– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी । -फ़ोटो गैलरी एवं प्रकाशन प्रभारी – डॉ. संकेत सौरभ, झाँसी, उत्तर- प्रदेश, भारत, email : drrajbahadurmourya @ gmail. Com, website : themahamaya. Com
(एडवर्ड विलियम सईद, एंटोनियो ग्राम्शी, एरिक हॉब्समैन, एरिक फ्रॉम,ए.एम. नम्बूदरीपाद, श्रीधरन, ऐडम स्मिथ, एनी बेसेंट, ओसवाल्ड स्पेंगलर, कमला देवी चट्टोपाध्याय, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, कपिल, करिश्मा, कर्नाटक, कर्पूरी ठाकुर, कल्पित समुदाय, क्लासिकल अर्थशास्त्र, आर्थर सेलिल पीगू, काला राष्ट्रवाद, रॉबिन्सन डिलेनी, कार्ल गुस्ताव युंग, कार्ल मेंगर, कार्ल पॉपर, कार्ल हाइनरिख मार्क्स)
1- एडवर्ड विलियम सईद ने 1983 में प्रकाशित अपनी पुस्तक द वर्ल्ड, द टेक्स्ट एंड द क्रिटिक में दावा किया कि रेगनोमिक्स के प्रभाव तले आलोचना और ज्ञान के क्षेत्र राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक होते जा रहे हैं ।प्रोफेशनलिज्म और अहस्तक्षेप की आड़ में युरोकेन्द्रित, प्रभुत्वशाली और अभिजनोन्मुखी संस्कृति को बढ़ावा दिया जा रहा है ।प्राच्यवाद की उनकी समझ का दूसरा चरण 1993 में प्रकाशित रचना कल्चर ऐंड इम्पीरियलिज्म के साथ सामने आया ।
2- दक्षिण इटली के सार्दिनिया द्वीप में जन्मे एंतोनियो ग्राम्शी (1891-1937) के चिंतन ने मार्क्स वादी विमर्श को आर्थिक निर्धारणवाद और इतिहास के अनिवार्य नियमों की गिरफ़्त से बाहर निकालने की भूमिका निभाई ।ग्राम्शी ने किसी ऐतिहासिक या प्राकृतिक नियम के बजाय मानवीय चेतना पर ज़ोर देते हुए समाज, संस्कृति और इतिहास में उसके स्थान के महत्व को रेखांकित किया ।
3- ग्राम्शी ने वर्चस्व की धारणा का सूत्रीकरण करते हुए यह मत प्रस्तुत किया कि शासकों और शासितों के बीच वर्चस्व और प्रतिरोध का वास्तविक संघर्ष अधिरचना के दायरे में होता है ।अधिरचना को उन्होंने नागर समाज और राजनीतिक समाज दो स्तरों में बाँटा और कहा कि व्यवस्थाएँ बल प्रयोग और सहमति दोनों के संयुक्त आधार पर टिकी होती हैं ।
4- ग्राम्शी ने कहा कि “राजनीतिक समाज” यानी राज्य और उसके तमाम अंग “बल प्रयोग का स्थल” हैं ।जबकि नागर समाज यानी परिवार, धर्म संस्थान, शिक्षा संस्थान, संस्कृति आदि तमाम गैर राजनीतिक और गैर राजनीतिक इकाइयाँ सहमति का मुक़ाम हैं ।ग्राम्शी के इसी विचार से पैसिव रिवोल्यूशन की थिसिज निकलती है ।ग्राम्शी द्वारा जेल में रची गई पुस्तक प्रिजन नोट बुक मार्क्स वादी चिंतन परम्परा की क्लासिक कृति साबित हुई ।
5- ग्राम्शी इतालवी भाववादी दार्शनिक बेनेडेतो क्रोचे के चिंतन से प्रभावित थे ।उन्होंने ख़ुद ही माना है कि जैसा रिश्ता मार्क्स का हीगल से था, वैसा ही रिश्ता उनका क्रोचे से है ।जिस तरह मार्क्स ने हीगल की दार्शनिक पद्धति का उपयोग कर अपने दर्शन की इमारत खड़ी की उसी तरह ग्राम्शी ने क्रोचे की चिंतन प्रणाली से अधिभौतिक तत्वों को छाँटकर उसका उपयोग मार्क्स वाद को प्रत्यक्षवाद के पाश से मुक्त करके उसकी जड़ता तोड़ने में किया ।
6– संयुक्त राज्य अमेरिका में नस्ल, जेंडर और जातीयता के आधार पर विशेष प्रोत्साहन का प्रावधान करने वाली नीतियों को एफर्मेटिव एक्शन कहा जाता है ।स्त्रियों और प्रगति की दौड़ में पीछे रह गए तबकों और वर्गों का सार्वजनिक जीवन में प्रतिनिधित्व बढ़ाना इन प्रगतिशील और समतामूलक नीतियों का मुख्य उद्देश्य रहा है ।सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े तबकों के लिए बनाई गई ऐसी नीति को भारत में आरक्षण का नाम दिया गया है ।
7- अंग्रेज़ पिता और ऑस्ट्रियन माँ की संतान के रूप में अलेक्ज़ेंड्रिया में जन्में एरिक हॉब्समैन (1917-2012) को जनपक्षधर वैचारिक आग्रहों, अभिलेखों के उपयोग और इतिहास के अनुशासन को एकांत साधना की गुफा से निकालकर लोकप्रिय विमर्श की तरह स्थापित करने वाला इतिहासकार माना जाता है ।उन्होंने मज़दूरों और वंचित वर्गों के बारे में लेबर्स टर्निंग प्वाइंट, लेबरिंग मैन तथा वर्ल्ड ऑफ लेबर जैसी शोधपरक रचनाएँ दीं ।
8- एरिक हॉब्समैन की अन्य प्रमुख पुस्तकों में द एज ऑफ रैवोल्यूशन : यूरोप 1785-1848, द एज ऑफ कैपिटल 1848-1875, द एज ऑफ एक्सट्रीम्स : द शॉर्ट ट्वेंटियथ सेंचुरी 1914–1991 सबसे उल्लेखनीय मानी जाती हैं ।जीवन के अंतिम दिनों में हॉब्सबॉम की विशालकाय किताब हाउ टू चेंज द वर्ल्ड (2011) प्रकाशित हुई ।पुस्तक का उपशीर्षक है टेल्स ऑफ मार्क्स एंड मार्क्सिज्म ।
9– जर्मन मनोविश्लेषक और समाजशास्त्री एरिक फ्रॉम (1900-1980) की 1941 में प्रकाशित रचना एस्केप फ़्रॉम फ़्रीडम विश्व विख्यात है ।नाज़ीवाद की परिघटना का अनूठा विश्लेषण करने वाली इस पुस्तक में फ्रॉम ने दिखाया है कि नाज़ीवाद न तो जर्मनी के अधिनायकवादी पूँजीपतियों की वजह से उभरा, न ही वह हिटलर के मनोरोगों की देन था बल्कि नाज़ीवाद के आगमन की आहट उन सामाजिक असुरक्षाओं में छिपी थी जो सामन्ती व्यवस्था के टूटने के कारण पैदा हुई थीं।
10- एरिक फ्रॉम का विश्लेषण इस धारणा पर आधारित था कि व्यक्तिवाद के उभार से पहले का समाज व्यक्ति को सुरक्षाएं देता था, पर उसका विकास रोक देता था ।व्यकितवादी समाज के उभार ने समाज को परम्पराओं से मुक्त कर दिया ।लेकिन अगर व्यक्ति अपनी सम्पूर्ण सम्भावनाओं को साकार करने का आंतरिक साहस नहीं जुटाएगा तो उसे अपनी ही स्वतंत्रता से पलायन करके नई निर्भरताओं की मातहती स्वीकार कर लेनी होगी ।
11- एरिक फ्रॉम ने वर्ष 1955 में प्रकाशित अपनी रचना द सेन सोसाइटी में विस्तार से विवेचना करते हुए दिखाया कि सामाजिक परिपक्वता हासिल किए बिना होने वाली प्रौद्योगिकीय प्रगति मानवता को एक बार फिर वस्तुओं और बिम्बों की पूजा में धकेल देगी ।यह भी एक तरह की मूर्ति पूजा ही होगी जिसके कारण मनुष्य यथार्थ के ज्ञान से वंचित रह जाता है ।
12– एरिक फ्रॉम ने अपनी कृति मैन फ़ॉर हिमसेल्फ में मनोविज्ञान को नीतिशास्त्रीय बुनियाद देने का आग्रह किया ।फ्रॉम ने कहा कि, “ दुष्टता मनुष्य की शक्तियों को विकलांग कर देती है और अपने प्रति जवाबदेही की कमी चरित्र हीनता का द्योतक है ।” साइकोऐनालिसिस ऐंड रिलीजन में उन्होंने दावा किया कि धर्म को विज्ञान से नहीं बल्कि सर्वसत्तावाद से खतरा है ।फ्रॉम ने द फोरगॉटिन लेंग्वेज, ऑर्ट ऑफ लिविंग और जेन बुद्धिज्म एंड साइकोऐनालिसिस की रचना भी किया ।
13- आधुनिक केरल के निर्माता, प्रमुख मार्क्स वादी एलमकुलम मनक्कल शंकरन नम्बूदरीपाद (1909-1998) ने दर्शन, सौन्दर्य शास्त्र, भाषा शास्त्र, इतिहास और राजनीति जैसे अनुशासन पर 90 से ज़्यादा पुस्तकें लिखी हैं ।उन्हीं के नेतृत्व में चली एक्य केरल मुहिम के कारण आज़ादी के बाद भाषायी आधार पर केरल का गठन हुआ ।वे केरल के पहले और देश के पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे ।
14- भारतीय रेल- निर्माण के क्षेत्र में एक नए आंदोलन को जन्म देने वाले इंजीनियर और प्रशासक एलाट्टुवलापिन श्रीधरन (ई. श्रीधरन) मैट्रोमैन के नाम से जाने जाते हैं ।उन्होंने ही पहली बार निजी पूँजी की मदद से बिल्ड- ऑपरेट- ट्रांसफ़र का पैटर्न अपनाकर इस क्षेत्र में नई ज़मीन तोड़ी और देश की विशालतम और जटिलतम परियोजना कोंकण रेलवे का निर्माण रिकॉर्ड समय में पूरा कर दिखाया ।यह रेलमार्ग मुंबई से मंगलौर को जोड़ता है ।
15– ई. श्रीधरन को 1970-1975 में भारत की सबसे पहली भूमिगत रेलवे कोलकाता मैट्रो की परियोजना की रूपरेखा बनाने का काम दिया गया ।दिल्ली में अत्याधुनिक मैट्रो रेल नेटवर्क को सफलतापूर्वक और बिना किसी बड़ी मुश्किल के स्थापित करने का श्रेय भी ई. श्रीधरन को जाता है । 30 जून, 1990 को श्री धरन भारतीय रेल से रिटायर हो गए ।
16– दार्शनिक और क्लासिकल अर्थशास्त्र के पितामह ऐडम स्मिथ 1723-1790) पहले अध्येता थे जिन्होंने यूरोप में हुए उद्योग और व्यापार के उभार को समझ कर पूंजीवाद को उसका सैद्धान्तिक ढाँचा प्रदान किया ।वह स्कॉटलैंड के ग्लासगो विश्वविद्यालय में नीतिशास्त्र के प्रोफ़ेसर थे ।यहीं उनकी रचना द थियरी ऑफ मॉरल सेंटीमेंट्स प्रकाशित हुई ।इसी पुस्तक में ऐडम स्मिथ ने पहली बार बाज़ार को इनविजिबल हैंड के रूप में कल्पित किया ।
17– ऐडम स्मिथ ने वर्ष 1776 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ऐन इन्क्वायरी इन टु द नेचर एंड कॉजेज ऑफ द वेल्थ ऑफ नेशंस को लिखने में 10 वर्ष का समय लगाया ।यह एक विशाल, आंशिक रूप से मानकीय और मुख्यतः वर्णन प्रधान ग्रन्थ है ।इसकी सबसे मशहूर पंक्तियाँ हैं, “ हमारी मेज पर रात का भोजन कसाई, कलार या नानबाई की परोपकारिता के कारण नहीं बल्कि उनके अपने हित के कारण आता है ।हम उनकी इंसानियत को नहीं बल्कि उनके स्वार्थ को सम्बोधित करते हैं ।हम उनसे अपनी आवश्यकताओं के बारे में नहीं बल्कि उनके फ़ायदों के बारे में चर्चा करते हैं ।”
18- लंदन (आयरलैंड) में जन्मीं, भारत के उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन में होम रूल लीग की प्रमुख संस्थापकों में से एक एनी बेसेंट (1847-1933), फ़ेबियन समाजवादी, स्त्री अधिकारों की प्रबल पैरोकार और प्रभावशाली लेखक और वक्ता थीं ।भारत में स्काउट आंदोलन की स्थापना का श्रेय भी एनी बेसेंट को जाता है ।1893 में अमेरिका के शहर शिकागो में आयोजित विश्व धर्म संसद में उन्होंने थियोसॉफी समाज का प्रतिनिधित्व किया था । थियोसोफी का आधार स्तम्भ पुनर्जन्म और कर्म विधान है । भारत में बनारस में भगवानदास आदि के सहयोग से उन्होंने सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज की स्थापना किया । आगे चलकर यही सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज पंडित मदन मोहन मालवीय द्वारा निर्मित बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का आधार बना ।
19– एनी बेसेंट 46 वर्ष की उम्र में सन् 1893 में भारत पहुँची और फिर भारत की होकर रह गईं ।1907 में ऐनी बेसेंट को अंतर्राष्ट्रीय थियोसॉफिकल समाज का अध्यक्ष बनाया गया । मद्रास के पास अडयार नामक स्थान पर, जहां पर थियोसोफिकल समाज का मुख्य कार्यालय है, आज भी वहाँ पर एनी बेसेंट द्वारा संग्रहीत हज़ारों पुस्तकों का अद्वितीय संग्रह है । उन्होंने श्रीमद्भागवत गीता का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया ।1917 में उन्हें कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन का अध्यक्ष भी चुना गया था ।वह गांधी की आलोचक थीं ।एक वक्तव्य में उन्होंने कहा था, “ जिस दिन भारत की जीत होगी, वह दिन गाँधी के लिए सबसे बड़ी हार का दिन होगा ।जिस अराजकता की भावना, क़ानून का निरादर और सविनय अवज्ञा का लोगों में प्रचार किया जा रहा है उसके परिणामस्वरूप भारतीय सरकार के खिलाफ असंतोष और विद्रोह की भावना रहेगी ।”
19-A- श्रीमती एनी बेसेंट ने सन् 1914 में कॉमनवील नामक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया । बाद में मद्रास स्टैंडर्ड पत्र को भी उन्होंने ख़रीद लिया और उसका नाम बदलकर न्यू इंडिया कर दिया । 1915 में एनी बेसेंट ने इंडिया : ए नेशन तथा हाउ इंडिया रोट फ़ॉर फ़्रीडम नामक लेखमाला कॉमनवील में प्रकाशित किया । 1916 में अपनी पुस्तक वेक अप इंडिया के माध्यम से उन्होंने भारत को राजनीतिक तंद्रा से जगाया । इसी वर्ष उन्होंने होम रूल लीग की स्थापना किया ।जॉर्ज बर्नाड शा ने उन्हें न केवल इंग्लैंड बल्कि सारे यूरोप में सबसे बड़ी वक्ता माना था । एनी बेसेंट मानती थीं कि “भारत एक राष्ट्र था, एक राष्ट्र है और एक राष्ट्र रहेगा ।” उनके अनुसार “राष्ट्र ईश्वर की अभिव्यक्ति है।”
19-B- श्रीमती एनी बेसेंट ने एक स्थान पर फ़्रांसिस बेकन की इस उक्ति को, “कम ज्ञान मनुष्य को नास्तिकता की ओर ले जाता है, किन्तु गहन ज्ञान उसे पुनः धर्म की ओर ले जाता है ।” उद्धृत करके यह सिद्ध किया है कि हिन्दू धर्म ही भारत की राष्ट्रीय चेतना का उद्दीपक है ।” उन्होंने यह माना कि भारत का आध्यात्मिक अतीत धार्मिक महत्ता के माध्यम से भारत को पुरातन राष्ट्र सिद्ध करता है । भारत की यही प्राचीनता विश्व कल्याण के लिए हितकारी सिद्ध होगी । उनके अनुसार, “सच्चा हिन्दू न तो किसी दलित वर्ग के संत के प्रति अश्रद्धा का भाव रखेगा और न ही वह किसी ज्ञानी मुस्लिम फ़क़ीर की समाधि पर पुष्प चढ़ाने में संकोच करेगा । उसमें सहिष्णुता असीमित है ।”
19-C- श्रीमती एनी बेसेंट ने अपनी राष्ट्र सम्बन्धी विचारधारा में समान धर्म, समान भाषा, समान साहित्य आदि की भी विवेचना किया । 1917 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में अध्यक्षीय पद से सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि, “भारत, जिसने लाखों वर्षों के अपने इतिहास में प्राचीनकाल की शक्तिशाली सभ्यताओं को उभरते और गिरते हुए देखा, किन्तु वह उनके साथ नष्ट नहीं हुआ… भारत, जिसे राष्ट्रों के बीच अनेक बार बलि पर चढ़ाया जा चुका है, अब पुनर्जन्म प्राप्त कर चुका है और नवजीवन की इस चिरंतन बेला में वह दिन दूर नहीं जब भारत गर्व के साथ सिर ऊँचा किए स्वतंत्र और समर्थ बनकर एशिया के लिए अलौकिक प्रकाश की किरण और विश्व के लिए वरदान बनकर चमकेगा ।”
19-D- श्रीमती एनी बेसेंट इंग्लैंड के फ़ेबियन वादी समाजवादी चिंतन से प्रभावित थीं । एनी बेसेंट का नारा था, “प्रत्येक से उसकी योग्यतानुसार तथा प्रत्येक को उसकी बुद्धिमत्ता एवं दक्षतानुसार” । उनके इस चिंतन को विचारकों ने अभिजाततंत्रीय समाजवाद की संज्ञा दी है । उनके आलोचकों का मानना है कि एनी बेसेंट ने हिन्दू धर्म की महत्ता के संदेश की आड़ में अपना अहिंसक साम्राज्यवादी मुखौटा छिपाये रखा था । वह मानती थीं कि ब्रिटिश सेना के भारत से हटने के कारण भारत की आन्तरिक सुरक्षा ख़तरे में पड़ जाएगी । वह भारत को ब्रिटेन के संरक्षण में ही रखने की हिमायती थीं । वे महात्मा गाँधी को शैतान की संज्ञा देने लगीं थीं और उन्हें भीड़तंत्र का अगुआ मानने लगी थीं ।
19-E- श्रीमती एनी बेसेंट के अनुसार धर्म मनुष्य की आत्मा द्वारा वृहद् आत्मा के साथ तादाम्य की खोज है । उनके अनुसार जीवन के तीन महान सत्य हैं : प्रथम, मनुष्य की आत्मा अमर है । आत्मा के भविष्य, विकास और सौन्दर्य की कोई सीमा नहीं है । द्वितीय, वह सत्य जो जीवन देने वाला है, हमारे अंदर है, हमारे बाहर है, अमर है, सर्वकल्याणकारी है, वह न देखा जा सकता है, न सुना जा सकता है, न सूँघा जा सकता है । लेकिन वह सत्य उस मनुष्य के द्वारा जो उसे जानने का इच्छुक है, जाना जा सकता है । तृतीय, प्रत्येक मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है । वह अपने सुख, दुख, प्रशंसा, पुरस्कार, दण्ड आदि सब का विधायक है ।”
20– जर्मन इतिहासकार ओसवाल्ड स्पेंगलर (1880-1936) ने इतिहास के अध्ययन में सांस्कृतिक पक्ष को महत्व दिया ।उन्होंने कहा कि इतिहास का अध्ययन नगर, राज्य या राष्ट्र, जाति या सामाजिक संस्था पर निर्भर न रहकर उसकी सभ्यता पर केन्द्रित होना चाहिए ।1918 में प्रकाशित अपनी पुस्तक द डिक्लाइन ऑफ द वेस्ट में उन्होंने सम्पूर्ण मानव इतिहास को आठ प्रमुख सभ्यताओं में विभाजित किया और प्रत्येक संस्कृति का जीवन काल एक हज़ार साल का माना ।इसी आधार पर उन्होंने घोषणा किया कि पाश्चात्य सभ्यता का अंत होने वाला है ।
21– स्पेंगलर ने संस्कृति को चार कालों में बांटकर देखा : बसंत, ग्रीष्म, पतझड़ और शिशिर ।बसंत से उनका तात्पर्य है- धर्मनिष्ठा का काल ।इस युग में धार्मिक चेतना का विकास होता है । ग्रीष्म काल संशय का युग होता है ।इसमें सांस्कृतिक आत्मबोध के साथ- साथ आलोचनात्मक मनोभाव का भी जन्म होता है । पतझड़, संस्कृति की प्रौढ़ावस्था होती है ।यह तर्काधारित बौद्धिक पराकाष्ठा का युग होता है ।इसी युग में भारत में बौद्ध धर्म का विकास हुआ । शिशिर नगरीय सभ्यता के विकास का काल है ।इसमें साम्यवादी दर्शन और भौतिकवाद का प्रभाव बढ़ जाता है ।
22– भारत में परम्परागत शिल्प कला के पुनरुद्धार का अथक प्रयास करने वाली तथा नारीवादी स्वतंत्रता सेनानी कमला देवी चट्टोपाध्याय (1903-1988) का पूरा जीवन प्रेरणा दायी है ।उन्होंने 1964 में बंगलौर में कथक और कोरियोग्राफ़ी नाट्य संस्थान की स्थापना की ।वह निरंतर नारीवादी अधिकारों के लिए आवाज़ उठाती रही हैं ।
23– गुजरात राज्य के शहर भरूच में जन्मे कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी (1877-1971) बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न कानूनविद, स्वाधीनता सेनानी, भाषाविद्, साहित्यकार, सम्पादक, कुशल प्रशासक, शिक्षाविद और संविधान निर्माता होने के साथ -साथ ही भारतीय ज्ञान, दर्शन और परम्परा के मर्मज्ञ भी थे । नवम्बर, 1938 उन्होंने भारतीय विद्या भवन की स्थापना किया ।उन्होंने गुजराती, हिन्दी और अंग्रेज़ी में सौ से ज़्यादा उत्कृष्ट ग्रंथों की रचना की ।1952 से 1957 तक मुंशी जी उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रहे ।
24– संविधान सभा में ‘ हर व्यक्ति को समान संरक्षण’ का मसविदा मुंशी और अम्बेडकर ने संयुक्त रूप से लिखा था ।हिन्दी तथा देवनागरी लिपि को नए भारतीय संघ की राजभाषा का स्थान दिलाने में मुंशी ने सबसे प्रमुख भूमिका निभाई ।14 सितंबर, 1949 को संविधान सभा के इस निर्णय को प्रति वर्ष हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है ।उनके लिए भारतीय संविधान की पहली पंक्ति इंडिया दैट इज भारत वाक्यांश का अर्थ केवल एक भू भाग नहीं बल्कि एक अंतहीन सभ्यता है जो अपने आत्म नवीनीकरण के ज़रिए सदैव जीवित रहती है ।
26– कपिल सांख्य दर्शन के प्रवर्तक आचार्य हैं ।उनकी ख्याति आदि विद्वान के रूप में है ।सांख्य दर्शन द्वैतवादी है ।उसके अनुसार यह संसार प्रकृति (भूत) और पुरुष (जीव) के संयोग से बना है ।सांख्य दर्शन में विवेक- ज्ञान पर बहुत बल दिया गया है ।
27– कर्मकांड एक सांस्कृतिक व्यवहार है जिसमें परम्पराबद्ध और सामान्य से इतर क्रिया का भाव निहित है ।समाज विज्ञानों में धार्मिक कर्मकाण्डों को लेकर दुर्खाइम की क्लासिकल रचना एलीमेंटरी फॉर्म्स ऑफ रिलीजस लाइफ़ काफ़ी चर्चित रही है ।दुर्खाइम का यह अध्ययन आस्ट्रेलिया के आदिवासी समुदाय पर केंद्रित था ।इसकी बुनियादी प्रस्थापना यह थी कि समाज को अपने आपसी सम्बन्धों तथा आन्तरिक एकता के सूत्रों को मज़बूत करने या नवीकृत करने की ज़रूरत पड़ती है ।
28- यूनानी भाषा के शब्द करिश्मा का प्रयोग न्यू टेस्टामेंट में किया गया है ।इसका मतलब है ईश्वर का वह अवदान जो उनके अनुयायियों को मुफ़्त तोहफ़े के रूप में मिलता है ।समाज विज्ञान में करिश्मे की अवधारणा प्रचलित करने का श्रेय जर्मन विद्वान मैक्स वेबर को जाता है ।उन्होंने अपनी रचना इकॉनॉमी एंड सोसाइटी में रुटीनाइज्ड करिश्मा या करिश्मा के संस्थानीकरण का ज़िक्र किया था ।
29– भारत के दक्षिण पश्चिम में स्थित कर्नाटक का गठन 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम पारित होने के बाद 1 नवम्बर, 1956 को हुआ था ।भाषाई आधार पर गठित होने के कारण इसमें मुख्यतः दक्षिण भारत के कन्नड़ भाषी क्षेत्रों को शामिल किया गया ।शुरुआत में इसका नाम मैसूर था जिसे 1973 में बदलकर कर्नाटक किया गया ।इसकी राजधानी बंगलुरू है ।यहाँ की साक्षरता दर (2011) 69.3 प्रतिशत है ।
30– कर्नाटक की विधायिका दो सदनीय है ।विधानसभा में कुल 224 और विधान परिषद में 75 सदस्य चुने जाते हैं ।कर्नाटक से लोकसभा के 28 और राज्य सभा के 12 सदस्य चुने जाते हैं ।कर्नाटक का भौगोलिक क्षेत्रफल 1 लाख ,91 हज़ार,791 वर्ग किलोमीटर है ।2011 की जनगणना के अनुसार यहाँ की जनसंख्या 6 करोड़, 11 लाख, 30 हज़ार, 704 है ।कर्नाटक के पश्चिम में अरब सागर स्थित है ।
31- बिहार की राजनीति में गांधीवादी समाजवाद, पिछड़े वर्ग की राजनीति और सामाजिक न्याय के वैचारिक मिश्रण को व्यावहारिक सफलता के शिखर तक पहुँचाने का श्रेय स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर (1924-1988) को जाता है ।उनका एक चर्चित जुमला था, “ हमारे देश की आबादी इतनी अधिक है कि केवल थूक फेंक देने से ही अंग्रेज़ी राज बह जाएगा ।” वह दो बार बिहार के मुख्यमंत्री बने ।
32– राष्ट्र को एक कल्पित समुदाय के रूप में समझने का सिद्धांत बेनेडिक्ट ऐंडरसन (1936 -) की देन है ।1983 में प्रकाशित अपनी पुस्तक इमेजिंड कम्युनिटीज : रिफ्लेक्शंस ऑन द ओरिजिंस एंड स्प्रेड ऑफ नैशनलिज्म में इसका विस्तार से प्रतिपादन किया ।उनका आग्रह है कि राष्ट्र को सचेत रूप से ग्रहण की जाने वाली राजनीतिक विचारधाराओं के सन्दर्भ में समझने के बजाय पहले से मौजूद बृहत्तर सांस्कृतिक व्यवस्थाओं के सन्दर्भ में समझा जाना चाहिए ।
33– क्लासिकल अर्थशास्त्र दार्शनिक के रूप में स्कॉटिश ज्ञानोदय की देन है ।इसके केन्द्र में आर्थिक वृद्धि, बचत, श्रम का विभाजन और मूल्य जैसी आर्थिक धारणाएँ हैं ।ऐडम स्मिथ स्कॉटिश ज्ञानोदय के प्रमुख चिंतक हैं ।उन्हीं की रचना ऐन इन्क्वायरी इन टू द नेचर ऐंड कॉजेज ऑफ द वेल्थ ऑफ नेशंस (1776) इस अर्थशास्त्र का आधार है । क्लासिकल अर्थशास्त्र मूल्य सिद्धांत के सम्बन्ध में तीन तरह के प्रश्न पूछता है : मूल्य की प्रकृति क्या है ? मूल्य को कैसे नापा जाए और मूल्य के निर्धारक तत्व क्या हैं ?
34- क्लासिकल अर्थशास्त्र के दूसरे महत्वपूर्ण हस्ताक्षर डेविड रिकार्डो ने 1817 में प्रिंसिपल ऑफ पॉलिटिकल इकॉनामी ऐंड टैक्सेशन के ज़रिए वेतन के साथ मूल्य को सम्बन्धित करके अर्थव्यवस्था के एक अमूर्त मॉडल की रचना की ।माल्थस ने एसे ऑन द प्रिंसिपल ऑफ पाप्युलेशन (1798) और प्रिंसिपल ऑफ पॉलिटिकल इकनॉमी (1820) में जोर देकर कहा कि अगर आबादी बेरोकटोक बढती चली गई तो उसके लिए पेट भरने का संकट पैदा हो जाएगा ।
35– वर्ष 1920 में आर्थर सेलिल पीगू (1877-1959) की रचना द इकॉनामिक्स ऑफ वेलफ़ेयर का प्रकाशन हुआ जिसमें मौद्रिक रूप से नापे जा सकने वाले आर्थिक कल्याण को सम्पूर्ण कल्याण के एक घटक के रूप में देखा गया ।पीगू ने सकल उत्पादन की प्रकृति पर विचार करते हुए उसे राष्ट्रीय लाभांश की संज्ञा दी ।
36- एक सामान्य विचार के रूप में काला राष्ट्रवाद या तो मूल रूप से अफ़्रीकी परिघटना है या किसी भी दूसरे महाद्वीप की जहां अफ़्रीकी मूल के लोग रहते हैं ।यह मुख्य रूप से अफ्रो- अमेरिकी प्रतिरोध परम्परा और संयुक्त राज्य अमेरिका में नस्लवाद और दमन के प्रतिरोध से जुड़ा रहा है ।काला राष्ट्रवाद संयुक्त राज्य अमेरिका में नस्ली दासता की प्रतिक्रिया के तौर पर मुक्ति के राष्ट्रवाद के रूप में सामने आया।इसमें दो पहलू शामिल हैं : नस्लवाद विरोधी एकजुटता और राष्ट्रवाद के परम्परागत पहलू ।
37– काले राष्ट्रवाद के प्रबल समर्थक मार्टिन रॉबिन्सन डिलेनी (1812-1885) ने अमेरिका में कालों की स्थिति को आंतरिक उपनिवेशवाद की संज्ञा दी ।1786 में अमेरिका में रिचर्ड ऐलेन द्वारा पहले ब्लैक चर्च की स्थापना की गई ।ऑकलैंड में पी न्यूअन और बॉबी सील ने मिलकर ब्लैक पैंथर पार्टी की स्थापना किया ।इसने पुलिस की क्रूरता और श्वेत नस्लवाद से बचने के लिए काले लोगों से हथियार उठाने का आह्वान किया ।
38– 26 जुलाई, 1875 को केसविल, स्विट्ज़रलैंड में जन्मे मनोशास्त्री और चिकित्सक कार्ल गुस्ताव युंग (1875-1961) परिपक्व व्यक्ति के मन में झांक कर उसके जीवन के संकटों और जद्दोजहद के रहस्योद्घाटन में माहिर थे ।युंग ने व्यक्तित्व की दो क़िस्मों का उद्घाटन किया जिन्हें आज हम अंतर्मुखी और बहिर्मुखी के नाम से जानते हैं ।1906 में उनकी प्रसिद्ध कृति द साइकोलॉजी ऑफ डिमेंशिया प्रीकोक्स प्रकाशित हुई ।
39– कार्ल गुस्ताव युंग की व्याख्या के अनुसार इंट्रोवर्टिड व्यक्ति यानी अंतर्मुखी शख़्सियत वह होती है जो अपने आंतरिक मनोभावों के आधार पर संचालित होती है ।बहिर्मुखी शख़्सियत वह होती है जो अपने वाह्य जगत के प्रभावों से संचालित होती है ।इंसान की शख़्सियत चिंतन करने, अनुभूति करने, संवेदित होने और अंतर्बोध से बनती और चलती है ।इन जोड़ों में से एक घटक जब व्यक्ति पर हावी हो जाती है तब उसकी खुद को हासिल करने की प्रक्रिया बाधित होती है ।
40– आजकल के पोलैंड और तब के गैलीसिया यानी आस्ट्रिया में जन्मे, अर्थशास्त्र के आस्ट्रियायी स्कूल के संस्थापक कार्ल मेंगर (1840-1921) ह्रासमान सीमांत उपयोगिता के जनक माने जाते हैं ।उन्होंने उपयोगिता को वस्तुओं के मूल्य के आकलन के प्रमुख स्रोत की तरह स्थापित किया । 1871 में प्रकाशित उनकी रचना प्रिंसिपल्स ऑफ इकॉनॉमिक्स ने उन्हें आर्थिक विज्ञान के महारथी के रूप में बहुत ख्याति दिलाई ।
41– कार्ल मेंगर की मान्यता थी कि वस्तुओं में एक मूल्य निहित होता है क्योंकि वे हमारी ज़रूरतों को पूरा करती हैं ।इसलिए उनका मूल्य वस्तुगत पहलुओं के आधार पर नहीं बल्कि आत्मगत पहलुओं के आधार पर तय किया जाना चाहिए ।मेंगर ने यह भी देखा कि व्यक्ति जैसे-जैसे किसी वस्तु की ज़्यादा से ज़्यादा ख़रीदारी करता जाता है तो उससे प्राप्त होने वाले संतोष की मात्रा घटती जाती है ।इसे उन्होंने ह्रासमान सीमांत उपयोगिता का नाम दिया ।मेंगर ने यह भी दावा किया कि आर्थिक विश्लेषण की शुरुआत व्यक्ति का अध्ययन करके की जानी चाहिए ।उनके इस आग्रह को पद्धति मूलक व्यक्तिवाद का नाम दिया जाता है ।
42- विज्ञान के संदर्भ में फाल्सीफिकेशिनज्म और राजनीति के संदर्भ में सुधारवादी उदारतावाद के सूत्रीकरण के लिए मशहूर, वियना के एक यहूदी परिवार में जन्मे कार्ल रायमुंड पापर (1902-1994) बीसवीं सदी के प्रमुख विचारक और दार्शनिक हैं ।1934 में प्रकाशित अपनी रचना द लॉजिक ऑफ साइंटिफिक डिस्कवरी में वैज्ञानिक सिद्धांतों के मिथ्याकरण का सूत्र पेश करते हुए पापर ने दावा किया कि विज्ञान अपनी परिकल्पनाओं और व्याख्याओं की सच्चाई प्रमाणित करने के ज़रिए नहीं बल्कि उनके ग़लत साबित होने के आधार पर आगे बढता है ।
43- कार्ल पापर ने 1945 में प्रकाशित अपनी दूसरी रचना द ओपेन सोसाइटी ऐंड इट्स एनिमीज में प्लेटो से लेकर हीगल और मार्क्स तक पश्चिमी चिंतन परम्परा के खिलाफ बग़ावत का झंडा बुलंद किया ।उन्होंने इन सभी विचारकों को बंद समाज का प्रवक्ता सिद्ध करते हुए उनके सिद्धांतों को जड़ सूत्रों की श्रेणी में रखा ।पापर ने मार्क्सवाद और फ्रॉयडियन मनोविश्लेषण को छद्म विज्ञान करार दिया ।वह 1948 से 1969 तक लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स में प्रोफ़ेसर भी रहे हैं ।
44– कार्ल पापर ने अपनी दो खंडों में प्रकाशित रचना द ओपन सोसाइटी में प्लेटो को एक प्रतिक्रियावादी और सर्वसत्तावादी चिंतक करार दिया, एक ऐसा चिंतक जिसने दार्शनिक अभिजन के हाथ में सम्पूर्ण सत्ता देकर समाज परिवर्तन का रास्ता बन्द कर दिया ।हीगल उसकी निगाह में एक ख़तरनाक विचारक और सम्पूर्ण ज्ञान का दावा करने वाले हवाबाज़ के अलावा कुछ नहीं थे ।
45– कार्ल हाइनरिख मार्क्स (1818-1883) एक सम्पूर्ण बुद्धिजीवी थे ।उन्होंने कम्युनिस्ट आंदोलन की नींव रखी और घोषित किया कि दार्शनिकों ने तरह- तरह से दुनिया की व्याख्या तो बहुत कर ली, असली सवाल तो यह है कि उसे बदला कैसे जाए।मार्क्स केवल 65 वर्ष तक जीवित रहे ।उनकी सक्रियताओं, विश्लेषणों और सूत्रीकरण के इर्द-गिर्द एक बहुमुखी बौद्धिक संरचना तैयार हुई जिसे मार्क्सवाद के नाम से जाना जाता है ।
46– मार्क्स ने जर्मन भाववादी दार्शनिक हीगल से द्वन्द्ववाद सीखा और उन्हीं से यह सूत्र भी ग्रहण किया कि सभी दार्शनिक समस्याओं का समाधान इतिहास में मौजूद है ।द्वन्द्ववाद और इतिहास सम्बन्धी हिगेलियन समझ में उन्होंने लुडविग फायरबाख के भौतिकवाद को मिलाकर अपने दार्शनिक विचारों की इमारत खड़ी की ।कहा जाता है कि मार्क्स ने ब्रिटिश दार्शनिक जॉन लॉक की इस दलील को अपनाया कि श्रमिकों को अपने श्रम के लाभों पर मिल्कियत हासिल होनी चाहिए ।साथ ही डेविड रिकार्डो के इस सूत्रीकरण को भी अंगीकार किया कि किसी भी उत्पाद का मूल्य उसे उत्पादित करने वाले श्रम पर आधारित होता है ।
47– 1847 में मार्क्स ने प्रूधों की अनावश्यक रूप से आदर्शवादी दावेदारियों का सिलसिलेवार खंडन करते हुए द पावर्टी ऑफ फिलॉसफी की रचना की ।1848 में कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो का प्रकाशन किया । 1789 की फ़्रांसीसी क्रांति के कारणों और हश्र पर प्रकाश डालने वाली दो कृतियाँ द क्लास स्ट्रगल इन फ़्रांस और द एटींथ ब्रूमेर ऑफ लुई बोनापार्ट का प्रकाशन हुआ ।1867-58 में 800 पेजों की एक पांडुलिपि तैयार किया जिसका बाद में थियरीज ऑफ सरप्लस वैल्यू के नाम से प्रकाशन हुआ ।
48- मार्क्स ने अपने ग्रन्थ कैपिटल के पहले खंड में कहा कि किसी जिंस या वस्तु का उपयोग- मूल्य उसके भौतिक गुणों पर निर्भर होता है जिसकी प्राप्ति उस वस्तु के उपभोग की प्रक्रिया में होती है ।मार्क्स के अनुसार मूल्य एक तकनीकी सम्बन्ध न होकर मनुष्यों के बीच का एक सामाजिक सम्बन्ध है ।मार्क्स ने मूल्य को तीन हिस्सों में बाँटा- स्थिर पूँजी, परिवर्ती पूँजी और अधिशेष मूल्य ।अधिशेष मूल्य स्थिर पूँजी और परिवर्ती पूँजी के ऊपर हासिल किया जाता है यह केवल मजदूरी ख़रीदने और बेचने के क्रम में हुई नाइंसाफ़ी का नतीजा है ।
49- मार्क्स ने सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम अवधि की धारणा का सूत्रीकरण किया और इसके लिए सामान्य उत्पादन, कार्यकुशलता के औसत स्तर और श्रम की गहनता को आधार बनाया ।मानवीय क्षमता के बीच फ़र्क़ पर जोर देने के बजाय उन्होंने तर्क दिया कि कौशल की प्राप्ति प्रशिक्षण से हो सकती है ।प्रशिक्षण के माध्यम से जटिल क़िस्म का श्रम साधारण क़िस्म के श्रम में बदल जाता है ।आर्थिक विज्ञान में मार्क्स का एक और मौलिक योगदान संकट सिद्धांत है जिसने ट्रेड साइकिल थियरी या चक्रीय उतार- चढ़ाव के सिद्धांत को विकसित किया ।
50– कार्ल मार्क्स के जीवन के अंतिम 33 साल लंदन के सोहो क्वार्टर्स के एक तीन कमरों के फ़्लैट में भीषण ग़रीबी में बीते ।लंदन में कदम रखते समय उनके चार बच्चे थे, जल्दी ही दो और पैदा हो गए ।ग़रीबी और अभाव के कारण इन छ संतानों में से तीन काल के गाल में समा गयीं।मार्क्स द्वारा रखे गए पूंजीवाद विरोधी प्रस्ताव आज भी दुनिया भर में समतामूलक राजनीति के प्रेरणास्रोत बने हुए हैं ।
– नोट- उपरोक्त सभी तथ्य, ( तथ्य क्रमांक 1-21 भाग एक से तथा तथ्य क्रमांक 22-50 तक, भाग दो से) अभय कुमार दुबे द्वारा सम्पादित, समाज विज्ञान विश्वकोष, खण्ड 2, ISBN: 978-81-267-2849-7, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 2016, से साभार लिए गए हैं ।