– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर-प्रदेश)। फ़ोटो गैलरी एवं प्रकाशन प्रभारी : डॉ. संकेत सौरभ, नई दिल्ली, उत्तर- प्रदेश, भारत । email : drrajbahadurmourya@gmail.com, website : themahamaya.com
(मानवाधिकार आयोग, सार्विक मताधिकार, भारतीय शेयर बाज़ार, भारत में इतिहास लेखन, सबाल्टर्न अध्ययन, भारतीय इस्लाम, भारत में उदारतावाद, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय जनता पार्टी, भारतीय जनसंघ )
1- भारत में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन वर्ष 1993 में मानवाधिकार संरक्षा अधिनियम के तहत दिनांक 12 अक्तूबर, 1993 को किया गया ।यह स्वायत्त संस्था दक्षिण एशियाई देशों में अनूठी है । इस क़ानून का अनुच्छेद 2(1) (D) मानवाधिकारों की परिभाषा व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता, समानता और गरिमा के अधिकारों के रूप में करता है । यह आयोग मानवाधिकारों के किसी भी उल्लंघन की जाँच कर सकता है, किसी भी सम्बन्धित मामले में अदालत की कार्रवाई में हस्तक्षेप कर सकता है, कारागार का निरीक्षण कर सकता है, मानवाधिकारों से संबंधित राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संधियों की जाँच कर सकता है और उनके प्रभावी कार्यान्वयन के लिए केन्द्र सरकार से सिफ़ारिश कर सकता है ।
2- वर्ष, 1936 में सात नवम्बर को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कलकत्ता में सिविल लिबर्टी यूनियन का उद्घाटन किया था ।नेहरू का केन्द्रीय आग्रह था : मानवाधिकारों का अर्थ है राज्य की कार्रवाइयों के विरोध का अधिकार ।नेहरू की कोशिशों से बने इस संगठन का उद्घाटन अधिवेशन बम्बई में हुआ जिसकी अध्यक्षता रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने की और कार्यकारी अध्यक्षता सरोजिनी नायडू को मिली ।इस संगठन ने ब्रिटिश जेलों और देशी रियासतों के कारागार में राजनैतिक क़ैदियों के साथ होने वाली बदसलूकी का प्रश्न उठाया ।
3- भारत में संचार क्रांति का नेतृत्व दूरसंचार विभाग, सेन्टर फ़ॉर द डिवलेपमेंट ऑफ टेक्नोलॉजी ( सी- डॉट), टेलीकॉम रिसर्च सेंटर और टेलीफोन इंस्टीट्यूट ने किया । सरकार ने वर्ष 1994 में राष्ट्रीय दूरसंचार नीति घोषित की और मार्च, 1997 में टेलीकॉम रेगुलेटरी एथॉरिटी ऑफ इंडिया (ट्राई) की स्थापना किया । श्रीमती इंदिरा गाँधी और राजीव गांधी ने बतौर प्रधानमंत्री स्वदेशी प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने का रुख़ अपनाया । इसकी ज़िम्मेदारी सैम पितरोदा को दी गई ।सी- डॉट दरअसल उनके नेतृत्व में ही स्थापित किया गया था ।
4- भारत में साइबर- स्पेस के विमर्शकार रवि सुन्दरम के अनुसार अस्सी के दशक में चली राष्ट्रीय और भूमण्डलीकरण की अन्योन्यक्रिया के हाथों हमारी राष्ट्रवादी कल्पनाशीलता नए सिरे से विन्यस्त हुई है ।इससे पहले राष्ट्र निर्माण के लिए कोयला, इस्पात और ऊर्जा जैसे भौतिक संचय पर ज़ोर रहता था । विकास के मुद्दे इसी तर्ज़ पर हल किए जाते थे । लेकिन नई कल्पना के केन्द्र में कम्प्यूटर था जो निराकार दायरे की आभासी प्रतिलिपियाँ बनाने में लगा हुआ था । इससे नेटवर्क नामक अमूर्त संरचना निकल रही थी ।
5- भारत में सार्विक मताधिकार संविधान के लागू होने के साथ ही प्रदान कर दिया गया । इसे व्यक्तिवाद को प्रमुखता देने, हिन्दूओं के प्रभाव के कमजोर हो जाने के डर तथा राष्ट्रवाद की विकास प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है । वस्तुतः राष्ट्रवाद का सिद्धांत आग्रह करता है कि जिन लोगों से मिलकर राष्ट्र बना है उन्हें एक समान समझा जाना चाहिए । सन् 1895 में भारत के लिए संविधान लिखने का पहला गैर सरकारी प्रयास कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया बिल के रूप में सामने आया ।इसमें दावा किया गया था कि भारत में पैदा हुए हर व्यक्ति को नागरिक समझा जाना चाहिए और उसे सरकार चलाने के कामकाज में भागीदारी करने का अधिकार भी मिलना चाहिए ।
6- भारत में तेरहवीं सदी में राष्ट्र का मतलब था एक ऐसी संरचना जिस पर सांस्कृतिक और राजनीतिक रंग रुतबा रखने वाले समूहों के प्रतिनिधियों यानी सामाजिक अभिजनों का आधिपत्य हो । लेकिन सोलहवीं सदी में राष्ट्र का यह विचार बदला और उसे पीपुल या जन- गणों का पर्याय मान लिया गया ।अर्थात् एक राष्ट्र की भू- क्षेत्रीय परिधि में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति राष्ट्रीय समुदाय का सदस्य मान लिया गया ।1928 में मोतीलाल नेहरू की रपट ने नागरिकता की अवधारणा की पुष्टि की ।रपट के अनुच्छेद 9 में स्पष्ट किया गया कि 21 साल के किसी भी स्त्री और पुरुष को संसद के लिए मत देने का अधिकार मिलना चाहिए ।
7- जून, 1996 में भारत में एच. डी. देवगौडा के प्रधानमंत्रित्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार ने अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में दिए गए आश्वासन के मुताबिक़ संसद और विधानसभाओं में जेंडर के आधार पर 33 फ़ीसदी आरक्षण का प्रावधान करने वाला 81 वां संविधान संशोधन विधेयक पेश किया ।परन्तु यह पारित नहीं हो सका । 1998 में यही विधेयक 84 वें संविधान संशोधन के रूप में पेश किया गया ।फिर 1999 में इसका एक और संस्करण 85 वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में रखा गया, लेकिन यह भी पारित नहीं किया जा सका ।
8- भारत में सरोजनी नायडू ने 1918 में ही स्त्रियों को मतदान का अधिकार देने की माँग उठाया था । 1930 में बम्बई में हुए ऑल इंडिया वुमंस कांफ्रेंस के जलसे को सम्बोधित करते हुए सरोजिनी नायडू ने कहा कि स्त्रियों के लिए किसी भी तरह की विशेष सुविधा की माँग करना उनकी कमतर हैसियत को स्वीकार कर लेना होगा । लेकिन वुमंस एसोसिएशन की तरफ़ से मद्रास विधान परिषद में नामित हुई डॉ. मुत्थुलक्ष्मी रेड्डी की मान्यता थी कि स्त्रियों के नज़रिए को सामने लाने के लिए आरक्षण ज़रूरी है ।उन्होंने तत्कालीन परिस्थितियों में स्त्रियों के लिए प्रथक मतदाता मंडलों की आवश्यकता को भी रेखांकित किया ।
9- माना जाता है कि अमेरिकी गृहयुद्ध के ख़त्म होने से कपास के निर्यात से होने वाली आमदनी के रूक जाने के कारण व्यापारियों और दलालों को लगे झटके के गर्भ से भारतीय शेयर बाज़ार का जन्म हुआ । 1875 की जुलाई में बम्बई के दलालों ने एक एसोसिएशन बनाई जिसे आज हम बम्बई स्टॉक एक्सचेंज के नाम से जानते हैं ।यद्यपि भारत के औद्योगीकरण के लिए पंडित जवाहरलाल नेहरु ने कभी भी शेयर बाज़ार की संस्कृति पर भरोसा नहीं किया था
10- 1948 में औद्योगिक वित्त पर राष्ट्रीय नियोजन कमेटी की बैठक में जवाहरलाल नेहरु ने कहा था कि, “आम तौर पर लोग समझते हैं कि शेयर बाज़ार उद्योगों के लिए पूँजी जुटाने का काम करते हैं… नज़दीक से देखने पर किसी तरह नहीं लगता कि भारतीय स्टॉक एक्सचेंजों को दीर्घावधि औद्योगिक क़र्ज़ और अल्पावधि कार्य- पूँजी उपलब्ध कराने में विशेषज्ञा हासिल है ।… यह संस्थान सट्टेबाज़ों के प्रिय अड्डे हैं… यह दिन- दहाड़े जुएबाजी की सुविधा देने वाली सर्वाधिक प्रतिष्ठित संस्थाएँ हैं… औद्योगीकरण के लिए पूँजी जुटाने हेतु हम इस तरह के सामाजिक फोड़ों पर भरोसा नहीं कर सकते ।
11- रजनी कोठारी की प्रसिद्ध पुस्तक राजनीति : कल और आज (2005), सम्पादन एवं प्रस्तुति : अभय कुमार दुबे, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, में भारत में अभिजन वर्ग को समझने की कोशिश की गई है ।कोठारी के अनुसार भारत में तीन प्रकार के अभिजन वर्ग पाये जाते हैं- राष्ट्रीय अभिजन, मध्यवर्ती अभिजन और स्थानीय अभिजन । कोठारी राष्ट्रीय अभिजन का उद्गम भारत की सभ्यतामूलक विशेषताओं और उदीयमान आधुनिकता के बेहतरीन संसर्ग में निहित मानते हैं ।स्थानीय अभिजन का निर्माण क्षेत्रीय, भाषायी और जातीय शक्तियाँ करती हैं ।मध्यवर्ती अभिजन जनता, उनके स्थानीय और शीर्ष नेताओं के बीच सम्पर्क सूत्र का काम करने वाले होते हैं ।
12- रजनी कोठारी की मान्यता है कि राजनीतिक विकास के शुरुआती दौर में अभिजन की यह त्रिस्तरीय संरचना इनपुट- आउटपुट मॉडल की तरह काम करती थी । वैचारिक और नीतिगत इनपुट राष्ट्रीय अभिजन की तरफ़ से आता था, और उसके ऊपर जनता और जनता की प्रतिक्रिया बाक़ी दोनों अभिजनों के ज़रिए संसाधित होती थी । रजनी कोठारी के मॉडल को मध्यवर्ती समूहन का मॉडल कहा जा सकता है ।
13- पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय बहुलता को आधुनिकता की सफलता के तर्क में बदल दिया ।उन्होंने रवीन्द्रनाथ के तर्ज़ पर कहा कि अगर हमने राष्ट्र- राज्य का समरूपीकरण का मॉडल आरोपित किया तो धार्मिक और क्षेत्रीय अल्पसंख्यकों को उनके आत्मसात् किए जाने का डर सताने लगेगा । रवीन्द्रनाथ पहले ही कह चुके थे कि भारत की सांस्कृतिक बहुलता भारतीय क़िस्म के राष्ट्रवाद के लिए नुक़सानदेह होने के बजाय फ़ायदेमंद है ।इस तरह गांधी- नेहरू की मिली- जुली कल्पनाशीलता के आधार पर भारतीय आधुनिकता की भित्ति निर्मित हुई ।
14- भारत में इतिहास लेखन की शुरुआत अठारहवीं सदी में ईस्ट इंडिया कंपनी की 1757 की बंगाल विजय से हुई ।अंग्रेज़ों ने इसके बाद से भारत का इतिहास लिखना प्रारम्भ किया ।एक सैनिक अधिकारी अलेक्ज़ेंडर डाउ ने 1768 से 1771 के बीच फ़ारसी में रचित भारतीय इतिहास की एक मानक पुस्तक का अंग्रेज़ी अनुवाद किया, जो हिस्ट्री ऑफ हिन्दोस्तान के नाम से प्रकाशित हुई । 1776 में एन. बी. हैलहेड ने संस्कृत के धर्मशास्त्रों का संकलन और अनुवाद किया जिसका नतीजा अ कोड ऑफ जेंटू लॉज, ऑर ओर्डीनेशंस ऑफ द पंडित्स के रूप में सामने आया ।
15- प्राच्यवादी भारतीय इतिहासकारों की श्रृंखला में जल्दी ही कई नाम जुड़ गए ।इनमें विलियम जोन्स, एच. टी. कोलब्रुक, जॉन शोर और फ़्रांसिस ग्लैडविन का नाम उल्लेखनीय है ।विलियम जोंस के प्रयासों से 1884 में एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल की स्थापना की गई । कई अनुसंधान पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू हुआ ।जिनमें एशियाटिक रिसर्चिज (1788), क्वार्टरली जरनल (1821), और जरनल ऑफ द एशियाटिक सोसाइटी (1832) प्रमुख थे ।इसी क्रम में मैक्समूलर ने आर्य नस्ल की अवधारणा प्रतिपादित की । उन्होंने दावा किया कि यूरोप वासी और भारत के ब्राह्मण इसी आर्य नस्ल की देन हैं ।1892 में बैडन- पावेल की रचना लैंड सिस्टम ऑफ ब्रिटिश इंडिया प्रकाश में आई ।
16- पश्चिम की प्राच्यवादी विचारधारा के आधार पर भारत का इतिहास लिखने की प्रवृत्तियों को बीसवीं सदी में राष्ट्रवादी इतिहास- लेखन द्वारा पहली अहम चुनौती मिली । 1901 में प्रकाशित आर. सी. दत्त रचित द इकॉनॉमिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया (दो खंडों में) जैसे क्लासिक ग्रन्थ ने इसकी पूर्व पीठिका तैयार की ।इस पूर्व पीठिका पर एच. सी. राय चौधरी, काशी प्रसाद जायसवाल, बेनी प्रसाद, और आर. के. मुखर्जी जैसे पेशेवर इतिहासकारों ने अपनी इबारतें भी लिखीं ।
17- वर्ष 1946 में प्रकाशित अपनी पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया में पंडित जवाहरलाल ने तर्क दिया कि भारतीय संस्कृति हिन्दू या हिन्दुवाद का पर्याय नहीं है ।उनका ज़ोर सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विविधता पर था । यद्यपि नेहरू भी आध्यात्मिकता को भारतीय अतीत का सार मानते थे और गुप्त साम्राज्य उनकी निगाहों में भी राष्ट्रवाद के पनपने की अवधि थी, लेकिन हिन्दू पुनरूत्थानवादी इतिहास लेखन उनके सेकुलर और सार्वदेशिक नज़रिए में फ़िट नहीं होता था । उन्होंने जो सेकुलर भारत खोजा उसके पालने में कई और धर्मों का लालन पालन हुआ था ।अनगिनत आक्रमणों और संघर्षों से गुजरता हुआ नेहरू का यह भारत एक हद तक एकता की उपलब्धि कर चुका था ।
18- उत्तर- भारत में हुए 1857 के विद्रोह की घटनाओं को केन्द्र बनाकर 1909 में हिन्दू राष्ट्रवादी विचारक विनायक दामोदर सावरकर ने द वार ऑफ इंडिपेंडेंस, 1857 की रचना की । प्राच्यवादियों द्वारा इस विद्रोह को म्यूटिनी अर्थात् सिपाही विद्रोह या गदर करार देने की आलोचना करते हुए सावरकर ने दावा किया कि यह एक राष्ट्रीय विद्रोह था । 1959 में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी ने इसी विद्रोह से सम्बन्धित मार्क्स और एंगेल्स की रचनाओं का संकलन सम्पादित किया ।विदेशी प्रकाशन गृह, मास्को द्वारा छापे गए इस संकलन का शीर्षक था : द फ़र्स्ट वार ऑफ इंडिपेंडेंस 1857-59 l
19- आज़ाद भारत के इतिहास सम्बन्धी लेखन में मानवशास्त्रीय अध्ययनों का प्रभाव था ।नव- उपनिवेशवाद के खिलाफ चिंतन भी इसी ज़माने में परवान चढ़ा । फ़्रांसीसी मानवशास्त्री लुई दूमों द्वारा किए गए भारतीय जाति व्यवस्था के अध्ययन होमो हाइरारकिस (1970) की प्रस्थापनाओं के इर्द-गिर्द जातियों और समुदायों का सामाजिक इतिहास रचा जाने लगा ।सामाजिक और सांस्कृतिक मानवशास्त्रियों ने नई ज़मीन तोडनी शुरू कर दी ।इन विद्वानों की दिलचस्पी ग्रन्थों या भाषाओं के बजाय लोगों और संस्कृतियों के अध्ययन में थी ।
20- फ्रेडरिख जे. बायली द्वारा रचित कास्ट ऐंड द इकॉनॉमिक फ़्रंटियर (1957), एम. एन. श्रीनिवास रचित सोशल चेंज इन मॉडर्न इंडिया (1966) अगर दूमों से पहले की कृतियाँ थीं, तो दूमों के बाद रोनाल्ड बी. इंडेन, फ्रेंक एफ. कोलोन और कैरेन आई. लियोनार्ड द्वारा किए गए बेहतरीन ऐतिहासिक अध्ययन प्रकाशित हुए ।
21- मार्क्सवादी इतिहासकारों में दामोदर धर्मानंद कोसम्बी, रोमिला थापर, डी. एन. झा और रामशरण शर्मा ने प्राचीन भारत के अपने बेमिसाल अध्ययनों से इस प्रकार के इतिहास लेखन को काफ़ी समृद्ध किया ।पूरन चन्द्र जोशी द्वारा 1857 के विद्रोह को एक लोकप्रिय क्रांतिकारी आन्दोलन के रूप में पेश करने का उद्यम किया गया । ए. आर. देसाई और डी. एन. धनगरे किसान संघर्षों को प्रमुखता देने वाली रचनाएँ लेकर सामने आए ।सुमित सरकार (राममोहन राय ऐंड ब्रेक विद द पास्ट), वरूण डे (द कोलोनियल कंटेक्स्ट ऑफ द बंगाल रिनेशां) जैसी रचनाएँ भी सामने आई ।
22- प्राच्यवादी, राष्ट्रवादी, उत्तर- राष्ट्रवादी और मार्क्सवादी इतिहास लेखन में परस्पर भिन्नताएं होते हुए भी एक बात समान थी कि यह सभी इतिहास किसी न किसी अस्मिता की बुनियाद पर खड़े थे । प्राच्यवादी सभ्यता मूलक अस्मिता की गिरफ़्त में थे । राष्ट्रवादी इतिहासकार समकालीन राष्ट्रवादी विचारधारा के आइने से बाहर देखने के लिये तैयार नहीं थे । उत्तर राष्ट्रवादियों ने मानवशास्त्र के साथ गठजोड़ करके खुद को जातिगत और सामुदायिक इतिहास और आधुनिकीकरण के लक्ष्य तक सीमित कर लिया था । इसी दौर में 1978 में प्रकाशित एडवर्ड विलियम सईद की कृति ओरियंटलिज्म ने एक नई दृष्टि दी ।अस्सी के दशक में एक नया पद प्रचलित हुआ जिसे एंटोनियो ग्राम्शी के तर्ज़ पर सबाल्टर्न या निम्न वर्गीय इतिहास कहा गया ।
23- सबाल्टर्न सिरीज़ के सम्पादक रणजीत सिंह गुहा ने 1983 में प्रकाशित एलीमेंटरी आस्पेक्ट्स ऑफ पीजेंट्स इंसरजेंसी इन कोलोनियल इंडिया में इस नई विधा का बेहतरीन प्रतिपादन किया है ।इसके अतिरिक्त पार्थ चटर्जी, ज्ञानेंद्र पाण्डेय, शाहिद अमीन, दीपेश चक्रवर्ती, गौतम भद्र, अजय सरकारिया और शैल मायाराम जैसे प्रमुख हस्ताक्षरों ने इस परियोजना में भागीदारी की ।सबाल्टर्न के पैरोकारों ने दिखाया कि भारत बनाम ब्रिटेन, अपराध बनाम क़ानून व्यवस्था, परम्परा बनाम आधुनिक, सेकुलर बनाम धार्मिक, वर्ग चेतना बनाम सामुदायिक चेतना, भौतिकवाद बनाम अध्यात्मवाद, प्रतिक्रिया बनाम प्रगतिशील, स्त्री की अधीनस्थता बनाम स्त्री मुक्ति के द्विभाजनों को स्थापित करने की प्रक्रिया में इतिहास लेखन क्या-क्या छिपा ले गया और कौन- कौन से पहलुओं पर कम ज़ोर दिया गया ।
24- भारतीय इस्लाम की अवधारणा दो प्रवृत्तियों को साथ लेकर चलने की कोशिश करती है ।एक भारत को केन्द्र में रखकर इस्लाम को देखना और दूसरा इस्लाम की पृष्ठभूमि में भारत के मायने तलाश करना । वर्ष 1847 में प्रकाशित अमीर अली की पुस्तक अ शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ कारसेंस और 1890 की द लाइफ़ ऑफ मुहम्मद भारतीय इस्लाम को इस्लाम के व्यापक इतिहास में रखकर देखती हैं । यही कारण है कि भारत में मुसलमान शासन का हवाला इन कृतियों में यदा- कदा ही मिलता है ।
25- उपरोक्त परिप्रेक्ष्य में मुहम्मद इक़बाल की शायरी में भारत एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है, परन्तु 1930 में प्रकाशित उनकी दार्शनिक कृति रिकंस्ट्रक्शन ऑफ रिलीजस थॉट इन इस्लाम एक ऐसी धार्मिक संस्कृति का तर्क स्थापित करती है जिसकी रोशनी में तमाम मुसलमान को एक इकाई में बदलते देखते हैं । मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के लेखन में भी इस्लाम की व्यापकता और राष्ट्रवाद के बीच एक वैचारिक साम्य बैठाने की कोशिश दिखती है । इनका मानना है कि दरअसल इस्लाम की व्यापकता में राष्ट्रवाद या यूं कहें कि भारतीय राष्ट्रवाद के लिए एक जगह मौजूद है ।मुसलमान और भारत के बीच एक साम्य हो सकता है जिसे आज़ाद की विचारधारा दारूल- सुलह का नाम देती है ।
26- वर्ष 1957 में प्रकाशित स्मिथ की पुस्तक इस्लाम इन मॉडर्न हिस्ट्री में भारतीय इस्लाम की विविधताओं और विशेषताओं का विस्तृत विश्लेषण किया गया है । इसी बहुलता का एक सटीक चित्र अजीज अहमद के लेखन में मिलता है ।अज़ीज़ अहमद की दो पुस्तकें स्टडीज़ इन इस्लामिक कल्चर इन एनवायरमेंट (1964) और इस्लामिक मॉडर्निज्म इन इंडिया ऐंड पाकिस्तान (1967) दक्षिण एशियाई भारतीय इस्लाम का ऐतिहासिक विश्लेषण करती हैं ।इस्लामिक बहुलता का समाजशास्त्रीय अध्ययन 1960 के अंतिम वर्षों में प्रारम्भ हुआ । इम्तियाज़ अहमद, त्रिलोकी नाथ मदन एवं पॉल ब्रास ने भारतीय इस्लाम की बहस को एक नई दिशा दी ।
27- सत्तर के दशक में एक नए अकादमिक दृष्टिकोण की शुरुआत हुई ।फ़्रांसिस रॉबिन्सन ने आधुनिक मुसलमान इतिहास का पुनरावलोकन करते हुए बताया कि मुसलमान समुदायों में इस्लाम के प्रति रुझान उनकी राजनीतिक पहचान को निर्धारित करता है । ऐसे में आत्मसातीकरण की थिसिज में निहित बहुलता मुसलमान पृथकतावाद की सही व्याख्या नहीं करती ।रॉबिन्सन की इसी परम्परा को फ़रजाना शेख़ ने आगे बढ़ाया । शेख़ की पुस्तक कम्युनिटी ऐंड कम्पर्न इन इस्लाम : मुसलमान रिप्रजेंटेशन इन कोलोनियल इंडिया (1989) ने मुसलमान प्रतिनिधित्व की पूरी बहस इस्लाम को एक राजनीतिक समुदाय के तौर पर स्थापित करती है । इसे प्राइमोर्डियल पर्सपेक्टिव कहा जा सकता है ।
28- भारत में उदारतावाद उपयोगितावाद के ज़रिए आया और उसे एक ऐसी अजनबी संस्कृति के खॉंचे में फ़िट किया गया जिसमें व्यक्ति और उसकी स्वायत्तता के विकास के लिए कोई जगह नहीं थी ।अगर प्राकृतिक अधिकारों का विचार आधुनिक उदारतावाद के मर्म में है तो भारतीय राष्ट्रवाद में इसकी अभिव्यक्ति बेहद कमजोर है । भारत में अधिकारों के विमर्श के केन्द्र में व्यक्ति न होकर सामूहिकता और धार्मिक आधारों पर गठित समुदाय हैं ।
29- भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का गठन 25 दिसम्बर, 1925 को कानपुर में हुई पार्टी कांग्रेस में हुआ ।जबकि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के अनुसार भारत की इस सबसे पुरानी कम्युनिस्ट पार्टी का गठन 17 अक्तूबर, 1920 को कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की दूसरी कांग्रेस के तुरंत बाद हुआ था । इसके शुरुआती नेताओं में मानवेन्द्र नाथ राय, अबनी मुखर्जी, मोहम्मद अली जिन्ना और शफ़ीक़ शिद्दीकी आदि प्रमुख थे । 20 मार्च, 1929 को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े बहुत से महत्वपूर्ण नेताओं को मेरठ षड्यंत्र केस में गिरफ़्तार कर लिया गया था । 1933 में इन गिरफ़्तार नेताओं की रिहाई हुई ।
30- 1936-1937 के दौरान सोशलिस्टों और कम्युनिस्टों के बीच में आपसी सहयोग काफ़ी बढ़ गया ।जनवरी, 1936 में सी एस पी की दूसरी कांग्रेस में यह थिसिज स्वीकार की गई कि मार्क्सवाद- लेनिनवाद के आधार पर एक संयुक्त भारतीय सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की आवश्यकता है । 1940 के कांग्रेस के रामगढ़ अधिवेशन में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने प्रॉलिटेरियन पथ शीर्षक से एक दस्तावेज़ जारी किया ।इसने 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन की आलोचना की और सुभाष चन्द्र बोस की तीखी निंदा की ।
31- भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने 1946 में हुए प्रांतीय चुनावों में हिस्सा लिया परन्तु पूरे देश के 1585 प्रान्तीय विधानसभा की सीटों में से कुल 8 सीटों पर ही जीत मिली । पार्टी ने वर्ष 1946 में बंगाल में हुए तेभागा आन्दोलन और आन्ध्र में हुए तेलंगाना आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।तेभागा आन्दोलन में बंगाल के जोतदारों ने इस बात के लिए संघर्ष किया कि उनके पास अपनी खेती के उत्पाद का दो- तिहाई भाग होना चाहिए । तेलंगाना आन्दोलन हैदराबाद रजवाड़े में हुआ ।नालगोंडा, वारंगल और खम्मम ज़िलों में किसानों ने क़र्ज़ माफ़ी, बन्धुआ मजदूरी ख़त्म करने और भूमि पुनर्वितरण के लिए आन्दोलन चलाया ।
32- देश में सम्पन्न हुए पहले आम चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को लोकसभा में 16 सीटों पर जीत हासिल हुई और यह मुख्य विपक्षी दल में उभरी ।दूसरे आम चुनावों में पार्टी को 27 लोकसभा क्षेत्रों में जीत मिली । तीसरे आम चुनाव में भाकपा को 29 सीटों पर जीत मिली ।भाकपा अब भी संसद में कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी । 1964 में भाकपा का विभाजन हो गया और एक नई पार्टी माकपा का उभार हुआ । भाकपा के कई जुझारू नेता मसलन नम्बूदरीपाद, ज्योति बसु, हरकिशन सिंह सुरजीत आदि माकपा में शामिल हो गए ।
33- केरल में वर्ष 1957 के विधानसभा चुनावों के बाद ई. एम. एस. नम्बूदरीपाद के नेतृत्व में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी । यह विश्व की पहली चुनी हुई कम्युनिस्ट सरकार थी ।लेकिन 1959 में नेहरू सरकार ने इसे बर्खास्त कर दिया । पश्चिम बंगाल में भाकपा ने 1970-77 के बीच कांग्रेस से गठजोड़ किया और उनके साथ मिलकर सरकार बनाई ।भाकपा के के. सी. अच्युत मेनन राज्य के मुख्यमंत्री बने । इनका कार्यकाल 4 अक्तूबर, 1970 से 25 मार्च, 1977 तक रहा ।इसके बाद किसी राज्य में भाकपा को सत्ता में आने का मौक़ा नहीं मिला ।1970-77 के दौर में कांग्रेस से गठजोड़ होने के कारण भाकपा ने इंदिरा गांधी की कांग्रेस द्वारा लगाए गए आपातकाल का समर्थन किया ।
35- वर्ष 1996 के लोकसभा चुनाव के बाद संयुक्त मोर्चे की दोनों सरकारों (एच.डी. देवगौडा और इन्द्र कुमार गुजराल) की सरकार में भाकपा के नेता शामिल हुए और उन्होंने गृह मंत्रालय (इन्द्रजीत गुप्त) और कृषि मंत्रालय (चतुरानन मिश्र) जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय सम्भाले । परन्तु वर्ष 1980 के बाद हुए लोकसभा के हर चुनाव में इसे 15 से कम सीटों पर जीत हासिल हुई ।
36- मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का गठन 1964 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के विभाजन के बाद हुआ ।पिछले 50 साल की राजनीति में माकपा ने भारतीय लोकतंत्र को सेकुलर, जनोन्मुखी और प्रगतिशील दिशा देने में संजीदा भूमिका निभाई है । पार्टी का सैद्धांतिक विमर्श या इसके द्वारा उठाए जाने वाले मुद्दे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय चिंताओं को भी समेटते हैं ।वर्ष 2004-2009 के दौरान केन्द्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार को समर्थन देते हुए माकपा ने सरकार को नीतिगत दिशा देने का काम किया ।
37-वर्ष 1977 में पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे की सरकार बनी, जिसमें माकपा सबसे बड़ा घटक दल था और ज्योति बसु राज्य के मुख्यमंत्री बने ।बसु ने आपरेशन बर्गा के माध्यम से भूमि सुधारों द्वारा ग्रामीण जनता में पैठ बनाई और रिकॉर्ड समय तक मुख्यमंत्री रहे । इसके बाद बुद्धदेव भट्टाचार्य ने सरकार की कमान सम्भाली ।लेकिन 2011 के विधानसभा चुनावों में वाम मोर्चे को हार का सामना करना पड़ा ।उसके बाद से निरंतर बंगाल में माकपा का प्रभाव कम हो गया ।
38- माकपा ने केंद्र में ग़ैर कांग्रेस की राजनीति को मज़बूत करने के लिए वर्ष 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में बनी राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार को समर्थन प्रदान किया । वर्ष 1996 के चुनावों के बाद केंद्र में गैर भाजपायी सरकार के गठन में माकपा के महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत की महत्वपूर्ण भूमिका रही । माकपा ने इन सरकारों का न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाने में काफ़ी संजीदा भूमिका निभाई ।लेकिन उसने इन सरकारों में भागीदारी नहीं की ।यहाँ तक की अवसर मिलने पर भी पार्टी ने प्रधानमंत्री पद को भी ठुकरा दिया ।
39- माकपा ने केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के कार्यकाल (1998-2004) के दौरान शिद्दत से विपक्षी दल के दायित्व को निभाया । वर्ष 2004 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में बनी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार को वाम मोर्चे ने बाहर से समर्थन दिया ।इस सरकार द्वारा ही सूचना का अधिकार, वन अधिकार जैसे प्रगतिशील क़ानून बनाए गए जिससे आम लोगों और आदिवासियों को अधिकार मिला । इसके अलावा, इस सरकार ने ही राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम पारित किया । 2008 में अमेरिका के साथ हुए परमाणु समझौते से नाराज़ होकर वाम मोर्चे ने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया ।
40- भारतीय जनता पार्टी का गठन 6 अप्रैल, 1980 को भारतीय जनसंघ के नए अवतार के रूप में हुआ । 1951 में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में राष्ट्रवादी लक्ष्यों को हासिल करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राजनीतिक मोर्चे के तौर पर भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई थी । जनसंघ का राष्ट्रवाद विनायक दामोदर सावरकर द्वारा प्रतिपादित हिंदुत्व की विचारधारा के आइने में परिभाषित होता था । उनकी मान्यता थी कि, “ हिंदू का अर्थ है वह व्यक्ति जो सिन्धु से लेकर सागरों तक फैले भारतवर्ष को अपनी पितृभूमि और अपनी पुण्यभूमि दोनों मानता हो ।”
41- वर्ष 1953 में कश्मीर के भारत में पूर्ण एकीकरण के लिए आन्दोलन करते वक़्त श्यामा प्रसाद मुखर्जी का देहांत हो गया ।इसके बाद जनसंघ की बागडोर दीनदयाल उपाध्याय के युवा कन्धों पर आ गई ।जनसंघ ने समान नागरिक संहिता, गो- हत्या पर पाबंदी और कश्मीर के लिए विशेष प्रावधान ख़त्म करने जैसे मुद्दे उठाए । 1967 में पार्टी ने गैर- कांग्रेसवाद के नाम पर दूसरे कई दलों से तालमेल किया । परिणामस्वरूप उसे पहली बार उत्तर- प्रदेश जैसे कुछ राज्यों में सत्ता में आने का मौक़ा मिला ।परन्तु यह प्रयोग बहुत कामयाब नहीं रहा ।
42- वर्ष 1974 के जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन में भी जनसंघ के कार्यकर्ताओं ने भागीदारी की । 1975 में इन्दिरा गाँधी की सरकार के द्वारा देश में आन्तरिक आपातकाल लागू किए जाने पर होने वाली गिरफ़्तारियों में जनसंघ का शीर्ष नेतृत्व भी था ।1977 में आपातकाल ख़त्म होने के बाद होने वाले चुनावों से पहले ग़ैर कांग्रेसी दलों ने एक नए दल जनता पार्टी का गठन किया ।जनसंघ इस पार्टी में अपना विलय करने को तैयार हो गया । इन चुनावों में जनसंघ की पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को 14 फ़ीसदी राष्ट्रीय वोट तथा 92 सीटों पर जीत हासिल हुई ।
43- इस चुनावों में जनता पार्टी को बहुमत मिला और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में सरकार बनी ।इस सरकार में पहली बार जनसंघ की पृष्ठभूमि वाले नेता केंद्र सरकार में मंत्री बने ।अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री और लालकृष्ण आडवाणी सूचना एवं प्रसारण मंत्री बने । दोहरी निष्ठा के सवाल पर जनसंघ के नेताओं ने जनता पार्टी से नाता तोड़ लिया ।इसी विवाद के कारण मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी सरकार का पतन हो गया । जनता पार्टी से अलग हुए पूर्व- जनसंघ के नेताओं ने ही अप्रैल, 1980 में भारतीय जनता पार्टी का गठन किया ।
44- अटल बिहारी वाजपेयी भाजपा के पहले राष्ट्रीय अध्यक्ष बने ।भाजपा ने अपनी विचारधारा में हिन्दुत्ववादी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और दीनदयाल उपाध्याय द्वारा प्रतिपादित एकात्म मानववाद के सिद्धांत के साथ-साथ गांधीवादी समाजवाद को स्थापित किया । पार्टी ने आर्थिक मोर्चे पर आत्म- निर्भरता और स्वदेशी की नीति का समर्थन किया ।विदेश नीति के स्तर पर गुटनिरपेक्षता जैसी नीतियों से ज़्यादा राष्ट्रीय हित को रेखांकित किया । 1980 के आम चुनाव में भाजपा को केवल 16 सीटों पर जीत हासिल हुई । जबकि 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए आम चुनाव में पार्टी को केवल 2 सीटों पर जीत हासिल हुई ।
45- वर्ष 1984 की पराजय के बाद भाजपा ने हिन्दुत्ववादी मुद्दों को उठाना शुरू किया ।1985 में शाहबानो मामले में कांग्रेस की केन्द्र सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले के बावजूद मुसलमान कट्टरपंथियों के सामने झुक जाने की भाजपा ने जम कर आलोचना की । उसने देश के सभी समुदायों के लिए संविधान में निर्देशित समान नागरिक संहिता बनाने की माँग की ।आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा ने वास्तविक सेकुलरवाद बनाम छद्म सेकुलरवाद की बहस छेड़ा । इसी दौर में पार्टी ने रामजन्मभूमि का मुद्दा भी उठाया ।
46- वर्ष 1989 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने जनता दल के साथ परोक्ष रूप से सहमति के साथ चुनाव लड़ा ।उसकी सीटों में इज़ाफ़ा हुआ और लोकसभा में उसकी सीटों की संख्या 2 से बढ़कर 89 हो गई ।वर्ष 1991 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को कुल 121 सीटों पर जीत हासिल हुई ।इस दौर में पार्टी ने राम मंदिर के साथ-साथ समान नागरिक संहिता बनाने और जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले संविधान की धारा 370 को ख़त्म करने के मुद्दे को भी ज़ोर- शोर से उठाया ।1992 के दिसम्बर माह के पहले हफ़्ते में अयोध्या में कार सेवा का आयोजन किया गया । 6 दिसम्बर को कार सेवकों के द्वारा बाबरी मस्जिद ढहा दी गई ।
47- वर्ष 1996 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 161 सीटों पर जीत हासिल हुई ।इसके नेता अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में केंद्र में भाजपा की सरकार बनी ।लेकिन इसे दूसरे दलों का समर्थन नहीं मिला ।इस कारण 13 दिनों के बाद बाजपेयी सरकार को इस्तीफ़ा देना पड़ा ।पुनः 1998 के मध्यावधि चुनावों में भाजपा एक बार फिर सबसे बड़े दल के रूप में उभरी ।अप्रैल, 1998 में कई क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर उसने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का निर्माण किया और केंद्र में सरकार बनायी ।परन्तु जयललिता के नेतृत्व में अन्नाद्रमुक के समर्थन वापस लेने के कारण सिर्फ़ 13 महीने में ही यह सरकार गिर गई ।
48- वर्ष 1999 में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के रूप में चुनाव लड़ा ।उसने अपनी पार्टी का अलग घोषणा- पत्र जारी करने से भी इंकार कर दिया और राजग के घोषणा पत्र को ही अपना लिया ।इस चुनाव में भाजपा को 182 सीटों पर जीत हासिल हुई ।केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार बनी । यह सरकार सफलतापूर्वक चली । इस सरकार में भाजपा ने उग्र हिंदुत्ववादी मुद्दों की उपेक्षा की कांग्रेस सरकार के द्वारा अपनाई गई आर्थिक सुधार की नीतियों को जारी रखा ।इस सरकार में ही विनिवेश विभाग का गठन किया गया था ।
49- वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने इंडिया शाइनिंग के नारे के साथ चुनाव लड़ा ।लेकिन उसे हार का सामना करना पड़ा ।इस चुनाव में भाजपा को 138 सीटों पर जीत हासिल हुई ।राजग को कुल 181 सीटें मिली चुनाव के बाद भाजपा विपक्ष की भूमिका में रही ।वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को पराजय का सामना करना पड़ा ।उसे कुल 116 सीटों पर जीत हासिल हुई ।यहाँ भी पार्टी ने विपक्ष की भूमिका निभाई ।
50- वर्ष 2014 में सम्पन्न सोलहवीं लोकसभा के आम चुनाव में भाजपा को 282 सीटों पर जीत हासिल हुई और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में भाजपा की सरकार बनी । इसी प्रकार वर्ष 2019 में सम्पन्न हुए सत्रहवीं लोकसभा के आम चुनाव में भी भाजपा को 303 सीटों पर जीत हासिल हुई और दुबारा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में भाजपा की सरकार बनी ।इस चुनाव में भाजपा को 41 प्रतिशत मत मिले । वर्तमान समय में भाजपा का मुख्यालय 6A, दीनदयाल उपाध्याय मार्ग, नई दिल्ली में है ।जगत प्रकाश नड्डा वर्तमान समय में भाजपा जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं ।
नोट- उपरोक्त सभी तथ्य (बिन्दु-50 के अतिरिक्त) अभय कुमार दुबे द्वारा सम्पादित पुस्तक “समाज विज्ञान विश्वकोष, खंड : 4,” राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण : 2016, ISBN: 978-81-267-2849-7 से साभार लिए गए हैं ।