– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर- प्रदेश), फ़ोटो गैलरी एवं प्रकाशन प्रभारी डॉ. संकेत सौरभ, नई दिल्ली, भारत ।email : drrajbahadurmourya @ gmail. Com, website : themahamaya. Com
(भ्रष्टाचार, मणिपुर, मध्यप्रदेश, मनोविज्ञान, म्यांमार, मस्जिद, महादेव गोविन्द रानाडे, महादेवी वर्मा, महाभारत, महाराष्ट्र)
1- अंग्रेज़ी में भ्रष्टाचार के लिए करप्शन शब्द का प्रयोग होता है जो लैटिन भाषा के शब्द करप्टियो की व्युत्पत्ति है और जिसका अभिप्राय नैतिकता का ह्रास, सड़ना, सामान्य स्तर से नीचे गिरना, स्थिति का बिगड़ना आदि है ।ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी में इसे सार्वजनिक क्षेत्र में विश्वसनीयता का लोप, रिश्वतख़ोरी और पक्षपात कहा गया है ।यह अस्वीकरण व्यवहार है । वर्ष 2004 की ग्लोबल करप्शन रिपोर्ट के मुताबिक़ इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुहार्तो, फ़िलीपींस के राष्ट्रपति मार्कोस, जैरे के राष्ट्रपति मोबुतो सेकु, नाइजीरिया के राष्ट्रपति सानी अबाका, सर्बिया के राष्ट्रपति मिलोसेविच, हैती के राष्ट्रपति डुवेलियर, और पेरू के राष्ट्रपति फुजीमोरी ने सैकड़ों से लेकर अरबों डॉलर की रकम का भ्रष्टाचार किया ।
2- सूजन रोज़ एकरमैन ने अपनी रचना करप्शन एंड गवर्नमेंट : कॉजिज, कांसिक्वेसिंज ऐंड रिफॉर्म में शीर्ष पदों पर होने वाले भ्रष्टाचार को क्लेप्टोक्रैसी की संज्ञा दी है । भारत में पब्लिक सेक्टर संस्थाओं के मुखिया अफ़सरों को सरकारी मुग़लों की संज्ञा दी जा चुकी है ।टु जी स्पेक्ट्रम के आवंटन में हुए भ्रष्टाचार को भी क्लेप्टोक्रैसी के ताजे उदाहरण के तौर पर लिया जा सकता है ।निचले स्तर पर होने वाला भ्रष्टाचार स्पीड मनी या सुविधा शुल्क के तौर पर जाना जाता है । भारत में लोकपाल और लोकायुक्त, अमेरिका में फॉरेन करप्ट प्रेक्टिस एक्ट, हांगकांग में इंडिपेंडेंट कमीशन अगेंस्ट करप्शन जैसी संस्थाए भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के लिए बनाई गई हैं ।
3- वर्ष 1993 में ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की स्थापना की गई ।दूसरी तरफ़ एकाउंटेंसी फ़र्म प्राइस वाटर हाउस कूपर्स ने ओपेसिटी इंडेक्स की रचना की । सेंटर फ़ॉर पब्लिक इंटेग्रिटी इंडेक्स तैयार की है ।वर्ष 2009 में करप्शन परसेप्शन इंडेक्स ने 180 देशों की पारदर्शिता का अध्ययन करके न्यूज़ीलैंड को सबसे कम भ्रष्ट और सोमालिया को सबसे अधिक भ्रष्ट देश करार दिया था ।वर्ष 2005 में प्रकाशित माइकल जांस्टन की कृति सिंड्रॉम्स ऑफ करप्शन : वेल्थ, पॉवर एंड डेमॉक्रेसी भ्रष्टाचार पर महत्वपूर्ण पुस्तक है ।
4- भारत के उत्तर- पूर्वी भाग में स्थित राज्य मणिपुर की राजधानी इंफाल है ।इसके उत्तर में नगालैण्ड , दक्षिण में मिज़ोरम, पश्चिम में असम और पूर्व में म्यांमार स्थित है ।मणिपुर का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 22,347 वर्ग किलोमीटर है और इस आधार पर यह भारत का तेइसवॉं सबसे बड़ा राज्य है । 2011 की जनगणना के अनुसार यहाँ की जनसंख्या 2 करोड़, 72 लाख, एक हज़ार, सात सौ छप्पन है ।जनसंख्या के आधार पर भारत में मणिपुर का बाइसवॉं स्थान है ।यहाँ की साक्षरता दर 80 प्रतिशत है ।
5- मणिपुर की विधानसभा एक सदनीय है जिसमें कुल 60 सदस्य होते हैं । मणिपुर से लोकसभा के 2 और राज्य सभा के लिए एक सांसद चुना जाता है ।गुवाहाटी उच्च न्यायालय ही मणिपुर का भी उच्च न्यायालय है । मेतेइ यहाँ का प्रमुख जातीय समूह है, जिसके बाशिंदे मुख्य रूप से राज्य के घाटी क्षेत्र में रहते हैं ।मणिपुर की जनसंख्या में इस समूह की भागीदारी 60 प्रतिशत है ।इनकी भाषा मेतेइलन को मणिपुरी भी कहा जाता है, यही यहाँ पर राजभाषा है । इसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया है । माना जाता है कि मणिपुर से ही पोलो खेल की शुरुआत हुई ।यहाँ पर इसे सोगल कनगेई के नाम से जाना जाता है ।
6- वर्ष 1819 में बर्मा की सेनाओं ने मणिपुर पर क़ब्ज़ा कर लिया था ।1826 में अंग्रेजों और बर्मा के बीच हुए युद्ध के कारण बर्मा को मणिपुर पर अपना दावा छोडना पड़ा ।1891 में मणिपुर एक रजवाड़े के रूप में ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आया ।1947 तक यहाँ कंगलपाक वंश का शासन था ।वर्ष 1949 में मणिपुर का भारत में विलय हुआ ।1956 में मणिपुर को एक केन्द्र शासित प्रदेश बनाया गया ।1972 में इसे पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया । वर्ष 1980 में केंद्र सरकार ने पूरे राज्य में 1958 के सशस्त्र सेना विशेष अधिकार अधिनियम (आफ्स्पा) लागू कर दिया गया ।जो अभी तक जारी है ।इरोम शर्मिला ने इस अधिनियम का डटकर विरोध किया है ।
7- अपने नाम के अनुरूप मध्य प्रदेश भारत के बीच में स्थित है । मध्य प्रदेश के पश्चिम में गुजरात, उत्तर- पश्चिम में राजस्थान, उत्तर- पूर्व में उत्तर- प्रदेश, पूर्व में छत्तीसगढ़ और दक्षिण में महाराष्ट्र राज्य स्थित है । वर्तमान मध्य प्रदेश राज्य का गठन एक नवंबर, 1956 को हुआ था । इसमें पूर्व मध्य प्रदेश, मध्य भारत, विंध्य प्रदेश और भोपाल राज्यों को मिलाया गया था ।इसका कुल क्षेत्रफल 3 लाख, 8 हज़ार, 252 वर्ग किलोमीटर है । यह भारत का दूसरा सबसे बड़ा राज्य है । 2011 की जनगणना के अनुसार यहाँ की जनसंख्या 7 करोड़, 56 लाख, 97 हज़ार, 565 है । इस आधार पर यह भारत का छठवाँ सबसे बड़ा राज्य है ।
8- मध्य प्रदेश की साक्षरता दर 76.5 प्रतिशत है ।हिन्दी यहाँ की आधिकारिक भाषा है । 2001 की जनगणना के अनुसार यहाँ की कुल जनसंख्या में 20.63 प्रतिशत अनुसूचित जनजातियाँ हैं ।अनुसूचित जाति की आबादी 13.14 प्रतिशत है ।मध्य प्रदेश की विधायिका एक सदनीय है जिसमें 231 सदस्य चुने जाते हैं । यहाँ से लोकसभा के 29 और राज्य सभा के लिए 11 सदस्य चुने जाते हैं । 1 नवम्बर, 2000 को मध्य प्रदेश से अलग करके छत्तीसगढ़ राज्य बनाया गया । इससे यहाँ की विधानसभा सदस्यों की संख्या 90 कम हो गई । पहले यहाँ की विधानसभा में कुल 321 सदस्य चुने जाते थे ।
9- व्यवहार एवं मानसिक प्रक्रियाओं का अध्ययन करने वाला शास्त्र मनोविज्ञान कहलाता है । इसके माध्यम से वैयक्तिक और सामाजिक व्यवहार में मानसिक प्रक्रियाओं के प्रभाव का पता लगाया जा सकता है । मनोविज्ञान, एक विषय के रूप में 1879 में दर्शनशास्त्र के प्रभाव से मुक्त हुआ ।इसी वर्ष विल्हेल्म वुण्ड ने लाइपिजिंग विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान की पहली प्रयोगशाला शुरू की ।लेकिन एक स्वायत्त अकादमिक गतिविधि के रूप में मनोविज्ञान का उदय बीसवीं सदी की परिघटना है । इसलिए शुरुआती मनोवैज्ञानिकों के लेखन पर दर्शनशास्त्र की ज़बरदस्त छाप देखी जा सकती है ।
10- विलियम जेम्स की 1890 में प्रकाशित रचना प्रिंसिपल्स ऑफ साइकोलॉजी में मस्तिष्क, सहज- वृत्ति और सम्मोहन पर ही नहीं बल्कि देह और मस्तिष्क के द्वैत से सम्बन्धित दार्शनिक समस्याओं पर भी अध्याय मिलते हैं । इसी प्रकार से 1904 में प्रकाशित ई. बी. टिचनर की पुस्तक लेक्चर्स ऑन द एक्सपेरिमेंटल साइकोलॉजी ऑफ द थॉट प्रोसेस पर भी ब्रिटिश इन्द्रियानुभववादी दर्शन की गहरी छाप है । मनोविज्ञान की इस आधार पर आलोचना की जाती है कि बतौर एक वैज्ञानिक अनुशासन इसका विकास अभी परिपक्व नहीं है क्योंकि इसकी रिपोर्टिंग भावनाओं और संवेगों पर आधारित है ।
11-जर्मन दार्शनिक मार्क्स और एंगेल्स ने अपनी रचना जर्मन आइडियालॉजी में दलील दी कि व्यक्ति के सोचने और अनुभूति करने की प्रक्रिया का अध्ययन भौतिकवादी आइने में समाज को देखकर किया जाना चाहिए, क्योंकि जीवन चेतना से निर्धारित नहीं होता बल्कि चेतना जीवन से निर्धारित होती है । इसी तर्ज़ पर मार्क्स ने इकॉनॉमिक एंड फिलॉसफिकल मैन्युस्क्रिप्ट में उद्योग के इतिहास को मनुष्य की अनिवार्य शक्तियों की खुली किताब करार देते हुए उसे एक बोधगम्य मानवीय मनोविज्ञान से जोड़ा । मार्क्स ने कहा कि ‘ विज्ञान के ऐतिहासिक विकास को नज़रअंदाज़ करने वाला यह शास्त्र कभी एक सच्चा और सम्पूर्ण विज्ञान नहीं बन पाएगा ।’
12- मार्क्सवादी चिंतक वी.आई. लेनिन ने अपनी पुस्तक मैटीरियलिज्म एंड इम्पोरियो- क्रिटिसिज्म में विल्हेल्म वुंट पर आरोप लगाया कि उनके चिंतन का प्रस्थान बिंदु मुख्यतः आदर्शवादी है, इसलिए वे किसी विज्ञान के प्रवर्तक नहीं हो सकते । लेनिन ने अपने शासन में आई. पी. पाव्लोव को मार्क्सवादी मनोविज्ञान के विकास की ज़िम्मेदारी दी थी ।पाव्लोव ने व्यवहार का अध्ययन प्रतिवर्तों और शरीर विज्ञानी प्रक्रियाओं के रूप में करने का प्रस्ताव किया । मनोविज्ञान को एक व्यवहारपरक विज्ञान, समाज विज्ञान अथवा कॉग्निटिव साइंस के रूप में देखा जाता है ।इस सिलसिले में संवेग, धारणा, भावना, अनुभूति, संज्ञान और सम्बन्ध आदि अध्ययन का विषय बनते हैं ।
13- संज्ञानात्मक मनोविज्ञान या कॉग्निटिव साइकोलॉजी मनोविज्ञान के एक परिप्रेक्ष्य या संज्ञानवाद नामक विचार पंथ से प्रभावित है । इसमें मानसिक प्रक्रियाओं और कार्यों के साथ-साथ उनकी अंतर्क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है । हमारे चारों ओर के वातावरण और इसके पहलुओं के बारे में बोध और धारणाओं की जॉंच की जाती है अर्थात् ज्ञानेंद्रियों द्वारा प्राप्त कतिपय सूचनाएं और उनकी प्रोसेसिंग की प्रक्रियाएं ही इसमें अध्ययन की इकाइयाँ हैं ।ऐसी सूचनाओं के मेंटल प्रोसेसिंग से ही बोध और धारणाएँ बनती हैं, अनुभव बनता है जिसे मस्तिष्क कहते हैं ।
14- जिन संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं के संयोग से ज्ञान बनता है उनमें बोध (परशेप्सन), ध्यान (एटेंशन), सोच (थिंकिंग), समस्या समाधान (प्रॉब्लम सॉल्विंग), स्मृति (मेमोरी), सीखना (लर्निंग), भाषा (लैंग्वेज), भावना (इमोशन) आदि होते हैं । मनोविज्ञान में अध्ययन के कई परिप्रेक्ष्य हैं : व्यवहारपरक परिप्रेक्ष्य, जैव वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य, संज्ञानात्मक परिप्रेक्ष्य, सामाजिक परिप्रेक्ष्य, विकासात्मक परिप्रेक्ष्य, मानववादी परिप्रेक्ष्य, अस्तित्त्ववादी परिप्रेक्ष्य इत्यादि ।
15- मनोरोगी से बातचीत के ज़रिए उसका उपचार करने की विधि और एक बौद्धिक अनुशासन के रूप में मनोविश्लेषण की स्थापना जिग्मण्ड फ्रॉयड ने की थी । 1880 के दशक में वियना के एक चिकित्सक जोसेफ ब्रेयुर के साथ मिलकर फ्रॉयड ने बर्था पैपेनहाइम नामक एक महिला के हिस्टीरिया (उन्माद) का इलाज किया । मनोविज्ञान के इतिहास में बर्था को उसके छद्म नाम अन्ना ओ के रूप में भी जाना जाता है ।उनके निष्कर्षों का प्रकाशन 1895 में स्टडीज़ इन हिस्टीरिया के रूप में सामने आया ।फ्रॉयड ने हिस्टीरिया की व्याख्या एक ऐसे दिमाग़ी सदमे के रूप में की जिसे रोगी दबाता रहता है ।
16- फ्रॉयड को यक़ीन था कि मनुष्य अपनी इच्छाओं, यौन- कामनाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति में नाकाम रहने पर होने वाली तकलीफ़ के एहसास को दबाता है । इस प्रक्रिया में उसके भीतर अपूर्ण कामनाओं के प्रति अपराध बोध पैदा होता है जिससे कुंठा, आत्मालोचना और एक सीमा के बाद आत्महीनता और आत्म-घृणा की अनुभूतियाँ जन्म लेती हैं । यह सब अवचेतन के भीतर चलता रहता है ।परन्तु अवचेतन हमेशा दबा हुआ नहीं रहता और यह सपनों के रूप में या घटनाओं के प्रति अनायास या तर्कसंगत न लगने वाली अनुक्रियाओं जैसे, तेज रफ़्तार से कार चलाना या किसी परिजन पर ग़ुस्सा करने लगना, के रूप में सामने आता है ।
17- जिग्मण्ड फ्रॉयड और नारीवाद के बीच सम्बन्धों को रेखांकित करती हुई जूलिएट मिचेल की वर्ष 1975 में सायकोएनालिसिस ऐंड फेमिनिज्म नामक पुस्तक प्रकाशित हुई ।इस पुस्तक ने मनोवैश्लेषिक नारीवाद के विकास के लिए रास्ता खोला क्योंकि, परिवार, सेक्शुअलिटी, बचपन और देह के सरोकार दोनों अनुशासनों के लिए उभयनिष्ठ थे । मिचेल ने मनोविश्लेषक जॉक लकॉं के सिद्धांतों की उपयोगिता की तरफ़ भी ध्यान खींचा जिसके इर्द-गिर्द मनोवैश्लेषिक नारीवाद के विभिन्न आयाम विकसित हुए ।इसने स्त्रियों में बसे नारीत्व के गुणों का विश्लेषण करते हुए पुरुष के जेंडर निर्माण- बोध को भी कठघरे में खड़ा किया ।
18- नारीवादी चिंतक ल्यूस इरगिरे ने वर्ष 1974 में अपनी रचना स्पेकुलम में फ्रॉयड और लकॉं की आलोचना की और मनोविश्लेषण में निहित रूढ़ अवधारणाओं को रेखांकित किया कि कैसे अपनी मान्यताओं में मनोविश्लेषण पूर्वाग्रह से भरा हुआ है ।इरगिरे ने मानव- देह को मूलतः पुरुष- देह के रूप में देखे जाने का विरोध किया ।स्पेकुलम शब्द का इस्तेमाल डाक्टर शरीर के भीतरी भागों के किसी छिद्र या गड्ढे को देखने के लिए करते हैं ।इरगिरे कहती हैं कि फ्रॉयड ने भी स्त्री शरीर को गड्ढे के रूप में देखा ।
19- नारीवादी चिंतक क्रिस्टेवा ने इरगिरे के शिश्न आधारित पौरुषपूर्ण कल्पनाओं को अस्थिर करने के लिए स्त्री- देह पर ज़ोर देने की तजवीज़ की । उन्होंने दो होंठों द्वारा एक साथ क्रिया करके बोलने का मॉडल पेश किया ।ताकि शिश्न- केन्द्रीयता का प्रतिकार किया जा सके ।यह मॉडल साफ़ तौर पर न केवल एक स्त्रियोन्मुख यौनीकृति छवि सामने रखता था, बल्कि स्त्री द्वारा भाषा के विनियोग को भी रेखांकित करता था । इरगिरे ने यह भी दावा किया कि स्त्री की सेक्शुअलिटी उसके केवल यौनांगो से ही व्यक्त नहीं होती, बल्कि उसकी सम्पूर्ण दैहिक- तंत्र में बहुमुखी ढंग से छिपी रहती है । क्रिस्टेवा ने मातृ- अस्मिता की जगह समलैंगिक स्त्री की अस्मिता पर ज़ोर देकर नारीवादी हलकों को बेचैन भी किया ।
20- मनोविज्ञान कहता है कि मनुष्य का उसकी अवचेतन दमित कामनाओं, विवशताओं, दुश्चिंताओं, भीतियों, लिप्साओं और स्वप्नों का आगार है । लकॉं का विमर्श इसमें यह जोड़ता है कि अवचेतन मनुष्य द्वारा भाषा को ग्रहण करने की चालक शक्ति है ।नारीवादी विदुषियों को लगा कि भाषा और कामना के बीच कहीं स्थित अवचेतन स्त्री की इयत्ता के अतिरिक्त आयाम की तरफ़ इशारा करता है । केट मिलेट ने भी नवफ्रॉयडवाद पर हमला करते हुए कहा कि लिंग की अनुपस्थिति और कुछ नहीं, बल्कि पुरुषों का आत्मतुष्टीकरण है ।प्रजनन की क्रिया सिर्फ़ संतान को जन्म देना नहीं बल्कि पूरे समाज को आगे बढ़ाने और सृजन की प्रक्रिया है जिससे पुरूषों को हीनताबोध हो सकता है ।इसीलिए पुरूषों ने महिलाओं की इस खूबी को उनकी कमजोरी में तब्दील कर दिया है ।
21- दक्षिण- पूर्वी एशिया के सम्प्रभु देश म्यांमार को पहले बर्मा के नाम से जाना जाता था ।म्यांमार की सीमा चीन, थाईलैण्ड, भारत, लाओस और बांग्लादेश से मिलती है । इसकी कुल जनसंख्या छह करोड़ है और इस लिहाज़ से यह विश्व का चौबीसवां सबसे बड़ा देश है । म्यांमार का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 6 लाख, 76 हज़ार, 578 वर्ग किलोमीटर है । यहाँ की जनसंख्या का लगभग 70 फ़ीसदी हिस्सा बमार लोगों का है ।इसके बाद शान, केरेन, राखीन आदि समुदाय हैं । बर्मा 1885 में ब्रिटिश साम्राज्य का भाग बना ।1886 में वहाँ राजतंत्र ख़त्म हुआ ।1920 के दशक में बर्मा की स्वतंत्रता का संघर्ष शुरू हुआ ।इस दौर में आंग सान (आंग सान सू की के पिता) बहुत बड़े नेता के रूप में उभरे ।वर्ष 1947 में उनकी हत्या कर दी गई ।
22- वर्ष, 1948 में बर्मा को ब्रिटेन से आज़ादी मिली ।इसी वर्ष बर्मा का संविधान लागू हुआ ।वहाँ संसदीय लोकतंत्र स्थापित हुआ और बहुदलीय चुनाव हुए । परन्तु वर्ष 1962 में जनरल ने विन ने चुनी हुई सरकार का तख्ता पलट करके शासन पर क़ब्ज़ा कर लिया ।उनकी पार्टी बर्मीज़ सोशलिस्ट प्रोग्राम पार्टी का शासन 26 साल तक चला । वर्ष 1968 में विन ने अपनी कुख्यात फोर कट पॉलिसी की शुरुआत की ।जिसके तहत जातीय प्रतिरोध का दमन किया गया । बर्मा में इसके कारण बडे पैमाने पर आंतरिक विस्थापन और पलायन हुआ ।1989 में सैनिक शासकों ने बर्मा का नाम बदलकर म्यांमार कर दिया ।
23- वर्ष, 1990 में बर्मा में चुनाव हुए ।यह चुनाव तुलनात्मक रूप से निष्पक्ष थे और इसमें मतदाताओं ने बढ़- चढ कर हिस्सा लिया ।वर्ष 1988 में आंग सान सू की द्वारा गठित नैशनल लीग फ़ॉर डेमॉक्रैसी को 59 प्रतिशत सीटों पर जीत मिली । लेकिन सत्ताधारी सैनिक शासकों ने सूकी को सत्ता हस्तांतरित करने से इंकार कर दिया ।चुनावों से पहले ही 1989 में सू की को घर में नज़रबंद कर दिया गया । इनके पिता आंग सान को बर्मा का राष्ट्रपिता कहा जाता है । आंग सान सू की ने 1964 में दिल्ली विश्वविद्यालय में भी अध्ययन किया है ।1972 में उन्होंने माइकल एरिस से शादी की, जिनसे उन्हें दो बच्चे हुए ।
24- 1989 के बाद के 22 सालों में सू की तक़रीबन 15 साल तक अपने घर में नज़रबंद रह कर पूरी दुनिया में लोकतंत्र के लिए संघर्ष की एक मिसाल बन गईं । लोकतंत्र के लिए संघर्ष की ख़ातिर दुनिया भर में उन्हें कई पुरस्कारों से नवाज़ा गया ।1990 में इन्हें रैफ्टो प्राइज़ दिया गया ।1991 में सू की को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया ।2007 में कनाडा सरकार ने इन्हें अपने देश की मानद नागरिकता प्रदान किया । वर्ष 1992 में इन्हें अंतर्राष्ट्रीय सामंजस्य के लिए भारत सरकार द्वारा जवाहरलाल नेहरु पुरस्कार से सम्मानित किया गया है ।13 नवम्बर, 2010 को इन्हें रिहा किया गया । सू की को अंतरराष्ट्रीय साइमन बोलिवर पुरस्कार, ओलोफ पाल्मे पुरस्कार, भगवान महावीर शांति पुरस्कार भी मिल चुका है ।
25- आंग सान सू की को राष्ट्रपति बनने से प्रतिबंधित कर दिया गया, क्योंकि उनके दिवंगत पति और बच्चे विदेशी नागरिक हैं । नवम्बर 2020 में उनकी पार्टी ने म्यांमार का आम चुनाव जीता था परन्तु 1 फ़रवरी, 2021 को सैनिक शासन के द्वारा तख्ता पलट कर दिया गया और सू की को गिरफ़्तार कर लिया गया । उनकी माँ भी भारत में राजदूत रह चुकी हैं ।वर्ष 1990 में उनके पति माइकल एलिस की लंदन में बीमारी से मृत्यु हो गई थी ।
26- मसजिद का शाब्दिक अर्थ है सजदा या इबादत करने की जगह । मुसलमान के लिए सामूहिक तौर पर नमाज़ (सलात) की अनिवार्यता ने यह ज़रूरत पैदा कर दी कि सजदा करने के लिए किसी विशेष जगह का चुनाव किया जाए । यही कारण था कि मुसलमानों ने कुछ नियत स्थानों पर सामूहिक इबादत शुरू की। इस तरह मसजिद का विचार मूर्त रूप लेने लगा ।मुहम्मद साहब के मदीना प्रवास ने मसजिदों को इस्लाम के केन्द्र के तौर पर स्थापित करने की प्रक्रिया शुरू की ।उदाहरण के लिए जिस स्थान पर मुहम्मद साहब ने पहली नमाज़ अदा की, वहाँ मसजिद- इ- कुबा नामक मसजिद की स्थापना हुई । इसी प्रकार मुहम्मद साहब के मदीना वाले घर के बराबर में एक मसजिद का निर्माण हुआ जिसका नाम मसजिद- उल- नबी पड़ा ।
27- यह तय किया गया कि नमाज़ की दावत देने के लिए इनसानी आवाज़ का इस्तेमाल होना चाहिए ।परिणामस्वरूप अजान के रिवाज का जन्म हुआ जिसने आगे चलकर इस्लाम के एक महत्वपूर्ण प्रतीक का रूप लिया । शुरुआती मुसलमान यरूशलम की तरफ़ मुँह करके नमाज़ अदा किया करते थे ।लेकिन जब क़ुरान ने काबा को इस्लाम के केन्द्र की तरह परिभाषित करते हुए काबा की तरफ़ मुँह करके नमाज़ पढ़ने का हुक्म दिया तो मसजिदों का रुख़ काबा की ओर हो गया । किंवदंती है कि काबा की ओर नमाज़ पढ़ने का आदेश दुपहर की नमाज़ (जुहर) और तीसरे पहर की नमाज़ (अस्र) के बीच हुआ था । इस आदेश का पालन करते हुए जुहर की नमाज़ यरुशलम की जानिब हुई और अस्र की नमाज़ क़ाबा की सिम्त अदा की गई ।
28- जिस मसजिद में इस आयत का इलहाम माना जाता है और दो विपरीत दिशाओं में नमाज़ अदा की जाती है वह आज भी मक्का शहर में दो सिम्तों वाली मसजिद के नाम से मशहूर है । काबा एक वर्गाकार संरचना थी जिसकी परिधिबद्ध परिक्रमा करने की परम्परा, जिसे तवाफ कहा जाता है, इस्लाम के उद्भव से पूर्व चली आ रही थी । काबा रुख़ नमाज़ पढ़ने के आदेश के बाद मसजिदों का निर्माण भी इसी परिधिबद्ध परिक्रमा के सिद्धांत के आधार पर होता चला गया । यानी यदि काबा पश्चिम दिशा में है तो मसजिद का रुख़ पश्चिम की जानिब होगा और यदि काबा पूर्व में है तो मसजिद का मुख्य अहाता पूर्व की ओर होगा ।
29- मक्का विजय के बाद काबा एक मसजिद के रूप में बदल दिया गया, जिसे नाम दिया गया मसजिद- उल- हरम यानी पनाह की जगह । यरूशलम का वह टीला, जहाँ से मुहम्मद साहब की स्वर्ग यात्रा और अल्लाह से मुलाक़ात का क़िस्सा, जिसे मेराज का वाक़या कहा जाता है, जिसके अनुसार मुहम्मद साहब यरूशलम से स- शरीर जन्नत गए थे और उन्होंने तमाम नबियों जिनमें ईसा और मूसा प्रमुख थे, से मुलाक़ात की थी और फिर अल्लाह को भी मूर्त रूप में भी देखा था, जड़ा हुआ है ।इस घटना ने यरूशलम को इसलाम धर्म के पवित्र स्थलों में बदल दिया । यही वजह थी कि यरूशलम विजय के पश्चात् उसी टीले पर एक मसजिद का निर्माण हुआ जिसे मसजिद-ए- अक्सा कहा जाता है । भारत में लगभग तीन लाख मस्जिदें हैं ।
30- भारत में सामाजिक और राजनीतिक सुधार आन्दोलनों के प्रमुख नेता, इतिहासकार, पत्रकार और न्यायविद् महादेव गोविन्द रानाडे (1842-1901) को भारतीय उदारतावाद की दार्शनिक बुनियाद डालने का श्रेय दिया जाता है । भारतीय और यूरोपीय दर्शन में पारंगत रानाडे को अपने युग के सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक घटनाक्रम की गहरी समझ थी । उन्होंने अपने परिष्कृत चिंतन से राज्य और व्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच टकराव की समस्या का हल पेश करने की कोशिश की ।रानाडे का जन्म नासिक ज़िले के एक चितपावन ब्राह्मण परिवार में हुआ था । उनका बचपन कोल्हापुर रियासत में बीता जहाँ उनके पिता मंत्री थे ।
31- रानाडे को उनके अनुयायी बुद्धिवादी ईश्वरवाद का पैरोकार कहा करते थे ।सन् 1893 में वह मुम्बई हाईकोर्ट के न्यायाधीश बने ।वह एक आर्थिक सिद्धांतकार भी थे । उनके निबंध इंडियन पॉलिटिकल इकॉनॉमी में उन्होंने अर्थव्यवस्था में राज्य के अहस्तक्षेप की जगह सुविचारित हस्तक्षेप का समर्थन किया ।वे मानते थे कि राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक पहलू एक- दूसरे पर पूरी तरह से निर्भर हैं । रानाडे ने अपने एक लेख हिन्दू प्रोटेस्टेंटिज्म में महाराष्ट्र के भक्ति आन्दोलन की व्याख्या ईश्वरवाद के रूप में करते हुए योगमार्ग या ज्ञान मार्ग पर उसे प्राथमिकता दी । वर्ष 1943 में बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने रानाडे की प्रशंसा की और उन्हें गांधी और जिन्ना के विरोधी का दर्जा दिया ।
32- हरबर्ट स्पेंसर की थिसिज की भाँति रानाडे ने समाज को भी मानवीय जैविक ऑर्गनिज्म की तरह देखने पर ज़ोर दिया । उनका तर्क था कि जिस तरह व्यक्ति के शरीर के सभी अंगों का एक साथ समानुपातिक विकास होता है उसी तरह समाज का भी होना चाहिए । बंगाल के ब्रम्ह समाज के तर्ज़ पर रानाडे ने अपने मित्रों के सहयोग से प्रार्थना समाज की स्थापना की ताकि बुद्धिवादी आस्तिकता के सिद्धांत का प्रचार- प्रसार कर सकें । उन्होंने पुणे सार्वजनिक सभा की स्थापना की और फिर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में हाथ बँटाया । रानाडे मुम्बई विधान परिषद के सदस्य और ब्रिटिश सरकार द्वारा गठित वित्त आयोग के सदस्य भी रहे ।
33- हिन्दी साहित्य के छायावादी आन्दोलन की महत्वपूर्ण हस्ती महादेवी वर्मा (1907-1987) को भारतीय स्त्री विमर्श की आरम्भिक अवस्था की विमर्शकार के रूप में भी देखा जाता है । महादेवी वर्मा ने 1930 से 1936 के बीच नीहार, रश्मि, नीरजा और सांध्यगीत काव्य संग्रह रचे ।उनकी रचना दीपशिखा 1942 में प्रकाशित हुई । उनके काव्य को अध्यात्म की छाया और रहस्यवाद के आग्रह तक सीमित रखकर उन्हें आधुनिक युग की मीरा की संज्ञा दे दी गई । लेकिन परवर्ती समीक्षकों ने पाया कि उनकी गद्य रचनाओं की संख्या उनकी कविताओं की अपेक्षा कहीं अधिक है जिसमें स्त्री विमर्श के शुरुआती सूत्रों को देखा जा सकता है ।
34- जनपद फ़र्रूख़ाबाद में जन्मीं, महादेवी वर्मा के संस्मरणों में प्रायः उपेक्षित, प्रताड़ित और शोषित चरित्रों का मार्मिक चित्रण मिलता है । उनकी गद्य रचना अतीत के चलचित्र 1941 और स्मृति की रेखाएं 1943 में प्रकाशित हुई । इसके अलावा उन्होंने संस्मरणों के रूप में पथ के साथी (1946), मेरा परिवार (1972) और संस्मरण (1983) की रचना की ।इसमें सेवक रामा, भंगिन साबिया, भाभी, बिट्टो, घिसा, अभागी स्त्री, ठकुरी बाबा, बिंदिया, भक्तिन, कुली भाई और गुंगिया जैसे चरित्र मिलते हैं जो उनके जीवन के निकट थे । कवि निराला ने महादेवी वर्मा को हिंदी के विशाल मंदिर की सरस्वती भी कहा ।
35- महादेवी वर्मा का 1942 में प्रकाशित निबन्ध संग्रह श्रृंखला की कड़ियाँ को राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर में भारतीय समाज व स्त्रियों की दशा के बारे में महत्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में देखा गया है ।महादेवी स्त्रियों का पुरूषों पर निर्भर होना ही उनकी दासता का कारण मानती थीं । नारीत्व का अभिशाप नामक निबन्ध में वह स्त्री को कमजोर बनाने वाली वृत्तियों को छोड़ने की बात करती हैं ।वह कहती हैं कि एक नारी को अपने पिता के घर में वैसा ही स्थान मिलता है जैसा दुकान में रखी किसी वस्तु को प्राप्त होता है । महादेवी वर्मा को 1956 में पद्मभूषण, 1982 में ज्ञानपीठ तथा 1988 में पद्म विभूषण की उपाधि से सम्मानित किया गया । वह प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्राचार्य रहीं ।
36- भारतीय समाज और मानस पर गहरी छाप छोड़ने वाले संस्कृत महाकाव्य के तीन कथावाचक हैं : व्यास, वैशम्पायन और गल्वगणकपुत्र उग्रश्रवा सौति । व्यास ने इसे वैशम्पायन को सुनाया, वैशम्पायन ने जनमेजय को और उग्रश्रवा सौति ने कुलपति शौनक के नैमिषारण्य में होने वाले द्वादश वर्षीय सत्र में ब्रम्हचारी रिषियों को । पूरा महाभारत अठारह पर्वों में विभक्त है : आदिपर्व, सभापर्व, वनपर्व, विराटपर्व, उद्योगपर्व, भीष्मपर्व, द्रोणपर्व, कर्णपर्व, शल्यपर्व, सौतिपर्व, स्त्रीपर्व, शांतिपर्व, अनुशासन पर्व, आश्रमेधिक पर्व, आश्रमवासिक पर्व, मौसलपर्व, महाप्रस्थानिक पर्व और स्वर्गारोहण पर्व ।इसके अलावा 100 अवांतर पर्वों की भी चर्चा है ।
37- महाभारत के सारे पात्र खास तौर से भीष्म, विदुर, द्रोण, कृष्ण, कर्ण, अर्जुन, सहदेव, नकुल, द्रौपदी, गांधारी, दुर्योधन आदि के कार्य व्यवहार, जीवनवृत्त और संवाद विशेष महत्व रखते हैं ।दुष्यंत- शकुन्तला, नल- दमयंती आदि जैसी उपकथाओं का भी काफ़ी महत्व है । महाभारत के अंग के रूप में गीता का दर्शन भी उल्लेखनीय है ।गीता के प्रभाव में विवेकानन्द,बालगंगाधर तिलक तथा गांधी ने अपने- अपने ढंग से भारतीय राष्ट्रवाद की रचना की । इस महाकाव्य ने जनजातीय संस्कृति को भी प्रभावित किया है ।छत्तीसगढ़ की पंडवानी और गुजरात में भीलों का महाभारत इसका प्रमाण है ।
38- महाभारत की मुख्य कथा धृतराष्ट्र और पांडु पुत्रों के बीच हुए युद्ध के पहले उनके कुल पूर्वजों की चर्चा के साथ से शुरू होती है । मनु की पुत्री इला और चंद्र से उत्पन्न क्षत्रिय चंद्रवंशी कहलाए ।चन्द्रवंश के पहले राजा पुरूरवा हुए जिन्हें आगे चलकर कालिदास ने अपने नाटक विक्रमोर्यशीयम का नायक बनाया ।इसी वंश के दूसरे प्रसिद्ध राजा ययाति हुए ।ययाति की दो रानियाँ थीं : देवयानी और शमिष्ठा ।महाकाव्य में शमिष्ठा को असुरों के राजा और ईरान नरेश वृषपर्वा की पुत्री तथा देवयानी को असुरों के गुरु शुक्राचार्य की पुत्री बताया गया है । जीवन के अंत में ययाति अपनी दोनों पत्नियों सहित अपने पुत्र पुरू को राज्य भार सौंप कर जंगल प्रस्थान कर गए ।
39- पुरू के वंशजों में एक राजा दुष्यंत हुए ।कालिदास के प्रसिद्ध नाटक अभिज्ञान शाकुन्तलम् की नायिका शकुन्तला और दुष्यंत के सहयोग से भरत नामक पुत्र पैदा हुआ ।मान्यता है कि इस भरत के नाम पर ही भारत देश बना ।भरत के वंशजों में एक यशस्वी राजा हस्ती हुए जिन्होंने गंगा के पश्चिमी किनारे पर हस्तिनापुर नगर बसाया और वही उनकी राजधानी भी बना । महाराजा हस्ती के वंशजों में उनके प्रपौत्र कुरू पैदा हुए ।जिन्होंने गंगा और यमुना के दोआब के ऊपरी उपजाऊ भाग को जीत कर उसे कुरुक्षेत्र नाम दिया ।
40- इसी वंश में आगे चलकर एक राजा शांतनु पैदा हुए ।शांतनु का एक पुत्र देवव्रत (भीष्म) गंगा नदी से उनके संयोग से पैदा हुआ । भीष्म के जन्म के समय ही गंगा ने शांतनु को त्याग दिया ।शांतनु का बाद में एक मत्स्यकन्या सत्यवती से प्रेम हुआ किन्तु वह भीष्म की जगह अपनी संतान को ही राज्य देने की शर्त पर ही उनके साथ विवाह को तैयार हुई । शांतनु इस शर्त को मानने के लिए तैयार नहीं थे । भीष्म को इस बात का पता चलने पर उन्होंने आजीवन अविवाहित रहने का कठिन संकल्प लेकर शांतनु की समस्या का समाधान किया ।
41- शांतनु और सत्यवती के दो पुत्र हुए, उनमें से एक बचपन ही मर गया और दूसरी संतान विचित्रवीर्य को शांतनु के बाद राज्य प्राप्त हुआ । काशिराज की दो कन्याओं अंबिका और अंबालिका का विवाह भीष्म ने बलपूर्वक विचित्रवीर्य से करा दिया । लेकिन विचित्रवीर्य सन्तानहीन ही मरे ।तब भीष्म की सम्मति से सत्यवती के व्यास से कहने पर विचित्रवीर्य की विधवाओं से नियोग के ज़रिए विचित्रवीर्य के दो पुत्र धृतराष्ट्र और पाण्डु हुए ।धृतराष्ट्र के अंधे होने की वजह से पाण्डु ने कुछ समय तक राज किया । उसके बाद वह पत्नियों सहित जंगल चले गए और वहीं मृत्यु को प्राप्त किया ।
42- पाण्डु की दो पत्नियाँ थीं माद्री और कुन्ती । पाण्डु की मृत्यु पर माद्री उनके साथ चिता में जलकर सती हो गई जबकि दूसरी पत्नी कुन्ती पाण्डु पुत्रों की देख रेख के लिये रह गईं ।कुन्ती युद्धोंपरान्त भी जीवित रही । पाण्डु के पॉंच पुत्र युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव पाण्डव कहलाए ।धृतराष्ट्र के 100 पुत्र हुए जिन्हें कौरव कहा गया ।
43- महाभारत के दो अन्य नाम जय और भारत भी बताए जाते हैं ।कुछ विद्वान् प्रथम रचयिता वेदव्यास की कृति को जय, दूसरे रचनाकार वैशम्पायन की कृति को भारत तथा तीसरे लेखक के रूप में सौति को मानते हुए उन्हें महाभारत का लेखक मानते हैं । महाभारत के आदिपर्व के एक श्लोक के अनुसार, ‘पूर्व काल में सब देवताओं ने मिलकर तराज़ू के एक ओर चारों वेद और दूसरी ओर इस भारत को तोला, तो महत्व और भारीपन में यही भारत भारी निकला’। उसी के अगले श्लोक में कहा गया है कि ‘महत्वपूर्ण और भारी होने के कारण ही इसे महाभारत कहते हैं ।’
44- महाभारत में एक लाख श्लोकों की संख्या मानी जाती है । सातवलेकर की मान्यता है कि व्यास के मूल ग्रंथ में क़रीब 24 हज़ार श्लोक रहे होंगे क्योंकि आदिपर्व में सूत उग्रश्रवा शौनक से कहते हैं कि, ‘24 हज़ार श्लोकों में भारत संहिता रची थी । पंडित जन उपाख्यान से रहित उन्हीं 24 हज़ार श्लोकों को ही भारत कहा करते हैं ।वैशम्पायन कहते हैं कि परम तेजस्वी सत्यवती सुत ने पवित्र एक लाख श्लोकों में पुण्य कर्म करने वाले पाण्डवों के इस आख्यान को कहा है । जनमेजय और महाभारत के समय के बारे में सातवलेकर की मान्यता है कि इसका समय ईसा से तीन हज़ार वर्ष पूर्व होगा ।
45- महाभारत का युद्ध ईसा पूर्व 3100 के आस-पास हुआ और उस युद्ध का तथा कौरवों- पाण्डवों का आँखों देखा इतिहास व्यास ने जय नामक एक छोटे से ग्रन्थ में किया जिसे ईसा पूर्व 3000 के आस-पास वैशम्पायन ने परिवर्धित करके सर्पसत्र के अवसर पर राजा जनमेजय को सुनाया ।तत्पश्चात् उसके अनेक वर्षों बाद ईसा पूर्व 250 या 300 के आस-पास सौति ने उसमें परिवर्तन करके नैमिषारण्य में यज्ञ के अवसर पर शौनक को सुनाया ।इस प्रकार एक लम्बे समय तक महाभारत में संशोधन और परिवर्धन होता रहा है ।महाभारत के रूप में जो कुछ भी आज उपलब्ध है वह वैशम्पायन का संस्करण ही है ।
46- महाभारत के आलोचनात्मक अध्ययन की ओर सर्वप्रथम लासेन का ध्यान गया ।1837 में उन्होंने इंडियन एंटिक्विटीज नामक पुस्तक लिखकर दावा किया कि जिस महाभारत को सूत ने कहा, वह वास्तव में मूल पुराण ‘भारत’ का द्वितीय संस्करण है । 1852 में जर्मन विद्वान मैक्स वेबर (1864-1920) ने महाभारत के सन्दर्भ में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक इंडियन स्टुडियेन में कहा कि रिग्वेद की नाराशंस्य गाथाएँ और दान स्तुतियाँ महाभारत का मूल स्रोत हैं ।यज्ञ के अवसरों पर इनका गान होता है ।कुरूवंश की कुछ ऐसी ही गाथाएँ रही होंगी ।विस्तार होते- होते उन्हीं से महाभारत बन गया ।
47- वर्ष 1908 में जर्नल ऑफ द रॉयल एशियाटिक सोसाइटी में प्रकाशित ब्रिटिश लेखक, भाषा वैज्ञानिक जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन (1851-1941) (लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया के प्रणेता माना जाता है) के एक लेख के मुताबिक़ प्राचीन भारत में ब्राह्मण- क्षत्रियों का झगड़ा बराबर चलता रहा ।मध्य प्रदेश में ब्राह्मणों का ज़ोर था, पर कुरू प्रदेश में अधिक स्वतंत्रता थी । पंचाल में बहुपति विवाह की प्रथा प्रचलित थी । पंचाल देश के राजा द्रुपद ने द्रोणाचार्य का अपमान किया था ।उसी अपमान का बदला लेने के लिए कौरवों- पाण्डवों का नहीं, कौरवों- पाँचालों का युद्ध था ।सर बेरिडेल कीथ ने पाण्डवों के मंगोलियन होने की संभावना व्यक्त की है ।
48- सन् 1834-39 में कलकत्ता से बंगाल की रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ने महाभारत का प्रकाशन किया । बाद में कुछ लोगों ने मिलकर मुम्बई और चेन्नई से भी इसे छापा ।1897 में पेरिस में हुए प्राच्यविद्याविदों के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में विंटरनित्स ने महाभारत के सम्यक् अध्ययन के लिए उसके प्रामाणिक संस्करण की आवश्यकता पर बल दिया ।1908 में लूडर्स ने उसका एक प्रारूप भी प्रस्तुत किया ।पुणे के भण्डारकर प्राच्यविद्या- शोध संस्थान ने 1918 में महाभारत का एक प्रामाणिक संस्करण निकालने का निश्चय किया । सुखणकर ने 1925 से इस पर काम करना शुरू किया ।चार दशक तक गहन अध्ययन और परिश्रम के बाद यह 1966 में तैयार हुआ ।
49- दिनांक, 1 मई 1960 को भाषायी आधार पर बने महाराष्ट्र राज्य का क्षेत्रफल 3 लाख, 8 हज़ार वर्ग किलोमीटर है ।क्षेत्रफल के हिसाब से यह देश का तीसरा सबसे बड़ा राज्य है । इसके उत्तर में मध्य प्रदेश, पूरब में छत्तीसगढ़, दक्षिण- पूर्व में आन्ध्र प्रदेश, दक्षिण में कर्नाटक और दक्षिण- पश्चिम में गोवा स्थित है ।इसके उत्तर- पूर्व में गुजरात राज्य है और इसके बीच में केन्द्र शासित प्रदेश दादरा और नगर हवेली स्थित है । महाराष्ट्र के पश्चिम में अरब सागर है ।2011 की जनगणना के अनुसार यहाँ की कुल जनसंख्या 11 करोड़ , 23 लाख, 72 हज़ार, 972 है । इस लिहाज़ से यह उत्तर प्रदेश के बाद भारत का दूसरा सबसे बड़ा राज्य है ।
50- महाराष्ट्र की विधानसभा दो सदनीय है यानी यहाँ पर विधानसभा और विधान परिषद दोनों ही हैं ।विधानसभा सदस्यों की कुल संख्या 288 है ।विधान परिषद के सदस्यों की कुल संख्या 78 है ।महाराष्ट्र राज्य से कुल 48 लोकसभा सदस्य तथा 19 राज्य सभा सदस्य चुने जाते हैं । यहाँ की आधिकारिक भाषा मराठी है परन्तु हिन्दी बड़े पैमाने पर बोली जाती है ।महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई है जो अपने फ़िल्म उद्योग के लिए मशहूर है, साथ ही इसे भारत की वाणिज्यिक राजधानी भी माना जाता है ।यहाँ की साक्षरता दर 82.9 प्रतिशत है ।
– नोट : उपरोक्त सभी तथ्य, अभय कुमार दुबे, द्वारा सम्पादित पुस्तक, ‘समाज विज्ञान विश्वकोश, खंड 4, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, ISBN : 978-81-267-2849-7, दूसरा संस्करण : 2016 से साभार लिए गए हैं ।
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सर, आपके लेख पढ़कर अब मन में पुनः उन्नति के बीज अंकुरित होने लगे हैं। हम होंगे कामयाब।
धन्यवाद आपको विशाल जी
विस्तृत समीक्षा एवम् अनवरत श्रम सराहनीय है। सारगर्भित अभिव्यक्ति के लिए आपको साधुवाद।
बहुत बहुत धन्यवाद आपको सर