कोंकण
सिंहल द्वीप की अपनी यात्रा को सम्पन्न कर ह्वेनसांग पुनः वापस द्रविड देश में आया तथा यहां से उत्तर दिशा में 2 हजार ली चलकर घने जंगलों को पार करता हुआ “कांगकिनपुलो” अर्थात् “कोंकणपुर” आया।
उसने लिखा है कि इस राज्य का क्षेत्रफल लगभग 1 हजार ली और राजधानी का क्षेत्रफल लगभग 30 ली है। प्रकृति गर्म और मनुष्यों का स्वभाव जोशीला और फुर्तीला है लोग विद्या से प्रेम करते हैं और धर्म तथा ज्ञान की प्रतिष्ठा करते हैं। कोई 100 संघाराम और लगभग 10 हजार साधु हीन और महा दोनों यानों का पालन करने वाले हैं। राजभवन के निकट ही एक विशाल संघाराम है जिसमें कोई 200 साधु निवास करते हैं। यह सबके सब बहुत योग्य हैं। इस संघाराम में एक विहार 100 फ़ीट से भी अधिक ऊंचा है। इसके भीतर राजकुमार सर्वाथसिद्धि का एक मुकुट 2 फ़ीट से कुछ ही कम ऊंचा और बहुमूल्य रत्नों से जटित रखा हुआ है। यह मुकुट रत्न जड़ित डिब्बे के भीतर बंद है।व्रतोत्सव के समय यह निकला जाता है और एक ऊंचे सिंहासन पर रख दिया जाता है। लोग सुगंधित पदार्थ और पुष्पों से इसकी पूजा करते हैं।(पेज नं 387)
नगर के पास एक बड़ा भारी संघाराम है जिसमें एक विहार लगभग 50 फ़ीट ऊंचा बना हुआ है। इसके भीतर “मैत्रेय” बोधिसत्व की एक मूर्ति चन्दन की बनी हुई है जो लगभग 10 फ़ीट ऊंची है। यह मूर्ति “श्रुतविंशति” कोटि अर्हत की कारीगरी है। नगर के उत्तर में थोड़ी दूर पर लगभग 30 ली के घेरे में ताल वृक्षों का वन है। इसके लम्बे- चौड़े और चमकीले पत्ते भारत के सब देशों में लिखने के काम आते हैं। जंगल के भीतर एक स्तूप है जहां पर गत चारों बुद्ध आते- जाते और उठते -बैठते रहे हैं। जिसके चिन्ह अब तक विद्यमान हैं। इसके अतिरिक्त एक और स्तूप में श्रुतविंशति कोटि अर्हत का शव भी है। नगर के पूर्व थोड़ी दूर पर एक स्तूप है जिसका निचला भाग भूमि में धंस गया है तो भी यह अभी 30 फ़ीट ऊंचा बचा हुआ है। प्राचीन इतिहास से पता चलता है कि इस स्तूप के भीतर बुद्ध देव का कुछ अवशेष है। प्राचीन काल में तथागत भगवान् ने इस स्थान पर उपदेश करके और अपनी अद्भुत शक्ति को प्रकाशित करके अगणित पुरुषों को शिष्य बनाया था।(पेज नं 387)
नगर के दक्षिण- पश्चिम में थोड़ी दूर पर लगभग 100 फ़ीट ऊंचा एक स्तूप है जो कि अशोक राजा का बनवाया हुआ है। इस स्थान पर श्रुतिविंशत कोटि अर्हत ने बड़ी विलक्षण शक्ति का परिचय देकर बहुत से लोगों को बौद्ध बनाया था। इसके पास ही एक संघाराम है जिसकी इस समय केवल नींव शेष है।
महाराष्ट्र में
यहां से पश्चिमोत्तर दिशा में लगभग 24 सौ ली चलकर ह्वेनसांग “मोहोलचअ” अर्थात् मराठों के देश महाराष्ट्र में आया। यात्री ने लिखा है कि इस राज्य का क्षेत्रफल लगभग 5 हजार ली और राजधानी लगभग 30 ली के घेरे में है। राजधानी के पश्चिम में एक बड़ी भारी नदी बहती है। भूमि उपजाऊ है। प्रकृति गर्म है। मनुष्यों का आचरण सादा और ईमानदार है। इसकी राजधानी के बारे में संदेह है। शायद “देवगिरी” या “दौलताबाद” हो। उस समय यहां का राजा “पुलकेशी” था।(पेज नं 388) जिसके विचार और न्याय की बड़ी प्रसिद्धि थी। पुलकेशी को शिलादित्य राजा परास्त नहीं कर पाया था। देश भर में कोई 100 संघाराम और लगभग 5 हजार साधु निवास करते हैं। यह हीन और महा दोनों यानों का पालन करते हैं। राजधानी के भीतर और बाहर 5 स्तूप उन स्थानों पर हैं जहां गत चारों बुद्ध आकर उठते- बैठते थे। यह सब स्तूप अशोक राजा के बनवाए हुए हैं। इनके अतिरिक्त ईंट और पत्थर के और भी कितने स्तूप हैं। सबकी गिनती करना कठिन है। नगर के दक्षिण में थोड़ी दूर पर एक संघाराम बना हुआ है जिसमें अवलोकितेश्वर (पेज नं 389) बोधिसत्व की एक प्रतिमा पत्थर की है।
देश की पूर्वी सीमा पर एक बड़ा पहाड़ है जिसकी चोटियां ऊंची हैं और जिसमें दूर तक चट्टानें फैली चली गई हैं। इस पहाड़ में एक अंधेरी घाटी के भीतर एक संघाराम है। इसके ऊंचे-ऊंचे कमरे और बगली रास्ते चट्टानों में से होकर गये हैं। यह संघाराम आचार अरहत का बनवाया हुआ है। बड़ा विहार लगभग 100 फ़ीट ऊंचा है जिसके मध्य में बुद्ध देव की मूर्ति लगभग 70 फ़ीट ऊंची पत्थर की स्थापित है। इसके ऊपर एक छत्र 7 खण्ड का बना हुआ है जो बिना किसी आश्रय के ऊपर उठा हुआ है। प्रत्येक छत्र के मध्य में तीन फीट का अंतर है।(पेज नं 390,391)
विहार के चारों ओर की दीवारों पर अनेक प्रकार के चित्र बने हुए हैं जो बुद्ध देव की उस अवस्था के सूचक हैं जब वह बोधिसत्व धर्म का अभ्यास किया करते थे। भाग्यशाली होने के शुभ शकुन जो उनकी बुद्धावस्था प्राप्त करने के समय हुए थे और उनके अनेक आध्यात्मिक चमत्कार जो निर्वाण के समय तक प्रकट हुए थे वे भी दिखलाए गए हैं। यह सब चित्र बहुत ठीक और बड़े ही सुन्दर बने हुए हैं। संघाराम के फाटक के बाहर उत्तर और दक्षिण अथवा दाहिने और बांए दोनों तरफ दो हाथी, पत्थर के बने हुए हैं। प्राचीन काल में “जिन” बोधिसत्व बहुधा इस संघाराम में आकर निवास किया करते थे।(पेज नं 391) इसकी पहचान “अजंता” के रूप में हुई है।
अजंता की गुफ़ाएं महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में एक घने जंगल से घिरी,अश्वनाल आकार की घाटी में अजन्ता गांव से 3.5 किलोमीटर दूर स्थित हैं। यह द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व की हैं। भुसावल से इसकी दूरी 70 किलोमीटर, जलगांव से 60 किलोमीटर तथा औरंगाबाद से 106 किलोमीटर है। मुंबई से इसकी दूरी 350 किलोमीटर है। यहां से एलोरा की गुफ़ाएं 100 किलो मीटर दूर स्थित हैं।इन गुफाओं को 29 चट्टानों को काटकर बनाया गया है। यह बौद्ध धर्म से संबंधित हैं। वर्ष 1983 से “यूनेस्को” ने इसे “विश्व विरासत स्थल” घोषित कर दिया है। यहां की गुफा नंबर 10 में एक लेख है जिसके शब्द संस्कृत भाषा के हैं परंतु लिपि ब्राम्ही है। अजंता की गुफाओं में कई विहार तथा चैत्यगृह हैं। यहां का सबसे बड़ा विहार 52 फ़ीट का है। इसके केन्द्रीय कक्ष में बुद्ध देव की मूर्ति धम्म-चक्र प्रवर्तन मुद्रा में होती थी। अजंता की घाटी की तलहटी में पहाड़ी धारा “वाघूर” बहती है।
भिक्षु “दिग्गनाथ” यहीं पर रहते थे। यदि आप दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर सातवीं शताब्दी तक के भारत की सभ्यता, संस्कृति,रहन – सहन, पहनावा, विदेशी सम्बंध, कला- कौशल इत्यादि को प्रामाणिक रूप में देखना चाहते हैं और आर्थिक रूप से सक्षम हैं तो एक बार बच्चों को इस गौरवशाली अतीत, इतिहास तथा विरासत को अवश्य दिखाइए। पीढ़ियां याद करेंगी।
“इतिहास तुम्हारा कागज़ के पन्नों पर नहीं,
पत्थर की शिलाओं, नदियों और चट्टानों में दर्ज है।
पुरखों की स्मृतियां दफ़न हैं इन भग्नावशेषों में,
पढ़ो,समझो और जानों, इस बेजुबान भाषा को,
खुलेंगे रहस्य तुम्हारी विरासत और उत्तराधिकार के”
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आपके द्वारा सतत ज्ञान वर्धन करने के लिए सादर साधुवाद। एक बार सपरिवार जरूर जाऊंगा।
जरूर देखें। बुद्ध देव की आप पर करुणा होगी।
सार्थक विश्लेषण... श्रम साध्य बौद्धिक कार्य के लिये आपका आभार।
आपका भी धन्यवाद डॉ साहब
ऐतिहासिक विश्लेषण का यह नवोन्मेषी तरीका अत्यन्त रुचिकर, ज्ञानवर्धक व लाभप्रद है।
सतत् ज्ञानवर्धन के लिये धन्यवाद सर!
धन्यवाद आपको