“जयंतिया” आदिवासी समुदाय…

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मेघालय की आदिवासी जनजातियों में “जयंतिया” भी प्रमुख क़ौम है। यह जनजाति जयंतिया की पहाड़ियों में रहती है। यह खासी पहाड़ियों का ही एक भाग है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार “जैन्तिया” जनजाति की आबादी तीन लाख थी। ब्रिटिश शासन काल में इसके आसपास रहने वाली अन्य जनजातियां जिसमें वार,भोई तथा लिंगन्गम प्रमुख थे, सभी खासी और जयंतिया कहलाते थे। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद उन्हें खासी -जयंतिया या खासी -प्नार कहते हैं।

“राजतरंगिणी” में “खस” नामक एक पहाड़ी जाति का उल्लेख मिलता है। यह लोग मुख्य रूप से दक्षिणी कश्मीर के पर्वतों पर रहते थे जहां उनके वंशज आज भी मिलते हैं। जयंतिया आदिवासी समुदाय के लोग ईमानदार होते हैं तथा मर्यादित रूप से व्यवहार करते हैं।अपना काम करना और उसी में जीना उनकी नियति है। उनके जीवन का सूत्र है “सदाचारी बनो”। अपने माता-पिता और संबंधियों को जानो। इनके यहां एक ही पुत्री के सदस्यों में वैवाहिक बंधन अक्षम्य पाप माना जाता है। महिलाओं का समाज में सम्मान जनक स्थान है। इस समाज की मान्यता है कि प्रत्येक दिन प्रार्थना का दिन है।अच्छे विचार, वचन और कर्म ,ईश्वर को अर्पण के लिए दिन की क़ैद नहीं है। खासी जैन्तिया लोकाचार के परिचायक हैं और इनसे उनके आत्म सम्मान, आत्मनिर्भरता, सहिष्णुता और सूझबूझ जिससे उनका परोपकारी,विचारवान और मिलनसार स्वभाव का पता चलता है। उनके स्वभाव की यह विशेषता तथा प्रदेश की सुंदरता और भव्यता दूर दूर के आगंतुकों, अपने देश वासियों तथा विद्रोहियों को अपने आकर्षक में बांधती है।

जैन्तिया जनजाति का प्रमुख त्योहार “बेहदेइनखिलाम” है। यह रंगारंग त्योहार फसल की बढ़िया पैदावार की कामना के साथ जुलाई माह में मनाया जाता है। चार दिनों तक चलने वाले इस “बेहदेइन” का मतलब है डंडे से मार भगाना तथा “खिलाम” का अर्थ है प्लेग या महामारी। इसमें ढोल और बांसुरी की धुनों पर नृत्य होता है जिसमें केवल पुरुष भाग लेते हैं।वह पूरे शहर का चक्कर लगाते हैं और प्रत्येक घर की छत पर चढ़कर डण्डा पीटते हैं। इस उत्सव का अंत दो समूहों के बीच रस्साकसी के एक खेल से होता है। इससे अलावा भी विभिन्न प्रकार के नृत्यों की परम्परा जैन्तिया जनजाति में पायी जाती है।

जैन्तिया पश्चिमी खासी और दक्षिणी गारो की पहाड़ियों में बाटनी के अजूबे कीट भक्षी पौधे जिन्हें पिचर-प्लांट कहते हैं, भी मिलते हैं।यह पौधे विश्व में और कहीं भी नहीं मिलते।पिचर प्लांट का रस औषधि के काम आता है। जंगली तुरंग और बौनी लिली जैसे दुर्लभ पौधे भी मेघालय में पाये जाते हैं। कुनाल पक्षी और लवा चिड़िया भी यहां पायी जाती है।कुपली नदी जैन्तिया पहाड़ियों और उत्तरी कछार की पहाड़ियों के बार्डर के बीच बहते हुए उत्तर दिशा की ओर जाती है। ब्रिटिश शासन काल में शिलांग भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी भी रह चुकी है।

भारत का प्रथम नेशनल साइट्स पार्क यहीं पर है जिसे स्थानीय लोग मी मांग नारंग भी कहते हैं।सारे उत्तर पूर्वी राज्यों में मेघालय ही ऐसा राज्य है जहां मातृ- सत्तात्मक परम्परा प्रचलित है।इन आदिवासियों की जीवन शैली को यहां के नृत्य, संगीत और खेलकूद विशिष्ट रूप से प्रतिबिंबित करते हैं और उसके उत्सवों के आनंद का कोलाहल पहाड़ी -दर- पहाड़ी गूंजते हुए आदिवासियों की जीवन्त जिंदगी की धड़कन को दर्शाता है।

डॉ. राजबहादुर मौर्य, झांसी


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Dr. RB Mourya:
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