उद्यान प्रदेश
ह्वेनसांग अपनी यात्रा में आगे चलकर “उचंड्गना” अर्थात् “उद्यान” प्रदेश में आया।उस समय यह देश पेशावर के उत्तर में स्वात नदी पर था।उस समय यहां लगभग 1400 प्राचीन संघाराम थे, परंतु सब जन सून्य तथा उजाड़।”प्राचीन तक्षशिला”प्राचीन काल में इसमें 18,000 साधु निवास करते थे जो धीरे-धीरे घट गए ।यहां तक कि अब बहुत थोड़े हैं। यह सब महायान संप्रदाय के अनुयाई हैं। यहां का राजा मुंगाली में निवास करता है। मुंगाली के पूर्व चार या पांच ली चलने पर एक स्तूप है यही वह स्थान है जहां पर महात्मा बुद्ध जीवित अवस्था में शांति के अभ्यासी ऋषि थे।
(पेज नं 85) यहीं अपलाल नाग के सोते के दक्षिण -पश्चिम लगभग 30 ली की दूरी पर नदी के उत्तरी किनारे पर एक चट्टान पर बुद्ध का चरण चिन्ह अंकित है। यहीं पास में एक शिला है जहां तथागत भगवान ने अपना वस्त्र धोया था(पेज नं 86)। मुंगाली नगर के दक्षिण पहाड़ के किनारे-किनारे लगभग 200 ली जाने पर महावन संघाराम है। इसके पश्चिम उत्तर में 30 या 40 ली चलने पर “मोसू” संघाराम है। यहां पर एक स्तूप लगभग 100 फिट ऊंचा है। इसके निकट ही एक बड़ा सा चौकोना पत्थर है जिस पर भगवान बुद्ध का चरण चिन्ह बना हुआ है। मोसू संघाराम के पश्चिम 60- 70 ली पर एक स्तूप अशोक राजा का बनवाया हुआ है। (पेज नं 87) यहां से पश्चिम -उत्तर 200 ली की दूरी पर घाटी नामक संघाराम है। यहां एक स्तूप लगभग 80 फीट ऊंचा है। इस स्तूप के बगल में पास ही एक बड़ा स्तूप “सुम” नामक है।
घाटी के उत्तर में एक ढालू चट्टान के निकट एक स्तूप है। (पेज नं 88) इस नगर के 60 या 70 ली पर एक बड़ी नदी है उस के पूर्व में एक स्तूप 60 फीट ऊंचा है। यह उत्तरसेन का बनाया हुआ है।इसी नगर के पश्चिम 50 ली की दूरी पर एक नदी को पार कर “रोहतक” स्तूप आता है यह 50 फिट ऊंचा है और अशोक राजा का बनाया हुआ है। मूंगाली नगर की पूर्व -उत्तरी सीमा पर एक स्तूप लगभग 40 फ़ीट ऊंचा है। बुद्ध ने यहां से धर्म उपदेश किया था।(पेज नं 89) स्तूप के पश्चिम में एक नदी पार कर 30 या 40 ली जाने पर एक विहार है जिसमें अवलोकितेश्वर बोधिसत्व की मूर्ति है । यहां से 1,000 ली आगे चलने पर नदी की खोह में एक बड़े संघाराम के निकट मैत्रेय बोधिसत्व की एक मूर्ति लकड़ी की बनी हुई है। इसका रंग सुनहरा और बहुत ही चमकदार है। इस मूर्ति की ऊंचाई लगभग 100 फिट है इसको मध्यांतिक नाम के अरहत ने बनवाया था। इसने 10 हजार भिक्षुओं के साथ कश्मीर में धर्म का प्रचार किया था।( पेज नं 94)
वल्टिस्तान एवं तक्षशिला
ह्वेनसांग वहां से चलकर पोलुलो (वोलर) प्रदेश पहुंचा। इसकी पहचान आजकल के वल्टी,वल्टिस्तान अथवा छोटे तिब्बत के रूप में की जाती है। उस समय यहां लगभग 100 संघाराम थे जिसमें एक हजार साधु रहते थे।(पेज नं 95) यहां सिंधु नदी को पार कर वह टचाशिलो ( तक्षशिला) आया। आज-कल यह स्थान पाकिस्तान के रावलपिंडी जनपद में आता है। खुदाई में यहां लगभग 51 स्तूपों के भगनावशेष पाए गए हैं जिनमें दो बड़े स्तूप हैं। लगभग 28 पक्के मकानों का भी पता चला है। यात्री लिखता है कि यद्यपि संघाराम बहुत हैं परंतु सब के सब उजड़े और टूटे -फूटे हैं। साधुओं की संख्या नाम मात्र की है। सभी महायान संप्रदाय के हैं।(पेज नं 96) राजधानी के पश्चिमोत्तर चलने पर दो पहाड़ों के मध्य एक स्तूप अशोक राजा का बनाया हुआ है। स्तूप के बगल में एक संघाराम उजाड़ दशा में हैं। नगर के उत्तर में 12 या 13 ली की दूरी पर एक स्तूप अशोक राजा का बनाया हुआ है। इस स्तूप के निकट एक संघाराम है जिसके चारों ओर की इमारत गिर गई है। घास-फूस से आच्छादित है। भीतरी भाग में थोड़े से साधु निवास करते हैं। नगर के बाहर दक्षिण- पूर्व दिशा में पहाड़ के नीचे एक स्तूप लगभग 100 फिट ऊंचा है। यह अशोक राजा का बनाया हुआ है। इसी स्थान पर राजकुमार कुणाल कीआंखें निकाली गई थीं। उस समय कुणाल तक्षशिला का राजा था।(पेज़ नं 97,98) कुणाल की स्त्री का नाम कंचन माला, माता का नाम पद्मावती और सौतेली मां का नाम तिष्य रक्षिता था।
सिंहपुर
तक्षशिला से आगे चलकर ह्वेन सांग हो सांगहोपुलो अर्थात् सिंहपुर आया। यह पहाड़ की तराई में बसा हुआ है। राजधानी के दक्षिण में थोड़े फासले पर एक स्तूप अशोक राजा का बनाया हुआ है। इसके निकट एक उजाड़ संघाराम है जिसमें एक भी सन्यासी नहीं है।नगर के दक्षिण पूर्व 40 या 50 ली की दूरी पर एक पत्थर का स्तूप अशोक राजा का बनाया हुआ 200 फीट ऊंचा है। इसके पास में एक संघाराम है जो बहुत दिनों से सून्य पड़ा है।(पेज नं 102) इस स्थान से पीछे लौटकर तक्षशिला की उत्तरी हद पर ह्वेनसांग ने सिंधु नदी को पार किया। आगे दक्षिण चलकर उसे एक स्तूप मिला। यही उत्तर में एक पत्थर का स्तूप अशोक राजा का बनवाया हुआ है जो 200 फीट ऊंचा है। यह अनेक प्रकार की मूर्तियों से सुसज्जित है। यहां लगभग 100 छोटे-छोटे स्तूप और भी हैं जिनके पत्थरों के आलों में चल मूर्तियां स्थापित हैं। स्तूप के पूर्व में एक संघाराम है जिसमें कोई 100 सन्यासी महायान संप्रदाय के निवास करते हैं। यहां से 50 ली पूर्व दिशा में जाकर वह एक पहाड़ के निकट आया जहां उसे एक संहाराम में 200 साधु मिले। यह सभी महायानी थे। इस संघाराम के बगल में एक स्तूप 300 फ़ीट ऊंचा है। तथागत ने इस स्थान पर प्राचीन समय में निवास किया था।( पेज नं 103,104)
उरश एवं कश्मीर
वहां से चलकर ह्वेनसांग उलसी अर्थात उरश राज्य में आया।इस स्थान का जिक्र महाभारत उरगा नाम से आया है। यहां राजधानी के दक्षिण-पश्चिम चार या पांच ली की दूरी पर एक स्तूप 200 फ़ीट ऊंचा है जो अशोक राजा का बनाया हुआ है। इसकी बगल में एक संघाराम है जिसमें महायानी संप्रदायी थोड़े से साधु निवास करते हैं।(पेज नं 104) अगले पड़ाव में यात्री कीयाशीमीलो अर्थात् कश्मीर आया । यहां लगभग 100 संघाराम और 5000 सन्यासी उसे मिले। चार स्तूप अशोक राजा के बनाए हुए हैं। प्रत्येक स्तूप में तथागत भगवान का शरीरावशेष विद्यमान है। यहीं मध्यांतिक नामक अर्हत ने 500 संघाराम स्थापित किया था जिसकी पूर्व भविष्य वाणी बुद्ध ने की थी।(पेज नं 106) ह्वेनसांग अशोक को बुद्ध देव से 200 वर्ष पीछे लिखता है, परंतु स्वयं अशोक के लेख से पता चलता है कि उससे 221 साल पहले बुद्ध देव थे। सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म से प्रभावित होकर यहां 500 संघाराम बनवाकर सारा प्रदेश साधुओं को दान कर दिया था। तथागत भगवान के निर्वाण के 400 साल बाद गंधार नरेश महाराजा कनिष्क इस राज्य का स्वामी हुआ।(पेज नं 107) यहां से पूर्व- दक्षिण 10 ली की दूरी पर एक और प्राचीन नगर, जिसकी पहचान श्रीनगर के रूप में हुई है, एक संघाराम है जिसमें 300 सन्यासी निवास करते हैं। यहां एक स्तूप है। इसके भीतर बुद्ध का एक दांत डेढ़ इंच लंबा रखा हुआ है।
(पेज नं 112) संघाराम के दक्षिण की ओर 14 या 15 ली की दूरी पर एक छोटा संघाराम और है इसमें अवलोकितेश्वर बोधिसत्व की एक खड़ी मूर्ति है। इस छोटे संघाराम के दक्षिण -पूर्व लगभग 20 ली चलकर एक पर्वत पर पुराना संघाराम है। आजकल यह उजाड़ हो रहा है। लगभग 30 संयासी महा यानी संप्रदायी इसमें निवास करते हैं। संघाराम के दोनों ओर स्तूप बने हैं जिनमें महात्मा अरहतों के शरीर समाधिस्थ हैं।(पेज नं 113) बुद्ध दांत वाले संघाराम के पूर्व 10 ली दूर पहाड़ में उत्तरी भाग के एक चट्टान पर एक छोटा सा संघाराम बना है। इस संघाराम में एक छोटा सा स्तूप लगभग 50 फ़ीट ऊंचा पत्थर का बना हुआ है जिसमें एक अर्हत का शरीर है।(पेज नं 114) राजधानी से पश्चिमोत्तर 200 ली चलकर एक ” मैलिन संघाराम” है। यहां पूर्ण शास्त्री ने विभाषा शास्त्र की टीका की थी। नगर के पश्चिम 140 या 150 ली की दूरी पर एक बड़ी नदी के उत्तरी किनारे की ओर एक संघाराम महासंघिक संप्रदाय वालों का बना हुआ है जिसमें लगभग 100 संन्यासी निवास करते हैं।(पेज नं 115)
– डॉ.राजबहादुर मौर्य, फोटो गैलरी-संकेत सौरभ (अध्ययन रत एम.बी.बी.एस.), झांसी
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Very nice article
Namo buddhay
Thank you very much
"आप का आशीर्वाद हमारा पथप्रदर्शक है जो आपने ऐतिहासिक जानकारी दी है वह मेरे जीवन में हमेशा मार्गदर्शन करती रहेगी" ---------------- नामोबुद्धाय सर
धन्यवाद आपको
bhagvan budh ki karuna va samta ki alakh jagane vale adarneey guru ji ko sat sat naman
डॉक्टर साहब आपने बहुत अच्छी जानकारी दी आपको बहुत बहुत साधुबाद
धन्यवाद आपको, अध्यक्ष जी
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I am very thankful to you beta. Really your future is bright.
Thanku papa
जानकारी जो दी गयी हैं वह बौध्द अनुयायी यो के लिए बहुत ही सार्थक है
आप का स्नेह हमारा सम्बल है,सर। आप की ही दी हुई प्रेरणा है। बुद्ध महाकारुणिक हैं।
Gud1
Thank you very much