– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर-प्रदेश) Email : drrajbahadurmourya @gmail.com, website : themahamaya.com
1- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने लिखा है कि, “अन्याय और असमानता से युक्त वास्तविकता को आदर्श का रूप देना स्वार्थ सिद्धि के सिवाय अन्य कुछ नहीं है । जब किसी व्यक्ति को किसी बात में लाभ दिखाई देता है, वह उसे आदर्श का रूप देने की चेष्टा करता है । यह अपराध वृत्ति से कम नहीं है । इस प्रकार एक बार स्थापित की गई असमानता स्थायी हो जाती है । यह धारणा नैतिकता के विरूद्ध है ।” (सम्पूर्ण वांड्.मय,खंड-13, पेज नंबर-12)
2- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर के अनुसार, “एक इतिहासकार को सटीक, ईमानदार, निष्पक्ष, द्वेष रहित, रुचि, भय, क्षोभ और पूर्वाग्रह से मुक्त, सत्यनिष्ठ होना चाहिए ।जो इतिहास का मूल है वह उन महान घटनाओं का संरक्षक, उपेक्षा का शत्रु, अतीत का साक्षी तथा दूरदर्शी होना चाहिए ।” (खंड -13 की प्रस्तावना से)
3- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने कवि भवभूति को उद्धृत करते हुए लिखा है कि, “समय अनंत है, पृथ्वी विस्तृत है, एक दिन एक ऐसे पुरुष का जन्म होगा, जो मेरे कथन की प्रशंसा करेगा ।”(खंड : 13, प्राक्कथन से) प्रोफ़ेसर थार्नडाइक के अनुसार, “सोचना हमारा जैविक स्वभाव है किन्तु हम जैसा सोचते हैं उस पर हमारे सामाजिक स्वभाव का प्रभाव होता है ।” बाबा साहेब ने लिखा है कि, “शूद्रों के कन्धों पर बंदूक़ रखकर ही वर्ण व्यवस्था को ज़िंदा रखा जा सकता है ।”
4- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने लिखा है कि, “हिन्दुओं का एक ऐसा वर्ग है जो रूढ़िवाद के दलदल में फँसा है और जो यह स्वीकार नहीं करते कि हिन्दू समाज की व्यवस्था में कुछ विकार है । उनकी नज़र में तो सुधार की बात करना तक ईश्वर की निंदा है । हिन्दुओं का दूसरा वर्ग है जो आर्य समाज कहलाता है । उनकी दृष्टि में सिर्फ़ वेद ही परम सत्य है । वे रूढ़िवादियों से उतना ही विभेद मानते हैं जितना कि उन सब बातों को तिरस्कृत करने में जो वेदों में नहीं है । उनका मूलमंत्र वेदों की पुनः प्रतिष्ठा है । तीसरा वर्ग ऐसा है जिसके विचार से पूरा हिन्दू समाज ही ग़लत व्यवस्था पर आधारित है, किन्तु वे उस पर प्रहार करना उचित नहीं समझते । वे मानते हैं कि एक दिन वह अपने आप ध्वस्त हो जाएगी । चौथा वर्ग राजनीतिक मानसिकता में लिप्त है । वे ऐसे सवालों से कन्नी काटते हैं । पाँचवाँ वर्ग बुद्धिजीवियों का है जिनकी दृष्टि में समाज सुधार का सर्वोच्च स्थान है ।”(खंड -13 की प्रस्तावना से)
5- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने लिखा है कि, “अस्पृश्यों का त्रास ही हिन्दुओं का अपराध है । हिन्दुओं की धार्मिक मनोवृत्ति में क्रांति के लिए अस्पृश्यों को कितना इंतज़ार करना पड़ेगा, इसका उत्तर तो वही दें, जो भविष्यवाणी करने की योग्यता रखते हैं ।” (खंड : 13, पेज नंबर: 62) उन्होंने आगे लिखा है कि, “जैंड अवेस्ता में वर्ण शब्द वरण या वरेणा के रूप में उपलब्ध है । इसका शाब्दिक अर्थ है धार्मिक सिद्धांत और सम्प्रदाय का विश्वास या आस्था ।” (खंड : पेज: 59) ऋग्वेद में वर्ण शब्द 22 बार आया है । डॉ. अम्बेडकर ने प्रोफ़ेसर रिप्ले की पुस्तक रेसिस ऑफ यूरोप का उद्धरण देते हुए लिखा है कि, “प्राचीनतम यूरोपियनों का रंग निश्चित रूप से काला था ।” उसी पुस्तक में ज़िक्र है कि क्रो मगनोन दक्षिण फ़्रांस की प्रागैतिहासिक जाति थी ।”
6- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने ब्राह्मणों के द्वारा आर्य सभ्यता के महिमामंडन न करने के कारण को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि, “वह दो राष्ट्रों के सिद्धांत में विश्वास करता है । वह स्वयं को आर्यों का प्रतिनिधि मानता है और शेष हिन्दुओं को अनार्य जातियों की संतान कहने से इस सिद्धांत से उसके उत्तम होने के अहम की पूर्ति होती है । वह आर्यों के बाहर से आने तथा अनार्य जातियों को विजित करने के सिद्धांत का समर्थन इसीलिए करता है कि उसे अब्राम्हणों पर अपना प्रभुत्व क़ायम रखने का औचित्य ठहराने में सहायता मिलती है ।” (खंड : 13, पेज नंबर 57)
7- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने लिखा है कि, “आर्य जाति का सिद्धांत अनुमान के सिवाय और कुछ नहीं है । यह डॉ. बोप के दार्शनिक विचारों पर आधारित है जो उन्होंने सन् 1835 में प्रकाशित अपनी युगान्तरकारी पुस्तक कम्परेटिव ग्रामर में प्रकट किए हैं । इस पुस्तक में डॉ. बोप ने लिखा है कि यूरोप की अधिकांश और एशिया की कुछ भाषाओं से पता चलता है कि उनके पूर्वज एक ही थे । जिन भाषाओं की ओर डॉ. बोप ने संकेत किया है वे भारत- जर्मन भाषाएँ कहलाती हैं । इन्हें समुच्चय रूप से आर्य भाषा कहा गया है क्योंकि वैदिक भाषा आर्यों का उल्लेख करती है और वह भारत- जर्मन भाषा परिवार से सम्बद्ध है । यही मुख्य सिद्धांत आर्य जाति पर लागू है ।” (खंड : 13, पेज नंबर 55)
8- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने लिखा है कि, “जिन लोगों की जन आन्दोलनों में रुचि है उन्हें केवल धार्मिक दृष्टिकोण अपनाना छोड़ देना चाहिए । उन्हें भारत के लोगों के प्रति सामाजिक और आर्थिक दृष्टिकोण भी अपनाना चाहिए ।” (खंड 14, पेज नंबर :99) उसी खंड के पेज नंबर 26 पर उन्होंने लिखा है कि, हिमालय की कुछ बोलियों में कीरा या कीरी का अर्थ साँप होता है । कदाचित् इसी शब्द से किरात शब्द बना हो । यह राजतरंगिणी में हिमालय के लोगों के लिए आया है । बाराहमिहिर ने भी किरों का उल्लेख किया है । काँगड़ा घाटी में बैजनाथ मंदिर है । वहाँ के एक शिलालेख में उस स्थान का नाम किरग्राम है । स्थानीय बोली में इसका अर्थ होगा साँपों का गाँव ।हिमालय के सर्प पूजक कीरा दक्षिण के द्रविड़ केर, चेर अथवा केरल के सम्बन्धी थे ।” (खंड : 14, पेज नंबर 56)
9- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने लिखा है कि साँची के बौद्ध स्तूप के पश्चिम में सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय का एक लेख है जिसमें गो हत्या को ब्रम्ह हत्या के समान ही पाप बतलाया गया है । इसमें 93 गुप्त संवत्सर दिया गया है जो 412 ईसवी के बराबर होता है । इस शिलालेख में ही चन्द्रगुप्त के एक अधिकारी के दान का भी वर्णन है ।(खंड : 14, पेज नंबर 116) यही चन्द्रगुप्त द्वितीय है जिसने नाग कुल की कुबेर नागा नामक कन्या से विवाह किया था । पल्लव वंश भी नागवंशी था । बाबा साहेब ने लिखा है कि स्मृतियों में अपवित्र जातियों की अधिक से अधिक संख्या 12 है जबकि आर्डर इन काउंसिल (1935) में इन जातियों की संख्या 429 है । इन 429 में से 427 जातियाँ ऐसी हैं जिनके नाम स्मृतियों में नहीं हैं । केवल चमार ऐसी जाति है जिसका नाम दोनों में है ।
10- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने लिखा है कि, “पुष्यमित्र शुंग द्वारा मौर्य सम्राट बृहद्रथ की हत्या (185 ईसा पूर्व) किए जाने की घटना की ओर जितना ध्यान दिया जाना चाहिए उतना नहीं दिया गया । यह एक युगान्तर कारी घटना थी । यह फ़्रांस की राज्य क्रांति से भी यदि बड़ी नहीं तो उतनी ही बड़ी राजनीतिक क्रांति अवश्य थी । यह एक क्रांति थी – लाल क्रांति । इसका उद्देश्य था बौद्ध राजाओं का तख्ता पलट देना । बौद्ध नरेशों के विरूद्ध यह क्रांति लाकर ब्राह्मणवाद ने देश के ऐसे दो प्रचलित नियमों का उल्लंघन किया जिनको सभी लोग पवित्र और अनुलंघनीय मानते थे । पहला यह कि ब्राह्मण द्वारा शस्त्र का स्पर्श करना पाप है । दूसरा राजा का शरीर पवित्र था और राज हत्या पाप ।”(खंड : 14, पेज नंबर : 140,141)
11- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव ने अपनी पुस्तक “अछूत कौन थे ? और वे अछूत कैसे बने” का समापन करते हुए लिखा है कि भारत में छुआ-छूत 400 ईसवी के आसपास किसी समय पैदा हुई होगी और बौद्ध धर्म तथा ब्राह्मण धर्म के संघर्ष से पैदा हुई । इस संघर्ष ने भारत के इतिहास को पूरी तरह से बदल दिया । डी. आर. भण्डारकर का मत है कि चौथी शताब्दी में किसी समय गुप्त राजाओं के द्वारा गो वध प्राण दंडनीय अपराध घोषित किया गया । चीनी यात्री फाहियान सन् 400 ईसवी में भारत आया था । उसने अपने यात्रा विवरण में छुआ-छूत का स्पष्ट तौर पर ज़िक्र नहीं किया । ब्राह्मण लेखक बाण ने अपनी पुस्तक कादम्बरी में चाण्डाल कन्या के मोहक रूप का ज़िक्र किया है । यह पुस्तक सन् 600 ईसवी के आस-पास की रचना है ।दूसरा चीनी यात्री ह्रेनसांग सन् 629 ईसवी में भारत आया और यहाँ पर वह 16 वर्ष तक रहा । उसने अपने यात्रा विवरण में भारत में छुआ-छूत का ज़िक्र किया है । (खंड 14, पेज नंबर 146,147)
12- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने लिखा है कि, “दलित युवाओं को मेरा यह पैग़ाम है कि एक तो वे शिक्षा और बुद्धि में किसी से कम न रहें, दूसरे ऐशो-आराम में न पड़कर समाज का नेतृत्व करें । तीसरे समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभाएं । समाज को जागृत और संगठित कर उनकी सच्ची सेवा करें ।” (खंड 17, संदेश) बाबा साहेब ने लिखा है कि, “ हिन्दू सोसाइटी उस बहुमंज़िली मीनार की तरह है जिसमें प्रवेश करने के लिए न कोई सीढ़ी है न दरवाजा । जो जिस मंज़िल में पैदा हो जाता है उसे उसी मंज़िल में मरना होता है ।”(खंड :17)
13- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने लिखा है कि, “मैं अन्याय, अत्याचार, आडम्बर तथा अनर्थ से घृणा करता हूँ और मेरी घृणा उन सब लोगों के प्रति है, जो इन्हें अपनाते हैं । वे दोषी हैं । मैं अपने आलोचकों को यह बताना चाहता हूँ कि मैं अपने इन भावों को अपना वास्तविक बल और शक्ति मानता हूँ ।” (खंड : 15, संदेश) उन्होंने बड़ी बेबाक़ी के साथ लिखा है कि, “श्री गांधी दुनिया के सामने उदार बनते हैं, परन्तु उनका उदारवाद एक मुखौटा है, जो एकदम झीना-झीना है । आप कुरेदिये तो पता चलेगा कि उनके उदारवाद में अभिजात अनुदारवाद भरा है । वे जाति को कोसते हैं । वे कट्टर हिन्दु हैं, जो हिन्दू धर्म को मानते हैं ।”(खंड 17, पेज नंबर :32)
14- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने लिखा है कि यज्ञोपवीत संस्कार गोत्राधिकार के लिए किया जाता था । उपनयन संस्कार वेदाध्ययन के निमित्त किया जाता था । यदि पुत्र बिना यज्ञोपवीत विद्याध्ययन हेतु जाता था तब आचार्य द्वारा उसे अपने गोत्र में शामिल करने का भय रहता था । कालान्तर में यज्ञोपवीत और उपनयन संस्कार एक साथ होने लगे । यज्ञोपवीत तीन प्रकार से 1-निवीत, 2-प्रसन्वित और 3-उपवीत धारण करने का प्रावधान है । जब इसे गले में ह्रदय स्थल से दो अंगुल नीचे और नाभि से दो अंगुल ऊपर पहनते हैं तो यह निवीत कहलाता है । उपवीत, बांए कंधे से दायीं ओर तथा दाएँ कन्धे से बांई ओर धारण करने से प्रसन्वित कहा जाता है । (खंड 13, पेज नंबर : 128,129)
15- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने लिखा है कि ब्राह्मणों का ज़िक्र एक वर्ण के लिहाज़ से 15 बार तथा क्षत्रियों का 9 बार आया है । परन्तु शूद्र का नाम इस अर्थ में कहीं नहीं आया कि वह एक वर्ण का नाम है । यदि किसी विशेष वर्ग का नाम शूद्र होता तो ऋग्वेद में उसका ज़िक्र अवश्य आता । इससे यही परिणाम निकलता है कि शूद्र नाम का कोई चौथा वर्ण नहीं था ।(खंड : 13, पृष्ठ 107) उन्होंने आगे कहा कि “प्राचीन काल में भरत जातियाँ एक दूसरे से भिन्न थीं । एक तो दुष्यन्त पुत्र भरत है जिसका वर्णन महाभारत में आता है और दूसरे भरत ऋग्वेद में वर्णित मनु के वंशज हैं, जिनमें सुदास भी है । इस देश का नाम ऋग्वेद के भरतों के नाम पर पड़ा है न कि दुष्यन्त के पुत्र भरत के नाम पर । इसका ज़िक्र भागवत पुराण में है ।”
16- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने लिखा है कि विष्णु पुराण के अध्याय चार में वर्णित है कि, “राजा सगर की दो पत्नियाँ थीं । एक कश्यप की पुत्री सुमति तथा दूसरी विदर्भराज की पुत्री केशिनी । केशनी ने असमंजस नामक पुत्र को जन्म दिया । सुमति ने साठ हज़ार पुत्रों को जन्म दिया । असमंजस का पुत्र अंशुमान और अंशुमान का पुत्र दिलीप हुआ । दिलीप के पुत्र का नाम भगीरथ था । वह गंगा को धरती पर लाए । अतः उनके नाम पर गंगा भागीरथी कहलायी ।”(खंड 13, पेज नंबर 94) उसी खंड के पेज नंबर 155 पर लिखा है कि मत्स्यपुराण के अनुसार ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों के 91 व्यक्तियों ने वैदिक मंत्रों की रचना की । अत्यंत विख्यात गायत्री मंत्र की रचना विश्वामित्र ने की, जो एक क्षत्रिय थे ।
17- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने लिखा है कि महाभारत के वन पर्व में इस बात का वर्णन है कि हैहय राजा कृतवीर्य के पुत्र सहस्रबाहु अर्जुन थे, जिनके एक हज़ार हाथ थे । इन्हीं सहस्रबाहु का वध परशुराम ने किया था । परशुराम जमदग्नि के पुत्र थे । उनकी माँ का नाम रेणुका था । परशुराम ने 21 बार पृथ्वी पर क्षत्रियों का संहार किया था । भारत वर्ष में 1935 में ब्रिटिश सरकार ने यहाँ की कुछ जातियाँ जो पुश्तैनी छुआ-छूत की शिकार थीं उनकी एक सूची बनाई थी । जो 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के अधीन निकाले गए आर्डर इन काउंसिल के साथ संलग्न हैं । तत्कालीन भारत में इनकी आबादी 5-6 करोड़ थी । (खंड 14, पेज नंबर 22)
18- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने लिखा है कि, “भारत में विशाल संख्या की छुआ-छूत जन्म, मृत्यु आदि की अशुचिता से सर्वथा भिन्न है । यह आजीवन है । जो हिन्दू उनका स्पर्श करते हैं वे स्नानादि के द्वारा पवित्र हो सकते हैं किन्तु ऐसी कोई चीज़ नहीं है जो अछूत को पवित्र बना दे । वे अपवित्र ही बने रहकर मर भी जाते हैं और जिन बच्चों को वह जन्म देते हैं वे बच्चे भी अपवित्रता का कलंक माथे पर लगाए पैदा होते हैं । यह एक स्थायी जन्म- जन्मांतर कलंक है जो किसी तरह से धुल नहीं सकता ।” (खंड : 14, पेज नंबर 23) बाबा साहेब ने लिखा है कि स्पृश्यों तथा अस्पृश्यों के बीच एकता क़ानून के बल पर नहीं लायी जा सकती…. केवल प्रेम ही उन्हें एकता के सूत्र में पिरो सकता है ।
19- मनु ने जन्म, मृत्यु तथा मासिक धर्म को अशुद्धि का जनक स्वीकार किया है । उनके अनुसार अशुद्धि शारीरिक और मानसिक दोनों होती है । मनुस्मृति के दसवें अध्याय के 64 से 67 तक के श्लोकों में मनु का कथन है कि यदि कोई शूद्र सात पीढ़ियों तक ब्राह्मण जाति में विवाह करे तो वह ब्राह्मण बन सकता है। ब्रिटिश लेखक स्टैनले राइस की पुस्तक हिन्दू कस्टम एंड दियर ओरिजिन भारत में अछूतों की उत्पत्ति से सम्बन्धित है । उनके अनुसार भारत में अस्पृश्यता का मूल कारण था : नस्ल और पेशा । लेखक सीभोम ने अपनी पुस्तक द ट्राइबल सिस्टम इन वेल्स में वहाँ के जनजातियों के रहन- सहन का विस्तृत वर्णन किया है ।
20- श्री स्टैनले राइस के अनुसार भारत पर दो आक्रमण हुए हैं । पहला आक्रमण द्रविड़ों का है । उन्होंने अद्रविण मूल निवासियों पर विजय प्राप्त की जो वर्तमान अछूतों के पूर्वज थे और उन्हें अछूत बनाया । दूसरा आक्रमण भारत पर आर्यों का आक्रमण है । आर्यों ने द्रविड़ों को जीता । उन्होंने आगे कहा है कि, आर्य निर्विवाद रूप से दो भागों में विभाजित थे । एक ऋग्वेदीय आर्य और दूसरे अथर्ववेदीय आर्य । ऋग्वेदीय आर्य यज्ञों में विश्वास करते थे जबकि अथर्ववेदीय आर्य जादू टोने में । ऋग्वेदीय आर्यों ने ब्राह्मण सूत्र और आरण्यकों की रचना की । अथर्ववेदियों ने उपनिषदों की रचना की ।(खंड : पेज नंबर : 49)
21- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने लिखा है कि, “नाग और द्रविड़ एक ही हैं । वे एक ही प्रजाति के दो भिन्न-भिन्न नाम हैं । नाग उनका जातिगत सांस्कृतिक नाम है और द्रविड़ भाषागत । द्रविड़ मौलिक शब्द नहीं है । यह तमिल शब्द का संस्कृत रूप है । मूल शब्द तमिल जब संस्कृत में आया तब यह दमिल्ल हो गया और दमिल्ल ही द्रविड़ बन गया । तमिल या द्रविड़ केवल दक्षिण भारत की भाषा नहीं थी बल्कि आर्यों के आगमन से पूर्व समस्त भारत की भाषा थी और कश्मीर से लेकर रामेश्वरम तक बोली जाती थी । महाराष्ट्र नागों का क्षेत्र है । यहाँ के लोग और यहाँ के राजा नाग थे ।”(खंड 14, पेज नंबर :57,58) लिच्छिवियों की राजधानी वैशाली नगर का रक्षक नाग देवता था । चेर अथवा सेर, प्राचीन तमिल भाषा में नाग का ही पर्यायवाची है ।
22- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर के अनुसार, “दास और नाग एक ही हैं । नाग दासों का ही दूसरा नाम है । दास भारतीय ईरानी शब्द दाहक का संस्कृत तत्सम् रूप है । नागों के राजा का नाम दाहक था इसलिए आर्यों ने नागों के राजा के नाम पर सभी नागों को सामान्य रूप से दास कहना आरम्भ किया । ऋग्वेद में नागों का ज़िक्र आने से स्पष्ट है कि नाग एक बहुत ही प्राचीन पुरुष थे । यह भी स्मरणीय है कि नाग न तो आदिवासी थे और न ही असभ्य । इतिहास नागों और राजकीय परिवारों के बीच निकट वैवाहिक सम्बन्धों का साक्षी है ।”(खंड : 14, पेज नंबर : 50) सिंहल और स्याम की बौद्ध अनुश्रुति से हमें यह ज्ञात होता है कि करांची के पास मजेरिक नाम का एक नाग प्रदेश था ।
23- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने लिखा है कि, “सन् 1776 ईसवी की अमेरिकी स्वाधीनता के घोषणा पत्र को थॉमस जैफरसन ने लिखा है । जिसमें कहा गया है कि, ‘हम समझते हैं कि सभी मनुष्य समान बनाए गए हैं । नियंता ने उन्हें कुछ अविच्छिन्न अधिकार प्रदान किए हैं वे हैं : जीवन, स्वतंत्रता और प्रसन्नता का मार्ग । इन अधिकारों की प्राप्ति हेतु सरकार का गठन किया जाता है जो प्रजा से न्यायसंगत अधिकार प्राप्त करती है । जब कोई सरकार इन उद्देश्यों का विध्वंस करने लगे तो जनता को यह अधिकार है कि वह उसे बदल डाले और नयी सरकार बनाए जिसकी आधारशिला ऐसे सिद्धांतों पर रखी जाए और उसकी शक्तियाँ ऐसे निश्चित की जाएं जिससे उनके संरक्षण और ख़ुशहाली का मार्ग प्रशस्त हो सके ।”(खंड : 17, पेज नंबर :32)
24- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने लिखा है कि, “सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र राजनीतिक लोकतंत्र का तानाबाना है । जितना ही मज़बूत यह तानाबाना होगा उतनी दृढ़ता उसमें होगी । समानता लोकतंत्र का दूसरा नाम है ।(खंड :17, पेज नंबर :47) बाबा साहेब ने लिखा है कि, “राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद में फ़र्क़ है । यह मानव मस्तिष्क की दो अलग-अलग मनोवैज्ञानिक अवस्थाएँ हैं । राष्ट्रीयता से तात्पर्य एक तरह की संचेतना से है, जातीय बंधन की सजगता से है । राष्ट्रवाद से तात्पर्य है उन लोगों के लिए पृथक राष्ट्रीय अस्तित्व की आकांक्षा, जो इस राष्ट्रीय बंधन में बंधे हुए हैं । राष्ट्रीयता की भावना के बिना राष्ट्रवाद हो ही नहीं सकता । इसके लिए दो आवश्यक शर्तें हैं । पहला, एक राष्ट्र के रूप में रहने की इच्छा का जाग्रत होना, दूसरा, एक क्षेत्र का होना जिसे राष्ट्रवाद अधिग्रहीत कर एक राज्य तथा राष्ट्र का सांस्कृतिक घर बना सके ।” (खंड : पेज नंबर: 21)
25- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने इटली के कवि रेनन को उद्धृत करते हुए लिखा है कि, “अतीत का समान गौरव, वर्तमान में समान आकांक्षा, साथ-साथ मिलकर किये गये महान कार्य, वैसे ही कार्यों को पुनः करने की इच्छा- यह सभी किसी व्यक्ति को राष्ट्र-भाव से प्रेरित करने वाली अनिवार्य स्थितियाँ हैं । हम जितने अधिक कष्ट सहन कर त्याग करते हैं, उसी अनुपात में उनके प्रति हमारी आसक्ति होती है । हम जो मकान बनाते हैं और जिसे हमें अपने वंशधरों को सौंपना है उससे हम प्यार करते हैं । स्पार्टन श्लोक, “हम वही हैं जो आप थे, हम वही बनेंगे जो आप थे । यही सरल शब्दों में हर देश का राष्ट्रगान है । जहॉं तक राष्ट्रीय स्मृतियों का सम्बन्ध है, विजयों की अपेक्षा शोक के अवसरों का महत्व अधिक है, क्योंकि वे हम पर दायित्व डालते हैं, वे साझा प्रयासों की माँग करते हैं ।”(खंड : 15, पेज नंबर 12)
26- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर के शब्दों में, “राष्ट्रीयता एक सामाजिक सोच है । यह एकत्व की एक समन्वित भावना की अनुभूति है, जो उन लोगों में जो इससे अभिभूत है, परस्परता की भावना और उसमें यह अनुभूति जगाती है कि वह एक ही तरुवर के फूल हैं । यह राष्ट्रीय अनुभूति एक दुधारी अनुभूति है । यह जहॉं अपने प्रियजनों के प्रति अपनत्व की अनुभूति है, वहीं जो एक व्यक्ति के अपने प्रियजन नहीं हैं, उनके प्रति अपनत्व विरोधी अनुभूति है । यह एक प्रकार के बोध की अनुभूति है, जो एक ओर जिनमें यह है, उन्हें एकता के इतने मज़बूत सूत्र में बाँधती है कि आर्थिक विभिन्नताओं अथवा सामाजिक वर्गीकरण से उद्भूत सभी मतभेदों पर विजय पा जाती है ।दूसरी ओर, उन्हें यह उन लोगों से अलग भी करती है जो उनके जैसे नहीं हैं । यह किसी अन्य समूह से सम्बद्ध नहीं होने का भाव बोध भी जगाती है । यही राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय भावना का सार तत्व है ।”(खंड : 15, पेज नंबर :13) एच. जी. वेल्स ने कहा है कि, “भारत के लिए राष्ट्रीयता के बिना होना उतना ही अनुचित होगा जितना कि किसी आदमी का भीड़ में निर्वस्त्र होना ।”
27- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर के भारत सरकार द्वारा प्रकाशित सम्पूर्ण वांग्यमय के खंड 15, पेज नंबर 41 पर लिखा है कि, “मिन्हाज-अल-सिराज बताता है कि सोमनाथ के मंदिर को लूटने के पश्चात् मुहम्मद गोरी ने मूर्ति के चार टुकड़े कर दिए थे । उसका एक भाग गजनी की जामी मस्जिद में जमाया गया, एक को उसने शाही महल के प्रवेश द्वार पर रखा और तीसरा भाग मक्का तथा चौथा मदीना भेजा गया ।”
28- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने लिखा है कि, “क़ुतुबुद्दीन एबक ने लगभग एक हज़ार मंदिरों को तोड़कर उनके स्थान पर मस्जिदें खड़ी की थी । उसने दिल्ली में जामा मस्जिद का निर्माण करवाया और उसे उन मंदिरों से प्राप्त हुए स्वर्ण तथा पाषाणों से सजाया जिन्हें हाथियों के द्वारा तोड़ा गया था । उसे उन शिलालेखों से भर दिया गया जिनमें क़ुरान के आदेश उत्कीर्ण थे । दिल्ली की इस मस्जिद के पूर्वी प्रवेश द्वार पर एक जो शिलालेख अंकित है उसमें यह बताया गया है कि इस मस्जिद के निर्माण में 27 मंदिरों की सामग्री का उपयोग किया गया था ।(खंड 15, पेज नंबर 42) उसी खंड में इस बात का भी ज़िक्र किया गया है कि बादशाहनामा में बनारस को कुफ़्र का सुदृढ़ केन्द्र बताया गया था । पुस्तक मआथिर-ए-आलमगीरी में औरंगजेब के द्वारा हिन्दू शिक्षा के उन्मूलन और हिन्दू मंदिरों के विध्वंस का विवरण है ।
29- वर्ष 1070 में जब मुहम्मद ने कन्नौज पर आक्रमण किया और क़ब्ज़ा कर लिया तो उसने इतनी अधिक सम्पदा लूटी और लोगों को बंदी बनाया कि उनकी गणना करने वालों की उँगलियाँ थक गईं । सन् 1202 में जब क़ुतुबुद्दीन ने कालिंजर पर अधिकार कर लिया, मंदिरों को मस्जिदों में बदलने और मूर्ति पूजा का नाम निशान मिटाने के बाद पचास हज़ार लोग ग़ुलामी के बंधन में जकड़े गए और मैदान हिंदुओं से ठसाठस भरा हुआ काला सा दिखाई देने लगा ।(खंड : 15, पेज नंबर 45) उक्त खंड में यह भी लिखा हुआ है कि अकबर के भाई हाकिम ने काबुल और कंधार को भारत से अलग किया ।
30- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने लिखा है कि 1857 के ग़दर के बाद भारत में उसकी जॉंच के लिए एक पील कमीशन की नियुक्ति की गई । उसके जॉंच का मुख्य विषय था, बंगाल फ़ौज की कमजोरी का पता लगाना जिसके कारण 1857 का ग़दर हुआ । कमीशन ने कमजोरी को इंगित करते हुए लिखा कि, “नियमित फ़ौज के सिपाही संयोगवश घुलमिल गए । फ़ौजी कम्पनियाँ वर्ग या वर्ण के हिसाब से अलग-अलग नहीं थीं… फ़ौजी लाइंस में हिन्दू और मुसलमान, सिख और पुरबिया सब एक साथ मिलकर रहते थे, जिसमें वे सब कुछ हद तक अपने जातिगत पूर्वाग्रहों को भूलकर एक जैसे भावना से प्रेरित होने लगे थे ।” (खंड : 15, पेज नंबर :79)
31- आयरिश देशभक्त क्यूरेन ने कहा था कि, “कोई भी व्यक्ति अपने आत्मसम्मान की क़ीमत पर किसी का आभारी नहीं हो सकता । कोई भी महिला अपने स्त्रीत्व की क़ीमत पर किसी का आभार व्यक्त नहीं कर सकती और कोई भी राष्ट्र अपनी गौरव- गरिमा की क़ीमत पर किसी का आभारी नहीं बन सकता।” भोजन से अधिक जीवन मूल्यवान है ।(खंड : 15, पेज नंबर : 29) चीनी तीर्थयात्री ह्नेनसांग ने अपनी डायरी में यह लिखा था कि भारत पॉंच भागों में विभाजित था : उत्तरी भारत, पश्चिमी भारत, मध्य भारत, पूर्वी भारत और दक्षिणी भारत । इन पाँचों भागों में 80 रियासतें थीं ।
32- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने लिखा है कि सन् 1837 में अंग्रेजों ने भारत में फ़ारसी भाषा को जो अदालतों और सामान्य प्रशासन की सरकारी भाषा थी, समाप्त कर दिया और उसके स्थान पर अंग्रेज़ी और देशी भाषाओं को लागू किया गया । उसके बाद क़ाज़ी हटाए गए जो मुस्लिम शासन के दौरान शरीयत क़ानून को लागू करते थे । उनके स्थान पर विधि-अधिकारी और न्यायाधीश नियुक्त किए गए जो किसी भी धर्म को मानने वाले हो सकते थे । उन्हें मुस्लिम क़ानून की व्याख्या करने का अधिकार दिया गया और उन फ़ैसलों को मानने के लिए मुसलमानों को बाध्य किया गया । मुसलमानों ने 600 वर्षों तक हिन्दुओं पर हुकूमत किया ।
33– भारत पर पहला मुस्लिम आक्रमण अरबों ने किया था जिसका नेतृत्व मुहम्मद बिन क़ासिम ने किया था । यह हमला सन् 711 में हुआ था और उसने सिन्ध पर विजय प्राप्त की थी । सिन्ध सम्राट राजा दाहिर पराजित हुआ था । सन् 1001 में गजनी के मुहम्मद ने भीषण आक्रमण किया । उसकी मौत 1030 में हो गयी थी । उसने 30 साल की अल्पावधि में भारत पर 17 बार आक्रमण किया । सन् 1173 में मुहम्मद गोरी ने भारत पर आक्रमण किया । वह 1206 ईसवी में मारा गया । 30 साल तक यह भी भारत को रौंदता रहा । सन् 1221 में चंगेज़ खान के मंगोलों ने भारत पर आक्रमण किया । 1398 में तैमूरलंग ने हमला किया । 1526 में बाबर ने हमला किया । 1738 में नादिरशाह ने पंजाब पर आक्रमण किया । सन् 1761 में अहमद शाह अब्दाली ने भारत पर हमला किया । उसने पानीपत में मराठों की सेनाओं को पराजित किया ।
34- मुहम्मद गजनी तातार था । मुहम्मद गोरी अफ़ग़ान था । तैमूरलंग मंगोल था । बाबर तातार था । नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली अफगानी थे । मुहम्मद बिन क़ासिम ने मज़हबी जोश के साथ जो पहला कार्य किया, वह था देवल नगर पर आधारित कर लेने के बाद वहाँ के ब्राह्मणों का ख़तना कराना । जिसने भी इस पर आपत्ति की उसका बध कर दिया गया ।(खंड : 15, पेज नंबर :39) बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने लिखा है कि भारत में साम्प्रदायिकता के उदय का एक बड़ा कारण यह है कि एक सम्प्रदाय को दूसरे सम्प्रदाय के प्रभुत्व का भय था ।
35- लाला हरदयाल ने 1925 में प्रस्तुत अपनी योजना में, जिसे उनका राजनीतिक वसीयतनामा कहा जाता है, उसमें कहा है कि, “मैं यह घोषणा करता हूँ कि हिन्दू जाति, हिन्दुस्तान और पंजाब का भविष्य इन चार स्तम्भों पर आधारित है : हिन्दू संगठन, हिन्दू राज, मुस्लिमों की शुद्धि और अफ़ग़ानिस्तान तथा सीमावर्ती क्षेत्रों पर विजय तथा उनका शुद्धीकरण ।”(खंड : 15, पेज नंबर : 115) विनायक दामोदर सावरकर ने लिखा था कि, “हिन्दू कोई संधि से बना हुआ राष्ट्र नहीं है बल्कि एक सहज नैसर्गिक राष्ट्र है ।”
36- विनायक दामोदर सावरकर ने हिन्दुइज्म, हिन्दुत्व और हिन्दुडम, इन तीन शब्दों पर बहुत ज़ोर दिया है । “हिन्दू शब्द से अंग्रेज़ी में हिन्दुइज्म बनाया गया है । इसका मतलब है वह धार्मिक विचारधारा या धर्म का दर्शन जिसका हिन्दू लोग अनुकरण करते हैं । दूसरा शब्द हिन्दुत्व कहीं अधिक व्यापक है और इसमें हिन्दुइज्म की तरह न केवल हिन्दुओं के धार्मिक दर्शन को लिया गया है बल्कि इसके अंतर्गत उनके सांस्कृतिक, भाषायी, सामाजिक और राजनीतिक पहलू भी आ जाते हैं । तीसरे शब्द हिन्दुडम का तात्पर्य सामूहिक रूप से हिन्दू समुदाय की बात करना है । यह हिन्दू जगत का सामूहिक नाम है, जैसे इस्लाम मुस्लिम जगत का प्रतीक है ।”(खंड 15, पेज नंबर : 119)
37- विनायक दामोदर सावरकर की दृष्टि में हिन्दू वह व्यक्ति है, “जो इस भारत भूमि को सिन्धु से सागर तक अपना समझता है और उसे अपनी पितृभूमि तथा पुण्य भूमि मानता है । अर्थात् उसके धर्म का उदय हुआ और जो उसकी आस्था का पालना बना ।” इसलिए वैदिक ब्रम्ह समाज, जैन, लिंगायत, सिख, आर्य समाज और भारतीय मूल के अन्य सभी धर्मों को मानने वाले लोग हिन्दू हैं और हिन्दू मिलकर हिन्दू जगत (हिन्दुडम) का निर्माण करते हैं अर्थात् सारे के सारे हिन्दू लोग हैं ।(खंड : 15, पेज नंबर 130) सावरकर मानते थे कि, “मुस्लिम एक अलग राष्ट्र हैं । उन्हें सांस्कृतिक स्वायत्तता का अधिकार है । उन्हें अपना पृथक् राष्ट्रीय ध्वज रखने की अनुमति है । पर इसके बावजूद मुस्लिम राष्ट्र के लिए अलग क़ौमी वतन की अनुमति नहीं है ।” (पेज नंबर 132) सावरकर ने कहा है कि, “यदि आप आते हैं तो आपके साथ, यदि आप नहीं आते तो आपके बिना, यदि आप विरोध करते हैं तो उसके बावजूद हिन्दू अपनी पूरी ताक़त से स्वतंत्रता के लिए संघर्ष जारी रखेंगे ।”(पेज नंबर 135)
38- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने लिखा है कि, “इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि भारत में जाति, भाषा और धर्म इतने अधिक शक्तिशाली हैं कि एक ही सरकार के अंतर्गत रहने के बावजूद भारत एकीकृत राष्ट्र के रूप में नहीं ढाला जा सकता है । यह एक भ्रामक धारणा है कि हिन्दुस्तान में एक केन्द्रीय सरकार ने हिन्दुस्तानी लोगों को एक राष्ट्र में ढाल दिया है । जो कुछ केन्द्रीय सरकार ने किया है वह यह है कि उन्हें एक ही क़ानून से बांध दिया है । परन्तु इससे वे एक राष्ट्र नहीं बन गए हैं ।” (खंड : 15, पेज नंबर : 179) डॉ. अम्बेडकर ने लिखा है कि श्री गांधी के नेतृत्व में हिन्दू समाज पागलखाना भले ही न बना हो किन्तु राजनीति के पीछे तो वह सुनिश्चित रूप से पागल हो ही गया ।”(पेज नंबर :232)
39- जेम्स ब्राइस ने अपनी पुस्तक द यूनिटी ऑफ वेस्टर्न सिविलाइजेशन (चौथा संस्करण) के पेज नंबर 27 पर लिखा है कि, “धर्म के ऊपर ही किसी राष्ट्र का अंतरतम और गहनतम जीवन निर्भर करता है । चूँकि देवत्व विभाजित हो गया है इसलिए मानवता भी विभाजित हो गयी है ।” बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने इसी बात को हिन्दू- मुस्लिम एकता के लिए किए जा रहे प्रयासों के सन्दर्भ में कहा, “उनके लिए तो देवत्व ही विभाजित है और देवत्व के विभाजन के कारण उनकी मानवता भी विभाजित है और मानवता के विभाजन के कारण उन्हें हमेशा अलग रहना है । उनको एक ही छत्रछाया के अंतर्गत लाने का कोई माध्यम नहीं है ।”(खंड 15, पेज नंबर 185)
40- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने लिखा है कि, “राष्ट्रीयता एक वास्तविकता है, जिससे न तो कुशलता पूर्वक छुटकारा पाया जा सकता है और न ही उसका निषेध किया जा सकता है । चाहे कोई इसे अयुक्तिसंगत अन्त:प्रेरणा कहे या सकारात्मक मतिभ्रम बताए, परन्तु यह तथ्य है कि यह एक प्रभावपूर्ण शक्ति है और ऐसी गतिशील ताक़त है जो साम्राज्यों को खंडित कर सकती है । इसका कारण चाहे राष्ट्रीयता हो अथवा राष्ट्रीयता के लिए ख़तरा, यह तो कहने का कहने का ढंग ।”(खंड : 15, पेज नंबर :208) टॉयनबी ने भी लिखा है कि “राष्ट्रीयता का सही- सही अध्ययन जीवन मरण का प्रश्न बन गया है ।”
41- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर के सम्पूर्ण वांग्मय, खंड :15 के पेज नंबर-228 पर लिखा है कि, रेनन ने लिखा है कि “इस्लाम मानवीय तर्क की कसौटी पर हानिकारक सिद्ध हुआ है । उसने स्वतंत्र चिंतन का दमन किया है । मानव की तर्क वादी संस्कृति के लिए एक बंद क्षेत्र बना दिया । विज्ञान से उसकी नफ़रत है । उनकी यह सोच कि अनुसंधान उपयोगी नहीं है उचित नहीं है । प्राकृतिक विज्ञान इसलिए अनुपयोगी है क्योंकि उसमें ख़ुदा से प्रतिद्वंद्विता होती है । ऐतिहासिक विज्ञान इसलिए कि उसमें इस्लाम से पूर्व काल का वर्णन होता है जिससे प्राचीन विधर्म पुनर्जीवित हो सकता है ।”
42- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने राज्य और राष्ट्र में अंतर करते हुए लिखा है कि, “राज्य काफ़ी हद तक मिली-जुली आबादी वाला होता है जिसकी भिन्न-भिन्न भाषाएँ, धार्मिक आचरण और सामाजिक परम्पराएँ होती हैं और यह आबादियाँ असंगठित झुण्डों का समूह बनाकर रहती हैं । किसी राज्य का एकजुट समाज नहीं होता जो एक ही विचार और एक ही काम की अवधारणा से ओतप्रोत हो । जबकि राष्ट्र एक नृजातीय अवधारणा है जिसके मूल में एक भाषा, एक धर्म, एक रक्त सम्बन्ध की अवधारणा निहित है ।”
43- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर का अपने मित्रों और अनुयायियों से कहना था कि, “अपने ज्ञान में वृद्धि करो, संसार आपको मान्यता अवश्य देगा ।” वह हमेशा कहते थे कि मेरी कल्पना का समाज वह होगा जो स्वतंत्रता, समता और भ्रातृत्व पर आधारित हो। बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर का कहना था कि, “प्रजातंत्र सरकार का एक स्वरूप मात्र नहीं है बल्कि यह साहचर्य की स्थिति में रहने का एक ढंग है, जिसमें सार्वजनिक अनुभव का समवेत रूप से संप्रेषण होता है । प्रजातंत्र का मूल है, अपने साथियों के प्रति आदर और मानव की भावना ।”
44- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने लिखा है कि, “हमारा यह महान कर्तव्य है कि हम जनतंत्र को जीवन सम्बन्धों के मुख्य सिद्धांत के रूप में संसार से समाप्त न होने दें । यदि हम जनतंत्र में विश्वास करते हैं तो हमें उसके प्रति सच्चा और वफ़ादार होना चाहिए । हमें जनतंत्र में केवल विश्वास ही प्रकट नहीं करना चाहिए वरन् हम जो कुछ भी करें हमें अपने शत्रुओं को जनतंत्र के मूल सिद्धांत : स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व का अन्त करने में सहायता नहीं करनी चाहिए ।”
45- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने लिखा है कि जनतंत्र चार आधार वाक्यों पर टिका होता है : एक, व्यक्ति स्वयं में साध्य है । दो, व्यक्ति के कुछ अपृथक् अधिकार होते हैं जिनकी सुरक्षा संविधान द्वारा मिलनी चाहिए । तीन, किसी सुविधा को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति के संवैधानिक अधिकारों का हनन नहीं होना चाहिए । चार, राज्य निजी लोगों को वे अधिकार नहीं देगा जिससे वे अन्य लोगों पर शासन करें । इस प्रकार व्यक्ति का सम्मान, राजनीतिक स्वतंत्रता, सामाजिक प्रगति और समता, मानव अधिकार, संवैधानिक नैतिकता, स्वतंत्रता आदि डॉ. अम्बेडकर के राजनीतिक जनतंत्र के आवश्यक तत्व हैं ।
46- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने संसदीय जनतंत्र का समर्थन करते हुए लिखा है कि, “पैतृक शासन नहीं होना चाहिए । कोई भी मनुष्य पैतृक शासन का अधिकारी नहीं है । जो कोई शासन करना चाहता है उसे जनता के द्वारा समय- समय पर चुन कर आना चाहिए । उसे जनता की स्वीकृति लेना चाहिए । पैतृक शासन का संसदीय सरकार में कोई स्थान नहीं है ।” “कोई भी क़ानून या कोई भी योजना जो जनता के हित के लिए बनायी गयी है, वह उन लोगों की सलाह से बनायी जानी चाहिए जिनको जनता ने अपना प्रतिनिधि चुनकर भेजा है ।” एक निश्चित समयावधि में स्वच्छ एवं निष्पक्ष चुनाव होते रहने चाहिए ।
47- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर के अनुसार, “न्याय सामान्यतः स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व का दूसरा नाम ही है ।” उनके अनुसार, “भ्रातृत्व का अर्थ सभी भारतीयों के बीच एक सामान्य भाईचारे की भावना है, सभी भारतीय एक राष्ट्र हैं । यही वह आदर्श है जो सामाजिक जीवन को एकता और सुदृढ़ता प्रदान करता है ।” डॉ. अम्बेडकर की दृष्टि में, भ्रातृत्व सर्वोच्च मानव मूल्य है जो आदमी को दूसरों की भलाई के लिए प्रेरित करता है ।
48- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर के अनुसार, “राज्य को सभी नागरिकों को विश्वास और धर्म की स्वतंत्रता देनी चाहिए । उनको धर्म प्रचार करने और धर्म परिवर्तन करने की भी स्वतंत्रता क़ानून तथा नैतिक व्यवस्था की सीमाओं के अंतर्गत होनी चाहिए ।” वह कहते थे कि यदि कोई व्यक्ति अंतर्मुखी है तो धर्म उसे आंतरिक सुख प्रदान करता है और कोई व्यक्ति बहिर्मुखी है तो धर्म उसे सामाजिक सेवा के लिए प्रेरित करता है ।
49- सामाजिक कार्य में लगे लोगों के लिए बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर का पैग़ाम है, “आपको अपने अभीष्ट की पवित्रता में अडिग विश्वास रखना चाहिए । आपका लक्ष्य उत्तम है और आपका ध्येय (मिशन) सर्वोच्च एवं गौरवशाली है । वे धन्य हैं जो अपने उन समाज बन्धुओं के प्रति, जिनके बीच उन्होंने जन्म लिया है, अपने कर्तव्य पालन हेतु पूर्णतः सजग हैं । उनकी महिमा को धन्य है जो अपना समय, अपनी विद्वता एवं अपना सर्वस्व दासता से विमुक्ति के लिए अर्पित करते हैं । गौरवशाली हैं वे जो दासता में जकड़े हुए लोगों की स्वतंत्रता के लिए महान संकटों, ह्रदय विदारक अपमानों, काल झंझावातों और जोखिमों के होते हुए भी तब तक अपना संघर्ष जारी रखते हैं जब तक कि पद-दलित जन अपने मानवीय अधिकारों को प्राप्त नहीं कर लेते ।”
50- सारांशत: यह कहना उचित होगा कि बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर का दर्शन उस आत्म- प्रेरणा, आत्म- विश्वास और सामाजिक समता का मार्ग है जहॉं भाग्यवादिता तथा ईश्वरीय चमत्कार का कोई स्थान नहीं है । उनका क्रांतिकारी चिंतन मानवीय अस्तित्व को नया आयाम देता है और उसकी सार्थकता को सिद्ध करता है । समाज, राज्य और धर्म तीनों के अवांछित बंधनों से आदमी, शोषित- उत्पीडित जन- समूह को मुक्ति दिलाना ही बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर के चिंतन और आंदोलन का सतत लक्ष्य है ।