राजनीति विज्ञान / समाज विज्ञान, महत्वपूर्ण तथ्य (भाग- 35)

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– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर-प्रदेश), भारत । email : drrajbahadurmourya @ gmail. com, website : themahamaya. com

(प्रोपेगंडा मॉडल, वैकासिक अर्थशास्त्र, वैधता, डेविड बीथम, ग्लोबल जस्टिस, निर्भरता सिद्धांत, वैशेषिक दर्शन, महर्षि कणाद, गैसलाइटिंग, वैष्णव धर्म, श्यामा चरण दुबे, बाबू श्यामसुन्दर दास, श्वेत क्रांति, शस्त्र नियंत्रण, जिनेवा प्रोटोकॉल, शिवसेना, शिरोमणि अकाली दल, शोषण, शंकराचार्य, आदि शंकर, शांति, एक्टिव पीस थियरी, ईसाइयत शांतिवाद, क्वैकर्स और मेनोनाइट, श्रीलंका, फिलॉसफी, भारतीय दर्शन, सखाराम गणेश देउस्कर, सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय, हिन्दी साहित्य में भक्तिकाल, सन्त नामदेव)

1- एडवर्ड एस. हरमन और नोम चोम्स्की ने अमेरिकी मीडिया के पक्षपात पूर्ण रवैये का अध्ययन करके एक प्रोपेगंडा मॉडल विकसित किया है । उनकी मान्यता है कि यह मीडिया पेशेवराना पत्रकारिता के नाम पर कॉरपोरेट हितों की आलोचना से बचता है और नव उदारवादी नीतियों और उनके आधार पर खड़े किए गए निज़ाम के हक़ में प्रोपेगंडा करता है । फ़्रांसीसी विद्वान लुई अलथुसे ने भी व्यवस्था समर्थक प्रेस की समस्याओं के बारे में विस्तार से लिखा है । चोम्स्की और अलथुसे के लेखन ने वैकल्पिक मीडिया विकसित करने वाले कई प्रयासों को प्रेरित किया है । फ़्रांसीसी दार्शनिक मिशेल दसर्त द्वारा 1984 में लिखे गए निबन्ध दि प्रैक्टिस ऑफ एवरीडे लाइफ़ से मीडिया की इन प्रवृत्तियों को उनका यह नाम मिला ।

2- वैकासिक अर्थशास्त्र चिंतन की वह शाखा है जो प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के मामले में पिछड़े रहने वाले देशों को उनकी ग़रीबी से निजात दिलाने के लिए आर्थिक नीतियों और सिद्धांतों को प्रस्तावित करता है । इसकी शुरुआती झलकियाँ विलियम पेटी के वणिकवाद और एडम स्मिथ के क्लासिकल अर्थशास्त्र में देखी जा सकती है । वैकासिक अर्थशास्त्र के सिद्धांत दीर्घकालीन बचत, उनके निवेश और प्रौद्योगिकीय प्रगति की भूमिका के इर्द-गिर्द सूत्रबद्ध होते हैं । वैकासिक अर्थशास्त्र के विशेषज्ञों में आर्थर लेविस, गुन्नार मिर्डाल, राउल प्रेबिस, पॉल रोजेंस्टीन- रोदॉं, हला मिंट, हांस सिंगर और अमर्त्य कुमार सेन के नाम प्रमुख हैं ।

3- आर्थर लेविस ने गरीब देशों की अर्थव्यवस्था में दुहरी संरचना पर रोशनी डाली है । इनके मुताबिक़ इन देशों की अर्थव्यवस्था का एक हिस्सा बड़े शहरों, उद्योगों, सेवाओं और अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्य से बनता है । दूसरे हिस्से में कम उत्पादकता वाला खेतिहर क्षेत्र सक्रिय रहता है । गुन्नार मिर्डाल ने आर्थिक और समाजशास्त्रीय रवैया अपना कर एशियाई वैकासिक समस्याओं का विश्लेषण किया है और साथ में भ्रष्टाचार की समस्या पर भी प्रकाश डाला है । राउल प्रेबिस ने स्थानीय उद्योग और अन्य उत्पादन को संरक्षित करने वाली नीतियों पर गौर करते हुए अल्पविकसित देशों के लिए आयात प्रतिस्थापन की नीतियों की सिफ़ारिश की है ।

4- रोजेंस्टीन- रोदॉं ने सुझाव दिया है कि गरीब देशों को उद्योगीकरण से होने वाली आमदनी से लाभ उठाने की कोशिश करनी चाहिए । हला मिंट ने अंतरराष्ट्रीय वाणिज्य के साथ आर्थिक विकास को जोड़ा है और हांस सिंगर ने संतुलित वृद्धि का सुझाव दिया है । अमर्त्य सेन ने क्षमताओं की समानता हासिल करने का विचार दिया है । आंद्रे गुंदर फ़्रैंक द्वारा निर्भरता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है । इस प्रस्थापना ने वैकासिक अर्थशास्त्र में आमूल परिवर्तन ला दिया है । फ़्रैंक की मान्यता है कि दुनिया के पैमाने पर पूँजीवादी विकसित देशों के द्वारा तीसरी दुनिया के देशों का दोहन किया जा रहा है । प्रौद्योगिकी और बाज़ार पर नियंत्रण के माध्यम से विश्व अर्थव्यवस्था के केन्द्र में बैठे हुए यह देश हासिये पर पड़े हुए गरीब देशों से अतिरिक्त मूल्य खींच रहे हैं ।

5- वैधता वह गुण है जिसके आधार पर सत्ता की संरचनाएँ लोगों की निगाह में न्यायसंगत प्राधिकार का रूप ले लेती हैं । वैधता के ज़रिए किसी सरकार, क़ानून, प्रथा या सामाजिक- आर्थिक कार्यक्रम को वह बाध्यकारी शक्ति मिलती है जिसके कारण उसका अनुपालन डर के बजाय एक तरह के कर्तव्य के तहत किया जाता है । अपनी पुस्तक द सोशल कांटैक्ट (1762) में रूसो ने कहा था कि कोई कितना भी ताकतवर क्यों न हो, उसके हाथ में स्वामित्व तभी रह सकता है जब वह उसकी शक्ति को लोग उसका अधिकार मानें और उसकी आज्ञा के पालन को अपना कर्तव्य । जो सरकार इस कसौटी पर खरी नहीं उतर पाती वह सत्तारूढ़ होते हुए भी अपनी वैधता खो देती है ।

6- मैक्स वेबर के अनुसार अगर लोग किसी निज़ाम का हुक्म मानने के लिए तैयार हैं अर्थात् उन्हें उसकी वैधता में आस्था है, तो उस हुकूमत को वैध कहा जाना चाहिए । भले ही वह निज़ाम किसी भी क़िस्म का हो । अरस्तू का ख़्याल था कि शासक के स्वार्थ के बजाय पूरे समाज के स्वार्थ में काम करने वाली हुकूमत ही वैध मानी जा सकती है । रूसो ने वैधता की परख के लिए जन- इच्छा की थिसिज दी है । वर्ष 1988 में प्रकाशित अपनी पुस्तक लेजिटिमेशन ऑफ पॉवर में डेविड बीथम ने भी कहा कि महज़ वैधता में आस्था से काम नहीं चलेगा बल्कि यह भी देखना चाहिए कि वह आस्था कैसे पैदा की गयी है । रूसो ने वैधता की परख के लिए जन- इच्छा अथवा जर्नल विल की थिसिज दी थी ।

7- डेविड बीथम ने 1991 में प्रकाशित अपनी पुस्तक लेजिटिमेशन ऑफ पॉवर में कहा कि महज़ वैधता में आस्था रखने से काम नहीं चल सकता । यह भी देखना होगा कि वह आस्था कैसे पैदा की गई है । बीथम ने वैधता की तीन शर्तें प्रतिपादित किया है : पहली, सत्ता का प्रयोग स्थापित नियमों के मुताबिक़ ही होना चाहिए । दूसरी, उन नियमों को शासकों और शासितों के साझा विश्वासों के आधार पर न्याय संगत ठहराना आवश्यक है । तीसरी, वैधता पर शासितों की सहमति की मुहर लगना बहुत ज़रूरी है । मुसोलिनी ने इटली में, हिटलर ने जर्मनी में, कम्युनिस्टों ने रूस, चीन और पूर्वी यूरोप में लोकप्रिय सहमति के गर्भ से वैधता प्राप्त करने का रास्ता चुना ।

8- डेविड बीथम का दावा है कि केवल वही संविधान वैधता प्रदान कर सकता है जो समाज में व्यापक रूप से स्वीकृत मूल्यों और आस्थाओं की नुमाइंदगी करता हो । शासित जनता मानती हो कि उस संविधान के नियम और प्रावधान समुचित और स्वीकार योग्य हों । नव मार्क्सवादी चिंतक युर्गेन हैबरमास ने 1975 में प्रकाशित अपनी रचना लेजिटिमेशन क्राइसिस में तर्क दिया है कि उदारतावादी लोकतंत्रों में संकट की प्रवृत्तियाँ होती हैं जिनके कारण उन व्यवस्थाओं की स्थिरता संकट में फँसती रहती है । इस संकट के मर्म में निजी उद्यम अथवा पूँजीवादी अर्थव्यवस्था और लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रणाली के बीच का तनाव होता है ।

9- भारत में राजनीतिक संकट का अध्ययन करते हुए धीरूभाई सेठ ने वर्ष 1991 में प्रकाशित अपनी पुस्तक क्राइसिस ऑफ रिप्रजेंशन में वैधता के संकट को समाज और चुनावी लोकतंत्र पर आधारित राज- व्यवस्था के अंतर्विरोध का परिणाम करार दिया है । एंथनी किंग ने इसी परिघटना को सरकार के संदर्भ में ओवरलोड की संज्ञा दी है । राजकोषीय घाटा, करों की ऊँची दरें, बढ़ती हुई मुद्रास्फीति जैसे परिणाम इसी ओवरलोड की अभिव्यक्ति माने जाते हैं ।

10- वैश्विक न्याय या ग्लोबल जस्टिस की संकल्पना जॉन रॉल्स की रचना 1999 में प्रकाशित द लॉ ऑफ पीपुल्स से निकली है । उन्होंने अपनी प्रसिद्ध रचना अ थियरी ऑफ जस्टिस में एक बेहतर उदारवादी समाज के संचालन के संदर्भ में भेदमूलक सिद्धांत के ज़रिए रेखांकित किया था कि आर्थिक और सामाजिक असमानताओं को कुछ इस तरह समायोजित किया जाना चाहिए कि हीनतम स्थित वाले व्यक्ति को सबसे ज़्यादा फ़ायदा हो । इसके लिए रॉल्स ने दो मूल स्थितियों का प्रयोग किया है जिनमें पहली संवैधानिक लोकतांत्रिक शासन की उदारतावादी संकल्पना के लिए सामाजिक समझौते से सम्बन्धित है । दूसरी मूल स्थिति उदारतावादी लोगों के प्रतिनिधियों के लिए है ।

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11- रॉल्स के मुताबिक़ वैश्विक न्याय की अवधारणा को खोजते समय उदारतावादी लोगों के प्रतिनिधियों की आँखों पर एक विशिष्ट अज्ञान का पर्दा पड़ा होता है । मसलन उन्हें यह जानकारी नहीं है कि वे किस भौगोलिक क्षेत्र से हैं और उनकी शक्तियाँ क्या हैं, आदि । रॉल्स स्पष्ट करते हैं कि उदारतावादी लोग आठ सिद्धांतों और तीन संस्थाओं का चुनाव करते हैं । इन आठ सिद्धांतों में लोगों के समान होने, उनकी स्वतंत्रता का सम्मान करने, उनके द्वारा समझौतों और किए गए वायदों का पालन करने, मानवाधिकारों का समर्थन करना, युद्ध के समय भी कुछ आचरण सम्बन्धी पाबंदियों का पालन करना, अहस्तक्षेप की नीति पर चलने और आत्मरक्षा पर ध्यान देने की बात की गयी है ।

12-रॉल्स के अनुसार उदारतावादी लोगों द्वारा चुनी गई तीन संस्थाओं में से एक संस्था लोगों के बीच न्यायपूर्ण व्यापार सुनिश्चित करेगी, दूसरे लोगों को कोऑपरेटिव बैंकिंग संस्था से उधार लेने में समर्थ बनाएगी और तीसरी संस्था वही भूमिका निभाएगी जो संयुक्त- राष्ट्र द्वारा निभाई जाती है । रॉल्स के मुताबिक़ यह स्थिति कांफेडेरेशंस ऑफ पीपुल (राज्य नहीं बल्कि लोगों का परिसंघ) की है । रॉल्स के मुताबिक़ शालीन लोगों की श्रेणी में आने के लिए चार कसौटियों पर खरा उतरना आवश्यक है । पहली, समाज को आक्रामक नहीं होना चाहिए । दूसरी, इसकी क़ानूनी व्यवस्था और न्याय के विचार को समाज के सभी सदस्यों के बुनियादी अधिकारों की सुरक्षा करनी चाहिए ।

13- रॉल्स शालीन पदसोपानीय व्यक्तियों के उदाहरण के रूप में एक काल्पनिक स्थान कैजानिस्तान की कल्पना करते हैं । उनके अनुसार कैजानिस्तान को सुव्यवस्थित लोगों के एक समाज के रूप में देखा जा सकता है । उनका आग्रह है कि उदारवादी समाज अपनी विदेश नीति में कैजानिस्तान जैसे राज्यों को सहन करने की क्षमता विकसित करें । रॉल्स के अनुसार किन्हीं खास समाजों की सम्पन्नता में उस समाज की राजनीतिक संस्कृति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । सम्पत्ति जमा संसाधनों से नहीं बल्कि किसी ख़ास समाज की राजनीतिक संस्कृति से उत्पन्न होती है । इसमें उस समाज की राजनीतिक और सामाजिक संस्थाओं की बुनियादी संरचना को पुष्ट करने वाली धार्मिक, नैतिक और दार्शनिक परम्पराएँ भी महत्वपूर्ण होती हैं ।

14- थॉमस पोगे ने वर्ष 2002 में प्रकाशित अपनी पुस्तक वर्ल्ड पॉवर्टी ऐंड ह्यूमन राइट्स में लिखा है कि सम्पन्न विकसित समाजों में रहने वाले लोगों की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि वे अन्याय पूर्ण वैश्विक व्यवस्था को ख़त्म करें और गरीब लोगों को इससे होने वाले नुक़सानों से बचाएँ । पोगे यह सुझाव भी देते हैं कि लगभग एक प्रतिशत का वैश्विक संसाधन टैक्स लगना चाहिए जिसका इस्तेमाल विकासशील समाजों के सबसे ग़रीब लोगों की भलाई के लिए हो । विकसित समाज के लोगों का यह दायित्व है कि गरीब समाज के लोगों की मदद करें ।

15- सामाजिक सीमाओं और सामाजिक निर्णय- प्रक्रिया का अध्ययन करने के लिए राष्ट्र- राज्यों को एक इकाई के रूप में ग्रहण करने के बजाय वैश्विक प्रणाली को विश्लेषण का आधार बनाया जाना चाहिए । इस बौद्धिक परियोजना के आधार पर किए गए सूत्रीकरण को वैश्विक प्रणाली सिद्धांत के रूप में जाना जाता है । इसका विकास पचास के दशक में प्रतिपादित निर्भरता सिद्धांत की रैडिकल प्रस्थापनाओं और इतिहास लेखन के अनाल स्कूल से प्रभावित है ।वर्ल्ड सिस्टम थियरी के मुख्य जनक इमैनुअल वालर्स्टीन हैं । वालर्स्टीन ने समकालीन वैश्विक प्रणाली का उद्गम 1450 से 1670 के बीच माना है । इस थियरी के सिद्धांतकार मानते हैं कि विश्व की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था चार बुनियादी अंतर्विरोधों से ग्रस्त है जिसके कारण उसका अंत अवश्यंभावी है ।

16- भारतीय दार्शनिक प्रणालियों में वैशेषिक दर्शन सर्वाधिक प्राचीन तथा क्रमबद्ध है । इसका आदि प्रवर्तक कणाद को माना जाता है, जिनका वास्तविक नाम उलूक था । इसके अलावा यह काश्यप और कणभुक आदि नामों से भी जाने जाते हैं । कहा जाता है कि कटाई के बाद खेतों में बचे हुए अनाज के बिखरे कणों को बीनकर भोजनार्थ प्रयोग करने के कारण उनका नाम कणाद या कणभुक हो गया । इसलिए वैशेषिक दर्शन का एक दूसरा नाम कणाद या औलूक्य दर्शन भी है । इस दर्शन का सबसे पहला प्रामाणिक और प्रस्थापक ग्रन्थ कणादकृत वैशेषिक सूत्र है जो दस अध्यायों में विभक्त है । इसमें 370 सूत्र संकलित हैं ।

17- विशिष्टताओं पर ज़ोर देने के कारण ही इसका नाम वैशेषिक दर्शन पड़ा । सांख्य दर्शन विश्व के मूल में दो तत्व मानता है जबकि वेदान्त एक तत्व । वैशेषिक दर्शन अनेक तत्वों का प्रतिपादन करता है और उनमें परस्पर मौलिक भेद बताता है । इस परस्पर भेद का ही दूसरा नाम विशेष है । यही वैशेषिक दर्शन का मूल है । कणाद के अनुसार इस संसार का अस्तित्व वस्तुगत रूप से है । यह मनुष्य की चेतना से बाहर और उससे स्वतंत्र है । कणाद के अनुसार धर्म वह है जिससे प्रगति और अंतिम कल्याण सम्भव है । वह ईश्वर या शाश्वत नियति पर आधारित नहीं है । ज्ञान केवल तभी यथार्थ होता है जब वह वस्तुओं की प्रकृति के अनुरूप होता है, अन्यथा वह झूठा है ।

18- वैशेषिक दार्शनिक प्रणाली में द्रव्य को मूल पदार्थ माना जाता है और वह समस्त भौतिक तथा अभौतिक घटनाक्रमों का सार है । वैशेषिक दर्शन ने सभी भौतिक और मानसिक वस्तुओं को, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मन् और मनस के नौ द्रव्यों में विभाजित किया है । इन द्रव्यों के संयोग और सम्मिश्रण से ही विभिन्न वस्तुओं और घटनाक्रमों का निर्माण होता है । पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु का निर्माण अविभाज्य परमाणुओं से मिलकर हुआ है तथा यह भौतिक पदार्थ हैं । गुण और क्रियाएँ द्रव्यों में अंतर्निहित हैं । कोई भी द्रव्य गुणों के बिना नहीं रह सकता, ठीक उसी प्रकार जैसे कोई गुण द्रव्य के बिना नहीं हो सकता ।

19- कणाद ने सभी वस्तुओं को जिनके बारे में भविष्यवाणी करना और जिन्हें संज्ञाएँ देना सम्भव था उन्हें छह पदार्थों (द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय) में विभाजित किया । विभिन्न पदार्थों के सारतत्व के ज्ञान, उनमें साम्यता और विषमता, समानता और भिन्नता के ज्ञान से ही सर्वोपरि कल्याण होता है । पदार्थ से तात्पर्य है वह वस्तु जिसका किसी पद (शब्द) से बोध होता है । अत: जितनी भी वस्तुएँ हैं या जिनका नामकरण सम्भव है, वे सभी पदार्थ हैं । पदार्थ कोई स्थिर या अचल वस्तु नहीं बल्कि अस्तित्व में आने की निरंतर प्रक्रिया है और उनका न तो कभी नाश किया जा सकता है और न ही निर्माण । उनकी मौजूदगी अनंत काल से है ।

20- महर्षि कणाद द्वारा प्रतिपादित वैशेषिक दर्शन भारतीय दर्शन परम्परा में एक महत्वपूर्ण प्रस्थापना के रूप में उभरता है ।उन्होंने मस्तिष्क के अलावा जीवन और शक्ति के स्रोत के रूप में आत्मा की अवधारणा प्रतिपादित की लेकिन ईश्वर के द्वारा आत्मा की निर्मिति मानने से इनकार कर दिया । पृथ्वी, अग्नि, जल, आदि की ही तरह विशिष्ट गुण सम्पन्न आत्मा को भी एक मूल पदार्थ के रूप में माना ।कर्म को परमाणुओं में गति करने वाला बताया ।आत्मा अन्य पदार्थों के समान ही एक पदार्थ है जिसमें चेतना का अस्तित्व है । चेतना, संज्ञान, बुद्धि इत्यादि पदार्थ के संश्लिष्ट सम्मिश्रणों की उपज है ।

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21- अमर उजाला दैनिक समाचार (दिनांक 1 जनवरी, 2023) पत्र में यशवंत व्यास ने अपने एक लेख में लिखा है कि विगत वर्ष यानी 2022 में मरियम- वेब्सटर डिक्शनरी में सबसे बड़ा शब्द चुना गया है- गैसलाइटिंग । इसे एक हज़ार सात सौ चालीस प्रतिशत अधिक खोजा गया है । यह भटकाव और अविश्वास का चालक शब्द है जिसमें शामिल है खुद के फ़ायदे के लिए दूसरों को भ्रमित करने की कोशिश । मनोवैज्ञानिक तौर पर लम्बे समय तक किसी को इस तरह मैनीपुलेट करना कि उसे खुद के विचारों और यथार्थ पर संदेह होने लगे- गैसलाइटिंग है । यह इरादतन साज़िश के तहत झूठ की लम्बी योजना का उपक्रम है । यह पीड़ित को अपराधी और अपराधी को पीड़ित साबित करने का जाल बुनती है ।

22- गैसलाइटिंग के अलावा एक शब्द और प्रचलन में आया है- मूनलाइटिंग । पूरी तनख़्वाह लेकर एक जगह काम करना और बचे समय में दूसरी जगह गुमनाम काम करना और उसकी कमाई लेना मूनलाइटिंग है । इसी प्रकार का एक और शब्द है- क्वाइट क्विटिंग यानी कांटैक्ट के हिसाब से जितना बनता है उससे रत्तीभर भी ज़्यादा काम नहीं करना । विवादों से ध्यान हटाने के लिए इवेंट खड़ा कर देने वालों के लिए स्पोर्ट्स वॉशिंग शब्द भी मिल गया है । यानी ध्यान बँटाओ और खेल कर जाओ ।

23- वैष्णव धर्म भारत के सांस्कृतिक नवजागरण के मूल सिद्धांत और चिंतन से जुड़ा है । अवतारवाद इस चिंतन का एक विशिष्ट पक्ष है । इस सूत्रीकरण के मुताबिक़ लोक कल्याण के लिए ब्रम्ह अवतार धारण करता है और लोक के कष्टों को दूर करता है । भागवत पुराण के समय तक वैष्णव संप्रदाय पांचरात्र सम्प्रदाय के रूप में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लेता है । ग्यारहवीं सदी में सगुण भक्ति के आचार्य रामानुजाचार्य ने वैष्णव धर्म को एक शक्तिशाली भक्ति आंदोलन में बदल डाला । श्री सम्प्रदाय के प्रवर्तक रामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैत वाद के रूप में भक्ति को समर्थ दार्शनिक आधार प्रदान किया ।

24- रामानुजाचार्य के वैष्णव धर्म चिंतन को रामानन्द उत्तर भारत में लाए । उन्होंने राम के लोक कल्याणकारी रूप को जनता में प्रतिष्ठित किया । वल्लभाचार्य ने विष्णु के अवतार रूप कृष्ण भक्ति का प्रचार किया । उनके द्वारा प्रवर्तित मार्ग पुष्टि मार्ग के नाम से प्रसिद्ध हुआ । कबीर, धन्मा, रैदास, रज्जब, पलटूदास जैसे संत कवियों की विद्रोही चेतना के मूल में रामानन्द ही हैं । वैष्णव भावना ने रामहि केवल प्रेम पियारा के चिंतन को केन्द्र में लाकर प्रेम को पॉंचवा पुरुषार्थ घोषित किया ।

25- श्यामा चरण दुबे (1922-1996) भारत में ग्राम्य अध्ययन के पुरोधा माने जाते हैं । वह समाजशास्त्रियों की उस पीढ़ी के सदस्य थे जिसने आज़ादी के बाद वैश्विक ज्ञान में अपने कृतित्व और पक्षधरता के दम पर ख़ास मुक़ाम हासिल किया । उनकी पुस्तक इंडियन विलेज गाँव पर केंद्रित पहला मुकम्मल अध्ययन है ।इसे आज भी एक क्लासिकल ग्रन्थ माना जाता है । दुबे ने भारतीय संस्कृति के लिए वृक्ष के बजाय नदी का रूपक चुना । वे भारतीय संस्कृति के विकास और उसकी संवृद्धि में कई तरह के ऐतिहासिक स्रोतों का योगदान मानते हैं । उन्होंने मानव संस्कृति के विकास को वैश्विक संदर्भ में रखकर ऑंका ।

26- बाबू श्यामसुन्दर दास (1875-1945) भारत में हिंदी साहित्य और बौद्धिकता के पथ- प्रदर्शकों में से एक माने जाते हैं ।उनका जन्म काशी में हुआ था । वह लखनऊ के कालीचरन इंटर कॉलेज में बहुत दिनों तक हेडमास्टर रहे । वर्ष 1921 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष नियुक्त किए गए । उन्होंने लम्बे समय तक सरस्वती पत्रिका का सम्पादन किया, हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज की तथा हिंदी शब्द सागर का भी सम्पादन किया । 1907 में उन्होंने हिंदी आर्य भाषा पुस्तकालय की स्थापना की । उनका लेखन बहुत विशाल है ।

27- श्वेत क्रांति को आपरेशन फ्लड कहा जाता है । इसका सीधा मतलब है देश में दूध की नदियाँ बहा देना । 1970 में गुजरात के अमूल प्रयोग के तर्ज़ पर शुरू हुई यह मुहिम दुनिया के सबसे बड़े डेरी डेवलपमेंट प्रोजेक्ट की तरह देखी जाती है । श्वेत क्रान्ति के कारण ही भारत तीस साल के भीतर दुग्ध उत्पादन में अमेरिका से आगे निकल गया । इसी कार्यक्रम के कारण 2010-11 में दुनिया के दुग्ध उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी 17 फ़ीसदी हो चुकी थी । श्वेत क्रान्ति की बुनियाद में आणंद (गुजरात) में सक्रिय खेड़ा ज़िला सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ का सफल मॉडल है । इसका गठन 1946 में सरदार वल्लभ भाई पटेल के प्रोत्साहन पर हुआ था । इंजीनियर वर्गीज कुरियन का इस सफलता के पीछे करिश्माई नेतृत्व था ।

28- दुनिया में शस्त्र- नियंत्रण का इतिहास काफ़ी पुराना है । लगभग ढाई हज़ार सहस्राब्दी पहले एथेंस और स्पार्टा के बीच शस्त्र- नियंत्रण संधि हुई थी । उन्नीसवीं सदी में रस- बैजोट ट्रीटी (1817 के तहत अमेरिका और कनाडा के बीच सीमाओं पर से फ़ौजों की तैनाती ख़त्म कर दी गई थी । आधुनिक युग में वर्ष 1945 से ही कई शस्त्र- नियंत्रण संधियाँ आणुविक, रासायनिक और जैविक शस्त्रों को सीमित करने या उनके उन्मूलन पर ध्यान केंद्रित कर रही हैं । उनकी कोशिश है कि एंटी- बैलेस्टिक मिसाइल प्रणालियों के विकास को रोका जाए और दुनिया भर में आणुविक परीक्षणों की बारम्बारता घटाई जाए ।

29- बीसवीं सदी में कई मशहूर शस्त्र- नियंत्रण संधियाँ हुई हैं : 1925 में जिनेवा प्रोटोकॉल पर दस्तख़त हुए जिसके तहत गैसों और बैक्टीरियोलॉजिकल हथियारों का इस्तेमाल प्रतिबंधित किया गया । 1959 में अंटार्कटिका ट्रीटी हुई जिसके बाद से अंटार्कटिका के क्षेत्र का फ़ौजी उद्देश्यों से प्रयोग बंद कर दिया गया । 1972 के बॉयलॉजिकल वेपन्स कन्वेंशन के तहत जैविक हथियारों को बनाने और रखने पर पाबंदी लगा दी गई । 1968 में आणुविक अप्रसार संधि (एन पी टी) हुई जिसके बाद से गैर – आणुविक देशों को आणुविक हथियार या प्रौद्योगिकी देने की प्रक्रिया सीमित हो गयी । वर्ष 1972 में स्ट्रैटजिक आर्म्स लिमिटेशन टास्क (साल्ट वन) के तहत एंटी- बैलेस्टिक मिसाइलों के विकास को नियंत्रित किया गया ।

30- वर्ष 1989 में हुई कन्वेंशनल फोर्सिज इन यूरोप (सी ए एफ ई) ट्रीटी ने यूरोप में परम्परागत हथियारों की संख्या तय कर दी । 1991-92 में हुई वार्ता (स्ट्रैटजिक आर्म्स रिडक्शन टास्क : स्टार्ट वन) के तहत महाशक्तियों के आणुविक हथियारों में कटौती की गई । वर्ष 1993 में कैमिकल वेपंस कंवेंशन (सी डब्ल्यू सी) पर हस्ताक्षर करने वाले देशों को हिदायत दी गई कि वे दस साल के भीतर अपने रासायनिक हथियारों को नष्ट कर दें । 1998 में एंटी परसनल लैण्डमाइन्स ट्रीटी पर दस्तख़त किए गए । अमेरिका आज भी दुनिया का सबसे बड़ा शस्त्र- आपूर्तिकर्ता है । हथियारों के बाज़ार के पचास फ़ीसदी हिस्सा उसी के हाथ में है ।

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31- महाराष्ट्र की राजनीति में सक्रिय शिव सेना का मूल आधार महाराष्ट्रीय पहचान और भूमि पुत्र की अवधारणा है । एक राजनीतिक दल के रूप में शिव सेना का गठन 1996 में मुम्बई में हुआ । इसके संस्थापक बाल ठाकरे पेशे से कार्टूनिस्ट थे । हिंसा, संकीर्णता, भड़काऊ भाषा और धमकियों की राजनीति उनका मुख्य रूप था । बाल ठाकरे जब तक जीवित रहे, तब तक शिव सेना में वही सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति थे । मिज़ाज से हिटलरी, व्यवहार में शालीन लेकिन ज़हर बुझे भाषणों में पारंगत और संसदीय लोकतंत्र के प्रति घृणा से भरे हुए बाल ठाकरे की मुहर पार्टी से जुड़े हर फ़ैसले पर आवश्यक थी ।

32- शिरोमणि अकाली दल मुख्यतः पंजाब की राजनीति में सक्रिय है । इसके लिए अकाली दल (बादल) शब्द का भी प्रयोग किया जाता है । यह सिक्खों की धार्मिक संस्थाओं शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी और दिल्ली सिक्ख गुरुद्वारा प्रबंधन कमेटी को नियंत्रित करता है । शुरुआती दौर में अकाली दल का गठन 14 दिसम्बर, 1920 को हुआ था । इसका मक़सद गुरुद्वारों को उन भ्रष्ट महंतों के चंगुल से मुक्त कराना था जिन्हें औपनिवेशिक शासन का समर्थन मिला हुआ था । 1920-25 के दौरान इसके लिए अकाली दल के नेतृत्व में गुरुद्वारा मुक्ति का ज़बरदस्त आन्दोलन चला । इसी के परिणामस्वरूप अंग्रेज़ी सरकार ने 1925 में सभी गुरुद्वारों का प्रबंध सिक्खों की एक निर्वाचित संस्था को सौंप दिया । इसे शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी कहा जाता है ।

33- मास्टर तारा सिंह के नेतृत्व में 1930 के दशक में अकाली दल कांग्रेस के काफ़ी नज़दीक आया । आज़ादी के संघर्ष के दौरान जब मुस्लिम लीग और इसके नेता मुहम्मद अली जिन्ना ने मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्र की माँग रखनी शुरू कर दी, तो मास्टर तारा सिंह ने भी सिक्खों के लिए अलग राष्ट्र- राज्य बनाने की माँग की । इसके पीछे तर्क यह था कि गुरूमुखी लिपि में लिखी जाने वाली पंजाबी सिक्खों की भाषा है । अलग पंजाब के लिए हुए आन्दोलन में इस माँग के पक्ष में अनशन करते हुए दर्शन सिंह फेरूमान ने अपनी शहादत दी । नवम्बर 1966 में पंजाब एक अलग राज्य बन गया ।

34- शोषण एक ऐसे सामाजिक सम्बन्ध का नाम है जिसके तहत किसी लाभ के लिए व्यक्ति, समूह या किसी समाज और देश का अनुचित इस्तेमाल किया जाता है । शोषण के ज़रिए लोगों के अधिकार छीने जाते हैं, मनमाने विनिमय के माध्यम से उन पर नुक़सान थोप दिया जाता है और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उन्हें कम या ना के बराबर मज़दूरी पर काम करने के लिए मजबूर किया जाता है । शोषक हमेशा शोषित की दुर्बलता को निशाना बनाता है । एक चालाक दोस्त, किसी ख़ुदगर्ज़ आशिक और यहाँ तक कि स्नेह की तलाश करने वाली किसी संतान के मॉं- बाप तक को शोषक की श्रेणी में गिना जा सकता है ।

35- शंकराचार्य (788-820) एक महान धर्मशास्त्री और संगठक के साथ अद्वैत मत के प्रमुख प्रतिपादक थे । उन्होंने एक नई प्रत्ययवादी विचार प्रणाली को जन्म दिया जिसे अद्वैत वेदांत के नाम से जाना जाता है । वह केवल 32 वर्ष तक जीवित रहे परन्तु अपनी विलक्षण प्रतिभा के कारण जगद्गुरु शंकराचार्य कहलाए । उन्होंने बादरायण के ब्रम्हसूत्र, प्रमुख उपनिषदों और भगवद्गीता पर सविस्तार भाष्य लिखा । मैसूर का श्रृंगरी मठ, उड़ीसा का पुरी मठ, काठियावाड का द्वारका मठ और हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों पर मौजूद बद्रीनाथ मठ शंकराचार्य की धार्मिक विरासत के प्रमाण हैं । यह चारों मठ श्रद्धालुओं के बीच प्रमुख तीर्थस्थलों की तरह मान्य हैं ।

36- आदि शंकर के जीवन का विवरण शंकर विजय शीर्षक से लिखी रचनाओं में उपलब्ध है । दूत का जन्म 788 ईसवी में केरल के कालडी गाँव में एक नम्बूदरी ब्राह्मण परिवार में हुआ था । पिता की बचपन में मृत्यु हो जाने के कारण उनका उपनयन संस्कार कुछ देर से हुआ । भ्रमण के दौरान नर्मदा नदी के किनारे ओंकारेश्वर में उनकी भेंट गोविंद भागवत्पाद से हुई जो अद्वैतवादी दार्शनिक गौडपाद के अनुयायी थे । मीमांसा दार्शनिक कुमारिल भट्ट के शिष्य मंडन मिश्र और उनकी पत्नी उभय भारती के साथ हुआ उनका शास्त्रार्थ अपने आप में किंवदंती का रूप ले चुका है । शंकराचार्य के दर्शन के बारे में एक प्रवाद यह भी है कि वे प्रच्छन्न बौद्ध थे ।

37- अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के अध्ययन में शांति का तात्पर्य होता है युद्ध या किसी तरह के हिंसक टकराव की अनुपस्थिति । शांति एक ऐसी अवस्था है जिसके ज़रिये व्यक्तियों अथवा देशों के आपसी सम्बंधों या किसी समाज या समुदाय के भीतर मेल- मिलाप, मैत्री और समरसता की स्थितियों का वर्णन किया जाता है । युद्ध का उन्मूलन और न्याय पूर्ण विश्व की स्थापना इसके दो पक्ष हैं । नोबेल शांति पुरस्कार, भारत द्वारा दिए जाने वाला गाँधी शांति पुरस्कार, यूनिवर्सिटी ऑफ न्यू मैक्सिको द्वारा कलाकार पॉल री की स्मृति में दिया जाने वाला शांति पुरस्कार और कई जगह स्थापित किए गए पीस म्यूज़ियम इसके संस्थागत प्रमाण हैं ।

38- इमैनुअल कांट अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में फैली हुई अराजकता के संदर्भ में शांति की सतत उपस्थिति की आवश्यकता पर बल दिया । कांट ने हॉब्स जैसे राजनीतिक चिंतकों द्वारा मानवीय स्वभाव के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने की आलोचना की है । कांट को नैतिक औचित्य की विजय में विशेष आस्था थी । वे कहते थे कि एक तानाशाह को भी समय- समय पर क़ानून के नाम पर काम करना पड़ता है और एक से एक मौक़ापरस्त हुक्मरान भी पूरी तरह से सिद्धांतहीन नहीं होते । हुक्मरानों के सामने दो विकल्प होंगे : स्थायी शांति या क़ब्रिस्तान की शांति । इन दोनों में से उन्हें एक को चुनना होगा ।

39- एक्टिव पीस थियरी योहान गालटुंग द्वारा प्रवर्तित सकारात्मक शांति के सिद्धांत पर आधारित है । गालटुंग शांति अध्ययनों के संस्थापक माने जाते हैं । एक सिद्धांत के रूप में शांतिवाद का नज़दीकी रिश्ता किसी भी तरह के युद्ध का प्रतिरोध करना है, भले ही उसके पीछे कितना भी न्याय पूर्ण लगने वाला तर्क क्यों न हो । शांति वाद अपने व्यापक अर्थ में संघर्षों के शांति पूर्ण निबटारे, एक संस्था के रूप में सेना और युद्ध की समाप्ति, हिंसा पर आधारित किसी भी संस्था के विरोध और किसी भी तरह का मक़सद हासिल करने के लिए शारीरिक या शस्त्र- बल का प्रयोग नकारने से जुड़ा है । दरअसल, शांति वाद हिंसा के विरूद्ध एक नैतिक और व्यावहारिक प्रयास और आह्वान है । तॉलस्तॉय ने ईसा के अप्रतिरोध सिद्धांत की पुनर्स्थापना की वकालत की है ।

40- पश्चिम में शांति वाद ईसाइयत की शुरुआती वैचारिक संरचनाओं से निकला है जो न्यू टेस्टामेंट की इस शिक्षा पर आधारित थीं कि अगर कोई एक गाल पर थप्पड़ मारे तो उसके सामने दूसरा गाल भी कर देना चाहिए । ईसाइयत में क्वैकर्स, मेनोनाइट, और यहोवाज विटनेस जैसे सम्प्रदाय शांतिवादी बने रहे । ईसाई धर्म में सरमन ऑन द माउंट शांतिवाद का एक प्रभावशाली पाठ रहा है ।दुखोबार समुदाय की शांतिवादी परम्परा का लेव तॉलस्तॉय ने विस्तार से ज़िक्र किया है । सोलहवीं सदी के डच दार्शनिक इरैजमज ने वीरता के मानकों और युद्धों की विरुदावलियाँ गाने की प्रवृत्ति को बर्बर करार दिया है ।

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41- क्वैकर्स और मेनोनाइट जैसे धार्मिक और परोपकारी उद्देश्यों वाले समूहों के प्रयासों से 1851 में न्यूयार्क और मेसाचुसेट्स में, 1816 में लंदन में, 1821 में पेरिस में और 1823 में जिनेवा में शांति समुदाय गठित हुए । 1828 में अमेरिकन पीस सोसाइटी की स्थापना हुई । 1843 में प्रथम अंतर्राष्ट्रीय पीस कांग्रेस का आयोजन लंदन में हुआ । 1829 में स्विट्ज़रलैंड के बर्न शहर में इंटरनेशनल पीस ब्यूरो की स्थापना के परिणामस्वरूप मुख्यतः यूरोप और अमेरिका में मौजूद इन संस्थाओं के बीच ज़्यादा समन्वय होने लगा । शांतिवाद अहिंसा को आधार बनाकर जीवन में मैत्री, प्रेम, क्षमा, करुणा इत्यादि मूल्यों को पल्लवित किए जाने का पक्षधर है ।

42- श्रीलंका की कुल जनसंख्या का तक़रीबन 15 प्रतिशत हिस्सा तमिलों का है । श्रीलंका के उत्तरी और पूर्वी प्रान्तों को तमिल राष्ट्रवाद का भौगोलिक आधार माना जाता रहा है । श्रीलंका 1948 में औपनिवेशिक शासन से आज़ाद हुआ । स्वतंत्र श्रीलंका में नागरिकता, शिक्षा और भाषा के सम्बन्ध में ऐसे क़ानून बने जिनमें बहुसंख्यक सिंहलियों के हितों को प्राथमिकता दी गई और अल्पसंख्यक तमिल- हितों की अनदेखी की गई । आज़ादी के बाद शुरू के दशकों में तमिल नेता एस. जे. वी. चेलवानायकम के नेतृत्व वाली फ़ेडरल पार्टी ने इस बात पर ज़ोर दिया कि तमिल एक अलग राष्ट्र हैं । 1976 में तमिल यूनाइटेड लिबरेशन फ़्रंट का गठन किया गया ।

43- श्रीलंका में तमिल युवाओं ने 1970 में तमिल स्टूडेंट फ़ेडरेशन का गठन किया जिसका नाम कुछ समय बाद तमिल न्यू टाइगर्स हो गया । 1976 में इसी का नाम बदलकर लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (एल टी टी ई) रखा गया । 1975 में इस संगठन ने वेलुपल्ली प्रभाकरन (1954-2009) के नेतृत्व में जाफना में श्रीलंका सरकार के द्वारा नियुक्त मेयर की हत्या कर दी । 1983 की ब्लैक जुलाई घटना भी एल टी टी ई से सम्बन्धित है । इस घटना में कोलम्बो और उसके आस-पास के क्षेत्र में राज्य- प्रायोजित हिंसा में हज़ारों तमिल मारे गए और एक लाख से ज़्यादा देश छोड़कर भाग गए ।

44- पश्चिम में दर्शन के लिए फिलॉसफी शब्द का प्रयोग किया जाता है । यह दो यूनानी शब्दों फिलास और सोफिया से मिलकर बना है । फिलास का अर्थ है अनुराग और सोफिया का मतलब है प्रज्ञा । इस प्रकार फिलॉसफी का अर्थ हुआ ज्ञान के प्रति अनुराग । भारत में दर्शन का अर्थ है देखना : अपने भीतर और अपने बाहर ध्यान से देखना एवं इस प्रक्रिया में सृष्टि का सत्व आत्मसात् कर लेना । हमारे यहाँ मनीषी द्रष्टा कहे गए हैं, विचारक नहीं । संवेगों, भावों, विचारों में डुबकी लगाकर धीरे-धीरे उनके पार हो जाना- यही द्रष्टा की निशानी है ।

45- भारतीय दर्शन की नौ आधार पीठ हैं । इनमें छह आस्तिक हैं यानी वेदों को आधार ग्रन्थ मानने वाले : मीमांसा, वेदान्त, सांख्य, योग, न्याय और वैशेषिक । तीन नास्तिक हैं यानी वेदों से मार्गदर्शन लेने का विरोध करने वाले । यह हैं : बौद्ध, जैन और लोकायत । वेद, ‘विद्’ धातु से बना हुआ है । वेद शब्द का अर्थ होता है- ज्ञान । यह ज्ञान भी दृष्टि पर आधारित है । इसलिए वैदिक मंत्रों के उच्चारक मंत्रद्रष्टा कहे गए हैं । ऐसा माना जाता है कि गहन ध्यान में बीजाक्षर कौंधे । वैदिक विद्वान स्वयं को माध्यम मानते थे और वेदों को अपौरुषेय । ज़्यादातर विद्वान इन्हें 1300 से 1000 ईस्वी के बीच लिखित या अवतरित मानते हैं ।

46- सखाराम गणेश देउस्कर (1869-1912) भारतीय नवजागरण के प्रमुख निर्माताओं में से एक थे । मराठी मूल के लेकिन बंगाली परिवेश में जन्में (वर्तमान झारखण्ड के देवघर के पास करौं नामक गाँव) और पले-बढ़े देउस्कर ने महाराष्ट्र और बंगाल के नवजागरण के बीच सेतु की तरह से काम किया । विचारक, पत्रकार और लेखक देउस्कर की वर्ष 1904 में प्रकाशित कृति देशेर कथा ने नवजागरण काल के प्रबुद्ध वर्ग को सर्वाधिक प्रभावित किया । इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद वर्ष 1910 में देश की बात नाम से हुआ । हिन्दुस्तान के उद्योग धन्धों की बर्बादी का चित्रण करती देउस्कर की यह पुस्तक ब्रिटिश साम्राज्यवाद की ज़ंजीरों में जकड़ी और शोषण के तले जीती- मरती भारतीय जनता के रुदन का दस्तावेज है । तिलक को वह अपना राजनीतिक गुरु मानते थे ।

47- दिनांक 7 मार्च, 1911 को कुशीनगर, उत्तर- प्रदेश के एक उत्खनन शिविर में जन्में सच्चिदानन्द हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय (1911-1987) की पहचान कवि, उपन्यासकार, कला- चिंतक, सभ्यता- समीक्षक, पत्रकार और उपनिवेशवाद विरोधी क्रांतिकारी आन्दोलन के सेनानी के रूप में है । अपने छह दशक लम्बे सृजन कर्म के दौरान प्रभाव, प्रयोग, प्रगति, परम्परा, आधुनिकता, भारतीयता, स्वाधीनता, भाषा, सम्प्रेषण, लेखक और पाठक जैसे विषयों पर चिंतन करके अज्ञेय ने हिन्दी जगत को समृद्ध किया । आधुनिकता के बारे में उनकी मान्यता थी कि वह एक अनगढ़ चीज़ है, न कि एक सिद्ध स्थिति । वह एक प्रक्रिया है । संस्कारवान होने की क्रिया को उन्होंने आधुनिकता करार दिया ।

48- अज्ञेय आज़ादी के आन्दोलन में क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण नवम्बर, 1930 में गिरफ़्तार हुए । छह वर्ष तक जेल और नज़रबंदी भोग कर 1936 में छूटे । 1943 में उन्होंने तार सप्तक का सम्पादन किया । अज्ञेय 1943 में सैन्य सेवा में चले गए जहाँ उनकी तैनाती कोहिमा के मोर्चे पर हुई । 1946 में वहाँ से मुक्त होने पर उन्होंने अपने जीवन को साहित्य साधना के लिए समर्पित कर दिया । अज्ञेय ने अपना एक साहित्यिक नाम कुट्टिचातन् रखा । अज्ञेय ने जापान, अमेरिका और यूरोप की यात्रा किया । वर्ष 2012-13 में कृष्ण दत्त पालीवाल ने 18 खंडों में अज्ञेय रचनावली का संकलन किया जिसे भारतीय ज्ञान पीठ पब्लिकेशन, दिल्ली ने प्रकाशित किया है ।

49- हिन्दी साहित्य में भक्तिकाल तेरहवीं से सोलहवीं सदी तक माना जाता है । इस अवधि को हिन्दी साहित्य के स्वर्ण युग की संज्ञा भी दी जाती है । रामचन्द्र शुक्ल ने अपनी रचना हिन्दी साहित्य का इतिहास में इस दौर को हिन्दुओं के लिए निराशा की अवधि करार देते हुए कहा कि ‘ऐसी दशा में अपनी वीरता के गीत न तो वे गा सकते थे और न बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे’। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी रचना हिन्दी साहित्य की भूमिका में रामचन्द्र शुक्ल के मत का प्रतिवाद करते हुए कहा कि ‘निराशा हिन्दी जाति का स्वभाव नहीं है ।’ रामविलास शर्मा ने भक्तिकाल को लोक जागरण का नाम दिया है ।

50- महाराष्ट्र के सन्त नामदेव (1328-1404) ने हिन्दू- मुसलमान दोनों के लिए भक्ति का सामान्य मार्ग निकालने का प्रयत्न किया । उसके बाद कबीरदास ने विशेष तत्परता के साथ व्यवस्थित रूप से यह मार्ग निर्गुण पंथ के नाम से चलाया । कबीर ने भेदभाव को दूर करते हुए अंत: साधना पर बल दिया । भक्तिकाल में सगुण तथा निर्गुण की दो धाराओं का प्रवाह पन्द्रहवीं से सत्रहवीं शताब्दी तक पूरी निरंतरता के साथ मिलता है । सूफ़ी काव्य धारा की प्रेम गाथाओं में कुतबन की कृति मृगावती, मंझन की कृति मधुमालती, जायसी की कृतियाँ पद्मावत, अखरावट, आख़री कलाम, उसमान की कृति चित्रावली, शेरूपबी की कृति ज्ञानदीप, क़ासिम शाह की कृति हंस जवाहिर का महत्वपूर्ण स्थान है ।

नोट : उपरोक्त सभी तथ्य, अभय कुमार दुबे, द्वारा सम्पादित पुस्तक, समाज विज्ञान विश्वकोश, खण्ड 5, दूसरा संस्करण : 2016, राजकमल प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, ISBN : 978-81-267-2849-7 से साभार लिए गए हैं ।

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Dr. Raj Bahadur Mourya:
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