– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज झांसी (उत्तर-प्रदेश), फोटो गैलरी एवं प्रकाशन प्रभारी- डॉ. संकेत सौरभ, झांसी, (उत्तर- प्रदेश) भारत।email : drrajbahadurmourya @ gmail.com, website : themahamaya.com
1- ब्रिटिश दार्शनिक आइजिया बर्लिन (1909-1997) ने 1979 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ अगेंस्ट द करंट’ में राजनीति और चिंतन की परम्परा में मनुष्य और विश्व के बारे में विशाल, निरंकुश वादी दृष्टि का खंडन करते हुए बहुलवादी दृष्टिकोण का दार्शनिक आधार प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि बहुलवाद मानव प्रकृति का अनिवार्य तत्व है।इसे मान्यता देना मानव सभ्यता और मानव कल्याण से जुड़े मूल्यों एवं संस्थाओं की रक्षा के लिए जरूरी है। बर्लिन के शब्दों में, ‘‘जो जैसा है, वैसा है। स्वतंत्रता, स्वतंत्रता है, वह समानता, न्याय, संस्कृति या मानवीय सुख का पर्याय नहीं हो सकती।’’
2- बहुलवादी समाज, एक ऐसा समाज है जिसमें शक्ति एवं सत्ता एक ही जगह केन्द्रित नहीं होती, बल्कि सामाजिक जीवन के अनेक केन्द्रों में फैली रहती है। बहुलवादी राजनीतिक प्रणाली ऐसी प्रणाली है जिसके अंतर्गत विविध प्रकार की सामाजिक प्रथाओं, धार्मिक और नैतिक मान्यताओं में सह अस्तित्व के लिए अनुकूलन परिस्थितियां जुटाई जाती हैं और सभी नागरिकों को समान राजनीतिक अधिकार प्राप्त होते हैं।
3- प्रसिद्ध लेखक रॉबर्ट डॉल (1915 -) ने वर्ष 1956 में प्रकाशित अपनी विख्यात कृति ‘ए प्रिफेस टू डेमोक्रेटिक थ्योरी’ के अंतर्गत लोकतंत्रीय प्रक्रिया का ऐसा प्रतिरूप विकसित किया है जिसे उसने बहुलतंत्र की संज्ञा दी है। इस संकल्पना के अनुसार, लोकतंत्रीय समाज में नीति निर्माण की प्रक्रिया ऊपर से देखने में चाहे जितनी ही केन्द्रीयकृत क्यों न दिखाई दे, वास्तव में यह अत्यंत विकेंद्रीकृत प्रक्रिया है। यहां पर सार्वजनिक नीति समूहों की परस्पर क्रिया का परिणाम होती है।
4 – अमेरिकी विद्वान चार्ल्स लिंडब्लोम (1917-2018) ने अपनी विख्यात कृति ‘पॉलिटिक्स एंड मार्केट’ (1977) में लिखा कि, बाजार व्यवस्था पर आधारित समाज में व्यवसाय और सम्पत्ति का अलोकतांत्रिक नियंत्रण स्थापित हो जाता है। रॉबर्ट डॉल ने भी वर्ष 1982 में प्रकाशित अपनी पुस्तक, ‘ डॉयलम्माज ऑफ प्लूरलिस्ट डेमोक्रेसी’ के अंतर्गत लिखा, ‘‘बहुलवाद को समतुल्य राजनीतिक शक्तियों की खुली प्रतिस्पर्द्धा मान लेना सही नहीं है।’’
5 – अमेरिकी राजनीति वैज्ञानिक डेविड ईस्टन (1917 -) ने वर्ष 1953 में प्रकाशित अपनी पुस्तक, ‘ पॉलिटिकल सिस्टम : एन इंक्वायरी इंटू द स्टेट ऑफ पॉलिटिकल साइंस’ के अंतर्गत राजनीति के प्रणाली विश्लेषण के प्रारूप को प्रतिपादित किया।उनके अनुसार, राजनीतिक प्रणाली किसी समाज के अंदर उन अंत: क्रियाओं के समुच्चय को कहा जाता है जिसके माध्यम से अनिवार्य या आधिकारिक आवंटन किए जाते हैं। यह आगत, निर्गत एवं पुनर्निवेश के माध्यम से अपना कार्य करती है।
6 – आल्फ्रेड रेडक्लिफ ब्राउन (1881-1955) और बी. जी. मैलीनोस्की (1884-1942) जैसे मानव वैज्ञानिकों से प्रेरित, गेब्रियल ऑल्मड (1911 -2002) ने वर्ष 1960 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ द पॉलिटिक्स ऑफ डेवलपिंग एरियाज’ के अंतर्गत राजनीति विश्लेषण के संरचनात्मक- कृत्यात्मक विश्लेषण की नींव रखी। इसके अंतर्गत राजनीतिक समाजीकरण और भर्ती, हित स्पष्टीकरण, हित समूहीकरण और राजनीतिक संचार, राजनीतिक व्यवस्था के आगत कृत्य होते हैं।इन कार्यों को सम्पन्न करने वाली संरचनाएं क्रमशः परिवार, मित्र मंडली शैक्षिक और धार्मिक संगठन,हित समूह, राजनीतिक दल और जन सम्पर्क के साधन होते हैं।
7 – संरचनात्मक- प्रकार्यात्मक विश्लेषण के अनुसार राजनीतिक प्रणाली के तीन निर्गत कृत्य होते हैं : नियम निर्माण, नियम- अनुप्रयोग और नियम -अधिनिर्णयन। इन्हें शासन की परम्परागत संरचनाएं- क्रमशः, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका सम्पन्न करती हैं।इस प्रतिरूप से किसी देश के राजनीतिक विकास के स्तर को मापा जा सकता है। आल्मंड ने इस विश्लेषण को विकासात्मक उपागम की संज्ञा दी है। राजनीतिक स्थायित्व में सहायक संरचनाओं को कृत्यात्मक और बाधा उपस्थित करने वाली संरचनाओं को अपकृत्यात्मक कहा जाता है।
8- अमेरिकी राजनीति वैज्ञानिक कार्ल ड्यूश (1912-1992) ने राजनीति विश्लेषण के लिए संप्रेषण सिद्धांत की नींव रखी। वर्ष 1963 में प्रकाशित अपनी चर्चित कृति ‘ द नर्व्स ऑफ गवर्मेंट- मॉड्ल्स ऑफ पॉलिटिकल कम्युनिकेशन एंड कन्ट्रोल’ में उन्होंने लिखा, ‘‘ राज्य रूपी काया की अस्थियों और मांसपेशियों की अपेक्षा उनकी तंत्रिकाओं पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। यह तंत्रिकाएं यहां सम्प्रेषण और निर्णय की वाहिकाओं का काम करती हैं।’’
9 – एंथनी डाउंस, जे. एम. बुकैनन और जी. टल्लॉक ने राजनीति प्रणाली, उसकी प्रक्रियाओं और व्यवहार का विश्लेषण करने के लिए निर्णयन सिद्धांत का प्रयोग किया।इस पद्धति की विशेषता है कि, यह राजनीतिक प्रक्रिया को विनिमय की प्रक्रिया के रूप में देखती है। इसके अनुसार राजनीति का सरोकार, संसाधनों के आवंटन और समाज के कल्याण से है। इसके परिणामस्वरूप राजनीतिक अर्थशास्त्र का सूत्रपात हुआ है।
10- राजनीति सिद्धांत की सार्थकता इस बात में है कि वह सार्वजनिक जीवन के लक्ष्य निर्धारित करे और ऐसी संस्थाओं एवं प्रक्रियाओं का पता लगाए जो उन लक्ष्यों की सिद्धि में सहायक हों। राजनीति सिद्धांत के विचार क्षेत्र में विज्ञान और दर्शन का मणि- कांचन सहयोग देखने को मिलता है। अरस्तू ने राजनीति शास्त्र को परम् विद्या या सर्वोच्च विज्ञान की संज्ञा दी थी।
11– राजनीतिक संस्कृति का विचार आधुनिक राजनीति विज्ञान की देन है। यह संकल्पना मुख्यत: राजनीति के अध्ययन और विश्लेषण के लिए प्रस्तुत की गई है, संस्कृति के विश्लेषण के लिए नहीं। यहां राजनीति को संस्कृति के दृष्टिकोण से देखा जाता है, संस्कृति को राजनीति के दृष्टिकोण से नहीं।इसका ध्येय राजनीति के विश्लेषण के लिए संस्कृति के ज्ञान का सहारा लेना है। राजनीतिक संस्कृति की संकल्पना राजनीति और संस्कृति के बीच कार्य- कारण सम्बन्ध मानकर चलती है।
12– गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर (1861-1941) ने अपनी महत्वपूर्ण कृति, ‘ स्वदेशी समाज’ के अंतर्गत लिखा है कि ‘‘ प्राचीन भारत में जीवन के सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों को एक- दूसरे से अलग रखा जाता था। इस देश के जनसाधारण का जीवन समाज की रीति- नीति, परम्पराओं और परिपाटी के अनुसार नियमित होता था। राज्य जन जीवन की धुरी नहीं था।’’
13- डब्ल्यू. एच. मौरिस जोंस (1918-1999) ने वर्ष 1964 में प्रकाशित अपनी पुस्तक, ‘ गवर्नमेंट एंड पॉलिटिक्स ऑफ इंडिया’ में स्वाधीन भारत की आरम्भिक दौर की राजनीतिक संस्कृति का विश्लेषण प्रस्तुत किया है। मौरिस जोंस के शब्दों में, ‘‘ राजनीति की आधुनिक भाषा वह है, जिसका प्रयोग भारतीय संविधान में हुआ है। इस भाषा में नीतियों, हितों, कार्यक्रमों और योजनाओं की चर्चा की जाती है।’’
14– माइरन वीनर (1931-1999) ने अपने चर्चित लेख, इंडिया : टू पॉलिटिकल कल्चर्स’ (1965) के अंतर्गत भारत में दो संस्कृतियों- विशिष्ट वर्गीय राजनीतिक संस्कृति और जनपुंज राजनीतिक संस्कृति का जिक्र किया है। उनके अनुसार विशिष्ट वर्गीय राजनीतिक संस्कृति नई दिल्ली की राजनीतिक संस्कृति है।जनपुंज राजनीतिक संस्कृति स्थानीय स्तर से चलकर राज्य सरकार और प्रशासन तक पहुंचती है।
15– रिचर्ड एल. पार्क (1920-1980) ने वर्ष 1979 में प्रकाशित अपनी विख्यात कृति ‘ इंडियाज पॉलिटिकल सिस्टम’ के अंतर्गत भारत की राजनीतिक संस्कृति के संदर्भ में परम्परा बनाम परिवर्तन के विश्लेषण पर विशेष रूप से ध्यान केंद्रित किया है।उनका मत है कि सांस्कृतिक दृष्टि से भारत अनेक उपसंस्कृतियों का देश है।इन उप संस्कृतियों की पहचान भिन्न-भिन्न भाषाओं, कला- मूल्यों और दार्शनिक अभिव्यक्तियों से होती है।
16– राजनीतिक विकास वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से किसी विकासशील देश राज व्यवस्था विकसित समाज की विशेषताएं अर्जित कर लेती है।जब कि आधुनिकीकरण वह प्रक्रिया है जिसमें कोई समाज परंपरागत मूल्यों और संस्थाओं से आगे बढ़कर आधुनिक युग के अनुरूप जीवन पद्धति अपना लेता है।
17- जेम्स एस. कोलमैन और लुसियन पाई ने वर्ष 1965 में प्रकाशित अपनी पुस्तक, ‘ पॉलिटिकल कल्चर एंड पॉलिटिकल डेवलपमेंट’ के अंतर्गत राजनीतिक विकास के तीन मुख्य लक्षण स्वीकार किया है- समानता, क्षमता और विभेदीकरण।इन तीनों के समुच्चय को विकास संलक्षण की संज्ञा दी गई है।
18– जी. ए. आल्मंड और जी. वी. पॉवेल ने वर्ष 1966 में प्रकाशित अपनी पुस्तक, ‘ कंपेरेटिव पॉलिटिक्स : ए डिवेलपमेंटल एप्रोच’ के अंतर्गत राजनीतिक विकास के तीन लक्षणों की पहचान की है- संरचनात्मक विभेदीकरण, संस्कृति का धर्मनिरपेक्षीकरण और राजनीतिक प्रणाली की कार्य क्षमताओं का विस्तार। संरचनात्मक विभेदीकरण का अर्थ होता है- समाज के भीतर राजनीति की अनौपचारिक संरचनाओं का पृथक- पृथक रूप में विकास।
19- संस्कृति का धर्मनिरपेक्षीकरण या तर्कोन्मुखीकरण राजनीतिक संस्कृति और राजनीतिक विकास के सम्बन्ध को रेखांकित करता है। जिसमें क्रमशः संकीर्ण संस्कृति को अधीन संस्कृति में और अधीन संस्कृति को सहभागी संस्कृति में परिणत कर देता है। जबकि विनियमन क्षमता, दोहन क्षमता, वितरण क्षमता और प्रत्युत्तर क्षमता किसी राजनीतिक प्रणाली की कार्य क्षमताओं के विस्तार को प्रतिबिंबित करता है।
20– सेम्युअल पी. हंटिंग्टन ने सन् 1968 में प्रकाशित अपनी पुस्तक, ‘ पॉलिटिकल आर्डर इन चेंजिंग सोसायटी’ के अंतर्गत तर्क दिया कि, राजनीतिक विकास और आधुनिकीकरण में सीधा सम्बन्ध नहीं है। राजनीतिक विकास का मुख्य लक्षण राजनीतिक व्यवस्था है और इसमें मुख्य बाधा राजनीतिक अव्यवस्था से पैदा होती है।जिसे हंटिंगटन ने राजनीतिक ह्रास की संज्ञा दी है।
21– हंटिग्टन के विचार से राजनीति की मूल समस्या यह है कि किसी देश में जिस गति से सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन होता है, उसकी तुलना में राजनीतिक संस्थाओं का विकास पीछे रह जाता है।उनके अनुसार, ‘‘यदि राजनीतिक सहभागिता और राजनीतिक संस्था निर्माण साथ- साथ चल सकें तो राजनीतिक ह्रास को रोका जा सकता है।’’
22– ब्रिटिश अर्थशास्त्र वेत्ता डेविड रिकार्डो (1772-1823) ने वर्ष 1817 में प्रकाशित अपनी पुस्तक, ‘ द प्रिंसिपल्स ऑफ पॉलिटिकल इकॉनोमी एंड टैक्सेशन’ के अंतर्गत राजनीतिक अर्थव्यवस्था के दो मुख्य सिद्धांत प्रस्तुत किए- 1- अधिशेष का सिद्धांत 2- मूल्य का श्रम सिद्धांत। अधिशेष सिद्धांत की व्याख्या करते हुए रिकार्डो ने कहा कि, भूमि का ऊंचा किराया या अधिशेष उर्वर भूमि की कमी और भू स्वामियों के लोभ का परिणाम है। इससे जनसाधारण पर बोझ पड़ता है और राष्ट्र की सम्पदा की हानि होती है।
23– मूल्य के श्रम सिद्धांत से रिकार्डो का अभिप्राय यह था कि उत्पादन के तत्वों- भूमि, श्रम, पूंजी और संगठन में श्रम ही सारे उत्पादन की कुंजी है और वही मूल्य का यथार्थ स्रोत है। अन्य तत्व अपने आप कोई मूल्य नहीं पैदा कर सकते।केवल श्रम के संयोग से ही वे उत्पादन में सहायक होते हैं। यह बात महत्वपूर्ण है कि आगे चलकर कार्ल मार्क्स ने इस सिद्धांत के आधार पर ही अतिरिक्त मूल्य की संकल्पना प्रस्तुत किया।
24– ब्रिटिश अर्थशास्त्र वेत्ता टॉमस रॉबर्ट माल्थस (1766-1834) ने 1798 में प्रकाशित अपनी विख्यात कृति, ‘ ऐस्से ऑन द प्रिंसिपल ऑफ पॉपुलेशन’ में तर्क दिया कि, जनसंख्या रेखागणितीय अनुपात (2,4,8,16,32) में बढ़ती है जबकि खाद्य आपूर्ति अंकगणितीय अनुपात (2,4,6,8,10) में बढ़ती है। अतः कालान्तर में बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए खाद्य की कमी पड़ जाएगी। इसलिए बढ़ती हुई जनसंख्या को रोकने का प्रयास करना होगा।
25- अंग्रेज दार्शनिक टी.एच. ग्रीन (1836-1882) के अनुसार, मनुष्य की किसी भी कार्रवाई का युक्तियुक्त आधार इच्छा और विवेक है, तृष्णा और लालसा नहीं। स्वतंत्रता के बारे में ग्रीन का अभिमत है ‘‘ मानवीय चेतना स्वतंत्रता को एक बुनियादी सिद्धांत मानती है, स्वतंत्रता के साथ अधिकार जुड़े रहते हैं और अधिकार राज्य की मांग करते हैं।’’ कोई भी कानून मनुष्यों को नैतिक नहीं बना सकता, क्योंकि नैतिकता ऐसी प्रेरणा पर आधारित है जिसकी स्वतंत्रत रूप से इच्छा की गई हो। अतः राज्य का आधार इच्छा है, बल प्रयोग नहीं।
26- वाल्टर बेजहॉट ने लिखा है कि, ‘ जब बड़े बड़े प्रश्न समाप्त हो जाते हैं तब छोटे- छोटे दलों की शुरुआत होती है।’ जॉन एडम्स (1735-1826) ने कहा है कि, ‘‘अधिकांश सरकारें भय की नींव पर खड़ी हैं।’’ डांटे जर्मीनो ने कहा है कि, ‘‘ राजनीति शास्त्र सचमुच राजनीति का आलोचना शास्त्र है।सच्चा राजनीतिक दार्शनिक वह है जो सुकरात की तरह सत्ताधारी के प्रति सच बोलने का बीड़ा उठाता है।’’
27– राजनीति विज्ञान का सरोकार यथार्थ या तथ्यों से है, जबकि राजनीति दर्शन का सरोकार तथ्यों के साथ- साथ आदर्शों, मानकों और मूल्यों से भी है। मुख्य समस्या वहां पैदा होती है जहां पर कोई दार्शनिक तथ्यों और मूल्यों को आपस में मिलाकर व्याख्या और वकालत में अंतर करना भूल जाता है।डांटे जर्मीनो ने कहा है कि, ‘‘ राजनीति विज्ञान की एक भी ऐसी संकल्पना के बारे में सोचना मुश्किल है जिसकी बुनियाद राजनीति दर्शन के किसी न किसी गौरव ग्रन्थ में न मिलती हो।’’
28– संकल्पना ऐसी युक्ति या अमूर्त प्रणाली है जिसकी सहायता से हम किसी सूक्ष्म विषय से जुड़े विचारों को एक- दूसरे के साथ जोड़ सकते हैं या उसके बारे में कोई निश्चित दृष्टिकोण बना सकते हैं प्राकृतिक विज्ञानों और सामाजिक विज्ञानों दोनों के क्षेत्र में संकल्पनाओं का विस्तृत प्रयोग होता है। शेल्डन एस. वॉलिन ने वर्ष 1960 में प्रकाशित अपनी पुस्तक, ‘ पॉलिटिक्स एंड विजन’ ने संकल्पना की अवधारणा को स्पष्ट किया कि।
29- डी. डी. रफील ने वर्ष 1976 में प्रकाशित अपनी विख्यात कृति, ‘ प्रॉब्लम्स ऑफ पॉलिटिकल फिलॉसफी’ में संकल्पनाओं से जुड़े हुए तीन उद्देश्यों का विवरण दिया है।पहला- विश्लेषण अर्थात् उसकी परिभाषा देकर उसके मूलतत्वों को स्पष्ट किया जाए। दूसरा- संश्लेषण अर्थात् परस्पर जुड़ी संकल्पनाओं के तार्किक सम्बन्ध को स्पष्ट किया जाए।तीसरा- परिष्कार अर्थात् अनेक अर्थों में प्रयुक्त होने वाली शब्दावलियों को अधिक सार्थक और सुसंगत बनाया जाए। उन्होंने कहा है कि, ‘‘ संकल्पनाओं के स्पष्टीकरण का कार्य घर की सफाई जैसा है।’’
30– जे. डब्ल्यू. गार्नर ने वर्ष 1928 में प्रकाशित अपनी विख्यात कृति, ‘ पॉलिटिकल साइंस एंड गवर्नमेंट’ में लिखा है कि, ‘ राजनीति विज्ञान का आरम्भ और अंत राज्य से होता है।’ आर. जी. गैटेल ने अपनी विख्यात कृति, ‘ पॉलिटिकल साइंस’ (1949) में लिखा है ‘‘ राजनीति विज्ञान के अंतर्गत राज्य के अतीत, वर्तमान और भविष्य तथा राजनीतिक संगठन और राजनीति के मूल तत्वों का अध्ययन किया जाता है।’’
31- जे. के. ब्लुंशली (1808 -1881) के विचार से, ‘‘ राजनीति विज्ञान ऐसा विज्ञान है, जिसका सरोकार राज्य से है।जो राज्य को इस दृष्टि से जानने समझने का प्रयत्न करता है कि उसके आधार तत्व क्या हैं? उसका मूल स्वरूप क्या है ? उसकी अभिव्यक्ति किन- किन रूपों में होती है ? और उसका विकास कैसे हुआ है ?’’ पॉल जेने (1823 -1999) के शब्दों में, ‘‘ राजनीति विज्ञान सामाजिक विज्ञान का वह अंग है जिसके अंतर्गत राज्य के आधार तत्वों तथा शासन के सिद्धांतों पर विचार किया जाता है।’’
32– जॉन सीली के अनुसार, ‘‘ जिस तरह राजनीतिक अर्थशास्त्र के अंतर्गत सम्पदा पर विचार किया जाता है।बीज गणित में अंको पर तथा ज्यामिति में विस्तार और परिमाण पर, उसी तरह राजनीति विज्ञान में शासन की प्रक्रिया का अनुसंधान किया जाता है।’’ स्टीफेन एल. वास्बी ने भी वर्ष 1972 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ पॉलिटिकल साइंस : द डिसिप्लिन एंड इट्स डायमेंशन्स- एन इंट्रोडक्शन’ में लिखा, ‘‘ राजनीति विज्ञान उस अर्थ में विज्ञान नहीं है जिस अर्थ में भौतिकी एक विज्ञान है, परन्तु राजनीति का अध्ययन व्यवस्थित रूप में और वैज्ञानिक विधि से अवश्य किया जा सकता है।’’
33– वैज्ञानिक पद्धति उन नियमों का समुच्चय है जिनके आधार पर विश्वस्त ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। निरीक्षण, सामान्यीकरण, व्याख्या, भविष्य वाणी और निर्देश वैज्ञानिक पद्धति के विभिन्न चरण हैं। सामान्यीकरण की दो प्रमुख विधियां हैं- आगमन पद्धति और निगमन पद्धति।आगमन पद्धति में ‘ विशेष से सामान्य की ओर’ अग्रसर होते हैं। निगमन पद्धति में ‘ सामान्य से विशेष की ओर’ चलते हैं।
34– राजनीति समाज विज्ञान अथवा राजनीतिक समाजशास्त्र एक ऐसा विषय है जो राजनीति विज्ञान और समाज विज्ञान दोनों की सीमाओं को स्पर्श करता है। इसके अध्ययन के मुख्य विषय- राजनीति में विचारधाराओं के अंतर के सामाजिक कारण, मतदान व्यवहार का सामाजिक आधार, वैधता का आधार, राजनीतिक संस्कृति और राजनीतिक विकास, लोकतंत्र को कायम रखने के उपाय, क्रांति, गृह युद्ध और सैनिक हस्तक्षेप के सामाजिक कारण हैं।
35– फ्रांसीसी दार्शनिक चार्ली द मांतेस्क्यू, स्काटिश दार्शनिक एडम फर्गुसन और फ्रांसीसी दार्शनिक अलेक्सी द ताकवील के शोध राजनीति समाजशास्त्र के क्षेत्र में आते हैं। बीसवीं शताब्दी के आरंभ में मैक्स वेबर, विल्फ्रेड पैरेटो और गितानो मोस्का ने शक्ति के सामाजिक आधार का विश्लेषण प्रस्तुत किया। वर्ष 1908 में ग्रैहम वैलेस की पुस्तक ‘ ह्यूमन नेचर इन पॉलिटिक्स’ तथा आर्थर बेंटली की पुस्तक ‘ द प्रासेस ऑफ गवर्नमेंट’ में राजनीति के सामाजिक आधार का पता लगाने की कोशिश की गई थी।
36– अमेरिकी राजनीति वैज्ञानिक चार्ल्स मरियम (1874 -1953) ने वर्ष 1925 में प्रकाशित अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक, ‘ न्यू ऑस्पैक्ट्स ऑफ पॉलिटिक्स’ के अंतर्गत और फिर हेरल्ड लॉसवेल (1902 -1978) ने अपनी चर्चित कृति, ‘ ह्वू गैट्स ह्वाट, ह्वैन, हाऊ ?(1936) के अंतर्गत समाजशास्त्र के दृष्टिकोण से राजनीतिक शक्ति के विश्लेषण का प्रयत्न किया।
37– आर. जी. गैटेल ने वर्ष 1949 में प्रकाशित अपनी पुस्तक, ‘ हिस्ट्री ऑफ पॉलिटिकल थॉट’ के अंतर्गत लिखा है कि, ‘‘ राजनीति सिद्धांत पर यह आरोप लगाया जाता है कि व्यावहारिक परिणामों की दृष्टि से यह न केवल बंजर भूमि की तरह निष्फल सिद्ध होता है बल्कि यह यथार्थ राजनीति के लिए विनाशकारी भी है।’’ डनिंग ने भी लिखा है कि, ‘‘ जब कोई राजनीतिक प्रणाली राजनीतिक दर्शन के रूप में ढल जाती है तो यह स्थिति आम तौर पर उस प्रणाली के लिए मृत्यु का संदेश देती है।’’
38– डेविड हैल्ड ने वर्ष 1991 में प्रकाशित अपनी पुस्तक, ‘ पॉलिटिकल थ्योरी टुडे’ की भूमिका में लिखा है कि, ‘‘ इसमें संदेह नहीं है कि कुल मिलाकर राजनीति सिद्धांत के अध्ययन से जुड़े कार्य अत्यंत श्रम साध्य हैं। परन्तु यदि इनकी ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाएगा तो हमेशा यह ख़तरा बना रहेगा कि राजनीति अक्ल के अंधे, स्वार्थी या सत्ता लोलुप लोगों के हाथ में पड़ जाएगी।’’
39– राजनीति सिद्धांत के ह्रास के बारे में आल्फ्रेड कॉबन ने 1953 में ‘ पॉलिटिकल साइंस क्वार्टरली’ में प्रकाशित अपने लेख में कहा, ‘‘ समकालीन समाज में न तो पूंजीवादी प्रणालियों में राजनीति सिद्धांत की कोई प्रासांगिकता रह गई है, न साम्यवादी प्रणालियों में।’’ कॉबन ने तर्क दिया कि हीगल और मार्क्स की दिलचस्पी तो सृष्टि के एक छोटे से हिस्से में थी, विविध समूहों या विशाल जन समुदाय से नहीं।
40– लियो स्ट्रास ने 1962 में राजनीति दर्शन के महत्व को रेखांकित करते हुए लिखा कि, ‘‘ राजनीति का नया विज्ञान ही उसके ह्रास का यथार्थ लक्षण है। और राजनीति का अनुभव मूलक सिद्धांत समस्त मूल्यों की समानता की शिक्षा देता है।’’ डांटे जर्मीनो ने 1967 में प्रकाशित अपनी पुस्तक, ‘ बियोंड आइडियोलॉजी- द रिवाइवल ऑफ पॉलिटिकल थ्योरी’ में ‘प्रत्यक्षवाद के उदय’ और ‘राजनीतिक विचारधाराओं के प्राधान्य’ को राजनीति सिद्धांत के पतन का कारण माना है।
41- हर्बर्ट मार्क्यूजे ने अपनी पुस्तक, ‘ वन डॉयमेंशनल मैन (1964) के अंतर्गत लिखा कि, ‘ जब सामाजिक विज्ञान की भाषा को प्राकृतिक विज्ञान की भाषा के अनुरूप ढालने का प्रयास किया जाता है तब वह यथास्थिति का समर्थक बन जाता है।’ वैज्ञानिक भाषा में आलोचनात्मक दृष्टि की कोई गुंजाइश नहीं होती है।ऐसी अध्ययन प्रणाली अपना लेने पर सामाजिक विज्ञान, सामाजिक विज्ञान शोध का साधन नहीं रह जाता बल्कि सामाजिक नियंत्रण का साधन बन जाता है।
42– डांटे जर्मीनो के शब्दों में, ‘‘ राजनीतिक दर्शन के जो विवेचनात्मक ग्रन्थ अपनी गहराई, अनोखी सूझ बूझ, प्रतिभाशाली संकल्पनाओं, चिर नवीन दृष्टि और उच्च स्तर के चिंतन के लिए विख्यात हैं, उन्हें साधारणतया गौरव ग्रन्थ की संज्ञा दी जाती है।’’ ‘‘ राजनीति विज्ञान की एक भी ऐसी संकल्पना के बारे में सोचना मुश्किल है जिसकी बुनियाद राजनीति दर्शन के किसी न किसी गौरव ग्रन्थ में न मिलती हो।’’ उनके कथन को हम धर्म ग्रन्थों की तरह सर्वथा प्रमाणिक और अकाट्य तो नहीं मानते, परन्तु युग- युगान्तर के अनुभव के संदर्भ में उनका मूल्यांकन करते हैं।
43– जे. डी. बी. मिलर ने वर्ष 1962 में प्रकाशित अपनी पुस्तक, ‘ द नेचर ऑफ पॉलिटिक्स’ में लिखा कि, ‘‘ राजनीतिक गतिविधि मतभेद की स्थिति से पैदा होती है और इसका सरोकार इस समस्या से है कि संघर्ष के समाधान के लिए सरकार का प्रयोग कैसे किया जाए।चाहे वह कोई परिवर्तन लाने के लिए किया जाए अथवा परिवर्तन को रोकने के लिए। यदि राजनीति को एक सुनिश्चित गतिविधि के रूप में पहचाना हो तो मतभेद और समाधान के बीच सरकार भी उपस्थित हो।’’
44– स्टीफेन एल. वास्बी ने कहा है कि, ‘‘ जहां राजनीति है, वहां पर कोई न कोई विवाद रहता है। जहां कोई न कोई समस्याएं होती हैं, वहां राजनीति अस्तित्व में आ जाती है। जहां कोई विवाद नहीं होता, जहां किन्हीं समस्याओं पर वाद- विवाद नहीं चल रहा होता, वहां राजनीति भी नहीं होती।’’ एलेन बाल ने भी वर्ष 1988 में प्रकाशित अपनी पुस्तक, मॉडर्न पॉलिटिक्स एंड गवर्नमेंट’ में लिखा है कि, ‘‘ राजनीतिक क्रिया में मतभेद और उन मतभेदों का समाधान निहित रहता है। राजनीतिक स्थिति का सार तत्व संघर्ष और उस संघर्ष का समाधान है।’’
45– केवल ऐसे संघर्ष, मतभेद या विवाद को ही राजनीति का उपयुक्त विषय मान सकते हैं, जो सार्वजनिक स्तर पर पैदा हों। युद्ध राजनीतिक समाधान की विफलता का प्रतीक है। राजनीतिक समाधान में बातचीत, पंच निर्णय, सुलह समझौते, दबाव और मत का अधिकार विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।प्रिंस बिस्मार्क के शब्दों में, ‘‘ राजनीति संभाव्य की कला है... सर्वोत्तम के निकटवर्ती समाधान पर मान जाने की कला।’’
46- जार्ज आर्वैल ने कहा है कि, ‘‘ राजनीति की भाषा इस ढंग से गढ़ी जाती है जिससे झूठ भी सच लगने लगे और हत्या भी एक महान कार्य प्रतीत हो।’’ एलेक्जेंडर बर्कमैन ने कहा है कि, ‘‘ अदम्य सत्ता अव्यवस्था को जन्म देती है। स्वतंत्रता व्यवस्था की जननी है।’’
47– प्रत्यक्षवाद के मुख्य प्रवर्तक ऑगस्ट कॉम्टे (1798 -1857) ने अपनी पुस्तक ‘ पॉजिटिव फिलॉस्फी’ में लिखा है कि, ‘‘ मानवीय ज्ञान की प्रत्येक शाखा को अपनी प्रौढ़ावस्था तक पहुंचने से पहले तीन सैद्धांतिक अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है- धर्ममीमांसीय अवस्था, तत्वमीमांसीय अवस्था और वैज्ञानिक- प्रत्यक्षवादी अवस्था।धर्म मीमांसीय अवस्था ज्ञान की प्रारम्भिक अवस्था है जबकि तत्वमीमांसीय अवस्था ज्ञान की मध्य वर्ती अवस्था है। वैज्ञानिक अवस्था से कार्य- कारण सम्बन्धों का ज्ञान प्राप्त किया जाता है।
48 – ऑगस्ट कॉम्टे ने विज्ञानों के विकास का एक श्रेणीतंत्र निर्धारित किया है।जिसका क्रम है- गणित, ज्योतिर्विज्ञान, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, शरीर क्रिया विज्ञान और समाज विज्ञान। काम्टे के अनुसार जैसे- जैसे इस श्रेणी तंत्र में हम आगे बढ़ते हैं वैसे वैसे विषय की विषयवस्तु अधिक कठिन होती जाती है। उसने तथ्यों और मूल्यों के विचार क्षेत्रों के बीच कोई दीवार नहीं खड़ी की है।काम्टे ने विश्वास व्यक्त किया है कि, प्रत्यक्षवाद पर आधारित समाज विज्ञान हमें सामाजिक संगठन के लिए उपयुक्त मूल्यों की सूझबूझ प्रदान करेगा और सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए मार्गदर्शन भी देगा।
49– मैक्स वेबर ने अपने प्रसिद्ध निबंध, ‘ साइंस इज ए वोकेशन’ (1911) में लिखा है कि, ‘‘ विज्ञान हमें इस प्रश्न का उत्तर नहीं देता कि हमें क्या करना चाहिए और किस प्रकार का जीवन जीना चाहिए। शैक्षिक ज्ञान हमें सृष्टि के अभिप्राय की व्याख्या करने में कोई सहायता नहीं देता। इसके बारे में परस्पर विरोधी व्याख्याओं में सामंजस्य स्थापित नहीं किया जा सकता।’’
50 – टी. डी. वैल्डन ने वर्ष 1953 ने प्रकाशित अपनी चर्चित कृति, ‘ वोकेबुलरी ऑफ पॉलिटिक्स’ के अंतर्गत मैक्स वेबर की इस मान्यता को दोहराया कि कोई भी राजनीति दर्शन लोगों की अपनी- अपनी अभिरुचि का विषय है।कोई भी व्यक्ति अपनी अभिरुचि बता तो सकता है परन्तु उस पर तर्क वितर्क करने से कोई फायदा नहीं है।’’
( नोट- उपरोक्त सभी तथ्य, ओम् प्रकाश गाबा, की पुस्तक ‘राजनीति विज्ञान विश्वकोष, ISBN 81-214-0683-8, प्रकाशन- नेशनल पब्लिशिंग हाउस, २/३५, अंसारी रोड दरियागंज, नई दिल्ली से साभार लिए गए हैं।)
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सर, आप बहुत ही सुंदर लेख लिखते हैं। एक साथ इतनी महत्वपूर्ण जानकारियां किसी और वेबसाइट पर नही मिलीं।
Thank you