मुल्तान
सिंध देश से आगे चलकर ह्वेनसांग “मूल स्थान पुर” अर्थात् “मुल्तान” देश में आया। उसने लिखा है कि इस देश का क्षेत्रफल लगभग 4 हजार ली और उसकी राजधानी का क्षेत्रफल लगभग 30 ली है। यह नगर अच्छी तरह से बसा हुआ है और यहां के निवासी सम्पत्तिशाली हैं। भूमि उत्तम और उपजाऊ है। मनुष्यों का आचरण सच्चा और सीधा है तथा लोग विद्या से प्रेम और ज्ञान की प्रतिष्ठा करते हैं। बहुत थोड़े से लोग बुद्ध धर्म के अनुयाई हैं। कोई 10 संघाराम हैं जो अधिकतर उजाड़ हैं। बहुत थोड़े से साधु हैं जो अध्ययन तो करते हैं परंतु किसी उत्तमता की कामना से नहीं।(पेज नं 403) आज चिनाव नदी के तट पर स्थित मुल्तान, पाकिस्तान का सातवां सबसे बड़ा शहर है और दक्षिणी पंजाब का एक प्रमुख सांस्कृतिक केंद्र है। सूफी फकीरों ने इसे “संतों का शहर” कहा था। इसकी बसाहट कम से कम पांच हजार वर्ष पुरानी है। यहां से लगभग 700 ली पूर्वोत्तर दिशा में चलकर ह्वेनसांग “पोफाटो” अर्थात् “पर्वत” देश में आया।
पर्वत
उसने लिखा है कि “पर्वत” राज्य का क्षेत्रफल लगभग 5 हजार ली और उसकी राजधानी का क्षेत्रफल लगभग 20 ली है। इसकी आबादी घनी है तथा भूमि धान और गेहूं पैदा करने के लिए उपयुक्त है। प्रकृति कोमल और मनुष्य सच्चे तथा ईमानदार हैं। यहां कोई 10 संघाराम और 1000 साधु हैं जो हीन और महा दोनों यानों का अध्ययन करते हैं। कोई 4 स्तूप अशोक राजा के बनवाए हुए हैं। मुख्य नगर के बगल में एक बड़ा संघाराम है जिसमें लगभग 100 साधु निवास करते हैं। यह लोग महायान सम्प्रदाय का अध्ययन करते हैं। इसी स्थान पर जिनपुत्र शास्त्री ने योगाचार्य भूमि शास्त्र कारिका नामक ग्रंथ को बनाया था। “भद्ररुचि” और “गुणभद्र” नामक शास्त्रियों ने भी धार्मिक जीवन को अंगीकार किया था। यह बड़ा संघाराम अग्नि कोप से बर्बाद हो गया है और इसलिए आजकल बहुत कुछ उजाड़ पड़ा हुआ है।(पेज नं 404)
अत्यनबकेल
सिंध देश से दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर लगभग 1500 ली चलकर ह्वेनसांग “ओटिन पओ चिलो” अर्थात् “अत्य नबकेल” राज्य में आया। इस देश का क्षेत्रफल लगभग 5 हजार ली और मुख्य नगर का नाम “शिघाली” है, जिसका क्षेत्रफल लगभग 10 ली है। यह सिंधु नदी के किनारे से लेकर समुद्र के किनारे तक फैला हुआ है। लोगों के निवास -भवन बहुत मनोहर बने हुए हैं। भूमि, नीची और तर तथा नमक से भरी हुई है। यहां आंधी- तूफ़ान का विशेष जोर रहता है। यहां कोई 80 संघाराम हैं जिनमें लगभग 5 हजार साधु निवास करते हैं। यह लोग सम्मतीय संस्थानुसार हीनयान सम्प्रदाय का अध्ययन करते हैं। प्राचीन काल में बहुधा तथागत भगवान इस देश में आते रहे हैं और मनुष्यों को धर्मोपदेश करके शिष्य बनाते और सन्मार्ग पर लाकर लाभ पहुंचाते रहे हैं। इस कारण से 6 स्थानों पर, जहां पुनीत चरित्रों का चिन्ह मिला था, अशोक राजा ने स्तूप बनवा दिया है।(पेज नं 405) सम्भवतः यह स्थान कराची अथवा आस पास कोई जगह रही हो। वर्तमान कराची शहर पाकिस्तान का सबसे बड़ा शहर तथा बंदरगाह है। इस शहर के बीचोबीच से दो बड़ी नदियां- मलीर तथा लियारी बहती हैं। 3527 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हुए कराची शहर को रोशनियों का शहर कहा जाता है। मुहम्मद अली जिन्ना की यह जन्म स्थली है। यवन राजा मिनांदर ने यहां पर बौद्ध धर्म का प्रचार किया था।
तक्षशिला
वहां से चलकर ह्वेनसांग “पिटोशिलो” नामक देश में आया। सम्भवतः यह स्थान “तक्षसिरा” अथवा “तक्षशिला” रहा हो। उसने लिखा है कि यहां लगभग 3 हजार साधुओं सहित कोई 50 संघाराम हैं जो सम्मतीय संस्थानुसार हीनयान सम्प्रदाय का अध्ययन करते हैं। नगर के उत्तर में 15 ली चलकर एक बड़े जंगल में एक स्तूप है जो कई सौ फीट ऊंचा है। यह अशोक राजा का बनवाया हुआ है। इसके भीतर बुद्ध देव का शरीरावशेष है। इस स्थान पर प्राचीन काल में तथागत भगवान ऋषि के समान निवास करते थे और राजा की निर्दयता का शिकार हुए थे। यहां से थोड़ी दूर पर पूर्व दिशा में एक प्राचीन संघाराम है जिसको महात्मा कात्यायन अरहत ने बनवाया था। इसके पास ही चारों बुद्धों के तपस्या के निमित्त उठने बैठने के सब चिन्ह हैं। लोगों ने यहां पर स्तूप बनवा दिया है।(पेज नं 408)
“तक्षशिला” प्राचीन भारत में “गांधार” देश की राजधानी और शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था। यहां का विश्वविद्यालय विश्व के सबसे प्राचीन विश्वविद्यालयों में शामिल था। यहां पर 10 हजार से अधिक छात्र दुनियाभर से आकर ज्ञान प्राप्त किया करते थे। यहां पर 60 से अधिक विषय पढ़ाए जाते थे। चाणक्य यहीं पर आचार्य थे।”तिलमुष्टि” जातक में वर्णन है कि यहां का अनुशासन अत्यंत कठोर था। राजा प्रसेनजीत, बंधुल मल्ल, लिच्छवी महालि, वैद्य राज जीवक, अंगुलिमाल, ने यहीं शिक्षा पायी थी। वर्तमान समय में तक्षशिला पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के रावलपिंडी जिले की एक तहसील में एक पुरातात्विक स्थल है जो इस्लामाबाद और रावलपिंडी से लगभग 32 किलोमीटर उत्तर- पूर्व में स्थित है। 1980 में इसे यूनेस्को ने विश्व विरासत स्थल घोषित किया। ऐतिहासिक रूप से यह तीन मार्गों के संगम पर स्थित था। उत्तरापथ, जो गांधार से मगध को जोडता था (आज का जी.टी.) दूसरा उत्तर- पश्चिम मार्ग जो कपिशा और पुष्कलावती आदि से होकर गुजरता था। तीसरा सिंधु नदी मार्ग जो सिरीनगर, मानसेरा, हरिपुर घाटी होते हुए उत्तर में रेशम मार्ग और दक्षिण में हिंद महासागर तक जाता था।
बुद्ध के समय गांधार के राजा “पुक्कुसाति” ने मगध राज बिम्बिसार के यहां अपना दूत मंडल भेजा था। मौर्य साम्राज्य में चंद्रगुप्त मौर्य के ज़माने में तक्षशिला, उत्तरापथ की राजधानी हो गई थी और मौर्य राजकुमार मंत्रियों की सहायता से वहां शासन करते थे। बिंदुसार, सुसीम और कुणाल वहां पर बारी -बारी से प्रांतीय शासक नियुक्त किए गए थे। बौद्ध युग में तक्षशिला विद्या का प्रमुख केन्द्र था। जातकों तथा त्रिपिटक की टीकाओं में व अट्टकथाओं में उसकी अनेक बातें ज्ञात होती हैं। खुदाई में वहां अनेक स्तूपों तथा विहारों के (विशेषतः कुणाल विहार) चिन्ह मिले हैं। अशोक के पुत्र “कुणाल” यहां के गवर्नर थे। “कंचन माला” उनकी पत्नी तथा “सम्प्रति” उनका पुत्र था जो अशोक के बाद मगध का राजा बना। “पाणिनि” भी गांधार स्थित “शालातुर” के निवासी थे।
गांधार प्राचीन भारत के 16 महाजनपदों में एक था। इसका मुख्य केन्द्र पेशावर और आसपास के इलाके थे। कंदहार इससे कुछ दक्षिण में स्थित था। तक्षशिला इसकी राजधानी थी। कुषाण काल में यहां पर बौद्ध धर्म बहुत फूला- फला। यह स्थान आज के पाकिस्तान का पश्चिमी तथा अफगानिस्तान का पूर्वी क्षेत्र है। सम्राट अशोक के शासन का यह सीमावर्ती प्रान्त था जिसका उल्लेख कंबोज के रूप में मिलता है। गांधार का अर्थ होता है- सुगंध।
पिटोशिलो देश से 300 ली उत्तर- पूर्व दिशा में चलकर ह्वेनसांग “आफनच” या “अबन्द” देश में आया। उसने लिखा है कि इस देश का क्षेत्रफल लगभग 2500 ली है और राजधानी का क्षेत्रफल लगभग 20 ली है। भूमि उत्तम और उपजाऊ है। यहां के लोग विद्या से प्रेम नहीं करते, परंतु रत्न त्रयी के पूरे और सच्चे भक्त होते हैं।कोई 20 संघाराम 2 हजार साधुओं सहित हैं जिनमें से अधिकतर सम्मतीय संस्थानुसार हीनयान सम्प्रदाय का अध्ययन करते हैं। नगर के उत्तर- पूर्व दिशा की ओर थोड़ी दूर पर बांस के एक बड़े जंगल में एक प्राचीन संघाराम है जो अधिकतर उजाड़ है। यहां पर तथागत भगवान ने भिक्षुओं को जूता पहनने की अनुमति दी थी। इसके पास एक स्तूप अशोक राजा का बनवाया हुआ है। यद्यपि इसका निचला भाग भूमि में धंस गया है तो भी जो कुछ शेष है वह कई सौ फीट ऊंचा है। (पेज नं 408) इस स्तूप के पास एक विहार के भीतर बुद्ध देव की एक बड़ी मूर्ति नीले पत्थर की है। पुनीत दिनों में इसमें से चमत्कार प्रदर्शित होता है।
इसके दक्षिण में 800 कदम पर एक जंगल के भीतर एक स्तूप है जिसको अशोक राजा ने बनवाया था। इस स्थान पर किसी समय तथागत भगवान ने आकर तीन वस्त्रों को धारण कर लिया था। इस जंगल में एक स्थान है जहां तथागत भगवान तपस्या के लिए ठहरे थे। और भी बहुत से स्तूप एक- दूसरे के सामने बने हुए हैं, जहां पर गत चारों बुद्ध बैठे थे। इस स्तूप में बुद्ध देव के नख और बाल हैं।(पेज नं 409) यहां से लगभग 900 ली उत्तर- पूर्व में चलकर ह्वेनसांग “फलन” देश में आया।
कभी भारत के उत्तर- पश्चिम सीमा प्रांत का इलाका आज पाकिस्तान के एक प्रांत ” ख़ैबर पख्तुनख्वा” के नाम से जाना जाता है। यह अफगानिस्तान की सीमा पर स्थित है। इसे “सुबा-ए-सरहद” के नाम से भी जाना जाता है। यहां पर पख्तूनों की आबादी बहुत है जिनकी मात्र भाषा “पश्तो” है। इस प्रांत की जनसंख्या लगभग दो करोड़ है। सम्राट अशोक के ज़माने में यहां पर बौद्ध धर्म बहुत लोकप्रिय था। यह कुषाण साम्राज्य की राजधानी था। पाकिस्तान का स्विट्जरलैंड कही जाने वाली “स्वात ” घाटी यहीं पर है। इस्लामाबाद से इसकी दूरी 160 किलोमीटर है। हरिपुर यहां का एक जिला है जहां पर 14 मीटर ऊंची बुद्ध की प्रतिमा महापरिनिर्वाण अवस्था में मिली है। लगभग 500 खंडहर तथा विहारों के अवशेष मिले हैं। महाराज बिंदुसार के शासन काल में अशोक यहां के राज्यपाल थे। तिब्बती बौद्ध कथाओं के अनुसार सम्राट अशोक की मौत भी इसी क्षेत्र में हुई है। यहां 70 फीसदी लोग हिंदको भाषा बोलते हैं जो पंजाबी की एक उप भाषा है।
यात्री ने लिखा है कि “फलन” अथवा “वरन” राज्य का क्षेत्रफल लगभग 4 हजार ली और मुख्य नगर का क्षेत्रफल लगभग 20 ली है। देश के मुख्य भाग में पहाड़ और जंगल अधिक हैं। कोई 10 संघाराम हैं परन्तु सब तबाह हैं। कोई 300 साधु हैं जो महायान सम्प्रदाय का अध्ययन करते हैं। नगर के दक्षिण में थोड़ी दूर पर एक प्राचीन संघाराम है। यहां पर तथागत भगवान ने अपने सिद्धांतों की उत्तमता और उनसे होने वाले लाभों का वर्णन करके लोगों का मार्गदर्शन किया था। इसके पास गत चारों बुद्धों के तपस्या के उठने-बैठने के चिन्ह बने हुए हैं।(पेज नं 409) इस देश को छोड़कर उत्तर- पश्चिम में बड़े-बड़े पहाड़ों और चौड़ी घाटियों को लांघ कर बहुत से छोटे- छोटे नगरों में होते हुए लगभग 2 हजार ली चलकर “ह्वेनसांग” ने भारत की सीमा का परित्याग किया।
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विस्तृत विवरण और सराहनीय श्रम के लिये आपकी बहुत बहुत साधुवाद।
Thank you very much Dr sahab
*आपको बहुत बहुत साधुवाद।
Thank you
आप इतिहास, संस्कृति, सभ्यता, कला व भारतीयता के जिन अनुपम व अनछुए पहलुओं और आयामों से जिस सुन्दरता व सहजता से हम सब का परिचय करा रहे हैं वह अत्यन्त दुष्कर व श्रमसाध्य कार्य है।
कोटिशः नमन!
धन्यवाद आपको