राजनीति विज्ञान : महत्वपूर्ण तथ्य (भाग- 3)

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– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफेसर राजनीति विज्ञान विभाग, बुंदेलखंड कालेज, झांसी (उत्तर-प्रदेश), फ़ोटो गैलरी एवं प्रकाशन प्रभारी : डॉ. संकेत सौरभ, नई दिल्ली, भारत। email : drrajbahadurmourya @gmail.com, website : themahamaya.com

1- सी. एफ. स्ट्रांग की अपनी पुस्तक ‘माडर्न पॉलिटिकल कंस्टीट्यूशन’ ( 1930) का सार यह है कि शासन के विभिन्न अभिकरणों की शक्तियों को निश्चित सीमाओं में बांध कर रखना संविधान का आवश्यक लक्षण है।

2- एस. ई. फाइनर ने अपनी पुस्तक ‘कम्परेटिव गवर्नमेंट’ (1970) में संविधानवाद पर बल देते हुए लिखा कि ‘‘संविधान, उन नियमों की संहिताएं हैं जो विभिन्न सरकारी अभिकरणों और उनके अधिकारियों के बीच कार्यों, शक्तियों और कर्तव्यों का आवंटन निर्धारित करती है और सर्वसाधारण के साथ उनके सम्बन्ध निर्दिष्ट करती है।’’

3- हर्मन फाइनर ने अपनी पुस्तक ‘द थियरी एंड प्रैक्टिस ऑफ मार्डन गवर्नमेंट’ (1950) में लिखा ‘‘राज्य एक ऐसा मानव साहचर्य है जिसमें कुछ संगठन तरह- तरह की शक्तियों का प्रयोग करने लगते हैं। अतः यहां व्यक्तियों और उनके समूहों पर इन संगठनों का नियंत्रण स्थापित हो जाता है जो राजनीतिक संस्थाओं का रूप धारण कर लेते हैं।ऐसी बुनियादी राजनीतिक संस्थाओं के समुच्चय को संविधान कहते हैं।’’

4- कार्ल फ्रेडरिक ने अपनी पुस्तक ‘ कांस्टीट्यूशनल गवर्नमेंट एंड डेमोक्रेसी’ (1950) के अंतर्गत लिखा कि ‘‘ संविधान ऐसी प्रक्रिया का द्योतक है जिसके माध्यम से शासन की गतिविधि पर प्रभावशाली अंकुश रखा जाता है।’’

5- कार्ल लोएंस्टाइन ने अपनी पुस्तक ‘पॉलिटिकल पॉवर एंड द गवर्नमेंटल प्रॉसेस’ (1957) के अंतर्गत लिखा कि ‘‘ संविधान, शक्ति प्रक्रिया के नियंत्रण का बुनियादी साधन है, जिसका ध्येय राजनीतिक शक्ति के सीमांकन और नियंत्रण के साधनों को स्पष्ट करना… शक्ति से प्रभावित लोगों को शासकों के निरंकुश नियंत्रण से मुक्त करना और शक्ति की प्रक्रिया में उन्हें अपना वैध हिस्सा दिलाना है।’’

6- अमेरिकी विद्वान सी.एच. मैकिलवैन ने 1939 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘कांस्टीट्यूशनलिज्म इन ए चेंजिंग वर्ल्ड’ के अंतर्गत लिखा कि ‘‘आज के युग में मुख्य समस्या संविधानवाद की है।’’

7- एडमंड बर्क, टामस कार्लाइल तथा अन्य लेखकों ने व्यंग्य में पत्रकार वर्ग को ‘चतुर्थ सत्ता या चतुर्थ स्तम्भ’ की संज्ञा दी थी। वर्ष 1974 में अमेरिका में पत्रकारों द्वारा वाटरगेट काण्ड का रहस्योद्घाटन किया गया था जिसके परिणामस्वरूप वहां के तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था।

8- 1896 में अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने ‘प्लैसी बनाम फर्गुसन’ मामले में निर्णय देते हुए कहा था कि यदि श्वेत और अश्वेत जातियों को शिक्षा, परिवहन, मनोरंजन, विश्राम इत्यादि की अलग- अलग किंतु समान सुविधाएं प्राप्त हों तो इससे कानूनों के समान संरक्षण का उलंघन नहीं होता।

9- वर्ष 1954 में उसी अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय ने ‘ब्राउन बनाम टोपैका’ के मामले में अपने पुराने निर्णय को रद्द करते हुए यह व्यवस्था दी कि यदि श्वेत और अश्वेत जातियों को समान सुविधाएं तो उपलब्ध हों परन्तु उन्हें मिलजुल कर उनका उपयोग करने से रोक दिया जाए तो कानून की दृष्टि से उसकी समानता निरर्थक हो जाती है। इस निर्णय के बाद अमेरिका के नीग्रो बच्चों को श्वेत बच्चों के साथ पढ़ने की अनुमति मिल गई।

10- रास्को पाउण्ड (1870-1964) ने अपनी पुस्तक ‘ द स्पिरिट ऑफ़ कॉमन लॉ’ (१९२१) के अंतर्गत अमेरिकी न्यायपालिका के बदलते दृष्टिकोण का वर्णन किया है। जिसमें नैतिक मर्यादा के स्थान पर सामाजिक मर्यादा, अनुबंध की स्वतंत्रता की सीमा, क्षतिपूर्ति का दायित्व समर्थ पक्ष पर, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण तथा सामाजिक हित की सर्वोच्चता जैसे सिद्धांतों को स्पष्टता दी गई।

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11- समाजवादी संवैधानिक प्रणाली का सैद्धांतिक आधार वैज्ञानिक समाजवाद के प्रवर्तक कार्ल मार्क्स (1818-1883) के विचारों में मिलता है। कम्यूनिस्ट मैनीफेस्टो (1848) में मार्क्स ने लिखा कि ‘‘ आधुनिक राज्य की कार्यकारिणी सम्पूर्ण बुर्जुवा वर्ग के मिले जुले मामलों का प्रबंध करने वाली समिति के अलावा और कुछ नहीं है’’।

12- जब तक संविधानवाद पूंजीवाद के साथ जुड़ा रहेगा तब तक जन साधारण को सच्ची स्वतंत्रता नहीं प्राप्त होगी।जब समाजवादी शासन प्रणाली में उत्पादन के प्रमुख साधनों का समाजीकरण कर दिया जाएगा और उत्पादन की शक्तियों का विकास किया जाएगा तभी कालान्तर में वर्ग विहीन और राज्य विहीन समाज का उदय होगा।

13- 1977 के सोवियत संविधान के अंतर्गत वाणी की स्वतंत्रता, सभा करने और संघ बनाने की स्वतंत्रता जैसे अधिकार इस शर्त पर प्रदान किए गए थे कि इनका प्रयोग समाजवादी प्रणाली को सुदृढ़ बनाने और साम्यवाद के निर्माण के लक्ष्यों के अनुरूप किया जाएगा।

14- वस्तुत: संविधानवाद मुख्यत: द्वंद्व या मतभेदों को सुलझाने का ढंग है।इसकी सार्थकता के लिए किसी भी मतभेद को सुलझाने के लिए साधनों के बारे में मतैक्य स्थापित होना चाहिए।

15- लोकतंत्र के अंग्रेजी पर्याय ‘डेमोक्रेसी’ की व्युत्पत्ति ग्रीक मूल के शब्द ‘ डेमोस’ से हुई है। जिसका अर्थ है- जनसाधारण। इसमें क्रेसी शब्द जोड़ा गया है जिसका अर्थ है- शासन। इस तरह लोकतंत्र शब्द का मूल अर्थ ही ‘जनसाधारण या जनता का शासन’ है। अब्राहम लिंकन के अनुसार ‘‘ लोकतंत्र जनता का शासन है जो जनता के द्वारा, जनता के लिए चलाया जाता है।’’

16- ब्रिटिश दार्शनिक ए. वी. डायसी ने अपनी पुस्तक ‘ लॉ एंड पब्लिक ओपिनियन इन इंग्लैंड ड्यूरिंग द नाइंटींथ सेंचुरी’ (1905) के अंतर्गत लोकतंत्र को ऐसी शासन प्रणाली माना है जिसमें बहुमत के अनुरूप विधि निर्माण किया जाता है। उसने लिखा है कि लोकतंत्र में ऐसे कानून लागू करना नादानी होगी जो जन साधारण को पसंद न हों।

17- जेम्स ब्राइस ने अपनी विख्यात कृति ‘ द अमेरिकन कॉमनवेल्थ (1893) और ‘मार्डन डेमोक्रेसीज’(1921) के अंतर्गत लिखा कि ‘‘ लोकतंत्र जनसाधारण का शासन है जिसमें वे वोटों के माध्यम से अपनी प्रभुसत्तासमपन्न इच्छा को व्यक्त करते हैं।’’

18- निर्देशित लोकतंत्र, लोकतंत्र का एक संशोधित रूप है जिसमें प्रतिनिधित्व की जगह परामर्श को विशेष महत्व दिया जाता है। यह विचार 1957 में इंडोनेशिया के तत्कालीन राष्ट्रपति सुकर्ण ने रखा था। इसके अंतर्गत लोकप्रिय नेता विभिन्न व्यवसायों के प्रतिनिधियों से परामर्श करके अधिकांश निर्णय अपने विवेक से करता है।

19- जनवादी लोकतंत्र, लोकतंत्र का वह रूप है जो समाजवादी देशों में अपनाया गया। इसके अंतर्गत उत्पादन के प्रमुख साधनों को तो सामाजिक स्वामित्व में रखा जाता है, परंतु सरकार चलाने के लिए सर्वहारा का अधिनायकवाद स्थापित नहीं किया जाता बल्कि छोटे छोटे व्यवसाई, किसान और कामगार मिलजुल कर सरकार चलाते हैं।

20- उदार लोकतंत्र वह होता है जहां पर एक से अधिक राजनीति दलों में राजनीतिक सत्ता के लिए मुक्त प्रतिस्पर्धा हो। राजनीतिक पद पर किसी विशिष्ट वर्ग का एकाधिकार न हो। सार्वजनीन वयस्क मताधिकार पर आधारित आवधिक चुनाव हों, नागरिक स्वतंत्रताओं की व्यवस्था हो तथा न्यायपालिका की स्वतंत्रता हो।

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21- लोकतंत्र के औचित्य को स्पष्ट करते हुए कहा जा सकता है कि, लोकतंत्र में शासन के कार्य में जनसाधारण के सहयोग की आशा होती है।सत्ता के दुरूपयोग की रोकथाम होती है। सार्वजनिक विषयों की स्वतंत्र चर्चा से जन शिक्षा को प्रोत्साहन मिलता है। परस्पर सद्भावना और सम्मान का विस्तार होता है तथा देशभक्ति की भावना का संचार होता है।

22- वाल्टर बेजहाट ने अपनी पुस्तक ‘‘ फिजिक्स एंड पॉलिटिक्स’’ (1872) के अंतर्गत लिखा कि, ‘‘ चर्चा की प्रवृत्ति सम्पूर्ण सामाजिक प्रगति की कुंजी है।’’ पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी लिखा है कि, “लोकतंत्र का अर्थ है सहिष्णुता- न केवल उन लोगों के प्रति जिनसे हम सहमत हैं बल्कि उन लोगों के प्रति भी जिनसे हम असहमत हैं।’’

23- अमेरिकी दार्शनिक जॉन ड्यूई ने अपनी विख्यात कृति ‘ डेमोक्रेसी एंड एजूकेशन’ (1961) के अंतर्गत लोकतंत्र के विचार को एक जीवन पद्धति के रूप में विकसित करने का प्रयास किया है। उन्होंने कहा कि ‘‘ लोकतंत्र के विश्लेषण के लिए यह देखना चाहिए कि लोग उचित- अनुचित का निर्णय कैसे करते हैं, एक दूसरे से सम्पर्क कैसे साधते हैं और अपनी सामान्य समस्याओं के समाधान के लिए कैसे एकजुट होते हैं।’’

24- इटली के समाज वैज्ञानिक विल्फ्रेडो पैरेटो (1848-1923) और गीतानो मोस्का (1858-1941) ने लोकतंत्र का विशिष्ट वर्ग वादी सिद्धांत प्रस्तुत किया। उनके अनुसार किसी भी समाज या संगठन के अंतर्गत महत्वपूर्ण निर्णय केवल गिने चुने लोग ही करते हैं, चाहे उस संगठन का बाहरी रूप कैसा भी क्यों न हो। परेटो के चिंतन से ‘‘विशिष्ट वर्गों की अदला- बदली’’ का सिद्धांत निकला है।

25- जर्मन समाज वैज्ञानिक रॉबर्ट मिशेल्स (1876-1936) ने ‘गुटतंत्र के लौह नियम’ का प्रतिपादन किया। जिसके अनुसार समाज में चाहे कोई भी शासन प्रणाली अपनाई जाए, वह अवश्य ही गुटतंत्र का रूप धारण कर लेती है।

26- कार्ल मैन्हाइम ने अपनी पुस्तक ‘ आइडियोलॉजी एंड यूटोपिया : एन इंट्रोडक्शन टू द सोश्योलॉजी ऑफ नॉलिज’ (1922) के अंतर्गत यह सुझाव दिया कि विशिष्ट वर्ग के शासन और लोकतंत्रीय शासन में तालमेल ज़रूरी है।

27- जोसेफ ए. शुम्पीटर ने अपनी विख्यात कृति ‘ कैपिटलिज्म, सोशलिज्म एंड डेमोक्रेसी’ (1942) के अंतर्गत लोकतंत्र के विशिष्ट वर्ग वादी सिद्धांत पर अपना दृष्टिकोण रखा।उनके कथन का सार यह है कि लोकतंत्र में राजनीतिक निर्णय नेताओं द्वारा लिए जाते हैं, परन्तु जन साधारण के वोट प्राप्त करने के लिए वहां पर कई नेताओं के बीच खुली प्रतिस्पर्द्धा चलती है। इस प्रक्रिया में लोकतंत्र में जनसाधारण को अपनी पसंद की नीतियां और कार्यक्रम चुनने का अवसर मिल जाता है।

28- रेमोंद आरों ने अपनी विख्यात कृति ‘ सोशल स्ट्रक्चर एंड द रूलिंग क्लास’ (1950) के अंतर्गत यह तर्क दिया कि लोकतंत्र और अन्य शासन प्रणालियों के विशिष्ट वर्गों में बुनियादी अंतर पाया जाता है।जहां सोवियत किस्म के समाज में एक ही विशिष्ट वर्ग को शासन में एकाधिकार प्राप्त होता है वहीं उदार लोकतंत्र में विशिष्ट वर्ग की बहुलता होती है। यहां असीम सत्ता का प्रयोग संभव नहीं है।

29- ज्योवानी सार्टोरी ने अपनी विख्यात कृति ‘ डेमोक्रेटिक थ्योरी’ (1958) के अंतर्गत लिखा कि लोकतंत्रात्मक व्यवस्था में चुनाव के मैदान में उतरकर आपस में मुकाबला करते हैं। इसलिए विशिष्ट वर्ग के अस्तित्व को लोकतंत्र की अपूर्णताओं नहीं मानना चाहिए।यदि लोगों को सही नेतृत्व नहीं मिलेगा तो लोकतंत्र विरोधी विशिष्ट वर्ग उन्हें गुमराह कर देगा।

30- सी.बी. मैक्फर्सन ने अपनी विख्यात कृति ‘ डेमोक्रेटिक थ्योरी : ऐस्सेज इन रिट्रीवल’ (1973) के अंतर्गत लिखा है कि लोकतंत्र के विशिष्ट वर्ग वादी सिद्धांत ने लोकतंत्र को एक ‘मानवीय आकांक्षा’ के स्तर से नीचे गिराकर ‘बाजार संतुलन’ की प्रणाली में बदल दिया है।

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32- ‘सहभागिता मूलक लोकतंत्र’ वह लोकतंत्र है जिसमें जनसाधारण की सहभागिता पर सर्वाधिक जोर दिया जाता है। भारत में पंचायती राज का विस्तार इसका सर्वोत्तम उदाहरण है।


31- ‘लोकतंत्र का बहुलवादी सिद्धांत’ इस मूल मान्यता पर आधारित है कि समाज में सभी हित समूह अपने अपने हितों के प्रति समान रूप से सजग, संगठित और सक्रिय होते हैं। सार्वजनिक नीति समूहों की परस्पर क्रिया का परिणाम होती है। रॉबर्ट डहल ने अपनी पुस्तक ‘ ए प्रिफेस टू डेमोक्रेटिक थ्योरी’ (1956) के अंतर्गत इस प्रतिरूप को विकसित किया जिसे उन्होंने बहुलतंत्र की संज्ञा दी।

33- 1990 के दशक के आरम्भिक वर्षों में लोकप्रिय हुए विचारणात्मक या ‘विचार- विमर्श मूलक लोकतंत्र’ का सिद्धांत लोकप्रिय प्रभुसत्ता और उदार लोकतंत्र से जुड़े विचारों में समन्वय स्थापित करने का प्रयास करता है। यहां सार्वजनिक मुद्दों पर मुक्त विचार- विमर्श को अधिक प्रोत्साहन दिया जाता है।

34- विचार- विमर्श मूलक लोकतंत्र के प्रवर्तकों में जे. कोहन एवं जे. रॉजर्स (ऑन डेमोक्रेसी : टुवार्ड ए ट्रांसफार्मेशन ऑफ अमेरिकन सोसायटी) (1983), एस. एल. हर्ली ( नेचुरल रीजन्स : पर्सनैलिटी एंड पॉलिटी) (1989) प्रमुख हैं।

35- रिचर्ड वॉल्हाइम ने पीटर लास्लैट और डब्ल्यू जी. रंसीमैन की सम्पादित कृति ‘ फिलॉस्फी, पॉलिटिक्स एंड सोसायटी’ (1962) के अंतर्गत अपने चर्चित लेख ‘ ए पैराडॉक्स इन थ्योरी ऑफ डेमोक्रेसी’ में ‘‘लोकतंत्र के विरोधाभास’’ की परिकल्पना की है। परन्तु जे. आर. पैनॉक ने ‘पॉलिटिकल थ्योरी’(1974) में अपने चर्चित लेख ‘ डेमोक्रेसी इज नॉट फॉर पैराडॉक्सिकल कमेंट’ के अंतर्गत लोकतंत्र के विरोधाभासी बयान को खारिज किया है।

36- ‘लोकतंत्र के विरोधाभास’ का दूसरा महत्वपूर्ण प्रतिपादन बेंजामिन आर. बार्बर ने डेविड मिलर द्वारा सम्पादित ‘‘ ब्लैकवेल एंसाइक्लोपीडिया ऑफ पोलिटिकल थॉट) (1987) में अपने लेख ‘ डेमोक्रेसी ’ के अंतर्गत प्रस्तुत किया है।बार्बर ने लिखा है कि ‘‘ लोकतंत्र व्यक्ति के अधिकारों का दावा करता है जिनमें स्वतंत्रता और समानता के अधिकार प्रमुख हैं। परन्तु कभी- कभी इन दोनों अधिकारों में परस्पर विरोध की स्थिति पैदा हो जाती है।’’

37- लोकतंत्र के मार्क्सवादी दृष्टिकोण के अंतर्गत उदार लोकतंत्र की आलोचना इस आधार पर की जाती है कि उदार लोकतंत्र केवल पूंजीपति वर्ग के हितों की रक्षा करता है तथा समाज के वर्ग विभाजन को स्थायित्व प्रदान करता है।

38- ‘लोकतंत्रीय केन्द्रवाद’ के सिद्धांत की नींव सोवियत संघ के संस्थापक वी. आई. लेनिन (1870-1924) ने रखी थी। इसके अनुसार दल या शासन के निचले अंग क्रमशः अपने ऊंचे अंगो का निर्वाचन करेंगे, ऊंचे अंग जनसाधारण के प्रति उत्तरदाई होंगे और निचले अंग अपने से ऊंचे अंगों के निर्णयों का पालन अंगों के निर्णयों का पालन करने को बाध्य होंगे।

39- ‘जनवादी लोकतंत्र’ की अवधारणा मार्क्सवादी चिंतन के साथ जुड़ी हुई है।इसे प्रत्यक्ष लोकतंत्र का स्तूपाकार ढांचा भी कहा जाता है। इस व्यवस्था में बुर्जुवा, निम्न बुर्जुवा, किसान और सर्वहारा वर्ग अपनी मिली-जुली सरकार बनाते हैं। परन्तु इसमें सर्वहारा वर्ग की प्रधानता रहती है।

40- लोकतांत्रिक समाजवाद वह सिद्धांत है जो समाजवाद की स्थापना के लिए लोकतंत्रीय प्रक्रिया का समर्थन करता है। समाजवाद का मुख्य लक्षण उत्पादन और वितरण के प्रमुख साधनों पर सामाजिक स्वामित्व स्थापित करना है। जर्मन दार्शनिक एडुआर्ड बन्स्टाइन (1850-1932) ने 20 वीं शताब्दी के आरंभ में मार्क्स वाद की एक नई व्याख्या देने की कोशिश की जिसे उन्होंने ‘विकासात्मक समाजवाद’ का नाम दिया। परन्तु कट्टर मार्क्सवादियों ने उसे ‘संशोधनवाद’ की संज्ञा दी।

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41- विकासशील देश अथवा विकासशील राष्ट्र या तीसरी दुनिया के देश एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के उन देशों को कहा जाता है जिन्होंने अतीत में उपनिवेशवाद का लम्बा दौर झेला है।इन देशों का आर्थिक विकास निम्न है।‘तीसरी दुनिया’ शब्दावली के आविष्कार का श्रेय फ्रांसीसी अर्थशास्त्र वेत्ता आल्फ्रेड सावी (1889-1990) को है।आज इन देशों की संख्या 125 से ऊपर हो गई है।

42- तीसरी दुनिया के देशों में सरकार की वैधता का आधार है- जनसाधारण का कल्याण, उनकी सेवा और उनकी आकांक्षाओं की पूर्ति। इन दोनों का अपना कोई गुट नहीं है बल्कि यह गुटनिरपेक्षता की नीति का पालन करते हैं। यहां अभी दलीय प्रणाली की मजबूती का अभाव है। सऊदी अरब, जॉर्डन, कतर, बहरीन, कुवैत और भूटान जैसे देशों में दलीय प्रणाली अभी विकसित नहीं हुई है।

43- 1990 के दशक में पूरी दुनिया में लोकतांत्रिक व्यवस्था को बढ़ावा मिला। सैमुअल हंटिंगटन ने अपनी विख्यात कृति ‘ द थर्ड वेब : डेमोक्रेटाइजेशन इन द लेट ट्वेंटिएथ सेंचुरी’ (1991) के अंतर्गत इस महत्वपूर्ण परिवर्तन को ‘तीसरी लहर’ की संज्ञा दी। इस लहर की शुरुआत 1970 के दशक के मध्य में यूरोप में हुई जब वहां यूनान, स्पेन और पुर्तगाल में अधिनायकतंत्रों की जगह लोकतंत्र स्थापित हो गया।

44- फ्रांसीसी विद्वान, ऑगस्ट कॉम्टे (1798-1857) ने कहा कि ज्ञान विज्ञान की उन्नति के फलस्वरूप हमारा सामाजिक संगठन ‘सैन्य समाज से औद्योगिक समाज’ की ओर अग्रसर हो रहा है। अंग्रेज विचारक हेनरी मेन ने कहा कि सामाजिक सम्बन्ध स्थिर स्थिति से अनुबंध की ओर अग्रसर होते हैं। जर्मन समाज वैज्ञानिक फर्डीनेंड टॉनीज ने कहा कि समाज का संगठन ‘बद्ध समाज से संघ समाज’ की ओर अग्रसर होता है।

45- जे. एच. मिटलमैन ने अपनी पुस्तक ‘ आउट फ्रॉम अंडरडेवलपमेंट : प्रॉस्पेक्टस फॉर द थर्ड वर्ल्ड’ (1988) के अंतर्गत लिखा कि ‘‘ विकास का अर्थ सामाजिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए प्राकृतिक और मानवीय संसाधनों के तर्क संगत प्रयोग की क्षमता को बढ़ाना है, जबकि अल्पविकास का अर्थ ऐसी बाध्यताओं से है जो सामाजिक संरचना के तर्कसंगत रूपांतरण को रोकती हैं।’’

46- जेम्स एस. कोलमैन ने आधुनिकीकरण और राजनीतिक विकास को समवर्ती मानते हुए शहरीकरण,का उन्नत स्तर, साक्षरता का विस्तार, प्रति व्यक्ति आय का उच्च स्तर, भौगोलिक और सामाजिक गतिशीलता, अर्थ व्यवस्था में वाणिज्य व्यापार और औद्योगिकीकरण का ऊंचा स्तर, जन सम्पर्क के साधनों का विस्तृत और व्यापक जाल तथा आधुनिक सामाजिक और आर्थिक प्रक्रियाओं में समाज के सदस्यों की व्यापक सहभागिता को आधुनिकीकरण माना है।

47- डब्ल्यू. डब्ल्यू. रॉस्टो ने अपनी पुस्तक ‘ स्टेजेज ऑफ इकोनॉमिक् ग्रोथ’ (1960) के अंतर्गत आर्थिक संवृद्धि को विकास की अनिवार्य शर्त माना है।उनके अनुसार आर्थिक संवृद्धि की ५ अवस्थाएं होती हैं- पहली, परम्परागत समाज, दूसरी, संक्रांति कालीन अवस्था, तीसरी, उत्कृष अवस्था, चौथी, प्रौढता की ओर प्रेरणा की अवस्था और पांचवां, उच्च स्तर के जनपुंज- उपभोग की अवस्था।

48- ए. एफ. के. आर्गेंस्की ने अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘ द स्टेजेज ऑफ पॉलिटिकल डेवलेपमेंट (1965) के अंतर्गत आर्थिक संवृद्धि को राजनीतिक विकास का अंग माना है। उन्होंने राजनीतिक विकास की चार अवस्थाओं की पहचान किया है- आदिम एकीकरण, औद्योगिकीकरण, राष्ट्रीय कल्याण और प्रचुरता की राजनीति।

49- सीमोर लिप्सेट ने अपनी पुस्तक ‘ पॉलिटिकल मैन : द सोशल बेसेज ऑफ पॉलिटिक्स’ (1960) के अंतर्गत यह विचार व्यक्त किया कि किसी देश के लोग जितने सम्पन्न होंगे, वहां लोकतंत्र की सम्भावनाएं उतनी ही उज्जवल होंगी।

50- पॉल बरन ने अपनी विख्यात कृति ‘ द पॉलिटिकल इकॉनोमी ऑफ ग्रोथ’ (1957) के अंतर्गत लिखा है कि ‘‘ आज के औपनिवेशिक और पराश्रित देश प्राथमिक पूंजी संचय के ऐसे स्रोतों का सहारा नहीं ले सकते जैसे उन्नत देशों को उपलब्ध थे।’’

( नोट- उपरोक्त सभी तथ्य, ओम् प्रकाश गाबा, की पुस्तक ‘राजनीति विज्ञान विश्वकोष’ ISBN 81-214-0683-8 , नेशनल पब्लिशिंग हाऊस, नई दिल्ली, से साभार, लिए गए हैं ।

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Dr. Raj Bahadur Mourya:
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