– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज झांसी (उ. प्र.) फोटो गैलरी एवं प्रकाशन प्रभारी – डॉ. संकेत सौरभ, झांसी, (उत्तर- प्रदेश) भारत।email : drrajbahadurmourya @ gmail.com, website : themahamaya.com
1- सामाजिक विज्ञानों के अध्ययन के क्षेत्र में वियना सर्किल ने तार्किक प्रत्यक्षवाद को एक आन्दोलन का रूप दिया। यह सम्प्रदाय वर्ष 1920 के दशक में वियना विश्वविद्यालय के मोरिट्ज श्लिक (1882 -1936) के नेतृत्व में स्थापित हुआ। ग्रेट ब्रिटेन में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में यह लुडविख विट्जेंस्टाइन (1889 -1951) के नेतृत्व में आगे बढ़ा। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में एक. ज. एयर (1910 -1989) ने इसके विकास में योगदान किया।
2- फ्रेडरिक वाट्किंस के अनुसार, ‘‘राजनीति विज्ञान का उपयुक्त विषय राज्य या अन्य किसी संस्थागत ढांचे का अध्ययन करना नहीं, बल्कि उन साहचर्यों का अन्वेषण करना है जो शक्ति की समस्या का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं और यह बात सिद्ध की जा सकती हो।’’ वस्तुत: शक्ति के बिना राजनीति अधूरी है।शक्ति के बिना समाज में शांति, व्यवस्था, न्याय, सुरक्षा और खुशहाली स्थापित नहीं की जा सकती।
3– हेरल्ड लॉसवेल के अनुसार, राजनीति का सरोकार शक्ति को संवारने और मिल बांट कर उसका प्रयोग करने से है। रॉबर्ट डॉल ने भी लिखा है कि, राजनीति में शक्ति, शासन या सत्ता का विस्तृत प्रयोग किया जाता है। माइकल कर्टिस के शब्दों में, ‘‘राजनीति का अर्थ शक्ति और उसके प्रयोग के बारे में व्यवस्थित विवाद है। इसके अंतर्गत प्रतिस्पर्धी मूल्यों, विचारों, व्यक्तियों, हितों और मांगों में से किसी न किसी का चयन करना होता है।’’
4- आर. एम. मैकाइवर ने वर्ष 1965 में प्रकाशित अपनी पुस्तक, ‘द वैब ऑफ गवर्नमेंट’ के अंतर्गत शक्ति को परिभाषित करते हुए लिखा कि, ‘‘ यह किसी भी सम्बन्ध से जुड़ी हुई ऐसी क्षमता है जिसमें दूसरों से कोई काम लिया जाता है या आज्ञा पालन कराया जाता है।’’ बट्रैंड रसेल के शब्दों में, शक्ति से तात्पर्य है मनचाहा प्रभाव पैदा करना।
5- जे. जे. रूसो ने वर्ष 1972 में प्रकाशित अपनी पुस्तक, ‘ द सोशल कांट्रैक्ट’ के अंतर्गत लिखा है कि, ‘‘ सबसे बलशाली मनुष्य भी सदा- सर्वदा के लिए तब तक स्वामी नहीं बना रहेगा, जब तक उसकी शक्ति को अधिकार का रूप न दे दिया जाए और आज्ञा पालन को कर्तव्य का रूप न दे दिया जाए।’’ अर्थात् शक्ति को सत्ता और वैधता दोनों की जरूरत होती है।केवल शक्ति नंगी तलवार है और सत्ता म्यान में ढंकी हुई तलवार है।
6 – जर्मन समाज वैज्ञानिक मैक्स वेबर ने सत्ता के तीन प्रकार माने हैं- परम्परागत सत्ता, करिश्माती सत्ता और कानूनी- तर्क संगत सत्ता।मैरियन लेवी जूनियर ने अपनी चर्चित कृति, ‘ मॉडर्नाइजेशन एंड द स्ट्रक्चर ऑफ सोसायटीज’ (1966) के अंतर्गत तर्क दिया कि, ‘‘प्रौद्योगिकी आधुनिकीकरण का मूल मंत्र है।’’
7– एस. एम. लिपसेट ने वर्ष 1959 में प्रकाशित अपनी पुस्तक, ‘ पॉलिटिकल मैन – द सोशल बेसिस ऑफ पॉलिटिक्स’ के अंतर्गत यह तर्क दिया है कि, ‘ किसी राजनीतिक प्रणाली की वैधता लोगों के मन में यह विश्वास पैदा करने और कायम रखने की क्षमता का संकेत देती है कि वर्तमान राजनीतिक संस्थाएं समाज के लिए सर्वथा उपयुक्त हैं।’’
8– जे. एच. स्कार ने वर्ष 1981 में प्रकाशित अपनी पुस्तक, ‘ लेजिटिमेसी इन द मॉडर्न स्टेट’ के अंतर्गत लिखा कि, ‘‘ आज के युग में वैधता को विश्वास का विषय माना जाता है।यदि लोगों के मन में यह विश्वास हो कि वर्तमान संस्थाएं उपयुक्त हैं, या नैतिक दृष्टि से उचित हैं तो उन संस्थाओं को वैध माना जाता है।’’ लोकतंत्र का मुख्य लक्षण वैधता ही है।
9- वैधता शक्ति और सत्ता के बीच की कड़ी है।कोई भी शासक वैधता के सहारे लोगों के ह्रदय पर शासन करता है।लोग उसके आगे स्वेच्छा से सिर झुकाते हैं।जॉन लॉक ने लोगों की सहमति को वैधता का आधार बनाया। रूसो ने लोकप्रिय सम्प्रभुता के विचार को राज्य की वैधता का आधार बनाकर लोकतंत्र की भावना को बढ़ावा दिया। आधुनिक युग में लोकतंत्र में जनसाधारण की सहभागिता को राज्य की वैधता का प्रमाण माना जाता है।
10– डेविड ईस्टन ने वर्ष 1965 में प्रकाशित अपनी विख्यात कृति, ‘ द सिस्टम्स एनालिसिस ऑफ पॉलिटिकल लाइफ’ में लिखा है कि, ‘‘ किसी राजनीतिक प्रणाली को कितना जन समर्थन प्राप्त है- इस बात का पता लगाने के लिए यह देखना चाहिए कि उसके अंतर्गत कानून के उलंघन की कितनी घटनाएं होती हैं, हिंसा कहां तक फैली हुई है, असहमति आन्दोलनों का आकार कितना बड़ा है और सुरक्षा की व्यवस्था पर कितना धन खर्च किया जाता है।’’
11– अंग्रेजी साहित्यकार विलियम हैजलिट (1778 -1830) ने अपनी रचनाओं में शक्ति के रचनात्मक पहलू को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि, ‘‘ स्वतंत्रता से लगाव का अर्थ है, दूसरों से लगाव। इसके विपरीत, शक्ति से लगाव का अर्थ है अपने से लगाव।’’ इसका निहितार्थ है कि स्वतंत्रता का सिद्धांत यह मांग करता है कि हम स्वार्थ की पूर्ति के लिए दूसरों पर शक्ति का प्रयोग न करें बल्कि अपनी स्वतंत्रता को दूसरों की स्वतंत्रता में बाधक कभी न बनने दें।
12– जर्मन यहूदी महिला दार्शनिक हन्ना आरेंट (1906-1975) ने वर्ष 1969 में प्रकाशित अपनी विख्यात कृति, ‘ ऑन वॉयलेंस’ ने हिंसा और शक्ति में अंतर करते हुए लिखा है कि, ‘‘ शक्ति सार्वजनिक जगत को एकजुट रखती है जबकि हिंसा उसके लिए खतरा पैदा करती है।’’ शक्ति का सम्बन्ध जनसाधारण से है और जब शासक जनसाधारण की इच्छा के विरुद्ध अपना प्रयोजन सिद्ध करने के लिए बल का प्रयोग करते हैं तो यह हिंसा है।
13- हन्ना आरेंट के शब्दों में, शक्ति और सत्ता में, सत्ता का सम्बन्ध आदेश देने और उसका पालन करने के क्षेत्र से है। केवल शक्ति ही वैध सत्ता का सृजन कर सकती है, हिंसा कभी भी ऐसा नहीं कर सकती है।आरेंट ने अपने एक निबंध, ‘ ऑन पब्लिक हैप्पीनेस’(1970) के अंतर्गत लिखा है कि, अमेरिका में किसी व्यक्ति को तब तक सुखी नहीं माना जाता, जब तक वह सार्वजनिक सुख में हिस्सा नहीं लेता और किसी व्यक्ति को तब तक स्वतंत्र नहीं माना जाता, जब तक वह सार्वजनिक स्वतंत्रता में हिस्सा नहीं लेता।
14– कनाडा के राजनीतिक दार्शनिक सी. बी. मैक्फर्सन (1911-1987) ने वर्ष 1983 में प्रकाशित अपनी विख्यात कृति, ‘ डेमोक्रेटिक थ्योरी- ऐस्सेज इन रिट्रीवल’ में दो प्रकार की शक्तियों में अंतर किया है : पहली, दोहन शक्ति और दूसरी, विकासात्मक शक्ति।दोहन शक्ति का अर्थ यह है कि वह अपने उद्देश्यों की सिद्धि के लिए दूसरों की क्षमताओं का कितना प्रयोग कर सकता है। विकासात्मक शक्ति से यह प्रकट होता है कि मनुष्य अपनी मूल मानवीय क्षमताओं का कितना प्रयोग और विकास कर सकता है।
15– सी. बी. मैक्फर्सन के अनुसार मनुष्य की विकासात्मक शक्ति का अधिकतम विस्तार ही उसकी सृजनात्मक स्वतंत्रता की कुंजी है। जीवन निर्वाह के पर्याप्त साधनों का अभाव, श्रम के प्रयोग के साधनों तक पहुंच का अभाव तथा दूसरों के अतिक्रमण से संरक्षण का अभाव, इस मार्ग की बाधाएं हैं। गांधी जी ने 1925 में यंग इंडिया में लिखा, ‘‘ यदि इने गिने लोग सत्ता प्राप्त कर लेंगे तो उससे सच्चा स्वराज नहीं आएगा। यह तब आएगा जब कहीं भी सत्ता का दुरूपयोग होने पर लोग उसका विरोध करना सीख जाएंगे।’’
16- फ्रांसीसी दार्शनिक, मार्क्वी द कंदोर्से (1743 -1794) को प्रगति का सिद्धांतकार माना जाता है। उसने अपनी चर्चित कृति, ‘ स्केच फॉर एन इस्टोरिकल पिक्चर ऑफ द प्रोग्रैस ऑफ द ह्यूमन माइंड (1795) के अंतर्गत यह तर्क दिया कि वंचित वर्गों में ज्ञान के प्रसार से उस उत्पीड़न, मूर्खताओं और अंधविश्वासों पर विजय प्राप्त की जा सके, जिससे मानव समाज अतीत में ग्रस्त रहा है।गुस्ताव ल बां ने कहा कि, ‘‘ विज्ञान ने हमें सत्य का ज्ञान कराने का वचन दिया है। इसने सुख या शांति स्थापित करने का वचन कभी नहीं दिया।’’
17– हेरल्ड जे. लास्की (1893 -1950) ने अपनी चर्चित पुस्तक, ‘ ए ग्रामर ऑफ पॉलिटिक्स’ (1938) के अंतर्गत लिखा है कि, ‘‘ सम्पत्ति व्यवस्था का औचित्य मनोवैज्ञानिक, नैतिक और ऐतिहासिक आधार पर स्थापित किया जा सकता है। सम्पत्ति का अधिकार मनुष्य को श्रम की प्रेरणा देता है। मनुष्य को अपनी योग्यता और परिश्रम का पुरस्कार सम्पत्ति के रूप में ही मिलता है। परन्तु जिन लोगों की सम्पत्ति दूसरों के परिश्रम का फल है- अपने परिश्रम का नहीं, वे समाज का ख़ून चूसने वाली जोंक की तरह हैं।’’
18– प्रतिनिधित्व के प्रतिक्रियावादी सिद्धांत के मुख्य प्रवर्तक टॉमस हॉब्स (158 -1679) और एलेक्जेंडर हैमिल्टन (1756 -1804) हैं। जबकि रूढ़िवादी प्रतिनिधित्व का सिद्धांत एडमंड बर्क (1729 -1797) और जेम्स मेडिसन (1751 -1836) की देन है। प्रतिनिधित्व के उदारवादी सिद्धांत के मुख्य प्रवर्तक जॉन लॉक (1632 -1704) तथा टॉमस जैफर्सन (1743 -1826) माने जाते हैं। प्रतिनिधित्व का आमूल परिवर्तनवादी सिद्धांत ज्यां जाक रूसो (1712 -1778) तथा नव वामपंथी विचारधारा की देन है।
19– किसी देश में जिन लोगों को मतदान का अधिकार होता है, उनके समुच्चय को निर्वाचक मंडल कहते हैं।जिस निर्वाचन क्षेत्र से किसी विधान मंडल के लिए एक सदस्य चुना जाना हो उसे एक सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र कहते हैं। जहां से एक ही विधानमंडल के एक से अधिक सदस्य चुने जाने हों उसे बहुसदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र कहते हैं। आधुनिक लोकतंत्र में राजनीतिक समानता के सिद्धांत के अनुसार एक व्यक्ति, एक वोट की पद्धति अपनाई जाती है।
20 – सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के लिए सार्वजनीन वयस्क मताधिकार की स्थापना आवश्यक है। प्राचीन यूनान में वयस्क मताधिकार सार्वजनीन नहीं था। वयस्क मताधिकार में प्रत्येक व्यक्ति शासन में अपनी हिस्सेदारी अनुभव करता है। सभी को बराबर राजनीतिक महत्व मिलता है। वर्तमान समय में भारत में वयस्क मताधिकार की उम्र १८ वर्ष है। एडवर्ड बेलामी (1850 -1898) ने कहा है कि, ‘‘ लोकतंत्र का प्रमुख सिद्धांत व्यक्ति की मूल्यवत्ता और गरिमा है।’’
21- श्रेणी समाजवादी इंग्लैंड के समाजवादियों का एक विचार सम्प्रदाय था, जिसने बीसवीं शताब्दी के आरंभ में यह विचार रखा कि उत्पादन के प्रमुख साधनों पर तो राज्य का स्वामित्व रहना चाहिए, परन्तु उत्पादन का प्रबंध कामगारों की विविध श्रेणियों अर्थात् भिन्न भिन्न व्यवसायों से जुड़े मजदूर संघों के हाथों में दे देना चाहिए। इस विचार सम्प्रदाय का प्रमुख उन्नायक जी. डी. एच. कोल (1889 -1959) था।
22– गौरवमयी क्रांति, इंग्लैंड के इतिहास में, 1688 का वह युगान्तर कारी परिवर्तन है, जिसमें जेम्स द्वितीय (1633 -1701) को राजसिंहासन से हटाकर उसकी जगह उसकी पुत्री मेरी तथा मेरी के पति विलियम ऑफ ऑरेंज का राज्याभिषेक किया गया था और राजमुकुट की शक्तियां बहुत सीमित कर दी गई थीं। इस तरह किसी रक्तपात के बिना इंग्लैंड में पूर्ण सत्तावादी राजतंत्र की जगह संवैधानिक राजतंत्र स्थापित कर दिया गया था।
23– फ्रांसीसी क्रांति, फ्रांस के इतिहास की वह युगान्तर कारी घटना है, जिसका प्रारम्भ 1789 में हुआ।इसके अंतर्गत मध्य वर्ग ने संगठित होकर सम्राट लुई 16 वें (1754 -1793) को सत्ता से हटाकर राजतंत्र का अंत कर दिया था और कुलीन वर्ग के प्रभुत्व को समाप्त करके जनसाधारण की प्रभुसत्ता स्थापित कर दी थी।फ्रांज काफ्का ने लिखा है कि, ‘‘ प्रत्येक क्रांति वाष्प की तरह उड़ जाती है और अपने पीछे नए अधिकारीतंत्र की दलदल छोड़ जाती है।’’
24- फ्रांसीसी दार्शनिक अलेक्सी द ताकवील (1805-1859) ने अपनी विख्यात कृति, ‘द ओल्ड रिजीम एंड द फ्रेंच रिवोल्यूशन’ (1856) में फ्रांसीसी क्रांति और उसके प्रभावों का अध्ययन किया है। उसने तर्क दिया कि, ‘‘ फ्रांसीसी क्रांति ने पुराने अभिजाततंत्र की शक्ति को नष्ट कर दिया है और सामंती समाज से जुड़े कानूनों और प्रथाओं को भी समाप्त कर दिया है। परन्तु राज्य शक्ति का केन्द्रीयकरण पहले से अधिक बढ़ गया है।’’
25– चूंकि सामाजिक परिवर्तन का विश्लेषण मार्क्स वादी चिंतन का केन्द्रीय विषय है, इसलिए वहां क्रांति को प्रगति का रास्ता मानकर उसे बढ़ावा दिया गया है। मार्क्स ने थीसेज ऑन फेयरबॉख (1845) में लिखा है कि, ‘‘ दार्शनिकों ने केवल विश्व की व्याख्या दी है, परन्तु प्रश्न तो इसे बदलने का है।’’ इस प्रकार क्रांति सामाजिक परिवर्तन का अनिवार्य माध्यम है।
26- वर्ग संघर्ष, मार्क्स वाद के अनुसार, धनवान और निर्धन वर्गों का वह संघर्ष है जो सभ्यता के आरम्भ से मानव समाज की विशेषता रही है। प्राचीन काल में स्वामी और दास, मध्य काल में जमींदार और किसान और आधुनिक काल में पूंजीपति और कामगार इस वर्ग संघर्ष के प्रमुख पात्र रहे हैं। इनमें एक वर्ग सामाजिक उत्पादन के साधनों का स्वामी होता है और दूसरा अपने निर्वाह के लिए श्रम करने को विवश होता है।इन दोनों के हित परस्पर विरोधी होते हैं।
27- ब्लादीमिर लेनिन (1870-1924) ने कहा कि, ‘‘ साम्राज्यवाद पूंजीवाद की उच्चतम अवस्था है, और रूस साम्राज्यवाद की जंजीर की सबसे कमजोर कड़ी था।’’ माओ- त्से- तुंग (1893-1976) ने चीन में क्रांति के बाद चिर स्थाई संघर्ष के प्रतिकार के लिए निरंतर क्रांति का सिद्धांत प्रस्तुत किया।
28- अमेरिकन इतिहासकार क्रेन ब्रिंटन (1898-1968) ने अपनी चर्चित कृति, ‘ द एनॉटमी ऑफ रिवोल्यूशन’ (1938) तथा हिस्ट्री ऑफ सिविलाइजेशन (1955) में इंग्लैंड, अमरीका, फ्रांस और रूस की क्रांतियों का तुलनात्मक अध्ययन किया है। अपने अध्ययन में उन्होंने कहा कि, इन देशों में क्रांतियों का मुख्य कारण- प्रतिबन्ध और विवशताओं के कारण लोगों की झुंझलाहट, विकास की दौड़ में पिछड़ जाने की व्यथा, बुद्धि जीवियों की निष्ठा का बदलना, सरकारों द्वारा परिस्थितियों को सम्भाल न पाने की क्षमता और सरकारों के द्वारा आत्मविश्वास का खोना प्रमुख कारण रहे हैं।
29– सी. जॉनसन ने वर्ष 1966 में प्रकाशित अपनी विख्यात कृति, ‘ रिवोल्यूशनरी चेंज’ में क्रांति को समाज के आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में भारी और चिरस्थाई असंतुलन का परिणाम माना है।बैरिंगटन मूर जूनियर ने वर्ष 1966 में प्रकाशित अपनी विख्यात कृति, ‘ सोशल ओरिजिन्स ऑफ डिक्टेटरशिप एंड डेमोक्रेसी’ में लिखा है कि, जिस तरीके को अपनाकर कोई देश परम्परागत समाज से ऊपर उठकर आधुनिक राष्ट्र के रूप में उभरता है, वही उस देश की क्रांति का तरीका है।मूर ने तीन तरीके की क्रांति का जिक्र किया है- बुर्जुआ क्रांति, उच्च वर्गीय क्रांति और कृषक क्रान्ति।
30– सेम्युअल पी. हंटिंगटन ने वर्ष 1968 में प्रकाशित अपनी पुस्तक, ‘ पॉलिटिकल आर्डर इन चेंजिंग सोसायटीज’ के अंतर्गत लिखा कि, ‘‘ जब आधुनिकीकरण के प्रभाव से किसी देश के लोगों के मन में राजनीतिक सहभागिता की आशा बहुत बढ़ जाती है, परन्तु उनकी इस मांग को पूरा करने के लिए उपयुक्त संस्थाएं विकसित नहीं हो पाती हैं तो जन साधारण के मन में विद्रोह की भावना पनपने लगती है।’’
31– टी. आर. गर ने वर्ष 1970 में प्रकाशित अपनी पुस्तक, ‘ ह्वाई मैन रिबैल’ के अंतर्गत तर्क दिया कि, ‘‘ आधुनिकीकरण की प्रक्रिया ने शिक्षा और संचार के साधनों का त्वरित विस्तार करके लोगों की आशाएं बहुत बढ़ा दी हैं, परन्तु उनकी खुशहाली का स्तर उतनी तेजी से ऊंचा नहीं हो पाया है। यह स्थिति कुछ लोगों के मन में सापेक्ष वंचन की अनुभूति को जगाती है जो व्यापक निराशा, कुंठा और आक्रमण के रूप में प्रकट होती है।’’
32– सी. टिली, एल. टिली और आर. टिली ने अपनी वर्ष 1975 में प्रकाशित पुस्तक, ‘ रिबैलियस सेंचुरी- 1830 -1930’ के अंतर्गत सामूहिक हिंसा के अनुभव मूलक अध्ययन के आधार पर दिखाया कि हड़ताल और दंगा फसाद उस दौर में होते हैं जब मजदूरों, मालिकों और सरकार के शक्ति सन्तुलन में परिवर्तन के कारण अपनी ताकत का अहसास होने लगता है और उन्हें अपने हितों की रक्षा के लिए उपयुक्त अवसर मिल जाता है।
33– टी. स्कॉक्पोल ने वर्ष 1979 में प्रकाशित अपनी विख्यात कृति, ‘ स्टेट्स एंड सोशल रिवोल्यूशन’ के अंतर्गत लिखा है कि, ‘‘ क्रांति न तो असुंतलन से पैदा होती है, न सापेक्ष वंचन की अनुभूति से। यह असंतुष्ट समूहों के नियोजित आंदोलनों का परिणाम भी नहीं है।सच्ची बात यह है कि जब कभी सरकारें वित्तीय संकट में होती हैं या अंतर्राष्ट्रीय दबाव में होती हैं और इसी समय संगठित कृषक वर्ग सरकार को चुनौती देने का साहस जुटा लें, तब क्रांति जन्म लेती हैं।’’
34– अधिकार, राज्य के अंतर्गत व्यक्ति को प्राप्त होने वाली ऐसी अनुकूल परिस्थितियाँ और अवसर हैं जिनसे उसे आत्म विकास में सहायता मिलती है। लास्की के अनुसार, ‘‘ अधिकार सामाजिक जीवन की वे परिस्थितियाँ हैं जिसके बिना आम तौर पर कोई व्यक्ति पूर्ण आत्मविकास की आशा नहीं कर सकता।’’ अर्नेस्ट बार्कर के अनुसार, ‘‘ अधिकार न्याय की उस सामान्य व्यवस्था का परिणाम है जिस पर राज्य और उसके कानून आधारित हैं।’’
35- विधि के शासन की संकल्पना ब्रिटिश राजव्यवस्था में निहित है, जबकि कानून की यथोचित प्रक्रिया अमेरिकी संविधान की विशेषता है। इस विचार को अमेरिकी संविधान के पाँचवें संशोधन (1791) और चौदहवें संशोधन (1867) के अंतर्गत औपचारिक अभिव्यक्ति प्रदान की गई है।इसका ध्येय यह सुनिश्चित करना है कि शासन अपनी शक्ति का प्रयोग केवल कानून की व्यवस्थाओं के अनुरूप करेगा।
36- एच. सी. मार्शल ने वर्ष 1959 में प्रकाशित अपनी महत्वपूर्ण कृति, ‘ नेचुरल जस्टिस’ में प्राकृतिक न्याय के दो मूल तत्वों का उल्लेख किया है, प्रथम- कोई भी व्यक्ति स्वयं अपने मामले का न्यायाधीश नहीं होगा और दूसरे, दोनों पक्षों की सुनवाई अवश्य की जाएगी। लार्ड डैनिंग के अनुसार, ‘‘ इंग्लैंड में न्यायधीशों की स्वाधीनता विधि के शासन की आधारशिला रही है।’’
37– धर्मनिरपेक्ष या लौकिक उसे कहा जाता है जिसका सम्बन्ध इस लोक से हो, परलोक से नहीं। भौतिक जगत से हो, आध्यात्मिक जगत से नहीं। अतः धर्म निरपेक्ष वह है जो धार्मिक उद्देश्य या उपयोग के लिए समर्पित न हो। भारत में धर्म निरपेक्षता केवल शासन का सिद्धांत नहीं है बल्कि वह राष्ट्रीयता का मूल मंत्र है और धार्मिक सहिष्णुता का मार्गदर्शक सिद्धांत है।
38- दासता या गुलामी वह स्थिति है जिसमें कोई मनुष्य कानूनी तौर पर दूसरे मनुष्य की निजी सम्पत्ति माना जाता है। अब्राहम लिंकन ने कहा है कि, ‘‘ जब कभी मैं किसी को दास प्रथा के पक्ष में दलील देते हुए सुनता हूं तो मेरा मन पुकार उठता है कि इस प्रथा को स्वयं उस व्यक्ति पर आजमाकर देखना चाहिए।’’
39– सामाजिक समझौते का सिद्धांत राज्य की उत्पत्ति के बारे में उदारवादी दृष्टिकोण से जुड़ी हुई व्याख्या प्रस्तुत करता है। यह राज्य के यंत्रीय सिद्धांत के साथ निकट से जुड़ा हुआ है। इस सिद्धांत के प्रवर्तकों में अंग्रेज दार्शनिक, टॉमस हॉब्स (1588-1679), जॉन लॉक (1632-1704) और फ्रांसीसी विचारक ज्यां जॉक रूसो (1712-1778) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। टॉमस हॉब्स ने सामाजिक अनुबंध सम्बन्धी विचार अपनी प्रसिद्ध पुस्तक लेवियाथन (1651) में प्रस्तुत किया है।
40– हॉब्स के अनुसार ‘‘ मैं स्वयं अपना शासक होने के अधिकार को छोड़कर इस मनुष्य या इस सभा को शासन का अधिकार सौंपता हूं, शर्त यह है कि तुम भी अपना यह अधिकार छोड़ दो और इसके कार्यों को वैसी ही मान्यता प्रदान करो।’’ हॉब्स के इस समझौते में प्रभु सत्ता धारी भागीदार नहीं है क्योंकि वह पहले से मौजूद नहीं था बल्कि समझौते के फलस्वरूप अस्तित्व में आया है। यहां प्रभुसत्ताधारी सर्वोच्च है।
41- सामाजिक अनुबंध के बारे में जॉन लॉक के विचार उसकी प्रसिद्ध कृति ‘ टू ट्रीटिजेस ऑफ सिविल गवर्नमेंट’(1960) के अंतर्गत मिलते हैं।लॉक ने प्राकृतिक अवस्था को शांति, सद्भावना, परस्पर सहायता और रक्षा की अवस्था माना है।लॉक के अनुसार प्राकृतिक कानून का अर्थ है- नैतिकता के वे नियम जो मनुष्य की अंतरात्मा पर अंकित होते हैं।लॉक ने समाज की स्थापना और सरकार की स्थापना में अंतर किया है।
42- रूसो ने अपनी महत्वपूर्ण कृति, ‘ सोशल कांट्रेक्ट’(1762) के अंतर्गत लिखा है कि, ‘‘ मनुष्य स्वतंत्र पैदा होता है, परन्तु वह सब जगह बेड़ियों में जकड़ा हुआ है।’’ रूसो ने सामान्य इच्छा को प्रभु सत्ता का पात्र माना है। परन्तु उसने व्यक्ति की तात्कालिक इच्छा और तात्विक इच्छा में अंतर किया है। ज़हां तात्कालिक इच्छा मनुष्य के स्वार्थ और लाभ पर आधारित है वहीं तात्विक इच्छा सबके हित से जुड़ी हुई है। सामान्य इच्छा पूरे समुदाय की तात्विक इच्छा को व्यक्त करती है।
43– टी. एच. ग्रीन (1836-1882) ने वर्ष 1882 में प्रकाशित अपनी विख्यात कृति, ‘ लेक्चर्स ऑन द प्रिंसिपल्स ऑफ पॉलिटिकल ऑब्लिगेशन’ के अंतर्गत सामाजिक समझौते के सिद्धांत की आलोचना करते हुए लिखा कि, ‘‘ जिस प्रतिज्ञापत्र के द्वारा पहले- पहल राज्य शक्ति की स्थापना की गई, ऐसा कोई प्रतिज्ञापत्र मान्य नहीं हो सकता।जिन लोगों ने इसे स्वीकार किया, वे कोई मान्य प्रतिज्ञापत्र स्वीकार करने की स्थिति में नहीं थे।’’
44– टॉमस पेन (1737-1809) ने भी सामाजिक समझौते की आलोचना करते हुए लिखा कि, ‘‘ सामाजिक समझौते का ( तथाकथित) सिद्धांत अनंत काल तक बाध्यकर है, इसलिए यह प्रगति के पहिए में रोड़ा अटकाता है।’’ सी. बी. मैक्फर्सन (1911-1987) ने भी लिखा है कि, ‘‘ हॉब्स और लॉक का सामाजिक समझौता सिद्धांत उस बुर्जुआ चिंतन का प्रतीक है जिसने पूंजीवादी व्यवस्था को सर्वमान्य नियम का रूप देने का प्रयत्न किया।’’
45– प्रख्यात चिंतक अंग्रेजी दार्शनिक ( सिरिल एडविन मिचिन्सन जोड ) सी. ई. एम. जोड ने वर्ष 1924 में प्रकाशित अपनी पुस्तक, ‘ इंट्रोडक्शन टू मॉडर्न पोलिटिकल थ्योरी’ में समाजवाद के बारे में कहा है कि, ‘‘ समाजवाद एक ऐसे टोप की तरह है जिसे हर कोई पहन लेता है, इसलिए अब उसकी शक्ल पहचानने में नहीं आती।’’ जी. डी. कोल के अनुसार, ‘‘ समाजवाद एक आन्दोलन भी है और एक विचार भी।’’
46– वर्ष १९८३ में फ्रैड्रिक एंगेल्स (1820-1895) ने कार्ल मार्क्स की समाधि पर दिए गए भाषण में कहा था कि, ‘‘ जैसे डार्विन ने जैव प्रकृति के विकास के नियम की खोज की, वैसे ही मार्क्स ने मानव इतिहास के विकास का नियम खोज निकाला।’’ उन्होंने अपनी चर्चित कृति ‘‘ सोशलिज्म- यूटोपियन एंड साइंटिफिक’’ (1892) के अंतर्गत वैज्ञानिक समाजवाद की प्रकृति पर यथेष्ठ प्रकाश डाला है।’’
47- अमेरिकन समाजशास्त्री, नील जोसेफ स्मेल्सर (1930-2017) ने वर्ष 1962 में प्रकाशित अपनी पुस्तक, ‘ थ्योरी ऑफ कलैक्टिव बिहेवियर’ के अंतर्गत सामाजिक आन्दोलन के, ‘ सामाजिक उथल-पुथल के परिणाम का सिद्धांत’ प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि, ‘‘ जब सामाजिक परिवर्तन बहुत तीव्र गति से होते हैं और समाज संरचनात्मक तनाव से ग्रस्त होता है, तब सामाजिक आंदोलन का आविर्भाव होता है।’’
48– डी. मैकऐडम ने ‘ ए हैंडबुक ऑफ सोश्योलॉजी’ ( सम्पादक-एन स्लेमर) ने सामाजिक परिवर्तन आन्दोलन के ‘ राजनीति के वैकल्पिक साधन’ के सिद्धांत का निरूपण किया। उन्होंने कहा कि, ‘‘ सामाजिक आंदोलन को सामाजिक असामान्यता की अभिव्यक्ति मानना युक्तिसंगत नहीं है। यह केवल राजनीति का वैकल्पिक साधन है।जब कोई शक्तिहीन समूह प्रचलित व्यवस्था को चुनौती देना चाहता है तो उसके पास यही एकमात्र साधन रह जाता है।’’
49– एंथनी गिडेंस ने अपनी विख्यात कृति, ‘ द कांसिक्वेंसेज ऑफ मॉडर्निटी’ (1990) में लिखा है कि, ‘‘ अनेक समकालीन सामाजिक आन्दोलन विश्वव्यापी सामाजिक सम्बन्धों का परिणाम हैं।जबकि जेन जेंसन ने वर्ष 1995 में प्रकाशित अपनी पुस्तक, ‘ सोशल मूवमेंट एंड कल्चर’ ( सम्पादक एच. जॉनस्टन और बी. क्लैंडरमैंस) ने सामाजिक आन्दोलन में ‘ सांस्कृतिक पहचान का सिद्धांत’ दिया। उन्होंने कहा कि लोगों की संस्कृति सामाजिक आन्दोलन के आविर्भाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
50– अमेरिकन समाजशास्त्री, रैल्फ हर्बर्ट टर्नर (1919-2014) और ल्यूइस किलियन ने ‘ कलेक्टिव बिहेवियर’ (1957) के अंतर्गत मोटे तौर पर सामाजिक आन्दोलनों को तीन श्रेणियों में रखा है- मूल्य केन्द्रित आन्दोलन, शक्ति केन्द्रित आन्दोलन और सहभागिता केन्द्रित आन्दोलन।जबकि डेविल एबर्ले ने वर्ष 1966 में प्रकाशित अपनी पुस्तक, ‘ पियोटे रिलिजन एमंग द नवोहो’ के अंतर्गत 4 प्रकार के सामाजिक आन्दोलनों की पहचान किया है- पूर्ण परिवर्तन वादी आन्दोलन, उद्धारवादी आन्दोलन, सुधारवादी आंदोलन और अल्पपरिवर्तनवादी आन्दोलन।
– नोट- उपरोक्त सभी तथ्य, ओम् प्रकाश गाबा, की पुस्तक ‘राजनीति विज्ञान विश्वकोष, ISBN 81-214-0683-8, प्रकाशन- नेशनल पब्लिशिंग हाउस, २/३५, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली, से साभार लिए गए हैं।
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sir indian thinker ke thouths ko bhi btaiyega
सर, आपका प्रयास बहुत महान है। आपके लेख हमारे राजनीति विज्ञान विषय के ज्ञान कोश बढ़ाते हैं।
सर, राजनीतिक चिंतन पर भी लिखिये
विशाल शर्मा, परास्नातक राजनीति विज्ञान, झाँसी
धन्यवाद, विशाल जी। मैं अवश्य प्रयास करूंगा।