ह्वेनसांग की भारत यात्रा- कपिल वस्तु और कुशीनगर…

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कपिलवस्तु का आगे वर्णन करते हुए ह्वेनसांग ने लिखा है कि नगर के दक्षिण, फाटक के बाहर,सड़क के वाम भाग में, एक स्तूप उस स्थान पर बना हुआ है जहां पर राजकुमार ने शाक्य बालकों से बदाबदी करके कला कौशल में उनको जीत लिया था।

भगवान बुद्ध का जन्म स्थान और महल, कपिलवस्तु

यहां से 30 ली की दूरी पर एक झील है जहां पर एक छोटा सा स्तूप बना हुआ है। पास में ही लुम्बिनी वाटिका है जहां पर एक अशोक का वृक्ष है। इसके पूर्व में एक स्तूप अशोक राजा का बनवाया हुआ उस स्थान पर है जहां पर राजकुमार के शरीर को स्नान कराया गया था। इस स्तूप के पूर्व में स्वच्छ जल के सोते हैं, जिसमें 2 स्तूप बने हुए हैं।(पेज नं 196) इसके दक्षिण में एक स्तूप उस स्थान पर बना हुआ है जहां पर देवराज शक्र ने बोधिसत्व को गोद में उठाया था। इन स्तूपों के निकट ही एक ऊंचा पत्थर का स्तम्भ है जिसके ऊपर घोड़े की मूर्ति बनी हुई है। यह स्तूप अशोक राजा का बनवाया हुआ है।(पेज नं 197) यहां से आगे निकल कर ह्वेनसांग “लनमो” अर्थात् “रामग्राम” में आया। महावंश ग्रंथ में रामगामी के धातु स्तूप का वर्णन आया है। जिसकी चर्चा फाहियान ने भी की है। परंतु इस नगर का ठीक-ठीक पता नहीं चल पाया।

प्राचीन राजधानी के दक्षिण- पूर्व में एक स्तूप ईंटों का बना हुआ है। इसकी ऊंचाई 100 फ़ीट से कम है। इसमें तथागत भगवान् का शरीरावशेष सुरक्षित रखा हुआ है।(पेज नं 198) सम्राट अशोक ने इस स्तूप को नहीं तोड़वाया था। इस स्तूप के पड़ोस में थोड़ी दूर पर एक संघाराम थोड़े से संन्यासियों सहित बना हुआ है। इस स्तूप की पूजा हाथी करते थे।( पेज नं 199) इस संघाराम के पूर्व में लगभग 100 ली की दूरी पर एक जंगल में बड़ा स्तूप है। यह स्तूप अशोक राजा का बनवाया हुआ है। इसी स्थान पर राजकुमार ने नगर परित्याग करने के उपरांत अपने बहुमूल्य वस्त्र और आभूषणों का परित्याग कर सारथी को घर लौट जाने की आज्ञा दी थी।(पेज नं 200)

तपस्चर्या के मार्ग पर चलने से पूर्व जिस स्थान पर राजकुमार ने अपने बाल बनवा दिए थे उस स्थान पर सम्राट अशोक का बनवाया हुआ स्तूप है। मुंडन क्रिया वाले स्तूप के दक्षिण- पूर्व 180 या 190 ली चलकर न्योग्रोध वाटिका है। इस स्थान पर एक स्तूप 30 फ़ीट ऊंचा बना हुआ है। इसे “भस्म” स्तूप कहते हैं।(पेज नं 201) इसके पास ही एक और संघाराम है जहां पर बुद्ध देव के पद चिन्ह हैं। इस संघाराम के दाहिने और बांए कई सौ स्तूप बने हुए हैं जिसमें एक स्तूप सबसे ऊंचा अशोक राजा का बनवाया हुआ है। यद्यपि यह अधिकतर टूट- फूट गया है तो भी इसकी ऊंचाई इस समय लगभग 100 फ़ीट है।(पेज नं 202)

अशोक स्तंभ, लुंबिनी, नेपाल (1956).

कुशीनगर

कपिलवस्तु से आगे निकल कर ह्वेनसांग “किउसी नाकपीलो” अर्थात् “कुशीनगर” आया। इस स्थान की पहचान “कसया” नामक ग्राम के रूप में हुई है। उसने लिखा है कि इस समय यह नगर पूरा ध्वस्त हो चुका है। नगर में निवासी बहुत थोड़े हैं। नगर के द्वार के पूर्वोत्तर वाले कोने में एक स्तूप अशोक राजा का बनवाया हुआ है। यहां पर पहले “चुण्ड” का भवन था। इसके मध्य में एक कुआं है। यहीं पास में गंडक नदी है। सम्भव है कि प्राचीन काल में यही हिरण्यवती नदी रही हो।(पेज नं 202) नगर के उत्तर- पश्चिम में 3,4 ली दूर अर्जित नदी के उस पार अर्थात् पश्चिमी तट पर शाल वाटिका है। यहीं पर बुद्ध देव ने परि निर्वाण प्राप्त किया था।

रामाभार स्तूप, कुशीनगर .

यहां पर ईंटों से बना हुआ एक विहार है। इसके भीतर बुद्ध देव का एक चित्र निर्वाण प्राप्त स्थिति का बना हुआ है। सोते हुए पुरुष के समान उत्तर दिशा में शिर करके बुद्ध भगवान लेटे हुए हैं। विहार के पास एक स्तूप अशोक राजा का बनवाया हुआ है। यद्यपि यह खंडहर हो रहा है तो भी 200 फ़ीट ऊंचा है। इसके आगे एक स्तम्भ खड़ा है जिस पर तथागत भगवान् के निर्वाण का इतिहास है। परंतु इसमें तिथि,मास तथा संवत् नहीं है। विहार के बगल में थोड़ी दूर पर एक स्तूप और है।(पेज नं 203) इस स्तूप का नाम अग्निनाशक स्तूप है।

अग्निनाशक स्तूप से थोड़ी दूर पर एक स्तूप उस स्थान पर बना हुआ है जहां पर बोधिसत्व ने धर्माचरण का अभ्यास किया था।(पेज नं 204) इस स्थान के पश्चिम में थोड़ी दूर पर एक स्तूप उस स्थान पर बना हुआ है जहां पर “सुभद्र” का शरीर पात हुआ था।(पेज नं 205) सुभद्र बुद्ध के अंतिम शिष्य थे। निर्वाण से ठीक पूर्व तथागत भगवान् ने उन्हें त्रिरत्नों का उपदेश दिया था।

परिनिर्वाण स्तूप कुशीनगर

सुभद्र निर्वाण स्तूप के बगल में एक स्तूप उस स्थान पर बना हुआ है जहां पर बज्र पाणि बेहोश होकर गिर पड़ा था। इस स्तूप की बगल में जहां पर मल्ल बेसुध होकर गिर पड़ा था, एक और स्तूप उस स्थान पर बना हुआ है जहां पर बुद्ध देव के निर्वाण के पश्चात् सात दिन तक लोग धार्मिक कृत्य करते रहे।जब तथागत भगवान् परि निर्वाण के निकट थे तब मनुष्य और देवता शोक करने लगे। उस समय बुद्ध देव ने सिर चर्म पर दाहिनी करवट होकर जन समुदाय को उपदेश दिया था, उन्होंने कहा था कि ” हे लोगों! शोक मत करो। यह कदापि न विचारो कि तथागत सदा के लिए संसार से विदा हो रहा है।उसका धर्म- काय सदा सजीव रहेगा। उसमें कुछ फेरफार नहीं हो सकता। अपने आलस्य का परित्याग करो। सांसारिक बंधनों से मुक्त होने के लिए जितना शीघ्र हो सके प्रयत्न करो।”(पेज नं 206,207)

भगवान् के शव को सोने की रथी में रखकर दाह संस्कार के लिए ले जाया गया था। जिस स्थान पर रथी रोकी गई थी, उसके पास एक स्तूप है। यह वह स्थान है जहां पर माया रानी ने बुद्ध के लिए शोक प्रकट किया था। नगर से उत्तर में नदी के पार 300 पग चलकर एक स्तूप मिलता है जहां पर तथागत भगवान् के शरीर का अग्नि संस्कार किया गया था।चिता भूमि की बगल में ही एक स्तूप उस स्थान पर बना हुआ है जहां पर बुद्ध देव ने काश्यप के निमित्त अपने पैरों को खोलकर दिखाया था।(पेज नं 208)

बुद्ध देव निर्वाण के बाद तीन बार रथी में से प्रकट हुए थे। प्रथम बार अपना हाथ निकाल कर आनंद से पूछा था कि क्या सब ठीक हो गया है ? दूसरी बार उन्होंने उठ कर अपनी माता को ज्ञान दिया था।तीसरी बार अपना पैर निकाल कर महाकाश्यप को दिखलाया था। जिस स्थान पर पैर निकाला गया था उसके पास एक और स्तूप अशोक राजा का बनवाया हुआ है। इसी स्थान पर आठ राजाओं ने तथागत भगवान् के शरीरावशेष को विभक्त किया था। सामने की ओर एक स्तम्भ लगा हुआ है जिस पर इस घटना का वृत्तांत अंकित है।(पेज नं 209)


– डॉ.राजबहादुर मौर्य, फोटो गैलरी-संकेत सौरभ (अध्ययन रत एम.बी.बी.एस.), झांसी

 

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Dr. RB Mourya:

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  • ह्वेन सांग एक महान घुम्मकड़ और महान अनुवादक रहे है जिन्होंने लगभग सारे भारत का भौतिक और आध्यत्मिक अवलोकन और भ्रमण किया । उनके द्वारा लिखित विवरण उस काल के जीवन का प्रतिनिधित्व करते है... आपके द्वारा उनकी विभिन्न भागों की समीक्षा आपके बौद्धिक और सांस्कृतिक उन्नयन और कर्तव्यपरायणता का ही घोतक है और इसके लिये आप बधाई के पात्र है।

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