपनी समझ बनाने के लिए उसे धार्मिक रीति रिवाजों को धर्म के किसी मानक रूप के आइने में देखना पड़ता है । धार्मिक मसलों में सेकुलर राज्य के द्वारा कुछ न कुछ हस्तक्षेप लाज़मी है । प्रत्येक सेकुलर राज्य धर्मों के किन्हीं पहलुओं को स्वीकार करके प्रोत्साहित करता है, कुछ पहलुओं की उपेक्षा करता है और धर्मों के कुछ तत्वों को प्रतिबंधित भी करता है । वह एक क़ानूनी ढाँचा बनाता है जिसके ज़रिये धर्म के दायरों से बाहर रहते हुए उसे विनियमित करने का काम होता है । गैलेंटर की व्याख्या थी कि भारतीय संविधान का मुख्य रुझान धर्म को अदालतों द्वारा की जाने वाली पुनर्व्याख्याओं के ज़रिये बदल डालने के बजाय विधि निर्माण के द्वारा उसके दायरों का सीमांकन करने का है । (10)

1980 का दशक और भारतीय सेकुलरवाद

बीसवीं सदी के अस्सी और नब्बे के दशक ने सेकुलरवाद की कल्पनाशीलता के जगत् में खलबली मचा दी । इस दौर में कहीं जाति के आधार पर तो कहीं धर्म के आधार पर बड़े बड़े राजनीतिक समुदाय बन रहे थे । यह नई अस्मिताएँ पुरानी अस्मिताओं को प्रतिस्थापित करने के बजाय उनके कुछ आधुनिकीकृत रूपों के साथ सहअस्तित्व में सक्रिय थीं । अस्सी के दशक में अलगाववादी आन्दोलन छाये हुए थे । छोटी छोटी पहचानों के आन्दोलन जगह जगह स्थापित राष्ट्रीय पहचान से टकरा रहे थे । साफ़ दिख रहा था कि राष्ट्रवाद सिर्फ़ सेकुलर ही नहीं कई क़िस्म का हो सकता है । पंजाब में सिख धार्मिक राष्ट्रवाद हथियारों के दम पर खालिस्तान लेने की माँग कर रहा था । उत्तर- पूर्व का असम स्थानीयतावाद पर आधारित जुझारू आन्दोलन चला कर केन्द्र के वर्चस्व के सामने झुकने को तैयार नहीं था । क्षितिज पर हिन्दुत्ववादी उभार दिख रहा था । बहुसंख्यकवादी दावा कर सकते थे कि भारतीय राष्ट्रवाद बिना उनके रंग में रंगे मज़बूती से इन चुनौतियों का सामना नहीं कर सकता । यही वह दशक था जब इंदिरा गांधी के रूप में पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक मंच से मुसलमानों की देशभक्ति पर शक किया था । आपरेशन ब्लू स्टार, प्रधानमंत्री की उनके सिख अंगरक्षकों द्वारा हत्या, उसकी प्रतिक्रिया में हज़ारों सिखों का कत्लेआम, राज्य की मशीनरी का हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहना और साम्प्रदायिकता का तांडव नृत्य होने देना, इन सब में कांग्रेस के प्रतिष्ठित नेताओं के उकसावे की भूमिका, शाह बानो मामले में इस्लामिक कट्टरपंथियों के तुष्टिकरण को संतुलित करने के लिए अयोध्या में विवादित स्थल के ताले खुलवाना, कांग्रेस सरकार द्वारा मंदिर का शिलान्यास करवाना और राजस्थान के देवराला में हुए रूप कुंवर सतीदाह की घटनाओं ने बुद्धिजीवियों को राष्ट्रवाद, सेकुलरवाद, सेकुलरीकरण और धार्मिक सहिष्णुता सम्बन्धी बुनियादी प्रश्नों पर एक बार फिर विचार करने के लिए मजबूर किया । (11)

1990 का दशक और भारतीय सेकुलरवाद

1990 के दशक में भारतीय सेकुलरवाद का नज़ारा बहुत जटिल था । धर्मों के बीच ही नहीं, जातियों के बीच होड़ भी सेकुलरवादी निष्ठाओं पर सवालिया निशान लगा रही थी । मंडल आयोग की राजनीति नई करवट ले रही थी । सोशल इंजीनियरिंग की अवधारणा सेकुलरीकरण के विचार के समानांतर पनप रही थी । आरक्षण और उसके ख़िलाफ़ चलने वाला आन्दोलन तथा बाबरी मस्जिद की घटना नई चुनौतियाँ पेश कर रहा था । रामजन्मभूमि आंदोलन के दौरान सेकुलरवादियों को अपने ऊपर लगने वाले छद्म सेकुलरवाद का जबाब देना पड़ रहा था । हिन्दुत्ववादी विचारधारा यह दावा कर रही थी कि अल्पसंख्यकों को दूसरों से अलग रहने की इजाज़त क्यों दी जानी चाहिए । जिस समय सेकुलरवादी जाति आधारित आरक्षण का समर्थन करने के लिए मजबूर हो रहे थे उसी समय एक वर्ग योग्यता और दक्षता की दलील लेकर आया । इन लोगों ने सेकुलरवादियों पर समता के उसूल का उल्लंघन का आरोप ही नहीं लगाया बल्कि उन्हें जातिवादी भी करार दिया । इसी दौर में सेकुलरवादियों ने यह भी देखा कि समान नागरिक संहिता की माँग ज़ोर पकड़ती जा रही है । 1994 में पार्थ चटर्जी ने सेकुलरवाद की आलोचना करते हुए कहा कि सेकुलरवाद के मौजूदा मॉडल के ज़रिए हिन्दू दक्षिण पंथियों की चुनौती का सामना नहीं किया जा सकता है । सेकुलरवाद पर बहस की एक दिलचस्प झलक फ़िल्म अध्ययन के क्षेत्र में दिखाई पड़ी । फ़िल्म इतिहासकार रवि वासुदेवन रोज़ा, बाम्बे और क्रांतिवीर जैसी फ़िल्मों पर बड़ी नफ़ासत से तैयार किए गए विमर्श ले कर आए । सिनेमा के सेकुलरवाद की यह सर्वथा नई अभिव्यक्ति थी । (12)

निष्कर्ष

सेकुलर पद का अर्थ होता है धर्म, पंथ या उसकी संस्थाओं से राज्य या सरकार का अलगाव । पश्चिमी देशों के लिए यह सिद्धांत चर्च और राज्य के अलगाव की ओर ले जाता है जबकि भारत जैसे बहुधार्मिक देश में यह राज्य की सभी धर्मों से बराबर की दूरी यानी सर्वधर्मसमभाव के रूप में सामने आता है । सेकुलर सरकार को धार्मिक आधार पर कोई निर्णय या किसी का पक्ष नहीं लेना चाहिए और हर धर्म को अपने दायरे में सेकुलर क़ानून के दायरे में रहते हुए अपना प्रचार प्रसार करना चाहिए । सेकुलर राज्य और धर्मप्राण जनता के बीच कोई विरोध नहीं होता । सेकुलरवाद का मतलब कभी नास्तिकता होता था, लेकिन आज वह अपने इस अर्थ से आगे बढ़कर आधुनिक राज्य की विचारधारा की तरह स्थापित हो चुका है । स्वयं राज्य के संचालक भी अपने निजी जीवन में किसी धर्म के अनुयायी हो सकते हैं ।

आज यह समझना ज़रूरी है कि सेकुलरवाद के कई मायने हो सकते हैं । एक धर्मप्राण व्यक्ति भी सेकुलर हो सकता है और पूरी तरह से नास्तिक व्यक्ति भी, क्योंकि दोनों ही साम्प्रदायिक घृणा और धर्मतंत्रीय राज्य के विचारों को ख़ारिज करते हैं । भारतीय सेकुलरवाद की समस्याओं का दोष पश्चिम और औपनिवेशिक हस्तक्षेप पर मढ़ देना बौद्धिक सरलीकरण है । भारतीय परिस्थितियों में उसका महत्व यूरोप या अमेरिका से कहीं ज़्यादा और विधेयक प्रकृति का है । भारत जैसे देश में सेकुलरवाद धार्मिक परम्पराओं के आपसी संवाद से निकलना चाहिए था, लेकिन वह बनावटी तरीक़े से विकसित हुआ । इसका परिणाम यह हुआ कि वह सामाजिक स्वीकृति और प्रामाणिकता हासिल नहीं कर पाया । वस्तुतः भारतीय समाज की वास्तविकताओं से न जुड़ पाने के कारण सेकुलरवादियों के पास समाज का कोई स्पष्ट विजन ही नहीं था ।

भारत जैसे देश में राज्य की ताक़त और क़ानून के माध्यम से सेकुलरवाद का आधुनिकीकरण करने का प्रयास किया गया । परिणामस्वरूप सेकुलर राज्य अपने नागरिकों को न आर्थिक बराबरी दे पाया और न ही सामाजिक समानता । वह न तो भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन दे पाया और न ही युद्ध और उसकी हिंसा को कम करने में कामयाब हो पाया । इन सब के अंतर्गुम्फन का नतीजा यह निकला कि सेकुलरवाद नैतिकता से वंचित और मूल्यविहीन निकला । उसके तहत पनपीं गैर आध्यात्मिक निष्ठाएँ ज़िन्दगी के आध्यात्मिक आयामों का स्थान नहीं ले पायीं । दूसरा ख़ामियाज़ा यह भुगतना पड़ा कि राजनीति से अलग रखने के दुराग्रह ने धर्म का राजनीतिकरण कर दिया । बड़े फ़लक पर आधारित निष्ठा समुदायों के प्रति वफ़ादारी में बदल गई । समाज को धर्म प्रदत्त सहिष्णुता का फ़ायदा मिलना बन्द हो गया ।

सेकुलरवाद ने धर्मों के बीच आपसी रिश्तों में तनाव भी पैदा किया । चूँकि सीधे तौर पर राजनीति में धर्म का प्रवेश वर्जित था इसलिए उसके विकृत रूपों ने पीछे के दरवाज़े से राजनीति में प्रवेश कर लिया । धर्मबहुल समाज में विभिन्न प्रकार के धार्मिक राष्ट्रवादों की होड़ के हिंसक और अलगाववदी आयामों ने कट्टरपंथी हिंसा को जन्म दिया । बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समुदाय के आपसी भाईचारे में कमी आई ।

अन्ततः

यह कहा जा सकता है कि सेकुलरवाद को पारम्परिक समाजों में आधुनिकीकरण से उपजी ज़मीनी हक़ीक़त और ज़रूरत के मुताबिक़ देखा जाना चाहिए । देशकाल के मुताबिक़ तरह-तरह की आधुनिकताएं और तरह-तरह के सेकुलरवाद हो सकते हैं । बहुधर्मी समाजों में सेकुलरवाद बुद्धिवाद का पर्याय नहीं हो सकता । सेकुलरवाद का भारतीय रूप रचने के लिए हमारे नीति निर्माताओं और आधुनिकतावादियों को समझना होगा कि धर्म किसी धोखे का नाम नहीं है । धर्म को गम्भीरता पूर्वक लिए बिना भारत सहित पूरे दक्षिण एशिया में सहिष्णुता से परिपूर्ण समाज की रचना सम्भव नहीं है क्योंकि सेकुलरवाद और सेकुलरीकरण केवल बुद्धिवाद के निरंतर आगे बढ़ते हुए जुलूस का नाम नहीं है बल्कि उसके दायरे सत्ता और दमन की संरचनाओं से भी पुष्ट होते हैं ।

सन्दर्भ स्रोत

1- दुबे, अभय कुमार, समाज विज्ञान विश्वकोष, खंड 6, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,भारत, पेज नंबर 2085

2- उपरोक्त, पेज नंबर 2086

3- मंगलानी, डॉ. रूपा, भारतीय शासन एवं राजनीति, राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, ISBN : 978-93-89260-60-1, पेज नंबर 636

4- दुबे, अभय कुमार,(सम्पादक) बीच बहस में सेकुलरवाद, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पेज नंबर 17,18

5- उपरोक्त, पेज नंबर 24, 25

6- कुबेर, डब्ल्यू एन, आम्बेडकर : ए क्रिटिकल स्टडी, पीपुल्स पब्लिकेशन हाउस, नई, 1979, पेज नंबर 157

7- दुबे, अभय कुमार, बीच बहस में सेकुलरवाद….., पेज नंबर 31,32

8- लूथरा, वेद प्रकाश, दि कंसेप्ट ऑफ द सेकुलर स्टेट इन इंडिया, ऑक्सफ़ोर्ड, दिल्ली, 1962

9- स्मिथ, डोनाल्ड यूजेन, इंडिया एज ए सेकुलर स्टेट, प्रिंसटन यूनिवर्सिटी प्रेस, प्रिंसटन, 1963

10- गैलेंटर, मार्क, हिंदुइज्म, सेकुलरिज्म, एंड इंडियन जुडिशियरी (लेख) , सेकुलरिज्म एंड इट्स क्रिटिक्स, ऑक्सफ़ोर्ड, नई दिल्ली द्वारा 1999 में प्रकाशित (संकलन : राजीव भार्गव)

11- दुबे, अभय कुमार, बीच बहस में सेकुलरवाद, पेज नंबर 40, 41

12- उपरोक्त, पेज नंबर 42,43,44,45

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Dr. Raj Bahadur Mourya: