पुनट और राजौरी
कश्मीर की अपनी यात्रा के अगले चरण में ह्वेनसांग आगे चलकर पुन्नूमो (पुनच) राज्य में आया।इसको कश्मीर के लोग पुनट कहते हैं। यहां बौद्ध धर्म का प्रचार है। पांच संघाराम बने हुए हैं जो प्रायः उजाड़ हैं। मुख्य नगर के उत्तर एक संघाराम है जिसमें थोड़े से सन्यासी निवास करते हैं।यहां पर एक स्तूप बना है जो अद्भुत चमत्कारों के लिए प्रसिद्ध है।(पेज नं 116) ह्वेनसांग वहां से चलकर “होलोशीफुलो” अर्थात् राजपुरी आया। इस स्थान की पहचान “राजौरी” नामक स्थान से हुई है। उस समय यहां कोई 10 संघाराम थे जिनमें थोड़े से साधु रहते थे। वहां से चलकर वह “टसिहकिया’ (टक्का) प्रदेश में आया। इसकी पूर्वी सीमा पर बिपाशा अर्थात व्यास नदी बहती है।
यहां बुद्ध धर्म के मानने वाले लोग थोड़े हैं। यहां के एक शासक मिहिर कुल ने 1600 स्तूपों और संघारामों को तुड़वा कर धूल में मिला दिया था। यहीं एक साकल नगर था जहां एक संघाराम में 200 सन्यासी थे जो हीनयान संप्रदाय के अनुयाई थे। संघाराम के पार्श्व में एक स्तूप 200 फीट ऊंचा है। इस स्थान पर पूर्व कालिक बुद्धों ने उपदेश दिया था। संघाराम के पश्चिमोत्तर 4 या पांच ली की दूरी पर एक स्तूप 200 फीट ऊंचा अशोक राजा का बनवाया हुआ है।(पेज नं 121) राजधानी के पूर्वोत्तर लगभग 10 ली चलकर एक 200 फीट ऊंचा पत्थर का स्तूप है, यह भी अशोक राजा का बनवाया हुआ है। यही स्थान है जहां पर तथागत भगवान उत्तर दिशा में धर्म उपदेश करने के लिए आते हुए सड़क के मध्य में ठहरे थे। भारतीय इतिहास में लिखा है कि इस स्तूप में बहुत से बौद्धावशेष रखे हुए हैं।(पेज नं 122)
चीनापट्टी तथा जालंधर
वहां से चलकर ह्वेनसांग “चीनापोटी” अर्थात चीनापट्टी आया। यह प्रदेश रावी नदी से सतलज नदी तक फैला हुआ था।यहां उस समय 10 संघाराम थे। यहां प्राचीन समय में कनिष्क का राज्य था।भारत में कनिष्क और उसके साथी यूएची स्थान के “गुसान” जाति में से थे और चीन की सीमा से आए थे। राजधानी के दक्षिण -पूर्व एक “तामसवन” संघाराम था जिसमें लगभग 200 सन्यासी निवास करते थे। जिनका संबंध सर्वास्तिवाद संस्था से था। इस तामसवन संघाराम में एक स्तूप 200 फीट ऊंचा अशोक राजा का बनवाया हुआ है। इसके निकट चारों बुद्धों के बैठने और चलने फिरने के चिन्ह बने हुए हैं। यहां पर अगणित छोटे-छोटे स्तूप और पत्थर के बड़े-बड़े मकानों की पातियां आमने-सामने दूर तक चली गई हैं।(पेज़ नं 123) कल्प की आदि से लेकर अब तक जितने अर्हत हुए हैं वह सब इसी स्थान पर निर्वाण प्राप्त कर रहे हैं। इन सब का नाम उल्लेख करना कठिन है। उनके हाड तथा हड्डियां अब भी मौजूद हैं। यहां पर इतने अधिक संघाराम हैं कि जिनका विस्तार 20 ली के घेरे में है। बौद्धावशेष स्तूपों की संख्या तो सैकड़ों हजारों तक पहुंचेगी। यह सब इतने निकट -निकट बने हुए हैं कि एक की परछाई दूसरी पर पड़ती है। आगे चलकर यात्री “चेलनटालो” अर्थात जालंधर आया। यहां लगभग 50 संघाराम थे। जिनमें हजारों सन्यासी थे जिनका संबंध हीनयान और महायान दोनों संप्रदायों से था।(पेज नं 124)
कुल्लू और लद्दाख
ह्वेनसांग आगे चलकर “कियोलूटो” अर्थात कुलुट प्रदेश में आया। आजकल यह व्यास नदी का ऊपरी भाग “कुल्लू” जिला है। यहां अनेकों संघाराम थे जिनमें 1000 सन्यासी हैं जो अधिकतर महायान संप्रदायी हैं। पहाड़ों की कगारों और चट्टानों में बहुत सी गुफाएं बनी हैं जिनमें अर्हत और ऋषि लोग निवास करते हैं। देश के मध्य में एक स्तूप अशोक राजा का बनवाया हुआ है। प्राचीन समय में तथागत भगवान अपने शिष्यों समेत लोगों को धर्म उपदेश देने के लिए यहां पधारे थे उसी के स्मारक में यह स्तूप बना है।
वहां से चलकर यात्री “लाउलो” अर्थात् लाहुल प्रदेश से होकर “मोलासो” देश में आया। मोलासो का वर्तमान नाम “लद्दाख” है। वहां से चलकर ह्वेनसांग “शीटोटउलो’ अर्थात् शतद्रु आया। शतद्रु नाम सतलज नदी का है। किसी समय में यह नाम राज्य का भी था जिसकी राजधानी कदाचित सरहिंद थी । यहां लोग बौद्ध धर्म में बड़ी आस्था रखते हैं। राजधानी समेत राज्य भर में दस संघाराम हैं परंतु अधिकतर गिरने वाले हैं। इनमें सन्यासी भी कम हैं। नगर के दक्षिण पूर्व तीन या चार ली की दूरी पर एक स्तूप 200 फीट ऊंचा है जो अशोक राजा का बनाया हुआ है। यहां बुद्ध के पदचिन्ह भी हैं।
मथुरा
आगे चलकर वह “पोलोयटोलो” राज्य में आया। इसकी पहचान विराट या वैराट नगर के रूप में हुई है। सरहिंद से विराट 220 मील दक्षिण दिशा में है। (पेज नं 126) यहां कुल 8 संघाराम हैं जो उजड़े हुए हैं।जिनमें थोड़े से हीनयान संप्रदायी निवास करते हैं। आगे चलकर वह “मोटउलो” अर्थात मथुरा आया। यहां लगभग 20 संघाराम तथा 2000 सन्यासी हैं जो समान रूप से हीनयान और महायान संप्रदाय के आश्रित हैं। तीन स्तूप अशोक राजा के बनवाए हुए हैं । बुद्ध के पदचिन्ह भी यहां हैं ।तथागत भगवान के पुनीत साथियों के शरीरावशेष पर भी स्मारक स्वरूप कई स्तूप बने हैं। जैसे श्री पुत्र, मुद्गल पुत्र, पूर्ण मैत्रीयाणिपुत्र, उपाली, आनंद, राहुल, मंजूश्री तथा अन्य बोधिसत्व इत्यादि। यहीं पास में ही एक ऊंचा संघाराम है जिसको महामान्य उपगुप्त ने बनवाया था।(पेज नं 127-128) इसमें एक स्तूप है जहां तथागत भगवान के कटे हुए नाखून रखे हुए हैं।
इस स्थान से 24 या 25 ली दक्षिण- पूर्व एक सूखी झील के किनारे एक स्तूप है। प्राचीन समय में तथागत भगवान इस स्थान पर इधर-उधर विचर रहे थे कि एक बंदर ने उनको मधु ला कर दिया था ।झील के उत्तर में बुद्ध के पदचिन्ह भी मिलते हैं । निकट ही बहुत से स्तूप श्री पुत्र, मुद्गल पुत्र, इत्यादि 1250 महात्मा अरहतों के स्मारक उन स्थान पर बने हैं जहां पर वह लोग योग, समाधि आदि का अभ्यास करते थे। तथागत भगवान धर्म प्रचार के लिए बहुधा इस प्रदेश में आते रहते थे। जिस-जिस स्थान पर वह ठहरे वहां-वहां पर स्मारक बना दिए गए हैं। (पेज नं 129-130)
थानेश्वर
ह्वेनसांग यात्रा के अगले पड़ाव में “साट” यानी सीफॉलो अथवा थानेश्वर आया। यहां तीन संघाराम थे।जिनमें 700 सन्यासी थे जो हीनयानी थे। नगर से पश्चिमोत्तर दिशा में चार या पांच ली की दूरी पर एक स्तूप 300 फीट ऊंचा अशोक राजा का बनवाया हुआ है। इसकी ईंटें बहुत सुंदर और चमकदार कुछ पीलापन लिए हुए लाल रंग की हैं। इस स्तूप में भगवान बुद्ध का शरीरावशेष रखा हुआ है। नगर के दक्षिण 100 ली की दूरी पर गोकंठ नामक संघाराम है।यहां पर बहुत से स्तूप अनेक खंड वाले बने हैं जिनके मध्य में थोड़ी -थोड़ी जगह टहलने भर के लिए छोड़ दी गई है।(पेज नं 132) वहां से चलकर व्हेनसांग सुलोकिन्ना नामक राज्य में आया। यह स्थान कालसी के आसपास था। यहां 5 संघाराम 1000 सन्यासियों समेत हैं। जिनमें से अधिकतर हीनयान संप्रदाय के अनुयाई हैं।
राजधानी के दक्षिण-पश्चिम और यमुना नदी के पश्चिम में एक संघाराम है जिसके पूर्वी द्वार पर एक स्तूप अशोक राजा का बनवाया हुआ है। तथागत भगवान ने इस स्थान पर लोगों को धर्म उपदेश दिया था। इसके निकट ही एक दूसरा स्तूप है जिसमें तथागत भगवान के बाल और नख रखे हुए हैं। इसके आस-पास दाहिने और बाएं 10 स्तूप और बने हैं जिनमें श्री पुत्र मुद्गलयान तथा अन्य अरहतों के नख और बाल सुरक्षित हैं। उस समय यहां पर अनेक विद्वान बौद्ध भिक्षुओं ने आकर शास्त्रार्थ में ब्राम्हणों को परास्त किया था। जहां -जहां पर शास्त्रार्थ हुआ था वहां -वहां पर संघाराम बनवा दिए गए हैं।इनकी संख्या 5 है।(पेज नं 133)
रुहेलखंड
आगे चलकर उसने गंगा नदी पार किया तथा “माटी पोलो” अर्थात् मतीपुर प्रदेश में आया। इस स्थान की पहचान “मडावर” अथवा मंडोर नामक स्थान से की गई है जो बिजनौर के निकट रुहेलखंड के पश्चिमी भाग में है। यहां 20 संघाराम और 800 सन्यासी थे जिनमें अधिकतर सर्वास्तिवाद संस्था के हीनयान संप्रदाय के अनुयाई हैं। राजधानी से दक्षिण चार या पांच ली पर एक छोटा संघाराम है जिसमें 50 सन्यासी निवास करते हैं। गुणप्रभ संघाराम के उत्तर में तीन या चार ली की दूरी पर एक संघाराम 200 सन्यासियों सहित हीनयान संप्रदाय का है। इसी स्थान में संघ भद्र शास्त्री का देहांत हुआ था। यह व्यक्ति कश्मीर का रहने वाला था और बड़ा विद्वान तथा बुद्धिमान था।(पेज नं 135-136)
संघ भद्र ने कोष कारक नामक पुस्तक बनाई थी जिसमें 25000 श्लोक तथा 80 लाख शब्द हैं। (पेज़ नं 137) संघभद्र के मरने पर लोगों ने उसके शरीर को जलाकर और उसकी अस्थि को संजय कर एक स्तूप बनवा दिया जो संघाराम के पश्चिमोत्तर दिशा में 200 कदम की दूरी पर आम्र कानन में अब भी बना हुआ है। आम्र कानन के पार्श्वभाग में एक और स्तूप है जिसमें विमल मित्र शास्त्री का शरीरावशेष सुरक्षित है। यह विद्वान भी कश्मीर का रहने वाला और सर्वास्तिवाद संस्था का अनुयाई था। इस देश के पश्चिमोत्तर सीमा पर और गंगा नदी के पूर्वी किनारे पर मायापुर नामक नगर है। “मायापुर” को आज-कल हरिद्वार कहते हैं।