अरुणाचल प्रदेश के संवसीरी जिले के पूर्वी हिमालय की ऊंची बर्फ से ढकी हुई बाहृय श्रृंखला और असम की उप उष्णकटिबंधीय मध्य ब्रम्हपुत्र घाटी के बीचों-बीच “आपातानी” घाटी स्थित है।इसी घाटी के हृदय स्थल में निवास करने वाली आदिवासी क़ौम को “आपातानी” जनजाति के नाम से जाना जाता है। इस जनजाति में अभी प्रागैतिहासिक काल की सभ्यता की झलक शेष है और यह लोग अभी भी अपनी परम्पराओं में जीते हैं।
आपातानी घाटी को “हाखेतारी” के नाम से जाना जाता है। यह घाटी समुद्र तल से 5,754 फ़ीट की ऊंचाई पर स्थित है।इसकी लंबाई 93,952 तथा चौड़ाई 27,032 मीटर है।यह घाटी ऊंची पर्वत श्रृंखलाओं से घिरी हुई है जो इसके निवासियों को पर्याप्त सुरक्षा मुहैया कराती है। यहां पर अनंत शांति का प्रभामंडल है। जहां पर आपातानी जनजाति रहती है वह “टैली घाटी”आठ हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित “हपोली” शहर के उत्तर पूर्व में 32 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मान्यता है कि आपातानी जनजाति के पूर्वज अतीत में कई पीढ़ियों तक यहीं रहे हैं। यहां सर्दी बहुत कड़ी एवं कठिन होती है।आपातानी की इस शांत घाटी में प्रमुख गांव होंग, हारी,तलयांग-कलुंग,रेरू,ताजंग,हिजा,दत्ता,मुदंग-टागे, एवं मिचि-बामिन।इन गांवों को सामूहिक रूप से आपातानी जनजाति के लोग अपनी भाषा में “तलयंग” एवं “हाओ” कहकर पुकारते हैं।ये पवित्र नाम इनके अपने अपने पूर्वजों के नाम से लिए गए हैं।
वर्ष 1991 की जनगणना के अनुसार इस जनजाति की आबादी 20 हजार थी।आपातानी जनजाति के लोगों का रंग गोरा, मध्यम तथा लम्बी कद काठी, घुंघराले खड़े बाल,उभरी हुई गालों की हड्डियां, तिरछी तथा दोहरी फोल्ड की पलकों वाली आंखें होती हैं।यह सब उनके इण्डो- मंगोलियन नस्ल के होने के द्योतक हैं।
आपातानी जनजाति के लोग स्थायी तौर पर बसने वाले,व्यक्तिगत चरित्र वाले, अत्यंत सावधान, सतर्क स्वभाव तथा सांस्कृतिक व धार्मिक विश्वासों में आस्था रखने वाले होते हैं। इनकी बोली तिब्बती-चीनी- बर्मी परिवार की है।इनका सामाजिक ढांचा उनके मानवीय मूल्यों और नियमों के अनुसार तय होता है।आपातानियों की पुरानी अर्थव्यवस्था का आधार कृषि था। इसके अलावा वे शिकार पकड़ना, बुनना,बेंत और बांस का काम, पशुपालन, मुर्गी पालन आदि भी करते हैं। खेती में भी धान, दलहन,मकई, कोहड़ा, तम्बाकू, कालीमिर्च, कागज़,घिया,खीरा,आलू ,अदरक और सेब इत्यादि की फसल होती है। दालों की खेती अलग से सूखी धरती जिसे “यापो” कहते हैं,पर की जाती है।पशुओं और जंगली जानवरों को फंसाने के रास्ते को यह लोग “मारे डिलिंग” कहते हैं।आपातानी जनजाति में कभी भी”मुजारों” की प्रथा नहीं रही है। यहां कृषि की तैयारी पूर्णतः मानवीय श्रम पर आधारित है,पशु श्रम यानी हल पर नहीं।
आपातानियों का धार्मिक ढांचा उनके विश्वासों और आस्था मिथकीय अवधारणाओं पर आधारित हैं। “अबोतानी” आपातानियों का आदि पूर्वज माना जाता है। इनके देवता तीन श्रेणियों में बंटे हुए हैं- गुयनियांग वूही,चालू वूही और टिगो या यारनी वूही। वूही आपातानियों के लिए जातिगत लक्षण है।यह मानते हैं कि कष्टप्रद जीवन “दायो दानी ” (सूरज की माता) और “अतो पिल्लौ” (चंद्रमा का पिता) की अकृपा के कारण होता है। इनके सबसे भयावह देवतागण “दोजी” और “चपुंग” होते हैं जो जंगलों में निवास करते हैं। यही वन सम्पदा की रक्षा करते हैं।आपातानी पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं।
इस समुदाय में “नेहा बुलियांग” ग्रामीण शासन का प्रतिनिधि होता है जो परम्परागत नियमों का पालन कराता है। “नेहा” का शाब्दिक अर्थ “मानवता” है और “बुलियांग” का अर्थ है “परिषद”। यह पद पुरखों की सम्पत्ति माना जाता है। यही व्यक्ति समुदाय में अमन- चैन कायम रखने के लिए उत्तरदाई है।आपातानी जनजाति में सगोत्र विवाह की परम्परा नहीं है। चचेरे तथा मौसेरे भाई बहनों में आपस में विवाह मान्य नहीं है।पति की मृत्यु के बाद उसकी विधवा को अपने देवर या निकट सम्बन्धी से विवाह तथा “सोरोरेट” प्रथा को मान्यता है। इनमें सातों गांव के अन्दर ही वर्ग और स्तर के आधार पर विवाह मान्य होता है।
– डॉ.राजबहादुर मौर्य, झांसी