मगध देश उत्तरार्द्ध
बोधगया में बुद्ध देव की तप स्थली तथा बोधिवृक्ष के दर्शन कर ह्वेनसांग बोधिवृक्ष के पूर्व में नीरांजना नदी को पार कर एक जंगल के मध्य में आया। उसने लिखा है कि यहां जंगल के बीच एक स्तूप बना हुआ है। इसके दक्षिण में एक तड़ाग है। जनरल कनिंघम ने लिखा है कि स्तूप का भग्नावशेष तथा स्तम्भ का निचला भाग, नीरंजना नदी के पूर्वी किनारे पर “बकरोर” नामक स्थान पर अब तक विद्यमान है। यह स्थान बुद्ध गया से एक मील दक्षिण- पूर्व में है।(पेज नं 291) इस तडाग के पास एक स्तूप उस स्थान पर बना हुआ है जहां पर प्राचीन काल में काश्यप बुद्ध समाधि मग्न हुए थे। इसी स्तूप के पास एक पाषाण स्तम्भ लगा हुआ है।
यहां बुद्ध देव के पद चिन्ह भी हैं। इस स्थान से पूर्व माही नदी (मोहन नदी) पार कर थोड़ी दूर जाने पर एक और पाषाण स्तम्भ लगा हुआ है। यह उद्रराम पुत्र का स्थान था।(पेज नं 292) यहीं पर पास में “कुक्कुटपाद” पहाड़ है, जिसकी चोटी पर एक स्तूप बना हुआ है। संध्या के समय जिस दिन प्राकृतिक शांति का अधिराज्य होता है उस दिन लोगों को दूर से दिखाई पड़ता है कि कोई वस्तु ऐसी प्रकाशित है जैसे मशाल जलती हो। परंतु यदि पहाड़ पर जाकर देखा जाए तो कुछ भी पता नहीं चलता है।(पेज नं 296)
जनरल कनिंघम मानते हैं कि आजकल का “मुराली” पहाड़ ही “कुक्कुटपाद” पहाड़ है जो “कुरकिहार” ग्राम से उत्तर-पूरब में 3 मील पर है। यहां पर अब भी मध्य वाली अथवा ऊंची चोटी पर एक चौकोर नींव है, जिसके आस- पास ईंटों का ढेर है। “कुक्कुटपाद” पहाड़ के पूर्वोत्तर दिशा में 100 ली चलकर एक “बुद्ध वन” है। पास ही ऊंची पहाड़ियों के मध्य में एक गुफा है। यहां पर एक बार बुद्ध देव आकर ठहरे हुए थे। इसके निकट ही एक बड़ा पत्थर पड़ा हुआ है जिस पर देवराज शक्र और ब्रम्हा ने गोपीश चन्दन को रगड़ कर तथागत भगवान् को तिलक किया था। यहां आस पास 500 अर्हत गुप्त रूप से निवास करते हैं।(पेज नं 296)
यष्टिवन के दक्षिण- पश्चिम में लगभग 10 ली दूरी पर एक बड़े पहाड़ के किनारे पर दो तप्त कुंड हैं। जिनका जल बहुत गर्म है। प्राचीन काल में तथागत भगवान् ने इस जल में स्नान किया था।कुण्ड के किनारे पर एक स्तूप उस स्थान पर बना हुआ है जहां पर तथागत भगवान् ने धर्मोपदेश दिया था। इसके दक्षिण- पूर्व लगभग 6 या 7 ली दूर एक पहाड़ के एक ओर कगार के सामने एक स्तूप उस स्थान पर बना हुआ है जहां पर तथागत भगवान् ने प्रावृत्त ऋतु में विश्राम काल में 3 मास तक देवता और मनुष्यों के उपकारार्थ धर्मोंपदेश दिया था। राजा बिम्बिसार यहीं पर बुद्ध देव से मिलने आते थे।(पेज नं 299)
राजा बिम्बिसार ने पहाड़ी को काटकर चढ़ने के लिए सीढ़ियां बनवा दिया था। यह सीढ़ियां कोई 20 पग चौड़ी 3 या 4 ली की ऊंचाई तक चली गई हैं। इस पहाड़ के उत्तर में 3 या 4 ली आगे एक निर्जन पहाड़ी है। जिसके पास एक और छोटी पहाड़ी है। इसके पास एक गुफा है। इस स्थान पर तथागत भगवान् ने 3 मास तक धर्मोंपदेश किया था। गुफा के पास राजा बिम्बिसार का बनवाया हुआ लकड़ी का मार्ग है।(पेज नं 300)
वहां से चलकर व्हेनसांग 60 ली पूर्व में जाकर “कुशागार पुर”में आया। जनरल कनिंघम मानते हैं कि यही मगध की राजधानी थी। इसका नाम “राजगृह” था। इसको गिरिव्रज भी कहते हैं। यह स्थान चारों तरफ से ऊंची- ऊंची पहाड़ियों से घिरा हुआ है। इसका क्षेत्रफल 150 है। यहां पर बहुत उत्तम सुगंधित कुश उत्पन्न होता था इसलिए इसे कुशागार पुर कहते हैं। सड़कों के किनारे-किनारे कनक नामक वृक्ष लगे हुए हैं। इस वृक्ष के फूल बड़े सुगंधित और रंग में बडे़ मनोहर सोने के समान होते हैं। राज भवन के उत्तरी फाटक के बाहर एक स्तूप उस स्थान पर बना हुआ है जहां पर देवदत्त और राजा अजातशत्रु ने सलाह करके एक मतवाला हाथी तथागत भगवान् को मारने के लिए छोड़ा था।(पेज नं 300) इस स्थान के पूर्वोत्तर में एक स्तूप उस स्थान पर बना हुआ है जहां पर सारिपुत्र की भेंट अश्वजित् भिक्षु से हुई थी। इस स्थान के के उत्तर में थोड़ी दूर पर एक बड़ी गहरी खाईं है जिसके निकट एक स्तूप उस स्थान पर बना हुआ है जहां पर श्री गुप्त ने विशैले चावल देकर भगवान् को मारना चाहा था।(पेज नं 301)
अग्नि वाली खाई के उत्तर पूर्व दिशा की ओर नगर के एक मोड़ पर एक स्तूप है। यह वैद्य राज “जीवक” का बनवाया हुआ है। तथागत भगवान् बहुधा इस स्थान पर आकर निवास करते थे। इसके बगल में जीवक के निवास भवन का खंडहर तथा एक प्राचीन कुआं है।(पेज नं 302) राजभवन के पूर्वोत्तर में लगभग 14 15 ली चलकर “गृधकूट” पहाड़ है। तथागत भगवान् के जीवन का काफी समय इस स्थान पर व्यतीत हुआ है। राजा बिम्बिसार यहां पर बुद्ध देव से मिलने आते थे। उन्होंने इस पर चढ़ने के लिए सीढ़ियां बनवा दिया था। मार्ग के मध्य में 2 छोटे-छोटे स्तूप हैं, जिसमें से एक “रथ का उतार” कहलाता है क्योंकि राजा इस स्थान से पैदल गया था। दूसरा “भीड़ की विदा” कहलाता है, क्योंकि साधारण लोगों को राजा ने यहीं से विदा कर दिया था। गृधकूट पहाड़ की चोटी पर एक विशाल शांति स्तूप बना हुआ है।
पहाड़ के पश्चिमी भाग में ढाल के कगार के किनारे एक विहार ईंटों से बना हुआ है। इसका द्वार पूर्वाभिमुख है। यहां पर तथागत भगवान् बहुधा ठहरा करते थे और धर्मोंपदेश किया करते थे। विहार के पूर्व एक लम्बा सा पत्थर है जिस पर तथागत भगवान् टहल कर धर्मोंपदेश करते थे।इसी के निकट 14 या 15 फ़ीट ऊंचा और 30 पग घेरे वाला एक बड़ा भारी पत्थर पड़ा हुआ है। इसी स्थान पर देवदत्त ने बुद्ध देव को मार डालने के लिए दूर से पत्थर फेंक कर मारा था।(पेज नं 303)
यहीं पास में “सप्तपर्णी” गुफा है। जहां पहली बौद्ध संगीति हुई थी। बुद्ध देव के उपदेशों को यहीं लिपिबद्ध किया गया था। पास ही विपुल पहाड़ की चोटी पर एक स्तूप उस स्थान पर बना हुआ है जहां पर प्राचीन काल में तथागत भगवान् ने धर्म की पुनरावृत्ति की थी।(पेज नं 307) गिरिव्रज पहाड़ से बांयी ओर पूर्व दिशा में चलने पर एक पाषाण भवन है जहां पर देवदत्त ने समाधि का अभ्यास किया था। इस भवन से पूर्व थोड़ी दूर पर एक स्तूप बना हुआ है।(पेज नं 308) पास में ही बिम्बिसार का कारागार है। बिम्बिसार को यहीं उनके बेटे अजातशत्रु ने बंदी बनाया था। इसके बावजूद भी वह गृधकूट और बुद्ध देव को खिड़की से देख सकते थे। इस कारागार के अवशेष खंडहर अभी तक मौजूद हैं।
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भगवान बुद्ध के जीवन का अध्भुतज्ञान समाहित है सर
नमोबुधाय
धन्यवाद आपको
धर्म (मानव), ज्ञान व ऐतिहासिकता तीनों का अद्भुत संगम है समीक्षा।
प्रणाम सर!
🙏
God bless you
दो वर्ष पहले सपरिवार सहित राजग्रह गया था । विश्व शांति स्तूप का दर्शन किया था । आज पुनः यादों को आपके द्वारा ताज़ा किया । आपके इस अथक प्रयास का मै तहेदिल स्वागत करता हूँ ।
आप पर बुद्ध देव की करुणा हो
'ह्वेनसांग की भारत यात्रा' पुस्तक की समीक्षा का अद्भुत उल्लेख किया है यह लेख पाठों के लिए समझ उत्पन्न करने व् ऐतिहासक मीमांसा को समझने में सहयोग प्रदान करेगा। धन्यवाद प्रो० साहब। ऐसे ही लेख के माध्यम से तथागत के विचारों व् उनके जीवन शैली को हम सभी तक पहुंचते रहिये।
Thank you very much bhai jee
एऐतिहासिक एवज पौराणिक तथ्यो का अद्भुत समन्वय
धन्यवाद आपको डाक्टर साहब