– डॉ. राजबहादुर मौर्य; असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर-प्रदेश), फ़ोटो गैलरी एवं प्रकाशन प्रभारी : डॉ. संकेत सौरभ, नई दिल्ली, भारत । email : drrajbahadurmourya @ gmail. Com, website : themahamaya. Com.
(मार्सिलियस ऑफ पाडुवा, मिखायल मिखायलोविच बाख्तिन, मिज़ोरम, मिथक, मिल्टन फ्रीडमैन, मिल्टन सिंगर, मिशेल पॉल फूको, भारत में मीडिया, अरविन्द राजगोपाल, इंडिया साइनिंग, मैडेलिन स्लेड, सेवाग्राम, मीराबाई, मुकुंद लाठ,वहाबी और फराइजी, मुहम्मद अली जिन्ना, मुहम्मद इक़बाल, मूल्य, मेघालय, मैक्स वेबर, मैरी वोल्सनक्रॉफ्ट, एम.एन. श्रीनिवास, मोहनदास कर्मचन्द गाँधी)
1- इटली में जन्में मार्सिलियस, पाडुवा के (1275-1343) द्वारा प्रतिपादित राजनीतिक सिद्धांतों की महत्वपूर्ण निर्णायक भूमिका यूरोप में चर्च के ऊपर राज्य की सत्ता क़ायम करने में रही है । इटली में पैदा होने के कारण मार्सिग्लियो को विचारों की दुनिया में पाडुवा के मार्सिलियस के नाम से भी जाना जाता है । अरस्तू के विचारों की दार्शनिक बुनियाद पर आधारित उनकी रचना डिफ़ेंसर पेशिस (डिफ़ेंडर ऑफ पीस) राजनीतिक दर्शन के इतिहास में मील का पत्थर समझी जाती है । चर्च के कोप से बचने के लिए यह ग्रन्थ 1324 में अनाम प्रकाशित हुआ था । मार्सिलियस का स्पष्ट मानना था कि पोप और पुरोहित वर्ग को राजा की मातहती स्वीकार करनी चाहिए । अरस्तू से प्रेरित होकर मार्सीलियो ने यह विचार व्यक्त किया कि राज्य मनुष्य को यथेष्ट जीवन प्रदान करता है । इसमें सामान्य हित और न्याय दोनों की सिद्धि निहित है । उसके अनुसार राज्य तभी बचा रहेगा जब उसका क़ानून और शासन एकात्मक हो । मार्सीलियो के इस तर्क से प्रभुसत्ता का पूर्व संकेत मिलता है ।
2- मार्सिलियस सन्त थामस एक्विना के तुरन्त बाद की पीढ़ी के विद्वान थे । वह पुरोहितों को कर्मकाण्ड करने और दैवी क़ानून की शिक्षा देने से ज़्यादा अधिकार देने के लिए तैयार नहीं थे । उनका कहना था कि इन दायरों में भी पुरोहितों को जनता और उसके द्वारा निर्वाचित सरकार का नियंत्रण मानना होगा । मार्सिलियस के विचारों का नतीजा यह निकला कि मानवीय समाज को पुरोहितों के नेतृत्व में धार्मिक मूल्यों के आधार पर नियोजित करने की कोशिश पूरी तरह से धराशायी हो गई और निर्वाचित सरकार के नेतृत्व में सेकुलर हुकूमत का रास्ता खुल गया । इस योगदान के लिए मार्सिलियस को आधुनिक विश्व का पुरोगामी माना जाता है ।
3- मार्सिलियस का तर्क था कि राज्य अपने- आप में एक समुदाय है । मार्सिलियस ने छह तरह के पेशे (किसान, दस्तकार, व्यापारी, सैनिक, पुरोहित और मुंसिफ़) गिनाए जिन्हें अपनाते हुए मनुष्य समान हित के लिए एक- दूसरे के लिए समरस होकर जीवन जी सकते हैं । मार्सिलियस धार्मिक निष्ठा को संस्थागत रूप से आरोपित मानने के लिए तैयार नहीं हैं और उनकी सिफ़ारिश है कि धर्म स्वेच्छा का मामला होना चाहिए । ए. गेविर्थ की पुस्तक मार्सिलियस ऑफ पाडुवा ऐंड मिडीवल पॉलिटिकल फिलॉसफी (1951) महत्वपूर्ण पुस्तक है । वस्तुतः मार्सीलियो ने सबसे पहले गणतंत्रवाद का नारा बुलंद किया और चर्च की तुलना में राज्य का वर्चस्व स्थापित करके आधुनिक राज्य की संकल्पना को बढ़ावा दिया ।
3 A- मार्सीलियो के अनुसार, पुरोहित वर्ग को कोई समानान्तर राजनीतिक सत्ता प्रदान नहीं की जा सकती है, यहाँ तक कि धार्मिक मामलों में भी उसे बल प्रयोग का अधिकार अपने आप नहीं दिया जा सकता है । धार्मिक मामलों में भी पुरोहित वर्ग अपनी शक्ति का प्रयोग तभी कर सकता है जब उसकी नियुक्ति लोक सहमति या सार्वजनिक निर्वाचन के आधार पर की गयी हो- उस पोप के द्वारा न की गई हो जो स्वयं एक गुटतंत्र के द्वारा चुना जाता है । मार्सीलियो ने तर्क दिया कि स्वयं पोप की सत्ता को तभी कोई मान्यता दी जा सकती है जब उसका निर्वाचन सम्पूर्ण मसीही जगत् के द्वारा किया जाए । इसके अलावा, दिव्य क़ानून की व्याख्या देने वाली महापरिषदों का चुनाव भी सर्वसाधारण को करना चाहिए ।
4- मिखायल मिखायलोविच बाख्तिन (1895-1975) साहित्यालोचक, दार्शनिक और रूसी रूपवाद के प्रमुख सूत्रकार थे । उन्होंने उपन्यास की विधा, यूरोप की ग्रामीण मेला परम्परा और अभिव्यक्ति सम्बन्धी रूपों पर विशेष तौर पर लेखन किया । बाख्तिन के मुताबिक़ जीवन का मतलब ही संवाद है और संवाद में साझेदारी से ही जीवन का अस्तित्व है । प्रश्न करना, सहमत या असहमत होना, प्रतिक्रिया व्यक्त करना आदि जीवन के मूलभूत निर्धारक तत्व हैं । उनकी एक प्रमुख रचना टुवर्डस ए फिलॉसफी ऑफ द एक्ट है ।
5-बाख्तिन की मृत्यु के पश्चात् उनकी रचना रेबेलेयस ऐंड हिज वर्ल्ड का प्रकाशन हुआ । इसमें उन्होंने लोक जीवन में मौजूद उत्सव- मेला परम्परा का वर्णन किया । उन्होंने कहा कि उत्सव व हाट की संस्कृति सामाजिक क़ानूनों तथा प्रतिबंधों को नकारती है । मेले जब तक चलते हैं, स्वयं में स्वायत्त संसार होते हैं । वे ऐसे सामाजिक दायरे और समय खंड का निर्माण करते हैं जिसमें यूटोपियन स्वतंत्रता, सामुदायिकता तथा समानता एक साथ सम्भव है ।उनकी रचना प्राब्लम्स ऑफ दोस्तोएव्स्कीज आर्ट उनकी सर्वश्रेष्ठ कृतियों में गिनी जाती है । इसी पुस्तक में उन्होंने व्यक्ति की अनिश्चितता, सम्भावनाशीलता और अंत:करण की गोपनीयता जैसे दावों को सैद्धांतिक स्वरूप प्रदान किया ।
6- मिज़ोरम मिजो भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है : पहाड़ी (मि- लोग, जो- पहाड़ और रम- देश) लोगों का देश । यह उत्तर- पूर्वी भारत के सात राज्यों में से एक है ।मिज़ोरम का गठन 20 फ़रवरी, 1987 को हुआ था । मिज़ोरम के उत्तर में इसकी सीमाएँ असम और मणिपुर से लगती हैं ।दक्षिण और पूर्व में म्यांमार है तथा पश्चिम में त्रिपुरा और बांग्लादेश है । मिज़ोरम की राजधानी आईजॉल है । यहाँ पर मुख्य रूप से मिजो जनजाति के लोग रहते हैं जो उत्तर- पश्चिमी म्यांमार और बांग्लादेश के कुछ हिस्सों में भी मौजूद हैं । इसके पहाड़ों, नदियों और प्राकृतिक सुन्दरता के कारण इसे पूर्व के स्कॉटलैंड की उपमा भी दी जाती है ।
7- मिज़ोरम का कुल क्षेत्रफल 21 हज़ार, 81 वर्ग किलोमीटर है और इस हिसाब से यह भारत का चौबीसवां बड़ा राज्य है ।वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार यहाँ की जनसंख्या 1 लाख, 91 हज़ार 04 है । इस लिहाज़ से यह देश में सत्ताइसवें स्थान पर है । मिज़ोरम की साक्षरता दर 89.9 प्रतिशत है ।यह देश का दूसरा सबसे ज़्यादा साक्षर राज्य है । मिजो और अंग्रेज़ी यहाँ की राजकीय भाषाएँ हैं ।मिज़ोरम की विधानसभा एकसदनीय है जिसमें कुल 40 सदस्य होते हैं । यहाँ से लोकसभा के लिए एक तथा राज्य सभा के लिए एक सदस्य चुना जाता है । गुवाहाटी उच्च न्यायालय ही मिज़ोरम के उच्च न्यायालय की भूमिका निभाता है ।
8- भारतीय संविधान में उत्तर- पूर्वी राज्यों के विभिन्न आदिवासी क्षेत्रों के प्रशासन के लिए छठीं अनुसूची का प्रावधान किया गया है । छठी अनुसूची का मुख्य उद्देश्य यह है कि इस क्षेत्र के मूल निवासियों की परम्पराओं, संस्कृति और प्रथागत क़ानूनों की बाहरी अतिक्रमण या हमले से सुरक्षा की जाए । मिज़ोरम की जनजातियों में लुसेई, पेट, लखर्स, राल्टे, थाडो, और स्नेडुस जैसी जनजातियाँ भी होती हैं । इसमें चकमा नाम का एक छोटा सा समूह भी होता है । यह लोग इण्डो- आर्यन मूल के हैं और चटगाँव की पहाड़ियों से यहाँ पर आये हैं ।
9- हिन्दी में मिथक, अंग्रेज़ी शब्द मिथ से बनाया गया है । इसका श्रेय हजारी प्रसाद द्विवेदी को है ।उन्होंने मिथ में क प्रत्यय जोड़कर इसे हिन्दी की प्रकृति के अनुकूल बना दिया । समाज- विज्ञान के लिहाज़ से मिथक का अर्थ होता है- एक ऐसी कहानी जिसकी समानांतर संरचना अतीत को वर्तमान से जोड़ते हुए भविष्य की तरफ़ भी इशारा करती है । हिन्दी में मिथ के लिए दंतकथा, कल्पकथा, पुरावृत्त, पुराकथा, पुराख्यान, धर्मगाथा आदि शब्दों का भी प्रयोग होता है ।अंग्रेज़ी में यह शब्द माइथॉस से आया है जहाँ पर इसका अर्थ है- अतर्क कथन, मुख से उच्चरित वाणी या मौखिक कथा ।
10- डॉ. नगेन्द्र सिंह ने वर्ष 1979 में प्रकाशित अपनी पुस्तक मिथक और साहित्य में लिखा है कि, ‘मिथक का आशय ऐसी परम्परागत कथा से है जिसका सम्बन्ध अति प्राकृत घटनाओं और भावों से है ।इस तरह मिथक मानवजाति का एक सामूहिक इतिहास, स्वप्न एवं अनुभव है । मिथक का प्रयोजन परम्परा रूप में प्राप्त मान्यताओं, संस्कारों एवं धार्मिक अनुष्ठानों की व्याख्या करना है ।मानव जाति की एकता तथा सभ्यता और संस्कृति की विकास यात्रा को समझने की दृष्टि से मिथक महत्वपूर्ण हैं । यूनानी भाषा के विद्वान एच. जे. रोज ने मिथकों की तीन क़िस्मों का उल्लेख किया है : सृष्टि सम्बन्धी मिथक, प्रलय सम्बन्धी मिथक और देवताओं के प्रणयाचार सम्बन्धी मिथक ।
11- समाजशास्त्रियों ने मिथक की निर्मिति के मूल में सामाजिक व्यवस्था के संरक्षण एवं संचालन की आवश्यकता को कारण के रूप में स्वीकार किया है तो मनोविश्लेषकों ने मिथक को समूह के मानस की उत्पत्ति के रूप में ग्रहण किया । मानवशास्त्रियों ने मिथक को विशुद्ध मानसिक रूपात्मक क्रिया के रूप में स्वीकार किया । भाषाशास्त्रियों के मत में भाषा की उत्पत्ति सांकेतिक अभिव्यक्ति से हुई और मिथक भाषा के विकास की एक मंज़िल है । साहित्य में मिथक को जटिल विषयों की सरल एवं प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम के रूप में स्वीकार किया गया ।
12- ब्रुकलिन, न्यूयार्क के एक ग़रीब यहूदी परिवार में जन्में मिल्टन फ्रीडमैन (1912-2005) बीसवीं सदी के उत्तरार्ध के दो- तीन सबसे ज़्यादा चर्चित और विख्यात अर्थशास्त्रियों में से एक हैं । अर्थशास्त्र की दुनिया में फ्रीडमैन को कीन्सियन आर्थिक सिद्धांतों के खिलाफ जिहाद चलाने के लिए और मौद्रिकवाद के संस्थापक के रूप में मान्यता प्राप्त है । उन्हें शिकागो स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स का विकास करने वाले विद्वान के रूप में भी जाना जाता है । फ्रीडमैन के रचना संसार के केन्द्र में दो विचार हैं : धन और आज़ादी ।1976 में फ्रीडमैन को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया ।
13- अमेरिका के प्रसिद्ध मानवशास्त्री मिल्टन सिंगर (1912-1994) को भारत में जारी आधुनिकीकरण के विशेष अध्ययन के लिए जाना जाता है । वे ऐसे प्रमुख विद्वानों में से थे जिन्होंने अमेरिका में दक्षिण- एशियाई समाजों के अध्ययन को काफ़ी महत्व दिलाया । भारत के बारे में मैक्स वेबर मानते थे कि चरम भाग्यवाद, जातिवाद और परम्पराबद्धता के कारण भारत में मौजूद सांस्कृतिक परिस्थितियाँ पूँजीवादी विकास में सहायक नहीं हैं । हिन्दू धार्मिक मूल्य उद्यमिता के विकास में रूकावट हैं । सिंगर ने अपने शोध और निष्कर्षों से मैक्स वेबर की धारणा का खंडन किया । सिंगर ने अमेरिका के टेक्सास विश्वविद्यालय में 29 वर्ष तक अध्यापन कार्य किया ।
14- मिल्टन सिंगर ने दक्षिण भारत, ख़ासतौर पर मद्रास के कारोबारियों का अध्ययन किया और यह जानने का प्रयास किया कि किस प्रकार उनकी संस्कृति ने कारोबार के क्षेत्र में सहयोग किया है ।इसके लिए उन्होंने बड़ी संख्या में पुजारियों, नर्तकों, सामान्य आस्तिक हिन्दुओं और कारोबारियों के साथ बातचीत की । उन्होंने लोक संस्कृतियों के अध्ययन और नगरों में सांस्कृतिक परिवर्तन की प्रक्रियाओं का बारीकी से विवेचन किया और यह समझने की कोशिश की कि एक प्राचीन संस्कृति ने किस प्रकार पिछली एक शताब्दी के दौरान विदेशी विश्वासों और गतिविधियों का सामना किया और स्थितियों के अनुरूप स्वयं को ढाला । इस अध्ययन पर आधारित उनकी पुस्तक ह्वेन ए ग्रेट ट्रेडिशन माडर्नाइजेस : एन एंथ्रोपोलोजिकल अप्रोच टु इंडियन सिविलाइजेशन का प्रकाशन 1972 में हुआ ।
15- दिनॉंक 15 जून, 1926 को पोइटियर्स, फ़्रांस में पैदा हुए मिशेल पॉल फूको (1926-1984) को इतिहास, दर्शन और सामाजिक सैद्धांतिकी के क्षेत्र में युगप्रवर्तक चिंतन करने का श्रेय दिया जाता है । फूको के कृतित्व में अपने ज़माने की उन सभी बौद्धिक प्रविधियों के प्रति गहरा असंतोष था जो मार्क्सवाद, अस्तित्ववाद और घटनाक्रियाशास्त्र के औज़ारों से तैयार की गई थीं । विचारों के क्षेत्र में नीत्शे, मार्क्स और फ्रॉयड को संदेह और प्रश्नांकन के बादशाह की संज्ञा देने वाले फूको स्वयं इस प्रक्रिया में इन तीनों महान चिंतकों की ही तरह बीसवीं सदी में संदेह और प्रश्नांकन के उस्ताद बन गए ।वह कॉलेज द फ़्रांस में इतिहास के प्रोफ़ेसर रहे ।
16- मिशेल पॉल फूको का बुनियादी अवदान यह है कि दुनिया और उसकी व्यवस्था के जिस रूप से हम परिचित हैं वह उसकी कई सम्भावित बहुलताओं का महज एक रूप है । स्वीकृत और स्थापित मान्यताओं की गहन परीक्षा को फूको के चिंतन का मर्म कहा जा सकता है । यह एक ऐसा तत्व है जो उनके शोध के विषयों- विक्षिप्तता, यौनिकता और जेंडर से लेकर सत्ता के विमर्श में निरंतर मौजूद रहता है । सामाजिक जीवन की परिघटनाओं और उनसे जुड़ी मान्यताओं को समझने के लिहाज़ से फूको की शुरुआती रचना मैडनेस ऐंड सिविलाइजेशन : ए हिस्ट्री ऑफ इनसेनिटी इन द एज ऑफ रीज़न (1961) एक युगान्तर कारी प्रस्थान बिंदु मानी जाती है ।
17- रोग की पहचान, निदान और इलाज की प्रक्रियाओं के इतिहास में जाते हुए फूको अपनी दूसरी रचना द बर्थ ऑफ क्लीनिक : एन आर्कियोलॉजी ऑफ मेडिकल परसेप्सन में बताते हैं कि अठारहवीं सदी से पहले रोगों को मानव शरीर के सन्दर्भ में देखा नहीं जाता था ।परन्तु उन्नीसवीं सदी से यह धारणा बदल गई ।अब यह माना जाने लगा कि रोग मानव शरीर में स्थित होता है ।अपनी एक अन्य रचना द आर्डर ऑफ थिंग्स : एन आर्कियोलॉजी ऑफ नालेज (1966) में वह व्यंग्यात्मक लहजे में कहते हैं कि मनुष्य की समूची अवधारणा ही हाल- फ़िलहाल का आविष्कार है और वह चीज़ों की ख़ास व्यवस्था पर निर्भर करती है ।
18- फूको के बौद्धिक अवदान ने चिकित्सा, यौनिकता, दण्ड और विक्षिप्तता जैसे विषयों पर जमे ज्ञानोदय के उस कुहासे को छाँटने में मदद की जो सार्वभौमिकता के बहाने व्यापक स्वीकृति हासिल करके मनुष्य की स्वतंत्रता में बाधक बन गया था । आज अगर हम इन सामाजिक परिघटनाओं और वर्जनाओं को अपरिवर्तनीय सत्य न मानकर इतिहास के प्रवाह का एक बिन्दु भर मानते हैं तो इसके पीछे फूको का मौलिक लेखन ही है । उनका कृतित्व उन सारी बंदिशों, बेड़ियों, प्रतिबंधों, वर्जनाओं और निषेधों को निरावृत करने की प्रेरणा देता है जो आदर्शों, अवधारणाओं और कसौटियों की शक्ल में मनुष्य की चेतना में विन्यस्त हो गया है ।
19- भारत में मीडिया और राजनीति के सम्बन्धों के चार मुख्य बिन्दु हैं : पहला, मीडिया ने समाज के राजनीतीकरण की प्रक्रिया में गहरा योगदान किया है । दूसरा, राजनीतिक संगठनों ने मीडिया की पहुँच का लाभ उठा कर उसके ज़रिए अपनी विचारधारा और कार्यक्रम का प्रचार करते हुए उसे सत्ता पाने के औज़ार की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश की है । तीसरा, मीडिया ने राजनीति में एजेंडा- सेटिंग की भूमिका निभाई है । चौथा, भारतीय राज्य ने मीडिया को प्रत्यक्षतः नियंत्रण से मुक्त रखते हुए उसकी राजनीतिक भूमिका को विनियमित करने का प्रयास किया है ।
20- वर्ष 1991 में भारतीय टेलीविजन नेटवर्क जैसे ही सरकारी क़ानून- क़ायदों की जकड़ से छूटा और केबिल टेलीविजन प्रसारण शुरू हुआ, सात- आठ वर्षों के भीतर ही 555 चैनल अपना प्रसारण करने लगे ।इनमें 33 चैनल चौबीस घंटों तक समाचार दिखाने वाले थे । 1992 से 2010 के बीच नेट का इस्तेमाल करने वालों की संख्या कुछ नहीं से बढ़कर आठ करोड़ से ऊपर हो गई । 1987 से 1990 के बीच में टी वी पर रामायण और महाभारत जैसे धार्मिक धारावाहिक दिखाए गए ।इन्हें हर हफ़्ते क़रीब पॉंच करोड़ दर्शक देखते थे । वर्ष 2012 में वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित विनीत कुमार की पुस्तक मण्डी में मीडिया एक चर्चित पुस्तक है ।
21- अरविन्द राजगोपाल ने वर्ष 2004 में प्रकाशित अपनी पुस्तक पॉलिटिक्स आफ्टर टेलीविजन : रिलीजस नैशनलिज्म ऐंड द रिसेपिंग ऑफ द इंडियन पब्लिक में निष्कर्ष निकाला कि इन धारावाहिकों के लोकप्रिय और सफल प्रसारण का फ़ायदा नब्बे के दशक में चले दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववादी विचारधारा पर आधारित रामजन्मभूमि आंदोलन को हुआ । राजगोपाल के अनुसार धार्मिक धारावाहिकों ने एक गढ़ा गया हिन्दू अतीत टीवी दर्शकों को थमाया । इसके कारण बने मानस ने अयोध्या आन्दोलन की लोकप्रियता में इज़ाफ़ा किया । धारावाहिक में जिस तरह से युद्ध के दृश्य दिखाए गए थे, उसी पैटर्न पर धार्मिक और राजनीतिक गोलबंदी की गई ।
22- दिसम्बर, 2003 से जनवरी, 2004 के बीच 9,472 बार टीवी पर इंडिया शाइनिंग का प्रचार हुआ । 450 प्रिंट मीडिया अख़बारों को विज्ञापन देकर जनता को यह बताने की कोशिश की गई कि सत्तारूढ़ गठजोड़ की देखरेख में औद्योगिक और खेतिहर मोर्चे पर देश ने भारी प्रगति की है जिसके कारण चारों तरफ़ सूर्योदय हो रहा है । कुल मिलाकर इंडिया शाइनिंग मुहिम मीडिया के ज़रिए भारत की एक नई राष्ट्रीय अस्मिता गढ़ने की महत्वाकांक्षी कोशिश थी ।मार्च, 2009 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार ने हॉलीवुड की स्लमडॉग मिलेनियर के ऑस्कर पुरस्कृत गीत की टेक जय हो को दो लाख डॉलर में ख़रीद लिया ताकि चुनाव प्रचार में उसका प्रयोग किया जा सके ।
23- एक ब्रिटिश सैन्य अधिकारी ऐडमिरल सर एडमंड स्लेड की पुत्री तथा अहमदाबाद के साबरमती आश्रम में गांधी के रचनात्मक कार्यक्रम में उनकी निकटतम सहयोगी ब्रिटिश मूल की मैडेलिन स्लेड को मीरा बेन (1892-1982) के नाम से जाना जाता है । मैडेलिन को यह भारतीय नाम गांधी ने दिया था ।गांधी के पत्र यंग इंडिया और हरिजन में उन्होंने कमोबेश हज़ार के ऊपर लेख लिखे होंगे ।वर्धा के निकट सेवाग्राम आश्रम की स्थापना में उनकी प्रमुख भूमिका थी ।1930 में गांधी जब गोलमेज़ सम्मेलन में भाग लेने के लिए लंदन गए, तो मीरा उनके साथ थीं । भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान 1944 में ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें क़ैद कर लिया और आगा खां पैलेस के नज़रबंद रखा था ।गांधी की हत्या के बाद 1959 तक वह भारत में रहीं ।बाद में वियना चली गई ।
24- रोम्या रोलॉं द्वारा संगीतकार बीथोवन के बारे में फ़्रांसीसी में लिखी पुस्तक ज्यॉं क्रिस्टोफ़र का अंग्रेज़ी अनुवाद पढ़ने के बाद मैडेलिन स्विट्ज़रलैंड जाकर रोम्या रोलॉं से मिलीं ।रोम्या रोलॉं ने ही मेडलिन को गांधी के बारे में बताया और कहा कि गांधी आज के समय के एक मसीहा हैं ।वर्ष 1925 में मैडेलिन ने गांधी को 20 पाउंड का अनुदान भेजा और एक पत्र में भारत आकर गांधी के साथ रहने का अनुरोध किया, जिसे गांधी ने स्वीकार कर लिया । 6 नवम्बर, 1925 को मैडेलिन मुम्बई पहुँचीं जहॉं उन्हें दादा भाई नौरोजी के घर ठहराया गया ।सरदार वल्लभ भाई पटेल मैडेलिन को लेकर सात नवम्बर की सुबह साबरमती आश्रम पहुँच गए ।
25- साबरमती आश्रम में मैडेलिन ने सादगी का जीवन जीना शुरू किया ।वह ज़मीन पर सोती थीं ।सफ़ेद सूती साडी पहनती थीं ।उन्होंने अपने बाल कटवा लिए और आजीवन ब्रम्हचर्य का व्रत लिया ।इसी दौरान उनका नया नाम मीरा मिला । साबरमती आश्रम में कुछ दिन रूकने के बाद मीरा गांधी के साथ विनोबा भावे के वर्धा आश्रम गयीं । 1928 में मीरा ने खादी के प्रचार के लिए बिहार की यात्रा की ।वर्ष 1931 की दूसरी गोलमेज़ बैठक में गांधी के साथ इंग्लैंड में उन्होंने स्थानीय ब्रिटिश लोगों और गांधी के बीच मध्यस्थ की भूमिका अदा की ।1933 में मीरा अपनी इंग्लैंड यात्रा के दौरान विंस्टन चर्चिल से मिलीं और गांधी के बारे में चर्चिल की कटुक्तियों का बड़ी शालीनता और दृढ़ता से जबाब दिया ।
26- वर्धा से आठ किलोमीटर की दूरी पर सेगॉंव नामक एक गॉंव में गांधी ने एक नया आश्रम बनाया, जिसे बाद में सेवाग्राम नाम दिया गया । यहाँ पर गांधी कस्तूरबा और मीरा के साथ कई दिनों तक रहे । 1947 में मीरा बेन ने रिषिकेश के निकट पुष्यलोक के नाम से एक गोसेवा आश्रम स्थापित किया ।वर्ष 1952 में उन्होंने टिहरी गढ़वाल में गोपाल आश्रम स्थापित किया ।यहीं से उन्होंने पर्यावरण और वानिकी के पुनरुद्धार का अभियान चलाया ।आगे चलकर मीरा की मुहिम से प्रेरणा लेकर सरला बेन और सुन्दरलाल बहुगुणा ने वन संरक्षण का व्यापक अभियान चलाया ।20 जुलाई, 1982 को मीरा बेन का देहान्त हो गया ।
27- राजस्थान की कवियित्री मीराबाई (संवत् 1573-1603) ने अपनी भक्ति और कवि भावना से राजस्थान की भूमि को रससिक्त कर दिया ।मीरा के ह्रदय में साधनारत योगी का निवास था ।राजस्थान में सामन्तवाद और मर्दवाद को मीरा ने चुनौती दी और महलों से निकल पड़ीं ।पर्दानशीन रानी गलियों में संतों के साथ गाती चलें यह बात राजाओं को अपनी प्रतिष्ठा के विपरीत लगती थी ।मीरा को उनकी सास और ननद कुलनाशी कहती थी ।मीरा ने अपने को कृष्ण प्रेम की गोपी माना और गिरिधर की शरण में चली गईं ।बाल्यावस्था में ही मीरा का भोजराज से विवाह हुआ था और कुछ समय बाद भोजराज का देहांत हो गया ।
28- मुकुंद लाठ (1937-) कलकत्ता के एक सम्भ्रांत परिवार में जन्में अध्येता, कवि, विचारक और साहित्यकार हैं ।उन्होंने साहित्य, संगीत, नाटक, नृत्य, सौन्दर्यशास्त्र तथा धर्म और दर्शन जैसे विषयों पर बहुआयामी लेखन किया ।उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं : अ स्टडी ऑफ दत्तिलम (1978), द हिंद पदावली ऑफ नामदेव (1989), संगीत एवं चिंतन (1992), तथा ट्रांसफॉरमेशन एज क्रिएशन (1998) । भारत में आत्मकथा की प्राचीन शैली और परम्परा की खोज भी मुकुंद लाठ की साहित्यिक अभिरुचि का विषय रहा है ।इस विधा में उन्होंने कल्पसूत्र (1977) का अंग्रेज़ी अनुवाद किया ।
29- मुसलिम राजनीति में उन्नीसवीं सदी में ब्रिटिश विरोधी धारा के शीर्ष पर वहाबी और फराइजी आन्दोलन नज़र आते हैं ।वहाबी रैडिकल क़िस्म के लोग थे ।1857 में जनरल बख्त खां के नेतृत्व में नई दिल्ली में स्थापित हुई विद्रोही सिपाहियों की सरकार वबाबी रूझान का प्रमाण थी ।वहाबी अंग्रेज़ विरोधी, हिन्दू- मुसलिम एकता के ज़बरदस्त हिमायती थे ।फराजियों का दृष्टिकोण भी इसी से मिलता- जुलता था ।उन्होंने बंगाल को दार- उल- हर्ब घोषित किया ।इसका सीधा मतलब था कि वे खुद को अंग्रेज़ हुक्मरानों के खिलाफ शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध में देख रहे थे ।वर्ष 1980 के दशक में मुहम्मद कासिम ननौतवी ने देवबंद मदरसे की स्थापना किया ।
30- मुहम्मद अली जिन्ना (1876-1948) को पाकिस्तान में दक्षिण एशिया की आधुनिक मुसलिम राजनीति का प्रवर्तक माना जाता है ।वे पाकिस्तान के राष्ट्रपिता और क़ायदे आज़म (महानतम नेता) हैं ।भारत में उन्हें मुसलिम पृथकतावादी और भारत विभाजन के लिए जाना जाता है ।जिन्ना का जन्म सिंध प्रांत के कराची ज़िले के वजीर मेसन में 25 दिसम्बर, 1876 को हुआ था ।जिन्ना के माता-पिता (मिठी बाई और जिन्ना भाई पुंजा) गुजराती मूल के मुसलमान थे ।उनके पिता एक सम्पन्न व्यापारी थे । जिन्ना का मूल नाम मुहम्मदाली जिनोभाई था ।उच्च शिक्षा के दौरान इंग्लैंड में उन्होंने अपना नाम एम. ए. जिन्ना रख लिया था ।उनकी उच्च शिक्षा इंग्लैंड में हुई थी ।
31- जिन्ना ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1966 में औपचारिक रूप से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से की थी ।1906 में वह प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट बने, 1909 में इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल में मनोनीत हुए और 1910 में मुम्बई लेजिस्लेटिव कमेटी के सदस्य चुने गए ।यूँ तो जिन्ना 1913 में मुसलिम लीग में शामिल हो गए थे, लेकिन उनका रुझान कांग्रेस की राजनीति में ज़्यादा था ।यही कारण था कि मुसलिम लीग में होने के बावजूद वे गोखले के साथ इंग्लैंड गए और लंदन इंडियन एसोसिएशन के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।1916 का कांग्रेस- लीग समझौता जिन्ना की राजनीतिक सक्रियता का उदाहरण है ।
32- जिन्ना ने 1929 में नेहरू रिपोर्ट के जबाब में अपने 14 सूत्र प्रतिपादित किए ।यह सूत्र जिन्ना की राजनीतिक आधुनिकता और उनकी 1940 के दशक की राजनीति का आधार कहे जा सकते हैं ।इन 14 सूत्रों में जिन्ना ने दो राजनीतिक सिद्धांत स्थापित किया : पहला, भारत के भावी संविधान का ढाँचा पूरी तरह से संघीय होना चाहिए जिसमें प्रान्तों को केन्द्र से ज़्यादा शक्तियाँ हासिल हों ।दूसरे, मुसलमानों को एक राजनीतिक सम्प्रदाय माना जाए, संविधान में उन्हें अलग प्रतिनिधित्व मिले तथा उनकी संस्कृति और हितों की रक्षा के लिये विशेष प्रावधान हों ।वर्ष 2007 में स्टेनली वोलपर्ट की पुस्तक, जिन्ना : मुहम्मद अली से क़ायदे आज़म तक, जिसका हिन्दी अनुवाद अभय कुमार दुबे ने किया है, महत्वपूर्ण कृति है ।
33- मुहम्मद इक़बाल (1877-1938) को उर्दू के महाकवि तथा भारत में ‘सारे जहॉं से अच्छा हिंदोस्तॉं हमारा’ गीत के रचयिता के रूप में जाना जाता है ।यह गीत औपचारिक रूप से भारत का राष्ट्रीय गीत है जिसे राष्ट्रीय पर्वों के अवसर पर राष्ट्र- गान के बाद गाये जाने की परम्परा विकसित हुई है ।इक़बाल का उर्दू- फ़ारसी साहित्य भारतीय विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता है ।पाकिस्तान में इक़बाल को मुफ्फकिर – ए- पाकिस्तान (पाकिस्तान का विचारक) माना जाता है ।पाकिस्तान की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार इक़बाल पाकिस्तान के विचार के जनक थे और उन्हीं के राजनीतिक चिंतन के परिणामस्वरूप पाकिस्तान वजूद में आया ।उनके जन्मदिन को इक़बाल डे कहा जाता है ।
34- मुहम्मद इक़बाल का जन्म 9 नवम्बर, 1877 को स्यालकोट पंजाब में हुआ था ।उनके पूर्वज कश्मीरी पंडित थे जो बाद में मुसलमान हो गए ।कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से उन्होंने स्नातक की उपाधि प्राप्त की और उसके बाद म्युनिख से दर्शनशास्त्र में पीएच डी की उपाधि हासिल की ।उनकी प्रमुख रचनाएँ असरार-ए-खुदी, रूमुज-ए-बेख़ुदी और बंग-दारा साहित्यिक हलकों में मील का पत्थर मानी जाती हैं ।मार्क्सवादी भी उनकी नज़्मों को क्रान्ति के तरानों की तरह ग्रहण करते थे ।इक़बाल मानते थे कि इस्लाम राष्ट्रवाद से ज़्यादा व्यापक विचारधारा है इसलिए मुसलमानों को इस्लामी विचारधारा को अपनाना चाहिए ।
35-मूल्य किसी वस्तु या सेवा की बुनियादी क़ीमत या दाम को कहा जाता है ।अरस्तू ने उपयोग मूल्य और विनिमय मूल्य (बाज़ार मूल्य) के बीच अंतर किया है ।उनके इसी विचार के आधार पर क्लासिकल अर्थशास्त्र के संस्थापकों ऐडम स्मिथ, डेविड रिकार्डो और कार्ल मार्क्स ने अपने मूल्य सिद्धांत का विकास किया ।विलियम पेटी ने श्रम को भौतिक सम्पदा का पिता और पृथ्वी को माता करार देते हुए मूल्य निर्धारण का आधार बनाने की कोशिश की ।इसी मान्यता का विकास करते हुए रिचर्ड कैटिलन ने दिखाया कि श्रम का मूल्य श्रमिक के परिवार के भरण- पोषण के लिए आवश्यक भूमि के मूल्य से जोड़कर भूमि या श्रम की श्रम की इकाइयों के रूप में मूल्य निर्धारण किया जा सकता है ।
36- मूल्य के निर्धारण में ऐडम स्मिथ ने इसी तर्क को आगे बढ़ाते हुए निष्कर्ष निकाला कि भूमि, श्रम और पूँजी के प्राकृतिक दाम होते हैं और उनका योगफल उत्पादित जिंस के प्राकृतिक दाम के बराबर होता है ।स्मिथ ने श्रम को तीन हिस्सों में बाँटकर समझने की कोशिश की : उत्पादन करने में किया गया श्रम, विनिमय के लिए दूसरों से करवाया गया श्रम और श्रम की मात्रा ।रिकार्डो और मार्क्स ने लागत के रूप में केवल श्रम को ही देखने का आग्रह किया ।रिकार्डो का तर्क था कि उपयोगिता को किसी जिंस के विनिमय- मूल्य की अनिवार्य शर्त के रूप में देखा जाना चाहिए ।
37- रिकार्डो ने कौशल और श्रम की सघनता की अहमियत मानने से इनकार करते हुए कहा कि जिंसों को बाज़ार में लाने में लगे वक़्त का फ़र्क़ उनके मूल्य पर छह से सात फ़ीसदी तक असर डाल सकता है ।इसी वजह से रिकार्डो के मूल्य सिद्धांत को श्रम का 93 फ़ीसदी मूल्य सिद्धांत भी कहा जाता है ।मार्क्स ने रिकार्डो के मूल्य सिद्धांत को आधार बनाते हुए अपनी रचना कैपिटल के पहले खंड में कहा कि उपयोग मूल्य सम्बन्धित जिंस के भौतिक गुणों पर निर्भर करता है जिसकी प्राप्ति उस वस्तु के उपभोग की प्रक्रिया में होती है ।
38- मार्क्स के अनुसार मूल्य एक तकनीकी सम्बन्ध न होकर मनुष्यों के बीच का एक सामाजिक सम्बन्ध है जो पूंजीवाद के तहत एक ख़ास तरह का भौतिक रूप अख़्तियार करके जिंस के रूप में प्रकट होता है ।मार्क्स ने सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम- अवधि की धारणा का प्रतिपादन किया और इसके लिए सामान्य उत्पादन, कार्य कुशलता के औसत स्तर और श्रम की गहनता को आधार बनाया ।मानवीय क्षमता के बीच फ़र्क़ पर ज़ोर देने के बजाय उन्होंने तर्क दिया कि कौशल की प्राप्ति प्रशिक्षण से हो सकती है ।प्रशिक्षण के माध्यम से जटिल क़िस्म का श्रम साधारण क़िस्म के श्रम में बदल जाता है ।
39- मेघालय, भारत के उत्तर- पूर्व में स्थित राज्य है ।मेघालय शब्द का शाब्दिक अर्थ है : बादलों का घर ।मेघालय देश के पूर्वी भाग में (पूर्व-पश्चिम) तक़रीबन तीन सौ किलोमीटर लम्बी और तक़रीबन दस किलोमीटर चौड़ी पहाड़ियों की एक श्रृंखला है ।इसकी राजधानी शिलांग है ।इसकी सीमाएँ उत्तर और पूरब में असम से तथा दक्षिण और पश्चिम में बांग्लादेश से मिलती हैं ।इसका कुल क्षेत्रफल 22 हज़ार, 720 वर्ग किलोमीटर है ।क्षेत्रफल के हिसाब से यह देश का 22 वां सबसे बड़ा राज्य है ।वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार यहाँ की जनसंख्या 29 लाख, 64 हज़ार, 07 है ।यहाँ की साक्षरता दर 72.1 प्रतिशत है ।
40- मेघालय की विधानसभा एक सदनीय है जिसमें कुल 60 सदस्य होते हैं ।यहाँ से लोकसभा के लिए 2 तथा राज्य सभा के लिए एक सदस्य चुना जाता है ।गुवाहाटी उच्च न्यायालय ही यहाँ के उच्च न्यायालय की भूमिका निभाता है ।खासी, पनेर, गारो, हिन्दी और अंग्रेज़ी मेघालय की राजकीय भाषाएँ हैं ।एक अलग राज्य के रूप में मेघालय का निर्माण 21 जनवरी, 1972 को असम के दो ज़िलों, संयुक्त खासी हिल्स और जयंतिया तथा गारो हिल्स को अलग करके किया गया । मेघालय की जनसंख्या में जनजातियों का बहुमत है ।खासी यहाँ का सबसे बड़ा जनजातीय समूह है ।इसके अलावा यहाँ कोच, राजबोगंसी, बोडो, हजोंग, दिमासा, हमर, कुकी आदि जनजातियाँ भी हैं ।
41- मैक्स वेबर (1864-1920) जर्मन इतिहासकार,अर्थशास्त्री और विधि- सिद्धांतकार के साथ ही साथ समाजशास्त्र के संस्थापकों में से एक थे ।समाज, संस्कृति, सत्ता, सामाजिक स्तरीकरण, नौकरशाही, विकास और आधुनिक पूंजीवाद के अध्ययन में उनके चिंतन और अनुसंधान ने बुनियादी योगदान दिया है ।समाज विज्ञान की दुनिया में उन्हें पूँजीवादियों के मार्क्स की संज्ञा दी गई है ।जर्मनी के इरफर्ट शहर में पैदा हुए मैक्स वेबर के पिता एक प्रमुख वकील और जर्मन संसद के सदस्य थे ।मैक्स वेबर अर्थशास्त्र, क़ानून और राजनीतिशास्त्र के प्रोफ़ेसर रहे हैं ।
42- मैक्स वेबर की सबसे मशहूर रचना 1905 में प्रकाशित द प्रोटेस्टेंट इथिक्स ऐंड द स्प्रिट ऑफ कैपिटलिज्म है ।वेबर राजनीतिक शासन के विधेयक आधार की खोज करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि प्राधिकार को तीन मॉडलों की रोशनी में समझा जा सकता है : पारम्परिक प्राधिकार, करिश्माई प्राधिकार और विधिक- बुद्धिसंगत प्राधिकार ।आधुनिकता को लोहे के पिंजरे की संज्ञा देने वाले मैक्स वेबर का प्रभाव फ्रेडरिख हायक और माइकल ओकशॉट जैसे अनुदारवादियों पर ही नहीं बल्कि ग्योर्ग लूकॉच, हरबर्ट मार्क्यूजे और थियोडोर एडोर्नो जैसे मार्क्सवादियों पर भी पड़ा ।
43- मैक्स वेबर का आग्रह था कि लोगों की क्रियाओं और पहलकदमियों का सम्बन्ध उनके विश्व- दृष्टिकोण और यथार्थ की उनकी समझ से होता है ।इसलिए उनके निहितार्थों को समझने के तौर- तरीक़े विकसित करने ज़रूरी हैं ।उनका मानना था कि कोई कदम उठाने के पीछे जज़्बात हो सकते हैं, परम्परा के आग्रह की भूमिका हो सकती है, किसी उद्देश्य को प्राप्त करने की इच्छा हो सकती है या मूल्यगत सरोकार हो सकते हैं । वेबर का विचार था कि लोग मिले- जुले कारणों से कुछ करने का निर्णय लेते हैं, पर उनमें कोई एक कारण प्रमुख होता है ।।इस लिहाज़ से वेबर ने नतीजा निकाला कि एक सार्थक जगत के दायरे में अंजाम दिया गया सार्थक व्यवहार ही सामाजिक क्रिया का जनक हो सकता है ।
44- मार्क्सवादी विमर्श में जहां सामाजिक हैसियत को वर्ग- आधारित माना जाता है वहीं वेबर ने उसमें वर्ग के साथ संस्कृति, जीवन- शैली के रूपों और उपभोग के प्रारूपों की भूमिका पर भी बल दिया है ।इस तरह से वेबर ने मार्क्स प्रदत्त अंतर्दृष्टि का विकास करते हुए स्टैटस ग्रुप की अवधारणा का प्रतिपादन किया ।पूंजीवाद और समाजवाद की तुलना करते हुए मैक्स वेबर कहते हैं कि पूंजीवाद में व्यक्ति की निजता और सृजनशीलता के लिए थोड़ी बहुत गुंजाइश होती है, पर समाजवाद में सरकार और आर्थिक नौकरशाही का भीषण संगम सभी तरह की निजता को पूरी तरह से कुचल डालता है ।
45- स्पिटलफील्डस, लंदन में जन्मीं मैरी वोल्सनक्रॉफ्ट (1759-1797) ब्रिटिश लेखिका, दार्शनिक और स्त्री अधिकारों की पैरोकार थीं ।उनकी विख्यात रचना अ विंडीकेशन ऑफ राइट्स ऑफ वुमन (1792) ने एक ऐसे विमर्श और राजनीति की शुरुआत की जिसे नारीवाद की आधारशिला रखने का श्रेय दिया जाता है ।स्त्री मुक्ति की पीठिका तैयार करने की दिशा में शुरुआती कोशिश करते हुए वोल्सनक्रॉफ्ट ने इस रचना में स्त्रियों के उत्पीडन और दासता का इतिहास एवं प्रतिरोध का साक्ष्य प्रस्तुत किया ।उन्होंने साहसिक और तर्कपूर्ण प्रतिवाद करते हुए यह मानने से इनकार कर दिया कि स्त्रियों की अधीनस्थता एक स्वाभाविक और प्राकृतिक स्थिति है ।
46- मैरी वोल्सनक्रॉफ्ट की 1787 में थाट्स ऑन द एजुकेशन ऑफ डॉटर्स नाम की पुस्तक प्रकाशित हुई ।उसके बाद उन्होंने मैरी : अ फिक्शन शीर्षक से उपन्यास लिखा ।आया का काम करते हुए मैरी ने बच्चों के लिए ओरिजनल स्टोरीज़ फ़्रॉम रियल लाइफ़ पुस्तक भी लिखी ।मशहूर दार्शनिक विलियम गाडविन से उन्होंने विवाह किया ।1790 में एडमंड बर्क की रचना रिफ्लेक्शंस ऑन द रेवोल्यूशन ऑफ द फ़्रांस का प्रकाशन हुआ जिसके जबाब में मैरी ने इसी वर्ष विडींकेशन ऑफ द राइट्स ऑफ द मेन लिख कर ख्याति अर्जित की ।एडमंड बर्क ने मैरी पर कटाक्ष करते हुए मैरी के लिए पेटीकोट पहने हुए बघर्रा की उपमा उछाली ।
47- मैसूर नरसिम्हचार श्री निवास (1916-1999) को एम एन श्री निवास के नाम से जाना जाता है ।बड़ौदा और दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के विभागों की स्थापना का श्रेय उन्हीं को दिया जाता है ।समाजशास्त्र में उन्हें संस्कृतीकरण, प्रभुत्वशाली जाति और वोट बैंक जैसी मौलिक प्रस्थापनाओं के लिए जाना जाता है ।ग्रामीण समुदाय और जाति की संरचना के विशिष्ट अध्ययन के अलावा एम एन श्रीनिवास ने विज्ञान के सामाजिक प्रभाव, गांधी के धार्मिक चिंतन तथा मानवशास्त्र के इतिहास से लेकर जेंडर जैसे विषयों पर भी महत्वपूर्ण काम किया है ।उनका लेखन अंतर- विषयकता को एक ख़ास तरह का ज़मीनी संदर्भ प्रदान करता है ।
48- भारतीय राष्ट्र- राज्य के संस्थापक, उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन के सर्वप्रमुख नेता, सामाजिक और सभ्यतामूलक चिंतक मोहनदास कर्मचंद गांधी (1869-1948) आधुनिक राजनीति में सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, विनय, सेवा, स्वराज, स्वदेशी, सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा, ट्रस्टीशिप, सर्वोदय और अंत्योदय जैसी अवधारणाओं के समावेश के लिए विश्व विख्यात हैं ।गांधी ने कई अवसरों पर कहा कि मेरा जीवन ही मेरा संदेश है ।उन्होंने अपने एक निकटतम सहयोगी से यह भी कहा था कि उन्हें समझने के लिये उन्हें उनकी सतत क्रियाशीलता के बीच देखना होगा ।गांधी का सम्पूर्ण लेखन और चिंतन 100 खंडों में संकलित है ।
49- गुजरात के पोरबंदर में दो अक्तूबर को जन्में मोहनदास अपने पिता कर्मचन्द गांधी की चार संतानों में सबसे छोटे बेटे थे ।पिता से गांधी को अनुशासनप्रियता की सीख मिली एवं माता पुतलीबाई से धर्माचरण की प्रेरणा ।अपनी आत्मकथा सत्य के साथ मेरे प्रयोग में गांधी ने खुद को साधारण क़िस्म का विद्यार्थी बताया है ।तेरह वर्ष की अल्पायु में ही उनका कस्तूरबा से विवाह हुआ ।हाईस्कूल में ही पिता से छिपकर गांधी ने मदिरापान किया और पश्चाताप की वेदना में पिता को पत्र लिखा ।आख़िरी क्षणों में मृत्यु – शैय्या पर पड़े पिता के समक्ष न रह पाने और उस समय पत्नी के साथ समागमरत रहने की घटना ने गांधी के मन को बुरी तरह से आहत किया ।
50- गांधी के विचारों पर थोरो, तॉल्स्तॉय और रस्किन के साथ ही साथ बाइबिल के संदेशों, हिन्दू- वैष्णव मूल्यों, भगवद्गीता और अद्वैत वेदांत का मिला- जुला प्रभाव था ।गांधी ने पराश्रितता एवं विभेद, संगठित शक्ति से व्युत्पन्न हिंसा और अमर्यादित स्वतंत्रता तथा छद्म समानता के समीकरणों को जन्म देने के लिए आधुनिक सभ्यता को उत्तरदायी ठहराया है ।गांधी के अनुसार व्यक्ति का समग्र व्यक्तित्व मस्तिष्क, मन, बौद्धिकता और नैतिकता का समाविष्ट रूप है ।इन सब का स्पष्ट पारदर्शी विभाजन सम्भव नहीं है ।प्रेम, विश्वास और क्षमा को गॉंधी मनुष्य की विकासात्मक क्षमता की परिपूर्णता के लिए आवश्यक मानते हैं ।
नोट : उपरोक्त सभी तथ्य, अभय कुमार दुबे, द्वारा सम्पादित पुस्तक, समाज-विज्ञान विश्वकोश, खंड 4, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण : 2016, ISBN : 978-81-267-2849-7, से साभार लिए गए हैं ।