सुवर्ण भूमि- म्यांमार (भाग-१)

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प्राकृतिक सौंदर्य तथा संसाधनों से परिपूर्ण म्यांमार को प्राचीन काल में सुवर्ण भूमि (सुवन्ना भूमि) के नाम से जाना जाता था। यहां के ८५ प्रतिशत लोग बौद्ध धर्म को मानते हैं। जातकों में इस बात का जिक्र है कि बुद्ध से पहले भी समुद्र के रास्ते यहां से भारत का व्यापार होता था। सम्राट अशोक के ज़माने में सुवर्ण भूमि में बौद्ध धर्म का प्रचार हुआ था

महावंश के अनुसार पाटिल पुत्र सम्मेलन ने सोण स्थविर और उत्तर को २५३ ई. पूर्व सुवर्ण भूमि में धम्म प्रचार के लिए भेजा था।इन लोगों ने यहां पर ३५०० कुमारों तथा १५०० कुमारियों को प्रवज्या दी थी। बर्मी भाषा में म्यांमार को म्यन्मा या बर्मा नाम से भी जाना जाता है। बर्मा नाम अंग्रेजों का दिया हुआ है।

लगभग ६ लाख ७८ हजार ५०० वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में बसे हुए म्यांमार की उत्तर पूर्वी सीमा भारत के मिजोरम, नागालैंड, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश और बांग्लादेश के चटगांव को मिलाती है। दक्षिण- पूर्व के इस सबसे बड़े देश म्यांमार के उत्तर में चीन के उनान प्रांत तथा तिब्बत के साथ सीमा मिलती है। दक्षिण-पूर्व में लाओस और थाईलैण्ड है।

बर्मी भाषा म्यांमार की राजभाषा है जो तिब्बती- बर्मी- भाषा परिवार में आती है।यह एक टोनल भाषा है। बर्मी साहित्य के अंतर्गत बुद्ध वचन (त्रिपिटक), अट्टकथा तथा टीका ग्रंथों के अनुवाद सम्मिलित हैं। यहां के लोग शालीन और शांत स्वभाव के होते हैं। अदब से पेश आने और खातिरदारी के लिए जाने जाते हैं। अजनबियों के साथ अदब और गरिमा से पेश आते हैं। हुनर मंद होते हैं।

श्वेडागोन पगोडा, यांगोन, बर्मा की राजधानी

बुद्ध की संस्कृति म्यांमार के कण-कण में व्याप्त है। यहां के लगभग प्रत्येक गांव में, जंगल में, मार्गों पर और प्रत्येक पहाड़ी पर पगोड़ा मिलेंगे। इनमें से अधिकांश दानशील व्यक्तियों द्वारा निर्मित करवाए गए हैं। यहां पर यह विश्वास प्रचलित है कि इन पवित्र स्तूप और स्मारकों के निर्माण से पुण्य की प्राप्ति होती है। म्यांमार के बौद्ध भिक्षु किसी स्त्री को न छूने की शपथ लेते हैं इसलिए यहां पर स्त्रियां बौद्ध भिक्षुओं के करीब नहीं जाती हैं म्यांमार की राजधानी यांगून की आबादी लगभग ३० लाख है।ऐयारवादी म्यांमार की सबसे लम्बी नदी है। २,१७० किलोमीटर क्षेत्र में प्रवाहित होती यह नदी मरतवन की खाड़ी में गिरने से पहले यह म्यांमार की सबसे उपजाऊ भूमि से होकर गुजरती है।

लगभग ५ करोड़ की आबादी वाले देश म्यांमार में लम्बे समय तक राजवंशों का शासन रहा है। ८४९ ई. में पैगन साम्राज्य, १५१० ई. में ताउनगो राजवंश, १७५२ ई. में कोन बौग राजवंश ने यहां पर राज किया है। इसके बाद बर्मा १८२५ में ब्रिटिश शासन के अधिकार में आ गया। २४ फरवरी १८६२ को अंग्रेजों एवं बर्मियों के मध्य यांडबू की संधि हुई।

सन् १९३७ में म्यांमार, भारत से अलग हो गया। दिनांक ४ जनवरी सन् १९४८ को इसे ब्रिटेन से आजादी मिली। दिनांक २ मार्च १९६२ को म्यांमार में तख्तापलट हुआ। ३० मार्च २०११ को म्यांमार में नया संविधान लागू हुआ। यहां एकात्मक संसदीय संवैधानिक गणतंत्र की सरकार है।‘का मा क्येई, यहां का राष्ट्र गान है। भारत और म्यांमार की आपस में १६०० किलोमीटर लम्बी सीमा है।

माण्डले, बर्मा का दूसरा बड़ा शहर है। यह रंगून से ७१६ किलोमीटर उत्तर में इरावदी नदी के किनारे पर बसा हुआ है।इसे ‘सिटी आफ़ जेम्स, भी कहा जाता है। यहीं की जेल में बहादुर शाह ज़फ़र, बाल गंगाधर तिलक तथा सुभाष चंद्र बोस को ब्रिटिश सरकार ने बन्दी बना कर रखा था। बहादुर शाह ज़फ़र की कब्र भी यहीं पर है। रंगून और मांडले की जेलें भारत के अनगिनत स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बलिदान की गवाह हैं।

बहादुर शाह ज़फ़र की कब्र

भारत की राजधानी नई दिल्ली से लगभग ५४ घंटे का सफर तय कर के, २९८८ किलोमीटर की यात्रा कर सड़क मार्ग से म्यांमार पहुंचा जा सकता है। सड़क के रास्ते दिल्ली-भूटान- म्यांमार तथा पूर्वोत्तर भारत के इंफाल से यहां प्रवेश किया जा सकता है।नई दिल्ली से हवाई जहाज का किराया लगभग १२ हजार रुपए है जबकि कोलकाता से मात्र ९ हजार रुपए। म्यांमार के लिए भारत से बीजा आन अराइवल की सुविधा के साथ ही ई. बीजा की भी व्यवस्था है।

दिनांक ९ अगस्त २०१८ से भारत और म्यांमार के बीच, मणिपुर की सीमा से सटे हुए शहर मोरे से फ्रेंडशिप ब्रिज की शुरुआत की गई है। इस अंतरराष्ट्रीय सीमा से म्यांमार के अंदर १६ किलोमीटर क्षेत्र में, तामू कस्बे तक बिना पासपोर्ट अथवा परमिट आने- जाने की छूट दी गई है। इसके आगे जाने के लिए पासपोर्ट और वीज़ा की आवश्यकता पड़ेगी।

वर्ष १९९१ में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित आंग सान सू की म्यांमार की विश्व प्रसिद्ध हस्ती हैं जिन्हें संघर्ष का प्रतीक माना जाता है। वर्तमान समय में वह सरकार की काउंसलर हैं। १९ जून सन् १९४५ को रंगून में जन्मी आंग सान सू की के पिता आंग सान को बर्मा के राष्ट्रपिता के रूप में जाना जाता है। १९४७ में उनकी हत्या कर दी गई थी। आंग सांग सू की की मां खिनकई को सन् १९६० में भारत और नेपाल में बर्मा का राजदूत नियुक्त किया गया था।

नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित आंग सान सू

इसी दौरान सन् १९६४ में आंग सान सू की ने भारत के श्री राम लेडी कालेज दिल्ली से राजनीति विज्ञान में स्नातक किया। वर्ष १९९२ में भारत सरकार के द्वारा आंग सान सू की को जवाहर लाल नेहरू पुरस्कार दिया गया। लगभग २० वर्ष तक उन्होंने क़ैद में बिताए। १३ नवम्बर २०१० को उन्हें रिहा किया गया। उनके पति डॉक्टर माइकल कर्टिस की मात्र ५३ वर्ष की आयु में प्रोस्टेट कैंसर से मृत्यु हो गई।

– डॉ. राज बहादुर मौर्य, फोटो गैलरी-संकेत सौरभ अध्ययन रत एम.बी.बी.एस., झांसी, उत्तर प्रदेश

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Dr. Raj Bahadur Mourya:

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