राजनीति विज्ञान / समाज विज्ञान, महत्वपूर्ण तथ्य (भाग-16)

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डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी। फ़ोटो गैलरी एवं प्रकाशन प्रभारी : डॉ. संकेत सौरभ, झाँसी, उत्तर- प्रदेश, भारत, email : drrajbahadurmourya @ gmail. Com, website : themahamaya. Com

(चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु, छत्तीसगढ़, जगजीवन राम, जनहित याचिका, जयप्रकाश नारायण, पंडित जवाहर लाल नेहरू, जार्ज जिमेल, जातीयता, जातिसंहार, जादू, जॉक देरिदा, एमील लकॉं, मिरर स्टेज थियरी, ज्यॉं ल्योतर, ज्यॉं जाक रूसो, ज्यॉं पॉल सार्त्र, जिहाद, जिग्मण्ड फ्रॉयड, फ्लैपर आन्दोलन, जेरेमी बेंथम, जेंडर, जैन, हैबिटेट डायवर्सिटी, जोआन रॉबिन्सन, जोसेफ चेल्लादुरै कुमारप्पा, जोहान गॉटफ्रीड हर्डर, जॉन कैनेथ गालब्रेथ)

1- वर्ष 1989 में कलवार जाति में जन्में चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु (1889-1974) को दलित समाज में साहित्य- संस्कृति के पुन: जिज्ञासा जगाने का श्रेय दिया जाता है ।आधुनिक हिंदी दलित साहित्य के पहले प्रवर्तकों में से एक जिज्ञासु ने 1960 में दलित साहित्य को छापने वाला पहला प्रेस लगाया ।अपने लेखन और सम्बोधनों से उन्होंने दलित और पिछड़ी जातियों में नई चेतना और नई सोच को पैदा किया । उन्हें देशज भाषाओं के अतिरिक्त अरबी, फारसी और पश्तो भाषा का अच्छा ज्ञान था ।क़ुरान का उन्होंने उर्दू से हिंदी में अनुवाद किया ।

2- मध्य भारत स्थित राज्य छत्तीसगढ़ का नाम इस पूरे क्षेत्र में मौजूद छत्तीसगढ़ क़िलों या गढ़ों के आधार पर पड़ा है । दक्षिणी मध्यप्रदेश के छत्तीसगढ़ी बोलने वाले 16 ज़िलों को अलग करके इस राज्य का गठन नवम्बर, 2000 को हुआ था । 2011 की जनगणना के अनुसार यहाँ की जनसंख्या 2 करोड़, 55 लाख, 40 हज़ार, 961 है ।यहाँ की विधायिका एक सदनीय है जिसमें कुल 91 सदस्य चुने जाते हैं । लोकसभा में इस राज्य से कुल 11 और राज्य सभा में 5 सदस्य चुने जाते हैं ।यहाँ की साक्षरता दर 64.7 प्रतिशत है ।यहाँ की जनसंख्या का सिर्फ़ 20 प्रतिशत भाग ही शहरों में रहता है ।

3- बिहार के भोजपुर ज़िले के चंदवा ग्राम में 5 अप्रैल, 1908 को पैदा हुए जगजीवन राम (1908-1986) एक कुशल वक्ता, लेखक और प्रशासक थे ।उन्होंने लगातार 8 बार सांसद रहने का रिकॉर्ड बनाया ।जगजीवन राम की संत रविदास पर असीम श्रद्धा थी ।वाराणसी में राजघाट पर उन्होंने संत रविदास का विशाल मंदिर बनवाया ।उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखीं जिनमें प्रमुख हैं- भारत में जातिवाद और हरिजन समस्या तथा कास्ट चैलेंज इन इंडिया ।

4- जनहित याचिका एक ऐसी न्यायिक परिघटना है जो अदालतों तक सामान्य व्यक्तियों की पहुँच को आसान बनाती है ।जनहित याचिका के पद का प्रयोग सर्वप्रथम संयुक्त राज्य अमेरिका में किया गया ।भारत में जनहित याचिका की शुरुआत करने का श्रेय न्यायाधीश पी. एन. भगवती और वी. आर. कृष्ण अय्यर को जाता है ।न्यायालय में जो भी जनहित याचिका दायर की जाती है वह संविधान के अनुच्छेद 32 एवं 226 के अंतर्गत होती है ।जनहित याचिका को एक व्यवस्थित रूप प्रदान करने में केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) के मुक़दमे में न्यायालय द्वारा संविधान के मौलिक ढाँचे को लेकर दिए गए निर्णय की महत्वपूर्ण भूमिका रही है ।

5 – बिहार के एक गाँव सिताबदियारा में 11 अक्तूबर, 1902 को पैदा हुए जय प्रकाश नारायण (1902-1979) के विचारों और जीवन का अध्ययन किये बिना स्वातंत्र्योत्तर भारत का राजनीतिक- सामाजिक चित्र बनाना नामुमकिन है ।उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन के संघर्ष ने उन्हें जनता और कार्यकर्ताओं के बीच लोकनायक की उपाधि दिलवायी 18 वर्ष की आयु में उनका विवाह प्रभावती से हुआ।1922 में अपनी पत्नी को साबरमती आश्रम में छोड़कर जेपी उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका गए । वहाँ पर विसकोंसिन विश्वविद्यालय में अध्ययन किया ।

6- सात साल अमेरिका में रहने के बाद जेपी 27 वर्ष की उम्र में भारत लौटे ।इस बीच अपने आश्रम में रह रही प्रभावती को बापू ने ब्रम्हचर्य की शपथ दिला दी, जिसका भारत लौटने पर जेपी ने पूरा सम्मान किया ।जेपी की आत्मकथा मेरी विचार यात्रा में संग्रहीत हैं ।जेपी ने दलविहीन लोकतंत्र की अवधारणा का प्रतिपादन किया ।वह सर्वोदय आंदोलन से जुड़े रहे तथा सम्पूर्ण क्रांति का नारा दिया । जय प्रकाश नारायण का चिंतन हमेशा लोकतंत्र और राष्ट्रवाद से जुड़ी समस्याओं पर केंद्रित रहा।

7- एक कश्मीरी पंडित परिवार में 14 नवम्बर, 1889 को जन्में पंडित जवाहरलाल नेहरु (1889-1964) एक इतिहासकार, वक्ता, गांधी के घोषित उत्तराधिकारी, स्वप्न दृष्टा, बुद्धिजीवी और करिश्माई जननेता के साथ ही स्वातंत्र्योत्तर भारत की सबसे अहम हस्ती थे ।अपने 45 साल के लम्बे सार्वजनिक जीवन में नेहरू ने राष्ट्रीय जीवन को कितनी गहराई से प्रभावित किया इसका अंदाज़ा इस बात से लग सकता है कि उनके व्यक्तित्व व कृतित्व के बारे में बहस आज तक ख़त्म नहीं हुई है ।न उनके प्रशंसकों की कमी है और न आलोचकों की ।

8- नेहरू के चिंतन के मुख्य तत्वों में राष्ट्रीय अखंडता, संसदीय लोकतंत्र, उद्योगीकरण, समाजवाद, वैज्ञानिक मानस, सेकुलरवाद और गुट निरपेक्षता प्रमुख थे ।उनकी विख्यात रचना डिस्कवरी ऑफ इंडिया भारत की प्रतिनिधि पुस्तक है ।नेताओं की जिस तिकड़ी के ज़रिए कांग्रेस पर गांधी का हुक्म चलता था, उसमें बल्लभ भाई पटेल और राजेंद्र प्रसाद के साथ नेहरू भी शामिल थे ।बेटी इंदिरा गांधी को लिखे पत्रों का संकलन जिस महत्वपूर्ण पुस्तक में है वह विश्व इतिहास की झलक है ।

9- प्रसिद्ध जर्मन समाजशास्त्री तथा दार्शनिक जॉर्ज जिमेल (1858-1918) को नव कांटवादी दार्शनिक चिंतन और औपचारिक समाजशास्त्र के विकास के लिए जाना जाता है ।उनकी गणना समाजशास्त्र के सबसे आरम्भिक संस्थापकों में भी होती है ।समाजशास्त्र में प्रत्यक्षवाद विरोधी चिंतन की स्थापना के लिए विशेष तौर पर याद किया जाता है ।जिमेल की प्रमुख पुस्तकें हैं : द प्रॉब्लम्स ऑफ दि फिलॉसफी ऑफ हिस्ट्री (1892), द फिलॉसफी ऑफ मनी (1907), द मैट्रोपोलिस एंड मेंटल लॉइफ (1903).

10जॉर्ज जिमेल का कहना है कि समाज की एकता किसी बाह्य प्रेक्षक पर निर्भर नहीं करती बल्कि समाज की एकता समाज के सभी सदस्यों की सक्रिय सहभागिता से ही सम्भव होती है ।उन्होंने प्राधिकार और आज्ञाकारिता की समस्या पर विशेष तौर पर ध्यान दिया ।जिमेल ने अपने चिंतन से फ़्रैंकफ़र्ट स्कूल के थियोडोर एडोर्नो तथा मैक्स हॉर्कहेमर आदि को भी काफ़ी प्रभावित किया ।जिमेल ने गोपनीयता के अध्ययन में भी विशेष योगदान दिया ।

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11जातीयता या एथ्निसिटी शब्द की व्युत्पत्ति यूनानी भाषा के शब्द एथ्नॉस से हुई है ।एथ्नॉस का स्रोत एथ्निकॉस में निहित है जिसका अर्थ होता है नेशन या राष्ट्र ।इसलिए जातीयता अक्सर राष्ट्रत्व का आधार बन जाती है ।राष्ट्रीयता के आधार पर सांस्कृतिक सीमाएँ तय होती हैं और उन सीमाओं को प्रतिमान मान कर हम और वे या अपने और पराए का फ़ैसला होता है ।विद्वानों ने दुनिया में जातीय समूहों को मुख्य तौर पर चार श्रेणियों में बाँटा है : शहरी जातीय अल्पसंख्यक, देशज समूह, जातीय राष्ट्रवादी आन्दोलन और बहुलता मूलक समाजों के जातीय समूह ।

12जातिसंहार यूनानी भाषा के शब्द जीनो (नस्ल या कबीला) और लैटिन भाषा के शब्द साइड (हत्या करना) से मिलकर बने इस शब्द का मतलब है किसी जातीय, प्रजातीय, धार्मिक या राष्ट्रीय समुदाय के सभी या अधिकतर सदस्यों का योजनाबद्ध संहार करना ।पोलिश- यहूदी विद्वान राफाएल लेमकिन ने इस पद की रचना की थी ।प्रथम विश्व युद्ध के दौरान तुर्की की ओटोमन हुकूमत द्वारा अपनी ईसाई आबादी के संहार को देखकर लेमकिन ने इस दिशा में सोचना शुरू किया था ।वर्ष 1944 में कारनेगी इण्डाउमेंट फ़ॉर इंटरनेशनल पीस ने लेमकिन की रचना एक्सिस रूल इन ऑक्यूपाइड युरोप’ का अमेरिका में प्रकाशन किया ।

13- संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन द्वारा परिभाषित की गई जीनोसाइड की पाँच श्रेणियाँ हैं : किसी समुदाय के सदस्यों की हत्या करना, किसी समुदाय के सदस्यों को गम्भीर क़िस्म की दैहिक या मानसिक हानि पहुँचाना, किसी समुदाय को जान बूझ कर कुछ ऐसी जीवन स्थितियों के मातहत कर देना जिसके कारण उसका पूरा या आंशिक नाश हो जाए, किसी समुदाय में नई पीढ़ी के जन्म को रोक देना और किसी समुदाय के बच्चों को जबरिया दूसरे समुदाय में भेज देना ।बीसवीं सदी के आख़िरी वर्षों में जीनोसाइड की परिस्थितियाँ बनाने वाली कार्रवाइयों को एक नया नाम भी मिला है : एथ्निक क्लीनजिंग ।

14– प्रचलित और सामान्य अर्थ में जादू एक ऐसा अनुष्ठान या कर्मकांड है जिसके पीछे यह विश्वास होता है कि वह शब्द और कर्म के ज़रिए इच्छित की पूर्ति कर सकता है ।टेलर और फ्रेजर की दृष्टि में जादू विश्व या अस्तित्व बोध की छलपूर्ण व्यवस्था है जिसे सामान्यतः प्रगति की आदिम अवस्था के साथ जोड़कर देखते हैं ।उन्होंने मानव प्रगति को तीन चरणों जादू, धर्म और विज्ञान में बाँटा है । फ़्रेज़र अंत में घोषणा करते हैं कि जादू विज्ञान की एक अवैध बहन है । रूडोल्फ़ ऑटो तथा मर्चिया ऐलियाडे जैसे विद्वान जादू को धर्म के संदर्भ में रखकर देखते हैं ।

15प्रतीकवादी मानवशास्त्रियों जैसे बैटी, विक्टर टर्नर तथा क्लिफ़र्ड गीट्ज आदि का मानना है कि जादू में निहित ज्ञान की दावेदारी को सत्य या असत्य की कसौटी पर न कसकर उसे एक प्रतीक व्यवस्था के तौर पर देखा जाना चाहिए क्योंकि वह मनुष्य के अवचेतन के स्तर पर सामूहिक मूल्यों, सामाजिक टकरावों तथा अस्तित्व की समस्याओं को ज्ञापित करता है ।मानवशास्त्री विल्हेम श्मिट जादू को मानव विकास का प्रारम्भिक क्षण न मानकर उसे मनुष्यता के एकदेववाद के पतन की परिघटना मानते हैं । लेवी स्त्रॉस जादू को मिथक और अनुष्ठान के साथ रखकर देखते हैं ।

16- अल्जीरिया की राजधानी अल्जीरियर्स के उपनगर एल- बेयर में एक यहूदी परिवार में जन्में जाक देरिदा (1930-2004) विखंडनवाद के प्रतिपादक माने जाते हैं ।साठ के दशक के आख़िरी दौर और सत्तर के दशक के एक मौलिक विचारक के रूप में देरिदा की ख्याति ऑफ ग्रैमैटोलॉजी (1967), राइटिंग एंड डिफ़रेंस (1967) और मार्जिंस ऑफ फिलॉसफी (1972) जैसी रचनाओं के आधार पर बननी शुरू हुई ।देरिदा के लिए विखंडनवाद दरअसल किसी पाठ को पढ़ने की एक विशिष्ट पद्धति थी जिसके तहत वे उस पाठ में मौजूद परस्पर विपरीत द्विभाजनों के परे जाकर तात्पर्य निरूपण करने का आग्रह करते थे ।

17– पेरिस में 13 अप्रैल, 1901 को जन्में विख्यात फ़्रांसीसी मनोविश्लेषक और संरचनावादी चिंतक जाक मारी एमील लकॉं (1901-1981) के विचारों और सूत्रीकरणों ने सारी दुनिया में लेखकों, साहित्यालोचकों, सिनेमा के सिद्धांतकारों, नारीवादियों, दार्शनिकों, मानवशास्त्रियों और इतिहासकारों के सोच- विचार पर गहरा असर डाला है ।लकॉं को मिरर स्टेज थियरी के लिए विशेष रूप से जाना जाता है ।जिसके आधार पर उन्होंने शिशु अवस्था में पड़ने वाली व्यक्ति की अस्मिता की नींव पर प्रकाश डाला है ।

18- लकॉं की मिरर स्टेज थियरी छ: महीने से डेढ़ साल के शिशु पर अपना ध्यान केंद्रित करती है ।इस उम्र में पहुँच कर शिशु ख़ुद को आइने में देखकर पहचाना शुरू करते हैं ।बच्चा जब दर्पण में ख़ुद को देखता है तो उसे लगता है कि वह अपने बिम्ब के रूप में किसी अन्य को देख रहा है ।छवि को अन्य समझते ही उसे अपने और दूसरे के बीच फ़र्क़ करना आता है ।मिरर इमेज व्यक्ति के अहं को विकसित करने के लिए अनिवार्य है, पर साथ में वह एक विभाजन की नुमाइंदगी भी करती है जिसके तहत कर्ता अपनी अस्मिता के लिए हमेशा एक अन्य पर, एक दर्पण पर निर्भर हो जाता है ।

19एमील लकॉं का कहना है कि मॉं बच्चे के लिए सम्पूर्ण आनन्द का स्रोत है ।इसे वे जूसेंस का नाम देते हैं, जबकि पिता सांकेतिक है जिसके सानिध्य के कारण बच्चा जूसेंस से वंचित हो जाता है ।यह वंचन ही उसके भीतर यौन कामना की सृष्टि करता है ।बच्चे के लिए माँ की दुनिया यानी एक सम्पूर्ण जगत और पिता की दुनिया यानी भाषा द्वारा संचालित- नियंत्रित सांकेतिक जगत, जहां पहुँच कर कर्ता विभाजित महसूस करता है ।लकॉं के अनुसार मिरर इमेज और भाषा का सांकेतिक दायरा ही समाज में कर्ता के रूप में व्यक्ति की अस्मिता का आधार है ।

20- फ़्रांस के शहर वरसाई में जन्में ज्यॉं- फ्रांस्वा ल्योतर (1925-1998) उत्तर आधुनिकतावाद को एक प्रभावशाली वैचारिक आंदोलन में बदल देने वाले फ़्रांसीसी दार्शनिक और उत्तर संरचनावादी चिंतक किसी भी तरह के महा – आख्यान, महा- विचार और महा सिद्धांत को गहराई से प्रश्नांकित करने के लिए जाने जाते हैं ।1979 में ल्योतर की रचना पोस्टमॉडर्न कंडीशन : अ रिपोर्ट ऑन नॉलेज का फ़्रांसीसी भाषा में प्रकाशन होते ही महा- आख्यानों के प्रति अविश्वास एक प्रमुख वैचारिक फिकरा बन गया ।

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21- 1974 में ल्योतर की रचना लिबिडनल इकॉनमी का प्रकाशन हुआ ।इस पुस्तक में उन्होंने अवॉंगार्द कलॉ की फितनागीरी का विश्लेषण किया ।लिबिडनल इकॉनमी जैसे पद का इस्तेमाल उन्होंने मनुष्य के भीतर सक्रिय उन विविध प्रेरणाओं और चालक शक्तियों के लिए किया जो तर्क और बुद्धि के मुताबिक़ चलने में रूकावट डालती हैं ।1984 में उनकी रचना द डिफरेंड प्रकाशित हुई ।1993 में उनके निबंधों का संग्रह द ड्राइब्ज एंड देयर एपरेटसिस का प्रकाशन हुआ ।

22- फ़्रांसीसी नवजागरण के प्रमुख विचारक, उपन्यासकार, संगीतशास्त्री, गीत- नाट्यकार और शिक्षाशास्त्री ज्यॉं- जाक रूसो (1712-1778) का कृतित्व आधुनिक राजनीतिक विचारधारा में केन्द्रीय महत्व रखता है ।यह रूसो के विमर्शों का ही प्रताप था कि अठारहवीं सदी में लोकतंत्र का सिद्धांत पहली बार आम जनता और भीड़तंत्र के भय से मुक्त हुआ ।रूसो की मृत्यु के 16 साल बाद 1789 की महान फ़्रांसीसी क्रांति के मुख्य प्रणेता के तौर पर उन्हें फ़्रांस के राष्ट्रीय नायक का दर्जा प्रदान किया गया ।वह प्रत्यक्ष लोकतंत्र के समर्थक थे ।

231750 में प्रकाशित अ डिस्कोर्स ऑन द आर्ट्स ऐंड साइंसेज़ का लेखन रूसो ने एक निबंध प्रतियोगिता जीतने के लिए किया था ।इसमें रूसो ने यह कहकर सबको चौंका दिया कि जिन उपलब्धियों को सभ्यता का विकास समझा जा रहा है वे बुद्धि और मानवीय सुख का प्रतिनिधित्व करने के बजाय इंसानों को भृष्ट, बेईमान और दुःखी बना रही हैं ।रूसो की दूसरी रचना सोशल कांट्रैक्ट भ्रष्टाचार से मुक्त समाज बनाने की तजवीज़ करती है ।इसकी पहली पंक्ति हर जगह विख्यात हो चुकी है : मनुष्य स्वतंत्र पैदा होता है, पर हर जगह वह ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ है

24- 1755 में प्रकाशित अपनी पुस्तक अ डिस्कोर्स ऑन द ओरिजिन ऑफ इनईक्वलिटी में रूसो ने मनुष्य की प्रकृति अवस्था की व्याख्या करते हुए दावा किया कि अपने प्राकृतिक रूप में मनुष्य लाज़मी तौर पर बुद्धिसंगत और सामाजिक न होकर अलग अलग सक्रिय रहने वाला प्राणी था ।निजी सम्पत्ति की शुरुआत के साथ शोषण, विषमता और सभी तरह की बुराइयों का आगमन हुआ ।चूँकि मनुष्य अपनी प्रकृत अवस्था में लौट नहीं सकता इसलिए उसे एक दूसरे से मिलकर संगठन बनाना होगा तथा सामाजिक अस्तित्व रचना होगा ।इसके लिए रूसो ने सामान्य इच्छा का सिद्धांत दिया ।

25- रूसो के विचारों की आलोचना भी हुई है ।कॉर्ल पॉपर ने रूसो के विचारों को राष्ट्रवाद के नाम पर किए जाने वाले अनाचारों से जोड़ा है ।जे. एल. टालमन ने जन इच्छा की अस्पष्टता के हवाले से रूसो पर यह आरोप लगाया है कि वे आधुनिक लोकतंत्र के पितामह होने के बजाय आधुनिक अधिनायकवाद के पितामह हैं ।एडमंड बर्क ने रूसो के विचारों की आलोचना करते हुए कहा कि सांस्कृतिक- बौद्धिक उपलब्धियों को ख़ारिज करने का रूसो का निर्णय उनकी अपनी बौद्धिक हेकड़ी और नैतिक विफलता का द्योतक था ।

26- विख्यात अस्तित्ववादी दार्शनिक और फ़्रेंच नाटककार, उपन्यासकार और साहित्यालोचक ज्यॉं – पॉल सार्त्र (1905-1980) की शख़्सियत राजनीतिक रूप से प्रतिबद्ध आधुनिक बुद्धिजीवी का बेहतरीन नमूना पेश करती है । केवल तीन साल की उम्र में उनकी दायीं ऑंख की रौशनी चली गयी । 18 महीने की आयु में उनके पिता का देहान्त हो गया । उन्होंने 1964 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार स्वीकार करने से यह कह कर इंकार कर दिया था कि यह तो सडे हुए आलुओं का एक बोरा भर है । यह पुरस्कार उन्हें उनकी आत्मकथा शब्द के लिए दिया जा रहा था । वह बहुत लोकप्रिय व्यक्तित्व थे ।उनकी शव यात्रा में 50 हज़ार से ज़्यादा लोग जमा हुए थे ।सार्त्र ने अपनी एक आँख बचपन में ही खो दी थी ।जीवन के आख़िरी वर्षों में वे तक़रीबन पूरी तरह से अंधे हो गए थे लेकिन फिर भी टेप रिकार्डिंग के ज़रिए उन्होंने अपना लेखन जारी रखा ।

27- अपने अस्तित्ववादी चिंतन को सार्त्र ने अपनी कृति बीईंग ऐंड नथिंगनेस : ए फिनोमेनोलॉजिकल ओंटोलॉजी (1943) में प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि अस्तित्व आकारहीन होता है और इसका कोई सार नहीं होता है ।व्यक्ति ख़ुद को आकस्मिकताओं की अराजकता के बीच पाता है और उसका मार्गदर्शन करने के लिए कोई वस्तुनिष्ठ नैतिक नियम नहीं होते हैं ।इसी तरह पहले से अस्तित्वमान कोई मानवीय प्रकृति भी नहीं होती जो जीवन को दिशा दे सके ।ऐसी स्थिति में दर्शन का काम हमें दुनिया जिस तरीक़े से महसूस होती है उसे स्पष्ट करना होता है ।

28– सार्त्र के अनुसार अस्तित्ववादी चिंतन का सबसे गहनतम पहलू आशंका, बेमतलब होने की की भावना, दूसरे के डर और मौत के प्रति जागरूकता के विश्लेषण से सम्बंधित है ।ज़िंदगी नथिंगनेस के साथ जुड़ी हुई है ।राजनीति के बारे में उनका प्रमुख सैद्धान्तिक काम द क्रिटीक ऑफ डायलेक्टिकल रीजन है ।इसके ज़रिए उन्होंने अस्तित्ववाद और मार्क्सवाद को मिलाने की कोशिश की ।सार्त्र ने सीरीज़ और ग्रुप- इन- फ्यूजन में रहने वाले व्यक्तियों के बीच फ़र्क़ किया है ।सीरीज़ से उनका तात्पर्य रोज़मर्रा की ऐसी ज़िंदगी से है जिसमें कोई मक़सद या इच्छा शामिल नहीं होती जबकि ग्रुप- इन- फ्यूजन का तात्पर्य उद्देश्यपरक क्रांतिकारी समूहों से है ।

28-A- अस्तित्ववाद की एक धारा ईसाई अस्तित्ववाद की ओर ले जाती है । एक वैज्ञानिक अस्तित्व वाद था । पर सार्त्र का अस्तित्व वाद इन सबसे अलग था ।वह पदार्थ के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार करते हुए भी चेतना की स्वतंत्रता को महत्व देता था और जो साथ ही ईश्वर या ऐसी किसी भी परम् सत्ता का निषेध करता था । उनके अस्तित्व वाद का अर्थ था अपने होने की सार्थकता की खोज और इस दिशा में व्यक्ति की अपनी ज़िम्मेदारी । सार्त्र निरीश्वर वादी थे । वे कहते थे कि इस परम्परागत अवधारणा को पूरी तरह से त्याग दिया जाना चाहिए कि मनुष्य के व्यक्तित्व का ढाँचा किसी दैवी शक्ति ने रचा है । सार्त्र का प्रसिद्ध वाक्य है : “मनुष्य का अस्तित्व उसके सार तत्व से पहले है । मनुष्य उस सबका जोड़ नहीं है जो वह है, बल्कि उस सबका जोड़ है जो वह अभी नहीं है लेकिन जो वह हो सकता है ।” (बीइंग एंड नथिंगनेस से)

28-B- ज्यॉं पॉल सार्त्र ने अपने अस्तित्व वाद में मुख्य रूप से तीन बातों का ज़िक्र किया है : ज़िम्मेदारी, आत्मप्रवंचना और नैराश्य । सार्त्र कहते हैं कि एक समग्र ज़िम्मेदारी में जीवन के प्रति गहरी सजगता का भाव छिपा हुआ है । लेकिन हम चुनने से बचना चाहते हैं, उसे टालना चाहते हैं । हम हमेशा एक आत्मप्रवंचना की ज़िंदगी जीना चाहते हैं, क्योंकि वह एक आसान रास्ता है । लेकिन अपनी निजी स्वतंत्रता को हासिल करने के लिए तमाम तरह की आत्मप्रवंचना से बाहर निकलना होता है । इसलिए चुनने का रास्ता अनंत सम्भावनाओं का है लेकिन साथ ही अत्यंत कष्ट और विषाद का भी रास्ता है । उनकी पुस्तक बीइंग एंड नथिंगनेस में व्यक्ति की अबाधित स्वतंत्रता की चर्चा उसकी अस्तित्व मीमांसा की अमूर्तता में क़ैद थी । वहाँ मनुष्य के एकाकीपन का वैभव था और अन्य को नरक कहा गया था, ‘अदर्स आर हेल’

28-C- ज्यॉं पॉल सार्त्र ने कहा है कि मनुष्य की स्वतंत्रता की शर्तें आध्यात्मिक स्तर पर नहीं बल्कि व्यावहारिक स्तर पर तय होती हैं । वह इस बात पर ज़ोर देते थे कि व्यक्ति को तमाम तरह के संस्थागत दबावों, पूर्व निर्धारित शर्तों और समझौतों से मुक्त रहना चाहिए । अपनी सबसे सघन सामाजिक और राजनीतिक प्रतिबद्धताओं में भी उसे संस्थानों की जकडबंदी और उनके दबावों से बाहर रहना चाहिए । एक लेखक जो राजनीतिक, सामाजिक और साहित्यिक मुद्दों पर पोज़ीशन लेता है उसे केवल अपने लिखित शब्द पर निर्भर रहना चाहिए । उसे मिलने वाला कोई भी सम्मान पाठक पर उसके प्रति एक दबाव पैदा करता है जो मैं समझता हूँ कि अनुचित है । एक लेखक को स्वयं को किसी भी संस्थान में रूपांतरित हो जाने से इंकार करना चाहिए । सबसे ज़्यादा सम्मानजनक स्थितियों में भी उसे यह इंकार करना चाहिए ।

28-D- ज्यॉं पॉल सार्त्र के लिए ज़िंदगी एक किताब थी । पुस्तकालय उनके लिए मंदिर के समान था । सार्त्र कहते हैं, “किताबें मेरी चिड़िया थीं, मेरे घोंसले थे, पालतू जानवर थे, वही मेरा अस्तबल और प्राकृतिक प्रदेश थे, लाइब्रेरी आइने में बंद एक दुनिया थी, उसका विस्तार असीमित था… मेरी सारी दुनिया किताबों से घिरी थी । किताबें मेरा पता- ठिकाना थीं ।” सार्त्र कहते हैं, “मेरी मृत्यु मुझे मेरे जन्म की ओर उत्तेजित करती थी- मेरा जन्म मुझे मृत्यु की ओर धकेलता था । पहले मुझे सिर्फ़ आश्चर्य पसंद थे । धीरे-धीरे मैं इससे मुक्त हुआ ।” सार्त्र मानते थे कि साहित्य किसी भी अर्थ में पलायन नहीं है बल्कि मुठभेड़, हस्तक्षेप या प्रत्याख्यान है । वह हमेशा कहते थे कि एक लेखक के लिए शब्द भरी हुई बंदूक़ है । अगर वह बोलता है तो बंदूक़ दागता है ।

28-E- ज्यॉं पॉल सार्त्र कहते हैं कि विचार संघर्ष की प्रक्रिया में ही उपजते हैं । वर्ना दिमाग़ी काहिली तक सीमित रहते हैं । आदमी की अंतिम मुक्ति सर्वहारा की मुक्ति में है । वह साफ़ शब्दों में कहा करते थे कि बुर्जुवाओं के प्रति घृणा मेरे साथ ही मरेगी । अगर एक लिखित वाक्य मनुष्य और समाज को पूरी तरह से झकझोर न दे तो उसकी क्या सार्थकता है ? सार्त्र के लिए जो सब कुछ है, वही सुंदर है । सार्त्र के शब्द हैं, “हर अस्तित्वधारी चीज अकारण पैदा होती है, कमजोरी बनकर चिपटी रहती है और सुविधानुसार मर जाती है ।” हुसैर्ल की धारणा- वस्तुओं की ओर लौटो, सार्त्र को प्रभावित करती थी । सार्त्र के निधन पर अल्युसर ने कहा था कि, “सार्त्र हमारे लिए वही थे, जो हमारे लिए रूसो । सत्ता से विद्रोह जिसकी ख़ासियत थी ।”

28-F- ज्यॉं पॉल सार्त्र ने फ्रांज फैनन की पुस्तक “The Wretched of the World” की भूमिका लिखा । उस समय अल्जीरिया अपनी स्वतंत्रता संघर्ष के अंतिम चरण में था । फैनन अल्जीरिया की अंतरिम सरकार के अधिकारी थे । 72 वर्ष तक आते आते उनकी दूसरी ऑंख भी हेमरेज के कारण ख़राब हो गई थी । दिनांक 15 अप्रैल, 1980 को रात 9 बजे ब्रोसाई के एक अस्पताल में इलाज के दौरान उनका निधन हो गया । रोनाल्ड ब्रेख़्त ने कहा है कि सार्त्र को इक्कीसवीं सदी में दुबारा खोजा जाएगा । समाजवाद और स्वतंत्रता उनके चिंतन के केन्द्र में रहे । वह जीवन भर पूरे प्राणप्रण से दर्शन, जीवन, साहित्य तथा राजनीति सब को एक सूत्र में पिरोकर ऐसे समाज के निर्माण का स्वप्न देख रहे थे जिसमें कम से कम त्रुटियाँ हों तथा सामान्य जीवन कम असुविधाजनक हो ।

29जिहाद शब्द अरबी भाषा के शब्द जुअहद से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ है लगातार प्रयास करना, संघर्ष करना और मेहनत करना । क़ुरान शरीफ़ में जिहाद को मुसलमानों के लिए धार्मिक कर्तव्य बताया गया है ।इसका लक्ष्य पूरी दुनिया में लोगों को ख़ुदा के क़ानून की अधीनता में लाना है । जिहाद करने वाले व्यक्ति को मुजाहिद कहा जाता है । इस्लाम के 5 प्रमुख आधारभूत सिद्धांतों अल्लाह, नमाज़, रोजा, हज और ज़कात के बाद जिहाद को इस्लाम का छठां स्तम्भ माना जाता है ।

30– इस्लामिक विद्वानों के द्वारा जिहाद के दो प्रकार बताए गए हैं ।पहला जिहाद- अल अकबर या बड़ा जिहाद तथा दूसरा जिहाद- अल असग़र या छोटा जिहाद ।जिहाद -अल -अकबर स्व सुधार से सम्बंधित है, जिसमें व्यक्ति अपने नकारात्मक सोच, इच्छाओं और क्रिया कलापों को दबाता है ।जब मुसलमानों को उनके धार्मिक कर्तव्यों के पालन में बाधा पहुँचाई जाती है, उन पर अत्याचार किए जाते हैं तब इन ज़्यादतियों को रोकने की कोशिश करना जिहाद- अल- असगर है ।वस्तुतः अच्छे कर्म करते हुए बुरे कर्मों से दूर रहना कर्म द्वारा जिहाद है ।

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31– बीसवीं शताब्दी में मनोविज्ञान, मानवशास्त्र, अर्थ विज्ञान, सेक्शुअलिटी- अध्ययन, नारीवाद और कला सम्बन्धी चिंतन को गहराई से प्रभावित करने वाले जिग्मण्ड स्कोमो फ्रॉयड (1856-1939) को मनोविश्लेषण के पितामह माना जाता है ।डाक्टर ऑफ मेडिसिन और न्यूरोपैथोलॉजी के प्रोफ़ेसर फ्रॉयड द्वारा ईजाद मनोविश्लेषण न सिर्फ़ मनोवैज्ञानिक समस्याओं के समाधान की एक नैदानिकी साबित हुई बल्कि उसने इंसान के व्यक्तित्व और व्यवहार को उसकी गहनतम प्रेरणाओं की रोशनी में देखने का रास्ता खोला ।

32– फ्रॉयड ने सेक्शुअलिटी को शैशवकाल से जोड़ा और इस संदर्भ में विकसित ईडिस ग्रन्थि का सूत्रीकरण किया ।फ्रॉयड के मुताबिक़ यौनेच्छा वह मूलभूत कारक है जो सभी प्रकार की संलिप्तताओं, जीवन, मृत्यु बोध और मनोभावों का मूल है ।फ्रॉयड के मनोविश्लेषण के गर्भ से धर्म और संस्कृति की नई व्याख्याएं सामने आयीं ।उनकी साहकार रचना इंटरप्रिटेशन ऑफ ड्रीम्स (1900) उस मानसिक कष्ट का परिणाम थी जो उन्हें अपने पिता की मृत्यु के कारण झेलना पड़ा था ।

33जिग्मण्ड फ्रॉयड की 1901 में प्रकाशित रचना साइकोपैथी ऑफ एवरीडे लाइफ़ थी ।1905 में उनकी रचना थ्री एसेज ऑन द थियरी ऑफ सेक्शुअलिटी सामने आई ।1916 में फॉइव लेक्चर्स ऑन साइकोएनालिसिस का प्रकाशन हुआ ।1923 में फ्रॉयड ने द ईगो एंड द इड की रचना की ।फ्रॉयड पर ब्रेनटनो द्वारा प्रतिपादित संज्ञान (परसेप्शन)और अंतर्ज्ञान (इंट्रॉस्पेक्शन ) सम्बन्धी सिद्धांतों का और थियोडोर लिप्स के अचेतन मस्तिष्क (अनकांशस माइंड) तथा अनुभूति (इम्पैथी) की अवधारणाओं का प्रभाव पड़ा ।

34– फ्रॉयड के चिंतन पर चार्ल्स डार्विन की अवधारणाओं का भी ज़बरदस्त असर था ।दरअसल डार्विन की रचना ओरिजिंस ऑफ स्पीशीज से पहले मनुष्य को एक नश्वर आत्मा के स्वामी के तौर पर देखा जाता था ।यह बौद्धिक रवैया मनुष्य की जाँच पड़ताल में बाधक था ।डार्विन ने जब मनुष्य के क्रम विकास का उद्घाटन किया तो उसे प्राकृतिक जगत के एक ऐसे सदस्य के रूप में देखने का चलन बढ़ा जो अन्य जीवों से केवल संरचनात्मक रूप से भिन्न था ।इस विचार ने मनुष्य को वैज्ञानिक खोजबीन का विषय बना दिया ।

35– फ्रॉयड ने पहले -पहल अवचेतन की चर्चा दमन की अवधारणा के सन्दर्भ में की थी ।वे सम्मोहन के ज़रिए हिस्टीरिया के मरीज़ के मस्तिष्क में उन भावों को डालकर उनका इलाज करते थे जिनके प्रति मरीज़ चेतन रूप से जागरूक नहीं होता है ।उन्होंने यह भी कहा कि अवचेतन का क्षेत्र चेतन मस्तिष्क में ही होता है ।उनके मुताबिक़ मानस के तीन भाग होते हैं- इड, इगो और सुपर इगो ।इड अवचेतन का संवेग है और यह विशुद्ध रूप से आनन्द के सिद्धांत पर काम करता है ।इगो, इड के सामाजिक रूप से अस्वीकार्य व्यवहार को रोकता है और संवेगों और इच्छाओं को दबाता है ।सुपर इगो का तात्पर्य सामाजिक, नैतिक और मान्यताओं से है जो मानस का अंग बन चुकी है ।

36- फ्रॉयड ने 1902 में वेडनेस डे साइकोलॉजिकल सोसाइटी की शुरुआत की ।इसे ही वैश्विक मनोविश्लेषण आन्दोलन का आरम्भ माना जाता है ।1908 में इसका नाम वियना साइकोएनालिटिकल सोसाइटी हो गया ।इसी साल फ्रॉयड के अनुयायियों की एक औपचारिक बैठक साल्जबर्ग में आरम्भ हुई, जिसे प्रथम अंतर्राष्ट्रीय मनोविश्लेषण कांग्रेस का नाम दिया गया ।1910 की न्यूरेमबर्ग कांग्रेस में इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ साइकोएनालिस्ट्स की शुरुआत हुई ।

37फ्लैपर आन्दोलन वह आन्दोलन है जो दुनिया में वैकल्पिक जीवन शैली के उद्गम से जुड़ा हुआ है ।बीस के दशक से प्रारम्भ हुए इस आंदोलन से प्रभावित होकर महिलाओं ने अपने बालों को कटवाया और छोटे प्रकार के स्कर्ट पहनने की शुरुआत की ।इसी के बाद से स्त्रियों के विवाह पूर्व सम्बन्धों और नृत्य आदि का चलन होने लगा ।आधुनिकीकरण के अधिक बोलबाले वाले पश्चिमी देशों में यह नयी फ्लैपर जीवन शैली अधिक लोकप्रिय हुई है ।

38– आधुनिक राजनीतिक चिंतन के विकास में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले ब्रिटिश उपयोगितावादी दार्शनिक, न्यायविद् और सुधारक जेरेमी बेन्थम (1748-1832) ने जिस उपयोगितावादी दर्शन की स्थापना की उसे क्लॉसिकल उपयोगितावाद भी कहा जाता है ।उनके सूत्रीकरणों ने दार्शनिक रैडिकलिज्म के आधार का काम किया ।ब्रिटेन के विक्टोरियन दौर में हुए सुधारों पर बेंथम की छाप थी ।बेंथम ने पनोप्टिकॉन योजना के माध्यम से कारागार का एक मॉडल भी पेश किया ।

39 बेंथम के योगदान को जॉन ऑस्टिन के माध्यम से न्याय- शास्त्र के दायरे में, जेम्स मिल के माध्यम से लोकतांत्रिक सिद्धांत में और जॉन स्टुअर्ट मिल के माध्यम से उपयोगितावादी सिद्धांत में पढ़ा जाता रहा है ।बेंथम की दिलचस्पी सुख की गुणवत्ता में नहीं बल्कि मात्रा में थी ।उनकी सबसे महत्वपूर्ण कृति एन इंट्रोडक्शन टू द प्रिंसिपल्स ऑफ मॉरल्स एंड लेजिस्लेशन 1780 में प्रकाशित हुई ।यह पुस्तक दण्ड विधि, ख़ासतौर पर अपराध और सजा के विश्लेषण पर आधारित है ।उन्होंने फ़्रांस की न्यायिक व्यवस्था में सुधार प्रस्तावित करने वाली एक पुस्तक ड्रॉफ्ट ऑफ न्यू प्लैन फ़ॉर द ऑर्गनाइज़ेशन ऑफ द ज्यूडिशियल इस्टैब्लिशमेंट ऑफ फ़्रांस की भी रचना की ।

40जेंडर की अवधारणा नारीवादी आन्दोलन की देन है जिसकी मूल मान्यता है कि स्त्री- पुरूष की सामाजिक असमानता का कारण केवल जैविक भिन्नता ही नहीं है बल्कि जैविक भिन्नता के दैहिक और मानसिक प्रभावों को बढ़ा- चढ़ा कर पेश करना एक हथकंडा है जिसके सहारे पितृसत्ता क़ायम रखी जाती है और स्त्रियों को समझा दिया जाता है कि उन्हें प्रकृति ने घरेलू भूमिकाओं के लिए ही बनाया है ।1975 में गेल रूबिन ने अपने क्लासिकल आलेख में सेक्स को प्राकृतिक और इसलिए अपरिवर्तनीय तथा जेंडर को परिवर्तनीय मानते हुए सेक्स जेंडर की अवधारणा प्रस्तुत की ।

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41– वर्ष 1972 में प्रकाशित एन. ओकली की विख्यात रचना सेक्स, जेंडर एंड सोसाइटी ने नारीवाद के लिए जेंडर को एक सामाजिक गढंत के तौर पर देखने की बौद्धिक शुरुआत की ।सिमोन द बोउवार ने 1949 में ही “स्त्री जन्म नहीं लेती, बल्कि बनती या बना दी जाती है” की स्थापना देकर जेंडर के सिद्धांतीकरण की भूमिका तैयार कर दी थी ।सुलामिथ फायरस्टोन ने अपनी पुस्तक डायलेक्टिक ऑफ सेक्स में लिखा कि अगर स्त्री को आधुनिक प्रौद्योगिकी की मदद से प्रजनन की ज़िम्मेदारी से मुक्त कर दिया जाए तो स्त्री मुक्ति का रास्ता खुल सकता है ।

42जैन शब्द की उत्पत्ति जिन से हुई है जिसका अर्थ होता है- जिसने राग- द्वेष पर विजय प्राप्त कर ली हो ।ऐसे विजयी लोगों के अनुयायियों को जैन कहा जाता है और ऐसे विजय प्राप्त मुक्त पुरूषों को वीतरागी कहा जाता है । जैन धर्म को पूजनीय कहे जाने की वजह से इसे आहंदुर्भ की संज्ञा दी जाती है । जैन धर्म को निग्रंथ कहे जाने के पीछे कारण यह है कि जैन साधु कोई सम्पत्ति नहीं रखते कि वे गॉंठ बांध सकें ।जैन धर्म वस्तुवादी, बहुसत्तावादी और अनीश्वरवादी है । जैन धर्म में तीर्थंकरों को वही स्थान प्राप्त है जो दूसरी जगहों पर भगवान को ।

43- हैबिटेट डायवर्सिटी जैव विविधता की वह धारणा है जो उन स्थानों से ताल्लुक़ रखती है जहां विभिन्न जीवन रूपों का वास है ।जैसे, मूँगे के द्वीप, अमेरिका के उत्तर- पश्चिम प्रशांत इलाक़े का वन क्षेत्र, ऊँची घास से आच्छादित मैदान, नमी से भरे हुए तटीय इलाक़े और ऐसे ही कई और स्थान ।इस तरह के सभी क्षेत्रों में असंख्य प्रजातियाँ रहती हैं और उनका जीवन उनके इस प्राकृतिक वास पर पूरी तरह से निर्भर है ।अगर यह इलाक़े नहीं रहे तो इनके साथ वे प्रजातियाँ भी ख़त्म हो जाएँगी ।

44– ब्रिटिश चिंतक जोआन रॉबिन्सन (1903-1983) उत्तर कींसियन अर्थशास्त्र के संस्थापकों में से एक मानी जाती हैं ।उन्होंने अपना कैरियर आदर्श प्रतियोगिता और एकाधिकार के बीच स्थित बाज़ार के रूपों की गहरी पड़ताल करने से शुरू किया ।राबिन्सन द्वारा किए गए अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के सूत्रीकरणों ने अर्थशास्त्रियों को यह समझने में मदद किया कि अर्थव्यवस्थाओं का वास्तविक कामकाज कैसे चलता है ।उन्होंने कम्पनियों की निर्णय प्रक्रिया को समझने के लिए सीमांत आमदनी की थियरी का इस्तेमाल किया ।

45जोआन रॉबिन्सन ने 1933 में प्रकाशित अपनी पुस्तक द इकॉनॉमिक्स ऑफ इम्परफेक्ट कम्पटीशन में दिखाया कि छोटी- छोटी फ़र्मों के बीच होने वाली प्रतियोगिता और केवल एक फ़र्म के एकाधिकार के बीच के अंतराल में कम्पनियों का वजूद किस तरह बिखरता रहता है अपूर्ण प्रतियोगिता के कारण ताक़तवर फ़र्में श्रम का शोषण करने में कामयाब हो जाती हैं ।अपनी दलील को समझाने के लिए रॉबिन्सन ने मोनोसोनी के विचार का विकास किया ।जिसका अर्थ है- सेवायोजक के सामने रोज़गार चाहने वाले की सौदेबाज़ी की ताक़त का घट जाना ।

46- तमिलनाडु के तंजावूर में जन्में जोसेफ चेल्लादुरै कुमारप्पा (1892-1960) को भारत में गांधीवादी अर्थशास्त्र का प्रथम गुरु माना जाता है ।कुमारप्पा का अर्थशास्त्र स्वतंत्र भारत के हर व्यक्ति के लिए आर्थिक स्वायत्तता एवं सर्वांगीण विकास के अवसर देने के उसूल पर आधारित था ।कुमारप्पा ऐसे बिरले अर्थशास्त्री थे जो पर्यावरण संरक्षण को औद्योगिक- वाणिज्यिक उन्नति से कहीं अधिक लाभप्रद मानते थे ।

47– सन् 1936 में कुमारप्पा ने ग्राम आंदोलन क्यों ? शीर्षक से एक पुस्तक प्रकाशित की जो गाँवों की आर्थिक उन्नति पर केन्द्रित गांधीवादी अर्थशास्त्र के सिद्धांतों के घोषणा पत्र के समान है ।अपने जेल प्रवास के दौरान कुमारप्पा ने प्रैक्टिस एंड परसेप्ट्स ऑफ जीसस एवं इकॉनमी ऑफ पेरमानेंस शीर्षक से दो पुस्तकें लिखी ।अपनी रचना निरंतरता का अर्थशास्त्र में पर्यावरण संरक्षण के साथ कुमारप्पा ने मानव के आर्थिक विकास की परिकल्पना का प्रतिपादन किया है ।इस पुस्तक को कुमारप्पा की सर्वश्रेष्ठ कृति माना जाता है ।

48जर्मन दार्शनिक जोहान गॉटफ्रीड हर्डर (1744-1803) को राष्ट्रवाद का आदि- सिद्धांतकार माना जाता है ।उन्होंने ही संस्कृतियों को एक विशिष्ट आंगिक इकाई मानकर इतिहास लेखन के अनुशासन को जन्म दिया ।राष्ट्रवाद का प्रचलित संस्करण हर्डर द्वारा स्थापित सांस्कृतिक राष्ट्र के विचार और सम्प्रभुता की अवधारणा के संयोग का ही परिणाम है ।परन्तु उनकी परिकल्पना के केन्द्र में न तो राज्य की संस्था थी और न ही सम्प्रभुता का विचार ।दरअसल उनका राष्ट्रवाद रोमांटिक नेशनलिज्म था।हर्डर को लोकगीतों के अध्ययन की परम्परा डालने का श्रेय भी दिया जाता है ।

49– वर्ष 1972 में प्रकाशित अपनी रचना ट्रीटाइज ऑन द ओरिजिन ऑफ द लैंग्वेज में उन्होंने कहा कि मनुष्य का सामूहिक जीवन भाषा और कविता के हाथों रचा जाता है ।वह कहते थे, ‘ भाषा किसी समूह का साझा अनुभव व्यक्त करती है’ और ‘हम उस दुनिया में रहते हैं जिसकी रचना हमने ख़ुद की है’। दो साल बाद उनकी एक और रचना यट अनदर फिलॉसफी ऑफ हिस्ट्री का प्रकाशन हुआ ।1784 से 1791 के बीच रचे गए विशद अध्ययन आइडियाज़ ऑफ द फिलॉसफी ऑफ द मैन काइंड को उनकी सबसे महान रचना माना जाता है ।

50– अमेरिकी अर्थशास्त्री जॉन कैनेथ गालब्रेथ (1908-2005) 1961 में भारत के राजदूत भी रहे ।उनकी रचनाएँ द एफ्लुएंट सोसाइटी (1958) और द न्यू इंडस्ट्रियल स्टेट (1967) बहुत प्रसिद्ध हैं ।1981 में प्रकाशित उनकी आत्मकथा अ लाइफ़ ऑफ अवर टाइम्स को भी ख्याति मिली ।

नोट : उपरोक्त सभी तथ्य, अभय कुमार दुबे, द्वारा सम्पादित पुस्तक, समाज विज्ञान विश्वकोष (खंड 2), ISBN : 978-81-267-2849–7, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण- 2016, से साभार लिए गए हैं ।

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Dr. Raj Bahadur Mourya:

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