– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर-प्रदेश) भारत । email : drrajbahadurmourya @ gmail.com, website : themahamaya.com
(वितरण मूलक न्याय, विदेशी द्वेष की अवधारणा, विद्याबेन शाह, विनायक दामोदर सावरकर, आचार्य विनोबा भावे, विमर्श, विल किमलिका, विलफ्रेडो परेटो, विलियम पेटी, विलियम स्टेनली जेवन्स, स्वामी विवेकानंद, विश्वनाथ काशीनाथ राजवाडे, विश्व सामाजिक मंच, विश्व व्यापार संगठन, विश्व बैंक, विश्व सरकार, वी. के.आर.वी. राव, वेदांत, वेरियर एलविन)
1- वितरणमूलक न्याय का सिद्धांत माँग करता है कि समाज में धन- सम्पत्ति, सुविधाओं और वस्तुओं का आवंटन समता को आधार बनाकर करने से ही न्याय की शर्तें पूरी हो सकती हैं । वितरणमूलक न्याय के पैरोकार जीवन स्तर और सम्पत्ति के स्वामित्व की विषमता जैसे पहलुओं पर गौर करते हुए उन्हें मानवाधिकारों, मानवीय गरिमा और सर्वसाधारण के हितों की पूर्ति के साथ जोड़ते हैं । इस सम्बन्ध में पीगू- डाल्टन सिद्धांत उल्लेखनीय है । इसके अनुसार अमीर से लेकर गरीब को देने से विषमता घटती है बशर्ते अमीर व्यक्ति गरीब का स्थान लेने के लिए मजबूर न हो और गरीब का स्तर बेहतर हो जाए । ह्यू डाल्टन कहते हैं कि दोनों तरह के प्रभाव पड़ सकते हैं, लेकिन हर हालत में सामूहिक कल्याण की स्थिति बेहतर होगी ।
2- राजनीतिक सिद्धांत के क्षेत्र में समता के उसूल का बेहद परिष्कृत सूत्रीकरण करते हुए अमेरिकी विद्वान जॉन रॉल्स ने वर्ष 1971 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ए थियरी ऑफ जस्टिस में एक ऐसी परिस्थिति की कल्पना की है जिसमें हर व्यक्ति स्वतंत्रता के सर्वाधिक विस्तृत उस रूप को चुनेगा जो दूसरों की स्वतंत्रता के पूरी तरह से अनुकूल हो । रॉल्स के मुताबिक़ ऐसे लोग सामाजिक और आर्थिक विषमताओं का विन्यास इस प्रकार करेंगे कि सबसे कम लाभान्वित होने वाले को सर्वाधिक लाभ हो और निष्पक्ष समानता व अवसर की परिस्थितियों के तहत सभी के लिए पद और हैसियत प्राप्त करने के मौक़े खुले रहेंगे ।
3- विदेशी- द्वेष की अवधारणा का सम्बन्ध यूनानी इतिहास से है । यूनानी भाषा में जेनोस शब्द का अर्थ होता है अजनबी या विदेशी और फोबोस का मतलब है डर । किसी भी तरह बाहरी, विदेशी, विजातीय या अन्य समझे जाने वाले लोगों के प्रति स्थानीय वासियों की अरुचि और घृणा को विदेशी- द्वेष की संज्ञा दी जाती है । जेनोफोबिया के एहसास के तहत अन्य की श्रेणी में आने वालों को स्थानीय समाज में भागीदारी देने से इनकार किया जाता है । मनोविज्ञान जेनोफोबिया को पोस्ट ट्रॉमेटिक डिस्ट्रेस डिसऑर्डर के रूप में परिभाषित करता है । पिछले दो सौ सालों में उपनिवेशवाद, नस्लवाद और राष्ट्रवाद की राजनीतिक घटनाओं ने जेनोफोबिया को बल दिया है ।
4- जिन समाजों में पारम्परिक संरचनाएँ भंग हो जाती हैं, वहाँ पर विदेशी- द्वेष की प्रवृत्तियाँ आसानी से पनपने लगती हैं । जर्मनी में 1918 के बाद और पूर्वी यूरोप में नब्बे के दशक में कम्युनिज्म के पराभव के बाद जेनोफोबिया के प्रभाव की शिनाख्त की गई । जेनोफोबिया से मिलता- जुलता शब्द फ़्रांसीसी भाषा का शावनिज्म और अंग्रेज़ी के शब्द जिंगोइज्म अत्यधिक देशभक्ति या राष्ट्रीय गौरव की उग्र भावना के द्योतक हैं । यूरोप में फ़ासिस्टों के द्वारा यहूदियों का नर- संहार किया गया जिसे होलोकास्ट के नाम से जाना जाता है । भारत में गोरों को फ़िरंगी अर्थात् फिरंग रोग से ग्रस्त कहना इसका प्रमाण है ।
5- गुजरात के एक छोटे से क़स्बे जेतपुर में 7 नवम्बर, 1922 को शिक्षाविद ब्रजलाल शाह और चम्पाबेन की घर जन्मीं विद्याबेन शाह (1922-2020) को बाल कल्याण और स्त्री अधिकारों के क्षेत्र में अभिनव प्रयोगों एवं संस्थानीकरण में अनूठे योगदान के लिए जाना जाता है । 1948 में राजकोट में उन्हें बाल न्यायालय का मानद मजिस्ट्रेट नियुक्त किया गया । वर्ष 1958 में विद्याबेन के द्वारा राजकोट में भारत के पहले बाल भवन की स्थापना की गई । यह भारत में बाल भवन आन्दोलन का अग्रदूत था । उन्हीं के प्रयासों से 1954 में इंदिरा गांधी ने नई दिल्ली में असहाय, अनाथ और उपेक्षित बच्चों की समुचित देखभाल के लिए बाल सहयोग संस्था स्थापित किया ।
6- विद्याबेन शाह ने 1973 में बच्चों की शिक्षा के लिए नवयुग शैक्षणिक संस्थान की स्थापना की ।यहाँ नर्सरी से पाँचवीं कक्षा तक पढ़ाई का माध्यम हिंदी था । छठीं से लेकर बारहवीं तक कक्षा में शिक्षण का माध्यम अंग्रेज़ी था । कक्षा छह और सात के बीच विद्यार्थियों को उर्दू, तमिल, बंगाली और गुजराती जैसी चार क्षेत्रीय भाषाओं में से एक भाषा को जानने का मौक़ा मिलता था । उनका विवाह स्वतंत्रता सेनानी मनुभाई शाह से हुआ था । स्वतंत्र भारत में मनुभाई शाह जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी की सरकारों में कैबिनेट मंत्री रहे ।
7- महाराष्ट्र में नासिक के पास स्थित भागुर गाँव के चितपावन ब्राह्मण परिवार में जन्में विनायक दामोदर सावरकर (1883-1966) को भारत में हिन्दू- राष्ट्रवादी आन्दोलन के वैचारिक पितामह माना जाता है ।उन्हें हिन्दुत्व के राजनीतिक दर्शन का सूत्रीकरण करने का श्रेय भी दिया जाता है । सावरकर जुझारू स्वाधीनता सेनानी, क्रांतिकारी, राजनेता, मराठी के सिद्ध रचनाकार, ओजस्वी वक्ता और अपने ब्रिटिश विरोधी कारनामों के कारण वीर की उपाधि से विभूषित ऐसे पहले सिद्धांतकार थे जिन्होंने 1857 के ग़दर को भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा ।
8- विनायक दामोदर सावरकर की पहली पुस्तक 1909 में द इंडियन वार ऑफ इण्डिपेंडेंस 1857 लंदन से प्रकाशित हुई जिसे अंग्रेजों ने तुरंत प्रतिबंधित कर दिया । वर्ष 1923 में उनकी जेल की लिखी गई पुस्तक हिन्दुत्व : हू इज अ हिन्दू प्रकाशित हुई । इस पुस्तक के मुताबिक़ हिन्दू वह है जो भारत की धरती को अपनी पितृभूमि के साथ-साथ पुण्यभूमि भी मानता हो। सावरकर के अनुसार धर्म राष्ट्रीयता का निर्णायक लक्षण है अर्थात् धर्म बदलने का मतलब है राष्ट्रीयता बदल लेना । सावरकर ने जाति, धर्म और भाषा जैसे विभेदों को नज़रअंदाज़ करते हुए सिक्खों, बौद्धों, लिंगायतों और जैनों को भी हिन्दू दायरे में शामिल कर हिन्दू दायरे का विस्तार किया ।
9- वर्ष 1924 में सावरकर ने सिक्स ग्लोरियस चैप्टर्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री की रचना की । इस पुस्तक ने सिक्खों को मुसलमानों के द्वारा किए जाने वाले धार्मिक उत्पीडन के मुक़ाबले हिंदुवाद के पराक्रमी रक्षक के रूप में पेश किया । बौद्धों पर आरोप लगाया गया कि उनकी गैर वफ़ादारी की वजह से हिन्दू राष्ट्र की पराजय हुई । इस पुस्तक के 14 अध्यायों में सावरकर ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच होने वाले महायुद्ध का वर्णन किया है । उनका कहना है कि यूनानी, शकों और हूणों जैसे हमलावरों के विपरीत मुसलमानों की महत्वाकांक्षा केवल राजनीतिक प्रभुत्व की ही नहीं थी, बल्कि वे तो धार्मिक और सांस्कृतिक प्रभुत्व भी चाहते थे ।
10- विनायक दामोदर सावरकर ने अपने लेखन में हिन्दुओं और मुसलमानों को हम और वे में बाँटकर परिभाषित किया । उनका तर्क था कि शत्रु को परास्त करने के लिए जिस प्रकार के पुरुषत्व की आवश्यकता होती है वह हिन्दुओं को संगठन और फौजीकरण की प्रक्रिया के ज़रिए विकसित करना होगा । वे गांधी की अहिंसा को हिन्दू समुदाय को पुंसत्वहीन बनाने का पर्याय मानते थे । अपने युवावस्था में ही सावरकर ने मित्र मेला संगठन की स्थापना की थी । फ़र्ग्युसन कालेज में अध्ययन करने के दौरान ही सावरकर ने अभिनव भारत नाम का राजनीतिक संगठन बनाया था ।उनके क्रांतिकारी जोश से प्रभावित होकर ही तिलक और श्याम जी कृष्ण वर्मा ने उन्हें क़ानून की पढ़ाई करने के लिए इंग्लैंड भेजने के लिए छात्रवृत्ति दिलाई ।
11- विनायक दामोदर सावरकर ने इंग्लैंड के ग्रेज इन लॉ कालेज में पढ़ते हुए फ्री इंडिया सोसाइटी की स्थापना किया । इसी दौरान उन्होंने द इंडियन वार ऑफ इण्डिपेंडेंस 1857 की रचना की । 13 मार्च, 1910 को राजद्रोह के आरोप में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया । बम्बई के यरवदा जेल में क़ैद करके उनके ऊपर मुक़दमा चलाया गया । अंग्रेज़ों ने उन्हें 50 साल की सज़ा दी और अंडमान स्थित सेल्युलर जेल में काला पानी भुगतने के लिये भेज दिया । 1920 में जेल से उनकी सशर्त रिहाई हुई । 1930 में वे हिन्दू महासभा के अध्यक्ष बने । राजनीति का हिन्दूकरण और हिन्दुओं का फ़ौजीकरण जैसे नारे सावरकर की देन हैं । 1966 में उन्होंने देह त्याग दिया ।
12- दिनांक 11 सितम्बर, 1895 को नासिक, महाराष्ट्र के एक चितपावन ब्राह्मण परिवार में कोलाबा के पास गगोडे गाँव में जन्में आचार्य विनोबा भावे (1895-1982) भारत में सर्वोदय आन्दोलन की केन्द्रीय विभूति थे । 1940 में गांधी ने पहले व्यक्तिगत सत्याग्रही के रूप में विनोबा भावे को ही चुना था । उनका वास्तविक नाम विनायक नरहरि भावे था । भूदान- ग्रामदान कार्यक्रम के ज़रिए विनोबा भावे ने भारत में भूमि सुधारों की प्रक्रिया को स्वैच्छिक आयाम प्रदान करने की कोशिश की । 7 जून, 1916 को विनोबा भावे पहली बार गांधी जी से मिले और पाँच साल बाद उन्होंने वर्धा स्थित आश्रम के प्रभारी का स्थान ले लिया ।
12-A- विनोबा भावे का जन्म का नाम विनायक भावे था । गांधी जी ने इन्हें विनोबा नाम दिया जो विनायक तथा बाबा शब्द का मिश्रित रूप था । गणित उनका सबसे अधिक प्रिय विषय था । विनोबा ने गांधी जी को अपना गुरु माना । वह मराठी, संस्कृत और अंग्रेज़ी भाषा के जानकार थे । पद और स्वार्थ की लालसा से कोसों दूर विनोबा भावे आजन्म ब्रम्हचारी रहे । 18 अप्रैल, 1951 को आन्ध्रप्रदेश के तेलंगाना के नालगुंडा जिले के पंचममल्ली गाँव में भूमिहीन दलितों की दर्द भरी कहानी सुनकर उन्होंने भूदान का कार्य प्रारम्भ किया । उन्होंने गाँव- गाँव में घूमकर भूमि का दान माँगा और भूदान आंदोलन का सूत्रपात किया । वहाँ से वह पवनार आश्रम में आये । पवनार से दिल्ली की 62 दिन की अपनी यात्रा में विनोबा भावे को 19 हज़ार, 436 एकड़ भूमि दान में मिली ।
12-B- विनोबा भावे को बिहार में 839 दिन की यात्रा में 22 लाख, 32 हज़ार, 474 एकड़ भूमि दान में मिली । उड़ीसा की 249 दिन की पदयात्रा में 2 लाख, 57 हज़ार, 277 एकड़ भूमि, आन्ध्रप्रदेश की 224 दिन की पदयात्रा में 50,754 एकड़ भूमि, तमिलनाडु में 341 दिन की पदयात्रा में 47,092 एकड़ भूमि, केरल की 138 दिन की पदयात्रा में 1,571 एकड़ भूमि तथा कर्नाटक की 212 दिन की पदयात्रा में 1,109 एकड़ भूमि भूदान में प्राप्त किया । विनोबा भावे के भूदान आंदोलन का यह प्रभाव हुआ कि जयप्रकाश नारायण ने इस अहिंसक क्रांति के लिए लगभग 600 कार्यकर्ताओं के साथ इस आन्दोलन में जीवनदान का व्रत लिया । उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र के हमीरपुर ज़िले में 23 मई, 1951 को मगरात गाँव में सभी भूमिवालों ने अपनी ज़मीन विनोबा भावे को दान कर दी ।
12-C- विनोबा भावे ने ग्रामदान की चार शर्तें रखी थीं : गाँव के सब वयस्क निवासी, स्त्री हो या पुरुष मिलकर ग्राम सभा बनाएँ (2) गाँव के सब भूमिवान अपनी-अपनी ज़मीन का स्वामित्व ग्रामसभा को सौंप दें (3) गाँव के सब भूमिवान अपनी-अपनी ज़मीन का 20 वाँ हिस्सा ग्राम सभा को दान करें ताकि वह भूमिहीनों को दिया जा सके । (4) गाँव में ग्राम कोष खोला जाए जिसमें भूमिवान लोग अपनी ज़मीन में होनेवाली पैदावार का 40 वाँ हिस्सा जमा करें और मज़दूरी करने वाले या वेतन पानेवाले लोग प्रतिमाह एक दिन की मज़दूरी या वेतन जमा करें । विनोबा के अनुसार ग्राम स्वराज्य का आदर्श खेत गाँव का,खेती किसान की होनी चाहिए । विनोबा भावे ने ग्राम दान के बाद प्रखंड दान माँगा और फिर जिला दान की माँग की । बिहार में दरभंगा पहला ज़िला था जिसका जिलादान हुआ ।
13- वर्ष 1932 के दूसरे असहयोग आन्दोलन के दौरान विनोबा भावे को धूलिया जेल में बंद कर दिया गया ।जेल में उन्होंने साथी क़ैदियों के सामने मराठी में गीता का भाष्य किया जो बाद में एक पुस्तक के रूप में संकलित कर प्रकाशित किया गया । विनोबा बहुभाषी थे ।उन्हें कन्नड़, हिन्दी, उर्दू, मराठी, संस्कृत सहित लगभग सभी भारतीय भाषाओं का ज्ञान था ।विनोबा भावे ने गीता, क़ुरान, बाइबिल जैसे धर्म ग्रन्थों के अनुवाद के साथ ही इनकी टीकाएँ भी की । विनोबा भावे ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्हें 1958 में अन्तर्राष्ट्रीय रेमन मैगसेसे सम्मान प्राप्त हुआ । 15 नवम्बर, 1982 को उनका निधन हो गया । 1983 में उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया ।
13-A- विनोबा भावे के बारे में पी. नागराज राव ने अपनी पुस्तक कान्टेम्पोरेरी इंडियन थॉट में लिखा है कि, “विनोबा भावे ने गांधी जी के क्रांति एवं शांति के संदेश को जीवित रखने तथा उसे यथार्थ रूप देने में अपना जीवन समर्पित कर दिया है । वे प्रेम तथा सत्य के आधार पर नवीन सामाजिक व्यवस्था के इच्छुक हैं । सामाजिक समानता एवं न्याय के प्रतीक विनोबा ने भूदान और ग्रामदान के द्वारा साम्यवाद का धार्मिक विकल्प प्रस्तुत किया है । राष्ट्र भाषा हिन्दी के प्रखर प्रचारक तथा खादी ग्रामोद्योग के संवर्धक विनोबा भावे ने भारत की जनता को शांति सेना में परिवर्तित कर जनता- राज के प्रजासूय यज्ञ का संकल्प लिया है ।”
14- आचार्य विनोबा भावे ने सर्वोदय की शुरुआत ही कंचन मुक्ति अर्थात् धन पर निर्भरता से छुटकारा और रिषि खेती अर्थात् प्राचीन काल के रिषियों की तरह बैलों का इस्तेमाल किए बिना खेती करना जैसे नवाचारों से की थी । विनोबा ने राज- नीति और लोक- नीति के बीच फ़र्क़ किया ।राजनीति को वह सत्ता हासिल करने की गतिविधि मानते थे और लोकनीति को सच्चा लोकतंत्र ।आपातकाल को अनुशासन पर्व कहने और सरकारी कर्मचारियों को लोक सेवक बताने के कारण जयप्रकाश नारायण के समर्थकों ने सरकारी संत कहकर विनोबा भावे का उपहास किया ।
15- विमर्श दो वक्ताओं के बीच संवाद, बहस या सार्वजनिक चर्चा होती है । लैटिन की क्रिया डिसकरर से व्युत्पन्न यह शब्द समाज- विज्ञान की दुनिया में भिन्न अर्थ ग्रहण कर लेता है । विमर्श- विश्लेषण की परम्परा सस्यूर के भाषाशास्त्र द्वारा दिए गए भाषायी मोड़ से शुरू हुई ।मनोविश्लेषण और ज्ञान के सम्बन्ध पर लकॉं और हैबरमास की बहस के रास्ते नारीवादी अध्ययन, मानवशास्त्र, संस्कृति अध्ययन, साहित्य सिद्धांत और विचारों के इतिहास में अत्यंत समृद्ध होती चली गई । हिन्दी में डिस्कोर्स को साठ के दशक में अनुवाद के ज़रिए वार्ता कहा गया था । इसके लिए विमर्श, आख्यान और कलाम जैसे शब्द प्रचलित हुए ।
16- उत्तर आधुनिक पदावली में विमर्श का अर्थ होता है अभिव्यक्ति के उन तत्वों और आयामों की संरचना जो अपने कुल जोड़ से परे जाकर कोई ख़ास अर्थ देने की क्षमता रखते हों । अर्थात् एक निश्चित सामाजिक सन्दर्भ में भाषा के ज़रिए किसी एक विषय के इर्द-गिर्द होती हुई बहस द्वारा व्याख्याओं, तात्पर्यों और मान्यताओं के निर्माण की प्रक्रिया को विमर्श का नाम दिया जा सकता है ।फूको की दुनिया में विमर्श किसी विषय पर ख़ास तरह से सोचने का नाम है जिसे भाषा के ज़रिए व्यक्त किया जाता है । विमर्श से एक सामाजिक चौहद्दी बनती है जिसके भीतर एक विशिष्ट विषय पर कही जा सकने वाली बातें आ सकती हैं । इस विषय पर वर्ष 1972 में प्रकाशित मिशेल फूको की पुस्तक आर्कियोलॉजी ऑफ नॉलेज महत्वपूर्ण कृति है ।
17- विल किमलिका (1962-) कनाडा के राजनीतिक दार्शनिक हैं जो बहुसंस्कृति वाद में अपने योगदान के लिए जाने जाते हैं । उन्होंने समुदाय वादी आलोचना को उदारतावाद में समायोजित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और बहुसंस्कृतिवाद के लिए दार्शनिक आधार तैयार किया । किमलिका का शोध मुख्य रूप से लोकतंत्र और विविधता के मुद्दों पर केन्द्रित है । उनकी महत्वपूर्ण रचनाओं में लिबरलिज्म, कम्युनिटी एंड कल्चर (1989), कंटेम्परेरी पॉलिटिकल फिलॉसफी (1990), मल्टीकल्चरल सिटीज़नशिप (1995) हैं । उन्होंने अपने लेखन में अल्पसंख्यकों सहित अन्य अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक अधिकारों सम्बन्धी चिंताओं को एक ज़ोरदार आवाज़ दी है ।
18- विल किमलिका का मानना है कि समुदाय क़ायम रखने की वचनबद्धता की बुनियाद में यह विश्वास शामिल है कि अलग-अलग तरह के समुदाय राजनीतिक समुदाय में बहुत ज़्यादा योगदान देते हैं ।विविधता को मान्यता देने के पीछे इस विश्वास का भी महत्वपूर्ण योगदान है कि प्रत्येक संस्कृति में मूल्यवान तत्व हैं, जिन्हें दूसरी संस्कृति के लोगों को जानना चाहिए । हर संस्कृति में दूसरी संस्कृति के लोग बहुत कुछ सीख सकते हैं । यह विश्वास ही राजनीतिक समुदाय को एक ऐसा सहभागी स्पेस बना सकती है, जहाँ समानता एक महत्वपूर्ण मूल्य हो । बहुसंस्कृतिवाद समुदाय में व्यक्ति के विचार और समुदाय की प्राथमिकता को स्थापित करने की कोशिश करता है ।
19- विलफ्रेडो परेटो (1848-1923) अर्थशास्त्र के इतिहास में ऐसे विद्वान हैं जिन्होंने उसे गणितीय और वैज्ञानिक आधार देने की कोशिश की और उसे ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय अंतर्दृष्टियों से सम्पन्न करने के लिए काम किया । परेटो ने आर्थिक जड़ता और वृद्धि का समाजशास्त्रीय सिद्धान्त विकसित किया । उनका कहना था कि आर्थिक वृद्धि तब तक हासिल नहीं की जा सकती जब तक कठोर परिश्रम करते हुए उसके आर्थिक फल भोगने की इच्छा को कुछ समय के लिए स्थगित न कर दिया जाए । इसके लिए परेटो ने मेहनत के साथ-साथ किफ़ायत और पेशेवराना रुझान के विकास की सिफ़ारिश की ।
20- विलफ्रेटो परेटो ने आमदनी के वितरण के नियम का विकास किया जो आज भी उनके नाम से जाना जाता है । परेटो ने अर्थशास्त्रियों का ध्यान कार्डिनल उपयोगिता से हटाकर ओर्डिनल उपयोगिता की तरफ़ दिलाया । उन्होंने एक ऐसी परीक्षा विधि भी विकसित की जिसके ज़रिये पता लगाया जा सकता था कि आर्थिक परिणाम सुधारे जा सकते हैं या नहीं । इसे परेटो द्वारा प्रतिपादित अनुकूलतम परिस्थिति के सिद्धांत के नाम से भी जाना जाता है । ओर्डिनल उपयोगिता को कार्डिनल उपयोगिता पर प्राथमिकता देकर परेटो ने अर्थशास्त्रियों से आग्रह किया कि वे उपभोक्ता से बहुत अधिक अपेक्षा न पालें ।
21- कार्डिनल उपयोगिता के मुताबिक़ उपभोक्ता से न केवल यह उम्मीद की जाती है कि वह एक वस्तु के ऊपर दूसरी को प्राथमिकता देना जानता होगा, बल्कि यह भी जानता होगा कि उस प्राथमिकता की मात्रा क्या होगी । जबकि ओर्डिनल उपयोगिता के उसूल के मुताबिक़ उपभोक्ता से केवल प्राथमिकता देन की आशा ही की जानी चाहिए । परेटो का एक अन्य योगदान अनुकूलतम परिस्थितियों के सिद्धांत के रूप में सामने आया । इसके मुताबिक़ दो व्यक्ति तभी कोई लेन- देन करते हैं जब दोनों को फ़ायदे की उम्मीद हो । अगर लाभ किसी एक को ही होगा तो विनिमय होगा ही नहीं । अगर दबाव डालकर इस प्रक्रिया को सम्पन्न करने की कोशिश की जाएगी तो आर्थिक प्रदर्शन में कोई सुधार नहीं होगा । अतः बाज़ार में मुक्त विनिमय ही अनुकूलतम कही जा सकती है ।
22- परेटो के अनुसार अगर मालदार लोगों को आर्थिक रियायतें मिलेंगी तो वे निवेश ज़्यादा कर सकेंगे और आर्थिक उछाल आएगा जिसके परिणामस्वरूप ग़रीबों की भी बेहतरी होगी । इस स्थिति में इसे परेटो सुपीरियर की संज्ञा दी जाएगी । अगर टैक्स रियायतों से आर्थिक उछाल नहीं आया तो राजस्व की भरपायी किसी न किसी की जेब से तो करनी ही होगी । मालदारों को फ़ायदा होगा और आम आदमी की जेब ख़ाली होगी ।यह परेटो- आप्टिमल माना जाएगा । प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने इसको पूर्वाग्रह पर आधारित कह कर इसकी आलोचना की है ।
23- दक्षिण इंग्लैंड में हैमशायर के एक ग़रीब कपड़ा मज़दूर के बेटे विलियम पेटी (1623-1687) ने अर्थशास्त्र को मात्रात्मक और सांख्यिकीय विज्ञान बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । उन्होंने ऑंकडों और संख्याओं का इस्तेमाल करके अर्थव्यवस्था के वास्तविक कामकाज को समझने की विधियों को भी स्थापित किया तथा इसे राजनीतिक अंकगणित की संज्ञा दी । वर्ष 1761 में विलियम पेटी की प्रसिद्ध पुस्तक पॉलिटिकल अर्थमेटिक प्रकाशित हुई । उनकी तजवीज़ थी कि सार्वजनिक वित्त, सरकारी खर्च और टैक्स लगाने की नीतियों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए ।उन्होंने उपभोग पर आनुपातिक कर लगाने की सिफ़ारिश भी की थी ।
24- विलियम पेटी का विचार था कि सरकार प्रतिरक्षा, न्याय, स्कूलों, ग़रीबों को राहत देने और सार्वजनिक निर्माण पर तो खर्च करे ही, उसे ऐसे अनुपयोगी लगने वाले आइटमों पर खर्च करने से नहीं कतराना चाहिए जिनसे रोज़गार पैदा हो सकते हैं और निट्ठल्लेपन का उन्मूलन हो सकता हो। इस सिलसिले में पेटी का यह कथन मशहूर है कि अगर सेलिसबरी के मैदान में एक व्यर्थ का पिरामिड भी बनवाना पड़े तो भी बनवाना चाहिए । इससे लोगों तो पत्थर ढोने का काम तो मिलेगा । एरिक स्ट्रॉस की 1954 में प्रकाशित पुस्तक सर विलियम पेटी : पोट्रेट ऑफ द जीनियस विलियम पेटी के विचारों पर आधारित है ।
25- लिवरपूल, इंग्लैंड के एक उच्च- मध्यमवर्गीय परिवार में पैदा हुए विलियम स्टेनली जेवन्स (1835-1882) अर्थशास्त्र के क्षेत्र में सीमान्त उपयोगिता के सिद्धांत के विकास के लिए जाने जाते हैं । इस सिद्धांत की खोज जेवंस ने आस्ट्रेलिया में काम करते हुए किया । उन्होंने अपने इस सूत्रीकरण का इस्तेमाल यह समझने में भी किया कि उपभोग और श्रम सम्बन्धी निर्णयों का क्या आधार होता है ।जेवंस ने अर्थशास्त्री के रूप में अपना कैरियर वर्ष 1865 में प्रकाशित अपनी पुस्तक द कोल क्वैश्चन शीर्षक से लिखी गई पुस्तक से किया । जॉन मेनार्ड कीन्स की 1951 में प्रकाशित पुस्तक विलियम स्टेनली जेवन्स 1835-82, एसेज इन बायोग्राफ़ी महत्वपूर्ण कृति है ।
26- विलियम स्टेनली जेवन्स ने सम्पूर्ण उपयोगिता और उपयोगिता की डिग्री या सीमांत उपयोगिता अथवा मार्जिनल उपयोगिता के बीच सटीक अन्तर करके दिखाया जिससे उपभोक्ता व्यवहार के आधुनिक सिद्धांत का जन्म हुआ । जेवन्स ने देखा कि अगर लोग किसी वस्तु का अधिकाधिक इस्तेमाल करते हैं तो उसके उपभोग से प्राप्त होने वाली उपयोगिता उनके लिए आम तौर पर बढ़ जाती है । लेकिन जब उपभोग और बढ़ता जाता है तो उस वस्तु की अतिरिक्त मात्रा से मिलने वाली उपयोगिता घटने लगती है । उपयोगिता के आत्मपरक आकलन के मुताबिक़ उपभोक्ता वही वस्तु ख़रीदता है जो उसे सबसे ज़्यादा संतोष दे सके । इस विभेद और सिद्धांत का प्रतियोगी बाज़ारों में क़ीमत निर्धारण की प्रक्रिया की समझ हासिल करने के लिए अहम इस्तेमाल हुआ ।
27- कलकत्ता के एक कुलीन परिवार में दिनांक 12 जनवरी, 1863 ईसवी को पैदा हुए असाधारण प्रतिभा सम्पन्न तथा उन्नीसवीं सदी में हिन्दू धर्म के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया पर निर्णायक प्रभाव डालने वाले स्वामी विवेकानन्द (1863-1902) को भारतीय राष्ट्रवाद का आदि सिद्धांतकार माना जाता है । भारतीय और पश्चिमी दर्शन में पारंगत, चुम्बकीय व्यक्तित्व के धनी और अत्यंत प्रभावशाली वक्ता विवेकानंद ने यूरोप और अमेरिका को वेदांत और योग से परिचित कराया । रामकृष्ण परमहंस के उत्तराधिकारी के रूप में वर्ष 1897 में रामकृष्ण मिशन की स्थापना करने वाले विवेकानंद ने राजनीति को अपने विचारों का वाहक नहीं बनाया । उनकी मान्यता थी कि वेदान्त में सभी धर्मों की एकात्मकता व्यक्त होती है ।
27-A- स्वामी विवेकानंद के बारे में, अद्वैत आश्रम, अलमोडा, से प्रकाशित पुस्तक द लाइफ़ ऑफ स्वामी विवेकानंद बाई हिज ईस्टर्न एंड वेस्टर्न डिसाइपल्स में लिखा हुआ है कि उन्हें एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका के 11 खंड कंठस्थ थे । भारतीय संगीत की कंठ विद्या एवं वाद्य विद्याओं में भी वे सिद्धहस्त थे । पाश्चात्य विद्वानों में जे.एस. मिल, हेगल और कांट के विचारों का उन्होंने अध्ययन किया था तथा हरबर्ट स्पेंसर के विचारों को पढ़कर उनसे पत्र- व्यवहार किया था तथा उनकी आलोचना भी किया था । रोमा रोलाँ ने 1965 में प्रकाशित अपनी पुस्तक द लाइफ़ ऑफ रामकृष्ण में लिखा है कि, “स्वामी विवेकानंद के विचारों में बुद्धिवाद, वेदान्तीय अद्वैतवाद, हीगल के द्वन्द्वात्मक परमतत्व तथा फ़्रांस की राज्य क्रांति के वेदवाक्य स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व की गूंज थी ।वे व्यक्तिवाद के स्थान पर सार्वभौमिक विवेक को श्रेष्ठ मानते थे ।”
27-B- स्वामी विवेकानंद नवम्बर, 1880 में पहली बार रामकृष्ण परमहंस के बुलावे पर उनके आश्रम दक्षिणेश्वर गए । 1886 में जब श्री रामकृष्ण परमहंस का स्वर्गवास हुआ, तब तक विवेकानंद उनके निकटस्थ शिष्य बन चुके थे । रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु के बाद निरंतर चार वर्षों तक विवेकानंद भारत का भ्रमण करते रहे । इन यात्राओं ने विवेकानंद को जहां एक ओर भारत की आर्थिक दुर्दशा, उसका सामाजिक पिछड़ापन तथा मानसिक अस्थिरता का ज्ञान कराया तो दूसरी ओर उन्हें भारत की सांस्कृतिक सम्पन्नता, परम्पराओं की शक्ति, ग्राह्य शक्ति तथा प्रच्छन्न आत्मशक्ति का भी बोध हुआ । इसी समय उन्होंने विश्व धर्म संसद के शिकागो सम्मेलन में भाग लेने का निर्णय किया । खेतडी (राजस्थान) के तत्कालीन ठाकुरसाहब ने उनके शिकागो सम्मेलन में सम्मिलित होने का व्यय वहन किया ।
28- स्वामी विवेकानंद धर्मों की जिस एकात्मकता का प्रतिपादन कर रहे थे, वह सहिष्णुता की अवधारणा से सहमत होने के बजाय सभी धर्मों के एक ही परमतत्व के सागर में विलीन होने की बात कहती थी । उनका कथन था कि हम सभी धर्मों को महज़ सहने के पक्ष में नहीं हैं, हम उन सभी को सच्चा मानते हैं । स्वामी विवेकानंद पूर्व की मूल्य प्रणाली और पश्चिम की वैज्ञानिक प्रौद्योगिकीय उपलब्धियों के संयोग से राष्ट्र निर्माण की परिकल्पना करते थे । राष्ट्रवाद और वेदान्त का जो संयोग उन्होंने निकाला था उसमें एक भिन्न तरह के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की सम्भावना थी ।वह गैर ब्राह्मणों को भी वेद अध्ययन का अधिकार देने के पक्ष में थे ।
29- स्वामी विवेकानंद मुख्यतः वेदान्ती तत्व ज्ञान की चर्चा करते नज़र आते हैं । वे अनासक्त कर्म, समर्पण के रास्ते पर ले जाने वाली भक्ति, ज्ञान और पतंजलि के योगसूत्र से ली गई राजयोग की तकनीक पर बोलते हैं, न कि धर्म के किसी प्रचलित कर्मकाडीय पहलू पर । इस्लाम और भारतीय सभ्यता के अंतर्सम्बन्धों पर गौर करते हुए विवेकानंद इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि भारतीय- इस्लामिक अतीत इस क्षेत्र की देशज विरासत है । वे इस्लामी शरीर (सामाजिक संगठन) और हिंदू मस्तिष्क (वेदान्ती चिंतन) का संयोग चाहते थे । मात्र 39 वर्ष की आयु में समाधिस्थ अवस्था में उनका देहान्त हुआ । 1993 में उन्होंने शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में हिस्सा लिया । आज भी कन्याकुमारी में विवेकानंद शिला उनकी स्मारक है ।
29-A- स्वामी विवेकानंद ने सन् 1893 में अमेरिका के शिकागो शहर में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में हिस्सा लिया था । धर्म जगत के इतिहास में निश्चित तौर पर यह एक अद्भुत घटना थी । इसके आयोजन हेतु सलाहकार परिषद के सदस्य सारी दुनिया से चुने गए थे जिनकी संख्या तीन हज़ार तक पहुँच गई थी । भारत से चुने गए परिषद के सदस्यों में थे – हिन्दू पत्र के सम्पादक जी. एस. अय्यर, बम्बई के बी. बी. नगरकर तथा कलकत्ता के पी. सी. मजूमदार । बी. बी. नगरकर तथा पी. सी. मजूमदार ने ब्राम्ह समाज का प्रतिनिधित्व किया था । कलकत्ता में महाबोधि सोसाइटी के जनरल सेक्रेटरी अनागारिक धम्मपाल ने श्रीलंका दक्षिणी बौद्धों का प्रतिनिधित्व किया था । रूस और तुर्की से इसमें कोई प्रतिनिधि नहीं था ।
29-B- धर्म महासभा की शुरुआत 11 सितम्बर, 1893 ई. की सुबह शिकागो के आर्ट इंस्टीट्यूट में हुई । यह इंस्टीट्यूट शिकागो के मिशिगन मार्ग पर स्थायी एवं नवनिर्मित इमारत थी । इसके तीस अनूठे कक्षों में विभिन्न अवसरों पर सारी सभाएँ हुई थीं । विश्व धर्म महासभा के लिए जिन दो सभा भवनों का अस्थायी तौर पर निर्माण किया गया था उनमें से हर एक में 3000 लोगों के बैठने की सुविधा तथा लगभग 1000 लोगों के खड़े रहने की व्यवस्था थी । उत्तरी हॉल का नाम था : हॉल ऑफ कोलम्बस और दक्षिण में हॉल था: हॉल ऑफ वाशिंगटन । सभा का प्रारम्भ कोलम्बस हॉल से हुआ था । इस धर्म परिषद में यहूदी धर्म, मुसलमान, हिन्दू, बौद्ध, ताओइज्म, कन्फ़्यूशिएनिज्म, शिंटोइज्म, जरतुश्त धर्म, कैथोलिक धर्म, ग्रीक गिरिजाघर और प्रोटेस्टेंट धर्म का प्रतिनिधित्व था ।
29-C- स्वामी विवेकानंद ने 11 सितम्बर, 1893 को शिकागो की विश्व धर्म परिषद द्वारा किए गए अभिवादन के उत्तर में कहा था : जिस सौहार्दता और स्नेह के साथ आपने हम लोगों का स्वागत किया है, उसके फलस्वरूप मेरा ह्रदय अकथनीय हर्ष से प्रफुल्लित हो रहा है । संसार के प्राचीन महर्षियों के नाम पर मैं आपको धन्यवाद देता हूँ तथा सब धर्मों की माता स्वरूप हिन्दू धर्म एवं भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय के लाखों- करोड़ों हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद प्रकट करता हूँ । हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते वरन् समस्त धर्मों को सच्चा मानकर ग्रहण करते हैं । मैं ऐसे धर्म का अनुयायी हूँ जिसकी पवित्र भाषा संस्कृत में अंग्रेज़ी शब्द एक्सक्लूजन का कोई पर्यायवाची शब्द नहीं है ।
29-D- स्वामी विवेकानंद ने विश्व धर्म संसद को अपनी शुभकामनाएँ अर्पित करते हुए कहा कि, “वही परमेश्वर जो हिन्दुओं का ब्रम्ह, पारसियों का अहुरमज्द, बौद्धों का बुद्ध, मुसलमानों का अल्ला, यहूदियों का जिहोवा और ईसाइयों का स्वर्गस्थ पिता है, आपको अपने उदार उद्देश्य को कार्यान्वित करने की शक्ति प्रदान करे । पूर्व गगन में नक्षत्र उदित हुआ, कभी धुंधला और कभी देदीप्यमान होते हुए, धीरे-धीरे पश्चिम की ओर यात्रा करते- करते उसने समस्त विश्व की परिक्रमा कर डाली और अब वह पुनः पूर्व क्षितिज में सहस्र गुनी अधिक उज्जवलता के साथ उदित हो रहा है ।” मात्र 39 वर्ष की अल्पायु में ही 4 जुलाई, 1902 में स्वामी विवेकानंद चिर निद्रा में लीन हो गए । स्वामी विवेकानंद ने भारतीय राष्ट्रवाद को आध्यात्मिक पुट दिया ।
29-E- स्वामी विवेकानंद का ओजस्वी पैग़ाम था, “हे वीर ! निर्भीक बनो, साहस धारण करो, इस बात पर गर्व करो कि तुम भारतीय हो और गर्व के साथ घोषणा करो, “मैं भारतीय हूँ और प्रत्येक भारतीय मेरा भाई है ।” बोलो ज्ञानहीन भारतीय, दरिद्र तथा अकिंचन भारतीय, ब्राह्मण भारतीय, अछूत भारतीय मेरा भाई है । तुम भी अपनी कमर में लंगोटी बांधकर गर्व के साथ उच्च स्वर में घोषणा करो, “हर भारतीय मेरा भाई है, भारतीय मेरा जीवन है, भारत के देवी देवता मेरे ईश्वर हैं, भारतीय समाज मेरा बाल्यकाल का पालना है, मेरे आनन्द का यौवन उद्यान है, पवित्र स्वर्ग और मेरी वृद्धावस्था की वाराणसी है । मेरे बन्धु बोलो, भारत की भूमि मेरा परम स्वर्ग है, भारत का कल्याण मेरा कल्याण है ।”
29-F- स्वामी विवेकानंद ने दलितों को दरिद्रनारायण के रूप में देखा और उनकी सेवा को प्रत्येक भारतीय का प्रथम कर्तव्य घोषित किया । उन्हीं के शब्दों में, “मुझे इस बात की चिंता नहीं है कि वे हिंदू हैं या मुसलमान अथवा ईसाई, किन्तु जिन्हें ईश्वर से प्रेम है उनकी सेवा के लिए मैं सदैव तत्पर रहूँगा । मेरे वत्स अग्नि में कूद जाओ । यदि तुम्हें विश्वास है तो तुम्हें सब कुछ मिल जाएगा । हममें से प्रत्येक को दिन- रात भारत के उन करोड़ों दलितों के लिए प्रार्थना करनी चाहिए जो दरिद्रता, पुरोहितों के जंजाल तथा अत्याचार में जकड़े हुए हैं- दिन- रात उनके लिए प्रार्थना करो… मैं न तत्वशास्त्री हूँ, न दार्शनिक हूँ और मैं संत भी नहीं हूँ । मैं दरिद्र हूँ । मुझे दरिद्रों से प्रेम है ।मैं उसी को महात्मा कहता हूँ जिसका ह्रदय दरिद्रों के लिए द्रवित होता है ।”
30- दिनांक 24 जून, 1863 में महाराष्ट्र के रायगढ़ ज़िले के वरसई गाँव में पैदा हुए विश्वनाथ काशीनाथ राजवाडे (1869-1926) मराठी बुद्धिजीवी परम्परा के श्रेष्ठ प्रतिनिधि हैं । इतिहासाचार्य की जनप्रिय उपाधि से विभूषित राजवाडे को तर्कनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण के साथ भारत के सामाजिक राजनीतिक इतिहास के पुनर्निर्माण का श्रेय दिया जाता है । भारतीय विवाह संस्था का इतिहास हिन्दी में भी उनकी काफ़ी पढ़ी जाने वाली पुस्तक है । एरिक वुल्फ़ ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक युरोप ऐंड द पीपुल विदाउट हिस्ट्री में कहा है कि मानव शास्त्र इतिहास का अन्वेषण करता है ।इस सम्बन्ध में राजवाडे का लेखन सराहनीय है ।
31-विश्व सामाजिक मंच नव उदारतावादी भूमण्डलीकरण का विरोध करने वाली प्रमुख संरचना के रूप में उभरा है । वह अपने आप में कोई विचारधारा, पार्टी, मोर्चा या संघ न होकर दुनिया के पैमाने पर काम कर रही चौपाल की तरह का एक क्षैतिज स्पेस है जिसका मक़सद नागर समाज के संघर्षशील और जनोन्मुख संगठनों की नेटवर्किंग को बढ़ावा देना है । विश्व सामाजिक मंच का नारा है : दूसरी दुनिया मुमकिन है । यह फ़ोरम नागर समाज को एक नए अभिनेता के तौर पर देखता है जिसके ज़रिये नागर समाज खुद को बदल सकता है । नागर समाज से फ़ोरम का मतलब है गैर सरकारी संस्थाएँ, एसोसिएशनें आन्दोलन और ट्रेड यूनियन संगठन ।
32- विश्व सामाजिक मंच का पहला आयोजन सन् 2001 में पोर्टो अलेगरो, ब्राज़ील में हुआ । ब्राजीलियन वर्कर्स पार्टी और पोर्टो अलेगरो की शहर काउंसिल द्वारा इसका समर्थन किया गया । पहले आयोजन की ज़बरदस्त सफलता के बाद 2002 और 2003 में फिर से पोर्टो अलेगरो में ही इसके आयोजन हुए । 2004 में विश्व सामाजिक मंच का आयोजन मुम्बई में हुआ ताकि एशिया और अफ़्रीका की भागीदारी बढ़ाई जा सके । इसमें क़रीब 75,000 प्रतिनिधियों ने भाग लिया । 2006 में इसका आयोजन तीन शहरों वेनेज़ुएला के काराकास, माली के बमाको और पाकिस्तान के कराची में हुआ । 2007 में फ़ोरम नैरोबी, केन्या में किया गया ।
33- विश्व सामाजिक मंच का आठवाँ आयोजन किसी विशेष स्थान पर नहीं, बल्कि विश्व स्तर पर किया गया । इसे ग्लोबल कॉल फ़ॉर एक्सन के रूप में भी जाना जाता है । नवाँ विश्व सामाजिक मंच 27 जनवरी से 1 फ़रवरी 2009 के बीच ब्राज़ील के शहर बेलेम में हुआ । इसमें 190 जातीय समूहों का प्रतिनिधित्व करने वाले 1,900 स्वदेशी लोगों ने भाग लिया । वर्ष 2010 में विश्व सामाजिक मंच का आयोजन 25 से 29 जनवरी, 2010 को पोर्टो अलेगरो में सम्पन्न हुआ । फ़रवरी, 2011 में वर्ल्ड सोशल फ़ोरम डकार, सेनेगल में सम्पन्न हुआ ।इसमें 132 देशों के 75,000 हज़ार प्रतिनिधियों ने भाग लिया ।
34- विश्व सामाजिक मंच का 2012 में फ़ोरम ब्राज़ील के पोर्टो अलेगरो में 24 से 30 जनवरी तक सम्पन्न हुआ । वर्ष 2013 में इसका आयोजन 26 से 30 मार्च, 2013 तक ट्यूनिस में किया गया । विश्व सामाजिक मंच का चौदहवाँ आयोजन 23 से 28 मार्च 2015 तक ट्यूनिस में किया गया । इस मंच का पन्द्रहवां आयोजन 9 से 14 अगस्त, 2016 तक मॉन्ट्रियल में सम्पन्न हुआ । विश्व सामाजिक मंच का का सोलहवाँ आयोजन 13 से 17 मार्च, 2018 तक सल्वाडोर, बाहिया, ब्राज़ील में सम्पन्न हुआ । इसमें 120 देशों के प्रतिनिधि शामिल थे ।
35- विश्व सामाजिक मंच में खुले स्पेस का मतलब था कि फ़ोरमों पर न तो किसी की मिल्कियत होगी, न ही किसी तरह का संकीर्णता वाद होगा और न ही हुक्म चलाने वाला या अपना कोई एजेंडा थोपने वाला कोई संगठन उस पर हावी होगा । विश्व सामाजिक मंच के लिए ओडेड ग्रेजयू, फ़्रांसिस चीको व्हिटेकर और बर्नाड कैसेन द्वारा पहलकदमी ली गई थी । इस विचार के अनुसार दूसरी दुनिया उस दिन बनना शुरू होगी, जब भूमण्डलीकरण विरोधियों को सत्ता मिलेगी ।
36- विश्व व्यापार संगठन की स्थापना सात साल तक चलने वाली बहुपक्षीय व्यापार वार्ता के उरुग्वे- चक्र की समाप्ति के साल भर बाद 1 जनवरी, 1995 को की गई । यह वार्ता गैट द्वारा आयोजित की गई थी । गैट इससे पहले भी व्यापार सम्बन्धी कई वार्ता चक्र आयोजित कर चुका था । शुरुआत के वार्ता चक्रों का मक़सद आयात और अन्य शुल्कों को घटाने से जुड़ा था । इसमें सबसे ज़्यादा कामयाबी कैनेडी चक्र को मिली जिसका समापन 1967 में हुआ था । इसके बाद 1974 में शुरू हुआ टोक्यो- चक्र 1979 तक चला । गैट की स्थापना ब्रेटन वुड्स सम्मेलन अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के साथ की गई थी ।
37- गैट का मक़सद केवल कारख़ाना निर्मित अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की शर्तों को उदार बनाने तक सीमित था । एक औपचारिक और सम्पूर्ण संगठन के रूप में विश्व व्यापार संगठन का कार्यक्षेत्र कहीं अधिक व्यापक है । इसके तीन घटक हैं : संशोधित गैट, जनरल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड ऐंड सर्विसेज़ (जी ए टी एस) और एग्रीमेंट ऑन ट्रेड- रिलेटिड इंटलेक्चुअल प्रॉपर्टी इशूज (ट्रिप्स)। 1999 में इसके सदस्य देशों की सिएटल में बैठक हुई । इस बैठक का मक़सद मुक्त व्यापार को बढ़ावा देना और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को अवरोध मुक्त करने के उद्देश्य से नीतियाँ बनाने के लिए आयोजित किए जाने वाले वार्ता चक्र की कार्यसूची तय करना था ।
38- विश्व व्यापार संगठन की पहली भूमिका तो यह है कि वह अपने सदस्य देशों के लिए सूचनाओं के आदान-प्रदान, विचार- विमर्श और समझौता वार्ताओं के लिए प्रमुख मंच की तरह से काम करता है ।डब्ल्यू टी ओ का ध्येय है कि दुनिया में सभी देश व्यापार में भेदभाव वाली नीतियों को न अपनाएँ । इस संस्था की तीसरी भूमिका राष्ट्रों के बीच होने वाली संधियों से जुड़ी हुई है । चौथी भूमिका है सदस्य देशों के बीच होने वाले विवादों का निपटारा करना । विश्व व्यापार संगठन ग्लोबल पूँजीवादी व्यवस्था की शीर्ष संस्था है जिसे आलोचकों ने मैक- वर्ल्ड, टरबो कैपटलिज्म, मार्केट फंडामेंटलिज्म, कैसीनो कैपिटलिज्म और कैंसर- स्टेट कैपिटलिज्म जैसी संज्ञाएँ दी हैं ।
39- विश्व बैंक की स्थापना 1944 में में हुए ब्रेटन वुड्स सम्मेलन में पारित एक प्रस्ताव के तहत हुई थी । बैंक ने 1946 में जिस समय अपना काम काज शुरू किया था उस समय कुल 38 देश उसके सदस्य थे । इस समय बैंक की सदस्य संख्या 180 हो चुकी है । इसका मुख्यालय वाशिंगटन डी सी में है । संयुक्त राष्ट्र उसे अपनी प्रमुख एजेंसी के रूप में मान्यता देता है । विश्व बैंक का पूरा नाम है इंटरनेशनल बैंक फ़ॉर रिकंस्ट्रक्शन ऐंड डिवेलपमेंट । बैंक बड़ी परियोजनाओं जैसे सड़क निर्माण, दूरसंचार नेटवर्क की रचना, बंदरगाहों के निर्माण और बाँध बनाने जैसी भारी भरकम योजनाओं को छोटी और स्थानीय महत्व की योजना की तुलना में क़र्ज़ देने में प्राथमिकता देता है ।
40- विश्व बैंक की अन्य सहयोगी संस्थाओं में इंटरनेशनल फ़ाइनेंस कारपोरेशन, इंटरनेशनल डिवेलपमेंट एसोसिएशन, इंटरनेशनल सेंटर फ़ॉर द सेटिलमेंट ऑफ इन्वेस्टमेंट डिस्प्यूट्स और मल्टीलेटर इन्वेस्टमेंट गारंटी एजेंसी प्रमुख हैं । आई एफ सी मुख्य रूप से निजी कम्पनियों, ख़ास कर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को क़र्ज़ देती है । 1960 में गठित आई डी ए अत्यंत दरिद्र देशों को बिना ब्याज के दीर्घकालिक क़र्ज़ देने का फ़ैसला करती है । एम आई जी ए निजी निवेश को सभी तरह के राजनीतिक जोखिमों जैसे, तख्तापलट, राष्ट्रीयकरण आदि से बचाने के लिए सक्रिय रहती है ।
41- विश्व बैंक की रोज़मर्रा की गतिविधियाँ 22 निदेशकों वाले एक कार्यकारी बोर्ड के हाथों में रहती हैं । इनमें से पाँच सबसे ज़्यादा अनुदान देने वाले (अमेरिका, जापान, जर्मनी, ब्रिटेन और फ़्रांस) देशों के निदेशक स्थायी होते हैं ।बाक़ी का चुनाव सदस्य देशों के बीच से किया जाता है । कार्यकारी निदेशकों का नेतृत्व अध्यक्ष और गवर्नर्स का बोर्ड करता है । बैंक का अध्यक्ष कार्यकारी निदेशकों के द्वारा पाँच साल के लिए नियुक्त किया जाता है । भारत में बैंक का नाम सिंगरौली विद्युत परियोजना और सरदार सरोवर बांध परियोजना के साथ जुड़ा है ।
42- विश्व सरकार का विचार सर्वप्रथम दॉंते के साहित्य में दिखाई देता है । विश्व सरकार का वर्तमान विमर्श मुख्य तौर पर उसके दो मॉडलों पर आधारित है । पहला मॉडल आग्रह करता है कि कि एक सर्वशक्तिमान महा- राज्य द्वारा सारी दुनिया पर अपना प्रभुत्व क़ायम करने से ही विश्व सरकार क़ायम हो सकती है । जबकि दूसरा मॉडल है – राज्यों का राज्य स्थापित करना ।जर्मन दार्शनिक इमैनुअल कांट ने लीग ऑफ नेशंस के प्रस्ताव में जिस तरह की संरचना की तजवीज़ की थी, वह विश्व सरकार की धारणा से मिलती- जुलती लगती है । बीसवीं सदी के प्रथम विश्व युद्ध के बाद जी. एल. डिकिंसन ने दावा किया कि अगर कोई विश्व व्यवस्था न खड़ी की गई तो प्रत्येक राज्य अपने राष्ट्रीय स्वार्थ के तहत काम करेगा और दुनिया अंतर्राष्ट्रीय अराजकता में फँस जाएगी ।
43- विजयेंद्र कस्तूरी रंगा वरदराजा राव (1908-1991) एक बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न अर्थशास्त्री थे । राव के लिए अर्थशास्त्र महज़ एक विषय नहीं बल्कि बृहत सामाजिक अध्ययन का अंग था । राव पहले व्यक्ति थे जिन्होंने भारत की राष्ट्रीय आय के आकलन का असम्भव काम किया था । 1929 में मुम्बई से एम. ए. उपाधि लेने के बाद राव कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट हासिल करने वाले पहले भारतीय थे । कैम्ब्रिज में राव के अध्यापकों में जॉन मेनार्ड कीन्स भी थे । कल्याणकारी अर्थशास्त्र के जनक ए. सी. पीग्यु भी कैम्ब्रिज में राव के अध्यापक थे । स्वतंत्रता के बाद भारत की आर्थिक नीति के निर्माण में राव की महत्वपूर्ण भूमिका थी ।
44- वी. के. आर. वी. राव ने नई दिल्ली विश्वविद्यालय में वर्ष 1948 में नई दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स की स्थापना की जो आज भी भारत और दुनिया का एक विशिष्ट शिक्षा- संस्थान है । इसके अलावा उन्होंने नई दिल्ली में इंस्टीट्यूट फ़ॉर इकॉनॉमिक ग्रोथ और बंगुलुरु में सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन संस्थान भी स्थापित किया । भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद के माध्यम से उन्होंने एक ऐसी व्यापक व्यवस्था का निर्माण संभव किया जिसके द्वारा भारत भर में समाज विज्ञान के विभिन्न संस्थानों को आर्थिक और ढाँचागत सहयोग दिया जा सके । इसके अलावा मुम्बई में जनसंख्या अध्ययन के लिए अंतरराष्ट्रीय केंद्र और भारतीय विदेश व्यापार संस्थान भी अपने तरह के अनूठे संस्थान हैं जिनकी स्थापना वी. के. आर. वी. राव के द्वारा की गई ।
45- वेदान्त शब्द का यौगिक अर्थ है वेद का अन्त अथवा वे सिद्धांत जो वेदों के अंतिम अध्यायों में प्रतिपादित किए गए हैं, और ये ही उपनिषद हैं । ब्रम्ह सम्बन्धी सिद्धांत की व्याख्या करने के कारण इसे ब्रम्हसूत्र के नाम से भी जाना जाता है तथा इसका दूसरा नाम शारीरिक सूत्र भी है । वेदान्त दर्शन के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के ज्ञान में उद्देश्य और विधेय के रूप में दो प्रकार के अंश मिले होते हैं । उद्देश्य हर जगह एक जैसे होते हैं जबकि विधेय बदलते रहते हैं । विधेय की वजह से ही लोगों में परस्पर विवाद और सच्चे- झूठे का झगड़ा होता रहता है क्योंकि उसमें जानने वाला अपने जमे हुए संस्कार और पूर्वाग्रह मिला देता है । इसीलिए एक ही व्यक्ति किसी को शत्रु और किसी को मित्र दिखाई पड़ता है ।
46-वेदान्त दर्शन की प्रस्थापना है कि ब्रम्ह ही सत्य है । वह ब्रम्ह, ईश्वर, जीव और ईश्वर के परस्पर भेद, अविद्या तथा अविद्या और चैतन्य के परस्पर भेद जैसी छ अनादि बातों के ज़रिए प्रतीयमान विश्व की आख्या करता है । अविद्या से पाँच महाभूतों की उत्पत्ति होती है । सर्वप्रथम आकाश उत्पन्न होता है । आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी । इन्हें सूक्ष्म या शुद्ध भूत कहा जाता है । सूक्ष्म भूतों से सूक्ष्म शरीर उत्पन्न होता है । इसके सत्रह अवयव हैं- पाँच ज्ञानेन्द्रियॉं, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच वायु, बुद्धि और मन । ज्ञानेन्द्रियॉं आकाशादि के सात्विक अंश से बनती हैं । आकाश से श्रोत्र, वायु से स्पर्शन, अग्नि से चक्षु, जल से रसना और पृथ्वी से घ्राणेंद्रिय का निर्माण होता है ।
47- वेदान्त दर्शन के अनुसार ही बुद्धि और मन में सभी तत्वों का सम्मिश्रण रहता है । आकाशादि के रजांश से क्रमशः पाँच कर्मेन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं । ये हैं : वाणी, हाथ, पैर, गुदा, अपान, व्यान, उदान और समान । सूक्ष्म तत्वों के पंचीकरण से स्थूल शरीर तथा स्थूल भूत उत्पन्न होते हैं । पंचीकरण का अर्थ है परस्पर सम्मिश्रण । प्रत्येक स्थूल भूत में आधा अंश उसका अपना रहता है, और शेष आधा भाग अन्य चार भूतों के अष्टमांशों का मिलकर बनता है । इन्हीं स्थूल भूतों से समस्त विश्व की रचना होती है । वेदान्त दर्शन कहता है कि जिस व्यक्ति के मन में सांसारिक आकांक्षाएँ बनी हुई हों, जिसका चित्त शांत नहीं है, वह वेदान्त का अधिकारी नहीं है ।
48- 29 अगस्त, 1902 को युनाइटेड किंगडम में जन्में वेरियर एलविन (1902-1964) भारत में आदिवासियों के मुद्दों को उठाने के लिए जाने जाते हैं । वह विद्वान, एक्टिविस्ट और प्रशासक भी रहे हैं । अंग्रेज होने के बावजूद उन्होंने भारत की आज़ादी के आन्दोलन में हिस्सा लिया । वे पादरी थे लेकिन उन्होंने आदिवासियों का धर्म परिवर्तन करवाने से इनकार कर दिया । 1927 में एलविन क्रिस्टा सेवा संघ के सदस्य के रूप में भारत आये थे । वे मानते थे कि गांधी ईसा मसीह के संदेश के सबसे अच्छे आधुनिक व्याख्याकार हैं । एलविन ने मध्य भारत के गोंड आदिवासियों के बीच आधुनिक शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के लिए काम किया । 1940 के दशक में एलविन ने अलग-अलग जनजातियों पर किताबों की एक पूरी श्रृंखला प्रकाशित की ।
49- आज़ादी के बाद एलविन भारतीय गणराज्य के नागरिक बन गए । 1954 में जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें नार्थ ईस्ट फ़्रंटियर एजेंसी (नेफ़ा) के आदिवासी मामलों के प्रशासन का सलाहकार नियुक्त किया । पंडित जवाहरलाल नेहरू ने एलविन की किताब की प्रस्तावना में ही आदिवासियों के प्रति अपनी प्रसिद्ध पंचशील नीति की घोषणा की थी । जिसमें आदिवासियों को उनकी परम्परा और संसाधनों आदि के सन्दर्भ में स्वायत्तता देने की वकालत की गयी थी । 1959 में प्रकाशित उनकी कृति अ फिलॉसफी फ़ॉर नेफ़ा, एडवाइजर टु गवर्नर ऑफ असम एलविन की महत्वपूर्ण पुस्तक है ।दिनांक 22 फ़रवरी, 1964 को नई दिल्ली में उनका देहान्त हुआ । 1961 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था ।
50- एलविन ने एक साक्षात्कार में कहा था कि “मैं अगले जन्म में छोटा और काला पैदा होना चाहता हूँ ताकि गाँवों में बिना किसी का ध्यान खींचे रह सकूँ, वहाँ कुछ सार्थक कर सकूँ ।” 1964 में उनकी पुस्तक द ट्राइबल वर्ल्ड ऑफ वेरियर, 1939 में द बैगा, 1947 में द मुरिया ऐंड देयर घोटुल, 1942 में अगरिया, 1955 में द रिलीजन ऑफ एन इंडियन ट्राइब प्रकाशित हुई ।
नोट : उपरोक्त सभी तथ्य, अभय कुमार दुबे, द्वारा सम्पादित पुस्तक, समाज विज्ञान विश्वकोष, खण्ड 5, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण : 2016, ISBN : 978-81-267-2849-7, से साभार लिए गए हैं ।