बोड़ो आदिवासी समुदाय…

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पूर्वोत्तर भारत की ब्रह्मपुत्र घाटी के उत्तरी तथा पूर्वी बंगाल में फैले बोड़ो मंगोल नस्ल के हैं। वर्तमान में यह असम, मेघालय, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, नागालैण्ड, बंगाल और बिहार में तथा अन्य देशों जैसे नेपाल और भूटान में भी रहते हैं।इनका प्रमुख पेशा खेती है।

जलोढ़ मृदा से निर्मित समतल मैदान यहां हम-हा कहलाता है, जिसका अर्थ है- मिट्टी की मां। झूठ बोलने के डर से यह व्यवसाय करना पसंद नहीं करते हैं। असम के बोरो लोगों का मुख्य भोजन चावल है। इसके अतिरिक्त जानवरों का मांस तथा मछली भी खाते हैं। उनके प्रिय पेय पदार्थों में चावल की शराब है जो “मध” या “जौ” कहलाती है। सामाजिक उत्सवों के अतिरिक्त देवी देवताओं को प्रसन्न करने हेतु भी इसका प्रयोग किया जाता है। हास्रा हा, सराब दारिया हा, जामफाइ दारिया हा यहां जमीन की किस्मों के नाम हैं। माइसालि,बावा तथा आसु चावल की प्रजातियां हैं। जूट तथा सरसों व दालें भी उगाई जाती हैं। बोड़ो जीवन में सुपारी की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। कोई भी सामाजिक त्योहार या रस्म सुपारी अथवा पान के बगैर पूरी नहीं होती है। इन्दि या मूंगा पालन भी बोड़ो परम्परा में शामिल है। बोड़ो स्त्रियां दक्ष बुनकर होती हैं। बोड़ो लोग उच्च श्रेणी के एंडी,मूंगा तथा रेशम का उत्पादन करते हैं। धूम्रपान यहां आम बात है। हिरन तथा शूकर मांस को सुखाकर वे लम्बे समय तक इस्तेमाल करते हैं।अंडला खरी बोरो का प्रिय भोजन है।

बोड़ो समूह के लोगों को महाकाव्यों और प्राचीन साहित्य में किरात या म्लेच्छ के रूप में वर्णित किया गया है। एक समय में यह लोग पश्चिमोत्तर एवं पूर्वोत्तर भारत पर शासन करते थे।बोड़ो भाषा न केवल बोडोलैंड क्षेत्र बल्कि असम, पश्चिम बंगाल, मेघालय और नगालैंड में बसने वाले 40 लाख से अधिक लोगों की भाषा थी। यह तिब्बती- बर्मी भाषा परिवार की सभी भाषाओं में सबसे विशिष्ट, सबसे शक्तिशाली और सबसे अधिक समृद्ध है।बोड़ो भाषा की अपनी लिपि नहीं है। यह देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। इस भाषा को बोड़ो नाम बार एक अंग्रेज हाॅग्सन ने दिया था। विश्व में प्रथम स्थान इण्डो-यूरोपियन भाषा-भाषी लोगों का है। दूसरा स्थान तिब्बती-चीनी भाषा बोलने वालोें का है। इसमेें चीन, तिब्बत, थाईलैण्ड, बर्मा,उत्तरी इण्डो चाइना, मनचूको और सिकियांग है। 13 वीं से 16 वीं शताब्दी के दौरान दीमापुर में बोड़ो राजाओं का शासन था।

वे अपने आदिवासी स्वभाव के अनुसार “बाथौ” या शिव की उपासना करते थे। इनकी राजधानी तेजपुर के निकट ब्रम्हपुर में थी। दीमापुर के प्रसिद्ध स्तम्भों के बारे में कहा जाता है कि इतनी उत्कृष्ट कारीगरी केवल गहन आध्यात्मिक तथा धार्मिक प्रेरणा से ही संभव है। बोड़ोजनो से प्राप्त अभिलेख तथा चित्रकारी, हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई में मिली कला से मिलती जुलती है। काष्ठ एवं बांस पर शिल्पकारी उनकी परम्परा रही है। यह लोग प्रसिद्ध मूर्तिकार भी थे। बोड़ो रंग प्रेमी होते हैं। पीला रंग इनका सबसे पसंदीदा रंग है।

आज बोड़ो समुदाय के पास प्रचुर मात्रा में साहित्य है। गाथा काव्य के लिए यह खुगामेथाई शब्द का प्रयोग करते हैं।खुगा का अर्थ मौखिक और मेथाई का अर्थ गीत है। 1963 से बोड़ो भाषा को विद्यालयों में शैक्षिक माध्यम के लिए मान्यता प्राप्त हो गई है। 1985 से इस भाषा को असम राज्य की एसोसिएट स्टेट लैंग्वेज आफ असम के रूप में प्राधिकृत किया गया है। इससे पहले 16 नवम्बर 1952 से अस्तित्व में आई बोड़ो साहित्य सभा ने बोरो जनों की प्रतिभा, रचनात्मकता तथा लेखन अभिरुचियों को प्रोत्साहित किया है। पुतली हाबा या जाली फुथली बोड़ो समुदाय का धार्मिक अनुष्ठान है। बाथौ इनका सर्वोच्च देवता है। सिब्राय प्रमुख सृष्टि कर्ता देव है। यह लोग सर्प को सृष्टि का प्रतीक मान कर पूजा करते हैं।

बैसागू इनका उत्सव एवं उल्लास का त्योहार है। यह बसंत ऋतु में मनाया जाता है। इस अवसर पर बोड़ो लोग झूम कर मस्ती से नाचते हैं,गाना गाते हैं। चावल से बनी बियर पीते हैं। इनका औसत कुनबा चार घरों का होता है। सेरजा (तारयुक्य वाद्ययंत्र), सिफुंग (पांच छिद्रों वाली बांसुरी), खाम (बड़ा ढोलक) तथा जोथा इनके प्रमुख वाद्ययंत्र हैं। खेराई उत्सव बोड़ो ग्रामीणों की आशा और आकांक्षाओं का प्रतीक है। यह क़ौमी एकता का त्योहार माना जाता है। यह बोरो जनों की पहचान और अस्तित्व से गहरे से जुड़ा हुआ है। इससे स्पष्ट होता है कि बोड़ो समाज नहीं बल्कि एक अलग धर्म है जिसका मानवतावादी अपना पृथक गहन दर्शन है। एक अलग प्रकार का विशुऊ नृत्य भी है। अन्य नृत्यों में थाखरी फालाह, दावदई, बगुरूम्बा तथा नशीना भी है जो विभिन्न अवसरों पर होते हैं।

वस्तुत: भारत में जनजाति की अवधारणा एक प्रशासनिक,न्यायिक और राजनीतिक अवधारणा है जिसे जनसंख्या के उन वर्गों पर लागू किया जाता है जो अपेक्षाकृत अलगाव झेल रहे हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 342 के अनुसार राष्ट्रपति और संसद द्वारा यह जनजातियां अनुसूचित हैं। यह जाति प्रथा से बाहर हैं। यह परिभाषित करना कठिन है कि जनजाति क्या है और जनजातीय (आदिवासी) कौन है ? सर्वप्रथम 1872 में ब्रिटिश शासकों ने भारत के कुछ चुने हुए समुदायों का वर्णन करने के लिए इस शब्द का प्रयोग किया। तभी से यह चलन में आया। जनजातियों को बिना किसी कटुता के न्याय दिया जाना चाहिए। जिसके वे हकदार हैं।

– डॉ. राज बहादुर मौर्य, झांसी


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Dr. RB Mourya:
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