राजनीति विज्ञान / समाज विज्ञान, महत्वपूर्ण तथ्य (भाग- 19)

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– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी, फ़ोटो गैलरी एवं प्रकाशन प्रभारी – डॉ. संकेत सौरभ, झाँसी, उत्तर- प्रदेश (भारत) ई मेल- drrajbahadurmourya @ gmail .com, website : themahamaya . com

(पंडिता रमाबाई शास्त्री, पंजाब, ऑपरेशन ब्लू स्टार, योग, पेनोप्टिकॉन, परम्परा की आधुनिकता, परिणामवाद, पश्चिम बंगाल, पृथकतावाद, पाणिनि, तक्षशिला, वासुदेव शरण अग्रवाल, पारिस्थितिकीय, पाण्डुरंग वामन काणे, पियर बोर्दियो,सामाजिक पूँजी, पियरो स्राफा, पी. एस. वारियर, पुराण, पुरुषत्व, मीमांसा, पेटेंट, पेटी बूर्जवा, पॉल सैमुअलसन, प्रगति)

1- सन् 1858 में कर्नाटक के चितपावन ब्राह्मण अनंतशास्त्री डोंगरे के घर में दिनांक, 23 अप्रैल को पैदा हुई पंडिता रमाबाई शास्त्री (1858-1922) एक विख्यात समाज सुधारक तथा बंगाल और महाराष्ट्र के नव जागरण आन्दोलन की प्रमुख हस्तियों में से एक हैं । 12 वर्ष की उम्र तक रमाबाई ने भागवत पुराण के 18 हज़ार श्लोक कंठस्थ कर लिया था । 1888 में प्रकाशित उनकी पुस्तक उच्च वर्ण की हिन्दू औरतें तत्कालीन समाज में स्त्रियों की दुर्दशा का प्रामाणिक वृतांत मानी जाती हैं ।रमाबाई ने स्त्री धर्म नीति नामक पुस्तक भी लिखी जिसकी उस ज़माने में दस हज़ार प्रतियाँ बिकी ।उन्होंने हिब्रू और यूनानी मूल की बाइबिल का मराठी अनुवाद भी किया ।1919 में उन्हें कैसरे- ए- हिंद स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया ।

1-A- अंतर्जातीय विवाह करने वाली, एकल अभिभावक, उद्यमी, ख़तरों से खेलने वाली, स्त्री स्वायत्तता की हिमायती, नए विचारों की प्रणेता पंडिता रमाबाई का जन्म मानो नवनिर्माण के लिए ही हुआ था । वह हमेशा कहती थीं कि, ‘मेरे पास अपना एक दिमाग़ है और अपनी आज़ादी, जिसे मैंने मुश्किलों से हासिल किया है ।’ मिसेज़ मार्क्स बी. फुलर की किताब, द रॉंग्स ऑफ इंडियन विमेनहुड की भूमिका लिखते हुए रमाबाई ने लिखा है कि, “सच बोलने के लिए बहुत साहस की आवश्यकता होती है जब आप जानते हैं कि पूरा राष्ट्र आपको नीचे गिराने के लिए आपके ख़िलाफ़ एक पुरुष के रूप में खड़ा हो जाएगा ।” विवेकानंद ने रमाबाई को ईसाई हो जाने के लिए विश्वासघाती माना । हिन्दु धर्म का त्याग करने के लिए बाल गंगाधर तिलक ने भी उन्हें देश का द्रोही माना ।

1-B- पंडिता रमाबाई ने भारत की ग़ुलामी, काले दासों की ग़ुलामी और स्त्रियों की ग़ुलामी को हमेशा समानांतर रखकर देखने का प्रयत्न किया । उन्होंने लिखा है कि, “उन्हें (स्त्रियों को) कोई सामाजिक या राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं है । क्या उन्हें विधवापन या ग़रीबी का दुर्भाग्य भुगतना चाहिए क्योंकि उनके पास इसके अलावा कोई सहारा नहीं है कि वे सिलाई, खाना पकाना, घरेलू सेवा या इसी तरह के गौण काम करें या अपनी इच्छा के विरूद्ध विवाह या पुनर्विवाह करें । इस देश के क़ानून का कोई संज्ञान नहीं लेते । औरतें दासों की तरह मर्दों की क़ैदी हैं ।” राष्ट्र की उनकी अवधारणा एक रिपब्लिकन नेशन की तरह है जहाँ राजा और प्रजा नहीं, ऊंच और नीच नहीं, एकाधिकार और विशेषाधिकार नहीं, जहां मेरा वचन ही है शासन नहीं । जहॉं सब जाति- उपजाति और जेंडर भेद में बंटे नहीं हुए हों बल्कि देश में बसने वाला हर इंसान बराबर हो ।

1-C- पंडिता रमाबाई का जीवन हमेशा चुनौतीपूर्ण रहा है । सन् 1876-77 उनके माता-पिता की अकाल मृत्यु हो गई । सन् 1878 में भाई श्री निवास के साथ कलकत्ता गयीं । यहाँ कलकत्ता विश्वविद्यालय के सीनेट हॉल में उनका व्याख्यान हुआ । यहीं रमाबाई को सरस्वती (सीखने की देवी) की उपाधि मिली । 8 मई, 1880 को भाई श्री निवास की मृत्यु हो गई । 13 नवम्बर, 1880 को पंडिता रमाबाई ने बिपिन बिहारी दास मेधावी से विवाह किया । 16 अप्रैल, 1881 को रमाबाई ने एक बेटी मनोरमा को जन्म दिया । रमा उन्हें जॉय ऑफ हार्ट कहती थीं । कुछ ही समय बाद दिनांक 4 फ़रवरी, 1882 को बिपिन बिहारी दास मेधावी का कालरा से निधन हो गया । इस समय रमा की उम्र केवल 24 वर्ष थी ।

1-D- पंडिता रमाबाई 1882 में बेटी मनोरमा के साथ पुणें आ गयीं । 1 मई, 1882 को उन्होंने आर्य महिला समाज की स्थापना किया । जून, 1882 में रमाबाई की पहली किताब स्त्री धर्म नीति का प्रकाशन हुआ । दिनांक 20 अप्रैल, 1883 को मुम्बई से, बुखारा नाम के स्टीमर से, रमाबाई ने बेटी मनोरमा के साथ चिकित्सा अध्ययन के लिए, इंग्लैंड के लिए प्रस्थान किया । दिनांक, 26 अप्रैल को उनका जहाज़ अदन बंदरगाह पहुँचा । 6 मई को माल्टा पहुँच गए । 17 मई, 1883 को वह इंग्लैंड पहुँच गई ।अपने यात्रा विवरण में पंडिता रमाबाई ने लिखा था कि, “ जो समुद्र में कूदना चाहता है उसे ठंड से नहीं डरना चाहिए ।” दिनांक 29 सितम्बर, 1883 को पंडिता रमाबाई और बेटी मनोरमा का बपतिस्मा हुआ और उन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया । उन्हें नया नाम मिला, रमा का नाम हुआ मेरी रमा और बेटी का नाम हुआ मनोरमा मेरी

1-E- पंडिता रमाबाई ने दिनांक 17 फ़रवरी, 1886 को इंग्लैंड में 4 साल रहने के बाद, लंदन से अमेरिका के लिए प्रस्थान किया ।अमेरिका में उनकी चचेरी बहन आनन्दीबाई जोशी मेडिकल की पढ़ाई के लिए गयी थीं । उस समय वह पहली भारतीय महिला थी जो डॉक्टर बनने के लिए अमेरिका गयीं थीं । दिनांक 12 मार्च, 1886 को फ़िलेडेल्फ़िया, अमेरिका में उनका सार्वजनिक भाषण हुआ । सन् 1887 में बोस्टन में अमेरिकन रमाबाई एसोसिएशन की स्थापना की गई । सन् 1887 में रमाबाई की दूसरी किताब द हाई कास्ट हिंदू वुमन का प्रकाशन हुआ । सन् 1887 से 1888 तक उन्होंने अमेरिका में 113 स्थानों पर भाषण दिया । वह हमेशा कहती थीं, जिनके दिल खूबसूरत होते हैं, वे उन लोगों से कई गुना बेहतर हैं जिनके चेहरे सुन्दर हैं, लेकिन वे बुरे लोग हैं । दिनांक 28 नवम्बर, 1888 को सेन फ़्रांसिस्को से ओशिएनिक नाम के जहाज़ से वह वापस भारत की ओर रवाना हुई । अमेरिका से लौटते हुए जहाज़ 19 दिसम्बर, 1888 को जापान में रूका । यहाँ रमाबाई ने 13 दिन बिताए । 2 फ़रवरी, 1889 को पुणे वापस आयीं ।

1-F- पंडिता रमाबाई ने भारत आकर दिनांक 11 अप्रैल, 1889 को मुम्बई में जुहू के एक बंगले में शारदा सदन की स्थापना किया । स्कूल का नाम उनकी पहली विद्यार्थी शारदा के नाम पर रखा गया । जून 1889 तक शारदा सदन में 6 लड़कियाँ हो गई थीं । इसी वर्ष दिसम्बर, 1889 में रमाबाई ने कांग्रेस के पाँचवें राष्ट्रीय अधिवेशन में वक्तव्य दिया । नवम्बर 1890 में शारदा सदन को पुणे स्थानांतरित किया गया । शारदा सदन का पहला मक़सद था- उच्च जाति की विधवाओं को नारकीय जीवन और समाज की ठोकरों से निकालकर, शिक्षित और आत्मनिर्भर बनाना ताकि समाज को अपना योगदान देती हुई वे एक सुखी और सम्मानित जीवन जी सकें । वस्तुतः जो एक बार आज़ादी और ज्ञान का स्वाद चख लेता है, उससे यह छीनना मुश्किल है । मैक्समूलर ने रमाबाई के बारे में लिखा था, “छोटी सी, नाज़ुक लेकिन असल में एक शेरनी की तरह ।”

1-G- पंडिता रमाबाई की आलोचना करते हुए बाल गंगाधर तिलक ने दिनांक 16 जून, 1896 को केसरी के अंक में लिखा है कि, “एक धोखेबाज़ महिला, जो ब्राह्मण पैदा हुई लेकिन जिसने अपने धर्म का त्याग करने से भी पहले शूद्र से विवाह कर लिया, अपने मालिक, अपने पति के मरते ही जिसने बेटी के साथ ईसाई धर्म अपना लिया, जो यहाँ पर सिर्फ़ डॉ. भण्डारकर और जस्टिस रानाडे जैसे पुरूषों को रिझाने आई है, उस महिला के जाल में अपने बन्धु सुधारक को खुद को सहर्ष फँसने देने का दृश्य देखकर रोयें या क्या करें, समझ नहीं आता । अपनी रक्षा में पंडिता रमाबाई का चिल्लाना पागल कुत्ते के रोने जैसा है ।”

1-H- पंडिता रमाबाई वर्ष 1896-97 में अकाल के दौरान लगभग 300 लड़कियों को बचाकर पुणे में लायीं और केडगॉंव में मुक्ति सदन प्रारम्भ किया । दिनांक 20 मार्च, 1899 को उन्होंने कृपा सदन की नींव डाली । 20 सितम्बर, 1899 को रमाबाई ने मुक्ति चर्च की नींव रखी । वर्ष 1901 में रमाबाई ने एक प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना किया तथा 1903 में मुक्ति प्रेयर बिल पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया । 24 जुलाई, 1921 को रमाबाई की इकलौती बेटी मनोरमा की मृत्यु हो गई । मार्च, 1922 में रमाबाई ने मराठी बाइबिल का अनुवाद पूरा किया और दिनांक 5 अप्रैल, 1922 बुधवार की सुबह 5 बजे नींद के आग़ोश में ही पंडिता रमाबाई का देहान्त हो गया । दिनांक 24 जुलाई, 1922 को मुक्ति मिशन का नाम बदलकर पंडिता रमाबाई मुक्ति मिशन किया गया ।

1-I- पंडिता रमाबाई की मृत्यु पर दिनांक 7 अप्रैल, 1922 के अंक में टाइम्स ऑफ इंडिया ने लिखा, “यह एक देवदूत के जीवन का अंत है, ख़ुद अकिंचन होते हुए भी दूसरों को समृद्ध करता, कुछ न होते हुए भी जिसके पास सब कुछ था । सरोजिनी नायडू ने रमाबाई को याद करते हुए एक स्मृति सभा में कहा था कि, “वह पहली ईसाई है जो हिंदू संतों के कैलेंडर में दाखिल हो गई ।” उसने जीवन में बस मेहनत करना ही सीखा था और वह एक शानदार औरत थी । वह हमेशा कहती थीं कि, ‘मेरी प्रतिष्ठा नष्ट हो, लेकिन हज़ारों की बदहाली दूर हो जाए तो मेरी प्रतिष्ठा का नष्ट होना कोई मुद्दा नहीं है ।’ इतिहास में बहुत सी स्त्रियाँ ऐसे ही चुपचाप काम करती हुई, बर्दाश्त करती, संघर्ष करती हुई एक शहीद की तरह दर्ज होती हैं ।

1-j- पंडिता रमाबाई का जीवन हमें संदेश देता है कि, एक सशक्त स्त्री वह है जिसके पास अपने सपने हैं, अपने विचार हैं, देश और समाज को लेकर जिसके पास अपना एक विजन है सशक्त स्त्री वह है जो तब भी सच बोलती है जब उसके अपने उसके साथ खड़े होने से कतराते हैं वह आज्ञाकारिणी नहीं बनी रहती है ललकार से नहीं डरती चुनौतियों से नहीं घबराती सशक्त स्त्री वह है जो किसी निर्णय प्रक्रिया में शामिल होती है तो उसके पास अपनी स्वतंत्र राय होती है भले ही वह स्थापित मान्यताओं और विश्वासों के खिलाफ हो वह जब मंच पर अपनी बात रखती है तो ध्यान रखती है कि उसकी बात सामुदायिक हित का प्रतिनिधित्व करे वर्ष 2016 में रूटलेज पब्लिकेशन हाउस से प्रकाशित, मीरा कोशम्बी की पुस्तक पंडिता रमाबाई : लाइफ़ ऐंड लैंडमार्क राइटिंग्स पंडिता रमाबाई के जीवन संघर्ष पर प्रकाश डालती है । राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित, दिल्ली विश्वविद्यालय की प्राध्यापिका सुजाता की पुस्तक “विकल विद्रोहिणी पंडिता रमाबाई” भी एक पठनीय रचना है ।

2- पंजाब शब्द फ़ारसी के पंज (पाँच) और आब (पानी) के मिलने से बना है । इसका अर्थ होता है पाँच नदियों की भूमि । यह पाँच नदियाँ हैं : व्यास, सतलुज, रावी, चेनाब और झेलम ।भारत विभाजन की सबसे ज़्यादा त्रासदी झेलने वाले राज्य पंजाब का पश्चिमी भाग पाकिस्तान में चला गया ।भारत के हिस्से में आए पंजाब प्रांत का 1966 में पुनः विभाजन किया गया । इससे हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और वर्तमान पंजाब के रूप में तीन राज्य बने । यहाँ सिक्ख समुदाय की आबादी लगभग ६० फ़ीसदी है जबकि ३७ प्रतिशत हिंदू आबादी भी निवास करती है ।

3- भारत के उत्तर- पश्चिमी भाग में स्थित राज्य पंजाब का कुल क्षेत्रफल 50.362 वर्ग किलोमीटर है ।इसके पूर्व में हिमाचल प्रदेश, दक्षिण में हरियाणा, दक्षिण- पूर्व में राजस्थान, पश्चिम में पाकिस्तान और उत्तर में जम्मू और कश्मीर है । पंजाब की राजधानी चंडीगढ़ है । पंजाबी यहाँ की सरकारी भाषा है । 2011 की जनगणना के अनुसार यहाँ की जनसंख्या 2 करोड़, 77 लाख, 4 हज़ार , 236 है ।यहाँ की साक्षरता दर 76.68 प्रतिशत है । पंजाब की विधानसभा एक सदनीय है और इसमें कुल 117 सदस्य चुने जाते हैं । यहाँ से लोकसभा के 13 और राज्य सभा के 7 सदस्य चुने जाते हैं ।

4- 3 to 6 जून, 1984 को पंजाब राज्य में आपरेशन ब्लू स्टार चलाया गया था । इस आपरेशन में भारतीय सेना अमृतसर में स्थित स्वर्ण मंदिर के भीतर घुस गई थी और वहाँ से हथियारों का ज़ख़ीरा बरामद किया गया था । इस आपरेशन में विद्रोहियों के नेता जनरैल सिंह भिंडरावाले की मौत हो गई थी ।इसका एक नतीजा 31 अक्तूबर, 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या के रूप में सामने आया ।राज्य में अकाली राजनीति की यही पृष्ठभूमि थी । वर्ष 2022 में सम्पन्न हुए पंजाब विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की सरकार सत्ता में आई ।

5- योग का अर्थ है- मिलन अर्थात् जीवात्मा का परमात्मा से मिलन । गीता में योग को दुःख संयोग का वियोग बताया गया है । पतंजलि सिर्फ़ योग दर्शन के प्रणेता और योगसूत्र रचयिता ही नहीं बल्कि महाभाष्य के रचयिता भी माने जाते हैं ।योगसूत्र में चार पाद हैं : समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद और कैवल्यपाद ।याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार हिरण्यगर्भ योग के वक्ता हैं और पतंजलि ने तो प्राचीन काल में प्रतिपादित शास्त्र का उपदेश मात्र दिया है ।

6- योगसूत्र के समाधिपाद में योग का लक्षण, चित्त की वृत्तियाँ, समाधि का भेद आदि विषयों की चर्चा है । साधनपाद में क्रियायोग, क्लेश तथा उसके भेद, क्लेशों को दूर करने के साधन, योग के यम, नियम आदि आठ अंगों का विशद विवरण दिया गया है विभूतिपाद में समाधि तथा योग के अनुष्ठान से उत्पन्न होने वाली सिद्धियों का प्रतिपादन है । कैवल्य पाद में निर्माण चित्त का वर्णन, विज्ञान वाद का निराकरण तथा कैवल्य का निर्णय है । इस प्रकार से यह ग्रन्थ 195 सूत्रों के भीतर पूरे योग दर्शन का प्रतिपादन करता है ।

7- पनोप्टिकॉन शब्द दो घटकों से मिलकर बना है : पन और ऑप्टिकॉन । पन का अर्थ होता है कैदी और ऑप्टिकॉन का मतलब है क़ैदियों पर नज़र रखने वाला निगरानीकर्ता । एक ऐसी जगह जहां क़ैदियों पर निगाह रखी जाती हो, जेल हो सकती है । इस पद और इससे जुड़ा सिद्धांत गढ़ने का श्रेय अंग्रेज दार्शनिक और सामाजिक सिद्धांतकार जेरेमी बेन्थम को जाता है । उन्होंने 1785 में एक कारागार की डिज़ाइन के रूप में इसका ब्लूप्रिंट बनाया था । बेंथम का मानना था कि यदि पनोप्टिकॉन जैसे स्थापत्य के तहत काम किया जाए तो लोगों को नैतिक दृष्टि से सुधारा जा सकता है ।

8 – फ़्रांसीसी चिंतक मिशेल फूको ने अपनी रचना डिसिप्लिन एंड पनिश में बेंथम की इस अवधारणा के इस्तेमाल के ज़रिए दिखाया कि किस तरह आधुनिक समाज में कारागार ही नहीं बल्कि फ़ौज, स्कूल, अस्पताल और फ़ैक्टरियों जैसी कोटिक्रम आधारित संरचनाओं का विकास ऐतिहासिक रूप से पनोप्टिकन के तर्ज़ पर ही हुआ है । साहित्यिक और सांस्कृतिक निरूपणों में पनोप्टिकॉन जैसी संरचनाओं का ज़िक्र होता रहता है । इनमें फ्रेंज काफ़्का की विख्यात रचना द कैसल और ग्रेबियल गार्सिया मार्खेज की रचना क्रॉनिकल ऑफ अ डैथ फोरटोल्ड भी शामिल है ।

9- परस्पर विपरीत द्विभाजन अथवा बाइनरी अपोजीशन, पूरी तरह से विपरीत अर्थ देने वाले दो पदों का ऐसा युग्म होता है जिससे एक तीसरा अर्थ प्राप्त हो ।शब्दों और पदों के इस तरह के जोड़ों के प्रभाव पर सबसे पहले अरस्तू ने अपनी रचना पोइटिक्स में विचार किया ।आधुनिक ज्ञान प्रणालियों के लिए एक अर्थ- सूचक प्रणाली के तौर पर परस्पर विपरीत द्विभाजन की सैद्धांतिक स्थापना फर्दिनैंद द सस्यूर ने की थी । इस प्रणाली के तहत उन शब्दों के जोड़े बनाए जाते हैं जिनकी अर्थवेत्ता में उल्टे- सीधे का अंतर हो ।जैसे- धरती- समुद्र ।इसमें परस्पर विपरीत धरती और समुद्र मिलकर पृथ्वी की सतह का अर्थ देते हैं ।

10- परम्परा की आधुनिकता का जन्म द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद नवोदित राष्ट्रों की पुनर्रचना के दौरान हुई । यह अवधारणा समाज और आधुनिक विचार के बीच अन्योन्यक्रिया का अध्ययन करके विकसित की गई है ।आधुनिकता परम्परा के उन पहलुओं के साथ सकारात्मक संवाद करती है जो उसके अनुकूल होते हैं और एक पारम्परिक समाज भी आधुनिकता के उन्हीं पहलुओं को अपनाता है जो परम्परा का नवीकरण करने में समर्थ हों । 1967 में यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो में कार्यरत लॉयड और सुजैन रूडोल्फ़ की बहुचर्चित पुस्तक द मॉडर्निटी ऑफ ट्रैडीशन : पॉलिटिकल डिवलेपमेंट इन इंडिया में सामाजिक स्तरीकरण, करिश्माई नेतृत्व और क़ानून पर चर्चा की गई है ।

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11– भारतीय विद्वान रजनी कोठारी ने 1969 में प्रकाशित अपनी पुस्तक पॉलिटिक्स इन इंडिया में परम्परा की आधुनिकता को वाणी देते हुए कहा कि, “ आधुनिकता के सम्पर्क में आने पर भारतवासियों ने सबसे बड़ा असर यह ग्रहण किया कि वे अपनी पारम्परिक अस्मिता के प्रति नए शिरे से सचेत होते चले गए । आधुनिकता के प्रभाव में उस अस्मिता की पुनर्व्याख्या करके उसमें नवजीवन का संचार किया गया और नई संस्थाओं और विचारों के सन्दर्भ में उसका सुदृढ़ीकरण हुआ । यही था भारत के आधुनिकीकरण का रास्ता ।”

12-रजनी कोठारी के बाद सन् 1989 में भीखू पारिख की दो बहुचर्चित रचनाएँ कोलोनियलिज्म, ट्रेडिशन ऐंड रिफॉम : एन एनॉलिसिस ऑफ गॉंधीज पॉलिटिकल डिस्कोर्स और गॉंधीज पॉलिटिकल फिलॉसफी : ए क्रिटिकल एग्जामिनेशन सामने आई, जिसमें परम्परा की आधुनिकता को गांधी के उपनिवेशवाद, परम्परा और सुधार के परिप्रेक्ष्य में रेखांकित किया गया । पारिख ने इन रचनाओं में दिखाया कि आधुनिक राष्ट्र के निर्माण के लिए गांधी किस तरह परम्परा के कुछ पहलुओं की पुनर्रचना करते हैं । वस्तुतः परम्परा में निहित आधुनिकता के पहलुओं को रेखांकित करना ही परम्परा की आधुनिकता का उद्देश्य है ।

13- परिणामवाद या प्रैगमैटिज्म किसी वक्तव्य, कार्रवाई या आकलन के सहीपन का निर्धारण उसकी व्यावहारिकता के प्रभाव के अनुसार करने की वकालत करता है । सी.एस. पर्स के अनुसार, परिणामवाद ज्ञान की खोज को एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में देखता है जिसकी शुरुआत संदेह से होती है लेकिन जिसका समाधान आस्था में होता है । उनके निबंध व्हाट प्रैगमैटिज्म इज ? को इस दर्शन की बुनियादी रचना माना जाता है । विलियम जेम्स उनके दार्शनिक उत्तराधिकारी थे जिनकी रचना प्रैगमैटिज्म : ए न्यू नेम फ़ॉर सम ओल्ड वेज ऑफ थिंकिंग 1907 में प्रकाशित हुई ।

14- परिणामवाद के समकालीन चिंतकों में रिचर्ड रोर्ती का नाम प्रमुखता से लिया जाता है । रोती ने बुद्धिवाद, सांस्कृतिक अस्मिता और राजनीति के सवालों के बारे में तात्त्विकतावाद विरोधी रवैया अख़्तियार करने के लिए परिणामवाद का इस्तेमाल किया । उसने दलील दी कि हम अपने चिंतन के लिए भाषा के मोहताज हैं इसलिए हमारा कोई भी यथार्थ भाषा से परे नहीं हो सकता । यथार्थ के अस्तित्व को भाषा के बाहर रेखांकित करने वालों को रोर्ती ने ज्ञान के संदर्भ में निरूपणवादी की संज्ञा दी और ख़ुद को इस निरूपण वाद के विरोध में खड़ा किया ।

15- भारत के पूर्वी भाग में स्थित राज्य पश्चिम बंगाल की स्थापना 1 नवम्बर, 1956 को हुई थी ।इसकी राजधानी कोलकाता है । पश्चिम बंगाल के नेपाल, भूटान और सिक्किम, पूर्व में असम और बांग्लादेश, पश्चिम में बिहार तथा झारखंड तथा उड़ीसा है । इसका कुल क्षेत्रफल 88 हज़ार, 752 वर्ग किलोमीटर है । वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार यहाँ की जनसंख्या 9 करोड़, 13 लाख, 47 हज़ार, 736 है । यहाँ की साक्षरता दर 77.1 प्रतिशत है ।

16- पश्चिमी बंगाल की विधानसभा एक सदनीय है ।यहाँ की विधानसभा में कुल 295 सदस्य होते हैं । यहाँ से लोकसभा के 42 और राज्य सभा के 16 सदस्य चुने जाते हैं । बंगाली और अंग्रेज़ी यहाँ की राजकीय भाषाएँ हैं । यहाँ का उच्च न्यायालय कोलकाता में स्थित है । ईसा पूर्व तीसरी सदी में बंगाल का सीमाई इलाक़ा अशोक के साम्राज्य का हिस्सा था । वर्ष 1962 में बंगाल से अलग होकर बिहार और उड़ीसा राज्य बने । मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता ज्योति बसु ने लगातार 23 साल इस राज्य के मुख्यमंत्री रहकर (21 जून, 1977 से 6 नवम्बर, 2000) अनूठा रिकॉर्ड बनाया ।

17- प्लेटो और अरस्तू के बाद यूनानी काव्य- समीक्षा के क्षेत्र में एक प्रतिनिधि काव्यशास्त्री लोंजाइनस का नाम प्रमुखता से लिया जाता है । उन्होंने औदात्य सिद्धांत का प्रतिपादन किया ।लोंजाइनस के इस सिद्धांत की अवधारणा ने साहित्येतर इतिहास, दर्शन और धर्म जैसे विषयों को भी अपने अंतर्गत समावेशित किया । उनके अनुसार औदात्य वाणी का उत्कर्ष, कांति और वैशिष्ट्य है ।जिसके कारण महान कवियों, इतिहासकारों, दार्शनिकों को प्रतिष्ठा और ख्याति प्राप्त हुई है ।

18- उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में बादलेयर, मेलार्मे, बर्लेन तथा वैलरी आदि ने प्रतीकवाद को बल प्रदान किया । 1886 में कवि ज्यॉं मोरेआस ने फिगारो नामक पत्र में प्रतीकवाद का घोषणा पत्र प्रकाशित किया ।इस समीक्षा सम्प्रदाय ने काव्य में शब्द का महत्व सर्वोपरि बताया और कहा कि कविता शब्दों से लिखी जाती है, विचारों से नहीं । काव्य सर्वसाधारण के लिए नहीं बल्कि उसे समझ सकने वाले लोगों के लिए होता है । कवि किसी अन्य के प्रति नहीं बल्कि अपनी आत्मा के प्रति प्रतिबद्ध होता है ।शब्द विचारों और अनुभूतियों के प्रतीक होते हैं ।

19- पृथकतावाद या सेसेशनिज्म लैटिन भाषा के शब्द सेसेशियो से बना है । इसका अर्थ है किसी संगठन, किसी संघ या किसी राज्य से अलग होने की माँग करना ।यह आन्दोलन शांतिपूर्ण भी हो सकता है और हथियार बंद भी । इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा का प्रस्ताव संख्या 1914, साफ़ तौर पर आत्मनिर्णय के राष्ट्रवादी उसूल को मान्यता प्रदान करता है ।चूँकि आधुनिक राष्ट्र -राज्य व्यावहारिक तौर पर जातीय बहुलता से बनी संरचना है, इसलिए आत्मनिर्णय का यह अधिकार अलगाव के अधिकार में बदल जाता है ।

20- प्राचीन भारत के विद्वान पाणिनि संस्कृत के सबसे बड़े व्याकरण थे।आज से कोई ढाई हज़ार साल पहले उन्होंने अपने ग्रन्थ अष्टाध्यायी में संस्कृत भाषा को व्याकरण सम्मत रूप दिया । यह बात महत्वपूर्ण है कि अष्टाध्यायी सिर्फ़ एक व्याकरण ग्रन्थ भर न होकर अपने समय के भूगोल, सामाजिक, आर्थिक, शिक्षा, राजनीतिक जीवन, दार्शनिक चिंतन, खान- पान, रहन- सहन, लोकजीवन और तत्कालीन भारतीय समाज का विश्वसनीय व तथ्यपरक ऐतिहासिक दस्तावेज भी है । पाणिनि का जन्म पश्चिमोत्तर भारत में स्थित गांधार के शालातुर यानी आज के लहुर गॉंव में हुआ था ।

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21- पाणिनि ने अष्टाध्यायी को आठ अध्यायों में विभाजित किया । प्रत्येक अध्याय के चार पाद हैं और प्रत्येक पाद में कई सूत्र हैं । सभी सूत्रों की संख्या लगभग चार हज़ार है । पूरी पुस्तक 14 सूत्रों पर, जिन्हें महेश्वर सूत्र कहा जाता है, आधारित है ।पाणिनि के व्याकरण सिद्धांतों से आधुनिक भाषाशास्त्र ने काफ़ी कुछ लिया है । उन्नीसवीं सदी के यूरोप में फ्रेंज बॉप उनके पहले अध्येता थे ।इसके बाद फर्दिनैंद द सस्यूर, लियोनार्ड ब्लूमफील्ड और रोमन जैकबसन जैसे भाषा शास्त्रियों ने पाणिनि और भर्तृहरि द्वारा प्रवर्तित सिद्धांतों के यूरोपीय भाषाओं पर प्रभाव को रेखांकित किया ।

22- तत्कालीन भारत में गांधार की पूर्वी राजधानी तक्षशिला से पश्चिमी राजधानी पुष्कलावती कुल्लू काँगड़ा फैला हुआ था जिसे उस समय त्रिगर्त कहा जाता था । इसी में वह प्रदेश था जो सिंध नदी के उत्तर से दक्षिण तक फैला हुआ था । इसके उत्तरी छोर पर सौबीर (सिंध) था, जिसे आजकल क़बायली इलाक़े की पहचान मिली है। पाणिनि ने इस प्रदेश में रहने वाले कबीलों की सूची बनाई और उनके संविधानों का अध्ययन किया । इस प्रदेश को ग्रामणीय क्षेत्र कहा जाता था ।

23- वासुदेव शरण अग्रवाल ने पाणिनि कृत अष्टाध्यायी के सूत्रों में वर्णित भारतीय सभ्यता के बिखरे सूत्रों को इकट्ठा कर उन्होंने इंडिया एज नोन टु पाणिनि (1941) की रचना की । पाणिनि बुद्ध की तरह मध्य मार्ग के अनुयायी थे । सम्भवतः उन्होंने तक्षशिला विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य भी किया है ।पाणिनि की कृति का प्रत्येक अक्षर व्याकरण में प्रमाण माना जाता है । पतंजलि के अनुसार पाणिनि ने जो सूत्र एक बार लिखा उसे काटा नहीं ।

24- पारिस्थितिकीय दर्शन अथवा गहन पारिस्थितिकीय को सैद्धांतिक आधारभूमि प्रदान करने का श्रेय नार्वे के प्रमुख दार्शनिक अर्ने नेस्स (1912-2009) को जाता है । उनके दार्शनिक विचारों पर स्पिनोजा, बौद्ध दर्शन और गॉंधी का प्रभाव है ।वर्ष 1962 में प्रकाशित रिशेल कार्शन की रचना साइलेंट स्प्रिंग से नेस्स को गहरी प्रेरणा मिली। उन्होंने अपने पर्यावरणीय दृष्टिकोण में अहिंसा का विचार शामिल किया और दूसरी ओर व्यावहारिक स्तर पर अहिंसक विरोध प्रदर्शनों में भागीदारी की । 1972 में थर्ड वर्ल्ड फ्यूचर कांफ्रेंस में नेस्स ने अपनी प्रस्तुति में पहली बार सतही और गहन पारिस्थितिकी के बीच अंतर किया ।

25- वर्ष 1973 में प्रकाशित अपनी पुस्तक द शैलो एंड द डीप : लॉंग रेंज इकॉलॉजी मूवमेंट में उन्होंने स्पष्ट किया कि सतही पारिस्थितिकी प्रदूषण संसाधन- क्षरण की चर्चा करती है और इसका मुख्य उद्देश्य विकसित देशों के निवासियों के स्वास्थ्य और संवृद्धि की रक्षा करना है । गहन पारिस्थितिकी के विचारकों में रिशेल कार्सन, एल्डो लियोपोल्ड, बैरी कॉमनर, पॉल सिअर्स और फ्रिटजोफ काप्रा प्रमुख हैं । इन सभी की कोशिश है कि पर्यावरणीय चिंतन में मनुष्य की जगह प्रकृति को चिंतन के केन्द्र में लाया जाए ।

26- इकॉलॉजी या पारिस्थितिकी शब्द का प्रयोग सबसे पहले अर्नेस्ट हेक्किल ने किया था । यह अभिव्यक्ति जीवों और उनके अपने वातावरण के बीच आपसी रिश्तों से सम्बंधित है । एक विचारधारा के रूप में सामने आने के लिए पारिस्थितिकवाद में तीन बुनियादी विशेषताएँ होनी चाहिए : पहली अवधारणाओं और मूल्यों का ऐसा समूह जो वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था की समीक्षा पेश करे । दूसरी, किसी समाज की वैकल्पिक रूपरेखा प्रस्तुत करे और तीसरी बात वैकल्पिक रूपरेखा के अनुसार समाज को ढालने के लिए रणनीति और सामाजिक कार्यक्रम

27- सन् 1972 में लिमिट्स ऑफ ग्रोथ रिपोर्ट का प्रकाशन हुआ । डॉनेला मीडॉ, डेनिस मीडॉस, जॉर्गन रेंडर और विलियम वेहन्स द्वारा तैयार इस रपट में चेतावनी दी गई थी कि अगर संसाधनों का दोहन मौजूदा दर से होता रहा तो आने वाले 100 वर्षों में मानवीय अस्तित्व ख़तरे में पड़ जाएगा ।ग्रोथ यानी संवृद्धि की सीमा सम्बन्धी थिसिज का पर्यावरणीय चिंतन की दिशा में बहुत महत्व है । इस रपट ने मानव और प्रकृति के बीच परस्पर निर्भर सम्बन्धों पर ज़ोर दिया ।

28– दिनांक 7 मई, 1880 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी ज़िले में चिपलून के क़रीब पेढेम नामक स्थान पर चितपावन ब्राह्मण परिवार में जन्में पाण्डुरंग वामन काणे (1880–1972) संस्कृत के प्रकांड विद्वान और भाष्यकार हैं । वह प्राचीन भारतीय इतिहास का पुनर्विवेचन कुछ इस तरह करना चाहते थे कि उससे न केवल समाज सुधार में बल्कि उससे भी आगे बढ़कर स्वराज्य प्राप्त करने में सहायता मिले । उनकी विशाल पाँच खंडीय रचना, 1930 से 1962 के बीच लिखी गई, हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र उनकी बौद्धिक उपलब्धियों का महान कीर्ति स्तंभ है । काणे ने संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में अपने कार्य का प्रारंभ द हिस्ट्री ऑफ अलंकार लिट्रेचर से किया । इसका प्रकाशन 1905 में हुआ ।

29- पाण्डुरंग वामन काणे का मानना था कि भारतीय संविधान द्वारा प्राचीन भारत में व्याप्त पारम्परिक विचारों और आचार- व्यवस्था के नियमों की अनदेखी करने के कारण नागर समाज में एक गलत अवधारणा ने जन्म लिया जिसके तहत लोग अपने अधिकारों के लिए तो सचेत दिखते हैं परन्तु अपने उत्तरदायित्व और कर्तव्य के प्रति उदासीन रहते हैं ।वर्ष 1951 में प्रकाशित उनकी रचना द हिस्ट्री ऑफ संस्कृत पोएटिक्स को विद्वानों ने हाथों हाथ लिया । धर्म शास्त्र विचार (1935), वैदिक बेसिस ऑफ हिन्दू लॉ (1936), हिन्दू कस्टम एंड माडर्न लॉ (1950) उनकी अन्य उल्लेखनीय कृतियाँ हैं ।

30- पाण्डुरंग वामन काणे 1947 से 1949 के दौरान मुम्बई युनिवर्सिटी के कुलपति रहे । 1953 में वह इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए । 1958, 1951 और 1954 में वह इंटरनेशनल कांग्रेस ऑफ ओरियंटलिस्ट में भारत सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर शामिल हुए । 1951 में लंदन स्कूल ऑफ ओरियंटल ऐंड अफ्रीकन स्टडीज़ द्वारा फ़ेलोशिप प्रदान की गई ।अकादमिक जीवन में उनके योगदान के लिए भारत सरकार द्वारा उन्हें राज्य सभा सदस्य के रूप में मनोनीत किया गया । 1959 में मुम्बई यूनिवर्सिटी के एलफिंस्टन कालेज में नेशनल प्रोफ़ेसर ऑफ इण्डोलॉजी नियुक्त किया गया । वर्ष 1963 में भारत सरकार ने देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया ।

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31- फ़्रांसीसी चिंतक पिएर बोर्दियो (1930-2002) संस्कृति और शिक्षा के समाजशास्त्रीय पहलुओं में सर्वेक्षण आधारित अनुसंधान और मानकीय सैद्धांतिक चिंतन का साथ- साथ प्रयोग किया । उन्होंने हैबिट्स और फ़ील्ड की अवधारणाओं का विकास किया । बोर्दियो के लिए हैबिट्स का मतलब था आजीवन ज्ञानार्जन और समाजीकरण की प्रक्रिया के ज़रिए बनी व्यक्ति की मनोवृत्तियाँ और फ़ील्ड का मतलब था सामाजिक परिस्थिति का वस्तुनिष्ठ यथार्थ । उनके समाजशास्त्र की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि संस्कृति को एक भौतिक शक्ति के रूप में व्याख्यायित करके सांस्कृतिक पूँजी की अवधारणा का विकास है ।

32- सामाजिक पूँजी ऐसे वास्तविक और निराकार संसाधनों का योगफल है जो किसी व्यक्ति या समूह को किसी सामाजिक नेटवर्क की सदस्यता की बदौलत हासिल होते हैं । इस सामाजिक पूँजी को लगातार प्रासंगिक और प्रभावी बनाए रखने के लिए व्यक्ति आपसी मेलजोल में अपने समय का योजनाबद्ध निवेश करता है । सामाजिक पूँजी से ही सांस्कृतिक पूँजी की अवधारणा निकलती है ।अंग्रेज़ शिक्षाशास्त्री और लेखक मैथ्यू अरनॉल्ड की रचना कल्चर ऐंड एनार्की (1869) में इसकी ओर संकेत किया गया था ।

33-पियरो स्राफा (1898-1983) एक इतालवी अर्थशास्त्री हैं जिन्हें नव -रिकार्डोवादी स्कूल का प्रमुख अर्थशास्त्री माना जाता है ।उनका कहना था कि बाज़ार में आदर्श प्रतियोगिता का मॉडल चलता ही नहीं है । बजाय इसके परस्पर निर्भरता और मोनोपॉली अर्थात् एकाधिकार और सीमित प्रतियोगिता का मॉडल अपनाया जाना चाहिए । अर्थशास्त्र के इतिहास में कैम्ब्रिज विवाद के नाम से विख्यात बहस में स्राफा ने दावा किया था कि मूल्य का पारम्परिक सिद्धांत दरअसल वृत्ताकार है, इसलिए इस सिलसिले में एक नए सिद्धांत का प्रतिपादन किया जाना चाहिए ।

34- क्लासिकल समझ के मुताबिक़ उत्पादन की प्रवृत्ति वृत्ताकार होती है अर्थात् वस्तुओं का प्रयोग वस्तुओं के उत्पादन में होता है और जितनी वस्तुओं से शुरुआत की गई थी उससे अधिक का उत्पादन होने की सूरत में अधिशेष पैदा होता है ।स्राफा ने इस मॉडल की सुसंगति पर ज़ोर देते हुए दिखाया कि इसके ज़रिए सापेक्षिक दामों अथवा मूल्य की व्याख्या की जा सकती है । साथ ही मज़दूरी और मुनाफ़े के बीच आय के वितरण का निर्धारण भी किया जा सकता है ।

35– केरल के कालीकट शहर के निकट कोट्टक्कल क़स्बे में दिनांक 16 मार्च, 1869 को एक प्रतिष्ठित परिवार में जन्में पन्नियिन्पल्ली संकुन्नी वारियर जिन्हें पूरे देश में पी. एस. वारियर (1869-1944) के नाम से जाना जाता है, ने भारत में आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के पुनर्जागरण का अभियान चलाया । उन्होंने आयुर्वेद की शिक्षा और औषधि निर्माण को आधुनिक, सेकुलर और वैज्ञानिक रूप दिया ।आज केरल का सबसे बड़ा ब्रांड केरल- आयुर्वेद इन्हीं वैद्य पी.एस.वारियर की ही विरासत है ।

36- पी.एस.वारियर ने आयुर्वेद के मानकीकरण के लिए सबसे पहले 1902 में कोट्टक्कल में औषधि निर्माण हेतु आर्य वैद्य शाला की स्थापना किया ।1907 में एलोपैथी और आयुर्वेद के बीच सामंजस्य तलाश करने के लिए उन्होंने आयुर्वेद वैद्य समाजम की स्थापना किया । वर्ष 1917 में वारियर ने आयुर्वेद की प्रामाणिकता शिक्षा के लिए आयुर्वेद पाठशाला की स्थापना किया । आयुर्वेद में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रसार हेतु वारियर ने धन्वंतरि नामक आयुर्वेद जर्नल का सम्पादन किया ।1932 में भारत सरकार ने वारियर को वैद्य रत्नम की उपाधि से विभूषित किया ।

37- पुराण का एक शब्द के रूप में अर्थ होता है- पुरानी कथाओं या आख्यापिकाओं का संग्रह ।पुराणों में अपने ज़माने के राजनीतिक, सामाजिक, कूटनीतिक और गृहस्थ जीवन के विविध पक्षों पर विचार किया गया है । उन्होंने कृषि, वाणिज्य, राजधर्म, नृत्य, वाद्य, संगीत, मूर्तिकला, चित्रकला, वृक्षारोपण, वाप- कूप, तडाग की प्रतिष्ठा, उद्यान की सजावट, भवन, दुर्ग तथा मार्गों का निर्माण इत्यादि जीवनोपयोगी विविध विषयों को बहुत ही प्रमुखता से जगह दी गई है । दार्शनिक स्तर पर पुराण बहुत जगह वेद के क़रीब हैं । महाभारत के खिल पर्व की गणना हरिवंश पुराण के नाम से की जाती है ।

38- विभिन्न स्रोतों से महापुराणों की संख्या सामान्यतः इस क्रम में 18 मानी जाती है : ब्रम्ह, पद्म, विष्णु, शिव या वायु, श्रीमद्भागवत, नारद, मार्कण्डेय, अग्नि, भविष्य, ब्रम्हवैवर्त, लिंग, वराह, स्कन्द, वाहन, कूर्म, मत्स्य, गरूड़ और ब्रम्हाण्ड । समझा जाता है कि भागवत, वाराह और विष्णु पुराण 12 वीं शताब्दी, ब्रम्ह पुराण 14 वीं शताब्दी, पद्म पुराण 16 वीं शताब्दी तथा नारदीय पुराण 16 वीं या 17 वीं शताब्दी की रचनाएँ हैं । परन्तु अलबरूनी की 1031 ईस्वी की भारत सम्बन्धी किताब में 18 महापुराणों एवं 18 उप पुराणों के नाम शामिल होने से इस मत का खंडन हो जाता है ।

39 – पुराण अपने मूल रूप में विशेषण हैं ।प्राचीन समय से जिस साहित्य का सम्बन्ध रहा वह पुराण कहलाने लगा ।आगे चलकर वह संज्ञा में बदल गया ।आदिपर्व में महाभारत को भी पुराण और पाँचवाँ वेद कहा गया है । छांदोग्य उपनिषद में वेदों के साथ पुराण को भी पाँचवां वेद कहा गया है ।पुराणों में ब्रम्ह को प्रकृति में व्याप्त माना गया है । यह एक अपने युग के मुताबिक़ क्रांतिकारी दार्शनिक विचार था ।

40 – पुरुषत्व एक ऐसी अवधारणा है जो जेण्डर व्यवहार को तय करती है । पुरुष अध्ययन के विद्वान बॉब कॉनेल ने अपनी पुस्तक जेंडर एंड पावर में दिखाया है कि पुरुष अगर बेहतर सत्ता, संसाधनों और सामाजिक दर्जे का स्वामी है तो इसके पीछे एक प्रबल वर्चस्व की भूमिका है जिसका ऐतिहासिक रूप से पुनरुत्पादन होता रहता है । उन्होंने यह भी कहा कि पुरुष होने का लाभ सभी श्रेणियों के पुरुषों को समान रूप से नहीं मिलता । कॉनेल का यह सिद्धांत मल्टिपल मेस्कुलिनिटीज के नाम से जाना जाता है ।

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41- मीमांसा का तात्पर्य है पूजित विचार या पूजित जिज्ञासा । एक दर्शन के रूप में मीमांसा का सम्बन्ध कर्मकाण्ड तथा वेद की व्याख्या से है । यह वेद के मंत्र- ब्राह्मण रूपी पूर्व भाग या कर्मकाण्ड पर आधारित है ।अतः इसे पूर्व मीमांसा, कर्म- मीमांसा या धर्म- मीमांसा कहते हैं । वेदान्त वेद के उत्तर भाग अर्थात् उपनिषद- भाग या ज्ञान कांड पर आधारित है अतः इसे उत्तर मीमांसा, ज्ञान मीमांसा या ब्रम्ह मीमांसा कहते हैं । मीमांसा सूत्र के रचयिता आचार्य जैमिनि हैं ।

42- जैमिनि रचित मीमांसा सूत्र में बारह अध्याय तथा तीन हज़ार सूत्र हैं । इनमें बताया गया है कि क्या करना चाहिए तथा क्या नहीं करना चाहिए । इसमें मुख्यतः धर्म की चर्चा है तथा धर्म जिज्ञासा से ही यह शुरू होता है । आचार्य जैमिनि ने धर्म को वेद आधारित माना है ।वह मानते हैं कि फल किसी दाता पर निर्भर नहीं है बल्कि कर्म के अनुरूप स्वयं प्राप्त होता है । जैमिनि की मान्यता थी कि कर्म ही मानव जीवन का आधार है ।प्राचीन काल में न्याय शब्द का प्रयोग पूर्व मीमांसा के लिए किया जाता था ।

43- मीमांसा के सिद्धांतकारों ने कहा कि वेदों पर उनकी आस्था अंधविश्वास पर होकर उनकी वैधता और प्रामाणिकता पर आधारित है । मीमांसकों के अनुसार प्रत्येक प्रभाव का एक कारण होता है ।प्रत्येक कर्म का अपना फल होता है ।प्रत्येक वस्तु में एक अंतर्निहित एक शक्ति होती है । यह शक्ति ही फल अथवा प्रभाव को जन्म देती है ।यदि इस शक्ति को नष्ट कर दिया जाए तो प्रभाव कार्यान्वित नहीं होता । बीज का अंकुरण उसकी अंतर्निहित शक्ति का उदाहरण है । जैमिनि इस रहस्यमयी शक्ति को अपूर्व कहते हैं

44- जैमिनि का कहना है कि शब्द ठीक- ठीक वही ध्वनियाँ और नाद नहीं हैं, जिन्हें हम सुनते हैं ।शब्द वास्तव में अक्षरों से रचे जाते हैं, जो स्थिर और शाश्वत हैं । ध्वनि शब्दों को स्पष्ट करती है ।परिवर्तन केवल उच्चारण और व्याख्या में होता है । शब्द वास्तव में ज्यों के त्यों रहते हैं ।प्रकाश की किरण केवल उस वस्तु को प्रकाशित करती है जिस पर वह गिरती है, उसे वह रचती नहीं है ।मीमांसा दर्शन आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करके उसे शाश्वत मानता है । शरीरस्थ आत्मा के होने पर चैतन्य की उत्पत्ति होती है ।

45- पेटेंट बौद्धिक संपदा अधिकारों का एक महत्वपूर्ण आयाम है । पेटेंट के ज़रिए ऐसे क्षेत्रों में आविष्कार की प्रवृतियों को होने वाले नुक़सानों को रोका जा सकता है, जहां किसी आविष्कार की नक़ल करने में बहुत कम लागत आती है । पेटेंट देने की पहली शर्त यह होती है कि आविष्कार में नवीनता होनी चाहिए । आविष्कार स्वयं प्रकट होने वाला न होकर उसे करने में अध्यवसाय और परिश्रम दिखना चाहिए । वर्ष 1999 में प्रति दस लाख लोगों में धनी देशों में 273, मध्यम दर्जे के विकसित देशों में सात, ब्राज़ील में तीन, चीन में दो और भारत में एक पेटेंट लाइसेंस दिया गया ।

46- पेटी बूर्ज्वा फ़्रांसीसी भाषा का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है- बुर्ज के लोग । फ़्रांस में बुर्ज शब्द का प्रयोग उस नगर के लिए किया जाता था जहां लोग एक चहारदीवारी में घिरे रहकर अपना काम करते थे । इस पद को राजनीतिक दर्शन और अर्थशास्त्र में कार्ल मार्क्स ने प्रचलित किया ।उन्होंने अपनी दो रचनाओं सोशलिज्म : यूटोपियन एंड साइंटिफिक और थियरी ऑफ सरप्लस वैल्यू में इस फ्रेंच शब्द का प्रयोग ब्रिटिश मध्य वर्ग के संदर्भ में किया । मार्क्स की स्पष्ट मान्यता थी कि मध्य वर्ग यानी पेटी बूर्ज्वा का बढ़ता हुआ आकर पूंजीवाद के विकास का महत्वपूर्ण पहलू होता है ।

47– अमेरिका के गैरी इण्डियाना में जन्में, अर्थशास्त्रीय व्याख्याओं में गणितीय विधियों को स्थापित करने वाले पॉल सेमुअलसन (1915-2009) अपने अनुसंधान और अवलोकनों से बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में इस अनुशासन के विमर्श को गहराई से प्रभावित किया । उनका दावा था कि गणित के बिना अर्थशास्त्र को न तो व्यवस्थित क्रम दिया जा सकता है और न ही स्पष्टता प्रदान की जा सकती है ।वर्ष 1970 में उन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया । सेमुअलसन ने पचास साल में 388 निबंध लिखे जो कलेक्टिड साइंटिफिक पेपर्स (1966-1977) में संकलित हैं । अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में उनका फैक्टर प्राइस इक्विलीबिरियम थियोरम बहुत प्रसिद्ध है ।

48- प्रगति का शाब्दिक रूप से अर्थ होता है- आगे की तरफ़ गति ।अग्रगति की यह अवधारणा सभ्यता की शुरुआत से ही मनुष्य के साथ है । इस विचार के इतिहासकार रॉबर्ट निस्बेट ने अपनी पुस्तक द आइडिया ऑफ प्रोग्रेस में इसका उद्गम प्राचीन ईसाई विचारों में तलाशा है, परन्तु इसे मानवीय इतिहास की मुख्य चालक शक्ति बनाने का श्रेय युरोपीय ज्ञानोदय काल में विकसित हुए बुद्धिवादी और वैज्ञानिक विचारों को जाता है । इसी के बाद से पश्चिमी बौद्धिक परम्परा ने इतिहास के बढ़ते कदमों की संकल्पना को अपना बुनियादी तत्व बना लिया ।

49- इमैनुअल कांट ने प्रगति के सिद्धांत का सूत्रीकरण सांस्कृतिक और व्यक्तिगत धरातल पर उत्तरोत्तर ऊर्ध्वगामी आत्म- चेतना के रूप में किया । कांट मानते थे कि मनुष्य प्रकृति की प्रच्छन्न योजना के मुताबिक़ अनिवार्यत: प्रगति करता चला जाएगा । उन्नीसवीं सदी में जैविक क्रम- विकास के सिद्धांत ने इस विचार को प्रकृति के अनिवार्य नियम का प्रभामंडल प्रदान कर दिया और प्रगति की अभिव्यक्तियाँ आम तौर पर ग्रोथ और इवोल्यूशन जैसी जीव वैज्ञानिक शब्दावली में की जाने लगीं।

50- प्रगति के विचार का मुख्य संदेश यह था कि अतीत की गिरफ़्त में रहने के बजाय उसकी कामयाबियों और नाकामियों से सबक सीख कर आगे बढ़ते चले जाना चाहिए । प्रगति के सिद्धांत ने हर नई पीढ़ी को एक कार्यक्रम थमाया कि उसे अगली पीढ़ी द्वारा संचित ज्ञान में वृद्धि करनी है । प्रगति के अपरिहार्य होने के आग्रह के तहत आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तनों के लिए होने वाली उथल-पुथल को आधुनिकीकरण का नाम दिया गया ।

नोट : उपरोक्त सभी तथ्य, (क्रमांक 1-A से 1-J के अतिरिक्त) अभय कुमार दुबे, द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘समाज विज्ञान विश्वकोष’ खण्ड 3, दूसरा संस्करण 2016, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, ISBN : 978-81- 267-2849-7, से साभार लिए गए हैं ।

नोट : ब्लॉग क्रमांक 1-A से 1-J तक के सभी तथ्य, लेखक- सुजाता की पुस्तक, विकल विद्रोहिणी पंडिता रमाबाई, प्रकाशन राजकमल पेपरबैक्स, दरियागंज, नई दिल्ली, पहला संस्करण : 2023, ISBN : 978-8119-0280-47 से साभार लिए गए हैं ।

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Dr. Raj Bahadur Mourya:

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