गोंड भारत और मध्य प्रदेश की सबसे बड़ी जनजाति है। यह मूलरूप से द्रविड़ियन परिवार के माने जाते हैं। गोंड परिवार में नाग की पूजा की जाती है। बड़ा देव,गोंडों के आराध्य हैं। ठाकुर देव उनके ग्राम देवता हैं।
करमा,सैला,भडौनी, बिरहा,कहरवा,सजनी ,सुवा तथा दीवाली गोंडो के पारंपरिक नृत्य हैं। बिदरी,बकबंधी,हरदिली,नवाखानी,जवारा,मडयी तथा छेरता गोंडो के प्रमुख त्योहार हैं। गोंड अपने दैनिक जीवन में जिस भाषा का प्रयोग करते हैं वह गोंडी कहलाती है। उत्तर- प्रदेश में यह पिछड़ी जाति में शामिल है।
मध्य – प्रदेश का ऐतिहासिक नाम ही गोंडवाना है। एक समय गोंडवाना बड़ा राज्य था। अमर शहीद महारानी दुर्गावती गोंड समाज की वीरांगना थीं, जो मध्य प्रदेश के दुर्ग, भिलाई के राजा दलपतशाह गोंड की धर्मपत्नी थीं। एक युद्ध में राजा दलपतशाह के शहीद होने के बाद रानी दुर्गावती ने स्वयं अपने राज्य दुर्ग की कमान संभाली तथा अपने पौरुष और पराक्रम से अपने राज्य का विस्तार किया। तत्कालीन समय में उनका राज्य अति संवृद्धशाली तथा खुशहाल था। कालांतर में मुगलों ने दुर्ग पर आक्रमण कर दिया। बड़ी बहादुरी के साथ लड़ते हुए रानी दुर्गावती ने अपनी कुर्बानी दी।इस युद्ध में उनका एकमात्र बेटा नारायण भी मारा गया। आज भी गोंड समाज महारानी दुर्गावती को बड़े सम्मान के साथ याद करता है।
श्री स्वामी प्रसाद मौर्य हमेशा ही गोंड समाज के सुख दुःख के साथी रहे हैं। समय समय पर वह उनके बीच पहुंचते हैं तथा उनकी समस्याओं के निराकरण का भरपूर प्रयास करते हैं। दिनांक 4.07.2010 को टाऊन डिग्री कॉलेज, सिविल लाइंस, जनपद बलिया में आयोजित महारानी दुर्गावती की पुण्यतिथि के कार्यक्रम में श्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने हिस्सा लिया। उन्होंने गोंड समाज को सम्बोधित करते हुए कहा कि “गोंड समाज एक ऐसा समाज रहा है जिसने कभी भी अपने मान,सम्मान और स्वाभिमान से समझौता नहीं किया है। कभी भी जुर्म,अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध जंग में गोंड समाज ने पीठ नहीं दिखाई,भले ही इसके लिए उसे कितनी ही कुर्बानी क्यों न देनी पड़ी हो। परंतु आज यह समाज गरीबी, बेरोजगारी, निरक्षरता, बीमारी एवं भूमिहीनता से ग्रस्त है। जिसका निराकरण जरूरी है।” श्री स्वामी प्रसाद मौर्य हमेशा उन्हें कुरीतियों से दूर रहने तथा बेहतर शिक्षा के लिए प्रेरित करते हैं।
देवेन्द्र नाथ सत्यार्थी का सन् 1952 में छपा उपन्यास”रथ के पहिए” का कथानक गोंड आदिवासी जन जीवन पर आधारित है।
– डॉ. राजबहादुर मौर्य, झांसी
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