आदर्श का चिंतन निश्चय ही राजनीति से परे और आगे की बात है।
यह उन शाश्वत विचारों की खोज है जो इस भौतिक और नैतिक जगत की वास्तविकता है। फिर भी आदर्शों के चिंतन के लिए राजनीतिक स्थितियां आवश्यक हैं। चूंकि चिंतकों को यदि व्यवस्था, संगठन और शिक्षण का राजनीतिक संदर्भ विदित न हो तो वे चिंतन ही नहीं कर सकते। शिक्षा राजनीतिक व्यवस्था को आधार प्रदान कर उसे चलाती है और एक ऐसी सीढ़ी बनाती है जिससे भावी विकास का मार्ग प्रशस्त होता है। “आप अपने बच्चों को खूब पढाइये, इसके लिए चाहे आप को जितने भी कष्ट उठाने पड़े,चाहे भूखे रहकर खाली पेट सोना पड़े। अपने जीवन के सारे सुखों को कुर्बान कर भी अपने बच्चों को खूब पढ़ाना। उनकी तालीम में कमी न आने देना… स्वामी प्रसाद मौर्य का यह शिक्षा के प्रति केन्द्रीय वक्तव्य है जिसे वह अपनी जन सभाओं में पूरी प्रतिबद्धता के साथ हमेशा रखते हैं। यद्यपि यह एक छोटा सा कथन है, परंतु शिक्षा को प्रेरित करने वाला यह एक प्रभावशाली मंत्र है।
वह कहते हैं, “प्रत्येक माता पिता की यह जिम्मेदारी है कि वह बच्चों को बेगार जैसे काम में न लगाये। स्वयं तथा बच्चों को नशीली वस्तुओं से दूर रखे। बाल- विवाह बिल्कुल न करें,तभी बच्चों का भविष्य उज्जवल होगा।” इतना ही नहीं जब उन्हें अवसर मिलता है वह शहर से लेकर गांव तक के कालेजों स्कूलों में जाकर छात्र,शिक्षक तथा अभिभावकों से सीधी बात-चीत करते हैं।
भावी पीढ़ियों पर पड़ने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य की शैक्षिक दृष्टि के प्रभाव का मूल्यांकन करना एक कठिन कार्य है, क्योंकि अभी उनका यह मिशन निरंतर जारी है। परंतु यह अतिशयोक्ति नहीं है कि उनके वक्तव्यों तथा कार्य ने गहन रूप से समाज को प्रभावित किया है। यह उनका प्रभाव कि जहां से उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत किया था,उस विधान सभा क्षेत्र में आज सरकारी स्कूलों को छोड़कर लगभग 60 शिक्षण संस्थाएं उनकी प्रेरणा, सहयोग और संबल से स्थापित हुई हैं। जिनमें ग्रामीण अंचलों के वह बच्चे शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं,जो शिक्षा से वंचित थे। अनगिनत ऐसे लोग हैं जिन्होंने उनके विचारों का अनुसरण किया है।उनका विश्वास है कि ज्ञान की संभावना ही हर युग में समाज की दशा और दिशा तय करती है।
वह कहते हैं, अज्ञानता मानव के लिए अभिशाप है जिसमें जकड़ा हुआ व्यक्ति न अपना स्वयं का,न परिवार का,न समाज का और न राष्ट्र का भला कर सकता है।
– डॉ.राजबहादुर मौर्य, झांसी