भारत के प्राचीन विश्वविद्यालय और उनका योगदान

Advertisement

– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर-प्रदेश), भारत । email : drrajbahadurmourya @ gmail.com, website : themahamaya.com

सारांश : भारत की प्राचीन ज्ञान परम्परा पूरी दुनिया में मानवीय मूल्यों के विकास की एक महत्वपूर्ण कड़ी है । भारत की ज्ञान परम्परा ने पूरी दुनिया में नैतिक मूल्यों के प्रसार में प्रभावी योगदान दिया है । प्राचीन क़ालीन भारत में तक्षशिला विश्वविद्यालय, काशी बौद्ध विश्वविद्यालय, गुणशीला बौद्ध महिला विश्वविद्यालय, पुष्पगिरि, रत्नागिरी तथा ललितगिरि विश्वविद्यालय, कांचीपुरम्, नालंदा, वल्लभी, विक्रमशिला तथा तेलहाडा विश्वविद्यालय, जगद्दाला, सोमपुरा तथा उदंतपुरी विश्वविद्यालय, साम्य, मदुरै, अवंती तथा नागार्जुनकोंडा बौद्ध विश्वविद्यालय, चौत्यग्राम, नवद्वीप, डौंडियाखेडा तथा कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय व सिरीनगर (कश्मीर) बौद्ध शिक्षा केन्द्र, तवांग बौद्ध विश्वविद्यालय अरुणाचल प्रदेश प्रमुख शिक्षा और ज्ञानार्जन के केन्द्र थे । इन शिक्षा केन्द्रों में भारत ही नहीं वरन् दुनिया के विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने के लिए आते थे । यहाँ पर यह बात भी महत्वपूर्ण है कि जब पूरे यूरोप में एक भी विश्वविद्यालय नहीं था तब भारत में तक्षशिला विश्वविद्यालय (ईसवी पूर्व 800 से 400 ईसवी तक) अपने उत्कर्ष पर पहुँच रहा था । अलकोरोयुनिन विश्वविद्यालय मोरक् के विकास की ईंटें 859 ईसवी में ज़मीन पर रखी गई । इजिप्ट के कोरियो शहर का अल- अझर विश्वविद्यालय 988 ईसवी में निर्मित किया गया । इटली के बोलोग्रो विश्वविद्यालय का निर्माण 1088 ईसवी में हुआ । फ़्रांस में पेरिस विश्वविद्यालय का निर्माण 1091 में हुआ । फ़िलीपींस के टु टोमस विश्वविद्यालय का निर्माण 16 वीं शताब्दी में हुआ । यह विश्वविद्यालय अमेरिका के हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय से 25 साल पुराना है । भारतीय ज्ञान परम्परा के उन्नयन में इन विश्वविद्यालयों के योगदान को रेखांकित करना ही इस शोध पत्र का विवेच्य विषय है ।

  • लेखन का उद्देश्य : इतिहास मानवीय मूल्यों, सभ्यता, संस्कृति तथा सभी प्रकार के घटनाक्रमों को जानने, समझने व व्याख्या करने का मूल आधार है । यह मानवीय जीवन की बुनियाद है । इसी बुनियाद पर आज की सभ्यता, संस्कृति और विकास का महल खड़ा हुआ है । भारत अपने अतीत की गौरवशाली विरासत में अनमोल सभ्यता और संस्कृति को संजोए हुए है । इस गौरवशाली ज्ञान परम्परा ने तब पूरी दुनिया का मार्गदर्शन किया जब शेष दुनिया लगभग चरवाहे युग में थी । भारत की इस गौरवशाली ज्ञान परम्परा को अनेक आयामों से समझा और व्याख्यायित किया जा सकता है उनमें से एक महत्वपूर्ण आयाम तब के शिक्षा केन्द्र भी हैं । प्राचीन भारत के इन्हीं ज्ञान केन्द्रों पर एक संक्षिप्त दृष्टि डालना इस शोध पत्र का उद्देश्य है ।
  • भूमिका : लोक कल्याणकारी मानव जीवन और सभ्यता के निर्माण तथा उन्नयन में प्राचीन भारत के ज्ञान केन्द्रों/ विश्वविद्यालयों के योगदान को रेखांकित करना अपने राष्ट्र के अतीत की गौरवशाली यात्रा करना है । इन विश्वविद्यालयों में बौद्ध शिक्षा के केन्द्रों का सर्वाधिक योगदान है । इन विश्वविद्यालयों की प्रकृति अन्तर्राष्ट्रीय होती थी । इन विश्वविद्यालयों के व्यवस्थापन के लिए ‘गॉंव’ राज्य की ओर से दान में दिए जाते थे । यह गॉंव राज्य की ओर से कर मुक्त होते थे । भारत के इन प्राचीन ज्ञान केन्द्रों में किसी तरह का कोई भी भेदभाव नहीं किया जाता था । यह विश्वविद्यालय किसी निजी व्यक्ति की सम्पत्ति नहीं होते थे बल्कि यह सभी राज्यों के अधीन थे । चरित्रवान जीवन मूल्यों को विकसित करना ही इन विश्वविद्यालयों का प्रमुख उद्देश्य था । यहाँ विद्यार्थियों के लिए रहना, खाना और अध्ययन करना पूरी तरह से नि:शुल्क था । सभी के लिए पाठ्यक्रम एक समान था । यहाँ पर ज्ञान प्रदान करने वाले विद्वान भी पारिश्रमिक के रूप में किसी प्रकार का शुल्क नहीं लेते थे । यहाँ वैद्यशास्त्र, सैन्य शिक्षा, अभियांत्रिकी, विक्रय व्यवस्थापन, व्यापार, खगोलशास्त्र, अर्थशास्त्र, क़ानून जैसे महत्वपूर्ण विषय पढ़ाए जाते थे । प्राचीन भारत के प्रमुख विश्वविद्यालयों का संक्षिप्त विवेचन निम्नलिखित है :
  • तक्षशिला विश्वविद्यालय (ईसा पूर्व 800 से ईसवी सन् 400) : तक्षशिला विश्वविद्यालय धरती का प्रथम विश्वविद्यालय है । इसकी स्थापना ईसा पूर्व 800 में नागवंशी तक्षक के द्वारा की गई थी । (1) तक्षक, नागवंशी राजा का उल्लेख अनेक प्रसिद्ध विद्वानों ने किया है जिसमें अंग्रेज लेखक सर जॉन मार्शल की पुस्तक ए गाइड ऑफ तक्षशिला भी है ।तक्षशिला विश्वविद्यालय में दस हज़ार छात्रों को पढ़ने की व्यवस्था थी । पश्चिम और दक्षिण देशों को जोड़ने वाला सिल्कमार्ग तक्षशिला विश्वविद्यालय के लिए दान का मूल आधार था ।(2) सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य और उनके पुत्र बिंदुसार, कोसल के राजा प्रसेनजीत तक्षशिला विश्वविद्यालय के छात्र रहे । बुद्ध के निजी चिकित्सक मगध नरेश राजा बिम्बिसार के पुत्र अभय के बेटे जीवक ने यहीं से आयुर्विज्ञान और सर्जरी में शिक्षा प्राप्त किया था । अत्रैय जीवक के वैद्यक शास्त्र के आचार्य थे । उनकी आयुर्वेद एवं वनस्पति पेड़ पौधों में थी । तक्षशिला में कम से कम सात साल की पढ़ाई का पाठ्यक्रम होता था । जिस पाठ्यक्रम को आज विषय कहते हैं, उस समय इस पाठ्यक्रम के लिए शिल्प शब्द का प्रयोग किया जाता था । तक्षशिला विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में आयुर्वेद, धनुर्वेद, हस्तिविद्या, व्याकरण, दर्शनशास्त्र, गणित, ज्योतिष गणना, संख्यानक, वाणिज्य, सर्पविद्या, तंत्रशास्त्र, संगीत, नृत्य और चित्रकला आदि का मुख्य स्थान था । तक्षशिला विश्वविद्यालय की विशेषता अर्थशास्त्र में थी । चाणक्य, तक्षशिला विश्वविद्यालय में आचार्य रहे ।(3) तक्षशिला में उम्र के 16 वें वर्ष में प्रवेश होता था । विद्या के इस केन्द्र में 62 प्रकार के विषय पढ़ाए जाते थे । (4)
  • काशी बौद्ध विश्वविद्यालय : प्राचीन भारत के वाराणसी का उल्लेख काशी जनपद के रूप में पाया जाता है । प्राचीन भारत में काशी 18 महाजनपदों में से एक प्रमुख जनपद था । बुद्ध के समय काशी मगध नरेश के आधिपत्य में था । जातक कथाओं में काशी नगर को सुदर्शन, सुरुद्धन, ब्रम्हावर्धन, रम्मनगर तथा मोलिनी जैसे उपनामों से जाना जाता था । चीनी यात्री फाहियान ने काशी का उल्लेख एक जनपद के रूप में किया है जबकि ह्नेनसांग ने वाराणसी के रूप में उल्लेख किया है । काशी बौद्ध विश्वविद्यालय का स्रोत जातक कथाएँ भी हैं । इन्हीं जातक कथाओं से काशी बौद्ध विश्वविद्यालय की प्राचीनतम जानकारी मिलती है । ह्नेनसांग ने अपने यात्रा विवरण में कहा है कि काशी बौद्ध विहारों में बौद्ध सामनेर भिक्खु विभिन्न बौद्ध साहित्यों के साथ अन्य शिल्पों का भी अध्ययन करते थे । जातक साहित्य के अनुसार काशी बौद्ध विद्या केन्द्र की प्राचीनता तक्षशिला विश्वविद्यालय के समकालीन दिखाई पड़ती है । काशी बौद्ध विश्वविद्यालय में 18 शिल्प पढाए जाते थे ।(5) यहाँ पर पढ़ने के लिए पश्चिम के राष्ट्रों से लेकर चीन, दक्षिण सिलोन, जावा, सुमात्रा और मिथिला, राजगृह, कपिलवस्तु, श्रावस्ती, कौशाम्बी, उज्जैन इत्यादि सभी राज्यों के छात्र और छात्राएँ पढ़ने के लिए आते थे । काशी बौद्ध शिक्षा केन्द्र को जोड़ने वाला उत्तरापथ (गांधार- तक्षशिला) से जुड़ा हुआ था ।
  • गुणशीला बौद्ध महिला विश्वविद्यालय : गुणशीला बौद्ध महिला विश्वविद्यालय, मगध की राजधानी राजगृह में हुआ करता था । यद्यपि इसके अभी तक पुरातात्विक साक्ष्य नहीं मिले परन्तु भारतीय इतिहास के प्रख्यात शोध कर्ता डॉ. मजूमदार, एस. वी. वेंकटेश्वर, बनारसी दास जैन तथा नारायण गोपाल तवलकर अनुमान लगाते हैं कि गुणशीला बौद्ध महिला विश्वविद्यालय की स्थापना मगध नरेश बिम्बिसार के द्वारा 527 ईसा पूर्व में की गई थी । यहाँ वयस्क स्त्री और महिला छात्रों के लिए प्रवेश हुआ करता था । यहाँ दो वयस्क स्त्रियों के नाम पाए जाते हैं । भुवया, जो अपने बच्चे के साथ पढ़ती थी और दूसरी राजा बिम्बिसार की पत्नी नंदा । नारायण गोपाल तवलकर के अनुसार यहाँ थेरीसामा, धम्मदिना भिक्खुनियॉं शिक्षिका के रूप में पढ़ाती थीं । बिम्बिसार की दो पत्नियाँ खेमा और नंदा के साथ अनुपमा और सुजाता भी दिखाई देती हैं । इस विश्वविद्यालय में उस समय महिलाओं को 62 प्रकार के विषय पढ़ाए जाते थे ।(6) इस विश्वविद्यालय का प्रभाव नवीं शताब्दी तक रहा ।
  • पुष्पगिरि, रत्नागिरी, ललित गिरि विश्वविद्यालय : पुष्प गिरि, रत्नागिरी और ललित गिरि विश्वविद्यालय प्राचीन भारत के कलिंग राज्य में स्थापित किए गए थे । वर्तमान समय में यह उड़ीसा राज्य है जिसकी राजधानी भुवनेश्वर है । सम्राट अशोक की पत्नी चारुवाकी कलिंगा की थी । 261 ईसा पूर्व में सम्राट अशोक का कलिंग के साथ युद्ध हुआ था । जब चीनी यात्री फाहियान और ह्नेनसांग भारत आये थे तब बुद्ध धर्म के महायान, तांत्रिक शाखा, वज्रयान, कालचक्रयान और सहजयान का उड़ीसा बड़ा केन्द्र था । इन सभी पंथों के महत्वपूर्ण अवशेष आज भी विद्यमान हैं । इनमें सबसे बड़ा बौद्ध शिल्प व दस्तावेज़ों का ख़ज़ाना रत्नागिरी, ललितगिरि व उदयगिरि में है । पुष्प गिरि बौद्ध विश्वविद्यालय को चीनी यात्री ह्नेनसांग ने 639 ईसवी में देखा था ।(7) ग्रीस, फ़ारस और चीन जैसे दूर देश के विद्वान इस प्रसिद्ध विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र, खगोल विज्ञान, गणित और विज्ञान का अध्ययन करते थे । पुष्प गिरि बौद्ध विश्वविद्यालय कभी नालंदा और तक्षशिला विश्वविद्यालय से भी अधिक विकसित था । पुष्प गिरि बौद्ध विश्वविद्यालय से सम्बद्ध आठ उप बौद्ध केन्द्र इन पहाड़ियों में स्थित थे । इनमें सबसे महत्वपूर्ण रत्नागिरी है जो पुष्प गिरि बौद्ध विश्वविद्यालय के अधीन हुआ करता था ।(8) गुप्तोत्तर काल में यह स्थान बौद्ध शिल्प का सम्भवतः सबसे बड़ा केन्द्र था । सम्राट अशोक के समय पुष्प गिरि विश्वविद्यालय का निर्माण किया गया था । (9) रत्नागिरी के पास मौजूद ललितगिरि का महत्व 1985 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के द्वारा की गई खुदाई के बाद पता चला । रत्नागिरी में दो भव्य विद्या के केन्द्र के अवशेष पाये गये हैं । वर्तमान में यह बौद्ध सर्किट के रूप में शामिल किया गया है । रत्नागिरी, ललितगिरि और उदयगिरि को डायमंड ट्रायंगल के नाम से भी जाना जाता है ।
  • कांचीपुरम बौद्ध विश्वविद्यालय : कांजीवरम में प्राचीन भारत में विशाल बौद्ध विश्वविद्यालय था । वरिष्ठ पुरातत्वविद आर. नागास्वामी का मानना है कि सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में वर्तमान कांचीपुरम में एक बौद्ध स्तूप बनवाया था । ऐतिहासिक साक्ष्य से पता चलता है कि कांचीपुरम का सबसे पहला शासक अशोक था ।(10) वर्तमान में यह स्थान तमिलनाडु राज्य के चेन्नई शहर से 72 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । चीनी यात्री फाहियान और ह्नेनसांग ने भी इस विश्वविद्यालय की जानकारी दी है । कांचीपुरम, बुद्धघोष के समकालीन भिक्खु धम्मपाल का जन्म स्थान है । आचार्य दिड्नाग का जन्म कांचीनगर के समीप सिंहवक्त नामक स्थान पर हुआ था । कांचीपुरम विश्वविद्यालय का उल्लेख महावंश, तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में पतंजलि द्वारा रचित महाभाष्य तथा मनिमेखलाई की रचनाओं में पाया जाता है । इस विश्वविद्यालय की स्थापत्य कला उच्च कोटि की थी । यहाँ पर नागार्जुन, वात्स्यायन, बुद्धघोष, दिग्गनाग, धर्मपाल जैसे बौद्ध विद्वान पढ़ाते थे ।(11) विख्यात बोधिधम्म का जन्म कांचीपुरम के राजपरिवार में हुआ था । वे कांचीपुरम के राजा सुगंध के तीसरे पुत्र थे । बोधिधम्म ने छोटी आयु में ही भिक्खु बन गए थे । 520-526 शताब्दी में उन्होंने चीन जाकर ध्यान की नींव रखी जिसे च्यान कहते हैं । कालान्तर में उनका प्रभाव कोरिया और जापान तक फैला ।
  • नालंदा विश्वविद्यालय : आज प्राचीन नालन्दा विश्वविद्यालय, बिहार का एक प्रमुख पर्यटन स्थल है । इस विश्वविद्यालय के अवशेष, संग्रहालय, नव- नालंदा महाविहार तथा ह्नेनसांग मेमोरियल हॉल में देख सकते हैं । नालंदा प्राचीन भारत का सबसे बड़ा अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन केन्द्र था । प्राचीन आवासीय अंतरराष्ट्रीय नालंदा विश्वविद्यालय में 10,000 छात्रों और 2000 आचार्यों की आवासीय व्यवस्था थी । कन्नौज के राजा हर्षवर्धन ने यहाँ सबसे ज़्यादा विहार तथा संघारामों का निर्माण करवाया था । हाल में ही यहाँ पर सन् 1951 में एक अंतरराष्ट्रीय बौद्ध शिक्षा केन्द्र की स्थापना की गई है । प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्नेनसांग 7 वीं शताब्दी में यहाँ के महत्वपूर्ण विद्यार्थी थे । ह्नेनसांग ने यहाँ नैतिक चरित्रवान व्यक्ति विकास की आवासीय शिक्षा प्रणाली का उत्कृष्ट वर्णन किया है । (12) नालंदा विश्वविद्यालय की 100 पाठ्यक्रम में विशेषता थी । इन पाठ्यक्रमों में मन की कार्यक्षमता को विकसित करने का विषय महत्वपूर्ण था । नालंदा के प्रख्यात विद्वानों ने भिक्खु शीलभद्र, धर्मपाल, गुणमति, स्थिरमति, प्रभामित्र, जिनमित्र, दिकनाग, ज्ञानचन्द्र, नागार्जुन, वसुबंधु, असंग, धर्मकीर्ति आदि थे । नालंदा विश्वविद्यालय में अध्ययन करने के लिए जावा, चीन, तिब्बत, सिरीलंका व कोरिया आदि के छात्र आते थे । (13) नालंदा विश्वविद्यालय में निर्माण में गुप्त वंशी राजा कुमारगुप्त (414-455 ई.) का महत्वपूर्ण योगदान था । लगभग 700 वर्षों तक नालंदा विश्व का सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय रहा है । यहाँ पढ़ने वाले विद्यार्थियों को सभी सुविधाएँ निःशुल्क प्रदान की जाती थीं ।
  • नालंदा विश्वविद्यालय के तीन विशाल पुस्तकालय रत्नोदधि, रत्नसागर, रत्नरंजक ग्रन्थालयों में 2 लाख ग्रन्थ थे । यह पुस्तकालय अलेक्ज़ेंड्रिया संग्रहालय से काफ़ी बड़ा था तथा यहाँ पर चीनी साहित्य भी हुआ करता था ।(14) अत्यंत सुनियोजित ढंग से और विस्तृत क्षेत्र में बना हुआ यह विश्वविद्यालय स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना था । इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था । केन्द्रीय परिसर में सात बड़े कक्ष थे और इसके अतिरिक्त तीन सौ अन्य कमरे थे । इनमें व्याख्यान हुआ करते थे । पॉंचवीं शताब्दी के भारतीय गणितज्ञ और खगोलशास्त्री आर्यभट भी नालंदा विश्वविद्यालय में थे । आर्यभट ने 499 ईसवी में ज्योतिष विज्ञान एवं गणित पर किए गए अपने कार्यों में साइन की अवधारणा पर चर्चा किया । नालंदा विश्वविद्यालय में जाति, वंश या किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं किया जाता था । यहाँ प्रवेश के लिए तीन कठिन परीक्षा स्तरों को उत्तीर्ण करना ज़रूरी था । (15)
  • वल्लभी विश्वविद्यालय (470-780) : प्राचीन वल्लभी विश्वविद्यालय के अवशेष वर्तमान गुजरात राज्य के भावनगर ज़िले में वाला गॉंव में स्थित हैं ।(16) गुप्त सेनापति भट्टारक द्वारा वल्लभी में पाँचवीं शताब्दी के अंतिम चरण में एक नए राजवंश की नींव रखी गई जो मैत्रक राजवंश के नाम से जाना जाता है । कालांतर में मैत्रक शासक ध्रुवसेन द्वितीय की शादी कन्नौज के राजा हर्षवर्धन की पुत्री के साथ हुई थी । ध्रुवसेन द्वितीय के समय ही ह्नेनसांग जब वल्लभी आए थे तब उन्होंने वल्लभी विश्वविद्यालय में 6000 छात्रों के पढ़ने की व्यवस्था का विवरण दिया था । (17) मैत्रक के दानपात्र में बुद्ध दास, स्थरमति, विमतगुप्त और अन्य आचार्यों की सूची प्राप्त हुई है । प्राचीन वल्लभी विश्वविद्यालय में नैतिक शिक्षा के साथ साथ न्याय, तर्क शास्त्र, अर्थशास्त्र, भूगोल, व्यापार व्यवस्थापन जैसे शास्त्रों का प्रभुत्व था । (18) वल्लभी लगभग 780 ईसवी तक राजधानी बना रहा ।
  • विक्रमशिला विश्वविद्यालय (770-810) : विक्रम शिला विश्वविद्यालय की स्थापना 770-810 ईसवी में पाल वंश के शासक धर्मपाल के द्वारा बिहार प्रान्त के भागलपुर शहर में की गई थी । (19) इस विश्वविद्यालय में न्याय, तत्वज्ञान, व्याकरण, तर्कशास्त्र, अभियांत्रिकी, चिकित्सा शास्त्र, भौतिकी, रसायन विज्ञान आदि विषयों का अध्ययन किया जाता था । इस विश्वविद्यालय में भदंत रक्षित, विरोचन, ज्ञानपद, जेतारि, रत्नाकर, शांति, ज्ञान श्री, मित्र, रत्न, ब्रज एक भदंत अभयंकर जैसे विद्वान् अध्यापन कार्य करते थे । विक्रमशिला के सर्वाधिक प्रसिद्ध आचार्य दीपांकर थे । आचार्य दीपांकर ने लगभग 200 ग्रन्थों की रचना की थी । 12 वीं शताब्दी में यहाँ 3000 छात्रों के होने का विवरण प्राप्त होता है । किन्तु यहाँ के सभागार के जो खंडहर मिले हैं, इन अवशेषों से पता चलता है कि सभागार में 8000 छात्रों के व्यवस्थापन की क्षमता थी । यहाँ पर तिब्बती लोगों की संख्या अधिक होती थी । (20) विक्रम शिला विश्वविद्यालय, नालंदा विश्वविद्यालय का समकालीन था । इस विश्वविद्यालय में एक प्रधान अध्यक्ष तथा छह विद्वानों की एक समिति मिलकर विद्यालय की परीक्षा, शिक्षा, अनुशासन आदि का प्रबंध करती थी । विक्रमशिला विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए एक परीक्षा देनी पड़ती थी । यहाँ के विद्यार्थी उच्च शिक्षा प्राप्त कर द्विप्तयुग की उपाधि धारण करते थे । यह उपाधि राजा के द्वारा दी जाती थी । सिद्ध सम्प्रदाय के आचार्य सरहपाद यहाँ के प्रमुख आचार्य थे । इस विश्वविद्यालय में निरदेह रचना शास्त्र की भी पढ़ाई होती थी जिसमें अस्त्र का प्रयोग, शल्यक्रिया जैसी क्रियाओं से गुजरना पड़ता था ।
  • तेलहाडा विश्वविद्यालय : प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय की तरह ही तेलहाडा विश्वविद्यालय उच्च अनुसंधान एवं ज्ञान हासिल करने का विश्व विख्यात केन्द्र था । बिहार राज्य के नालंदा ज़िला के हिलसा उपखंड में एक छोटा सा गाँव है जहाँ पर चीनी यात्री ह्नेनसांग ने 7 वीं शताब्दी में इस क्षेत्र की यात्रा की थी और अपने यात्रा विवरण में इस क्षेत्र का उल्लेख तेलहाडा के रूप में किया है । इस प्राचीन शिक्षा केन्द्र में क़रीब एक हज़ार विद्यार्थी एक बड़े चबूतरे पर एक साथ बैठकर अध्ययन करते थे । इस विश्वविद्यालय के प्रमुख महास्थविर गुनमति शीलभद्र हुआ करते थे ।(21) बिहार सरकार निरंतर इस स्थान की खुदाई करवा रही है । बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार स्वयं यहाँ का दौरा कर चुके हैं ।
  • जगद्दाला विश्वविद्यालय (781-821 ईसवी) : जगद्दाला विश्वविद्यालय की स्थापना मगध के राजा रामपाल ने 1057-1102 में अपने शासन के सातवें वर्ष में की थी ।(22) इस विश्वविद्यालय में छात्रवृत्ति का भी प्रबन्ध हुआ करता था ।भदंत विभूति चन्द्र, दानाशिला, मोक्षकारा जैसे प्रसिद्ध तिब्बतियन विद्वान इस विश्वविद्यालय में थे । यह तंत्रयान शिक्षा का प्रसिद्ध केन्द्र था ।(23) यहाँ पर नैतिक शिक्षा के साथ अन्य जनोपयोगी पाठ्यक्रम का ज्ञान दिया जाता था । इस विश्वविद्यालय के एक प्रसिद्ध आचार्य सुभासितारात्नाकोसा थे जिनकी हस्तलिखित किताबें आज भी कोलम्बिया विश्वविद्यालय में संरक्षित हैं । इस विश्वविद्यालय के पुरातात्विक साक्ष्य भारत के उत्तर पश्चिम बांग्लादेश सीमा पर पंचगढ में हरिपुर ठाकुरगॉंव के दीनाजपुर के बोचागंज उपजिला के नोगाँव में पाये गए हैं । इस विश्वविद्यालय में कई संस्कृत ग्रन्थों का तिब्बती भाषा में अनुवाद हुआ था ।
  • सोमपुरा विश्वविद्यालय (810-850 ईसवी) : प्राचीन बंगाल और मगध में पाल राजाओं की अवधि के दौरान (लगभग 770-810) इस विश्वविद्यालय का निर्माण किया गया था । सोमपुरा विश्वविद्यालय के पुरातात्विक अवशेष वर्तमान समय में बांग्लादेश में हैं जिसका स्रोत सम्राट अशोक के स्तूप शिलालेख रहे हैं ।(24) तिब्बती सूत्रों के अनुसार सोमपुरा विश्वविद्यालय में धर्माकयाविधिंद (Wisdom), तर्क, क़ानून, इंजीनियरिंग, चिकित्सा विज्ञान जैसे विषयों में शिक्षा प्रदान की जाती थी । राज्याश्रय के तहत इस विश्वविद्यालय को सभी प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध होती थीं । भदंत अतिश दीपांकर, भदंत पंडिताचार्य, भदंत कलामहपदा, विर्येद्र और करुणा श्री मित्र जैसे विद्वानों ने इस विश्वविद्यालय को अपना जीवन समर्पित किया है । सोमपुरा विश्वविद्यालय 27 एकड़ में फैला हुआ था ।(25) सोमपुरा विश्वविद्यालय में शिक्षा निःशुल्क प्रदान की जाती थी । यहाँ पर लगभग 8500 छात्रों के लिए अध्ययन की सुविधा उपलब्ध थी ।
  • ओदंतपुरी विश्वविद्यालय : मगध की राजधानी पाटलिपुत्र से 80 किलोमीटर की दूरी पर एक प्राचीन विश्वविद्यालय ओदंतपुरी का निर्माण नरेश गोपाल, जो पालवंश के शासक थे, के द्वारा 760 शताब्दी में की गई थी । (26) इस विश्वविद्यालय के संचालन का मुख्य स्रोत लोगों के द्वारा दिया जाने वाला दान था । अरब के लेखकों ने इसकी चर्चा अदबंद के रूप में किया है । लामा तारानाथ ने इसे उदंतपुरी विश्वविद्यालय कहा है ।(27) ओदंतपुरी विश्वविद्यालय की ख्याति वज्रयान और तंत्रयान (Technology) में थी । यह विश्वविद्यालय भी नालंदा विश्वविद्यालय की तरह मशहूर था । उदंतपुरी को इन दिनों बिहार शरीफ़ के नाम से जाना जाता है । भिक्खु शांति रक्षित यहाँ के प्रथम शिष्य रहे हैं । उदंतपुरी विश्वविद्यालय के प्रथम आचार्य प्रभाकर थेयहाँ पर देश और दुनिया के लगभग 1000 विद्यार्थी अध्ययन किया करते थे । यह आवासीय विश्वविद्यालय था । यहाँ के विद्वान आचार्यों की कई पुस्तकों का तिब्बत की भाषा भोट में अनुवाद हुआ है ।
  • साम्ये विश्वविद्यालय : तिब्बत के भोट राजा ख्रि- स्रोंग- लदे- बचन (755-797 ईसवी) के अनुरोध पर नालंदा के विद्वान आचार्य शांति रक्षित तथा कश्मीर से आचार्य पद्मसंभव 747 ईसवी में तिब्बत गए थे । तिब्बती भोट राजा के अनुरोध पर आचार्य शांति रक्षित तथा आचार्य पद्मसंभव के सानिध्य में ब्रम्हपुत्र नदी से दो मील उत्तर में साम्ये विश्वविद्यालय का निर्माण किया गया । (28) यहाँ पक्की ईंटों के लाल रंग का प्रयोग निर्माण कार्य में किया गया । यहाँ पर एक बहुत समृद्ध पुस्तकालय है ।
  • अवंती (उज्जयनी) विश्वविद्यालय : प्रसिद्ध विद्वान के. बी. डोंगरे ने अपनी पुस्तक इन टच ऑफ उज्जैन में ठोस सबूतों के साथ उल्लेख किया है कि उज्जैन में सम्राट अशोक ने एक विश्वविद्यालय की स्थापना की थी । (29) इस विश्वविद्यालय की खगोल विज्ञान और ज्योतिष में विशेषज्ञा थी । इसके अलावा यहाँ पर गणित, व्यापार और व्यवस्थापन जैसे विषय छात्रों को पढ़ने के लिए मौजूद थे । सम्राट अशोक के पुत्र आठ वर्षीय कुणाल को विद्यार्जन के लिए उज्जैन लाया गया था । प्राचीन अवंती वर्तमान उज्जैन के पास ही बसी हुई है । अवन्ति प्राचीन भारत के 16 महाजनपदों में से एक थी । प्राचीन पालि साहित्य में अवंती का बार- बार उल्लेख किया गया है । जैन ग्रन्थ भगवती सूत्र में इसी जनपद को मालवा कहा गया है ।बुद्ध के समय अवंती के राजा चंडोप्रद्योत थे । इनकी पुत्री वासदत्ता से वत्सनरेश उदयन ने विवाह किया था । गुप्त क़ालीन कालिदास भी उज्जयिनी में ही रहते थे । यहाँ के एक छात्र परमार्थ जिनका दूसरा नाम गुणरत था, चीन गए थे तथा वहाँ पर 21 वर्ष रहे । इस अवधि में उनके द्वारा जो अनुवाद किया गया वह आज 275 बड़ी जिल्दों में संग्रहीत है ।(30)
  • नागार्जुनकोंडा विश्वविद्यालय : नागार्जुनकोंडा विश्वविद्यालय दक्षिण भारत में एक महत्वपूर्ण जनोपयोगी शिक्षा का केन्द्र था । आचार्य नागार्जुन ने इस ज्ञान केन्द्र की नींव रखी और लगभग 60 वर्षों तक संचालित किया । नागार्जुनकोंडा विश्वविद्यालय के पुरातात्विक साक्ष्य 1926 में खोजे गए । हैदराबाद से दक्षिण- पूर्व में 160 किलोमीटर दूर यह एक अति प्राचीन नगर है । यह महायान बौद्ध सम्प्रदाय का बड़ा केन्द्र था । नागार्जुनकोंडा एक बड़ी मानव निर्मित झील में एक द्वीप पर संरक्षित है । इक्ष्वाकु राजाओं के समय नागार्जुनकोंडा एक सुन्दर नगर था । इसे विजयपुर या विजयपुरी भी कहा गया है । यहाँ के विद्वान आचार्यों ने कश्मीर, गांधार, चीन, किरात, तोसलि,यवन तथा ताम्रपर्णी द्वीपों में ज्ञान का प्रचार और प्रसार किया । (31) आचार्य रसविद् अपने जीवन के अंतकाल तक इस विश्वविद्यालय में रहे । तिब्बत तथा चीनी साहित्य में नागार्जुन तांत्रिक विद्वान के रूप में प्रसिद्ध हैं । नागार्जुनकोंडा विश्वविद्यालय बहुत विशाल और भव्य था । नागार्जुनकोंडा विश्वविद्यालय में मनुष्य जाति का विज्ञान और मानवाधिकार के तत्वज्ञान में अद्भुत विशेषज्ञता थी । यहाँ के ऊँचे चबूतरे पर मुख्य सभागार 70 फ़ीट ऊँचा और 100 फ़ीट चौड़ा था । नागार्जुनकोंडा विश्वविद्यालय के अभिलेख से ज्ञात होता है कि यहाँ की भाषा अर्ध मागधी प्राकृत- पाली रही है ।
  • चौत्यग्राम विश्वविद्यालय : चौत्यग्राम विश्वविद्यालय (पंडित बौद्ध विहार) की जानकारी का प्रामाणिक स्रोत भदंत डॉ. जिनाबोधि के शोध पत्र हैं । चौत्यभूमि प्राचीन बंगाल के दक्षिण- पूर्व क्षेत्र का नाम अब चटगाँव के रूप में जाना जाता है । यह विश्व प्रसिद्ध बंदरगाह शहर चट्टानी पहाड़ों और प्राकृतिक सौंदर्य से सुशोभित है । इसे पूर्व समुद्र की रानी कहा जाता है । बौद्ध राजाओं द्वारा चौत्यग्राम को श्री चित्त, शांति की भूमि कहा जाता है । यहीं पर अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय था । (32) चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा चौदहवीं शताब्दी के खोजकर्ता इब्न बतूता अपनी यात्रा के दौरान चटगाँव से गुजरे थे । चौत्यग्राम विश्वविद्यालय की प्रसिद्धि महायान शाखा के रूप में थी । यहाँ की मूर्तिकला पूरी दुनिया में प्रसिद्ध थी । नालंदा विश्वविद्यालय के अवसान के बाद यह भारत में ज्ञान का एक प्रमुख केन्द्र था । यहाँ पर विदेशी छात्र भी अध्ययन के लिए आते थे । इस विश्वविद्यालय की विशेषज्ञता श्रुति, स्मृति, ध्यानयोग, नीतिशास्त्र, तीरंदाजी, पूरन, चिकित्सा, इतिहास, चन्द्र शिक्षण, केतु, मंत्र, शब्द शास्त्रों में थी ।(33) राजा धर्मपाल इस विश्वविद्यालय को सर्वाधिक दान तथा सम्मान देते थे ।
  • नवद्वीप विश्वविद्यालय : नवद्वीप विश्वविद्यालय की जानकारी का प्रमुख स्रोत पुरातात्विक अवशेष और एन. जयपाल की पुस्तक भारत की शिक्षा का इतिहास है ।(34) नवद्वीप विश्वविद्यालय के खंडहर पश्चिम बंगाल के नदिया ज़िले से मात्र 20 किलोमीटर की दूरी पर प्राप्त हुए हैं । नदियों से घिरे होने के कारण इसका यह नाम पड़ा । नवद्वीप विश्वविद्यालय को पाल राजाओं का संरक्षण प्राप्त था । इस विश्वविद्यालय का पुनर्निर्माण कार्य 11 वीं शताब्दी में गौंडा राजा लक्ष्मण सेन ने किया था । नवद्वीप विश्वविद्यालय महायान बौद्ध शिक्षा का बड़ा केन्द्र था । यहाँ पर देश- विदेश से छात्र अध्ययन के लिए आते थे । मध्य काल में यह बंगाल की राजधानी बनाई गई थी । नवद्वीप विश्वविद्यालय में इतिहास, व्यापार और वाणिज्य के साथ अन्य विषयों का अध्ययन किया जाता था । यहाँ पर 4000 छात्रों और 6000 आचार्यों के रहने, खाने तथा अध्ययन, अध्यापन की समुचित व्यवस्था थी ।(35) 12 वीं सदी में नवद्वीप विश्वविद्यालय नव्य न्याय का एक महत्वपूर्ण केन्द्र था । यहाँ शिक्षा पूरी करने का समय 20 वर्ष का था । प्राचीन काल में नवद्वीप की परिधि 16 कोष की थी । उसमें अंत:द्वीप, सीमांत द्वीप, गोद्रुम द्वीप, मध्य द्वीप, कोलद्वीप, ऋतुद्वीप, जम्हुद्वीप, मोदद्रुम द्वीप और रुद्रद्वीप सम्मिलित थे । इसीलिए इसे नवद्वीप कहा जाता था । चैतन्य महाप्रभु का जन्म नवद्वीप के मायापुर नामक स्थान पर हुआ था, वह मध्य द्वीप के अंतर्गत आता था । यह स्थान कालान्तर में गंगा के गर्भ में विलीन हो गया ।
  • डौंडिया खेड़ा विश्वविद्यालय : डौंडिया खेड़ा विश्वविद्यालय वर्तमान उत्तर प्रदेश के जनपद उन्नाव में स्थित है । चीनी यात्री ह्वेनसांग ने डौंडिया खेड़ा नामक ग्राम का उल्लेख अपने यात्रा वृतान्त में किया है । यह उन्नाव जनपद से इलाहाबाद की ओर गंगा नदी चलने पर गंगा नदी के किनारे स्थित है । अलेक्ज़ेंडर कनिंघम ने इसकी पहचान डौंडिया खेड़ा से की है । प्रोफ़ेसर अँगने लाल ने अपनी पुस्तक उत्तर प्रदेश के बौद्ध केन्द्र की पृष्ठ संख्या 209-210 में इसकी जानकारी दी है । ह्वेनसांग के अनुसार यहाँ उस समय 1000 भिक्खु रहते थे ।
  • उपसंहार : “भारतीय ज्ञान परम्परा के विविध आयाम” जैसे महत्वपूर्ण विषय पर क़लम चलाते हुए अपने देश के अतीत की यात्रा करनी होती है । अतीत हमारा इतिहास है, हमारी बुनियाद है, हमारी पहचान है । जिस समाज का कोई इतिहास नहीं होता वह समाज कभी शासक नहीं बन पाता, क्योंकि इतिहास से प्रेरणा मिलती है । प्रेरणा से जागृति आती है । जागृति से सोच बनती है । सोच से ताक़त बनती है और ताक़त से शक्ति बनती जिसकी परिणति सत्ता में होती है । इतिहास, समाज और राष्ट्र की वह आधारशिला होता है जिस पर उसका भावी भवन खड़ा होता है । अतीत का अध्ययन हमें एक अंतर्दृष्टि प्रदान करता है जिसके आलोक में हम यह पता लगा सकते हैं कि कौन- कौन सी वह धाराएँ हैं जो समाज में एकता व वैभिन्नता के बीज बोती हैं ? समय और परिस्थितियों के बदलाव का उन पर क्या असर पड़ता है ? कैसे भावी समाज को सुन्दर बनाया जा सकता है ?
  • प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा पूरी दुनिया में नवजागरण की प्रथम बेला थी जिसने मानव चिंतन को नई दिशा प्रदान की तथा समतामूलक समाज के निर्माण में महती योगदान दिया । ज्ञान परम्परा की भारतीय धारा ने न केवल मानव मात्र को महत्व प्रदान किया बल्कि प्रत्येक प्राणी में एकता का साक्षात्कार कराकर समभाव और ममभाव के बीज बोए । प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा ने पूरी मानवता के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया । पूरे समाज में स्पन्दन पैदा किया जिसने लोगों के दिलों में प्रेम का झरना बहा दिया । इस चिंतन धारा ने यूनानी दार्शनिकों सुकरात, अफ़लातून और अरस्तू जैसे मनीषियों को भी प्रभावित किया । दासों के करुण क्रंदन में डूबे हुए पश्चिमी जगत को हमारी करुणा के पैग़ाम ने द्रवित किया । इसलिए भारत की यह प्राचीन ज्ञान धारा विश्व सभ्यता की जननी है और इस विश्व सभ्यता के निर्माण में प्राचीन भारत के विश्वविद्यालयों का सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान है । ज्ञान के इन विश्वविद्यालयों से निःसृत धारा ने अपनी देश और काल की सीमाओं को तोड़कर सारी धरती को अपना कुटुम्ब माना । आज पुनः जब आपसी कटुता और वैमनस्यता ने समाज के ताने बाने को गम्भीर चुनौती दी है ऐसे में प्राचीन भारत की ज्ञान परम्परा और उसमें समाहित प्रेम, दया, ममता, करुणा, समभाव और ममभाव हमारी बिखरती एकता को मज़बूती प्रदान कर सकती है ।
  • सन्दर्भ स्रोत :
  • 1- भदंत धम्मकीर्ति, भगवान बुद्ध का इतिहास एवं धम्मदर्शन, पेज नंबर 373
  • 2- बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर, सम्पूर्ण वाग्यमय, खंड 12, पेज नंबर 79-81
  • 3- के. सी. श्रीवास्तव, प्राचीन भारत का इतिहास, पेज नंबर 87
  • 4- सामद्त जातक, 2.7.211
  • 5- Historical Dictionary of Tibbet By John Power, David Templeman, pp. 130
  • 6- नारायण गोपाल तवलकर, प्राचीन भारतीय विद्यापीठ के लेखक , डॉ. सत्यजीत गौरीशंकर चंद्रिकापुरे की पुस्तक “सम्राट अशोक और उनका स्वर्णिम प्रबुद्ध भारत” से साभार, पेज नंबर 365, सम्यक् प्रकाशन, नई दिल्ली !
  • 7- Archaeology of Eastern India : New Perspectives Gautam Sengupta, Sheena Panja Centre for Archaeological Studies and Training, Eastern India, 2002, app 566
  • 8- Buddhist Heritage sites of India, Dwivedi, pp. 200
  • 9- Buddhist Centres in Ancient India, Binayendra Nath Chaudhary, pp. 200
  • 10- दैनिक समाचार पत्र, टाइम्स ऑफ इंडिया, 17 दिसम्बर, 2017
  • 11- A History of Ancient and Early Medieval India : From the stone age to the by Upinder Singh,pp. 521
  • 12- Nalanda, By Amtanand Ghosh, pp.16
  • 13- Education in Ancient India, By A.S.Altekar, pp. 115
  • 14- The History and Future of Narragansett Bay, By, Capers jones, pp. 56
  • 15- Ancient Indian Education : Brahmanical and Buddhist By Radha Kumud Mookerjee, pp. 564
  • 16- Education in the Emerging India By R.P.Pathak, pp. 38
  • 17- प्रतियोगिता दर्पण, 2006, उपकार प्रकाशन, नई दिल्ली
  • 18- Education in India By Edit Shubha Tiwari, pp. 63
  • 19- History of Ancient India : Earliest Time to 1000 A.D. By Radhey Shyam Chaurasia, pp. 199
  • 20- Where China Meets India : Burma and New Crossroads of Asia By Thant Myint and U, pp. 259
  • 21- Reports, Volume 11, By Archaeology Survey of India, pp. 165
  • 22- History and Society : essays in honour of professor Niharranjan Ray, pp. 315
  • 23-The making and Symbolism of Paharpur Stupa By Foruque Hasan, pp.12
  • 24- The Making and Symbolism of Paharpur Stupa By Faruque Hasan, pp.9
  • 25- Buddhist Monks and Monasteries of India : There History and contribution to Indian culture By Dutt, Sukumar, George Allen and Unwin Ltd, London, 1962, pp. 353, 375
  • 26- Historical Dictionary of Tibbet By John Powers, David Templeman, pp. 319
  • 27- Historical Researches into some aspects of the culture and civilisation of publish in 2009, By G.P.Singh, pp. 95
  • 28- भारत- तिब्बत- चीन का अस्तित्व, गुरुराम जी विश्वकर्मा मधुकर, पृष्ठ. 86
  • 29- In Touch with Ujjain, Published by Alijah Darbar Press, 1928, PP. 23, by K.B.Dongray
  • 30- अनुवाद का व्याकरण, भारतीय अनुवाद परिषद, सम्पादक डॉ. भोलानाथ तिवारी, पृष्ठ 113
  • 31- A History of Ancient and Medieval India : From the stone age to the by Upinder Singh, pp. 500
  • 32- Ali, A-F-I- Social Statification Among the Buddhist in Bangladesh Village Chittagong, University of Chittgong, 1995
  • 33- Prajnabhadra Stavir Lokaniti, Jaxwu 1932 Ist and 4
  • 34- History of Education in India, Published in 2005, by N. Jayapalan, pp. 38-39
  • 35- Encyclopaedia of Asian History, Volume 1, Ainslie Thomas Embree, Asia Society, Scribner, 1988, pp. 148
  • नोट : उपरोक्त लेखन के सभी तथ्य, सम्यक् प्रकाशन, 32/3, पश्चिम पुरी, नई दिल्ली के द्वारा वर्ष 2023 में प्रकाशित (ISBN : 978-93-95446-93-8) डॉ. सत्यजित गौरीशंकर चंद्रिकापुरे की पुस्तक “सम्राट अशोक और उनका स्वर्णिम प्रबुद्ध भारत” (प्रथम संस्करण) से साभार लिए गए हैं । विस्तृत अध्ययन के लिए उपरोक्त मूल पुस्तक का अवलोकन किया जा सकता है ।
Share this Post
Dr. RB Mourya:
Advertisement
Advertisement