महाराज हर्षवर्धन से भेंट कर ह्वेनसांग “ओयूटो” राज्य में आया। सम्भवतः यह आजकल का उन्नाव रहा होगा। उस समय यहां सम्पूर्ण देश में कोई 100 संघाराम और 3000 साधु थे। इसमें हीनयान और महायान दोनों सम्प्रदायों के भिक्षु थे। उसने लिखा है कि राजधानी में एक प्राचीन संघाराम है। यह वह स्थान है जहां पर वसुबन्धु ने कई वर्ष के कठिन परिश्रम से अनेक शास्त्रों की रचना किया था।
नगर के उत्तर 40 ली दूर गंगा नदी के किनारे पर एक बड़ा संघाराम है जिसके भीतर अशोक राजा का बनवाया हुआ एक स्तूप 200 फ़ीट ऊंचा है। यहां बुद्ध के पद चिन्ह भी हैं। संघाराम से पश्चिम 4,5 ली की दूरी पर एक स्तूप है जिसमें तथागत भगवान् के नख और बाल रखे हुए हैं। नगर के दक्षिण-पश्चिम 4,5 ली की दूरी पर एक बड़ी आम्र वाटिका में एक पुराना संघाराम है। यह वह स्थान है जहां असंग बोधिसत्व ने विद्या अध्ययन किया था।(पेज नं 163)
आम्र वाटिका से पश्चिमोत्तर दिशा में लगभग 100 क़दम की दूरी पर एक स्तूप है जिसमें तथागत भगवान् के नख और बाल रखे हुए हैं। यहीं असंग बोधिसत्व ने निर्वाण प्राप्त किया था। उनके भग्न स्थान से लगभग 40 ली उत्तर-पश्चिम में एक संघाराम है जिसके उत्तर तरफ़ गंगा नदी बहती है। इसके भीतरी भाग में ईंटों का बना हुआ एक स्तूप लगभग 100 फ़ीट ऊंचा खड़ा है।यही स्थान है जहां वसुबन्धु बोधिसत्व का सर्वप्रथम महायान सम्प्रदाय के सिद्धांतों के अध्ययन करने की अभिलाषा उत्पन्न हुई थी।(पेज नं 165)
ह्वेनसांग वहां से चलकर “ओयमोसी”(हयमुख) राज्य में आया। लार्ड कनिंघम ने इसकी पहचान डौंडियाखेड़ा (उन्नाव) के रूप में किया है। यहां 5 संघाराम हैं, जिसमें लगभग 1,000 संन्यासी हीनयान सम्प्रदाय के सम्मतीय संस्थानुयायी निवास करते हैं। नगर के निकट ही दक्षिण- पूर्व दिशा में गंगा नदी के किनारे एक स्तूप अशोक राजा का बनवाया हुआ है। यह 200 फ़ीट ऊंचा है। इस स्थान पर बुद्ध भगवान ने तीन माह तक धर्मोंपदेश दिया था। एक दूसरा स्तूप भी है जिसमें तथागत भगवान् के नख और बाल रखे हुए हैं। इस स्तूप के निकट ही एक संघाराम बना हुआ है जिसमें 200 शिष्य निवास करते हैं। इसके भीतर बुद्ध भगवान की एक मूर्ति बहुमूल्य धातुओं से सुसज्जित है।(पेज नं 167)
यात्रा के अगले चरण में ह्वेनसांग “पोलोयीकिया”अर्थात् प्रयाग आया। यहां उसे 2 संघाराम मिले जिसमें थोड़े से संन्यासी हीनयान सम्प्रदायी निवास करते थे। राजधानी के दक्षिण-पश्चिम चंपक बाग में एक स्तूप अशोक राजा का बनवाया हुआ है। यद्यपि इसकी नींव भूमि में धंस गई है तो भी यह 100 फ़ीट से अधिक ऊंचा है। इसी के निकट ही बुद्ध देव के नख और बाल सहित एक स्तूप तथा वह स्थान जहां पर गत चारों बुद्ध बैठते और चलते थे, बना हुआ है। इस अंतिम स्तूप के निकट ही एक प्राचीन संघाराम है।(पेज नं 167,168)
यहां से आगे दक्षिण- पश्चिम दिशा में चलकर वह “कियावशंगमी” अर्थात् कौशाम्बी आया। यहां उसे 10 संघाराम मिले जो उजाड़ और सुनसान थे।ह्वेनसांग ने लिखा है कि तो भी यहां 300 संन्यासी हैं। नगर के भीतर बुद्ध देव की मूर्ति जो चन्दन की लकड़ी पर खोदकर बनायी गई है, पत्थर के सुन्दर छत्र के नीचे स्थापित है। यह उदयन नरेश की कीर्ति का द्योतक है। यहां बुद्ध के पद चिन्ह भी हैं। नगर के अंतर्गत दक्षिण- पूर्व के कोने में एक प्राचीन स्थान था। जिसका भग्नावशेष अब तक विद्यमान है। मध्य में बुद्ध देव का एक विहार और एक स्तूप तथागत भगवान् के नख और बालों सहित है। उनके स्नानगृह का खण्ड़हर अभी मौजूद है।(पेज नं 171,172) संघाराम के दक्षिण- पूर्व वाले दो खण्ड़ के बुर्ज के ऊपरी भाग में ईंटों की एक गुफा है जिसमें वसुबंधु बोधिसत्व भी रहता था। इसके निकट ही एक स्तूप अशोक राजा का बनवाया हुआ 202 फ़ीट ऊंचा है। पास में ही एक दूसरा स्तूप बुद्ध देव के नख और बालों सहित है। यहां तथागत भगवान् के पद चिन्ह भी हैं।(पेज नं 173)
कौशाम्बी से चलकर वह “कियाशी पोनो” नामक नगर में आया। इस स्थान की पहचान गोमती नदी के किनारे बसे “सुल्तानपुर” नगर से की गई है। इसका प्राचीन नाम “कुशपुर या कुशभवन” था।ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वृत्तांत में लिखा है कि यहां नगर के पास ही एक प्राचीन संघाराम है जिसकी दीवारों की केवल नींव ही शेष है। इस स्थान के पास एक स्तूप अशोक राजा का बनवाया हुआ है। यद्यपि इसकी दीवारें टूट- फूट गई हैं तो भी यह 200 फ़ीट ऊंचा है। यहां पर बुद्ध देव ने 6 मास तक धर्मोंपदेश दिया था।इसी के निकट बुद्ध देव के पद चिन्ह भी हैं। यहीं एक स्तूप उनके नख और बालों पर बना हुआ है।(पेज नं 175)
वहां से 170 या 180 ली उत्तर दिशा में चलकर वह “पीसोकिया” अथवा “विशाखा”राज्य में आया। जनरल कनिंघम मानते हैं कि यह प्रदेश साकेत या फाहियान का सांची रहा होगा।जो ठीक अयोध्या या अवध के समान है। यहां कोई 20 संघाराम 3,000 संन्यासियों के सहित हैं जो हीनयान सम्प्रदाय की सम्मतीय संस्था का प्रतिपालन करते हैं। नगर के दक्षिण में सड़क के बांई ओर एक बड़ा संघाराम है जिसके निकट एक स्तूप 200 फ़ीट ऊंचा अशोक राजा का बनवाया हुआ है।
प्राचीन काल में बुद्ध देव ने 6 वर्ष तक यहां निवास और धर्मोंपदेश करके अनेक मनुष्यों को अपना अनुयाई बनाया था। स्तूप के निकट ही एक अद्भुत वृक्ष 6, 7 फ़ीट ऊंचा लगा हुआ है। कितने ही वर्ष व्यतीत हो गये, परंतु यह ज्यों का त्यों बना हुआ है।न घटता है और न बढ़ता है। किसी समय में बुद्ध देव ने अपने दांतों को स्वच्छ करके दातून को फेंक दिया था। वह दातून जम गई और उसमें बहुत से पत्ते निकल आए, यही वह वृक्ष है। विरोधियों ने अनेक बार इस वृक्ष को काट डाला, परंतु यह फिर पहले के समान पल्लवित हो गया। इस स्थान के निकट ही बुद्ध देव के पद चिन्ह हैं तथा नख और बालों सहित एक स्तूप भी है।(पेज नं 176)
– डॉ. राजबहादुर मौर्य, फोटो गैलरी-संकेत सौरभ (अध्ययन रत एम.बी.बी.एस.), झांसी