राजनीति विज्ञान/ समाज विज्ञान, महत्वपूर्ण तथ्य (भाग- 22)

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( कांशीराम, बहुपति विवाह, बहुसंस्कृतिवाद, बाबू मंगूराम मुंगोवालिया, बाज़ार, अदृश्य हाथ, बादरायण, बाल गंगाधर तिलक, विपिन चन्द्र, बिहार, बुद्धि संगत चयन का सिद्धांत, बोल्शेविक क्रांति, बौद्ध दर्शन, बौद्धिक संपदा अधिकार, सेलिबेसी, ब्रम्हचर्य, ब्रेटन वुड्स प्रणाली, शंकराचार्य, भदन्त आनन्द कौसल्यायन)

– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर- प्रदेश), फ़ोटो गैलरी एवं प्रकाशन प्रभारी : डॉ. संकेत सौरभ, झाँसी (उत्तर- प्रदेश) भारत ।email : drrajbahadurmourya @gmail.Com, website : themahamaya.Com, mobile number : 09839170919.

1- पंजाब की दलित सिक्ख बिरादरी रामदसिया में पैदा हुए कांशीराम ने 1978 में नागपुर में कुछ अन्य दलित नेताओं के साथ मिलकर ऑल इंडिया बैकवर्ड ऐंड माइनॉरिटी इम्प्लॉइज फेडरेशन (बामसेफ) का गठन किया ।इसका लक्ष्य दलित सरकारी कर्मचारियों को एक बैनर तले इकट्ठा करना था ।बामसेफ की कल्पना एक छाया- संगठन या अर्धभूमिगत संगठन के रूप में की गई थी ।इस संगठन के शिक्षित कर्मचारियों से यह उम्मीद की जाती थी कि वे उत्पीडित समाज के अन्य सदस्यों की मदद करेंगे और इसलिए बहुजन समाज के ब्रेन बैंक, टैलेंट बैंक और फ़ाइनेंशियल बैंक बन जाएँगे ।

2- कांशीराम ने 6 दिसम्बर, 1981 को डी एस- 4 नामक संगठन बनाया । इसका पूरा नाम था दलित शोषित समाज संघर्ष समिति । डीएस-4, का सबसे बड़ा कार्यक्रम दक्षिण में कन्याकुमारी से शुरू किया गया साइकिल मार्च था ।इसी के साथ उसने उत्तर- पूर्व में कोहिमा से, पश्चिम में पोरबन्दर से और पूर्व में पुरी से साइकिल यात्राएँ शुरू कीं । यह चारों यात्राएँ सौ दिन तक चलीं । 6 दिसम्बर, 1982 से शुरू होकर यह कार्यक्रम 15 मार्च, 1984 तक चलता रहा । फिर नई दिल्ली पहुँचकर क़रीब तीन लाख लोगों की एक विशाल रैली हुई ।

3- नई दिल्ली की उक्त विशाल रैली में कांशीराम ने बहुजन समाज आंदोलन के लिए एक राजनीतिक दल की ज़रूरत को साफ कर दिया । इस तरह कांशीराम ने 14 अप्रैल 1984 को नई दिल्ली में बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की घोषणा की । इसी वर्ष जून में नई दिल्ली में ही पार्टी का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ और इसे चुनाव आयोग में पंजीकृत कराया गया ।पार्टी ने अपने चुनाव चिन्ह के तौर पर हाथी का चयन किया ।

4- बसपा को सबसे बड़ी राजनीतिक कामयाबी 1993 के उत्तर- प्रदेश विधानसभा चुनाव में गठजोड़ राजनीति के ज़रिए मिली ।बसपा ने यह चुनाव मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी के साथ मिल कर लड़ा था ।इस चुनाव में सपा- बसपा गठजोड़ ने 178 सीटें जीतीं, जिनमें से बसपा को 69 सीटें मिली थीं । मुलायम सिंह यादव प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और बसपा भी इस सरकार में शामिल हुई ।जून, 1995 में बसपा के समर्थन वापस लेने के कारण सपा की सरकार गिर गई ।मायावती ने भाजपा के समर्थन से अपनी सरकार बनायी और इस तरह मायावती उत्तर- प्रदेश की पहली दलित महिला मुख्यमंत्री बनीं ।

5- वर्ष, 1997 और 2002 में भाजपा के समर्थन से दो बार और अपनी सरकार बनायी ।परन्तु इनमें से कोई भी सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई । वर्ष 2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बसपा को कुल 206 सीटों पर जीत हासिल हुई तथा मायावती तीसरी बार राज्य की मुख्यमंत्री बनीं । वर्ष 2022 के प्रदेश विधानसभा चुनाव में बसपा को करारी हार का सामना करना पड़ा ।इस चुनाव में उसके खाते में केवल एक सीट आयी ।

6- बहुपति विवाह की प्रथा के तहत में एक स्त्री का विवाह दो या अधिक पुरूषों के साथ होता है । यह पुरुष परस्पर सम्बन्धी हो सकते हैं और नहीं भी । एक ही समूह के कई व्यक्ति मिलकर भी एक स्त्री से विवाह कर सकते हैं । रिवाज यह भी है कि एक ही परिवार में सबसे बड़े भाई का दूसरे भाइयों व पतियों की तुलना में स्त्री पर अधिक अधिकार होता है । बहुपति विवाह के कई कारण होते हैं ।उनमें से एक प्रमुख कारण है किसी समाज में पुरूषों की अपेक्षा स्त्रियों की संख्या कम होना ।निर्धनता को भी इस प्रथा के कारण के रूप में देखा जाता है । बहुपति विवाह की प्रथा कई जनजातियों व दक्षिण भारत में ख़ासकर केरल के नायरों में पायी जाती है ।

7- बहुपत्नी विवाह पुरुष द्वारा एक से अधिक स्त्रियों से शादी करने के चलन को कहा जाता है ।वंश चलाने, सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों को पूरा करने, सामाजिक प्रतिष्ठा को हासिल करने, कुनबे के आकार को बड़ा करने तथा व्यापक नातेदारी को बढाना इसके मूल कारणों में था । राजाओं ने अपने राजनीतिक- सामाजिक सम्बन्धों को विस्तार देने के लिए इसका प्रयोग किया ।प्राचीन यहूदी समाज में कई विवाह करना आम बात थी । इस्लाम में चार शादियाँ करने की धार्मिक और क़ानूनी मान्यता मिली हुई है । अफ़्रीका के देशों में यह प्रथा सबसे अधिक रही है । उत्तरी अमेरिका की जनजातियों में भी इसका प्रचलन रहा है ।

8- हिन्दुओं के ग्रन्थ मनुस्मृति का निर्देश है कि : बांझ पत्नी के स्थान पर आठवें वर्ष और जिस पत्नी की संतान जीवित नहीं रहती उसके स्थान पर ग्यारहवें वर्ष और जिसने केवल पुत्रियों को जन्म दिया हो उसके स्थान पर बारहवें वर्ष दूसरी स्त्री को पत्नी के रूप में ग्रहण किया जा सकता है । मनु ने यह भी लिखा है कि जो पत्नी मद्यपान करती हो, दुराचारिणी हो, अपव्ययी हो अथवा क्रूर हो, उसे त्याग देना ही उचित है । यह बात ध्यान देने की है कि 1955 के हिन्दू विवाह अधिनियम के अंतर्गत बहुपत्नी विवाह को पूरी तरह से गैर क़ानूनी करार दे दिया गया है ।

9- बहुसंस्कृतिवाद मूलतः अमेरिकी परिस्थिति की उपज है । इसका जन्म श्वेत- अमेरिकी पहचान के आधार पर रचित अमेरिकीपन की शर्तें बदलने के लिए चले प्रति- सांस्कृतिक और मानवाधिकार आन्दोलनों के दौरान हुआ ।अमेरिकी समाज को मेल्टिंग पॉट अथवा कुठाली कहा जाता है । इसका मतलब होता है विविध जातीय धाराओं का अमेरिकी संस्कृति में विसर्जन । मेल्टिंग पॉट की धारणा के मुक़ाबले सलाद के तस्तरी का विचार रखा जाता है जिसमें एक राष्ट्र की सीमाओं में रहते हुए भी संस्कृतियाँ अपनी अलग-अलग पहचान नहीं खोतीं ।

10- बाबू मंगूराम मुंगोवालिया (1886-1980) का जन्म पंजाब के होशियारपुर ज़िले के मुंगोवाल गाँव में एक दलित परिवार में हुआ था । उनके पिता का नाम हरनाम दास और माता का नाम आरती था ।1925 में उन्होंने आद-धर्म मण्डल की स्थापना किया ।इस मंडल के सदस्यों की मान्यता थी कि हम इस देश के मूल निवासी हैं और हमारा धर्म आद धर्म है । बीसवीं सदी के आरम्भ में पंजाब में आद धर्म, उत्तर- प्रदेश में आदि धर्म, आन्ध्रप्रदेश में आदि- आन्ध्रा, कर्नाटक में आदि- कर्नाटक तथा तमिलनाडु में आदि- द्रविड़ के नाम से सामाजिक न्याय की मुहिमें चलीं थीं । बाबू मंगूराम 1945 में पंजाब विधानसभा के सदस्य भी बने ।

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11- 1928 में जब साइमन कमीशन भारत आया तब बाबू मंगूराम ने आद-धर्म प्रतिनिधियों के साथ कमीशन को लाहौर में ज्ञापन दिया । इसमें कहा गया था कि वे भारत के मूल निवासी हैं और उनका आद-धर्म हिंदू धर्म से अलग है ।यही नहीं 31 मार्च और 1 अप्रैल, 1932 को लाहौर में लोथियन कमेटी के सामने भी दयानंद दलित उद्धार सभा और आद मंडल ने अपनी माँगें प्रस्तुत कीं ।आद- धर्म मंडल का एक झंडा भी बनाया गया, जिसका रंग गुलाबी आभा लिए हुए लाल था । मंगूराम ने पंजाबी तथा उर्दू में आदि डंका नाम से साप्ताहिक पत्र भी निकाला ।

12- बाज़ार उस जगह का नाम है जहां बेचने और ख़रीदने वालों के बीच धन के बदले चीजों का आदान-प्रदान होता है ।क्रेता और विक्रेताओं के निजी से मिलने का स्थान होने के साथ-साथ वह किसी भी तरह के नेटवर्क के ज़रिए कहीं और कभी भी बन जाता है । बाज़ार के कामकाज को समझने की सर्वाधिक प्रभावशाली कोशिश ऐडम स्मिथ ने 1776 में प्रकाशित अपनी पुस्तक वेल्थ ऑफ नेशंस में की थी । उनका कहना था कि बाज़ार एक स्व- विनियमनकारी परिघटना है जिसके तहत होने वाली प्रतिस्पर्धा अदृश्य हाथ की तरह बिना किसी बाह्य नियंत्रण के आर्थिक जीवन को निर्देशित करती रहती है ।

13- अदृश्य हाथ अथवा स्वतंत्र अर्थव्यवस्था की अवधारणा का अतिवादी रूप लैसे- फ़ेयर है ।जिसका प्रवर्तन सत्रहवीं सदी में फ़्रांस में प्रकृतिवादियों के खिलाफ बहस करते हुए बोईगिलबर्त और लेजेंन्द्र ने किया था । बाज़ार समानता का वाहक भी माना जाता है क्योंकि वह व्यक्ति का मूल्यांकन योग्यता, प्रतिभा और कठोर परिश्रम की क्षमता के हिसाब से करता है, न कि नस्ल, चमड़ी के रंग, धर्म, जेंडर आदि के आधार पर । मार्क्सवादी अर्थशास्त्र अदृश्य हाथ की जगह दृश्य हाथ के पक्ष में रहा है ।

14- बादरायण का काल ईसा पूर्व चौथी शताब्दी से लेकर दूसरी शताब्दी के बीच माना जाता है ।दार्शनिक बादरायण को वेदान्त दर्शन की प्रस्थापना का श्रेय दिया जाता है । बौद्ध और जैन ग्रन्थों में इस बात का प्रमाण मिलता है कि वेदान्त एक दर्शन के रूप में ईसा पूर्व सातवीं या छठीं शताब्दी में मौजूद था । बादरायण ने अपने भाष्य के ज़रिए वेदान्त के दर्शन को 552 सूत्रों में समाहित किया ।बादरायण ने अपने वेदान्त सिद्धांत में इस बात पर ज़ोर दिया कि चेतना या आत्मा ही हर वस्तु का मूल कारण है और अन्ततः हर वस्तु उसमें ही विलीन हो जाती है । उन्होंने ब्रम्हसूत्र में बताया कि ब्रम्ह ही परम् तत्व है और प्रकृति में गति का वही आदि कारण है ।

15- एलबर्ट श्वाइत्जर ने कहा कि ब्रम्हसूत्र, ब्राह्मणवादी पांडित्य का केवल आरम्भ बिंदु था ।आगे चलकर इसे पल्लवित करने का श्रेय शंकराचार्य, रामानुज, मध्वाचार्य तथा अन्य प्रसिद्ध दार्शनिकों को जाता है । ब्रम्हसूत्र को वेदान्त सूत्र के नाम से भी जाना जाता है ।कुछ जगहों पर इसे शरीर का सूत्र की संज्ञा दी गई है ।ब्रम्हसूत्र का अंग्रेज़ी अनुवाद मोनियर विलियम्स ने किया है ।

16- बाल गंगाधर तिलक (1856-1920) भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवादी, समाज- सुधारक, पत्रकार और उपनिवेशवाद विरोधी जन नेता थे । लोकमान्य के सम्बोधन से विख्यात तिलक की राजनीति ने किसानों, मज़दूरों और मध्य- वर्गों को ब्रिटिश विरोधी आंदोलन में उतारकर उन परम्पराओं का सूत्रपात किया जिसके आधार पर कांग्रेस आगे चलकर गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय स्वतंत्रता की वाहक बनी । ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और इसे मैं लेकर रहूँगा’ जैसा अविस्मरणीय नारा देने वाले तिलक को अंग्रेज़ ‘फादर ऑफ इंडियन अनरेस्ट’ कहते थे ।

17- 13 जुलाई, 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी ज़िले में एक खुशहाल मध्यवर्गीय चितपावन ब्राह्मण परिवार में जन्में बाल गंगाधर तिलक को अंग्रेज़ों ने दो बार राजद्रोह के आरोप में कड़े कारावास की सज़ा सुनाई ।जेल में ही तिलक ने अपना विख्यात ग्रन्थ गीता रहस्य लिखा ।मराठी में केसरी और अंग्रेज़ी में मराठा नामक अख़बार निकालकर तिलक ने पत्रकारिता को अपने विचारों और जन- चेतना के उत्थान का वाहक बनाया । वे पुणे के फ़र्ग्युसन कॉलेज में गणित के प्राध्यापक भी रहे ।गांधी को उनका व्यक्तित्व सागर की तरह अथाह लगता था ।

18- बाल गंगाधर तिलक पश्चिमी सभ्यता, पश्चिमी चिंतन और शिक्षा को अनुपयुक्त मानते थे बावजूद इसके उनकी मान्यता थी कि अंग्रेज़ी हुकूमत की वजह से भारत का राजनीतिक और प्रशासनिक एकीकरण हुआ है । तिलक का राष्ट्रवाद मानवता की आध्यात्मिक एकता के वेदांती आदर्श के साथ-साथ मेजिनी, बर्क और मिल के विचारों से निकली राष्ट्रीयता का मिला- जुला रूप था । उनकी निगाह में 1858 में रानी विक्टोरिया द्वारा की गई भारत सम्बन्धी उद्घोषणा ही अपने आप में संवैधानिक दस्तावेज नहीं थी क्योंकि उसे ब्रिटिश संसद द्वारा क़ानून का रूप नहीं दिया गया था ।

19- बाल गंगाधर तिलक पर 1908 में 24 जून से 23 जुलाई तक मुक़दमा चला और उस दौरान लगातार हडतालें होती रहीं ।23 को जब तिलक छह साल के लिए बर्मा के मॉंडले जेल भेजे गए तो एक लाख मज़दूरों और जनता के अन्य तबकों ने मिलकर पूरे मुम्बई को ठप कर दिया था ।अगले दिन से महानगर की सारी मिलें छह दिन के लिए बंद हो गईं । इसके बाद हर साल, जब तक तिलक रिहा होकर नहीं आए, मज़दूर 23 जुलाई को हड़ताल करते रहे ।अपने ख़िलाफ़ चले राजद्रोह के मुक़दमे में उन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना को अपना वकील बनाया था ।

20- सन् 1928 में हिमाचल प्रदेश की काँगड़ा घाटी में जन्में बिपन चन्द्र आज़ादी के बाद भारतीय इतिहास लेखन की मार्क्सवादी परम्परा के अग्रणी, आधुनिक भारत में राष्ट्रवाद, उपनिवेशवाद, साम्प्रदायिकता, आर्थिक राष्ट्रवाद और इन सबसे ऊपर भारतीय स्वाधीनता संघर्ष जैसे विषयों पर इतिहास चिंतन और लेखन के लिए जाने जाते हैं । द राइज ऐंड ग्रोथ ऑफ इकॉनॉमिक नैशनलिज्म इन इंडिया : इकॉनॉमिक पॉलिसीज ऑफ इंडियन नैशनल लीडरशिप, 1980-1905 उनकी पहली पुस्तक है ।

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21- बिपन चन्द्र की अगली महत्वपूर्ण कृति वर्ष 1979 में प्रकाशित नैशनलिज्म ऐंड कॉलोनियलिज्म इन इंडिया है ।वर्ष 1988 में उनकी बहुचर्चित कृति इंडियाज स्ट्रगल फ़ॉर इंडिपेंडेंस प्रकाशित हुई । जिसमें उन्होंने कैम्ब्रिज स्कूल के इस तर्क की तीखी आलोचना की कि भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन एक जन आन्दोलन न होकर अभिजात्य समूहों की आवश्यकताओं और हितों का परिणाम था । उनकी अन्य महत्वपूर्ण रचनाओं में अमलेश त्रिपाठी और वरूण डे के साथ संयुक्त रूप से फ्रीडम स्ट्रगल (1972), द इंडियन लेफ़्ट : क्रिटिकल अप्रेजल (1983), आइडियोलॉजी ऐंड पॉलिटिक्स इन मॉडर्न इंडिया (1944) हैं ।

22- अपनी दो प्रमुख रचनाओं कम्युनलिज्म इन मॉडर्न इंडिया (1984) और कम्युलजिम : ए प्राइमर (1984) में बिपन चन्द्र ने कहा कि सम्प्रदायवाद की परिघटना केवल एक ऐतिहासिक दुर्घटना या समुदायों के परस्पर टकराव की परिणति नहीं है बल्कि सम्प्रदायवाद के विकास के पीछे अनेक शक्तियों और कारणों का योगदान रहा है । यह उपनिवेशवाद के सह उत्पादों में से एक था ।वह कहते हैं कि भारत में आज सबसे ज़रूरी और महत्वपूर्ण काम एक मज़बूत और संगठित भारत का निर्माण करना और भारतीय लोगों का मनोवैज्ञानिक एकीकरण करना है । जब तक यह स्वीकार नहीं किया जाता कि भारतवासियों की विविधता और कई भाषाओं, धर्मों और संस्कृतियों की उपस्थिति एक सच है तब तक सामंप्रदायिकता का ख़तरा बना रहेगा ।

23- बिहार की रचना 1912 में बंगाल से अलग करके की गई थी ।उस समय बिहार और उड़ीसा राज्यों का प्रशासन एक साथ ही चलता था ।1936 में बिहार और उड़ीसा को अलग-अलग प्रशासनिक इकाइयों के रूप में स्थापित किया गया ।सन् 2000 में बिहार से अलग करके झारखंड राज्य का निर्माण हुआ।वर्तमान बिहार के उत्तर में नेपाल, पूर्व में पश्चिम बंगाल, दक्षिण में झारखंड और पश्चिम में उत्तर प्रदेश है । बिहार का क्षेत्रफल 99 हज़ार, 200 वर्ग किलोमीटर है ।2001 की जनगणना के अनुसार यहाँ की कुल जनसंख्या 10 करोड़, 3 लाख, 93 हज़ार, 433 है ।

24- बिहार से लोकसभा के कुल 40 सदस्य चुने जाते हैं ।यहाँ की विधानसभा दो सदनीय है ।विधानसभा में 243 और विधान परिषद में 96 सदस्य होते हैं ।2001 के आँकड़ों के अनुसार बिहार की साक्षरता दर 54.1 प्रतिशत है ।बिहार की तक़रीबन 85 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है । बिहार से ही 1974 में जय प्रकाश नारायण ने छात्र आन्दोलन शुरू किया था जो पूरे देश में फैल गया था और जिसे सम्पूर्ण क्रान्ति के नाम से जाना जाता है ।

25- बुद्धिसंगत चयन के सिद्धांत ने पचास और साठ के दशक में राजनीतिशास्त्र में अपनी महत्वपूर्ण जगह बनाई ।1953 में गणितज्ञ जॉन वान न्यूमान और अर्थशास्त्री ऑस्कर मोरगेस्टर्न ने इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुए कई सूत्रीकरण किए । कैनेथ एरो द्वारा विकसित किए गए सामाजिक चयन के सिद्धांत, 1957 में एंथनी डाउन्स के चयन सम्बन्धी सिद्धांत और 1960 के डिटरेंस सम्बन्धी सिद्धांत का ज़िक्र किया जा सकता है ।

26- ज्ञान के मुख्यतः दो रूप माने गए हैं : इंद्रिय आधारित और बुद्धि आधारित ।बुद्धि आधारित ज्ञान को ही वास्तविक यथार्थ के रूप में अहमियत देने वाला बुद्धिजीवी कहलाता है ।बुद्धि की क्षमताओं पर हद से ज़्यादा यक़ीन करने वाले उग्र- बुद्धिजीवियों की श्रेणी में आते हैं । ज्ञानमीमांसा के इन दो रूपों ने मिलकर ईश्वर, प्रकृति, विज्ञान और मानवीय विकास से संबंधित चिंतन की नींव रखी है ।रेने देकार्त, निकोलस मैलेब्रैंश, बारूस स्पिनोजा और जी. डब्ल्यू. लीब्निज बुद्धिवादी दर्शन के श्रेष्ठ प्रवक्ता माने जाते हैं । बौद्ध दर्शन में बुद्धि के बजाय प्रज्ञा की अवधारणा विकसित की गई है ।इमैनुएल कांट की रचना क्रिटीक ऑफ प्योर रीजन बुद्धिवादी चिंतन की पैरोकारी करती है ।

27- बोल्शेविक क्रांति वर्ष 1917 की रूस की क्रान्ति थी जिसे अक्टूबर क्रान्ति के नाम से भी जाना जाता है ।फ़्रांस की क्रान्ति के 125 साल बाद घटी इस घटना ने विश्व राजनीति को सबसे ज़्यादा प्रभावित किया ।रूस की इस बोल्शेविक क्रांति ने न केवल राजशाही को परास्त किया बल्कि पूंजीवाद द्वारा राज्य, अर्थव्यवस्था और समाज को अपने आइने में गढ़ने की परियोजना के मुक़ाबले समाजवादी राज्य और समाज का वैकल्पिक मॉडल पेश करने की कोशिश की ।रूसी भाषा में बोल्शेविक पार्टी का मतलब होता है बहुमत वाला दल ।

28- बोल्शेविक क्रांति रूस के किसानों और मज़दूरों द्वारा बीसवीं सदी के पहले बीस सालों में की गई तीन क्रान्तियों के सिलसिले में अंतिम कड़ी थी ।पहली क्रांति 1905 में हुई जिसे लेनिन ने अक्टूबर क्रान्ति का ड्रेस रिहर्सल करार दिया था । दूसरी क्रांति 1917 की फ़रवरी में हुई थी जिसने जारशाही को उखाड़ फेंका और दोहरी सत्ता की स्थापना की ।उसके ठीक आठ महीने बाद लेनिन और बोल्शेविकों के नेतृत्व में हुई क्रान्ति ने सोवियतों के लोकतंत्र पर आधारित दुनिया के समाजवादी राज्य की स्थापना की । बोल्शेविकों का विचार था कि पार्टी को मार्क्सवाद में पारंगत जुझारू और अनुशासित क्रांतिकारियों के ज़रिए काम करना चाहिए ।

29- बौद्ध दर्शन के प्रवर्तक गौतम बुद्ध ने जीवन के चार आर्य सत्य बताए हैं : दु:ख है, दु:ख का कारण है, दु:ख का अंत है और दु:ख के अंत के लिए उपाय भी है । दु:ख के निवारण के रूप में उन्होंने अष्टांगिक मार्ग की प्रस्थापना दी और कहा कि संसार की कोई भी वस्तु नित्य न होकर सतत परिवर्तनशील है । बौद्ध दर्शन के अनुसार जन्म लेना दु:ख है, शरीर का क्षय होना दु: ख है, बीमारी दु:ख है, किसी प्रिय वस्तु से नाता जोड़ना दु:ख है, किसी प्रिय वस्तु से नाता तोड़ना दु:ख है, किसी अपेक्षित वस्तु का प्राप्त न होना भी दु:ख है । इन पाँच स्कन्धों में से किसी एक को भी पकड़ने का लोभ दु:ख है ।लोभ और लालसा ही पुनर्जन्म का कारण है ।

30- बौद्ध दर्शन के अनुसार कामनाएँ ही सभी दु:खों का कारण हैं । इनसे मुक्ति के लिए अष्टांगिक मार्ग- सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाक्, सम्यक कमांत, सम्यक आजीव, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि के आठ साधन हैं । इनके द्वारा जीव अविद्या और तृष्णा से मुक्त हो सकता है ।इससे निर्मल बुद्धि, दृढ़ता तथा शांति मिलती है । इस प्रकार दु:ख का पूर्ण विनाश होता है और पुनर्जन्म की सम्भावना नहीं रह जाती । इसी अवस्था को बुद्ध ने निर्वाण की संज्ञा दी है ।बुद्ध कहते हैं कि युक्तियुक्तता, तार्किकता और सिद्धांतों की सत्यता ही मूल्यवान है ।

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31-बुद्ध ने कार्य- कारण श्रृंखला द्वारा निर्वाण के रूप को समझाने की कोशिश की है ।अविद्या से शुरू होने वाली यह श्रृंखला प्रतीत्यसमुत्पाद अथवा परस्परावलम्बी सहवर्धन के नाम से विख्यात है । जिसका अर्थ होता है- इसके होने पर यह होता है ।बुद्ध के अनुसार संसार में सभी वस्तुओं की उत्पत्ति कारण के अभाव में सम्भव नहीं है । कारण ही कार्य को जन्म देता है तथा कार्य में रूपांतरित होता है इसी सिद्धांत का दूसरा भाग परिवर्तनशीलता के आयाम पर ज़ोर देता है अर्थात् संसार में हर पल सभी वस्तुओं का आविर्भाव और तिरोभाव होता रहता है ।

32- बौद्ध दर्शन के अनुसार उत्पत्ति और विनष्टि के सिद्धांत की ग्यारह कड़ियाँ हैं : अविद्या के होने से संस्कार होता है, संस्कार (कर्म) के होने से उसके विपाक स्वरूप मृत्यु के अनन्तर चित्त की संतति जन्मान्तर में चली जाती है । विज्ञान के होने से जन्मांतर में नामरूप होते हैं । नामरूप का अर्थ है मानसिक या भौतिक स्थिति,नामरूप के होने पर चक्षु, प्राण, जिह्रा, काया और मन यह छह आयतन उठ खड़े होते हैं । इन छह आयतनों के कारण विषयों के साथ सम्पर्क होता है जो स्पर्श कहलाता है ।स्पर्श होने से सुख, दुख आदि वेदनाएँ होती हैं । वेदना के होने से, तृष्णा होने से विषयों को ग्रहण करने की प्रवृत्ति होती है जो उपादान कहलाती है । उपादान होने से जीवन में भाग- दौड़ होती है, जिसे भव कहते हैं । भव होने से ही जन्म और मृत्यु का क्रम जारी रहता है ।

33- बौद्धिक संपदा अधिकार की बुनियादी विशेषता है कि ऐसी सम्पत्ति की रक्षा करना जिसे हड़पने और फिर से उत्पादित करने के लिए उस सम्पत्ति के जन्मदाता को उससे वंचित करने की ज़रूरत नहीं होती ।ज्ञान आधारित उद्योगों, उदारीकरण और निजीकरण के ज़माने में यह अधिकार बहुत महत्वपूर्ण हो गए हैं ।1994 में बौद्धिक संपदा अधिकारों से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय संधि हुई थी जिसे ट्रिप्स समझौता कहा जाता है ।

34- सेलिबेसी एक पश्चिमी अवधारणा है जिसका विकास ईसाइयत के साथ- साथ हुआ है ।ईसाई धर्मशास्त्र में सेलिबेसी पर जोर देने की शुरुआत बारहवीं सदी में हुई ।इसके पीछे मंशा यह थी कि चर्च की सम्पत्ति विवाहित ईसाई पुरोहितों की संतानों के पास उत्तराधिकार में न जाने पाए । इसके बाद ही धर्मशास्त्रीय व्याख्याकारों ने सेलिबेसी को एक ईश्वरीय गुण के रूप में चित्रित करना शुरू किया और इसके स्वर्गिक लाभों की चर्चा होने लगी ।आज यह विचार विवादास्पद होता जा रहा है ।आस्ट्रेलिया में नेशनल कौंसिल ऑफ प्रीस्ट्स ने वेटिकन को प्रतिवेदन दिया है कि पुरोहितों को विवाह करने की इजाज़त दी जाए । इस प्रतिवेदन पर 1,700 पादरियों ने दस्तख़त किया है ।

35- ब्रम्हचर्य का विचार भारतीय संदर्भ में बहुत पुराना है ।ढाई हज़ार साल पहले रचे गए वात्स्यायन के कामसूत्र में भी ब्रम्हचर्य की महिमा का वर्णन है । वात्स्यायन सफल प्रेमी उसे नहीं मानते जिसकी भावोत्तेजना बहुत बढ़ी हुई होती है, बल्कि उसे मानते हैं जिसने ब्रम्हचर्य और ध्यान के ज़रिए इंद्रियों को क़ाबू में कर रखा है । हिंदू, बौद्ध और जैन संन्यासी आजीवन ब्रम्हचारी रहने का व्रत लेते हैं ।समाज- मनोविद् सुधीर कक्कड़ ने अपनी बहुचर्चित रचना गॉंधी और स्त्रियॉं में ब्रम्हचर्य सम्बन्धी आम समझ के बारे में विस्तार से चर्चा की है ।

36- सुधीर कक्कड़ मानते हैं कि समाज में व्यापक रूप से मिलने वाले सैक्सुअल विमर्श का आधारभूत तर्क पुरुष के शिश्न से निकलने वाले तरल पदार्थ यानी वीर्य को शारीरिक और मानसिक ताक़त का स्रोत करार देता है ।सम्भोग के कारण यह वीर्य नीचे की तरफ़ आ कर स्खलित हो जाता है ।अगर इसे बाहर निकलने से रोका जा सके यानी स्त्री के संसर्ग से बचा जा सके यानी ब्रम्हचर्य का पालन किया जा सके तो यही वीर्य मेरूदंड के सहारे ऊपर की तरफ़ यात्रा करके मस्तिष्क में पहुँच कर ओजस का परिष्कृत रूप ग्रहण कर लेता है । कहा जाता है कि वीर्य की एक बूँद बनाने में खून की चालीस बूँदें खप जाती हैं ।

37- ब्रम्हचर्य सम्बन्धी लोकप्रिय विमर्श का सामाजिक नृतत्वशास्त्री जोसेफ एस. आल्टर ने भी विशेष अध्ययन किया है ।उन्होंने अपनी दो रचनाओं सेलिबेसी, सेक्शुअलिटी, ऐंड द ट्रांसफॉर्मेशन ऑफ जेंडर इन टु नैशनलिज्म इन नार्थ इंडिया और अ मॉडर्न साइंस ऑफ मेल सेलिबेसी इन नार्थ इंडिया में इस पर सार्थक बहस की है ।

38- ब्रेटन वुड्स प्रणाली उस अंतर्राष्ट्रीय बंदोबस्त का नाम है जिसे द्वितीय विश्वयुद्ध से ठीक पहले अगस्त, 1944 में अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी ताक़तों ने 44 राष्ट्रों के एक सम्मेलन के ज़रिए खड़ा किया था । इस सम्मेलन का औपचारिक नाम था इंटरनेशनल मोनेटरी ऐंड फ़ाइनेंशियल कांफ्रेंस ऑफ द युनाइटेड ऐंड एसोसिएटिड नेशंस । चूँकि इसका आयोजन न्यू हैमशायर की एक छोटी सी सैरगाह ब्रेटन वुड्स में किया गया था इसलिए इसे संक्षेप में इसी नाम से जाना जाता है । ब्रेटन वुड्स प्रणाली के केन्द्र में थी निर्धारित विनिमय दर जिसके तहत विश्व की सभी मुद्राओं का आकलन आई. एम. एफ. द्वारा डॉलर के मुताबिक़ किया जाना था ।

39- ब्रेटन वुड्स प्रणाली के तहत ही विश्व बैंक (इंटरनेशनल बैंक फ़ॉर रिकंस्ट्रक्शन ऐंड डेवलपमेंट), अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई एम एफ), और जनरल एग्रीमेंट ऑफ टैरिफ्स ऐंड ट्रेड (गैट) की स्थापना की गई ।गैट के वार्ता- चक्रों में से ही आगे चलकर विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू टी ओ) का जन्म हुआ जो इस समय वैश्विक व्यवस्था के शिखर पर है । इस कांफ्रेंस की संकल्पना और कामयाबी में अमेरिका के अर्थमंत्री हैरी व्हाइट और ब्रिटेन के प्रमुख अर्थशास्त्री जॉन मेनॉर्ड कीन्स की प्रमुख भूमिका है ।

40- 1942 में ब्रिटेन ने अमेरिका के साथ लैण्ड लीज़ एग्रीमेंट किया ।इसके ज़रिए अमेरिकी राष्ट्रपति को यह अधिकार मिला कि वह धुरी राष्ट्रों के खिलाफ लड़ रहे देशों को जंग का साज- सामान सप्लाई करने का आदेश दे सकें । इस समझौते में ब्रिटेन की तरफ़ से अर्थशास्त्री कीन्स की भूमिका निर्णायक थी । रूज़वेल्ट प्रशासन कीन्स को बहुत अहमियत देता था । कीन्स के आर्थिक सूत्रीकरणों ने रूज़वेल्ट की न्यू डील नीति को प्रेरित किया था ।

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41- ब्रेटन वुड्स प्रणाली के तहत ही डॉलर का मूल्य स्वर्ण मानक के हिसाब से तय होना था ।अमेरिका के पास उस समय 25 अरब डॉलर की क़ीमत का सोना जमा था । सत्तर के दशक तक अमेरिका का स्वर्ण भंडार दस अरब डॉलर से भी कम का रह गया था । 1949 में सत्तारूढ़ होने के फ़ौरन बाद चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने अपनी डॉलर आमदनी को अमेरिकी सरकार की पहुँच से बचाने के लिए पेरिस में बांका कॉमह्वसियाल पौर ल युरोप द नॉर्द नामक बैंक में जमा करना शुरू कर दिया ।ख़ास बात यह थी कि इस बैंक की मिल्कियत सोवियत संघ के हाथ में थी और इसके बेतार के तार का पता था यूरो बैंक

42- सातवीं शताब्दी में इस्लाम जब भारत पहुँचा तो उस समय दक्षिण भारत में आलवार भक्तों का आन्दोलन पूरी शक्ति से चल रहा था । सर चार्ल्स इलियट ने वर्ष 1921 में प्रकाशित अपनी पुस्तक हिन्दुइज्म ऐंड बुद्धिज्म में लिखा कि रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, लिंगायत तथा वीर शैवों पर इस्लाम का प्रभाव हो सकता है । डॉ. ताराचन्द ने अपनी पुस्तक इंफ्यूजंस ऑफ इस्लाम ऑन इंडियन कल्चर में यह मत व्यक्त किया कि शंकराचार्य, निम्बकाचार्य, रामानन्द, वल्लभाचार्य, दक्षिण के आलवार संत, लिंगायत सम्प्रदाय तथा वीर शैव इस्लामी प्रभाव की देन हैं । यही बात हुमायूँ कबीर ने अपनी पुस्तक अवर हेरिटेज में कहा ।

43- शंकराचार्य के पूर्वज बौद्ध दार्शनिक थे ।शंकर को प्रच्छन्न बौद्ध माना भी जाता है । शंकर ने बौद्ध धर्म की बहुत सी बातों को चुपके से अपना लिया, इसीलिए वह प्रच्छन्न बौद्ध कहलाए और उन्हें दार्शनिक वसुबंध के विचारों से जोड़ा गया । शंकर मत के मायावाद को बौद्धों के शून्यवाद की ही तरह ग्रहण किया जा सकता है क्योंकि शंकर की ब्रम्हकल्पना भक्तों के लिए निराशाजनक है ।यही कारण है कि भक्तिकाल के चार बड़े आचार्यों ने शंकर मत का प्रतिवाद किया ।रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, वल्लभाचार्य और निम्बकाचार्य ने निराकार उपासना से दूर हटकर साकार उपासना का प्रचार किया ।शंकर सुधारक संत थे और प्रचण्ड बौद्धिक ।

44- शंकराचार्य ने बदरिकाआश्रम, द्वारका, जगन्नाथपुरी तथा श्रंगेरी में चार पीठों की स्थापना करके सांस्कृतिक एकता की स्थापना की ।भक्ति उन्मुक्तता, समानता और बंधुता का क्षेत्र है ।इसलिए भक्ति दर्शन में प्रेम की महिमा अपरम्पार है ।भागवत की यह उक्ति कि भक्ति का जन्म द्रविड़ देश में हुआ, इतिहास संगत है ।ध्यान रहे रामोपासना का आरम्भ आलवार भक्तों ने किया था, रामानुज और रामानन्द ने उसे निखार दिया है । तमिल रामायण पहले लिखी गई, हिन्दी में रामायण बाद में ।नाथमुनि के तमिल दिव्य प्रबन्धन को भक्ति का प्रमुख ग्रन्थ माना जाता है ।

45- उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में पश्चिम के विद्वानों ने कहा कि कृष्ण कथा से सम्बद्ध उपाख्यान तथा भक्ति सिद्धांत ईसाई धर्म से लिए गए हैं और कृष्ण तो क्राइस्ट का ही रूपांतर हैं । मैक्स वेबर ने सन् 1874 में ऐन इनवेस्टिगेशन इन टु द ऑरिजिन ऑफ फ़ेस्टिवल ऑफ कृष्ण जन्माष्टमी शीर्षक से निबंध लिखकर इस तरह की धारणाओं का प्रतिपादन किया । सन् 1900 में मैक्समूलर ने सेक्रेड बुक्स ऑफ द ईस्ट की भूमिका में धार्मिक विचारों पर फिर से चर्चा की । 1908 में ग्रियर्सन का भागवत धर्म पर नारायणीय ऐंड द भागवताज लेख प्रकाशित हुआ । वर्ष 1913 में वैष्णविज्म, शैविज्म ऐंड माइनर रिलीजस सिस्टम जैसी रचना आई ।

46- भगवद्गीता या गीता ने भारतीय समाज में कर्म सिद्धांत स्थापित करने की महती भूमिका निभाई है ।दर्शन और धर्म सम्बन्धी यह पद्यबद्ध रचना महाभारत का एक भाग है ।ज्ञानेश्वर, एकनाथ और रामदास ने भी अपने सिद्धांतों का निरूपण गीता की व्याख्या के ज़रिए ही किया है । बाल गंगाधर तिलक ने भी गीता की व्याख्या की । भारतीय राष्ट्रवाद के प्रमुख सिद्धांतकार अरविंद घोष और फिर आगे चलकर गांधी विचार पर भी गीता की स्पष्ट छाप है ।स्वामी विवेकानंद पर भी गीता का आजीवन असर रहा । एनी बेसेंट के अनुसार गीता साधक को संन्यास के उस उच्च स्तर पर ले जाती है जहां कामना और आसक्ति का त्याग हो जाता है ।

47- अठारहवीं शताब्दी के अंतिम दौर में बंगाल के पहले गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स की आज्ञा से चार्ल्स विलकिंस नामक संस्कृत के अंग्रेज़ विद्वान ने इसका सबसे पहले अंग्रेज़ी अनुवाद किया ।इसी अनुवाद को पढ़कर इमर्सन ने ब्रम्ह विषयक अपनी सुप्रसिद्ध कविता का प्रणयन किया । आज विश्व की ऐसी कोई भी प्रमुख भाषा नहीं है जिसमें भगवद्गीता का अनुवाद न हो ।अनेक भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों ने इसकी प्रशंसा में इसे मानव धर्म का ग्रन्थ बताया है तथा इसकी तुलना कामधेनु और कल्पवृक्ष से की है ।

48- महाभारत में भीष्म पर्व के तहत संकलित गीता भगवान कृष्ण द्वारा कुरुक्षेत्र के युद्ध में अर्जुन को दिए गए उपदेश के तौर पर दर्ज है । गीता में निर्दिष्ट तत्व ज्ञान उसके सिद्धांत पक्ष और व्यवहार पक्ष में समाहित है ।सिद्धांत पक्ष के अंतर्गत पदार्थ- विवेचन और व्यवहार पक्ष के तहत साधन मार्ग का विवेचन है ।गीता ने आत्मा को अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य तथा अशोध्य माना है ।वह सब प्राणियों में व्याप्त, अचल तथा सनातन है ।यहाँ पर जीव को अंश तथा भगवान को अंशी माना गया है ।

49- पंजाब के अम्बाला ज़िले के सुहाना गाँव स्थित मॉं फूलवंती और पिता रामशरण दास के घर में दिनांक 5 जनवरी, 1905 को जन्में भदन्त आनन्द कौसल्यायन (1905-1988) का नाम बीसवीं सदी के बौद्ध भिक्षुओं, विद्वानों और प्रचारकों में अत्यंत सम्मान के साथ लिया जाता है । बौद्ध धर्म के प्रचार एवं प्रसार के लिए उन्होंने विभिन्न देशों का दौरा किया तथा अपने सम्पूर्ण जीवन को धम्म के लिए अर्पित कर दिया ।वह अक्सर कहा करते थे : मेरा जीवन साइकिल के दो पहिये हैं, एक बौद्ध धर्म का प्रचार और दूसरा हिंदी भाषा का प्रचार । उन्होंने दीक्षाभूमि संदेश पत्रिका का सम्पादन भी किया ।

50- भदन्त आनन्द कौसल्यायन बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर और राहुल सांस्कृत्यायन को अपने प्रेरणा पुरुष के रूप में देखते थे ।उन्होंने बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर की विख्यात जीवनी यदि बाबा न होते लिखीउन्होंने कहा था, “इस देश में बाबा भी बहुत हुए और साहेब भी, किन्तु बाबा साहेब केवल एक ही हुए ।” 1928 में वह सिंहल द्वीप गए । 5 फ़रवरी, 1928 को उन्होंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली और उनका नाम आनन्द रखा गया । उनके बचपन का नाम हरिनाम था ।बाद में हरिनाम से वह आनन्दगिरि बने, फिर आनन्दगिरि से विश्वनाथ और विश्वनाथ से कौशल्यायन । 22 जून, 1988 को नागपुर में उनका परिनिर्वाण हुआ ।उन्होंने नागपुर के समीप नौ एकड़ भूमि में बौद्ध प्रशिक्षण संस्थान की नींव रखी जो आज बुद्ध भूमि के नाम से प्रसिद्ध है ।

नोट : उपरोक्त सभी तथ्य, अभय कुमार दुबे, द्वारा सम्पादित पुस्तक, समाज विज्ञान विश्वकोष, खंड 3 (तथ्य संख्या 1 से 41 तक) तथा खंड 4 ,(तथ्य संख्या 42 से 50 तक) दूसरा संस्करण 2016, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, ISBN : 978-81-267-2849-7 से साभार लिए गए हैं ।

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Dr. Raj Bahadur Mourya:
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