– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर-प्रदेश) email : drrajbahadurmourya @ gmail.com, website : themahamaya.com
1- सामाजिक आन्दोलन वह प्रक्रिया है जिसमें बहुत सारे लोग कोई सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए या किसी सामाजिक प्रथा या प्रवृत्ति को रोकने के लिए एकजुट और सक्रिय हो जाते हैं या वे किसी सामाजिक लक्ष्य की सिद्धि के लिए एक ही दिशा में चल पड़ते हैं । सामाजिक आन्दोलन शब्द का प्रयोग सबसे पहले फ़्रांसीसी दार्शनिक सेंट साइमन (1760- 1825) ने अठारहवीं शताब्दी के अंत में किया था । उसका तत्कालीन उद्देश्य सामाजिक विरोध के आन्दोलनों का संकेत देना था । वस्तुतः सामाजिक आन्दोलन बहुत सारे लोगों के द्वारा किसी सामाजिक उद्देश्य के प्रति चलाया जाता है जिसमें लोग खुद की प्रेरणा से सम्मिलित होते हैं । उनमें स्वाभाविक नेतृत्व का उदय होता है तथा आम लोगों की सहभागिता होती है
2- अधिकांश सामाजिक आन्दोलन किन्हीं विशिष्ट वर्गों और सत्ताधारियों के विरूद्ध चलाए जाते हैं । कामगार आन्दोलन, उपभोक्ता आन्दोलन और नारीवादी आन्दोलन क्रमशः कामगारों, उपभोक्ताओं और स्त्रियों को न्याय दिलाने के लिए चलाए जाते हैं जबकि शांति आन्दोलन और पर्यावरणवादी आन्दोलन मानव मात्र के हित में चलाए जाते हैं । मादक द्रव्य सेवन के उन्मूलन से जुड़ा आन्दोलन पुलिस और जनता के सहयोग से चलाया गया है और पोलियो उन्मूलन के लिए टीकाकरण का आन्दोलन सरकार और जनता के सहयोग से चलाया गया है । इस प्रकार सामाजिक आन्दोलन सार्वजनिक नीति और निर्णय की प्रक्रिया में जनसाधारण की सहभागिता का ऐसा उपकरण प्रस्तुत करते हैं जो राजनीतिक दलों और हित समूहों की गतिविधियों से बाहर तो हैं परन्तु फिर भी अत्यंत प्रभावशाली है ।
3- सामाजिक आन्दोलन के सिद्धांतों में पॉंच प्रमुख सिद्धांत माने जाते हैं । पहला है : सामाजिक उथल-पुथल के परिणाम का सिद्धांत । इस सिद्धांत के प्रवर्तक नील जे. स्मेलर हैं । उन्होंने वर्ष 1962 में प्रकाशित अपनी पुस्तक पुस्तक थ्योरी ऑफ कलैक्टिव बिहैवियर के अन्तर्गत लिखा है कि जब सामाजिक परिवर्तन बहुत तीव्र गति से होते हैं और समाज संरचनात्मक तनाव से ग्रस्त होता है तब सामाजिक आन्दोलन का आविर्भाव होता है । जब तीव्र सामाजिक परिवर्तन के कारण सामाजिक प्रणाली अपने आप को नहीं सम्भाल पाती तब हड़तालों, सामूहिक हिंसा और सामाजिक आन्दोलनों का दौर शुरू हो जाता है । यह सिद्धांत सामाजिक आन्दोलन के ध्वंसात्मक पक्ष पर ध्यान केंद्रित करता है और उसके रचनात्मक पक्ष की अनदेखी करता है ।
4- सामाजिक आन्दोलन का दूसरा सिद्धांत राजनीति के वैकल्पिक साधन का सिद्धांत है । इस सिद्धांत के प्रवर्तक डी. मैकऐडम ने वर्ष 1988 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ए हैंडबुक ऑफ सोश्योलॉजी में सामाजिक उथल-पुथल के सिद्धांत का खंडन करते हुए यह विचार रखा कि सामाजिक आन्दोलन को सामाजिक असामान्यता की अभिव्यक्ति मानना युक्तिसंगत नहीं है, यह केवल राजनीति का एक वैकल्पिक साधन है । जब कोई शक्तिहीन समूह प्रचलित व्यवस्था को चुनौती देना चाहता है तो उसके पास यही एकमात्र तरीक़ा रह जाता है । जब संगठित विरोध के बल पर राजनीतिक प्रणाली पर प्रहार किया जा सकता हो या उसकी सोई हुई चेतना को जगाया जा सकता हो, तब सामाजिक आन्दोलन का जन्म होता है ।
5- सामाजिक आन्दोलन का तीसरा सिद्धांत पराराष्ट्रीय सम्पर्क का सिद्धांत है ।इस सिद्धांत के प्रवर्तक एंथनी गिडेंस हैं ।उन्होंने वर्ष 1990 में प्रकाशित अपनी पुस्तक द कांसिक्वेंसेज ऑफ मॉर्डर्निटी के अंतर्गत लिखा है कि अनेक समकालीन सामाजिक आन्दोलन विश्वव्यापी सामाजिक सम्बन्धों का परिणाम हैं । जब दूर-दूर तक फैले हुए स्थानों के लोग एक दूसरे के सम्पर्क में आते हैं तो एक देश में होने वाली घटनाएँ दूसरे देशों को भी प्रभावित करने लगती हैं । अत: जो मूल्य और मान्यताएँ विश्व के एक हिस्से में प्रचलित हों, उन्हें दूसरे हिस्सों तक पहुँचने में देर नहीं लगती ।
6- सामाजिक आन्दोलन का चौथा सिद्धांत सांस्कृतिक पहचान का सिद्धांत है ।इस सिद्धांत के प्रवर्तक जेन जेंसन हैं । उन्होंने वर्ष 1995 में प्रकाशित अपनी पुस्तक सोशल मूवमेंट एंड कल्चर (सम्पादक: एच. जांस्टन और बी. क्लैंडरमैंस) के अंतर्गत तर्क दिया है कि लोगों की संस्कृति सामाजिक आन्दोलन के आविर्भाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । समान संस्कृति के आधार पर जब लोग अपनी अलग-अलग पहचान के प्रति सजग हो जाते हैं तब उन्हें लगता है कि समाज में उन्हें हीन स्थिति में रखा गया है । ऐसी स्थिति में वह प्रभुत्वशाली संस्कृति के प्रति विरोध का तेवर अपना लेते हैं । उनकी यह प्रवृत्ति राजनीतिक सशक्तीकरण की मॉंग के रूप में सामने आती है ।
7- सामाजिक आन्दोलन के विविध रूप हैं जिनमें दो प्रमुख हैं । पहला है, परिवर्तन के लक्ष्य पर आधारित और दूसरा है परिवर्तन की प्रकृति पर आधारित । परिवर्तन के लक्ष्य पर आधारित वर्गीकरण में रैल्फ टर्नर और ल्यूइस किलियन का नाम विशेष रूप से लिया जाता है जिन्होंने वर्ष 1957 में प्रकाशित अपनी पुस्तक कलैक्टिव बिहेवियर के अंतर्गत मोटे तौर पर सब सामाजिक आन्दोलनों को तीन श्रेणियों में रखा है : मूल्य केन्द्रित आन्दोलन, शक्ति केन्द्रित आन्दोलन और सहभागिता केन्द्रित आन्दोलन । मूल्य केन्द्रित आन्दोलन ऐसे आन्दोलन हैं जिनके सदस्य किसी सिद्धांत के साथ प्रतिबद्ध होते हैं । वे अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए इस सिद्धांत को दांव पर लगाने या समझौता करने को बिल्कुल तैयार नहीं होते ।
8- शक्ति केन्द्रित आन्दोलन ऐसे आन्दोलन हैं जिनका प्रमुख लक्ष्य अपने सदस्यों के लिए शक्ति, रुतबा या मान्यता हासिल करना हो । इसके साथ यह विश्वास जुड़ा है कि केवल आर्थिक या राजनीतिक शक्ति के बल पर ही समाज की बुराइयों को दूर किया जा सकता है । जबकि सहभागिता केन्द्रित आन्दोलन ऐसे आन्दोलन हैं जिनके सदस्यों को प्रस्तुत आन्दोलन में भागीदारी से ही व्यक्तिगत संतोष प्राप्त होता है । अत: वे इस बात की चिंता नहीं करते कि इससे उन्हें शक्ति प्राप्त होगी या नहीं,या वे कोई सुधार ला पायेंगे या नहीं ।
9- सामाजिक आन्दोलनों में परिवर्तन की प्रकृति पर आधारित वर्गीकरण को चार भागों में विभाजित किया गया है । पूर्णपरिवर्तनवादी, उद्धारवादी, सुधारवादी और अल्पपरिवर्तनवादी आन्दोलन । यह सिद्धांत डेविड एबर्ले के द्वारा दिया गया है । उन्होंने वर्ष 1966 में प्रकाशित अपनी पुस्तक पियोटे रिलिजन एमंग द नवोहो में लिखा है कि महत्वपूर्ण बात यह है कि आन्दोलन के समर्थक समाज में किस तरह का परिवर्तन या कितना परिवर्तन लाना चाहते हैं । इसी आधार पर एबर्ले ने उपरोक्त चार तरह के सामाजिक आन्दोलनों की पहचान की है ।
10- नव सामाजिक आन्दोलन ऐसे सामाजिक आन्दोलन हैं जो मानव जीवन में फैले हुए अन्याय के प्रति नई चेतना से प्रेरित होकर समकालीन विश्व के कुछ हिस्सों में उभरकर सामने आये हैं । इनमें नारी अधिकार आन्दोलन, पर्यावरणीय आन्दोलन, उपभोक्ता आन्दोलन तथा शांति आन्दोलन इत्यादि सम्मिलित हैं । इनकी विशेषता यह है कि यह राजनीतिक जीवन के साधारण लेन- देन से बाहर कार्य करते हैं । इनसे जुड़े हुए संघर्षों का सरोकार वितरण की समस्याओं से नहीं बल्कि स्वयं मानव जीवन की गुणवत्ता को उन्नत करने से है । नव सामाजिक आन्दोलन का विचार क्षेत्र अत्यंत विस्तृत है जो सामाजिक जीवन के नए क्षितिज के दर्शन कराता है । इन सामाजिक आन्दोलनों की कमान युवा, सुशिक्षित और मध्यवर्गीय लोगों के हाथों में है ।
11- किसी समाज की संस्कृति के वे पक्ष जो उसकी राजनीति को प्रभावित करते हैं, राजनीतिक संस्कृति कहा जाता है । इसके आविष्कार का श्रेय ग्रेबियल ऑल्मंड को दिया जाता है । राजनीतिक संस्कृति में मुख्यतः ऐसे मूल्य, मान्यताएँ और मानक आ जाते हैं जो शासक वर्ग, शासन प्रणाली और शासन प्रक्रिया को वैधता प्रदान करते हैं और उसके सन्दर्भ में व्यक्ति की स्थिति को स्पष्ट करते हैं । यह संकल्पना किसी समाज की राजनीति और संस्कृति के परस्पर सम्बन्ध को आधार बनाकर उस समाज के अध्ययन में सहायता देती है ।राजनीतिक संस्कृति का विचार आधुनिक राजनीति विज्ञान की देन है, सांस्कृतिक मानव विज्ञान की नहीं । यह संकल्पना मुख्यतः राजनीति के अध्ययन और विश्लेषण के लिए प्रस्तुत की गई है, संस्कृति के विश्लेषण के लिए नहीं ।
12- राजनीतिक संस्कृति की संकल्पना राजनीति को संस्कृति के दृष्टिकोण से देखती है, संस्कृति को राजनीति के दृष्टिकोण से नहीं देखती । इसका ध्येय राजनीति के विश्लेषण के लिए संस्कृति के ज्ञान का सहारा लेना है । किसी समुदाय की राजनीतिक संस्कृति उसके सदस्यों को अपनी राजनीतिक प्रणाली और प्रक्रियाओं की ओर मोड़ती है, उन्हें विशेष दिशा प्रदान करती है । इससे उन्हें यह ज्ञात होता है कि अपने सामाजिक परिवेश में उनकी स्थिति क्या है ? उनके अधिकार और कर्तव्य क्या हैं ?
13- अमेरिकी समाज विज्ञानी टैल्कट पार्संस ने वर्ष 1951 में प्रकाशित अपनी पुस्तक द सोशल सिस्टम के अंतर्गत संस्कृति की परिभाषा प्रतीकों की व्यवस्थित प्रणाली के रूप में दी है । पार्संस ने सामाजिक प्रणाली के अंतर्गत अनेक उपप्रणालियों का विवरण दिया है जिसमें राजनीतिक उपप्रणाली भी सम्मिलित है । इस संकल्पना को आधार बनाकर अमरीकी राजनीति वैज्ञानिक गेब्रियल ऑल्मंड ने संस्कृति की कल्पना के अंतर्गत एक उपसंस्कृति की तलाश की जिसका सीधा संबंध राजनीतिक उपप्रणाली से था । ऑल्मंड ने 1956 के जर्नल ऑफ पॉलिटिक्स में प्रकाशित अपने लेख कम्पेरेटिव पॉलिटिकल सिस्टम के अंतर्गत राजनीतिक उपप्रणाली और उससे जुड़ी उपसंस्कृति को स्वतंत्र अध्ययन का विषय बनाया और इन्हें क्रमशः राजनीतिक प्रणाली तथा राजनीतिक संस्कृति का नाम दिया ।
14- राजनीतिक संस्कृति का सबसे सटीक विवरण गेब्रियल ऑल्मंड और सिडनी वर्बा ने वर्ष 1963 में प्रकाशित अपनी पुस्तक द सिविक कल्चर : पोलिटिकल एटीच्यूड्स एंड डेमोक्रेसी इन फाइव नेशंस के अंतर्गत प्रस्तुत किया है । इसमें पॉंच देशों : ब्रिटेन, जर्मनी, इटली, संयुक्त राज्य अमेरिका और मैक्सिको के अंतर्गत लोकतंत्र की स्थिरता या अस्थिरता पर राजनीतिक संस्कृति के प्रभाव की समीक्षा की गयी थी । विशेष रूप से इसमें एक ओर ब्रिटेन तथा संयुक्त राज्य अमेरिका की राजनीतिक संस्कृति और दूसरी ओर जर्मनी तथा इटली की राजनीतिक संस्कृति में अंतर दर्शाया गया था । आल्मड और वर्बा के अनुसार राजनीतिक संस्कृति का अर्थ है राजनीतिक तत्वों के प्रति अभिविन्यासों का प्रतिमान ।
15- यह अभिविन्यास तीन प्रकार के होते हैं : ज्ञानात्मक अभिविन्यास अर्थात् राजनीतिक तत्वों का ज्ञान और उसके अस्तित्व के प्रति सजगता, (ख) भावात्मक अभिविन्यास, अर्थात् इन तत्वों के प्रति व्यक्ति के मन में पैदा होने वाले भावावेग और अनुभूतियाँ (ग) मूल्यपरक अभिविन्यास, अर्थात् उन तत्वों के बारे में व्यक्ति का मूल्य निर्णय- उचित- अनुचित या शुभ- अशुभ का मूल्यांकन । आल्मंड और वर्बा ने तीन प्रकार की राजनीतिक संस्कृति का विवरण दिया है : संकीर्ण संस्कृति, इसमें राजनीतिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं के प्रति व्यक्ति की अभिरुचि का स्तर बहुत मामूली होता है । (ब) अधीन संस्कृति, इसमें अभिरुचि का स्तर सामान्य होता है । (स) सहभागी संस्कृति, इसमें अभिरुचि का स्तर बहुत गहरा होता है ।
16- ऑल्मंड और वर्बा ने अपने विश्लेषण के आधार पर ऐसी राजनीतिक संस्कृति की पहचान का प्रयत्न किया है जो उदार लोकतंत्र के लिए उपयुक्त हो । इसे उन्होंने नागरिक संस्कृति या शालीन संस्कृति की संज्ञा दी है । इसके अंतर्गत संकीर्ण संस्कृति, अधीन संस्कृति और सहभागी संस्कृति के मिले- जुले लक्षण एक विशेष प्रतिमान के अनुरूप पाये जाते हैं । यह ऐसी राजनीतिक संस्कृति होगी जिसमें नागरिक समुदाय के राजनीतिक विचार और मूल्य राजनीतिक समानता और सहभागिता के सिद्धांतों के अनुकूल होंगे ।सरकार को विश्वास पात्र मानते हुए यहाँ शासन क्षमता और राजनीतिक प्रक्रिया में नागरिकों की सहभागिता के बीच सामंजस्य स्थापित किया जाता है । नागरिक संस्कृति के दो मुख्य तत्व माने जाते हैं : क़ानून का शासन और क़ानून के प्रति सम्मान ।
17- राजनीतिक संस्कृति के अनुभवमूलक अध्ययन में एस. ई. फ़ाइनर (1915-93) का नाम प्रमुखता से लिया जाता है । फ़ाइनर ने वर्ष 1962 में प्रकाशित अपनी पुस्तक मैन ऑन द हॉर्सबैक में लिखा है कि सांविधानिक प्रणालियों की स्थिरता दो बातों पर निर्भर करती है : वैधता और सहभागिता । आगे चलकर उन्नीसवीं शताब्दी में अलेक्सी द ताकवील, ए. वी. डायसी और वाल्टर बेजहाट ने राजनीतिक स्थिरता और परिवर्तन के सिद्धांतों पर विचार करते हुए राजनीतिक मूल्यों की भूमिका पर प्रकाश डाला । वस्तुतः राजनीतिक संस्कृति की संकल्पना राजनीति और संस्कृति के बीच कार्य- कारण सम्बन्ध मानकर चलती है ।
18- राजनीतिक संस्कृति की मूल भावना यह है कि किसी देश की संस्कृति वहाँ की राजनीति के चरित्र को निर्धारित करती है । इस बात का खंडन करते हुए ब्रियान बैरी ने वर्ष 1978 में प्रकाशित अपनी पुस्तक सोश्यॉलोजिस्ट्स, इकॉनॉमिस्ट्स एंड डेमॉक्रेसी के अंतर्गत यह तर्क दिया कि लोकतंत्रीय राजनीतिक संस्कृति लोकतंत्रीय संस्थाओं के विकास का स्रोत नहीं होती, जैसा कि ऑल्मंड और वर्बा ने माना है । कभी-कभी किसी देश में नई राजनीतिक संस्थाएँ और प्रक्रियाएँ अपनाने पर वे न केवल जीवित रहने योग्य सिद्ध होती हैं बल्कि वे राजनीतिक संस्कृति को भी नए रूप में ढाल देती हैं ।
19- राजनीतिक संस्कृति का वैकल्पिक सिद्धांत दो मौलिक बातों पर विचार करता है : प्रचलित सिद्धांत पर पुनर्विचार और राजनीतिक संस्कृति का आमूल परिवर्तनवादी सिद्धांत । राजनीतिक संस्कृति की संकल्पना पर पुनर्विचार के पक्षधर विद्वान माइकल रियान ने वर्ष 1989 में प्रकाशित अपनी पुस्तक पॉलिटिक्स एंड कल्चर : वर्किंग हाइपोथीसेस फ़ॉर ए पोस्ट- रिवोल्यूशनरी सोसाइटी के अंतर्गत यह तर्क दिया है कि नागरिक संस्कृति पूँजीवादी के उदय के साथ उभरकर सामने आयी थी । परन्तु समकालीन समृद्ध समाज उत्तर- भौतिकवादी मूल्यों को बढ़ावा देते हैं । इस दृष्टिकोण के अनुसार पूँजी संचय सामाजिक उन्नति की ज़रूरी शर्त नहीं है ।
20- राजनीतिक संस्कृति का आमूलपरिवर्तनवादी सिद्धांत मार्क्सवादी चिंतन की देन है । इसकी मूल मान्यता यह है कि यदि कामगार वर्ग और अन्य पराधीन वर्गों को प्रभुत्वशाली वर्ग की विचारधारा के सहारे गुमराह न किया जाए तो वे अवश्य क्रांतिकारी सिद्ध होंगे । प्रसिद्ध चिंतक सीमोर लिप्सेट (1922-2006) ने वर्ष (1960,1983) में प्रकाशित अपनी पुस्तक पोलिटिकल मैन के अंतर्गत यह तर्क दिया कि कामगार वर्ग अपने आप क्रांति की कामना नहीं करते, बल्कि शिक्षा की कमी और आर्थिक असुरक्षा, इत्यादि के कारण वे राजनीति के सत्तावादी दृष्टिकोण के प्रति आकर्षित होते हैं । तथाकथित क्रांति के समर्थक उन्हें यही दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित करते हैं ।
21- डब्ल्यू.एच. मौरिस- जोन्स (1918-99) ने वर्ष 1964 में प्रकाशित अपनी पुस्तक गवर्नमेंट एंड पॉलिटिक्स ऑफ इंडिया के अंतर्गत स्वाधीन भारत के आरम्भिक दौर की राजनीतिक संस्कृति का विश्लेषण प्रस्तुत किया है । मौरिस जोन्स ने इस दौर की राजनीति की तीन भाषाओं या मुहावरों की पहचान की है जिन्हें उसने आधुनिक, परम्परागत और संतसुलभ भाषाएँ कहा है । मौरिस जोन्स के अनुसार राजनीति की आधुनिक भाषा राष्ट्र- राज्य से जुड़ी राजनीतिक संस्थाओं का संकेत देती है जबकि इसकी परम्परागत भाषा प्राचीन समाज के ढाँचे के साथ जुड़ी हुई है । जोन्स के अनुसार राजनीति की आधुनिक भाषा वह है जिसका प्रयोग भारतीय संविधान में हुआ है, न्यायालय और संसदीय वाद- विवाद में होता है ।
22- मौरिस जोन्स के अनुसार राजनीति की तीसरी भाषा अर्थात् संत सुलभ भाषा का प्रयोग मुख्यतः राजनीति की समालोचना के लिए किया जाता है, यथार्थ व्यवहार का विवरण देने के लिए नहीं । हिन्दू धर्म में सद्गुणों की चर्चा है । विनोबा भावे (1895-1982) ने दलगत राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार की निंदा करते हुए आम राय की राजनीति का समर्थन किया । लोकनायक जयप्रकाश नारायण (1902-79) ने दल विहीन लोकतंत्र का नारा देकर इस विचार को आगे बढ़ाया ।
23- समकालीन भारत की राजनीतिक संस्कृति का दूसरा महत्वपूर्ण विश्लेषण माइरन वीनर (1931-99) ने अपने चर्चित लेख इंडिया : टू पोलिटिकल कल्चर्स के अंतर्गत किया है । वीनर ने आज़ाद भारत में दो संस्कृतियों की पहचान की है । इसे उन्होंने क्रमशः विशिष्ट वर्गीय राजनीतिक संस्कृति और जनपुंज राजनीतिक संस्कृति की संज्ञा दी है । फिर रिचर्ड एल. पार्क (1920-80) ने वर्ष 1979 में प्रकाशित अपनी पुस्तक इंडियाज पोलिटिकल सिस्टम के अंतर्गत भारत की राजनीतिक संस्कृति की विस्तृत चर्चा की है । पार्क का मत है कि सांस्कृतिक दृष्टि से भारत एकान्वित देश नहीं है । यह अनेक उपसंस्कृतियों का देश है । इन उपसंस्कृतियों की पहचान भिन्न-भिन्न भाषाओं, कला मूल्यों और दार्शनिक अभिव्यक्तियों से होती है ।
24- राजनीतिक विकास वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से किसी विकासशील देश की राज्य व्यवस्था विकसित समाज की विशेषताएँ अर्जित कर लेती है । यह संकल्पना मुख्यतः उदारवादी परम्परा की देन है जिसके अंतर्गत पश्चिमी जगत के उदार लोकतंत्र को विकसित समाज का प्रतिरूप माना जाता है । राजनीतिक विकास का पहला प्रारूप जेम्स एस. कोलमैन और लुसियन पाई ने वर्ष 1965 में प्रकाशित अपनी पुस्तक पॉलिटिकल कल्चर एंड पोलिटिकल डिवेलपमेंट में किया है । इसके अनुसार राजनीतिक विकास के तीन मुख्य लक्षण स्वीकार किए जाते हैं : समानता, क्षमता और विभेदीकरण ।
25- राजनीतिक समानता का अर्थ है: ऐसा परिवर्तन जिसके अंतर्गत परम्परागत समाज के शासित लोग आधुनिक समाज में नागरिकों का दर्जा प्राप्त कर लेते हैं । क़ानूनी रूप से उनमें आपस में कोई भेदभाव नहीं किया जाता है । राजनीतिक क्षमता का अर्थ है कि राजनीतिक आधुनिकीकरण के परिणामस्वरूप सार्वजनिक मामलों के प्रबंध, विवादों के नियंत्रण और माँगों का सामना करने के लिए राजनीतिक प्रणाली की क्षमता बहुत बढ़ जाती है । राजनीतिक विभेदीकरण का अर्थ है कि राजनीतिक प्रणाली के विशिष्ट कार्यों को सम्पन्न करने के लिए विशिष्ट संरचनाएँ उभर कर सामने आ जाती हैं ।
26- राजनीतिक विकास का दूसरा मॉडल जी.ए. आल्मंड और जी.बी. पॉवेल की देन है । वर्ष 1966 में प्रकाशित अपनी पुस्तक कंपेरेटिव पॉलिटिक्स : ए डिवेलपमेंटल एप्रोच के अंतर्गत उन्होंने राजनीतिक प्रणाली के विश्लेषण का संरचनात्मक- कृत्यात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया । आल्मंड और पॉवेल ने राजनीतिक विकास के तीन लक्षणों की पहचान की है : संरचनात्मक विभेदीकरण, संस्कृति का धर्मनिरपेक्षीकरण या तर्कोन्मुखीकरण और राजनीतिक प्रणाली की कार्य क्षमताओं का विस्तार । संरचनात्मक विभेदीकरण का अर्थ होता है : समाज के भीतर राजनीति की अनौपचारिक संरचनाओं का अलग-अलग रूप में विकास । संस्कृति का तर्कोन्मुखीकरण वह प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत मनुष्य अपनी राजनीतिक कार्रवाई में उत्तरोत्तर और अनुभवमूलक तथा विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण अपनाने लगते हैं ।
27- राजनीतिक प्रणाली की कार्य क्षमताओं के विस्तार की व्याख्या करते हुए आल्मंड और पॉवेल ने राजनीतिक प्रणाली की चार तरह की कार्य क्षमताओं का विवरण दिया है : विनियमन क्षमता, दोहन क्षमता, वितरण क्षमता और प्रत्युत्तर क्षमता । विनियमन क्षमता का मतलब है व्यक्तियों और समूहों के व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए विधिसम्मत बल प्रयोग की क्षमता । दोहन क्षमता का मतलब है समाज और अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण से जुड़े प्राकृतिक एवं मानवीय संसाधनों को अपने उपयोग में लाने की क्षमता । वितरण क्षमता का मतलब है व्यक्तियों और समूहों में तरह-तरह के हित लाभ वितरित करने की क्षमता । प्रत्युत्तर क्षमता का मतलब है समाज और अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण से आने वाली माँगों का उपयुक्त उत्तर देने की क्षमता ।
28- राजनीतिक विकास की चर्चा करते हुए आल्मंड और पॉवेल ने कहा कि राजनीतिक प्रणाली चार आगत कृत्यों और तीन निर्गत कृत्यों को सम्पन्न करती है । चार आगत कृत्य हैं : राजनीतिक समाजीकरण और भर्ती, हित स्पष्टीकरण, हित समूहन और राजनीतिक सम्प्रेषण । तीन निर्गत कृत्य हैं : नियम निर्माण, नियम अनुप्रयोग और नियम अधिनिर्णयन । निर्गत कृत्य सरकार के परम्परागत कार्य हैं जिन्हें सरकार की अनौपचारिक संरचनाएँ : विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका सम्पन्न करती हैं । जबकि आगत कृत्यों को समाज और राजनीति की अनौपचारिक संरचनाएँ सम्पन्न करती हैं । इनमें घर- परिवार, विशिष्ट वर्ग, राजनीतिक दल और जन सम्पर्क के साधन सम्मिलित हैं ।
29- राजनीतिक विकास की संकल्पना में राष्ट्र- निर्माण और राज्य- निर्माण की संकल्पना भी जुड़ी हुई हैं ।राष्ट्र- निर्माण का अर्थ है, पूरे राष्ट्र के लोगों के लिए निष्ठा का एक ही केन्द्र विकसित करना ताकि वे अपनी निष्ठा को अपने- अपने संकीर्ण समूहों के प्रति सीमित न रखकर पूरे राष्ट्र को अपनी निष्ठा का केन्द्र बनाएँ ।जबकि राज्य- निर्माण का अर्थ है, शक्ति का ऐसा केन्द्र विकसित करना जो सम्पूर्ण राज्य में शांति और व्यवस्था क़ायम कर सके, सब जगह अपने आदेश लागू करा सके और राज्य की सुरक्षात्मक एवं कल्याणकारी सेवाओं को देश के कोने- कोने तक पहुँचा सके । वस्तुतः राज्य निर्माण और राष्ट्र निर्माण परस्पर पूरक क्रियाएँ हैं ।
30- रजनी कोठारी ने वर्ष 1976 में प्रकाशित अपनी पुस्तक स्टेट एंड नेशन बिल्डिंग : ए थर्ड वर्ल्ड पर्सपेक्टिव के अंतर्गत लिखा है कि राज्य निर्माण और राष्ट्र निर्माण की संकल्पना किसी देश के विकास का राजनीतिक पक्ष प्रस्तुत करती है जबकि आधुनिकीकरण का सरोकार उसके विकास के आर्थिक, प्रौद्योगिक, प्रशासनिक इत्यादि पक्षों से है । पश्चिमी राजनीतिक वैज्ञानिकों ने यह भ्रम फैला रखा है कि कि विकासशील देशों को पहले अपने आधुनिकीकरण पर ध्यान देना चाहिए, राजनीतिक विकास स्वयं सम्पन्न हो जाएगा । वस्तुतः विकासशील देशों में भी आधुनिकीकरण के मुक़ाबले राज्य निर्माण और राष्ट्र निर्माण को प्राथमिकता देना चाहिए ।
31- सेमुअल पी. हंटिगटन ने वर्ष 1968 में प्रकाशित अपनी पुस्तक पोलिटिकल आर्डर इन चेंजिंग सोसाइटीज के अंतर्गत तर्क दिया कि राजनीतिक विकास और आधुनिकीकरण में सीधा सम्बन्ध नहीं है । उनके विचार से राजनीतिक विकास का मुख्य लक्षण राजनीतिक व्यवस्था है और इसमें मुख्य बाधा राजनीतिक अव्यवस्था से पैदा होती है जिसे उसने राजनीतिक ह्रास की संज्ञा दी है । हंटिगटन के विचार से, राजनीति की मूल समस्या यह है कि किसी देश में जिस गति से सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन होता है, उसकी तुलना में राजनीतिक संस्थाओं का विकास पीछे रह जाता है । यदि राजनीतिक सहभागिता और संस्था निर्माण साथ चले तो राजनीतिक ह्रास को रोका जा सकता है ।
32- आम बोलचाल की भाषा में जिसे ग्रेट ब्रिटेन कहा जाता है, सांविधानिक रूप से यह युनाइटेड किंगडम के नाम से जाना जाता है । जिसका निर्माण इंग्लैंड, वेल्स, स्काटलैंड और उत्तरी आयरलैंड इन चार हिस्सों के संयोग से हुआ है । सन् 1707 में स्कॉटलैंड, इंग्लैंड और वेल्स ने मिलकर ग्रेट ब्रिटेन का निर्माण किया । ग्रेट ब्रिटेन में विश्व का सबसे पुराना अलिखित संविधान प्रचलित है जो पूर्ण राजतंत्र से धीरे-धीरे सांविधानिक राजतंत्र में बदल रहा है । इसमें महान अधिकार पत्र या मैग्ना कार्टा (1215), अधिकार याचिका (1628) और गौरवमयी क्रांति (1688) का विशेष महत्व है । मैग्ना कार्टा मूलतः स्वतंत्रताओं का सामंती अधिकार पत्र था जिसे किंग जॉन (1166-1216) ने जारी किया था ।इसका मूल सिद्धांत था कि क़ानून की सत्ता राजा से ऊपर है ।
33- गौरवमयी क्रांति (1688) के अंतर्गत जेम्स द्वितीय (1633-1701) को राजसिंहासन से हटाकर उनकी जगह उनकी पुत्री मेरी तथा मेरी पति विलियम ऑफ ऑरेंज का राज्याभिषेक किया गया था । इसके परिणामस्वरूप जो अधिकारपत्र या बिल ऑफ राइट्स (1689) जारी किया गया, उसके अंतर्गत राजा के दैवी अधिकार का खंडन करते हुए संसद की सत्ता को राजा की सत्ता से उत्कृष्ट घोषित किया गया । ब्रिटिश दार्शनिक एडमंड बर्क ने गौरवमयी क्रांति की सराहना करते हुए कहा कि इसके अंतर्गत सत्ताधारी व्यक्तियों को तो बदल दिया गया, परन्तु चिरकाल से आज़माई हुई संस्थाओं को अक्षुण्ण रखा गया ।
34- संयुक्त राज्य अमेरिका गणराज्य का एक प्रमुख उदाहरण है और अध्यक्षीय शासन प्रणाली पर आधारित है । यहाँ पर सबसे पुराना लिखित संविधान प्रचलित है । अमेरिका में संघीय प्रणाली अपनायी गयी है । इस संघ में 50 राज्यों के अलावा कोलम्बिया डिस्ट्रिक्ट भी शामिल है । संयुक्त राज्य अमेरिका उत्तरी अमेरिका में आता है । यहाँ का संविधान 1787 में बना और 1789 में लागू हुआ । यह अपेक्षाकृत संक्षिप्त संविधान है जिसमें केवल 7 अनुच्छेद हैं । इसमें अब तक केवल 26 संशोधन हुए हैं । अमेरिका की खोज 1492 में हुई थी । इसका श्रेय इतालवी नौसैनिक क्रिस्टोफ़र कोलंबस (1451-1506) को जाता है ।
35- सन् 1775 में उपनिवेशवाद के खिलाफ 13 अंग्रेज़ी भाषी उपनिवेशों : कनेक्टिकट, डेलावेयर, जॉर्जिया, मैरीलैंड, मैसाच्यूसेट्स, न्यू हैंपशायर, न्यू जर्सी, न्यूयार्क, नार्थ कैरोलीना, पैनसिल्वेनिया, रोड द्वीप, साउथ कैरोलीना और वर्जीनिया ने ब्रिटिश औपनिवेशिक कराधान के विरूद्ध विद्रोह कर दिया और 1776 में अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी । 1777 में इन्होंने एक अस्थायी संविधान अपनाया । कालान्तर में फ़्रांस की सहायता से जार्ज वाशिंगटन के नेतृत्व में 1783 में जार्ज तृतीय की सेनाओं को पराजित कर दिया । सन् 1787 के फ़िलेडेल्फ़िया सम्मेलन में इस संघीय गणराज्य के लिए एक नया संविधान बनाया गया ।
36- वर्ष 1791 में अमेरिकी संविधान में एक साथ शुरू के 10 संशोधन लागू किए गए । इन संशोधनों को सामूहिक रूप से अधिकार- प्रपत्र या बिल ऑफ राइट्स की संज्ञा दी गई । अमेरिकी संविधान में नागरिक स्वतंत्रताओं को सर्वोपरि स्थान दिया गया है । फ्राँसीसी दार्शनिक चार्ली द मांतेस्क्यू (1689-1755) ने वहाँ के शासन में शक्ति पृथक्करण सिद्धांत को नागरिक स्वतंत्रताओं का रक्षा कवच कहा है । अलेक्सी द ताकवील (1805-59) ने अमेरिकी राजव्यवस्था पर आधारित महत्वपूर्ण पुस्तक डेमोक्रेसी इन अमेरिका की रचना की है । अमेरिका ने एक मुक्त समाज के रूप में अपना चरित्र क़ायम रखा है ।
37- सोवियत समाजवादी गणराज्य संघ या सोवियत संघ जिसका अब विघटन हो चुका है, समाजवादी प्रणाली का सर्वोत्तम उदाहरण प्रस्तुत करता है । सोवियत संघ की स्थापना 1917 में तत्कालीन रूसी साम्राज्य को धराशायी करके हुई थी । इस क्रांतिकारी परिवर्तन को बोल्शेविक क्रांति या रूसी क्रान्ति कहा जाता है । उस समय रूस में जार निकोलस द्वितीय (1868-1918) का शासन था । सोवियत मूलतः एक रूसी शब्द है जिसका अर्थ है परिषद । प्रचलित अर्थों में साधारणतः सोवियत किसी कारख़ाने के सारे मज़दूरों की परिषद, किसी गाँव के सारे किसानों की परिषद या किसी रेजीमेंट के सारे सैनिकों की परिषद होती है ।
38- सोवियत रूस के वर्ष 1936 के संविधान के अंतर्गत लोगों को सार्वजनिक, समान और प्रत्यक्ष मताधिकार की व्यवस्था की गई । वर्ष 1977 के संविधान के अंतर्गत सोवियत समाजवादी गणराज्य संघ को सब लोगों का राज्य घोषित कर दिया गया । इस बदलाव को लियोनिड ब्रेजनेव ने विकसित समाजवादी समाज के जीवन- सूत्र की संज्ञा दी । इस संविधान में नागरिकों के सामाजिक- आर्थिक अधिकारों की विस्तृत व्यवस्था तो की गयी थी, परन्तु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वहीं तक मान्य थी जहां तक वह आधिकारिक विचारधारा के अनुसार हो । वर्ष 1985 में मिखाइल गोर्वाचेव ने पेरेस्त्रोइका (पुनर्गठन) और ग्लास्तनास्त (खुलेपन) की नीतियों का ऐलान किया, तब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का रास्ता साफ़ हुआ ।
39- भारत का पड़ोसी देश चीन एक विशाल देश है । क्षेत्रफल की दृष्टि से यह पूर्व सोवियत संघ और कनाडा के बाद तीसरा सबसे बड़ा देश रहा है । जनसंख्या की दृष्टि से यह विश्व का सबसे बड़ा देश है । यहाँ की सभ्यता कम से कम चार हज़ार साल पुरानी है जो मुद्रण कला, काग़ज़, बारूद, रेशम और चीनी मिट्टी जैसे महत्वपूर्ण आविष्कारों के लिए प्रसिद्ध रही है । यहाँ कन्फ़्यूशियस और लाओ च्यांग जैसे महान दार्शनिक पैदा हुए । यहाँ पर सन् 1644-1911 के दौरान मंचू चिंग वंश शासन में रहा ।सन् 1895 में जापान ने चीन को युद्ध में पराजित कर दिया । वर्ष 1900 में यहाँ पर बॉक्सर विद्रोह हुआ । 1911-12 में चीन में गणतन्त्रीय क्रांति हुई और मंचू साम्राज्य का पतन हो गया ।
40- चीन में गणतंत्रीय क्रांति के बाद डॉ. सुन यात सेन (1866-1925) के नेतृत्व में देश में संसदीय शासन प्रणाली स्थापित की गई । वर्ष 1912 में उसकी जगह अध्यक्षीय शासन प्रणाली स्थापित कर दी गई । वर्ष 1930 के दौरान साम्यवादियों ने माओ –त्से-तुंग (माओ-जेदोंग) (1893-1976) के नेतृत्व में च्यांग काई शेक के विरूद्ध छापामार युद्ध छेड़ दिया । 1949 में चीन की मुख्य भूमि पर माओ के नेतृत्व में चीनी साम्यवादी दल का शासन स्थापित हो गया जिस जनवादी चीन गणराज्य की संज्ञा दी गई । इस महान परिवर्तन को चीनी क्रांति के रूप में याद किया जाता है । च्यांग काइ शेक और उनके समर्थक ताइवान के द्वीपीय प्रान्त की ओर चले गए जहाँ पर उन्होंने अपना शासन स्थापित किया ।
41- विकासशील देशों को सामूहिक रूप से तीसरी दुनिया भी कहा जाता है । इस शब्दावली के आविष्कार का श्रेय फ़्रांसीसी अर्थशास्त्रवेत्ता एवं जनसांख्यिकीकार आल्फ्रेड सॉवी (1898-1900) को है । द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूँजीवादी देशों को पहली दुनिया तथा साम्यवादी विचारधारा पर आधारित अर्थव्यवस्था के देशों को दूसरी दुनिया कह कर सम्बोधित किया जाता था । जो देश पूँजीवादी या साम्यवादी ख़ेमे से तटस्थता बनाए हुए थे इन्हें अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में तीसरी दुनिया के रूप में पहचान हासिल हुई । इन देशों ने नेहरू, नासिर और टीटो के नेतृत्व में गुटनिरपेक्षता की नीति अपना कर तीसरी दुनिया के रूप में अपनी नई पहचान बनाई । वर्ष 1991 के बाद दूसरी दुनिया अर्थात् साम्यवादी गुट का विघटन हो चुका है तब भी अभी विकासशील देशों को तीसरी दुनिया के रूप में देखा जाता है ।
42- ग्रेट ब्रिटेन या युनाइटेड किंगडम संसदीय प्रणाली का मूल स्रोत देश है । अत: ब्रिटिश संसद को संसद- जननी के रूप में सराहा जाता है । यहाँ पर संवैधानिक राजतंत्र है । इसे सीमित राजतंत्र भी कहा जाता है । यहाँ पर आज भी राजमुकुट है और लार्ड सभा है । ब्रिटिश सरकार को महागरिमामयी की सरकार कहा जाता है । बावजूद इसके ब्रिटेन में अलिखित संविधान है । ब्रिटेन के संविधान के स्रोतों में संसदीय अधिनियम, न्यायालयों के निर्णय, लोक विधि, संसद के नियम और रीति- रिवाज तथा परिपाटियाँ और प्रथाएँ प्रमुख हैं । ब्रिटिश संविधान को सुनम्य संविधान की श्रेणी में रखा जाता है । यहाँ पर एकात्मक शासन प्रणाली तथा संसदीय सम्प्रभुता है ।
43- युनाइटेड किंगडम के क्षेत्र इंग्लैंड में वहाँ की कुल जनसंख्या का 84 प्रतिशत, स्कॉटलैंड में 8 प्रतिशत, वेल्स में 5 प्रतिशत तथा उत्तरी आयरलैंड में 5 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है । स्कॉटलैंड की विधानसभा में 129 सदस्य, वेल्स की विधानसभा में 60 सदस्य तथा उत्तरी आयरलैंड की विधानसभा में 90 सदस्य हैं । सर आइवर जैनिंग्स ने वर्ष 1961 में प्रकाशित अपनी पुस्तक द ब्रिटिश कान्स्टीट्यूशन के बारे में लिखा है कि, “ यह सम्भव है कि हम सरकार की धज्जियाँ बिखेर दें, फिर भी महारानी की जय- जयकार करें ।
44- ब्रिटिश संसद को पार्लियामेंट कहा जाता है । इसके दो सदन हैं : उच्च सदन को लार्ड सभा और निम्न सदन को कॉमन्स सभा कहा जाता है । कॉमन्स सभा को ब्रिटिश संसद का पर्यायवाची माना जाता है । ए. वी. डायसी ने कहा है कि, “ क़ानूनी दृष्टि से संसद की प्रभुसत्ता इंग्लैंड की राजनीतिक संस्थाओं की प्रमुख विशेषता है । इंग्लैंड के क़ानून के अंतर्गत किसी ऐसे व्यक्ति या संस्था को मान्यता नहीं दी गई है जिसे संसद के द्वारा बनाए गए क़ानून को रद्द करने या उससे बड़ा क़ानून बनाने का अधिकार हो ।” बिलियम ब्लैक्सटन के शब्दों में, “ संसद को क़ानून बनाने, उसकी पुष्टि, विस्तार या व्याख्या करने का सर्वोपरि और पूर्ण अधिकार है । यह ऐसा सब कुछ कर सकती है जो प्राकृतिक दृष्टि से असम्भव न हो ।” जबकि लेस्ली स्टीफ़न के अनुसार, “ ब्रिटिश संसद की शक्ति सर्वथा असीमित नहीं है ।”
45- ब्रिटिश संसद के निचले या लोकप्रिय सदन कॉमन्स सभा का कार्यकाल 5 वर्ष है । वर्तमान समय में कॉमन्स सभा की सदस्य संख्या 650 है । वर्ष 1911 के एक संसदीय अधिनियम के अनुसार, वहाँ धन विधेयक केवल कॉमन्स सभा से ही शुरू किए जा सकते हैं । लार्ड सभा किसी धन विधेयक को अपने पास केवल एक माह तक ही रोक सकती है । ब्रिटेन में विपक्ष संगठित होता है और अपने चुने हुए विषयों पर सरकार के सामने चुनौती पेश करता है । विपक्ष सरकार का विकल्प भी प्रस्तुत करता है ।यही कारण है कि ब्रिटेन में विपक्ष को महागरिमामयी का निष्ठावान विपक्ष कहा जाता है और विपक्ष के नेता को बाक़ायदा वेतन दिया जाता है । विपक्ष हमेशा छाया मंत्रिमंडल के रूप में संगठित रहता है ।
46- ब्रिटिश संसद के उच्च सदन यानी लार्ड सभा की वर्तमान में सदस्य संख्या लगभग 790 है । यहाँ के पुरूष सदस्यों को लार्ड तथा महिला सदस्यों को लेडी शब्द से सम्बोधित किया जाता है । यहाँ 9 सदस्य विधि -लार्ड होते हैं । लार्ड सभा के अध्यक्ष को लार्ड चांसलर कहा जाता है । लार्ड चांसलर मंत्रिमंडल का सदस्य होता है और वाद- विवाद में सक्रिय भाग लेता है । लार्ड सभा एक स्थायी सदन है जो कभी भंग नहीं किया जाता है । वर्ष 1963 के एक अधिनियम के अंतर्गत कोई भी लार्ड अपनी पदवी त्याग कर राजनीति के मैदान में उतर सकता है और चुनाव में उम्मीदवार हो सकता है ।एक संविधान संशोधन अधिनियम, 2005 के अंतर्गत 2009 से युनाइटेड किंगडम के सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना कर दी गई है ।
47- ग्रेट ब्रिटेन का क्षेत्रफल 2,42,495 वर्ग किलोमीटर है । इसकी वर्तमान जनसंख्या लगभग 6 करोड़ 50 लाख से ज़्यादा है । यहाँ की शहरी आबादी 89 प्रतिशत है और साक्षरता की दर 99 प्रतिशत है । मूलतः ब्रिटेन की आबादी में चार तरह के आप्रवासी सम्मिलित हैं : सैल्टिक, एंग्लो- सैक्सन, वाइकिंग और नार्मन । ब्रिटिश राजनीतिक संस्कृति मतैक्य पर आधारित है । 1688 की गौरवमयी क्रांति इसी देश में हुई । 1215 के मैग्ना कार्टा और 1559 के ऐक्ट ऑफ सुप्रीमेसी तथा 1688 के बिल ऑफ राइट्स का सम्बन्ध भी ग्रेट ब्रिटेन से ही है । बी. बी. सी. यानी ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कार्पोरेशन का संचालन और नियंत्रण इसी देश से होता है ।
48- यूरोप की औद्योगिक क्रान्ति (1760-1840) की शुरुआत ग्रेट ब्रिटेन से ही हुई । ब्रिटिश उद्योग परिसंघ यहाँ के बड़े व्यवसायियों का संगठन है जबकि मज़दूर संघ कांग्रेस यहाँ पर कामगारों का सबसे बड़ा संगठन है । कंज़रवेटिव पार्टी या अनुदार दल और लेबर पार्टी या मज़दूर दल ब्रिटेन के दो प्रमुख राजनीतिक दल हैं । अर्थव्यवस्था में यहाँ पर निजी क्षेत्र का वर्चस्व है । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटेन में लेबर पार्टी के द्वारा शुरू की गई राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा और बैवरिज रिपोर्ट को ब्रिटेन में कल्याणकारी राज्य की स्थापना की दिशा में महत्वपूर्ण कदम माना जाता है । यह रिपोर्ट 1942 में प्रकाशित की गई थी ।
49- बैवरिज रिपोर्ट (1942) के प्रस्तुतकर्ता विलियम बैवरिज ने वर्ष 1943 में प्रकाशित अपनी पुस्तक द पिलर्स ऑफ सिक्योरिटी के अंतर्गत तर्क दिया कि राज्य का उद्देश्य पॉंच महाबुराइयों का अन्त करना है : अभाव, रोग, अज्ञान, दरिद्रता और बेकारी । यह बात महत्वपूर्ण है कि कल्याणकारी राज्य के उदय से पहले सेवाधर्मी राज्य की संकल्पना के अंतर्गत केवल स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी सामाजिक सेवाओं पर बल दिया जाता था । परन्तु कल्याणकारी राज्य ने सब नागरिकों के लिए सर्वश्रेष्ठ सेवाओं को प्रदान करने का लक्ष्य अपने सामने रखा । कराधान के माध्यम से सम्पदा का पुनर्वितरण तथा निर्धन सहायता को व्यवस्था के साथ जोड़ा ।
50- ग्रेट ब्रिटेन अटलांटिक महासागर, उत्तरी सागर, इंगलिश चैनेल और आयरिश सागर से घिरा हुआ है । यहाँ का सबसे बड़ा द्वीप ग्रेट ब्रिटेन चैनल सुरंग द्वारा फ़्रांस से जुड़ा हुआ है । लंदन यहाँ का सबसे बड़ा शहर और राजधानी है । वर्तमान समय में यहाँ के सम्राट महाराजा चार्ल्स तृतीय हैं । ग्रेट ब्रिटेन की मुद्रा को पाउण्ड स्टर्लिंग कहा जाता है । यहाँ की संसदीय सरकार को वेस्टमिंस्टर प्रणाली भी कहा जाता है । युनाइटेड किंगडम संयुक्त राज्य सुरक्षा परिषद का एक स्थायी सदस्य देश है । लंदन के पास, रॉयल ग्रीनविच वेधशाला है । ईसाई धर्म यहाँ का प्रमुख धर्म है । (स्रोत- विकिपीडिया)
नोट : उपरोक्त सभी तथ्य, (क्रमांक 1 से 49 तक) ओम् प्रकाश गाबा की पुस्तक, “तुलनात्मक राजनीति की रूपरेखा” संस्करण 2022, प्रकाशन – नेशनल पेपरबैक्स, अंसारी रोड दरियागंज, नई दिल्ली, ISBN : 978-93-88658-34-8 से साभार लिए गए हैं ।