“भील ” नाम द्रविड़ भाषा परिवार के अन्तर्गत कन्नड़ के “बील”शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ है- धनुष। आदिम विश्वासों में जीने वाले भील समुदाय के लोग अपने धनुष कौशल में कोई सानी नहीं रखते। इसी लिए इनका नामकरण भी इनके गुण के आधार पर हुआ। वर्तमान में भीलों का वास मध्य- प्रदेश, गुजरात, राजस्थान व महाराष्ट्र राज्यों में प्रमुख रूप से है।
मध्य- प्रदेश के पर्वतीय वनखंडों में में भीलों का विस्तार अधिक है। यहां झाबुआ,पश्चिम निमाड़,धार और रतलाम जिलों में भीलों की बस्तियां हैं। सन् 1991 में झाबुआ में भीलों की जनसंख्या 9,68,372,धार जिले में 7,31,272 और पश्चिम निमाड़ में 9,37,710 थी। भीलों का शरीर सुगठित होता है। भील देखने में सुंदर तथा ताम्र वर्णी होते हैं। आंखें भूरी और काली होती हैं। चेहरा गोल और नाक- नक्श सुडौल होते हैं। दांत सुन्दर और मजबूत होते हैं। निर्धनता के कारण भील बहुत ही कम कपड़े पहनते हैं। एक लंगोटी में जीवन – यापन करते रहते हैं। भील पुरुष कानों में मूंदडे, कर्ण बालियां (टोटवा), गले में सांकल,हाथ में चांदी के कड़े,भुजा में हठके तथा पांव में बेड़ी पहनते हैं।स्त्रियां शिर में बोर,राखडी,छिवरा,झेला,बस्का,कान में टोकड़ी झांझर,नाक में कांटा नथ, गले में तागली हार,गलसन,जरबंद,हाथ में हटका, करोंदी,कावल्या, उंगलियों में मुंदरी, पैरों में बाकडिया,रमजोल,लंगर लोड तोडा,पावलिया, बिछिया आदि पहनती हैं।
भीलों का रहन-सहन बहुत ही सादा है। ग़रीबी के कारण बिछाने के लिए सिर्फ गोदड़ी और ओढ़ने के लिए कम्बल होता है। अनाज रखने के लिए बांस से बनी हुई कोठी होती है, जिसे “कनगी ” कहते हैं। अनाज पीसने के लिए घट्टी, झाड़ने के लिए सूपा, उड़ाने के लिए “टोपली” होती है। पानी के बर्तन लकड़ी के मांच पर रखते हैं,जिसे “मुहालदा ” कहते हैं। राबड़ी भीलों का मुख्य भोजन है। ताड़ी और शराब का सेवन करते हैं। धनुष बाण भीलों की मुख्य पहचान है। अंधेरे में भी तीर का निशाना लगाने में कुशल होते हैं। भील धनुष को धनली या “कामठी ” कहते हैं।बाण को “बिल्खी ” कहते हैं। एकलव्य भील समुदाय का कुशल धनुर्धर था। जिसने गुरु दक्षिणा में अपने दाहिने हाथ का अंगूठा काट कर दे दिया था। भील पगड़ी पर “गोफन “भी बांधते हैं जिसका निशाना अचूक लगता है।
भील आदिवासी समुदाय चार वर्गों में विभक्त है- भील,भिलाला,पटलिया और रांठ। यहां भी गोत्र परम्परा है। भील वर्तमान में जिस बोली का उपयोग करते हैं उसे भीली कहते हैं। आदिवासियों में संस्कृति और परंपराएं जीवन की वास्तविकताएं हैं। पुत्र को भील कुलदीपक मानते हैं। यहां शादी – ब्याह में मध्यस्थता करने वाले व्यक्ति को “भांजगडिया “कहते हैं। यहां वर, वधू का मूल्य चुकाता है जिसे “दापा ” कहते हैं। गांव के लोग और सगे संबंधी वधू को रूपए पैसे,जेवर आदि देते हैं, इसे भील “ओगी “कहते हैं। भीलों में जन्म के बाद बारह वर्ष की उम्र में लड़कों की कलाइयों और भुजाओं में आग से तपी हुई लोहे की धातु से दाग लगाया जाता है। लड़कियां गुदना गुदवाती हैं। भील तंत्र मंत्र पर अधिक विश्वास करते हैं। अधिकतर बीमारियों का इलाज जड़ी – बूटियों से स्वयं करते हैं।”बडवा “भीलों का डाक्टर होता है।
भीलों के पारंपरिक त्योहार हैं- आखातीज,होवण माता की चलावणी,सावण माता की जातर,दिवासा,नवयी,नवणी, भगोरिया,गाय गोहरी इत्यादि। झाबुआ के आस -पास भीलों में गल भरने की पृथा है। यह मनौती पर्व है।”डोहा” मानता से संबंधित उत्सव है। पटेल, तडवी,डाहला, पुजारा और बडवा गांव के सम्मानित व्यक्ति होते हैं। “कोटवार” गांव का चौकीदार होता है। भीलों का जीवन खेती और मज़दूरी पर आधारित है। चोरी करना पाप माना जाता है।
भील जीवन को सबसे अधिक प्रभावित किया है- संगीत, नृत्य – कला ने। कोमल लय के साथ गीत के मधुर बोल जब फूटते हैं,वाद्यों के ताल उभरते हैं तो शरीर से थके,वृद्ध के कांपते पांवों में भी थिरकन मचलने सी लगती है।हर भील झूमने लगता है। भगोरिया, डोहिया, गहर, डोहो, गरबी, वीरबाल्या इनके प्रमुख नृत्य हैं। ढोल, मांदल, कुंडी, ढांक, बांसुरी, अलगोझा, केंदरिया, कामडी और थाली वाद्ययंत्र हैं। सांस्कृतिक सम्पन्नता से परिपूर्ण भील आदिवासी समुदाय विकास की बाट जोह रहा है। इसे इंसाफ की दरकार है।
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आदिवासी समुदाय बहुत ही संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं, सरकार और समाज को उनकी स्थिति में परिवर्तन हेतु ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है।