तुलनात्मक राजनीति / राजनीति विज्ञान, महत्वपूर्ण तथ्य (भाग-2) : (संविधान और संविधानवाद, राजनीतिक दल, निर्वाचन प्रणाली, राजनीतिक दल, दबाव समूह )

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– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर- प्रदेश) भारत । email : drrajbahadurmourya @ gmail. com, website : themahamaya. com

1- तुलनात्मक राजनीति में संविधान और संविधानवाद का विशेष महत्व है, क्योंकि किसी भी देश का संविधान वहाँ की राजनीतिक प्रक्रिया के लिए वैध ढाँचा प्रस्तुत करता है । सांविधानिक अध्ययन के क्षेत्र में बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के सिद्धांतकारों में जेम्स ब्राइस और के. सी. ह्वीयर के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । ब्राइस और ह्वीयर दोनों ने राजनीतिक प्रणालियों के संस्थात्मक संगठन पर ध्यान केन्द्रित किया है । इधर सी. एफ. स्ट्रांग और अन्य सिद्धांतकारों ने सांविधानिक अध्ययन के इस पक्ष को उचित महत्व देते हुए यह भी संकेत दिया है कि संविधान सत्ताधारियों की शक्ति पर अंकुश रखने का साधन भी है । संविधानों की यही विशेषता संविधानवाद के अध्ययन की प्रेरणा देता है ।

2- अंग्रेज विद्वान जेम्स ब्राइस (1838-1922) ने वर्ष 1901 में प्रकाशित अपनी पुस्तक स्टडीज़ इन हिस्ट्री एंड जूरिस्प्रूडेंस में लिखा है कि, “संविधान राजनीतिक समाज का ऐसा ढाँचा है जिसे क़ानून के माध्यम से और क़ानून के द्वारा संगठित किया गया हो, अर्थात् जिसमें क़ानून ने ऐसी स्थायी संस्थाएँ स्थापित कर दी हों जिनके साथ मान्यता प्राप्त कृत्य और सुनिश्चित अधिकार जुड़े हों ।” ब्राइस ने संविधानों को लोकविधिमूलक और संविधिमूलक दो श्रेणियों में विभाजित करने का सुझाव दिया । आगे चलकर उन्होंने पुनः लिखा है कि संविधानों के सही- सही अंतर को व्यक्त करने के लिए अनम्य संविधान और सुनम्य संविधान शब्दावली अधिक उपयुक्त होगी ।

3- आस्ट्रेलियन विद्वान सर केनेथ क्लींटन ह्वीयर (के. सी. ह्वीयर)(1907-1979) ने वर्ष 1951 में प्रकाशित अपनी पुस्तक मॉडर्न काँस्टीट्यूशन्स में संविधानों के 6 प्रकार के वर्गीकरण का सुझाव दिया : 1- लिखित और अलिखित संविधान, 2- अनम्य और सुनम्य संविधान, 3- सर्वोच्च और गौण संविधान, 4- संघात्मक और एकात्मक संविधान, 5- वियुक्त और संयुक्त शक्तियों वाले संविधान और 6- गणतंत्र और राजतंत्रात्मक संविधान ।

4- सी.एफ. स्ट्रांग ने वर्ष 1939 में प्रकाशित अपनी पुस्तक मॉडर्न पॉलिटिकल कांस्टीट्यूशन्स में लिखा है कि, “सच्चे अर्थों में संविधान के यह लक्षण स्पष्ट रूप से पहचाने जा सकते हैं : प्रथम, विविध अधिकरणों को किस प्रकार संगठित किया गया है, दूसरे, उन अभिकरणों को क्या-क्या शक्तियाँ सौंपी गई हैं और तीसरे, इन शक्तियों का प्रयोग किस प्रकार किया जाना है ।” इससे यह स्पष्ट होता है कि शासन के विभिन्न अभिकरणों को निश्चित सीमाओं में बांधकर रखना संविधान का आवश्यक लक्षण है ।

5- एस. ई. फाइनर ने वर्ष 1970 में प्रकाशित अपनी पुस्तक कंपेरेटिव गवर्नमेंट में लिखा है कि, “संविधान उन नियमों की संहिताएँ हैं जो विभिन्न सरकारी अभिकरणों और उनके उच्चाधिकारियों के बीच कार्यों, शक्तियों और कर्तव्यों का आवंटन निर्धारित करती हैं और सर्वसाधारण के साथ उनके सम्बन्ध निर्दिष्ट करती हैं । अधिकांश मामलों में यह नियम एक ही दस्तावेज के रूप में संहिताबद्ध होते हैं ।” इस परिभाषा के अनुसार संविधान केवल राजनीतिक संगठन की रूपरेखा ही नहीं प्रस्तुत करता बल्कि वह शासन के विभिन्न अंगों की शक्तियों का विवरण भी देता है और इन शक्तियों पर अंकुश रखने के साधन जुटाता है ।

6- हर्मन फाइनर ने वर्ष 1950 में प्रकाशित अपनी पुस्तक द थियरी एंड प्रैक्टिस ऑफ मॉडर्न गवर्नमेंट में राज्य की परिभाषा देते हुए संविधान की परिभाषा तक पहुँचने का प्रयास किया है । उनके अनुसार, “ राज्य ऐसा मानव समूह है जिसमें व्यक्तियों और उनके संगठित अंगों के बीच निश्चित शक्ति सम्बन्धों के नियंत्रण की व्यवस्था की जाती है । यह शक्ति सम्बन्ध राजनीतिक संस्थाओं के रूप में देखने को मिलते हैं । बुनियादी राजनीतिक संस्थाओं की प्रणाली को संविधान कहते हैं ।” इसी प्रकार कार्ल जे. फ़्रेडेरिक ने वर्ष 1950 में ही प्रकाशित अपनी पुस्तक कांस्टीट्यूशनल गवर्नमेंट एंड डेमोक्रेसी में लिखा कि, “ संविधान ऐसी प्रक्रिया का द्योतक है जिसके द्वारा शासन की गतिविधि पर प्रभावशाली अंकुश रखा जाता है । इसे ऐसी प्रक्रिया समझा जाता है जिसका कार्य केवल संगठित करना नहीं बल्कि उस पर अंकुश रखना भी है ।”

7- कार्ल लोएंस्टाइन ने वर्ष 1957 में प्रकाशित अपनी पुस्तक पोलिटिकल पॉवर एंड द गवर्नमेंटल प्रॉसेस में लिखा है कि, “ संविधान शक्ति प्रक्रिया के नियंत्रण का बुनियादी साधन है… जिसका ध्येय राजनीतिक शक्ति के सीमांकन और नियंत्रण के साधनों को स्पष्ट करना, शक्ति से प्रभावित लोगों को शासकों के निरंकुश नियंत्रण से मुक्त करना और शक्ति की प्रक्रिया में उन्हें अपना वैध हिस्सा दिलाना है ।” संविधानवाद के अमेरिकी व्याख्याता सी.एच. मैकिलवैन ने वर्ष 1939 में प्रकाशित अपनी पुस्तक कांस्टीट्यूशनलिज्म इन ए चेंजिंग वर्ल्ड के अंतर्गत लिखा, “आज के युग में मुख्य समस्या संविधानवाद की है ।”

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8- फ़्रांसीसी राजनीतिक वैज्ञानिक जीन ब्लांडेल (1925-2022) ने वर्ष 1969 में प्रकाशित अपनी पुस्तक एन इंट्रोडक्शन टू कंपेरेटिव गवर्नमेंट में लिखा है कि, “ पहली बात यह है कि संविधान विभिन्न प्रकार के आरोपित मानकों का संकेत दे सकता है और प्रायः देता भी है… इस शब्द से एक विशिष्ट निर्देशात्मक ध्वनि निकलती है ।… इस अर्थ में सांविधानिक शासन आम तौर पर उदारवादी शासन का संकेत देता है जिसमें शासन के कार्य पर अंकुश रखने को प्रमुखता दी जाती है और राज्य व्यवस्था के अंतर्गत नागरिकों को अधिकतम स्वतंत्रता प्रदान की जाती है, चाहे उसमें मानकों का समावेश हो या न हो ।… तीसरे, संविधान राज्य व्यवस्था के वास्तविक संगठन का संकेत दे सकता है… जिसमें संस्थाओं का विवरण मात्र दिया जाता है ।”

9- मैकिलवेन ने सांविधानिक शासन के सार तत्व का विवरण देते हुए लिखा है कि, “ संविहित सत्ता वह है जो परिभाषित हो, और ऐसी कोई परिभाषा नहीं हो सकती जिसमें अनिवार्यत: सीमा का संकेत न हो । सांविधानिक सरकार को यदि सांविधानिक ही होना है तो वह सीमित सरकार होती है और होनी ही चाहिए । उसका रूप चाहे कोई भी क्यों न हो- चाहे वह राजतंत्रीय हो, अभिजाततंत्रीय या लोकतंत्रीय हो- यदि हम किसी राज्य को सचमुच संविधान सम्मत कहते हैं तो उसमें सर्वोच्च सत्ता परिभाषित होनी चाहिए और वह किसी न किसी तरह के क़ानून के द्वारा परिभाषित होनी चाहिए ।”

10- उदारवादी सांविधानिक प्रणालियों को संविधानवाद की मुख्य धारा माना जा सकता है । उदारवाद की मूल मान्यता है कि मनुष्य अपने स्वाभाविक विवेक से प्रेरित होकर नागरिक समाज का निर्माण करता है । खेल के नियमों के अनुसार सभी खिलाड़ी सामान्य हित के ढाँचे के भीतर अपने- अपने हित को पहचानने की क्षमता रखते हैं, क्योंकि सामान्य हित स्वयं भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के व्यक्तिगत हितों का जोड़ है । मनुष्यों के लिए परस्पर व्यवहार के न्यायपूर्ण नियमों का निर्माण करके उनके सारे मतभेदों को सुलझाया जा सकता है । उदारवादी चिंतन मुक्त वातावरण का हिमायती है । दैहिक स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संघ बनाने और सभा करने की आज़ादी, व्यापार की स्वतंत्रता और सम्पत्ति की सुरक्षा उसके मूल हैं ।

11- उदारवादी सांविधानिक प्रणाली के अनुसार शासन को बहुत सीमित कृत्य करने चाहिए, जैसे : नागरिकों की नागरिक स्वतंत्रताओं का संरक्षण, अनुबंधों का प्रवर्तन, क़ानून की व्यवस्थाओं और विवादों के समाधान की प्रक्रिया की घोषणा, इत्यादि । संक्षेप में, उदारवादी सांविधानिक प्रणाली के अंतर्गत सामाजिक जीवन के लक्ष्यों की तुलना में उसके संचालन की प्रक्रिया को प्रधानता दी जाती है । उदारवाद की मुख्य मान्यता यह है कि यदि समाज को नियमित करने वाली प्रक्रियाएँ न्यायोचित होंगी तो उनके अनुसार जो गतिविधियाँ चलाई जाएंगी उनके परिणाम न्यायोचित माने जाएँगे ।उदारवादी सांविधानिक प्रणाली में दैहिक स्वतंत्रता, विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संघ बनाने और सभा करने की स्वतंत्रता, व्यापार की स्वतंत्रता इत्यादि पर अधिक ज़ोर दिया जाता है ।

12- उदारवादी सांविधानिक प्रणाली में समय- समय पर सामाजिक ज़रूरतों के मुताबिक़ संशोधन किया जाता है । जैसे – अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय ने क़ानूनों के समान संरक्षण की व्याख्या करते हुए 1896 में प्लैसी बनाम फ़र्गुसन के मामले में यह निर्णय दिया था कि यदि सार्वजनिक क्षेत्र में श्वेत और अश्वेत जातियों को शिक्षा, परिवहन, मनोरंजन, विश्राम इत्यादि की प्रथक- प्रथक किन्तु समान सुविधाएँ प्राप्त हों तो इससे क़ानूनों के समान संरक्षण का उल्लंघन नहीं होता । परन्तु इसी न्यायालय ने 1954 में ब्राउन बनाम टोपेका के मामले में अपने पुराने निर्णय को रद्द करते हुए यह व्यवस्था दी थी कि यदि श्वेत और अश्वेत जातियों को समान सुविधाएँ तो उपलब्ध हों परन्तु उन्हें मिलकर उपयोग करने से रोक दिया जाए तो क़ानून की दृष्टि से उनकी समानता निरर्थक हो जाती है । इसी निर्णय से अमेरिका के नीग्रो बच्चों को उन्हीं पब्लिक स्कूलों में प्रवेश की अनुमति मिल गई जिसमें श्वेत जातियों के बच्चे पढ़ते थे ।

13- वाल्टर फ्रीडमैन ने वर्ष 1967 में प्रकाशित अपनी पुस्तक लीगल थ्योरी में लिखा है कि, “आधुनिक लोकतंत्र ने सहचरों और समुदाय के प्रति व्यक्ति के सामाजिक कर्तव्यों को ध्यान में रखते हुए जिस तरह से उसके अधिकारों में लगातार संशोधन किया है, उसी तरह से उसने सम्पत्ति के साथ सामाजिक उत्तरदायित्वों को जोड़कर सम्पत्ति की स्वतंत्रता में सर्वत्र कटौती कर दी है । राज्य का कराधान का अधिकार, उसकी पुलिस शक्ति और उचित मुआवज़े के बदले सम्पत्ति के अधिग्रहण का अधिकार सम्पत्ति की स्वतंत्रता पर सार्वजनिक प्रतिबन्धों के ऐसे उदाहरण हैं जिन्हें अब विश्व भर में मान्यता दी जाती है और लागू किया जाता है ।”

14- रॉस्को पाउंड ने वर्ष 1921 में प्रकाशित अपनी पुस्तक द स्पिरिट ऑफ कॉमन लॉ में अमेरिकी न्यायपालिका के दृष्टिकोण में ऐसे आठ महत्वपूर्ण परिवर्तनों का उल्लेख किया है जिन्होंने उन्नीसवीं शताब्दी के व्यक्तिवादी न्याय से हटकर वर्तमान क़ानून प्रणाली को नए आचारशास्त्र, नए दर्शन और नए राजनीतिक चिंतन के अनुरूप सामाजिक न्याय की ओर मोड़ दिया है । पहला परिवर्तन यह संकेत देता है कि सम्पत्ति के स्वामित्व के आधार पर उसके समाज विरोधी उपयोग की अनुमति नहीं दी जा सकती । दूसरे परिवर्तन का सम्बन्ध अनुबंध की स्वतंत्रता को सीमित करने से है । तीसरे परिवर्तन का सम्बन्ध संपत्ति के व्ययन के अधिकार को सीमित करने से है । चौथे परिवर्तन का सम्बन्ध क़र्ज़ देने वाले को क़र्ज़ वसूलने की असीमित शक्ति नहीं है ।

15- समाजवादी सांविधानिक प्रणाली के अंतर्गत सामाजिक- आर्थिक लक्ष्यों की प्रधानता स्वीकार की जाती है । इस प्रणाली के समर्थक मानते हैं कि उदारवादी प्रणाली मुक्त बाज़ार प्रतिरूप पर आधारित है , अत: वह धनवान या पूँजीपति वर्ग के हितों और अधिकारों की रक्षा करती है । कामगार वर्ग के हितों और अधिकारों की रक्षा के लिए इस लक्ष्य को संविधान में सर्वोपरि स्थान देना ज़रूरी है । इस प्रणाली का सैद्धांतिक आधार कार्ल मार्क्स के विचारों में मिलता है ।वर्ष 1848 में प्रकाशित कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो में मार्क्स ने कहा, “आधुनिक राज्य की कार्यकारिणी सम्पूर्ण बुर्जुवा वर्ग के मिले- जुले मामलों का प्रबंध करने वाली समिति के अलावा कुछ नहीं है ।” जिस राज्य में सत्ता का सूत्र कामगार वर्ग के हाथों में रहेगा, वही समाजवादी राज्य होगा ।

16- जीन ब्लांडेल के शब्दों में, “चूँकि साम्यवादी शासन मार्क्सवादी विचारधारा पर आधारित है जिसमें राजनीतिक संगठन के मुक़ाबले आर्थिक आधार तत्वों को प्राथमिकता दी जाती है, इसलिए यह स्वाभाविक है कि इन सरकारों द्वारा बनाए गए संविधानों में प्रक्रियात्मक साधनों के मुक़ाबले नीति के विषय और सहभागिता पर विशेष बल दिया जाता है । यह दृष्टिकोण न केवल अधिकांश उदारवादी सांविधानिक प्रणालियों के साथ मेल नहीं खाता, बल्कि स्वयं संविधान के विरूद्ध है ।” समाजवादी प्रणाली अपने नागरिकों को पर्याप्त सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा प्रदान करती है । अल्बानिया, युगोस्लाविया, बल्गेरिया, चेकोस्लोवाकिया, हंगरी, जर्मन लोकतंत्रीय गणराज्य, पोलैंड तथा रूमानिया इत्यादि में साम्यवादी संविधान अपनाया गया था ।

17- सन् 1977 के सोवियत संविधान के अंतर्गत भाषण की स्वतंत्रता, सभा करने और संघ बनाने की स्वतंत्रता जैसे अधिकार इस शर्त पर प्रदान किए गए थे कि इनका प्रयोग समाजवादी प्रणाली को सुदृढ़ बनाने और विकसित करने के उद्देश्य से साम्यवाद के निर्माण के लक्ष्यों के अनुरूप किया जाएगा । कालान्तर में सन् 1985 में मिखाइल गोर्वाचोव ने सोवियत राजनीतिक प्रणाली में पेरेस्त्रोइका और ग्लास्तनास्त की नीतियों को लागू किया । इनका उद्देश्य आर्थिक और राजनीतिक प्रणाली को अधिक उदार और उत्तरदायी बनाना तथा ज़्यादा खुली और परामर्श मूलक सरकार और सूचना के व्यापक प्रसार की नीति पर आधारित था ।

18- वर्ष 1989 में रूमानिया, 1990 में पूर्वी जर्मनी, दक्षिणी यमन, मंगोलिया तथा पोलैंड, हंगरी और बल्गेरिया में, 1991 में सोवियत संघ तथा युगोस्लाविया में तथा 1992 में अल्बानिया और चैकोस्लोवाकिया में समाजवादी प्रणाली का पतन हो गया ।इनमें से कुछ देशों ने रूस के नेतृत्व में स्वाधीन राष्ट्रों के राष्ट्रमंडल का निर्माण किया । जनवादी चीन गणराज्य, उत्तर कोरिया, वियतनाम, लाओस और क्यूबा में अभी भी समाजवादी प्रणाली की सरकार है ।

19- पीटर एच. मर्किल ने वर्ष 1970 में प्रकाशित अपनी पुस्तक मॉडर्न कंपेरिटव पॉलिटिक्स के अंतर्गत लिखा है कि, “ संविधानों का चलन निरंतर फैलती हुई विश्व राजनीतिक संस्कृति का अभिन्न अंग है और इसके कारण राजनीतिक समाजीकरण में सब जगह कुछ पश्चिमी रंग उभर आया है । इसके सांस्कृतिक मूल्य- जैसे कि लोकतंत्र और राष्ट्रत्व अधिकांश विकासशील देशों के स्वदेशी सांस्कृतिक और उपसांस्कृतिक प्रतिमानों के साथ लगातार घुलते मिलते जा रहे हैं ।” जैसे इंडोनेशिया और पाकिस्तान में- ऐसे शासन को निर्देशित लोकतंत्र की संज्ञा दी गई । ईरान में राजतंत्र को हटाकर अयातुल्ला खुमैनी के नेतृत्व में इस्लामिक क्रांति हुई

20- लोकतंत्र के अंग्रेज़ी पर्याय डेमोक्रेसी शब्द की व्युत्पत्ति ग्रीक मूल के शब्द डेमोस से हुई है जिसका अर्थ है जन साधारण । इसमें क्रेसी शब्द जोड़ा गया है जिसका अर्थ है – शासन या सरकार । इस तरह लोकतंत्र शब्द का मूल अर्थ ही जन साधारण या जनता का शासन है ।अब्राहम लिंकन (1809-65) ने लोकतंत्र की जो परिभाषा दी है वह इसके शब्दार्थ के बहुत निकट है । इसके अनुसार, “ लोकतंत्र जनता का शासन है जो जनता के द्वारा और जनता के लिए” चलाया जाता है ।जेम्स ब्राइस के अनुसार, “लोकतंत्र शब्द का प्रयोग हेरोडोटस के ज़माने से ही ऐसी शासन प्रणाली का संकेत देने के लिए होता है जिसमें क़ानून की दृष्टि से राज्य की नियामक सत्ता किसी एक विशेष वर्ग या वर्गों के हाथों में नहीं रहती बल्कि समुदाय के सभी सदस्यों के हाथों में रहती है ।”

21- आस्ट्रेलिया, डेनमार्क, फ़्रांस, इटली, स्विट्ज़रलैंड इत्यादि में सांविधानिक संशोधन के लिए परिपृच्छा की पद्धति अपनाई जाती है । परिपृच्छा को जनमत संग्रह भी कहा जाता है । इसमें प्रस्तावित क़ानून के लिए सीधे जनता की राय ली जाती है । उपक्रम के अंतर्गत जनता स्वयं विधानमंडल से कोई क़ानून बनाने का प्रस्ताव कर सकती है । यह पद्धति स्विट्ज़रलैंड में प्रचलित है । वहाँ 50,000 नागरिक मिलकर संघीय संविधान में संशोधन की माँग या प्रस्ताव रख सकते हैं । प्रत्याहान की पद्धति के अंतर्गत यह व्यवस्था की जाती है कि यदि जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों या अधिकारियों का व्यवहार संतोषजनक न हो तो जनता उन्हें पद से हटाकर उनकी जगह नए प्रतिनिधि चुन सकती है ।

22- संयुक्त राज्य अमेरिका में मताधिकार के मामले में स्त्री- पुरूष की समानता 1919 में स्वीकार की गई, इंग्लैंड में 1928 में, फ़्रांस में 1945 में । स्विट्ज़रलैंड में तो समस्त स्त्रियों को 1971 में जाकर मताधिकार प्रदान किया गया ।भारतीय संविधान में तो 1950 से ही स्त्री और पुरुषों को समान मताधिकार प्राप्त है । सऊदी अरब में स्त्री मताधिकार की व्यवस्था दिसम्बर, 1915 से की गई है ।रोमन कैथोलिक चर्च के मुख्यालय वैटिकन सिटी में अभी तक स्त्री मताधिकार की अनुमति नहीं है । प्राचीन यूनान में वयस्क मताधिकार सार्वजनीन नहीं था क्योंकि यह केवल स्वतंत्र जनों को ही प्राप्त था ।

23- निर्वाचन की बहुलमत प्रणाली के अंतर्गत यह चलन है कि जब एक सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र में तीन या तीन से अधिक उम्मीदवार खड़े हों और मतदाता उनमें से किसी एक उम्मीदवार को अपना वोट देता है, तब जिस उम्मीदवार को अन्य प्रत्येक उम्मीदवार की तुलना में सबसे ज़्यादा वोट मिलते हैं, उसे विजेता घोषित कर दिया जाता है । इसका मुख्य नियम है – जो सबसे आगे, जीत उसकी । इसमें निर्वाचित उम्मीदवार के लिए पूर्ण बहुमत प्राप्त करना ज़रूरी नहीं होता । जबकि बहुमत प्रणाली के अंतर्गत जब एक सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र में तीन या तीन से अधिक उम्मीदवार खड़े हों तो उन्हें मान्य वोटों में से 50 प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त करने होते हैं ।

24- बहुमत प्रणाली का एक तरीक़ा वैकल्पिक मत प्रणाली है । इसके अंतर्गत मतदाता विभिन्न उम्मीदवारों को 1,2,3, इत्यादि वरीयता क्रम से रखते हैं । यदि किसी उम्मीदवार को प्रथम वरीयता वोटों से पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं होता है तो जिस उम्मीदवार को सबसे कम प्रथम वरीयता वोट मिले हों उसे मुक़ाबले से बाहर निकालकर उसकी द्वितीय वरीयताओं को अन्य उम्मीदवारों की प्रथम वरीयताओं में जोड़ देते हैं । इस प्रक्रिया को तब तक दोहराते रहते हैं जब तक किसी उम्मीदवार को पूर्ण बहुमत प्राप्त न हो जाए । आस्ट्रेलिया के अवर सदन के चुनाव के लिए यही प्रणाली अपनाई जाती है । संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत के राष्ट्रपतियों के निर्वाचन में भी इसी पद्धति का प्रयोग किया जाता है ।

25- बहुमत प्रणाली का दूसरा तरीक़ा दुबारा मत प्रणाली भी है । इसके अंतर्गत मतदाता एक ही उम्मीदवार को वोट देता है । यदि इससे किसी उम्मीदवार का पूर्ण बहुमत सिद्ध नहीं होता तो पूर्ण बहुमत का पता लगाने के लिए कुछ शर्तों के साथ दुबारा मतदान कराया जाता है । उदाहरण के लिए, फ़्रांस में राष्ट्रपति के चुनाव के लिए ऐसी हालत में जिन दो उम्मीदवारों को पहले मतदान में सबसे ज़्यादा वोट मिलते हैं, उनमें दुबारा मुक़ाबला कराया जाता है । फ़्रांस के राष्ट्रीय विधानमंडल के चुनाव में जब पहले मतदान के दौरान किसी उम्मीदवार को पूर्ण बहुमत नहीं मिलता तो जिन दलों को पंजीयित निर्वाचक मंडल के 12.5 प्रतिशत या इससे अधिक वोट मिलते हैं, केवल उन्हीं में से दुबारा मुक़ाबला कराया जाता है ताकि पूर्ण बहुमत का पता लगाया जा सके ।

26- आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का प्रयोग बहुसदस्सीय निर्वाचन क्षेत्रों में होता है । इसका ध्येय मतदाताओं को अपने- अपने वोटों की संख्या के अनुपात से प्रतिनिधित्व प्रदान करना है ताकि बहुमत के साथ ही साथ अल्पमत को उपयुक्त प्रतिनिधित्व प्रदान किया जा सके । इसके दो तरीक़े सबसे ज़्यादा प्रचलित हैं : सूची प्रणाली और एकल हस्तांतरणीय मतदान प्रणाली ।

27- सूची प्रणाली में मतदाता को विभिन्न राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों की सूचियाँ दी जाती हैं और वह अपने मतपत्र पर उनमें से किसी एक सूची पर निशान लगा देता है । उम्मीदवारों का चुनाव इस आधार पर होता है कि सूची में उनका क्रम क्या था और प्रत्येक दल को कितने वोट मिले ? कहीं कहीं मतदाता को दलील सूचियों से भिन्न क्रम में मतदान करने की छूट रहती है । उदाहरण के लिए स्विट्ज़रलैंड और लक्जेमबर्ग के विधानमंडलों के चुनाव में मतदाता को पूरी छूट रहती है कि वह चाहे तो किसी सूची के क्रम को बदल दे या अनेक दलों की सूचियों में से उम्मीदवारों को चुनकर कोई नई सूची बना दे ।

28- आनुपातिक प्रतिनिधित्व की एकल हस्तांतरणीय मतदान प्रणाली के अंतर्गत मतदाता मतपत्र पर भिन्न-भिन्न उम्मीदवारों को 1,2,3, इत्यादि वरीयता क्रम से रखते हैं । चुनाव जीतने के लिए किसी उम्मीदवार को चुनाव क्वोटा के बराबर वोट प्राप्त करना ज़रूरी है । चुनाव क्वोटा निर्धारित करने के लिए रिक्त स्थानों की संख्या में 1 जोड़ कर उससे पूरे निर्वाचन क्षेत्र में डाले गए कुल मान्य वोटों की संख्या को भाग देते हैं और भागफल में एक जोड़ देते हैं । यदि किसी उम्मीदवार को प्रथम वरीयता में चुनाव कोटा के बराबर वोट मिल जाते हैं तो उसे निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है । चुनाव कोटा से फ़ालतू वोट मतदाताओं के वरीयता क्रम के अनुसार अन्य उम्मीदवारों को हस्तांतरित कर दिए जाते हैं, अर्थात् उसके कुल मतदाताओं ने जिन- जिन उम्मीदवारों को दूसरा वरीयता वोट दिया था, उन्हें उसी अनुपात में यह फ़ालतू वोट आवंटित कर दिए जाते हैं । वरीयताओं के हस्तांतरण की इस प्रक्रिया को तब तक दोहराते हैं जब तक सारी सीटें न भर जाएं ।

29- समवर्ती बहुमत प्रणाली अल्पमत के प्रतिनिधित्व की एक विधि है जिसे अमेरिकी विद्वान जॉन. सी. कैल्हॉन (1782-1850) ने दक्षिण अमेरिका के हितों की रक्षा के लिए प्रस्तुत किया था । इसमें यह व्यवस्था की गई थी कि कोई भी निर्णय तभी मान्य होना चाहिए जब उससे प्रभावित होने वाले सभी मुख्य- मुख्य वर्ग हितों की सहमति प्राप्त कर ली गई हो । इसी प्रकार सहवर्तन मूलक लोकतंत्र ऐसे समाजों के शासन के लिए विशेष रूप से उपयुक्त समझी जाती है जो धार्मिक, विचारधारात्मक, भाषाई, क्षेत्रीय, सांस्कृतिक, जातीय या संजातीय आधार पर भिन्न भिन्न सम्प्रदायों में बंटे हों ।

30- राजनीतिक दल का अर्थ ऐसा संगठन है जो सम्पूर्ण देश या समाज के व्यापक हित के सन्दर्भ में अपने सेवार्थियों के हितों को बढ़ावा देने के लिए निश्चित सिद्धांतों, नीतियों और कार्यक्रमों का समर्थन करता है और इन्हें कार्यान्वित करने के उद्देश्य से राजनीतिक शक्ति प्राप्त करना चाहता है । डब्ल्यू. सी. मनरो के शब्दों में, “स्वतंत्र राजनीतिक दलों का शासन लोकतंत्रीय शासन का ही दूसरा नाम है । जहॉं अनेक राजनीतिक दल नहीं रहे, वहाँ स्वतंत्र शासन कभी नहीं रहा ।” अध्यक्षीय प्रणाली की अपेक्षा संसदीय प्रणाली में राजनीतिक दलों की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण होती है ।

31- सचेतक किसी राजनीतिक दल का ऐसा मान्यता प्राप्त कार्यकारी है जो अपने दल के विधायकों को सदन में उपस्थित रहने और प्रस्ताव विशेष के पक्ष या विपक्ष में मतदान करने का आदेश देता है । उसके आदेशों का उल्लंघन करने वाले पर दल अनुशासनिक कार्रवाई कर सकता है । जबकि विरोधी दल सदन में सरकार की गतिविधियों पर अपने विचार व्यक्त करते हैं, उनका समर्थन या आलोचना करते हैं और प्रश्नकाल के दौरान शासन की गतिविधियों के बारे में प्रश्न पूछते हैं । सदन के बाहर भी सार्वजनिक सभाओं में विभिन्न राजनीतिक दल अपना- अपना पक्ष प्रस्तुत करके लोकमत के समर्थन की माँग करते हैं ।

32- एकदलीय प्रणाली ऐसी राजनीतिक व्यवस्था को कहते हैं जिसमें शासन का सूत्र एक ही राजनीतिक दल के हाथों में रहे । एकदलीय शासन प्रणाली का एक प्रकार सर्वाधिकार एकदलीय प्रणाली है जिसमें केवल एक राजनीतिक दल को काम करने की अनुमति होती है । वही शासन की सारी नीतियाँ और कार्यक्रम निर्धारित करता है । इसमें अधिकृत विचारधारा को सबसे ऊपर रखा जाता है और राजनीतिक पदों का वितरण सत्तारूढ़ दल के माध्यम से होता है । जबकि दो दलीय प्रणाली ऐसी व्यवस्था है जिसमें दो राजनीतिक दलों की प्रधानता हो । ब्रिटिश प्रणाली इसका सर्वोत्तम उदाहरण है ।

33- ब्रिटेन में लेबर पार्टी और कंज़रवेटिव पार्टी प्रमुख राजनीतिक दल हैं जबकि अमेरिका में दो राजनीतिक दलों डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन पार्टी प्रमुख हैं । संसदीय प्रणाली के अंतर्गत दो दलीय प्रणाली सर्वोत्तम सिद्ध होती है क्योंकि जब एक दल सत्तारूढ़ होता है तब दूसरा व्यवस्थित विपक्ष के रूप में कार्य करता है । जिस देश में दो से अधिक राजनीतिक दल ऐसी स्थिति में हों कि चुनाव में उनमें से किसी को स्पष्ट बहुमत न मिल पाये, वहाँ पर बहुदलीय प्रणाली पायी जाती है । ऐसी स्थिति में प्रायः अनेक दल मिलकर मिली- जुली सरकार बनाते हैं ।

34- राजनीतिक प्रणाली में सुदृढ़ सरकार और सुदृढ़ विपक्ष की महती आवश्यकता होती है । यदि विपक्ष संगठित न हो तो वह शासन की सारी गतिविधियों की व्यवस्थित जॉंच और उनकी आलोचना नहीं कर सकता । ग्रेट ब्रिटेन में विपक्ष सार्वजनिक कार्यों के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । विपक्ष की रचनात्मक आलोचना सरकार के लिए मूल्यवान सिद्ध होती है । यही कारण है कि ग्रेट ब्रिटेन में विपक्ष को महागरिमामयी का निष्ठावान विपक्ष कहा जाता है । यदि संयोगवश सरकार गिर जाए तो साधारणतः विपक्ष वैकल्पिक सरकार बनाने के लिए तैयार रहता है । इसलिए उसे छाया मंत्रिमंडल की संज्ञा दी जाती है । 1973 से ब्रिटिश संसद में विपक्ष के नेता को बाक़ायदा वेतन दिया जाता है ।

35- मार्क्सवादी परम्परा के प्रसिद्ध विचारक वी. आई. लेनिन (1870-1924) ने लिखा है कि पूँजीवादी समाज में परस्पर प्रतिस्पर्धा करने वाले दल इसलिए पनपते हैं क्योंकि वे सर्वहारा और बुर्जुआ- इन दो परस्पर विरोधी वर्गों के परस्पर विरोधी हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं । समाजवादी समाज में ऐसी प्रतिस्पर्धा की कोई गुंजाइश नहीं है । परन्तु वहाँ सर्वहारा का दल सर्वथा आवश्यक है ताकि वह पूँजीवाद विरोधी संघर्ष में अग्रपंक्ति की भूमिका संभाल सके । लेनिन ने मज़दूर चेतना संघ और सामाजिक- लोकतंत्रीय चेतना में अंतर करते हुए यह विचार रखा कि कामगारों को मज़दूर चेतना संघ तो सहज स्वाभाविक ढंग से प्राप्त हो जाएगी, परन्तु उनके मन में सामाजिक लोकतंत्रीय चेतना विकसित करने का काम राजनीतिक दल का है ।

36- राजनीतिक दलों के लोकतंत्रीय केन्द्रवाद के सिद्धांत का निरूपण 1905 में लेनिन के द्वारा किया गया । इसका तात्पर्य यह था कि दल का नेतृत्व कौन करेगा – इसका निर्णय चुनाव के द्वारा किया जाएगा, फिर यह नेतृत्व कामगार वर्ग के प्रति उत्तरदायी होगा और उपयुक्त सिद्ध न होने पर उसे पद से हटाया जा सकेगा । बाद में इसमें अन्य शर्तें जोड़ी गयीं (क) दल के ऊंचे- नीचे सभी निदेशक अंगों का गठन चुनाव के तरीक़े से किया जाएगा । (ख) दल के सभी अंग अपने- अपने संगठनों के पास अपनी गतिविधियों का नियमित विवरण भेजेंगे, (ग) दल में कठोर अनुशासन रहेगा और अल्पमत को बहुमत का निर्णय स्वीकार करना पड़ेगा और (घ) उच्चतर अंगों के सब निर्णय निम्नतर अंगों तथा दल के सब सदस्यों के लिए बाध्यकर होंगे ।

37- जर्मन समाजवैज्ञानिक रॉबर्ट मिशेल्स (1876-1936) ने अपनी प्रसिद्ध कृति पोलिटिकल पार्टीज़ (1911) के अंतर्गत यह विचार व्यक्त किया है कि राजनीतिक दल का चरित्र अपने समय की ऐतिहासिक अवस्था से निर्धारित होता है । मिशेल्स ने गुटतंत्र के लौह नियम का निरूपण करते हुए यह विचार व्यक्त किया कि किसी भी राजनीतिक दल के सारे निर्णय करने की शक्ति अन्ततः एक गुटतंत्र के हाथों में आ जाती है । परन्तु आधुनिक राजनीतिक दल अपने गुटतंत्रीय चरित्र को छिपाकर अपने आप को लोकतंत्रीय छद्मवेश में प्रस्तुत करते हैं । संक्षेप में गुटतंत्रीय प्रवृत्ति ही राजनीतिक दल का आधार है ।

38- फ़्रांसीसी राजनीति- वैज्ञानिक मौरिस दूवर्जर (1917-2014) ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक पोलिटिकल पार्टीज़ (1951) के अंतर्गत लिखा है कि, राजनीतिक दलों की उत्पत्ति को समझना बहुत सरल है । शुरू- शुरू में संसद के भीतर कुछ मुद्दों के बारे में सहमति के आधार पर कुछ समूह उभर कर सामने आते हैं, फिर निर्वाचन समितियाँ बनती हैं और अन्ततः इन दोनों तत्वों में स्थायी सम्बन्ध स्थापित हो जाता है जिससे राजनीतिक दल अस्तित्व में आते हैं । दलीय संरचना का विश्लेषण करते हुए दूवर्जर ने चार प्रकार के राजनीतिक दलों की पहचान की है : गुट बैठक, शाखा दल, कोशिका दल और नागरिक सेना । फ़्रांस के तृतीय और चतुर्थ गणराज्यों के समय की रेडिकल पार्टी गुट बैठक का उदाहरण है । कोशिका दल मुख्यतः क्रांतिकारी समाजवादी दलों की देन है ।

39- जीन ब्लांडेल का विचार है कि दूवर्जर ने अपने वर्गीकरण में जिन दलों को गुट बैठक और जनपुंज दल की संज्ञा दी है, उन्हें क्रमशः अप्रत्यक्ष शासन और प्रत्यक्ष शासन में विश्वास रखने वाले दलों की श्रेणी में रखना चाहिए । उसने तर्क दिया कि किसी राजनीतिक दल की प्रकृति को उसकी सदस्य संख्या से नहीं जाँचना चाहिए बल्कि यह देखना चाहिए कि उसके नेताओं और अनुयायियों का परस्पर संबंध कैसा है ?

40- इतालवी राजनीति वैज्ञानिक ज्योवानी सार्टोरी (1924-2017) ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक पार्टीज़ एंड पार्टी सिस्टम : ए फ़्रेमवर्क फ़ॉर एनालिसिस (1976) के अंतर्गत बहुदलीय प्रणालियों के विश्लेषण का एक ढाँचा प्रस्तुत किया है । सार्टोरी ने दो तरह की बहुदलीय प्रणालियों में अंतर करने का सुझाव दिया है : (क) संयत बहुदलीय प्रणालियाँ और (ख) ध्रुवीकृत बहुलवादी प्रणालियाँ । सार्टोरी के अनुसार, ध्रुवीकृत बहुलवादी प्रणाली राजनीतिक गतिहीनता को जन्म देती है । सार्टोरी से पहले एंथनी डाउन्स ने चुनाव प्रतियोगिता के समस्तरीय सिद्धांत का निरूपण किया था । इसके अनुसार, राजनीतिक दल अधिकतम वोट बटोरने के साधन हैं । डाउन्स के इस विश्लेषणात्मक ढाँचे को तर्कसंगत चयन ढाँचा कहा जाता है ।

41- सार्टोरी के अनुसार, ध्रुवीकृत बहुलवाद को चार लक्षणों के आधार पर अन्य बहुदलीय प्रणालियों से अलग कर सकते हैं : 1- इसमें आम तौर पर पाँच से अधिक विचारणीय दल पाये जाते हैं । 2- विचारणीय दलों के बीच बहुत ज़्यादा विचारधारात्मक दूरी पायी जाती है । 3- यह प्रणाली बहुध्रुवीय होती है और 4- इसमें उग्र बहुलवाद के कारण अपकेन्द्रीय प्रवृत्ति पायी जाती है । ज्योवानी सार्टोरी ने जे. ला. पैलोंबारा और मायनर वीनर की सम्पादित कृति पोलिटिकल पार्टीज़ एंड पोलिटिकल टिवेलपमेंट (1966) के अन्तर्गत स्थायी बहुदलीय प्रणालियों को संयत बहुदलीय प्रणालियाँ कहा है ।

42- ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली को चलाने के लिए राजनीतिक दलों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है जबकि अमेरिका की अध्यक्षीय प्रणाली को चलाने के लिए मूलतः राजनीतिक दलों की आवश्यकता ही नहीं समझी गई थी और आज भी वे उतनी सार्थक भूमिका नहीं निभाते हैं अमेरिका में सरकार बनाने के लिए विधानमंडल यानी कांग्रेस में किसी दल के बहुमत की ज़रूरत नहीं होती है बल्कि राष्ट्रपति सम्पूर्ण राष्ट्र के मतदाताओं का बहुमत प्राप्त करके अपनी सरकार बनाता है चूँकि एक ही व्यक्ति या एक ही दल का उम्मीदवार राष्ट्रपति पद का चुनाव जीत सकता है इसलिए मतदाता यह समझ लेते हैं कि उन्हें दो सबसे समर्थ उम्मीदवारों में से एक को वोट देना चाहिए अध्यक्षीय प्रणाली में राष्ट्रपति के चुनाव के लिए पूरा राष्ट्र निर्वाचन क्षेत्र बन जाता है

43- संयुक्त राज्य अमेरिका में ऐतिहासिक कारणों से डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन पार्टी का निर्माण हुआवहाँ का दक्षिणी भाग मुख्यतः बाग़ान अर्थव्यवस्था पर आधारित था जबकि उत्तरी भाग में तेज़ी से औद्योगीकरण हो रहा था । दक्षिण के गोरे लोग अपनी बाग़ान अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए दास प्रथा को क़ायम रखना चाहते थे जबकि उत्तर के गोरे लोग अपने उद्योगों के लिए कामगारों की पूर्ति बढ़ाने के उद्देश्य से दास प्रथा को समाप्त करना चाहते थे । दक्षिण के मुखर वर्गों ने उत्तर के प्रभुत्व के विरोध में राज्यों की स्वायत्तता को बढ़ाने का आन्दोलन चलाया जिससे डेमोक्रेटिक पार्टी का जन्म हुआ । दूसरी ओर उत्तर के मुखर वर्गों ने दास प्रथा के उन्मूलन के लिए जो आन्दोलन चलाया, उससे रिपब्लिकन पार्टी का जन्म हुआ ।

44- विभिन्न समूह अपनी – अपनी अभिरुचि के विषय से जुड़ी गतिविधियों में भाग लेने के लिए जो संगठन बनाते हैं उन्हें हम साधारणतः साहचर्य की संज्ञा देते हैं । जब कोई साहचर्य अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए राजनीतिक प्रक्रिया को प्रभावित करने का प्रयत्न करते हैं तो उन्हें हम हित समूह कहते हैं । जब कोई हित समूह अत्यधिक सक्रिय हो जाता है और अन्य समूहों के हितों को पीछे धकेलकर अपने हितों की सिद्धि के लिए सरकार पर अपना दबाव बढ़ा देता है तो उसे दबाव गुट या दबाव समूह की संज्ञा दी जाती है । अत्यधिक प्रभावशाली दबाव समूह को अब लॉबी कहा जाता है । हित समूहों के लक्षण या आकार की कोई सीमा नहीं बताई जा सकती है । आर्थर बेंटली ने 1908 में अपनी पुस्तक द प्रॉसेस ऑफ गवर्नमेंट के अंतर्गत हित समूहों का पहला व्यवस्थित अध्ययन प्रस्तुत किया ।

45- दबाव समूह सार्वजनिक नीति को प्रभावित करने के लिए कई तरीक़े इस्तेमाल करते हैं । वह अपने व्यवसाय के सम्बन्ध में सरकार, विधायी समितियों और नीति निर्माताओं के पास आधार सामग्री और सुझाव भेजते हैं । विज्ञापन देकर अपने पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश करते हैं । वाद- विवाद, विचार गोष्ठियों तथा भाषणमालाओं का आयोजन करते हैं । जुलूस, रैलियाँ, प्रदर्शन, हड़ताल और पोस्टर लगवाते हैं । चुनाव में वित्तीय सहायता प्रदान करते हैं । दीर्घा- प्रचार और लॉबी प्रचार का सहारा लेते हैं । सम्बद्ध अधिकारियों को अनैतिक प्रलोभन देकर अपने पक्ष में करने का प्रयास करते हैं ।

46- उदारवादी देशों में हित समूहों की भूमिका को व्यक्त करने के लिए साधारणतः दो प्रतिरूप प्रस्तुत किए जाते हैं : बहुलवाद और समवाय । ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका बहुलवाद की श्रेणी में आती हैं ।इस व्यवस्था के अंतर्गत हित समूह सरकार और जनसाधारण के बीच सम्पर्क की कड़ी का काम करते हैं । दूसरी ओर, समवाय के अंतर्गत निर्णय- प्रक्रिया ऊपर से नीचे अग्रसर होती है ।इस व्यवस्था के अंतर्गत हित समूह के प्रबन्धक, प्रवक्ता या नेता को पूरे समूह के दृष्टिकोण का प्रतिनिधि माना जाता है । हित समूहों के नेता सत्ता के दलालों जैसा व्यवहार करते हैं ।

47- ब्रिटिश उद्योग परिसंघ विश्व भर में उद्योग व्यापार के संचालकों का सबसे बड़ा संगठन है । उधर मज़दूर संघ कांग्रेस मज़दूर संघों का सबसे बड़ा संगठन है । ब्रिटेन की क़रीब 300 सहकारी समितियाँ वहाँ के सहकारी संघ के साथ सम्बद्ध हैं । अमेरिका में दबाव समूहों की अदम्य शक्ति की ओर संकेत करते हुए राष्ट्रपति वुडरो विल्सन (1856-1924) ने कहा था कि, “संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार एक ऐसा शिशु है जो विशेष हितों की देख-रेख में पला है ।” अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन कैनेडी (1917-63) का विचार था कि अमेरिका के संगठित हित समूह लोकतांत्रिक प्रक्रिया का आवश्यक अंग हैं, वे नागरिकों के प्रतिनिधित्व को सार्थक बनाते हैं ।

48- लॉबी का अर्थ है, विधानमंडल के भवन का वह उपकक्ष जहाँ साधारण नागरिक विधायकों से मिल सकते हैं और उनसे बातें कर सकते हैं । सन् 1800 से शुरू हुए दशक में अमेरिकी कांग्रेस की लॉबी में चलने वाली गतिविधियाँ इतनी बढ़ गईं और उनमें इतना भ्रष्टाचार आ गया कि इन गतिविधियों को आज भी संदेह की दृष्टि से देखा जाता है । लॉबी प्रचार का मतलब था- जन हित को दांव पर लगा कर वोटों को खरीदना और बेचना । इसका प्रभाव इतना बढ़ गया था कि लॉबी को कांग्रेस का तीसरा सदन कहा जाने लगा । वस्तुतः लॉबी कार्यकर्ता अपने मालिकों के पंजीकृत अधिवक्ता होते हैं जो विधायी समितियों को उपयोगी जानकारी प्रस्तुत करते हैं ।

49- समाजवादी या साम्यवादी देशों में केवल सर्वहारा या कामगार वर्ग के हित को मान्यता दी जाती है और उसे व्यक्त करने का एकाधिकार साम्यवादी दल या कम्युनिस्ट पार्टी को प्राप्त है । अत: वहाँ स्वाधीन हित समूहों को पनपने का अवसर नहीं मिल पाता । यद्यपि पूरी दुनिया में साम्यवादी प्रणाली के अवसान के बाद पोलैंड, हंगरी, युगोस्लाविया और रूस में अभिव्यक्ति की आज़ादी को बढ़ावा दिया गया है । पोलैंड में 1980 में कामगारों के हितों की रक्षा के लिए मज़दूर संघों का स्वाधीन संगठन सॉलिडेरिटी अस्तित्व में आया । बल्गेरिया में पर्यावरणवादी समूह उभर कर सामने आए ।

50- राजनीतिक दल और दबाव समूह के बीच एक मुख्य अंतर यह है कि राजनीतिक दल किसी राष्ट्र के भीतर, बहुत सारे समूहों के विविध हितों में सामंजस्य की स्थापना का प्रयास करते हैं जबकि हित समूह विशेष हित, विचार या भावना से प्रेरित होते हैं । राजनीतिक दल महत्वपूर्ण समस्याओं को सुलझाने के लिए विशेष सिद्धांत, नीतियाँ और कार्यक्रम बनाते हैं जबकि हित समूह किसी विशेष हित की सिद्धि या किसी विचार के प्रसार के लिए शासन के दृष्टिकोण, क़ानून, नीति या निर्णय में परिवर्तन की इच्छा रखते हैं । राजनीतिक दल शक्ति का उपार्जन करते हैं जबकि हित समूह राजनीतिक प्रक्रिया को प्रभावित करने के उपाय ढूँढते हैं । किसी एक राजनीतिक दल की सदस्यता होती है जबकि हित समूहों में विभिन्न समूहों की सदस्यता होती है ।

नोट : उपरोक्त सभी तथ्य, ओम् प्रकाश गाबा की पुस्तक, ‘तुलनात्मक राजनीति की रूपरेखा’ पांचवा संस्करण : 2022, नेशनल पेपरबैक्स, 4230/1, अंसारी रोड दरियागंज, नई दिल्ली, ISBN : 978-93-88658-34-8 से साभार लिए गए हैं ।

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Dr. Raj Bahadur Mourya:
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