झलक, आदिवासी समुदाय के साहित्य की…

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साहित्य समाज का दर्पण होता है, जिसमें समाज की सभ्यता, संस्कृति, परमपराएं, आस्थाएं, विश्वास, मूल्य तथा मान्यताएं प्रतिबिंबित होती हैं। यही प्रतिबिंब समाज के अतीत के अध्ययन की प्ररेणा देता है। दुनिया में मानव सभ्यता का विकास लम्बी तथा पीड़ादायक प्रसव वेदना से गुजरा है। यहां उथल-पुथल, आक्रमण, विरोध,हार जीत, पलायन आदि शामिल है। धर्म, संस्कृति, सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक जीवन,स्वभाव, आर्थिक दबाव, शोषण का प्रतिरोध, अस्मिता के लिए संघर्ष आदि ऐसे तत्व हैं जो सभी को एक सूत्र में बांधते हैं।

भारत और पूरी दुनिया में रहने वाले आदिवासी समुदाय के लोग धरती पर प्राचीन काल से रहने वाले मानव समुदाय के वंशज हैं जो नस्ल एवं संस्कृति के स्तर पर विशिष्टता रखते हैं। आज जितने भी मनुष्य संसार में रहते हैं वे सब एक ही प्रजाति के सदस्य हैं। इन्हें “मूल निवासी” भी कहा जाता है। विश्व के लगभग 70 देशों में रहने वाले आदिवासी समुदाय को अलग- अलग नामों से जाना जाता है।

मूल निवासी समाज के सुव्यवस्थित अध्ययन हेतु वर्ष 1984 में डाक्टर रूडोल्फ सी. रायसर एवं जार्ज मेनुअल ने एक स्वतंत्र शोध एवं शैक्षिक संगठन के रूप में “विश्व मूल निवासी अध्ययन केंद्र” की स्थापना किया। 23 दिसम्बर 1994 को संयुक्त राष्ट्र -संघ की साधारण सभा की बैठक में 9 अगस्त को “मूल निवासी दिवस” के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया। मूल निवासियों के उत्थान के लिए वर्ष 1995 से 2004 तक की अवधि को “प्रथम मूल निवासी दशक” एवं 2005 से 2014 तक की अवधि को “द्वितीय मूल निवासी दशक” के रूप में मनाये जाने की घोषणा की गयी। प्रगतिशील लेखकों में डी. डी. कौशाम्बी,डी. पी. चट्टोपाध्याय,भगवत शरण उपाध्यक्ष तथा राहुल सांकृत्यायन ने आदिवासियों को समझने में गहरी दिलचस्पी दिखाई। डॉ. ब्रम्हदेव शर्मा, रामशरण जोशी, कुमार सुरेश सिंह, जी. एन. देवी ने भी आदिवासी जीवन पर चिंतन किया। विदेशी लेखकों में डाल्टन,रिस्ले,थृस्टन,एन्थोवेन,क्रुक,रेमण्ड फर्थ व रसैल ने आदिवासी समाज पर गंभीर शोध व अध्ययन किया।

कथा साहित्य में आदिवासी जीवन से सम्बन्धित देवेंद्र नाथ सत्यार्थी का उपन्यास “रथ के पहिए” 1952 में छपा। इसमेें मध्य- प्रदेश के गोंड आदिवासी जनजीवन को कथावस्तु बनाया गया। वर्ष 1954 में रेणु का उपन्यास “मैला आंचल” प्रकाशित हुआ, जिसमें संथाल आदिवासियों के कुछ प्रसंग हैं। वर्ष 1956 में देवेंद्र सत्यार्थी ने “ब्रम्हपुत्र” लिखा।यह पूर्वोत्तर के आदिवासियों पर आधारित हिन्दी का पहला उपन्यास रहा जिसमें आदिवासियों के जीवन के विभिन्न पक्षों के साथ प्रकृति, बाढ़ और बर्बादी की प्रतीक ब्रम्हपुत्र नदी और उसी को कथा नायिका के रूप में स्थापित किया गया है। सन् 1956 में उदयशंकर भट्ट का उपन्यास “सागर, लहरें और मनुष्य” प्रकाशित हुआ,जो आदिवासी मछुआरों की सामूहिक जिंदगी,समुद्र के साथ उनके संघर्ष और अभावों से जूझते हुए जीवन की साकार अभिव्यक्ति है।

“नट” जैसे समुदाय के क़बीलाई जीवन पर केन्द्रित रांगेय राघव का उपन्यास “कब तक पुकारू” 1957 में प्रकाशित हुआ। 1956 में योगेन्द्र नाथ सिन्हा का “हो” आदिवासी समुदाय पर लिखा “वन लक्ष्मी” उपन्यास सामने आया। इसी दौर में श्री प्रकाश मिश्र द्वारा मिजोरम के आदिवासियों पर लिखे उपन्यास “जहां बांस फूल खिलते हैं”, मनमोहन पाठक की कृति “गगन घटा घहरानी” और तेजिन्दर के “काला पादरी” में आदिवासी जीवन के यथार्थ चित्रण का प्रयास किया गया है। वर्ष 1960 में जयसिंह कृत “कलावे” सामने आया। यह भील आदिवासी समुदाय के जन जीवन पर आधारित है। सन् 1956 में जय प्रकाश भारती द्वारा लिखे उपन्यास “कोहरे में खोये चांदी के पहाड़” में देहरादून के एक अंचल में वास करने वाले पहाड़ी आदिवासियों के “सांस्कृतिक पक्ष” की अभिव्यक्ति हुई है। आदिवासी जीवन के रोमांसीकरण पर आधारित राजेंद्र अवस्थी का उपन्यास “जंगल के फूल” सामने आया।शानी का “कस्तूरी” उपन्यास 1960 में प्रकाशित हुआ। इन्हीं का दूसरा उपन्यास “शाल वनों का द्वीप” 1967 में आया। यह मध्य -प्रदेश के बस्तर के घोर आदि जातीय भू -भाग, अबूझमाड़ और वहां के सामाजिक जीवन पर आधारित है। 1963 में प्रकाशित डॉ. श्याम परमार की कृति “मोर झाल” में भील आदिवासी समुदाय के जीवन का व्यापक चित्रण मिलता है।

इसी प्रकार मणि मधुकर का उपन्यास “पिंजरे में पन्ना”, वस्तुत: खानाबदोश जातियों से ताल्लुक रखता है।यह समुदाय राजस्थान के “गाडिया – लुहारों” का है।शिव प्रसाद सिंह का “शैलूष” भी नटों के क़बीलाई जीवन पर केन्द्रित है। वीरेंद्र जैन का “पार” उपन्यास काफी प्रसिद्ध हुआ। यह भी आदिवासी जीवन की पीड़ा पर केन्द्रित है। राजस्थान व मध्य -प्रदेश के सहारिया आदिवासी जीवन पर केन्द्रित पुन्नी सिंह का उपन्यास “सहराना” 1999 में प्रकाशित हुआ। सहारिया आदिवासियों के शोषण और पीड़ाओं को इस उपन्यास में अभिव्यक्ति मिली है।श्री प्रकाश मिश्र का दूसरा उपन्यास “रूप तिल्ली की कथा” मेघालय के “खासी आदिवासियों” की कहानी है। समकालीन दौर में आई. पी. एस. सेवा से सेवानिवृत्त, राजस्थान के श्री हरिराम मीणा ने अपने लेखन में आदिवासी समुदाय के विभिन्न आयामों को उठाया है। उनकी अनेक पुस्तकें विभिन्न प्रकाशनों से प्रकाशित हैं। “हां चांद मेरा है”, “सुबह के इंतजार” में उनके कविता संग्रह हैं।”धूणी तपे तीर”, उपन्यास है। “जंगल- जंगल जलियांवाला” तथा “साइबर सिटी से नंगे आदिवासियों तक” उनका यात्रा वृत्तांत है। आदिवासियों के चुनिंदा मुद्दों पर विमर्श करती उनकी पुस्तक “आदिवासी दुनिया”, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, से प्रकाशित है।

हिंदी भाषा के अलावा अन्य प्रान्तीय भाषाओं में लिखे गए उपन्यासों में प्रमुख रूप से महाश्वेता देवी द्वारा बांग्ला में लिखे गए “जंगल के दावेदार”,”चेटिमुण्डा व उसके तीर”, “हजार चौरासी की मां” एवं गोपीनाथ महांती (ओड़िया) के “अमृत संतान”,”माटी मराल”,”दाना -पानी”,”परजा’ आदि सामने आते हैं। सन् 1942 के नगा संघर्ष पर केन्द्रित वीरेंद्र भट्टाचार्य का “मृत्युंजय” (असमिया) उपन्यास महत्त्वपूर्ण है। अंग्रेजी कथाकार सरेल का लिखा उपन्यास “एन अमेरिकन इन नगालैंड” काफी चर्चित हुआ।यह “कोन्याक” नगा समुदाय के जीवन से सम्बन्धित कथा है। इसी प्रकार आदिवासी जीवन को केन्द्र में रखकर कहानियां भी लिखी गई हैं। रमणिका फाउंडेशन द्वारा प्रकाशित पत्रिका “युद्ध रत आम आदमी” का इस दिशा में प्रयास सराहनीय है।अब आदिवासी लेखकों ने भी अपनी पीड़ा कलम के माध्यम से लिखनी शुरू कर दिया है। इसी क्रम में मध्य- प्रदेश की राजधानी भोपाल में श्यामला हिल्स पर बने “आदिवासी संग्रहालय” का जिक्र भी समीचीन होगा।इस अदभुत और रोमांचक संग्रहालय में जाने पर आप को सचमुच आदिवासी जीवन और संस्कृति की झलक मिलती है। यहां प्रकाशन भी है। आदिवासी जीवन और संस्कृति तथा उनकी लोककला पर आधारित लगभग 150 से अधिक पुस्तकों का प्रकाशन यहां से किया जा चुका है।

– डॉ. राजबहादुर मौर्य, झांसी


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Dr. RB Mourya:

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