राजनीति विज्ञान : महत्वपूर्ण तथ्य (भाग-२)

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– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान विभाग, बुंदेलखंड कालेज, झांसी, उत्तर- प्रदेश, फ़ोटो गैलरी एवं प्रकाशन प्रभारी : डॉ. संकेत सौरभ, झाँसी, उत्तर- प्रदेश (भारत) email : drrajbahadurmourya. gmail. Com, website : themahamaya. Com

1- सोवियत संघ में वर्ष 1985 से मिखाइल गोर्वाचेव ने ‘पेरेस्रोइका’ ( पुनर्गठन) और ‘ग्लासनास्त’ (खुलेपन) की जिस नीति की शुरुआत की, उसने सूचना के स्वतंत्र प्रवाह, सामाजिक और राजनीतिक वाद- विवाद, अर्थव्यवस्था के विकेन्द्रीयकरण और विदेश नीति पर पुनर्विचार को बढ़ावा दिया।

2- एडवर्ड सईद ने अपनी विख्यात कृति ‘ कल्चर एंड इम्पीरियालिज्म’ (1993) के अंतर्गत साम्राज्यवाद की परिभाषा ऐसी स्थिति के रूप में दी है जिसमें कोई विशाल देश किसी दूरवर्ती देश पर अपना शासन स्थापित कर लेता है।

3-‘नव उपनिवेशवाद’ शब्द के आविष्कार का श्रेय घाना के पूर्व राष्ट्रपति क्वामे नक्रूमा (1909-1972) को है। उसने अपनी चर्चित कृति ‘ नियोकोलोनियालिज्म : द हाइयस्ट स्टेज ऑफ इम्पीरियालिज्म’ (1974) के अंतर्गत इसे परिभाषित किया।

4- नार्मन बैरी ने ‘एन इंट्रोडक्शन टू मॉडर्न पोलिटिकल थियरी’ (1989) के अंतर्गत जन- हित शब्द को सामान्य हित की अभिव्यक्ति माना।

5- उदारवाद बाजार अर्थव्यवस्था के नियमों को सामान्य हित का उपयुक्त आधार मानता है। यह मुक्त प्रतिस्पर्धा, अवसर की समानता और योग्यता के अनुसार आवंटन के नियमों को उचित व्यवहार का प्रमाण मानता है। उदारवाद के संस्थापकों में जॉन लॉक (1632-1704), एडम स्मिथ (1723 -1790), जरमी बेंथम (1758-1832) और जॉन स्टुअर्ट मिल (1806-1873) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

6- समकालीन राजनीति विचारक सी. बी. मैकफर्सन (1911-1987) ने बाजार के नियमों पर आधारित समाज की आलोचना इस आधार पर की है कि वह मनुष्य की प्रतिभा को मांग और पूर्ति के नियमों का दास बना देता है।यह उसकी स्वाभाविक क्षमताओं को कुंठित करके उसकी सृजनात्मक स्वतंत्रता में बाधा डालता है।

7- समुदायवाद एक समकालीन दर्शन है जिसके अनुसार व्यक्ति का अपना अस्तित्व और व्यक्तित्व ऐसी सामाजिक स्थिति, भूमिकाओं और प्रथाओं पर आश्रित है जो समाज की देन हैं।इन सबके प्रति उसकी प्रतिबद्धता उसके व्यक्तित्व का आवश्यक अंग है। आधुनिक युग में ज्यां जाक रूसो (1712-1778), जी. डब्ल्यू. एफ. हीगल (1770-1831) और टी. एच. ग्रीन (1836-1882) ने इसके विकास में योग दिया।

8- समुदायवाद के समकालीन विचारकों में एलेस्डेयर मैकिंटायर (आफ्टर वर्च्यू ) (1981), माइकल सैंडेल ( लिब्रलिज्म एंड द लिमिट्स ऑफ जस्टिस ) (1982) और चार्ल्स टेलर ( सोर्सेज ऑफ द सेल्फ ) (1989) तथा माइकल वॉल्जर ( स्फीयर्स ऑफ जस्टिस) (1983) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। समुदावाद के अग्रदूत टी. एच. ग्रीन ने अपनी विख्यात कृति ‘ लेक्चर्स ऑन द प्रिंसिपल्स ऑफ पॉलिटिकल ऑब्लिगेशन ’ (1882) के अंतर्गत समुदायवाद को व्याख्यायित किया।

9- मार्क्सवाद के अनुसार, जब से मानव समाज निजी सम्पत्ति के आधार पर परस्पर विरोधी वर्गों में बंट गया है, और जब तक वह इस तरह बंटा रहेगा, तब तक सम्पूर्ण समुदाय के ‘ सामान्य हित ’ की चर्चा निरर्थक है। केवल वर्गहीन समाज में ही सच्चे अर्थ में सामान्य हित के विचार को सार्थक किया जा सकता है।

10- गांधी वाद की प्रतिबद्धता समुदाय का हित है। उसकी मान्यता है कि प्रत्येक व्यक्ति का यथार्थ हित समुदाय के हित के साथ जुड़ा है। समुदाय के भीतर वस्तुत: कोई संघर्ष नहीं पाया जाता। यदि सब लोग अहिंसा का रास्ता लें तो संघर्ष कहीं दिखाई नहीं देगा।इसकी सफलता नैतिक प्रेरणा पर आधारित है।

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11- साम्यवाद का सामान्य अर्थ है, एक ऐसी समाज व्यवस्था जिसमें किसी समुदाय के सदस्य मिल- जुलकर रहते हैं और मिल- बांटकर खाते हैं। इसमें कोई छोटा- बड़ा नहीं होता।सबको एक जैसा सम्मान और गरिमा का पात्र माना जाता है। अंग्रेजी में साम्यवाद के लिए ‘ कम्युनिज्म ’ शब्द का प्रयोग किया जाता है।

12- मूलतः ‘ कम्यून ’ शब्द फ्रांस के पुराने ग्राम समुदाय का संकेत देता था जिससे कम्युनिज्म शब्द का निर्माण हुआ। बाद में कार्ल मार्क्स ने ‘ द कम्यूनिस्ट मैनीफेस्टो (1848) के अंतर्गत कम्युनिज्म या साम्यवाद शब्द का प्रयोग समाजवाद के एक विशेष रूप का संकेत देने के लिए किया।

13- मार्क्सवादी सिद्धांत के अंतर्गत समाजवाद और साम्यवाद की अवस्थाओं में अन्तर किया जाता है।लेनिन ने अपनी पुस्तक ‘ स्टेट एंड रिवोल्यूशन ’ (1917) के अंतर्गत लिखा है कि जब सर्वहारा वर्ग संगठित होकर क्रांति के द्वारा पूंजीवादी व्यवस्था को धराशाई करके उत्पादन के प्रमुख साधनों पर सामाजिक स्वामित्व स्थापित कर लेता है तो इस अवस्था को समाजवाद कहा जाता है। यहां सत्ता की बागडोर सर्वहारा के हाथ में आ जाती है।

14- समाजवाद की इस अवस्था को ‘ सर्वहारा का अधिनायकवाद ’ कहा जाता है। साम्यवाद की स्थापना के लिए यह तैयारी की अवस्था है।इसे ‘ साम्यवादी समाज का आरम्भिक दौर ’ भी कहा जाता है। यहां पर ‘हरेक से अपनी क्षमता के अनुसार, हरेक को अपने कार्य के अनुसार’ का सूत्र होगा। साम्यवाद की स्थापना होने पर यह सूत्र बदल कर ‘ हरेक से अपनी क्षमता के अनुसार, हरेक को अपनी आवश्यकतानुसार’ होगा।

15- जर्मन समाज वैज्ञानिक कार्ल मैन्हाइम (1893-1947) ने मार्क्स के चिंतन से जुड़े साम्यवादी समाज की संकल्पना को ऐसे स्वप्नलोक की संज्ञा दी है जो सामाजिक परिवर्तन की प्रेरक शक्ति तो है, परन्तु उसे यथार्थ के धरातल पर साकार करने की कोई सम्भावना नहीं है।

16- समुदाय वाद वह सिद्धांत है जो समुदाय के जीवन से जुड़े मूल्यों को सार्वजनिक नीति का उपयुक्त आधार मानता है। इसके अनुसार व्यक्ति का ‘शुभ’ समुदाय के ‘सामान्य शुभ’ का अभिन्न अंग है। जर्मन समाज वैज्ञानिक फर्डीनेंड टॉनीज (1855-1936) ने ‘बद्ध समाज’ और ‘संघ समाज’ में अंतर किया है। उदारवाद से जुड़ी ‘असंपृक्त आत्मरूप’ की धारणा के विपरीत समुदायवाद ‘संपृक्त आत्मरूप’ का विचार प्रस्तुत करता है।

17‘स्वत्वमूलक व्यक्तिवाद’ की धारणा सी. बी. मैक्फर्सन की देन है। जिसके अनुसार उदारवाद से जुड़ी हुई यह मान्यता कि व्यक्ति स्वभावत: अपने शरीर और अपनी सब क्षमताओं का एक मात्र स्वामी है।इनके लिए वह समाज का कर्जदार बिल्कुल नहीं है। उदारवादियों के अनुसार, ‘सामान्य शुभ’ सब व्यक्तियों के ‘व्यक्तिगत शुभ’ का जोड है।

18- मैकिंटायर ने अपनी विख्यात कृति ‘आफ्टर वर्च्यू’ (1981) में जॉन रॉल्स की आलोचना करते हुए लिखा कि ‘व्यक्ति का व्यक्तित्व और आत्माभिव्यक्ति सामाजिक और सामुदायिक बंधनों के तंतुजाल में सार्थक होते हैं। व्यक्ति का व्यक्तित्व उस सामाजिक चलन की छत्रछाया में पनपता है जिसके माध्यम से वह सम्पूर्ण सद्गुण अर्जित करता है।’

19- मैकिंटायर ने अपनी दूसरी चर्चित कृति ‘ हूज जस्टिस ? ह्विच रेशनलटी ? (1988) में अपनी समुदायवादी मान्यताओं के आधार पर न्याय और सद्गुण की नई संकल्पना विकसित की है।मैकिंटायर के अनुसार, व्यक्ति केवल ऐसी ‘सहयोगमूलक मानवीय गतिविधि’ के वातावरण में ही पनप सकता है जो समाज के द्वारा स्थापित किया गया हो।

20- माइकल सैंडल ने अपनी पुस्तक ‘लिब्रालिज्म एंड ए लिमिट्स ऑफ जस्टिस’ (1982) के अंतर्गत जॉन राल्स की पुस्तक ‘ थियरी ऑफ जस्टिस’ (1971) की तर्क प्रणाली पर विशेष रूप से प्रहार किया है।राल्स की परिकल्पना को उन्होंने ठेठ उदारवादी दृष्टिकोण माना है।

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21- वाल्जर ने अपनी पुस्तक ‘ स्फीयर्स ऑफ जस्टिस ’(1983) के अंतर्गत उदारवादी परम्परा के अनुरूप यह विचार रखा कि न्याय का कोई सार्वभौमिक नियम नहीं हो सकता। इस दृष्टि से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के लिए भिन्न -भिन्न नियम बनाने होंगे। वाल्जर ने सरल समानता और जटिल समानता में भी अंतर किया है।

22- वाल्जर का न्याय सिद्धांत सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के लिए उपयुक्त नैतिकता का मानदंड निर्धारित करता है। यह मानदंड समाज के प्रति व्यक्ति की प्रतिबद्धता की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति प्रस्तुत करते हैं जो कि समुदाय का मूलमंत्र है।। यह अवधारणा विकेंद्रीकृत लोकतंत्रीय समाजवाद का प्रतिरूप होगा।

23- चार्ल्स टेलर ने अपने ‘ फिलॉसॉफिकल पेपर्स’ के अंतर्गत मनुष्य के बारे में उदारवादी धारणा पर प्रहार करते हुए मैकिंटायर के दृष्टिकोण की पुष्टि की है। उन्होंने ‘सामाजिक स्थापना’ का विचार प्रस्तुत किया। जिसके अनुसार कोई भी व्यक्ति केवल सामाजिक पर्यावरण के अंतर्गत ही अपनी स्वायत्तता का विकास और प्रयोग कर सकता है।

24- जब हम किन्हीं दो या दो से अधिक वस्तुओं या प्रक्रियाओं को तर्कसंगत आधार पर एक ही श्रेणी में रखते हैं, फिर उनके विभिन्न अंशों की समानताओं और भिन्नताओं के आधार पर किसी निश्चित नियम के बारे में प्राक्कल्पना प्रस्तुत करते हैं, तब हमारी कार्य विधि को तुलनात्मक पद्धति की संज्ञा दी जाती है। अरस्तू को तुलनात्मक राजनीति का जनक माना जाता है।

25- माइकल कर्टिस ने अपनी पुस्तक ‘ कम्परेटिव गवर्नमेंट एंड पॉलिटिक्स : एन इंट्रोडक्टरी ऐस्से इन पॉलिटिकल साइंस ’(1978) के अंतर्गत लिखा कि ‘‘ तुलनात्मक राजनीति का सरोकार ऐसे व्यवहार, संस्थाओं, प्रक्रियाओं, विचारों और मूल्यों से है जो एक से अधिक देशों में पाये जाते हैं। इसके अंतर्गत एक से अधिक राष्ट्र राज्यों के बीच उन नियमितताओं और प्रतिमानों, उन समानताओं और भिन्नताओं का पता लगाते हैं जिनसे राज्यों की मूल प्रकृति, कार्य विधि और मान्यताओं को स्पष्ट करने में सहायता मिल सके।’’

26- डेविड रॉबर्ट सन ने ‘ ए डिक्शनरी ऑफ माडर्न पॉलिटिक्स’(1985) के अंतर्गत तुलनात्मक शासन और तुलनात्मक राजनीति शब्दावली को एक दूसरे का समानार्थक माना है।

27- आर. सी. मैक्रीडिस ने अपनी पुस्तक ‘ द स्टडी ऑफ कम्परेटिव गवर्नमेंट’(1955) के अंतर्गत तुलनात्मक राजनीति के अंतर्गत सिद्धांतों, ढांचों और यथार्थ व्यवहार के अध्ययन पर भी भी जोर दिया।

28- सिडनी वर्बा ने अपनी पुस्तक ‘द सिविक कल्चर’(1963) में लिखा कि ‘ यदि आप तुलनात्मक राजनीति के क्षेत्र में प्रवेश करना चाहते हैं तो मात्र वर्णन से काम नहीं चलेगा बल्कि समस्याओं के सैद्धांतिक पक्ष का अन्वेषण भी करना होगा।’

29- जी. ए. आल्मंड और जी. वी. पावेल ने अपनी विख्यात कृति ‘‘ कम्परेटिव पॉलिटिक्स : ए डेवलपमेंट एप्रोच (1966) के अंतर्गत परम्परागत तुलनात्मक राजनीति की तीन मुख्य कमियों का उल्लेख किया है- पहली, संकीर्ण दृष्टि, दूसरी संरूपणात्मक पद्धति, तीसरे औपचारिकता का बोलबाला।

30- दूसरे विश्व युद्ध के बाद स्वतंत्र राष्ट्रों की संख्या में भारी वृद्धि, शक्ति के फैलाव और साम्यवाद के उदय ने तुलनात्मक राजनीति के क्षेत्र को विस्तार दिया। इस दौरान तुलनात्मक राजनीति का अध्ययन करने वालों ने अपने विषय को नया रूप देने के लिए चार नए लक्ष्य सामने रखे।पहला लक्ष्य था- अधिक विस्तृत विचार क्षेत्र की खोज। दूसरा लक्ष्य था- यथार्थवाद की खोज।तीसरा लक्ष्य था- सुनिश्चितता की खोज। अंतिम लक्ष्य था- बौद्धिक व्यवस्था की खोज।

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31- पद्धति या विधि एक सामान्य शब्द है जो किसी कार्य को करने के लिए विशेष ढंग का संकेत देता है। पद्धति का अर्थ अन्वेषण की ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा विश्वस्त ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है और विश्वस्त निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। जबकि उपागम के अंतर्गत किसी घटना की विस्तृत जानकारी के लिए न केवल उपयुक्त पद्धति का चयन किया जाता है बल्कि अध्ययन की केन्द्रीय समस्या का निर्णय भी किया जाता है।

32- वर्नन वान डाइक ने ‘पॉलिटिकल साइंस- ए फिलॉसॉफिकल एनालिसिस’(1960) के अंतर्गत लिखा कि ‘‘ उपागम का अर्थ यह है कि महत्वपूर्ण समस्याओं तथा उपयुक्त आधार सामग्री का चयन किस आधार पर किया जाए, जबकि पद्धति का अर्थ यह है कि आधार सामग्री प्राप्त करने और उसका प्रयोग करने के तरीके क्या हों ?’’

33- तुलनात्मक राजनीति के परम्परागत उपागम में आने वाले ऐतिहासिक उपागम के संस्थापकों में इतालवी विचारक निकोलो मैकियावेली (1469-1527), फ्रांसीसी दार्शनिक चार्ली द मांतेस्क्यू (1689-1755) तथा अलेक्सी द ताकवील (1805-1859) और अंग्रेज विचारकों- वाल्टर बेजहाट (1826-1877) तथा हेनरी सम्नर मेन (1822-1888) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

34- तुलनात्मक राजनीति के कानूनी-औपचारिक उपागम के प्रवर्तकों में वुडरो विल्सन (1856-1924), ए. वी. डायसी (1835-1922), के. सी. ह्वीयर (1907-1979), जेम्स ब्राइस (1838-1922), हर्मन फाइनर (1898-1969), आइवर जैनिंग्स (1903-1965), कार्ल फ्रेडरिक (1901-1984) और कार्ल लोएंस्टाइन (1891-1973) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

35- परम्परागत उपागमों में केवल संस्थात्मक उपागम, ऐसा उपागम है जो राजनीति शास्त्र को दर्शनशास्र, इतिहास या कानून का उपाश्रित न मानते हुए इसके स्वाधीन अस्तित्व को मान्यता देता है।

36- विचारक आर. सी. मैक्रीडीस ने तुलनात्मक राजनीति के परम्परागत 4 प्रमुख कमियों की ओर संकेत किया है- पहला, इसमें तुलनात्मक दृष्टि का निरंतर अभाव रहा है। दूसरा, इसमें वर्णन की प्रधानता रहती है। तीसरे, इसका दृष्टिकोण बहुत संकुचित रहा है। चौथे, इसमें गतिशील तत्वों की उपेक्षा की जाती है।

37- तुलनात्मक राजनीति के आधुनिक उपागमों का विकास दूसरे विश्व युद्ध (1939-1945) के बाद हुआ है। परन्तु इसके कुछ संकेत बीसवीं शताब्दी के आरंभ से ही मिलने लगे थे। 1908 में इंग्लैंड में दो प्रसिद्ध कृतियां प्रकाशित हुईं जिन्हें आधुनिक उपागमों का अग्रदूत माना जाता है। इनमें एक कृति ग्रैहम वैलेस (1858-1932) की ‘ह्यूमन नेचर इन पॉलिटिक्स’ थी और दूसरी आर्थर वेंटली (1870-1957) की ‘द प्रासेस ऑफ गवर्नमेंट’ थी।

38- वैलेस ने मनोविज्ञान की प्रेरणा से राजनीति में मनुष्य के व्यवहार को प्रमुखता दी और वेंटली ने समाज विज्ञान की प्रेरणा से राजनीति में समूहों के व्यवहार के अध्ययन को महत्व दिया।

39- फ्रांसीसी लेखक अलेक्सी द ताकवील (1805-1859) की कृति ‘डेमोक्रेसी इन अमेरिका (1835-40) और अंग्रेज लेखक वाल्टर बेजहाट (1826-1877) की ‘ द इंग्लिश कांस्टीट्यूशन (1865) और ‘फिजिक्स एंड पॉलिटिक्स’ (1867) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन दोनों लेखकों ने अपनी पुस्तकों में क्रमशः अमेरिका और इंग्लैंड की सांविधानिक प्रणालियों की समीक्षा की थी और वहां के राजनीतिक जीवन में सामाजिक- सांस्कृतिक तत्वों की भूमिका पर प्रकाश डाला था।

40- राजनीति विज्ञान में रूढ़िवाद उन सामाजिक, राजनीतिक और नैतिक मान्यताओं का समुच्चय है जो चिरकाल से प्रचलित सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के प्रति सम्मान को बढ़ावा देती है। यह सिद्धांत नए और बिना आजमाए हुए विचारों और संस्थाओं को अपनाने से संकोच करता है।

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41- आधुनिक युग में ब्रिटिश दार्शनिक डेविड ह्यूम (1711-1776) को रूढ़िवाद का अग्रदूत माना जाता है। ब्रिटिश दार्शनिक एवं विचारक एडमंड बर्क (1729-1797) आधुनिक ब्रिटिश रूढ़िवाद के मूल प्रवर्तक के रूप में विख्यात हैं। अमेरिकी विचारकों में जॉन एडम्स (1735-1834) रूढ़िवाद के प्रमुख प्रतिनिधि रहे हैं। इनके अलावा ब्रिटिश रूढ़िवादी दार्शनिकों में सैमुअल टेलर कॉलरिज (1772-1834) और बेंजामिन डिजरायली (1804-1881) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। समकालीन ब्रिटिश दार्शनिक माइकल ओकशॉट (1901-1990) को रूढ़िवाद का प्रमुख सिद्धांतकार माना जाता है।

42- एच. स्टुआर्ट ह्यूज के अनुसार ‘‘ रूढ़िवाद विचारधारा का निषेध’’ है। साधारणतया रूढ़िवादी वर्तमान व्यवस्था का गुणगान करता है और उससे संतुष्ट अनुभव करता है। वह थोड़ा बहुत परिवर्तन, सुधार तथा समायोजन के लिए भी तैयार रहता है। जबकि प्रतिक्रियावादी अतीत की ओर लौट चलने का आह्वान करता है।

43- उदारवादी समर्थक राज्य को एक मशीन के रूप में देखते हैं और व्यक्तियों को इस मशीन के अलग अलग पुर्जे समझते हैं।जबकि रूढ़िवाद के समर्थक राज्य को एक जीवित प्राणी के तुल्य मानते हैं और व्यक्तियों को उसके परस्पर आश्रित अंगों के रूप में देखते हैं। उदारवाद नए नए साहचर्यों के निर्माण को प्रोत्साहन देते हैं परन्तु रूढ़िवाद चिर प्रचलित साहचर्यों का समर्थन करते हैं।

44- डिजराइली के शब्दों में ‘‘ समाज का आंगिक दृष्टिकोण यह मांग करता है कि पूर्व दृष्टांत का सम्मान किया जाए, प्रचलित विधि का पालन किया जाए और पुरानी परम्परा को क़ायम किया जाए।’’ ब्रिटिश राजमर्मज्ञ एडमंड बर्क ने अपनी पुस्तक ‘ रिफ्लेक्शन ऑन द रिसेंट रिवोल्यूशन इन फ्रांस’ (1790) के अंतर्गत परम्परा और स्थिरता की जो वकालत की, उसमें रूढ़िवाद के सैद्धांतिक आधार का निरूपण किया गया है।

45एडमंड बर्क के अनुसार ‘‘ समाज वास्तव में एक अनुबंध है।… परन्तु यह उन मामलों में लोगों की साझेदारी नहीं है जो क्षणिक और क्षणभंगुर हों। यह समस्त विज्ञान और समस्त कलाओं में उनकी साझेदारी है। यह प्रत्येक सद्गुण और पूर्णता में उनकी साझेदारी है।… चूंकि इस साझेदारी के लक्ष्य अनेक पीढ़ियों के जीवन में भी पूरे नहीं किए जा सकते, इसलिए यह… उन लोगों की साझेदारी है जो जीवित हैं, जिनकी मृत्यु हो चुकी है और जिन्हें अभी जन्म लेना है।’’

46- बर्क के शब्दों में, ‘‘ व्यक्ति नासमझ है, परन्तु जाति समझदार होती है।हमे वर्तमान व्यवस्था में कोई सुधार इसलिए नहीं करना चाहिए ताकि इसे सुरक्षित रखा जा सके।जिस समाज में सुधार के साधन नहीं पाये जाते, उसमें संरक्षण के साधन भी नहीं पाये जाते।संरक्षण की प्रवृत्ति और सुधार की क्षमता- इन दोनों का संयोग मेरे विचार से राजमर्मज्ञ का आदर्श होना चाहिए।’’

47- समकालीन ब्रिटिश दार्शनिक माइकल ओकशॉट ने अपनी पुस्तक ‘रैशनालिज्म इन पॉलिटिक्स एंड अदर ऐसेज्’ (1962) के अंतर्गत राजनीति के स्वरूप का विश्लेषण करते हुए रूढ़िवाद की उपयुक्तता और सुधार की सम्भावनाओं का विस्तृत वर्णन किया है।उनके अनुसार राजमर्मज्ञ का कार्य ‘‘सबसे छोटी बुराई को चुनने की कला है।’

48- १९७० के दशक से संयुक्त राज्य अमेरिका में नव रूढ़िवाद की लहर आई। इसके उन्नायकों में इर्विंग क्रिस्टल, डेनियल पैट्रिक मोइनहान, नैथन ग्लेजर और डेनियल बैल के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।इर्विंग क्रिस्टल के शब्दों में ‘‘ नव रूढ़िवादी एक ऐसा उदारवादी है जिसने यथार्थ वाद का पाठ कंठस्थ कर लिया है।’’

49- सांविधानिक अध्ययन के श्रेण्य सिद्धांतकारों में जेम्स ब्राइस (1838-1922) और के. सी. ह्वीयर (1907-1979) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ब्राइस और ह्वीयर दोनों ने राजनीतिक प्रणालियों के संस्थात्मक संगठन पर विशेष बल दिया जबकि सी. एफ. स्ट्रांग, सी.एच. मैकिलवैन और अन्य सिद्धांतकारों ने संविधान के इस लक्ष्य को स्वीकार करते हुए इसके एक अन्य महत्वपूर्ण लक्षण का संकेत दिया है, अर्थात् यह सत्ताधारियों की शक्ति पर अंकुश रखने का साधन भी है। यह दूसरा लक्षण ही संविधानवाद के अध्ययन की प्रेरणा देता है।

50- जेम्स ब्राइस ने अपनी पुस्तक ‘‘ स्टडीज इन द हिस्ट्री एंड जूरिस्प्रूडेंस’’ (1901) के अनुसार संविधान ‘‘ राजनीतिक समाज का ऐसा ढांचा है जिसे क़ानून के माध्यम से और कानून के द्वारा संगठित किया गया हो, अर्थात् उसमें क़ानून ने ऐसी स्थायी संस्थाएं स्थापित कर दी हों जिनके साथ मान्यता प्राप्त कृत्य और सुनिश्चित अधिकार जुड़े हों।

51- के. सी. ह्वीयर ने अपनी पुस्तक‘ मार्डन कांस्टीट्यूशन’(1951) में 6 प्रकार के संविधानों का वर्गीकरण किया है, लिखित और अलिखित संविधान, अनम्य और सुनम्य संविधान, सर्वोच्च और गौण संविधान, संघात्मक और एकात्मक संविधान, वियुक्त और संयुक्त शक्तियों वाला संविधान और गणतंत्रीय और राजतंत्रीय संविधान।

नोट- उपरोक्त सभी तथ्य ओम् प्रकाश गाबा की पुस्तक, राजनीति विज्ञान विश्वकोष, ISBN 81-214-0683-8 तृतीय संस्करण, से साभार लिए गए हैं। यह पुस्तक नेशनल पब्लिशिंग हाऊस, नई दिल्ली से प्रकाशित है।

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Dr. Raj Bahadur Mourya:

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