“राभा” असम की एक प्रमुख आदिवासी क़ौम है, जिसका संबंध मंगोल वंश से माना जाता है। राभा समुदाय के लोग असम के अलावा पश्चिम बंगाल, नेपाल और उत्तरी बांग्लादेश में रहते हैं। 1911 में पश्चिम बंगाल में इस समुदाय के लोगों की संख्या 722 थी जो 1951 में बढ़कर 6053 हो गई थी। मान्यता है कि प्राचीन काल में राभा समुदाय के लोग तिब्बती क्षेत्र से ब्रम्हपुत्र की घाटी तक पहुंचे।बाद में वे गारो पर्वतीय इलाके में गए। बाद में यह लोग मैदानी इलाकों में उतर आए।
इस जनजाति को कहीं कोंच और कहीं राभा नाम से जाना जाता है। यह भी मान्यता है कि कोंच लोगों का मूल निवास स्थान चीन का कुचा प्रान्त था, इसीलिए उन्हें कोंच कहकर पुकारा गया। विद्वानों का मत है कि अलग-अलग समय में कोंच लोगों को अलग -अलग नामों से पुकारा जाता रहा है। ऋग्वेद में उन्हें कवच, कुवाच, कुवच आदि नामों से पुकारा जाता था। प्राचीन संस्कृत में बर्बर लोगों के लिए “कुवाच” शब्द का प्रयोग किया गया है। किंवदंती है कि जो कोच पहाड़ों पर रहते थे वे “पानी कोच ” कहलाए और बाद में उनकी पहचान राभा के रूप में बनी। राभा समुदाय कई श्रेणियों में बंटा हुआ है जिसमें रंगदानी, माईतरी, पाती, हाना, दाहरी, तोटेला, बितकीया, सौंगा तथा कोंच प्रमुख हैं।कोंच समुदाय को “सोंगा” नाम से भी पुकारा जाता है। राभा समुदाय की अपनी भाषा है,जो बोडो भाषा से बिल्कुल अलग है।
राभा समुदाय में “बाराई” प्रथा प्रचलित है।बाराई का अर्थ गोत्र है, जो मातृपक्ष से सम्बन्धित होता है। मां का गोत्र ही संतान का गोत्र होता है। सम्पत्ति के बंटवारे के समय पिता की सम्पत्ति पुत्र को मिलती है और मां की सम्पत्ति पुत्री को। संतान मां की उपाधि को ही धारण करती है। माता – पिता को बराबरी का दर्जा दिया गया है। इस समुदाय में विवाह की तीन शैलियां हैं- नोक धांगे,क्रांची भरी,जांग्य धांकाय और भरिसिंगे। एक ही गोत्र में विवाह वर्जित है। राभा समुदाय में पूजा की मुख्य शक्ति अधिष्ठात्री देवी “बायखो” मानी जाती है। “रंटक” या लक्ष्मी देवी की भी उपासना की जाती है। “लांगा” देवता राभा लोगों के प्रमुख देवता हैं। राभा महिलाएं बुनाई कला में निपुण होती हैं। इनकी पोशाकों के नाम हैं- रौफान,काबांग और खदाबांग। पुरुषों की पोशाकों में प्रमुख हैं- पाजार,खोसने और आंगसा। इस समुदाय की महिलाओं में लेडी राभा,आपेवा राभा,अप्रीका राभा तथा अमीया राभा को बुनाई में उत्कृष्टता के लिए राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत किया गया है।
राभा समुदाय की परम्पराएं उनके लोकगीतों, लोककथाओं, दैनिक जीवन चर्या, सामाजिक सम्बन्धों एवं उनकी भाषा तथा साहित्य में बखूबी परिलक्षित होती हैं।किसी प्राचीन लिपि के अभाव में राभा लोग साहित्य के मौखिक रूप का ही प्रयोग करते रहे हैं। 20 वीं शताब्दी के प्रारंभ काल में ही राभा लिखित साहित्य का विकास आरंभ हुआ। 1961-62 में इनकी साहित्यिक पत्रिका “बांदूग दूप्पा” निकली जिसका सम्पादन समर सिंह ने किया। 1978-1982 में “चामपाई” पत्रिका निकली। इसके बाद गीत, कविता और नाटकों का मंचन प्रारम्भ हुआ। होइमारु गीत,बाखरा गीत झाकुआ पूजा में गाये जाते हैं। चलुआ,निलाश्वरी, बार कम्ला,आलीकरम तथा बिसकरम लोककथाओं पर आधारित गीत हैं।
पिछड़ापन, जातीय पहचान का लोप, जनजातीय संस्कृति के रक्षार्थ आम जन को आगे आने का आह्वान आदि कुछ बिंदु हैं जो इस युग की कविताओं की प्रमुख विषय वस्तु रहे हैं। राभा साहित्य के उत्थान में असम राभा सम्मिलन एवं राभा युवक संघ जैसे संगठनों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर यू .एन. ओ. हिमालयन लैंग्वेज सिम्पोजियम ने राभा भाषा के सम्बन्ध में सराहनीय कार्य किया है। राभा समुदाय के लोगों ने अपनी पहचान असम के एक जनजातीय समाज के रूप में अभी तक संरक्षित रखी है।ऐसी संभावना है कि रेन्दु-बेन्दू पर्वतों की चट्टानों पर खुदे शिलालेख राभा लिपि के सबसे प्राचीन उदाहरण हो सकते हैं।
राभा समाज में कई तरह के अंधविश्वास प्रचलित रहे हैं किन्तु अब शिक्षा की रौशनी राभा समाज में भी फ़ैल रही है और परिवर्तन हो रहा है।जो धीरे-धीरे उनके पिछड़ेपन को दूर करेगी।राभा भाषा की पढ़ाई का काम शुरू हो गया है।निकट भविष्य में वह भी देश की मुख्य धारा में शामिल होंगे,ऐसी आशा तथा विश्वास है।
– डॉ. राजबहादुर मौर्य, झांसी
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