ह्वेनसांग की भारत यात्रा का महत्व

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दुनिया में ” प्रिंस आफ़ ट्रैवलर्स” अर्थात् “यात्रियों का राजकुमार” के नाम से मशहूर ह्वेनसांग चीन के मशहूर दार्शनिक, प्रकांड विद्वान, बौद्ध दर्शन के अध्धेयता, घुमक्कड़ और अनुवादक थे। चीनी यात्रियों में उसका सर्वाधिक महत्त्व है। ह्वेनसांग का जन्म 602 ई. के लगभग लुओअंग नामक स्थान पर हुआ था। उसकी मृत्यु 664 ई. के लगभग हुई। ह्वेनसांग को चीनी भाषा में मू- चा ति- पो भी कहा जाता है। उसका मूल नाम “चेन आई” था। ह्वेनसांग के पिता कन्फ्यूसियस वादी थे। 29 वर्ष की आयु में सन् 629 में अपने देश से भारत की यात्रा के लिए चला तथा सन् 645 में 17 साल की लम्बी यात्रा पूरी कर वापस अपने देश में पहुंचा। उसने अपनी रोमांचकारी भारत यात्रा का वृत्तांत चीनी भाषा में लिखा। उसकी मूल पुस्तक का नाम “सी यू की” (पश्चिमी राज्य का इतिहास) है। ऐसा माना जाता है कि ह्वेनसांग अपने साथ भारत से 520 पेटियों में भरकर 657 पुस्तकों की पाण्डुलिपियां ले गया। चीन वापस जाने के बाद उसका शेष जीवन इन्हीं ग्रन्थों का अनुवाद करने में बीता। अपने साथ में वह 150 बुद्ध देव के अवशेष कण, सोने, चांदी एवं संदल द्वारा बनी बुद्ध देव की मूर्तियां भी यहां से ले गया।

ह्वेनसांग एक दूसरे चीनी यात्री फाहियान के करीब 225 साल बाद भारत यात्रा पर आया था। 6 वर्षों तक वह नालंदा महाविहार में रहा। 8 साल तक कन्नौज में महाराज हर्षवर्धन के सानिध्य में रहा। कन्नौज की धर्म सभा का वह अध्यक्ष भी रहा है। उसने महाराज हर्षवर्धन के साथ प्रयाग के छठें महो मोक्षपरिषद में भाग लिया था। चीन वापस जाने पर तांग की राजधानी चांग- अन में उसका भव्य स्वागत किया गया। कुछ दिनों बाद शहंशाह ने ह्वेनसांग को अपने राजदरबार में बुलाया तथा उसके विदेशी भूमि के वृत्तांत से इतना रोमांचित हुआ कि उसने इस बौद्ध भिक्षु को मंत्री पद का प्रस्ताव दिया। लेकिन ह्वेनसांग ने धर्म की सेवा को प्राथमिकता दी और सम्मान पूर्वक शाही प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। ह्वेनसांग के मित्र “हूली” ने ह्वेनसांग की जीवनी लिखी है।

निर्भीक एवं समर्पित बौद्ध भिक्षु ह्वेनसांग के सम्मान में तांग सम्राट ने उसकी मृत्यु के बाद तीन दिन तक सभी सभाएं रद्द कर दी थीं। ह्वेनसांग चीन और भारत के इतिहास का वह नाम है जिसे मिटाया नहीं जा सकता। उसने भारतीय संस्कृति और सभ्यता से चीन को परिचित कराया। भारत आने में उसने लगभग 5000 मील की यात्रा पूरी की। उसकी बहुत सी पुस्तकें वापस जाते समय सिंधु नदी पार करते समय तेज़ बहाव में बह गयीं। ह्वेनसांग “सिल्क रूट” से चलकर भारत यात्रा पर आया था। आज चीन उसी सिल्क रूट को ” वन बेल्ट वन रोड योजना” के तहत जिंदा कर रहा है। एक मानव खोपड़ी जिसे ह्वेनसांग की बताया जाता है, वह तियांजिन के “टेम्पल आफ़ ग्रेट कम्पैशन” में सन् 1656 तक थी और फिर दलाई लामा द्वारा लायी गई तथा भारत को भेंट कर दी गई। यह वर्तमान समय में पटना संग्रहालय में सुरक्षित है।

ज्ञान, विवेक और करुणा पर आधारित तथा भारत में जन्मी,पली और बढ़ी बौद्ध संस्कृति देश और काल की सीमा रेखाओं से परे है। यह एक गतिमान संस्कृति है जो दूसरों को प्रभावित करती है और दूसरों से प्रभावित होती भी है। इसने कभी पूर्णता का दावा नहीं किया। समय, देश,काल और परिस्थितियों के अनुरूप वह दूसरों से अच्छी बातें ग्रहण करती रही। इसी का परिणाम रहा कि बिना रक्तपात और बिना बल प्रयोग के सभ्य जगत के अधिकांश भाग पर उसका स्वागत और सम्मान हुआ मानवता वाद में विश्वास करने वाले लोग आज भी इस संस्कृति से प्रेरणा लेते हैं।

ह्वेनसांग की भारत यात्रा का विवरण ही परवर्ती काल में खोए हुए और विलुप्त बौद्ध संस्कृति की खोज का मूल आधार है। यदि इतने सुव्यवस्थित ढंग से तथा प्रमाणिक जानकारी ह्वेनसांग के वृत्तांत में न होती तो शायद दुनिया को इतनी गौरवशाली अतीत, विरासत और सभ्यता की जानकारी दुरुह होती। ह्वेनसांग के द्वारा दूरी, दिशा, नदी, पहाड़, जंगल, घाटी, मरुस्थल इत्यादि के रूप में जो सीमा चिन्ह दिए गए थे वही कालांतर में खोज में मार्ग दर्शक बने। इन्हीं के सहारे- सहारे चलकर कनिंघम जैसे सेवियों ने टीलों को खोजा। खुदाई में इन्हीं टीलों से सम्राट अशोक के शिलालेख और स्तूप निकले। पहाड़ों और घाटियों से अजंता, एलोरा की गुफाएं निकलीं। तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला जैसे महान विश्वविद्यालयों के अवशेष मिले और भारत में बौद्ध धर्म तथा उसकी संस्कृति के पुनर्जागरण का दौर चल पड़ा।

-डॉ. राजबहादुर मौर्य, फोटो गैलरी- संकेत सौरभ ( अध्ययनरत, एम .बी .बी.एस.), झांसी ( उत्तर- प्रदेश)

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Dr. RB Mourya:

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