अथाह और अपार सागर के बीच अनुपम सौन्दर्य से परिपूर्ण अण्डमान और निकोबार द्वीप समूह स्वप्नलोक जैसे हैं। चारों ओर फैली हरियाली व पहाड़ों की ढलानों पर बने सुन्दर बंगले अत्यंत सुन्दर दिखते हैं। परंतु देश की आजादी के दौर में इस द्वीपसमूह को “काला पानी” के नाम से जाना जाता था। यहां का भयावह वातावरण, पेयजल का अभाव व प्रतिकूल जलवायु में कैदी घुट -घुट कर मर जाया करते थे। यहां की सेल्युलर जेल को स्वतंत्रता-संग्राम का विश्वविद्यालय कहा गया है। भारत माता के चरणों में अपना सर्वस्व न्यौछावर करके हजारों अमर सपूतों ने अपने जीवन का प्रभात काले पानी की इस कुख्यात जेल की काल कोठरियों में व्यतीत किया है। कमल के फूल की पंखुड़ियों की तरह सात भुजाओं वाली तिमंजिली यह जेल पोर्ट ब्लेयर में है। इस कारागार की 698 कोठरियां मुख्यत राजनीतिक बंदियों के एकांतवास के लिए बनायी गई थीं। एकांत कोठरी को अंग्रेजी में “सेल” कहते हैं। इसीलिए इसे “सेलूलर जेल” कहा गया। सन् 1874 में यहां 7820 पुरुष और 895 महिला आजन्म कैदी थे। इसका निर्माण कार्य 1896 में प्रारम्भ हुआ और 1906 में पूरा हुआ। दिसंबर 1943 के अंत में नेता जी सुभाष चन्द्र बोस अंडमान आये थे। उन्होंने अंडमान का नाम बदलकर “शहीद द्वीप” तथा निकोबार का नाम “स्वराज द्वीप” किया था। अंग्रेजी शासन काल में इन द्वीपों की शिक्षा व्यवस्था रंगून के अधीन थी।
अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह के द्वीप 6 अंश तथा 14 अंश उत्तरी अक्षांश एवं 92 तथा 94 अंश पूर्वी देशांतर के मध्य स्थित हैं। बंगाल की खाड़ी में यह 780 किलोमीटर समुद्र में फैले हुए हैं।रोमन यात्री क्लाडियस प्लोटमी ने इन्हें “सौभाग्य पूर्ण” द्वीप की संज्ञा दी थी। कोरियन यात्री इत्सिंग तथा मार्को पोलो ने भी इन द्वीपों का वर्णन किया है। अंडमान और निकोबार द्वीप का क्षेत्रफल क्रमशः 6340 वर्ग किलोमीटर तथा 1953 वर्ग किलोमीटर है। द्वीपों की राजधानी “पोर्ट ब्लेयर” है जो कि कोलकाता से 1255 किलोमीटर तथा मद्रास से 1190 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।इन द्वीपों की जलवायु ऊष्ण व नम है। वर्षा की सालाना औसत 3200 मिली मीटर है। यहां विशाल घने वन हैं। यहां दुर्लभ पक्षी “मैगापौड” पाया जाता है। मछलियां बहुतायत में मिलती हैं। यहां अन्नानास बहुत सफलता पूर्वक उगाया जाता है। निकोबार में नारियल की अत्यधिक पैदावार है।ग्रेट निकोबार के समीप समुद्र का पानी विषुवत रेखा के समीप होने के कारण गरम रहता है।इस भाग में “त्यूना” मछली के विशाल भंडार हैं।
“जारवा” आदिवासी समुदाय दक्षिण व मध्य अंडमान के बीच रहते हैं।मानव विज्ञानी इनका वर्गीकरण “नीग्रो” जाति के अंतर्गत करते हैं।जारवों की संख्या क्या होगी इस सम्बंध में अभी तक कोई विश्वसनीय गणना नहीं हो पाई है। अंग्रेजी शासन काल में इनकी जनगणना के लिए विशेष अभियान भेजे गए थे परन्तु उन्हें विशेष सफलता नहीं मिली। मोटे तौर पर इनकी जनसंख्या 100 या 200 के बीच आंकी गई है। जारवा आदिवासियों में अत्यंत स्नेह,प्रेम तथा सत्यनिष्ठा पायी जाती है। सामूहिक स्वामित्व, परस्पर सहयोग तथा अतिथि सत्कार इनके गुण हैं। यद्यपि यह शाकाहारी तथा मांसाहारी दोनों होते हैं तब भी हिरन को नहीं मारते और न ही उसका मांस खाते हैं। हिरन इनके आवासों पर शरण लेते हैं तथा पालतू जानवरों की तरह इनके पास रहते हैं।जारवों का पूरा जीवन रीति-रिवाजों पर आधारित है।यह बहुत ही मस्त मौला तवियत के लोग हैं। अभाव में जीकर भी चिंता मुक्त रहते हैं। जारवा आदिवासी तीर चलाने में पारंगत होते हैं तथा इनका निशाना अचूक होता है। यह प्राय:नग्न रहते हैं।
जागरूकता तथा नागरिक समाज के सम्पर्क के अभाव में संक्रामक रोगों ने इन्हें समाप्ति के कगार पर पहुंचा दिया है। यह लोग अभी भी खुंखार बने हुए हैं तथा प्रशासन द्वारा मित्रता व सद्भभाव के संकेतों को सदैव ठुकराते रहते हैं। इनके जीवन यापन का मुख्य स्रोत समुद्री भोजन, मछली,जंगली सूअर, कंदमूल तथा शहद है। यह लोग भोजन की तलाश में जंगल तथा समुद्र तट पर पूर्णतया नग्न अवस्था में विचरण करते रहते हैं। यह बहुत कुशल तैराक होते हैं। यदि कोई उनके पानी के स्रोत या शिकार गाह से छेड़छाड़ करे या उनके इलाके में जंगली सूअर को मारे तो वह उनकी शत्रुता का शिकार बन जाता है। लोगों को इस क्षेत्र में अवैध रूप से जाने से रोकने के लिए एक विशेष पुलिस दस्ते का गठन किया गया है, जिसे “बुश” कहते हैं।
जरावा आदिवासी समुदाय में बाहर के लोगों के प्रति बहुत अधिक अविश्वास है। आज भी उनकी दुश्मनी यथावत है।
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