– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान विभाग, बुंदेलखंड कालेज झांसी (उत्तर-प्रदेश), फोटो गैलेरी एवं प्रकाशन प्रभारी- डॉ. संकेत सौरभ, झांसी, (उत्तर -प्रदेश)भारत email : drrajbahadurmourya @ gmail.com, website: themahamaya.com
1- नव मार्क्स वादी विचारक हर्बर्ट मार्क्यूजे (1898-1979) ने वर्ष 1964 में प्रकाशित अपनी विख्यात कृति ‘ वन डॉयमेंशनल मैन : स्टडीज इन द ऑइडियोलॉजी ऑफ एडवांस्ड इंडस्ट्रियल सोसायटी’ में लिखा कि, ‘‘ पूंजीवाद ने जन संपर्क के साधनों को बड़ी चालाकी से इस्तेमाल करते हुए पीड़ित वर्ग के असंतोष को संवेदनशून्य बना दिया है, क्योंकि वह तुच्छ भौतिक इच्छाओं को उत्तेजित करता है जिसे संतुष्ट करना बहुत सरल है।इसका परिणाम यह हुआ है कि मनुष्य का बहुआयामी व्यक्तित्व लुप्त हो गया है।’’
2- हर्बर्ट मार्क्यूजे ने लिखा है कि, ‘‘ मनुष्य सोने के पिंजरे में बंद पंक्षी की तरह उसके आकर्षण में इतना डूब चुका है कि वह मुक्त आकाश में उड़ान भरने के आनन्द को भूल गया है। एक उपभोक्ता संस्कृति मनुष्य के व्यक्तित्व पर हावी हो गई है, जिसने उसकी सृजनात्मक स्वतंत्रता के विचार को बहुत पीछे धकेलकर उसे एक आयामी मनुष्य बना दिया है।’’ यह आधुनिक प्रौद्योगिकी द्वारा मिथ्या चेतना के सृजन के कारण हुआ है।
3- नव मार्क्स वादी विचारक युर्गेन हेबरमास (1929 -) ने अपने लेखन में स्वतंत्रता की समस्या को पूंजी वाद की वैधता के संकट के रूप में देखा है। उसने तर्क दिया कि पूंजीवाद ने वैज्ञानिक जानकारी और स्वचालित मशीनों को प्रामाणिकता का आधार बना दिया है, अतः इसने वैधता स्थापन के परम्परागत आधार को नष्ट कर दिया है। उसकी जगह इसने परस्पर लाभ को सामाजिक संगठन का मूल सिद्धांत मान लिया है और बाजार समाज के नियमों को सर्वोच्चता प्रदान कर दी है।
4- कार्ल मार्क्स के एक अनुयाई जी. वी. प्लेखानोव (1856-1918) ने कहा था कि ‘‘ मार्क्स वाद एक सम्पूर्ण विश्व दृष्टि है।’’ नव मार्क्स वाद के उन्नायकों में थ्योडोर एडोर्नो (1903-1969), मैक्स हार्खाइमर (1895-1973), लुई आल्थ्युजर (1918-1990), एरिक फ्रॉम (1900 -1980), ज्यां पॉल सात्रे, (1905-1980) हर्बर्ट मार्क्यूजे, (1898-1979) और युर्गेन हेबरमास (1929 -) प्रमुख हैं।
5- द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धांत मार्क्सवाद का दार्शनिक आधार प्रस्तुत करता है। यह सिद्धांत भौतिकवाद की मान्यताओं को द्वंद्वात्मक पद्धति के साथ मिलाकर सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या देने का प्रयत्न करता है। यह जड़ तत्व को ऐसी स्थिर वस्तु के रूप में नहीं देखता जिसमें कोई परिवर्तन लाने के लिए बाहर से शक्ति लगानी पड़ती हो। इस संकल्पना के अनुसार जड़ तत्व की प्रकृति में ही ऐसे तनाव और अंतर्विरोध निहित हैं जो परिवर्तन की प्रेरक शक्ति का स्रोत हैं।
6- यूनानी दार्शनिकों डेमोक्रीटस और एपीक्यूरस के चिंतन में भौतिकवाद के आरम्भिक संकेत मिलते हैं। १७ वीं शताब्दी में गैलीलियो ने नई भौतिकी की नींव रखी और बाद में न्यूटन ने इसे आगे बढ़ाया। थॉमस हॉब्स के भौतिकवाद को यांत्रिक भौतिकवाद कहा जाता है।
7- हेगेल ने चेतन तत्व या विचार तत्व को सृष्टि का सार तत्व मानते हुए यह तर्क दिया कि विकास की सम्पूर्ण प्रक्रिया शुरू से अंत तक विचारों के उत्थान और पतन की कहानी है।हेगेल के द्वंद्वात्मक चेतनवाद का खंडन करते हुए मार्क्स ने यह तर्क दिया कि जड़ तत्व की उत्पत्ति चेतन तत्व से नहीं होती, बल्कि चेतना स्वयं जड़ तत्व के विकास की सर्वोच्च परिणति है। हेगेल और मार्क्स दोनों ही यह स्वीकार करते हैं कि जब तक सामाजिक विकास अपने चरम लक्ष्य तक नहीं पहुंच जाता तब तक प्रत्येक सामाजिक अवस्था अस्थिर होती है।
8- एंगेल्स के अनुसार द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की प्रक्रिया के तीन बुनियादी नियम हैं, 1- परिमाण से गुण की ओर परिवर्तन 2- परस्पर विरोधी तत्वों की अंतर्व्याप्ति 3- निषेध का निषेध मार्क्स वाद के अंतर्गत ऐतिहासिक भौतिकवाद को द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के पूरक सिद्धांत के रूप में मान्यता दी जाती है।इसे इतिहास की आर्थिक व्याख्या या इतिहास की भौतिक वादी व्याख्या भी कहा जाता है। ऐतिहासिक भौतिकवाद मार्क्सवाद का अनुभवमूलक आधार प्रस्तुत करता है।
9- ऐतिहासिक भौतिकवाद की मूल अवधारणा है कि इतिहास के किसी भी युग में आर्थिक सम्बन्ध समाज की प्रगति का रास्ता तैयार करते हैं और वे राजनीतिक, कानूनी, सामाजिक, बौद्धिक और नैतिक सम्बन्धों का स्वरूप निर्धारित करने में सबसे बढ़कर प्रभाव डालते हैं।दूसरे शब्दों में, किसी राष्ट्र या समाज के विकास की प्रक्रिया में आर्थिक तत्व अर्थात् वस्तुओं के उत्पादन, विनिमय और वितरण प्रणाली की भूमिका सबसे प्रधान होती है। अन्य सब तत्त्वों की भूमिका आर्थिक तत्व के साथ जुड़ी रहती है।
10- मार्क्सवाद के अंतर्गत वर्ग संघर्ष का सिद्धांत ऐतिहासिक भौतिकवाद का पूरक सिद्धांत है। कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो (1848) के अनुसार ‘‘ समाज का अब तक का इतिहास वर्ग- संघर्षों का इतिहास मात्र है।’’ द जर्मन आइडियोलॉजी (1845-46) के अंतर्गत मार्क्स और एंगेल्स ने कहा है कि, ‘‘ वर्ग अपने आप में बुर्जुआ समाज की उपज है।’’ द एटींथ ब्रूमेयर ऑफ लुई बोनापार्ट (1852) के अंतर्गत मार्क्स ने पूर्ण विकसित वर्ग की नकारात्मक परिभाषा दी है।
11- रोज़ा लक्जमबर्ग (1885-1971) ने तर्क दिया है कि, कामगार वर्ग को स्वयं वर्ग संघर्ष का सामाजिक अनुभव प्राप्त करके अपने अंदर वर्ग संघर्ष की चेतना विकसित करनी चाहिए। यदि बौद्धिक विशिष्ट वर्ग सर्वहारा का संरक्षक बनने की कोशिश करेगा तो सर्वहारा स्वयं कमजोर और निष्क्रिय हो जाएंगे।
12- मार्क्सवाद के अंतर्गत अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत, मार्क्सवाद का आर्थिक आधार हमारे सामने रखता है। यह सिद्धांत विशेष रूप से पूंजीवाद के अंतर्गत कामगारों के शोषण की प्रकृति को स्पष्ट करता है। पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत मजदूर की पूरी क्षमता के अनुसार उससे काम लिया जाता है, परन्तु उसे केवल अपने और अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए निर्वाह मजदूरी ही दी जाती है।शेष पैसे को पूंजीपति हड़प जाता है।
13- परम्परागत अर्थशास्त्र के अंतर्गत भूमि, श्रम, पूंजी और संगठन, उत्पादन के चार तत्व माने जाते थे। इनमें से तीन तत्व- भूमि, पूंजी और संगठन वास्तविक उत्पादन की कोई क्षमता नहीं रखते। अतः श्रम ही मूल्य का यथार्थ स्रोत है।किसी वस्तु का मूल्य इसलिए होता है कि वह सामाजिक श्रम की परिणति है।किसी वस्तु के उत्पादन की प्रक्रिया का विश्लेषण करते हुए उसमें लगाए गए श्रम का पूरा परिमाण शुरू से मापना चाहिए।
14- समकालीन सभ्यता ने मनुष्य के अलगाव और पराधीनता की जो परिस्थितियां पैदा कर दी हैं, मार्क्सवादी चिंतन उनके आलोचनात्मक विश्लेषण का उपकरण प्रदान करता है।इसका मौलिक महत्व भावी समाज की उस भव्य कल्पना में निहित है जिसके अंतर्गत ‘‘ प्रत्येक व्यक्ति का स्वतंत्र विकास सबके स्वतंत्रत विकास की आवश्यक शर्त बन जाएगा।’’ मार्क्सवाद एक प्रगति वादी दर्शन है जिसका मुख्य संदेश यह है कि ‘‘ सामाजिक अन्याय की जड़ें समाज व्यवस्था के अंतर्गत ढूंढनी चाहिए और वहीं उसका प्रतिकार भी करना चाहिए।’’
15- साम्यवाद सारी सभ्यता को ध्वस्त नहीं करता बल्कि वह पूंजीवाद के अमानवीय कारी प्रभाव को नष्ट कर देता है, परन्तु सांस्कृतिक विकास के कल्याणकारी तत्वों को सुदृढ़ करता है। यह मानव प्रेम और साहचर्य का सिद्धांत है। साम्यवाद पूर्ण विकसित प्रकृतिवाद के रूप में मानववाद है और पूर्ण विकसित मानव वाद के रूप में प्रकृतिवाद है।जॉन ल्यूइस ने अपनी पुस्तक ‘ मार्क्सिज्म एंड द ओपेन माइंड’ (1976) के अंतर्गत मार्क्सवाद के वर्ग संघर्ष को भी एक मानवतावादी सिद्धांत के रूप में उभारने की कोशिश की है।
16- मार्क्स ने लिखा है कि, ‘‘पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत मनुष्य में अपनापन नहीं रह जाता है। वह अपनी रचना से, प्रकृति से, अपने समाज से, यहां तक कि अपने आप से भी पराया हो जाता है। अतः अपनेपन की वापसी के लिए पूंजीवाद का अंत करना जरूरी है।’’ साम्यवादी घोषणा पत्र में उसने लिखा है कि, ‘‘साम्यवादी क्रांति से शासक वर्ग थर थर कांपने लगेंगे। इससे सर्वहारा वर्ग का कुछ नहीं बिगड़ेगा- केवल उनके पैर की बेडियां टूट जाएंगी। फिर सारा जहान उनके कदमों में होगा।’’
17- मार्क्सवादी चिंतन में जड़ पूजा का सिद्धांत पूंजीवाद की एक विशेषता को व्यक्त करता है। यह उसके वैज्ञानिक चिंतन के साथ जुड़ा हुआ है। मार्क्स ने इसका विस्तृत विवरण अपनी विख्यात कृति‘ कैपिटल’ खंड-1, (1976) के अंतर्गत दिया है। पूंजीवाद की आर्थिक प्रणाली मनुष्यों के यथार्थ सामाजिक सम्बन्धों पर एक तरह के मिथ्या सम्बन्ध की पर्त चढ़ा देती है। वस्तुओं का परस्पर सम्बन्ध मनुष्यों के परस्पर सम्बन्ध पर हावी हो जाता है।
18- मार्क्सवादी चिंतन में स्वतंत्रता का तात्पर्य मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं की संतुष्टि मात्र नहीं है। हालांकि यह संतुष्टि उसकी आवश्यक शर्त है। परन्तु स्वतंत्रता के लिए उन परिस्थितियों का निराकरण भी जरूरी है जो मनुष्य को अमानुषिक जीवन जीने को विवश कर देती है, जो उसे अपने सहचरों से और अपने आप से बेगाना बना देती है। पूंजीवादी समाज की मुख्य पहचान विवशता है, स्वतंत्रता नहीं। समाजवादी क्रांति होने पर मानव समाज विवशता लोक से निकलकर स्वतंत्रता लोक में प्रवेश करेगा।
19- मार्क्सवादी चिंतन के अनुसार, मनुष्य प्रकृति के नियमों को बदल नहीं सकता, न उन्हें अपने नियंत्रण या वश में कर सकता है। मनुष्य केवल इन नियमों का वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त करके अपने निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए इनका प्रयोग कर सकता है। स्वतंत्रता का अर्थ यही है कि हम जिन नियमों के आगे विवश हैं, उनकी वैज्ञानिक जानकारी प्राप्त कर उन्हें निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति का साधन बना सकें।
20- आधुनिक मार्क्सवाद का एक महत्वपूर्ण विचार सम्प्रदाय फ्रैंकफर्ट स्कूल है। जिसकी स्थापना 1930 में पश्चिमी जर्मनी के फ्रैंकफर्ट विश्वविद्यालय में की गई थी। इस विचार सम्प्रदाय के मुख्य प्रवर्तक जर्मन मार्क्सवादी, थियोडोर एडोर्नो(1903-1969), मैक्स हार्खाइमर(1895-1973), हर्बर्ट मार्क्यूजे( 1898-1979) और युर्गेन हेबरमास (1929 -) प्रमुख हैं। यह विचार सम्प्रदाय प्रभुत्व और विमुक्ति के द्वंद्ववाद पर मार्क्सवाद का ध्यान केंद्रित करता है।इन विचारकों ने पूंजीवादी व्यवस्था के दो स्तरों का विश्लेषण किया है : प्रौद्योगिकी प्रभुत्व और आर्थिक शोषण।
21- मार्क्सवादी चिंतन में आत्मप्रेरित व्यवहार की संकल्पना है। जिसके अनुसार मनुष्य जब सृष्टि के नियमों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेता है तब वह इन नियमों के बंधन से मुक्त हो जाता है। अब वह विवशता लोक से निकलकर स्वतंत्रता लोक में प्रवेश करता है।प्रागितिहास समाप्त होता है और इतिहास आरम्भ होता है। मनुष्य अब स्वयं इतिहास का निर्माता और अपनी नियति का नियंता बन जाता है। मार्क्स ने इस नई गतिविधि को आत्मप्रेरित व्यवहार की संज्ञा दी है।
22- मार्क्सवादी दृष्टिकोण के अनुसार, राज्य न तो प्राकृतिक संस्था है, न नैतिक संस्था है बल्कि यह एक कृत्रिम उपकरण है।कार्ल मार्क्स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो में लिखा है कि, ‘‘ सही सही कहा जाए तो राजनीतिक शक्ति एक वर्ग का उत्पीडन करने के लिए दूसरे वर्ग की संगठित शक्ति मात्र है।’’ राज्य उस समय अस्तित्व में आता है जब निजी सम्पत्ति के आधार पर समाज दो परस्पर विरोधी वर्गों- धनवान और निर्धन में बंट जाता है।जो वर्ग उत्पादन के साधनों का स्वामी है वह अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए राजनीतिक शक्ति का ताना-बाना बुनता है और वही राज्य का रूप ग्रहण कर लेता है।
23- इतालवी समाज वैज्ञानिक एंटोनियो ग्राम्शी (1891-1937) ने मार्क्सवादी विश्लेषण के अंतर्गत राज्य की सापेक्ष स्वायत्तता को स्वीकार किया।ग्राम्सी ने पूंजीवादी राज्य में प्रभुत्व की दो संरचनाओं के दो स्तरों की पहचान किया, पहला- राजनीतिक समाज और दूसरे, नागरिक समाज। राजनीतिक समाज राज्य शक्ति को व्यक्त करता है और समाज पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए बल प्रयोग का सहारा लेता है।
24- ग्राम्शी ने नागरिक समाज की संरचनाओं- परिवार, पाठशाला, धार्मिक संस्थाएं इत्यादि को वैधता परक संरचनाएं कहा है। यह समाज पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए सहमति का सहारा लेती हैं और यह शिक्षा देती हैं कि उन्हें शासक वर्गों तथा निजी सम्पत्ति के प्रति स्वाभाविक सम्मान का भाव रखना चाहिए। यह संरचनाएं बुर्जुआ समाज के नियमों को वैधता प्रदान करती हैं।इसे हेजीमोनी अथवा प्राधान्यता भी कहा जाता है।
25- अमेरिकी मार्क्सवादी पॉल स्वीजी (1910-2004) ने मार्क्सवादी चिंतन के अंतर्गत प्रस्तुत किए गए राज्य के उपकरणात्मक सिद्धांत को आगे बढ़ाते हुए अपनी विख्यात कृति, ‘ द थ्योरी ऑफ कैपीटलिस्ट डेवलपमेंट : प्रिंसिपल्स ऑफ मार्क्सियन पोलिटिकल इकॉनॉमी (1942) के अंतर्गत यह मान्यता प्रस्तुत की है कि, ‘‘ राज्य शासक वर्गों के हाथों का उपकरण है।’’
26- अमेरिकी मार्क्सवादी रैल्फ मिलिबैंड (1924-1994) ने अपनी चर्चित कृति ‘ द स्टेट इन कैपिटलिस्ट सोसायटी- एन एनालिसिस ऑफ द वेस्टर्न सिस्टम ऑफ पावर (1969) के अंतर्गत तर्क दिया कि पूंजीवादी समाज का शासक वर्ग राज्य का प्रयोग समाज पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए उपकरण के रूप में करता है।
27- राज्य का संरचनावादी दृष्टिकोण इस मूल मान्यता पर आधारित है कि राज्य के कार्य समाज की संरचनाओं से निर्धारित होते हैं। राज्य शक्ति का प्रयोग करने वाले लोगों के चरित्र से नहीं। एंटोनियो ग्राम्शी को इस दृष्टिकोण का अग्रदूत माना जा सकता है।संरचनावाद के समर्थक यह तर्क देते हैं कि पूंजीवाद के अंतर्विरोधों का मूल कारण राज्य की संरचना में निहित है, शासक के चरित्र में नहीं।
28- फ्रांसीसी नव मार्क्स वादी लुई आल्थ्युजर (1918-1990) ने वर्ष 1965 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ फ़ॉर मार्क्स’ में तर्क दिया कि सामाजिक संरचना के अंतर्गत आधार और अधिरचना के विभिन्न तत्व आपस में अच्छी तरह से जुड़े रहते हैं अतः सामाजिक परिवर्तन की शुरुआत किसी भी क्षेत्र से हो सकती है। वह सम्पूर्ण सामाजिक संरचना को गतिमान कर सकता है।
29- फ्रांसीसी मार्क्सवादी निकोस पूलेंत्साज (1936-1979) ने वर्ष 1973 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ पॉलिटिकल पॉवर एंड द सोशल क्लासेज’ के अंतर्गत आर्थिक शक्ति के स्वामित्व और आर्थिक शक्ति के नियंत्रण में अंतर करते हुए कहा कि राज्य शक्ति के प्रयोग के लिए आर्थिक शक्ति का नियंत्रण ही पर्याप्त है।राज्य की संरचना की दृष्टि से पूंजीवादी और समाजवादी देशों में कोई अंतर नहीं है।
30 – उदारीकरण, वह नीति या कार्रवाई है जिसके अंतर्गत आर्थिक गतिविधि की कार्यकुशलता और उससे मिलने वाले लाभ की अधिकतम वृद्धि के लिए उस पर से सरकारी प्रतिबंध और नियंत्रण हटा दिए जाते हैं या उनमें ढील दी जाती है ताकि बाजार की शक्तियां बेरोक टोक अपना काम कर सकें। इसमें यह विश्वास किया जाता है कि मांग और पूर्ति के नियमों तथा मुक्त प्रतिस्पर्धा को अपना काम करने देना चाहिए।
31- निजीकरण या गैर सरकारी करण वह नीति या कार्रवाई है जिसके अंतर्गत अर्थव्यवस्था के किसी महत्वपूर्ण हिस्से को सार्वजनिक स्वामित्व और नियंत्रण से हटाकर निजी या गैर सरकारी क्षेत्र को उसका स्वामित्व या नियंत्रण प्राप्त करने की अनुमति दी जाती है। इसके पीछे उसकी कार्य कुशलता को बढ़ावा देने और वित्तीय हानि को कम करने का तर्क दिया जाता है।
32- 1980 के दशक से लोकप्रिय हुई भूमंडलीकरण की नीति उदारीकरण और निजीकरण का तार्किक परिणाम है। भूमंडलीकरण की नीति बहुराष्ट्रीय निगमों के विस्तार को बढ़ावा देती है। परिवहन और संचार प्रणाली को उन्नत करती है।रहन सहन की एक जैसी शैली को बढ़ावा देती है। आर्थिक दृष्टि से यह आर्थिक समाकलन की प्रक्रिया है।
33- संरचनात्मक समायोजन वह प्रक्रिया है जिसके तहत निम्न आय वर्ग के देशों को लगातार भुगतान संतुलन की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। उन्हें अपनी अर्थव्यवस्थाओं में उपयुक्त सुधार के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष रियायती शर्तों पर कर्ज देता है।इन सुधारों को संरचनात्मक समायोजन की संज्ञा दी जाती है। इसमें अकुशलता को दूर करना, प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देना, अनुदान मे कटौती करना, अनुसंधान और विकास को प्रोत्साहन देना तथा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को आकर्षित करना शामिल है।
34- राष्ट्रवाद, एक भावना भी है और विचारधारा भी। एक भावना के रूप में यह अपने राष्ट्र के प्रति लगाव का संदेश देता है। इससे प्रेरित होकर लोग राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि दर्जा देते हैं। विचारधारा के रूप में यह राष्ट्रत्व की वकालत करता है।जाति, धर्म, रीति- रिवाज और संस्कृति तथा परम्पराएं इसके आधार हैं। यहां लोग अपनी सामान्य राजनीतिक आकांक्षाओं, सामान्य हितों, सामान्य इतिहास और नियति की चेतना के कारण एकता के सूत्र में बंधे हुए अनुभव करते हैं।
36– राष्ट्र -निर्माण का अर्थ है, पूरे राष्ट्र के लोगों के लिए निष्ठा का एक ही केन्द्र विकसित करना। जिससे लोग अपनी संकीर्ण निष्ठाओं से आगे बढ़कर पूरे राष्ट्र को अपनी निष्ठा का केन्द्र बना लें। राज्य -निर्माण का अर्थ है कि शक्ति का ऐसा केन्द्र विकसित करना जो सम्पूर्ण राज्य में शांति और व्यवस्था क़ायम कर सके।सब जगह अपने आदेश लागू करा सके और राज्य की सुरक्षा तथा कल्याणकारी सेवाओं को देश के कोने-कोने में पहुँचा सके।
37- राष्ट्रवाद के निर्माण और मजबूती के लिए मिली- जुली राष्ट्रीय संस्थाओं का निर्माण किया जाता है। विभिन्न समूहों के बीच परस्पर संवाद को बढ़ावा दिया जाता है। एकता के प्रतीकों का आविष्कार और प्रचार किया जाता है। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से जुड़े हुए लोग दूसरों की तुलना में अधिक संवृद्ध और शक्तिशाली हों। य़दि ऐसा होगा तो आपस में वैमनस्य पैदा होने का खतरा होता है।
38– गैर सरकारी संगठन, ऐसे स्वैच्छिक संगठन होते हैं जिसे कुछ उत्साही लोग आत्मप्रेरित हो मानवतावादी लक्ष्य की पूर्ति के लिए स्थापित करते हैं। इसके लिए वे स्वयं आवश्यक निधि और संसाधन जुटाते हैं। यह सरकारी सहायता भी प्राप्त करते हैं।भारत में ‘ पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज’ तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एमनेस्टी इंटरनेशनल, रोटरी इंटरनेशनल तथा इंटरनेशनल रेड क्रॉस प्रमुख गैर सरकारी संगठन हैं।
39 – जर्मन समाज वैज्ञानिक रॉबर्ट मिशेल्स (1876-1936) ने अपनी चर्चित कृति‘ पॉलिटिकल पार्टीज’ (1911) के अंतर्गत लिखा कि, राजनीतिक दल का चरित्र अपने समय की ऐतिहासिक अवस्था से निर्धारित होता है।मिशेल्स ने गुट तंत्र के लौह नियम का निरूपण करते हुए यह विचार व्यक्त किया कि किसी भी राजनीतिक दल के सारे निर्णय करने की शक्ति अंततः एक गुट तंत्र के हाथों में आ जाती है। परन्तु वह अपने इस चरित्र को छुपाकर अपने को लोकतांत्रिक रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न करता है।
40- फ्रांसीसी राजनीति वैज्ञानिक मौरिस दूरवर्जर ने अपनी चर्चित कृति ‘ पॉलिटिकल पार्टीज’ (1955) के अंतर्गत दलीय संरचना का विवरण देते हुए चार प्रकार के राजनीतिक दलों की पहचान किया। 1- गुट बैठक 2- शाखा दल 3- कोशिका दल और 4- नागरिक सेना। दूरवर्जर ने कहा कि, इनमें से किसी में भी दलीय संगठन शुद्ध रूप में नहीं पाया जाता बल्कि वास्तविक राजनीतिक दलों में इनके मिले जुले रूप देखने को मिलते हैं।
41– इतालवी राजनीति वैज्ञानिक ज्योवानी सार्टोरी ने अपनी चर्चित कृति ‘ पार्टीज एंड पार्टी सिस्टम्स : ए फ्रेमवर्क फॉर एनालिसिस (1976) में दो तरह की बहुदलीय प्रणालियों में अंतर करने का सुझाव दिया है- संयत बहुलवादी प्रणालियां और ध्रुवीकृत बहुलवादी प्रणालियां।सार्टोरी के अनुसार, ध्रुवीकृत बहुलवादी प्रणालियां राजनीतिक गतिहीनता को जन्म देती हैं और कभी-कभी लोकतंत्र को ही छिन्न भिन्न कर देती हैं।
42– ज्योवानी सार्टोरी के अनुसार ध्रुवीकृत बहुलवाद को चार लक्षणों के आधार पर अन्य बहुदलीय प्रणालियों से अलग किया जा सकता है, 1- इनमें आम तौर पर पांच से अधिक विचारणीय दल पाये जाते हैं। 2- विचारणीय दलों के बीच बहुत ज्यादा विचारधारात्मक दूरी पायी जाती है। 3- यह प्रणाली बहुध्रुवीय होती है। 4- इसमें उग्र बहुलवाद के कारण अपकेन्द्रीय प्रवृत्ति पायी जाती है। इसके साथ ही इसमें विपक्ष की रचनात्मक भूमिका की विशेष गुंजाइश नहीं होती।
43– सोवियत रूस में 1917 की बोल्शेविक क्रांति के बाद लियों ट्रॉटस्की (1879-1940) ने साम्यवादी आंदोलन में निरंतर क्रांति की अवधारणा प्रस्तुत किया। उनके अनुसार रूस के क्रांतिकारियों को अपने देश में क्रांति हो जाने के बाद संतोष नहीं कर लेना चाहिए बल्कि अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में उसके विस्तार के लिए जुट जाना चाहिए।
44- चीन की साम्यवादी क्रांति के बाद माओ जेदोंग (1893-1976) ने निरंतर क्रांति के सिद्धांत की नई व्याख्या दी।माओ ने तर्क दिया कि आर्थिक क्षेत्र में समाजवाद की स्थापना के बाद भी पूंजीवादी संस्कार जन साधारण के मन में बने रहते हैं और उन्हें मिटाने के लिए क्रांतिकारियों को सांस्कृतिक क्षेत्र में निरंतर क्रियाशील रहना चाहिए, अन्यथा समाजवाद की मज़बूत नहीं हो पाएगी। अपनी चर्चित कृति ‘ ऑन कंट्राडिक्शन्स’ (1937) के अंतर्गत माओ ने तर्क दिया कि साम्यवाद की स्थापना हो जाने के बाद भी अंतर्विरोध का नियम समाप्त नहीं हो जाता।
45– राजनीतिक संस्कृति का सबसे सटीक विवरण गेब्रियल ऑल्मड और सिडनी वर्बा ने अपनी पुस्तक ‘ द सिविक कल्चर : पॉलिटिकल एचीट्यूड्स एंड डेमोक्रेसी इन फाइव नेशन्स’ (1963) के अंतर्गत प्रस्तुत किया। इसमें पांच देशों- ब्रिटेन, जर्मनी, इटली, संयुक्त राज्य अमेरिका और मैक्सिको के अंतर्गत लोकतंत्र की स्थिरता या अस्थिरता पर राजनीतिक संस्कृति के प्रभाव की समीक्षा की गई थी।
46– आल्मंड और वर्बा के अनुसार, राजनीतिक संस्कृति का अर्थ है- राजनीतिक विषयों के प्रति जैसे कि राजनीतिक दलों, न्यायालयों, संविधान और राज्य के इतिहास के प्रति- अभिविन्यासों का प्रतिमान। यह अभिविन्यास तीन प्रकार का होता है- ज्ञानात्मक अभिविन्यास, भावात्मक अभिविन्यास और मूल्यपरक अभिविन्यास।इन अभिविन्यासों के निर्धारण में परम्पराओं, ऐतिहासिक स्मृतियों, प्रेरणाओं, मानकों, भावावेगों और प्रतीकों का विशेष महत्व होता है।
47– आल्मंड और वर्बा ने तीन प्रकार की संस्कृति का वर्णन किया है- संकीर्ण, अधीन और सहभागी संस्कृति। उन्होंने कहा है कि उदार लोकतंत्र में उपरोक्त तीनों प्रकार की मिली जुली राजनीतिक संस्कृति देखने को मिलती है।इसे उन्होंने नागरिक संस्कृति या शालीन संस्कृति की संज्ञा दी है। नागरिक संस्कृति में नागरिक समुदाय के राजनीतिक विचार और मूल्य, राजनीतिक समानता और सहभागिता के सिद्धांतों के अनुकूल होंगे।
48– एस. ई. फाइनर ने वर्ष 1962 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ मैन ऑन द हार्स बैक’ के अंतर्गत तीसरी दुनिया के नवोदित देशों में शासन की अस्थिरता के कारणों को जानने का प्रयास किया। अपने निष्कर्ष में उन्होंने कहा कि शासन प्रणाली की मजबूती वैधता और सहभागिता दो मूल बातों पर निर्भर करती है। जहां यह दोनों तत्व प्रबल होंगे वहां पर राजनीतिक संस्कृति, नागरिक शासन को सम्भालने में अधिक सक्षम होगी।
49– विद्वान लेखक ब्रियान बैरी ने अपनी चर्चित कृति, ‘ सोशियोलॉजिस्ट, इकॉनॉमिस्ट्स एंड डेमोक्रेसी (1978) के अंतर्गत तर्क दिया कि, ‘ लोकतांत्रिक राजनीतिक संस्कृति लोकतंत्रीय संस्थाओं के रहने से आती है, वह इन संस्थाओं के निर्माण का मूल कारण नहीं होती। कभी कभी राजनीतिक संस्थाएं राजनीतिक संस्कृति को भी नए रूप में ढाल लेती हैं।
50- माइकल रियॉन ने अपनी विख्यात पुस्तक ‘ पॉलिटिक्स एंड कल्चर : वर्किंग हाइपोथीसेस फ़ॉर ए पोस्ट रिवोल्यूशनरी सोसायटी’(1989) के अंतर्गत यह तर्क दिया कि, नागरिक संस्कृति पूंजीवाद के उदय के साथ उभरकर सामने आयी थी।परन्तु समकालीन संवृद्ध समाज उत्तर भौतिकवादी मूल्यों को बढ़ावा देते हैं। इस दृष्टिकोण के अनुसार पूंजी संचय सामाजिक उन्नति की जरूरी शर्त नहीं है।
(नोट- उपरोक्त सभी तथ्य, ओम् प्रकाश गाबा की पुस्तक ‘राजनीति विज्ञान विश्वकोष, ISBN 81-214-0683-8, प्रकाशन- नेशनल पब्लिशिंग हाउस 2/35, अंसारी रोड, दरियागंज नई दिल्ली, से साभार लिए गए हैं।)