मध्य-प्रदेश की राजधानी भोपाल से 65 किलोमीटर दूर, भोपाल-दिल्ली रेलमार्ग पर “विदिशा” शहर स्थित है। यहीं पर विदिशा से 6 किलोमीटर दूर बेतवा और बैस नदी के बीच,हलाली नदी के किनारे “उदयगिरि की गुफाएं” स्थित हैं। ऐतिहासिक स्थल सांची से इसकी दूरी 13 किलोमीटर है। उदयगिरि विदिशा से वैस नगर होते हुए पहुंचा जा सकता है। नदी से यह गिरि लगभग एक मील की दूरी पर है। पहाड़ी के पूर्व की तरफ पत्थरों को काटकर बनाई गई इन गुफाओं में प्रस्तर मूर्तियों के जो प्रमाण मिलते हैं वह भारतीय कला के इतिहास में मील का पत्थर हैं। उदयगिरि की गुफाओं में कुल 20 गुफाएं हैं। पत्थरों को काटकर छोटे -छोटे कमरे बनाए गए हैं।
उदयगिरि को पहले “नीचैगिरि” के नाम से जाना जाता था। 10 वीं शताब्दी में जब धार के परमारों के हाथ में आ गया तो राजा भोज के पौत्र उदयादित्य ने इस स्थान का नाम “उदयगिरि” रखा। यहां की गुफ़ा नं 1 का स्थानीय नाम “सूरज” गुफा है। यह 7 फ़ीट लम्बी तथा 6 फ़ीट चौड़ी है। गुफा संख्या 3 का भीतरी कक्ष 86 फ़ीट का है जिसकी गहराई 6 फ़ीट 4 इंच है। गुफा संख्या 4 को “वीणा” गुफा के नाम से जाना जाता है। गुफा संख्या 5 को “वाराह” गुफा के नाम से जाना जाता है। यह 22 फ़ीट लम्बी तथा पत्थर में भीतर की ओर गहरी है। गुफा संख्या 6,7 में सन् 402 ई. का एक अभिलेख पाया गया है जिसमें गुप्त नरेश चन्द्र गुप्त द्वितीय का वर्णन है। पाटलिपुत्र का रहने वाला यह विद्वान शासक मालवा आया था।
यहां पर गुफा संख्या 13 में शंख लिपि खुदी हुई है जो संसार की प्राचीनतम लिपियों में एक है तथा जिसे अब तक पढ़ा नहीं जा सका है। उदयगिरि के अलावा यह लिपि उत्तर प्रदेश, कर्नाटक तथा महाराष्ट्र में भी मिली है। गुफा नं 19 उदयगिरि की गुफाओं में सबसे बड़ी गुफा है। कहते हैं कि यहां पर गुफा नं 20 में एक सुरंग है जो सांची में जाकर खुलती है। प्राचीन भारत में उदयगिरि एक व्यापारिक मार्ग पर स्थित था।साक्ष्य बताते हैं कि उदयगिरि का सम्बन्ध केवल गुप्तों से ही नहीं बल्कि मौर्य, शुंग और नागवंश से भी रहा है। शहर के कोलाहल से दूर एकांत स्थान पर निर्मित इन गुफाओं में कई बौद्ध कालीन अवशेष भी पाये जाते हैं। गुप्त काल का पहला शिलालेख भी यहां पर है।
उदयगिरि कभी विदिशा नगरी का ही एक उपनगर था। गिरि शिखर पर जो ध्वंसावशेष प्राप्त हुए हैं उनकी पूर्व से पश्चिम की लम्बाई 127 फ़ीट तथा चौड़ाई 72 फ़ीट है।इसे देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस स्थान पर कोई भव्य इमारत रही होगी। सिंहली ग्रन्थ “महावंश” के अनुसार युवा अवस्था में अशोक का निवास “वाग्माला” पर्वत का ही एक भाग है। अतः इस बात में कोई संदेह नहीं रह जाता कि वैस नदी के किनारे पर स्थित यह स्थान अशोक भवन था।जन स्रुतियों के अनुसार आज भी इसे अशोक का महल कहा जाता है। अशोक उस समय यहां के गवर्नर थे। यहां के शिलालेख ब्राम्ही लिपि में हैं जिनकी भाषा पाली है। हलाली डैम की ऊंची- ऊंची दीवार और दूर से दिखाई देता सम्राट अशोक का “बेसनगर” या “भिलासा” या महामलिस्तान या “विदिशा” शहर वही है।
उदयगिरि गुफा मंडप में लगे हुए खम्भे सम्भवतः पहाड़ी के ऊपर बने अशोक महल के खंडहरों पर निर्मित गुप्त कालीन मंदिर के हैं।जब यह मंदिर नष्ट हो गया होगा तब उसी के खम्भों को नीचे लाकर पुनः प्रयोग कर लिया गया। मंदिर के मलवे से प्राप्त खम्भों का इन खम्भों से मेल खाना इस बात की प्रामाणिकता है। यहीं पर पास में ही बने “खोया” मंदिर,जो अब खंडहर हो चुका है, की बनावट सांची में बने विहारों से मिलती-जुलती है। इस मंदिर के बिल्कुल सामने एक “अशोक स्तंभ” था जिसका अब केवल निचला हिस्सा ही शेष बचा हुआ है। यह स्तंभ बहुत चिकना है।ऐसा लगता है कि जैसे इस पर पॉलिस की गई है। बेसनगर के पूर्व में ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के स्तूप भी मिले हैं। पुरातत्व विदों का मानना है कि यह स्तूप, सांची के भी पहले के हैं। सम्राट अशोक ने यहीं की पुत्री से विवाह किया था।उनके पुत्र महेन्द्र तथा बेटी संघमित्रा का जन्म तथा पालन-पोषण यहीं पर हुआ था।
उदयगिरि गुफाओं के पास में ही एक पत्थर से निर्मित स्तम्भ है जिसे “हेलीओडोरस” पिलर कहते हैं। स्थानीय लोग इसको “खांब बाबा” कहते हैं।ढीमर समुदाय के लोग इसकी पूजा करते हैं।इसे ईसा पूर्व दूसरी सदी के आरंभ में स्थापित किया गया था।हल्के भूरे रंग के इस स्तम्भ में “आर्मेइक” और “ब्राम्ही” लिपि उत्कीर्ण है।अपनी भारत यात्रा में अलबेरूनी भी यहां पर आया था। उसने इस स्थान को महावलिस्तान के नाम से सम्बोधित किया था। विदिशा कभी पूर्वी मालवा क्षेत्र की राजधानी भी थी। प्राचीन भारत में पाटलिपुत्र से कौशाम्बी होते हुए जो व्यापारिक मार्ग उज्जयिनी जाता था वह विदिशा से होकर गुजरता था।यही मार्ग आगे चलकर पश्चिम में जाकर भरुकच्छ और सोपारा जैसे बंदरगाहों को जोडता था।कुछ विद्वानों का मत है कि विविध दिशाओं को यहां से मार्ग जाने के कारण ही इसका नाम विदिशा पड़ा।
वर्ष 1991 में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई तथा 2014 में पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज विदिशा से सांसद रह चुके हैं। विदिशा में जन्मे कैलाश सत्यार्थी को 2014 में शांति का नोबेल पुरस्कार मिल चुका है।
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जानकारी का विस्तार प्रचार करने के लिए आपका बहुत-बहुत आभार धन्यवाद। हर वर्ग प्रेरणा लें
सारगर्भित जानकारियों के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
Sir very good work.........
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