– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी, फ़ोटो गैलरी एवं प्रकाशन प्रभारी – डॉ. संकेत सौरभ, झाँसी, उत्तर- प्रदेश (भारत) ई मेल- drrajbahadurmourya @ gmail .com, website : themahamaya . com
1- सन् 1858 में कर्नाटक के चितपावन ब्राह्मण अनंतशास्त्री डोंगरे के घर में पैदा हुई पंडिता रमाबाई शास्त्री (1858-1922) एक विख्यात समाज सुधारक तथा बंगाल और महाराष्ट्र के नव जागरण आन्दोलन की प्रमुख हस्तियों में से एक हैं ।1888 में प्रकाशित उनकी पुस्तक उच्च वर्ण की हिन्दू औरतें तत्कालीन समाज में स्त्रियों की दुर्दशा का प्रामाणिक वृतांत मानी जाती हैं ।रमाबाई ने स्त्री धर्म नीति नामक पुस्तक भी लिखी जिसकी उस ज़माने में दस हज़ार प्रतियाँ बिकी ।उन्होंने हिब्रू और यूनानी मूल की बाइबिल का मराठी अनुवाद भी किया ।1919 में उन्हें कैसरे- ए- हिंद स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया ।
2- पंजाब शब्द फ़ारसी के पंज (पाँच) और आब (पानी) के मिलने से बना है ।इसका अर्थ होता है पाँच नदियों की भूमि ।यह पाँच नदियाँ हैं : व्यास, सतलुज, रावी, चेनाब और झेलम ।भारत विभाजन की सबसे ज़्यादा त्रासदी झेलने वाले राज्य पंजाब का पश्चिमी भाग पाकिस्तान में चला गया ।भारत के हिस्से में आए पंजाब प्रांत का 1966 में पुनः विभाजन किया गया ।इससे हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और वर्तमान पंजाब के रूप में तीन राज्य बने ।यहाँ सिक्ख समुदाय की आबादी लगभग ६० फ़ीसदी है जबकि ३७ प्रतिशत हिंदू आबादी भी निवास करती है ।
3- भारत के उत्तर- पश्चिमी भाग में स्थित राज्य पंजाब का कुल क्षेत्रफल ५०.३६२ वर्ग किलोमीटर है ।इसके पूर्व में हिमाचल प्रदेश, दक्षिण में हरियाणा, दक्षिण- पूर्व में राजस्थान, पश्चिम में पाकिस्तान और उत्तर में जम्मू और कश्मीर है ।पंजाब की राजधानी चंडीगढ़ है ।पंजाबी यहाँ की सरकारी भाषा है ।२०११ की जनगणना के अनुसार यहाँ की जनसंख्या २ करोड़, ७७ लाख, ०४ हज़ार , २३६ है ।यहाँ की साक्षरता दर ७६.६८ प्रतिशत है ।पंजाब की विधानसभा एक सदनीय है और इसमें कुल ११७ सदस्य चुने जाते हैं ।यहाँ से लोकसभा के १३ और राज्य सभा के ७ सदस्य चुने जाते हैं ।३
४ ३-६ जून, १९८४ को पंजाब राज्य में आपरेशन ब्लू स्टार चलाया गया था ।इस आपरेशन में भारतीय सेना अमृतसर में स्थित स्वर्ण मंदिर के भीतर घुस गई थी और वहाँ से हथियारों का ज़ख़ीरा बरामद किया गया था ।इस आपरेशन में विद्रोहियों के नेता जनरैल सिंह भिंडरावाले की मौत हो गई थी ।इसका एक नतीजा ३१ अक्तूबर, १९८४ को इंदिरा गांधी की हत्या के रूप में सामने आया ।राज्य में अकाली राजनीति की यही पृष्ठभूमि थी ।वर्ष २०२२ में सम्पन्न हुए पंजाब विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की सरकार सत्ता में आई ।
५- योग का अर्थ है- मिलन अर्थात् जीवात्मा का परमात्मा से मिलन ।गीता में योग को दुःख संयोग का वियोग बताया गया है ।पतंजलि सिर्फ़ योग दर्शन के प्रणेता और योगसूत्र रचयिता ही नहीं बल्कि महाभाष्य के रचयिता भी माने जाते हैं ।योगसूत्र में चार पाद हैं : समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद और कैवल्यपाद ।याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार हिरण्यगर्भ योग के वक्ता हैं और पतंजलि ने तो प्राचीन काल में प्रतिपादित शास्त्र का उपदेश मात्र दिया है ।
६- योगसूत्र के समाधिपाद में योग का लक्षण, चित्त की वृत्तियाँ, समाधि का भेद आदि विषयों की चर्चा है ।साधनपाद में क्रियायोग, क्लेश तथा उसके भेद, क्लेशों को दूर करने के साधन, योग के यम, नियम आदि आठ अंगों का विशद विवरण दिया गया है विभूतिपाद में समाधि तथा योग के अनुष्ठान से उत्पन्न होने वाली सिद्धियों का प्रतिपादन है ।कैवल्य पाद में निर्माण चित्त का वर्णन, विज्ञान वाद का निराकरण तथा कैवल्य का निर्णय है ।इस प्रकार से यह ग्रन्थ १९५ सूत्रों के भीतर पूरे योग दर्शन का प्रतिपादन करता है ।
७- पनोप्टिकॉन शब्द दो घटकों से मिलकर बना है : पन और ऑप्टिकॉन ।पन का अर्थ होता है कैदी और ऑप्टिकॉन का मतलब है क़ैदियों पर नज़र रखने वाला निगरानीकर्ता ।एक ऐसी जगह जहां क़ैदियों पर निगाह रखी जाती हो, जेल हो सकती है ।इस पद और इससे जुड़ा सिद्धांत गढ़ने का श्रेय अंग्रेज दार्शनिक और सामाजिक सिद्धांतकार जेरेमी बेन्थम को जाता है ।उन्होंने १७८५ में एक कारागार की डिज़ाइन के रूप में इसका ब्लूप्रिंट बनाया था ।बेंथम का मानना था कि यदि पनोप्टिकॉन जैसे स्थापत्य के तहत काम किया जाए तो लोगों को नैतिक दृष्टि से सुधारा जा सकता है ।
८- फ़्रांसीसी चिंतक मिशेल फूको ने अपनी रचना डिसिप्लिन एंड पनिश में बेंथम की इस अवधारणा के इस्तेमाल के ज़रिए दिखाया कि किस तरह आधुनिक समाज में कारागार ही नहीं बल्कि फ़ौज, स्कूल, अस्पताल और फ़ैक्टरियों जैसी कोटिक्रम आधारित संरचनाओं का विकास ऐतिहासिक रूप से पनोप्टिकन के तर्ज़ पर ही हुआ है ।साहित्यिक और सांस्कृतिक निरूपणों में पनोप्टिकॉन जैसी संरचनाओं का ज़िक्र होता रहता है ।इनमें फ्रेंज काफ़्का की विख्यात रचना द कैसल और ग्रेबियल गार्सिया मार्खेज की रचना क्रॉनिकल ऑफ अ डैथ फोरटोल्ड भी शामिल है ।
९- परस्पर विपरीत द्विभाजन अथवा बाइनरी अपोजीशन, पूरी तरह से विपरीत अर्थ देने वाले दो पदों का ऐसा युग्म होता है जिससे एक तीसरा अर्थ प्राप्त हो ।शब्दों और पदों के इस तरह के जोड़ों के प्रभाव पर सबसे पहले अरस्तू ने अपनी रचना पोइटिक्स में विचार किया ।आधुनिक ज्ञान प्रणालियों के लिए एक अर्थ- सूचक प्रणाली के तौर पर परस्पर विपरीत द्विभाजन की सैद्धांतिक स्थापना फर्दिनैंद द सस्यूर ने की थी ।इस प्रणाली के तहत उन शब्दों के जोड़े बनाए जाते हैं जिनकी अर्थवेत्ता में उल्टे- सीधे का अंतर हो ।जैसे- धरती- समुद्र ।इसमें परस्पर विपरीत धरती और समुद्र मिलकर पृथ्वी की सतह का अर्थ देते हैं ।
१०- परम्परा की आधुनिकता का जन्म द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद नवोदित राष्ट्रों की पुनर्रचना के दौरान हुई ।यह अवधारणा समाज और आधुनिक विचार के बीच अन्योन्यक्रिया का अध्ययन करके विकसित की गई है ।आधुनिकता परम्परा के उन पहलुओं के साथ सकारात्मक संवाद करती है जो उसके अनुकूल होते हैं और एक पारम्परिक समाज भी आधुनिकता के उन्हीं पहलुओं को अपनाता है जो परम्परा का नवीकरण करने में समर्थ हों ।१९६७ में यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो में कार्यरत लॉयड और सुजैन रूडोल्फ़ की बहुचर्चित पुस्तक द मॉडर्निटी ऑफ ट्रैडीशन : पॉलिटिकल डिवलेपमेंट इन इंडिया में सामाजिक स्तरीकरण, करिश्माई नेतृत्व और क़ानून पर चर्चा की गई है ।
११- भारतीय विद्वान रजनी कोठारी ने १९६९ में प्रकाशित अपनी पुस्तक पॉलिटिक्स इन इंडिया में परम्परा की आधुनिकता को वाणी देते हुए कहा कि, “ आधुनिकता के सम्पर्क में आने पर भारतवासियों ने सबसे बड़ा असर यह ग्रहण किया कि वे अपनी पारम्परिक अस्मिता के प्रति नए शिरे से सचेत होते चले गए ।आधुनिकता के प्रभाव में उस अस्मिता की पुनर्व्याख्या करके उसमें नवजीवन का संचार किया गया और नई संस्थाओं और विचारों के सन्दर्भ में उसका सुदृढ़ीकरण हुआ ।यही था भारत के आधुनिकीकरण का रास्ता ।”
१२- रजनी कोठारी के बाद सन् १९८९ में भीखू पारिख की दो बहुचर्चित रचनाएँ कोलोनियलिज्म, ट्रेडिशन ऐंड रिफॉम : एन एनॉलिसिस ऑफ गॉंधीज पॉलिटिकल डिस्कोर्स और गॉंधीज पॉलिटिकल फिलॉसफी : ए क्रिटिकल एग्जामिनेशन सामने आई, जिसमें परम्परा की आधुनिकता को गांधी के उपनिवेशवाद, परम्परा और सुधार के परिप्रेक्ष्य में रेखांकित किया गया ।पारिख ने इन रचनाओं में दिखाया कि आधुनिक राष्ट्र के निर्माण के लिए गांधी किस तरह परम्परा के कुछ पहलुओं की पुनर्रचना करते हैं ।वस्तुतः परम्परा में निहित आधुनिकता के पहलुओं को रेखांकित करना ही परम्परा की आधुनिकता का उद्देश्य है ।
१३- परिणामवाद या प्रैगमैटिज्म किसी वक्तव्य, कार्रवाई या आकलन के सहीपन का निर्धारण उसकी व्यावहारिकता के प्रभाव के अनुसार करने की वकालत करता है ।सी.एस. पर्स के अनुसार, परिणामवाद ज्ञान की खोज को एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में देखता है जिसकी शुरुआत संदेह से होती है लेकिन जिसका समाधान आस्था में होता है ।उनके निबंध व्हाट प्रैगमैटिज्म इज ? को इस दर्शन की बुनियादी रचना माना जाता है ।विलियम जेम्स उनके दार्शनिक उत्तराधिकारी थे जिनकी रचना प्रैगमैटिज्म : ए न्यू नेम फ़ॉर सम ओल्ड वेज ऑफ थिंकिंग १९०७ में प्रकाशित हुई ।
१४- परिणामवाद के समकालीन चिंतकों में रिचर्ड रोर्ती का नाम प्रमुखता से लिया जाता है ।रोती ने बुद्धिवाद, सांस्कृतिक अस्मिता और राजनीति के सवालों के बारे में तात्त्विकतावाद विरोधी रवैया अख़्तियार करने के लिए परिणामवाद का इस्तेमाल किया ।उसने दलील दी कि हम अपने चिंतन के लिए भाषा के मोहताज हैं इसलिए हमारा कोई भी यथार्थ भाषा से परे नहीं हो सकता ।यथार्थ के अस्तित्व को भाषा के बाहर रेखांकित करने वालों को रोर्ती ने ज्ञान के संदर्भ में निरूपणवादी की संज्ञा दी और ख़ुद को इस निरूपण वाद के विरोध में खड़ा किया ।
१५- भारत के पूर्वी भाग में स्थित राज्य पश्चिम बंगाल की स्थापना १ नवम्बर, १९५६ को हुई थी ।इसकी राजधानी कोलकाता है ।पश्चिम बंगाल के नेपाल, भूटान और सिक्किम, पूर्व में असम और बांग्लादेश, पश्चिम में बिहार तथा झारखंड तथा उड़ीसा है ।इसका कुल क्षेत्रफल ८८ हज़ार, ७५२ वर्ग किलोमीटर है ।वर्ष २०११ की जनगणना के अनुसार यहाँ की जनसंख्या ९ करोड़, १३ लाख, ४७ हज़ार, ७३६ है ।यहाँ की साक्षरता दर ७७.१ प्रतिशत है ।
१६- पश्चिमी बंगाल की विधानसभा एक सदनीय है ।यहाँ की विधानसभा में कुल २९५ सदस्य होते हैं ।यहाँ से लोकसभा के ४२ और राज्य सभा के १६ सदस्य चुने जाते हैं ।बंगाली और अंग्रेज़ी यहाँ की राजकीय भाषाएँ हैं ।यहाँ का उच्च न्यायालय कोलकाता में स्थित है ।ईसा पूर्व तीसरी सदी में बंगाल का सीमाई इलाक़ा अशोक के साम्राज्य का हिस्सा था ।वर्ष १९६२ में बंगाल से अलग होकर बिहार और उड़ीसा राज्य बने ।मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता ज्योति बसु ने लगातार २३ साल इस राज्य के मुख्यमंत्री रहकर (२१ जून, १९७७ से ६ नवम्बर, २०००) अनूठा रिकॉर्ड बनाया ।
१७- प्लेटो और अरस्तू के बाद यूनानी काव्य- समीक्षा के क्षेत्र में एक प्रतिनिधि काव्यशास्त्री लोंजाइनस का नाम प्रमुखता से लिया जाता है ।उन्होंने औदात्य सिद्धांत का प्रतिपादन किया ।लोंजाइनस के इस सिद्धांत की अवधारणा ने साहित्येतर इतिहास, दर्शन और धर्म जैसे विषयों को भी अपने अंतर्गत समावेशित किया ।उनके अनुसार औदात्य वाणी का उत्कर्ष, कांति और वैशिष्ट्य है ।जिसके कारण महान कवियों, इतिहासकारों, दार्शनिकों को प्रतिष्ठा और ख्याति प्राप्त हुई है ।
१८- उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में बादलेयर, मेलार्मे, बर्लेन तथा वैलरी आदि ने प्रतीकवाद को बल प्रदान किया ।१८८६ में कवि ज्यॉं मोरेआस ने फिगारो नामक पत्र में प्रतीकवाद का घोषणा पत्र प्रकाशित किया ।इस समीक्षा सम्प्रदाय ने काव्य में शब्द का महत्व सर्वोपरि बताया और कहा कि कविता शब्दों से लिखी जाती है, विचारों से नहीं ।काव्य सर्वसाधारण के लिए नहीं बल्कि उसे समझ सकने वाले लोगों के लिए होता है ।कवि किसी अन्य के प्रति नहीं बल्कि अपनी आत्मा के प्रति प्रतिबद्ध होता है ।शब्द विचारों और अनुभूतियों के प्रतीक होते हैं ।
१९- पृथकतावाद या सेसेशनिज्म लैटिन भाषा के शब्द सेसेशियो से बना है ।इसका अर्थ है किसी संगठन, किसी संघ या किसी राज्य से अलग होने की माँग करना ।यह आन्दोलन शांतिपूर्ण भी हो सकता है और हथियार बंद भी ।इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा का प्रस्ताव संख्या १५१४ साफ़ तौर पर आत्मनिर्णय के राष्ट्रवादी उसूल को मान्यता प्रदान करता है ।चूँकि आधुनिक राष्ट्र -राज्य व्यावहारिक तौर पर जातीय बहुलता से बनी संरचना है, इसलिए आत्मनिर्णय का यह अधिकार अलगाव के अधिकार में बदल जाता है ।
२०- प्राचीन भारत के विद्वान पाणिनि संस्कृत के सबसे बड़े व्याकरण थे।आज से कोई ढाई हज़ार साल पहले उन्होंने अपने ग्रन्थ अष्टाध्यायी में संस्कृत भाषा को व्याकरण सम्मत रूप दिया ।यह बात महत्वपूर्ण है कि अष्टाध्यायी सिर्फ़ एक व्याकरण ग्रन्थ भर न होकर अपने समय के भूगोल, सामाजिक, आर्थिक, शिक्षा, राजनीतिक जीवन, दार्शनिक चिंतन, खान- पान, रहन- सहन, लोकजीवन और तत्कालीन भारतीय समाज का विश्वसनीय व तथ्यपरक ऐतिहासिक दस्तावेज भी है ।पाणिनि का जन्म पश्चिमोत्तर भारत में स्थित गांधार के शालातुर यानी आज के लहुर गॉंव में हुआ था ।
२१- पाणिनि ने अष्टाध्यायी को आठ अध्यायों में विभाजित किया ।प्रत्येक अध्याय के चार पाद हैं और प्रत्येक पाद में कई सूत्र हैं ।सभी सूत्रों की संख्या लगभग चार हज़ार है ।पूरी पुस्तक १४ सूत्रों पर, जिन्हें महेश्वर सूत्र कहा जाता है, आधारित है ।पाणिनि के व्याकरण सिद्धांतों से आधुनिक भाषाशास्त्र ने काफ़ी कुछ लिया है ।उन्नीसवीं सदी के यूरोप में फ्रेंज बॉप उनके पहले अध्येता थे ।इसके बाद फर्दिनैंद द सस्यूर, लियोनार्ड ब्लूमफील्ड और रोमन जैकबसन जैसे भाषा शास्त्रियों ने पाणिनि और भर्तृहरि द्वारा प्रवर्तित सिद्धांतों के यूरोपीय भाषाओं पर प्रभाव को रेखांकित किया ।
२२- तत्कालीन भारत में गांधार की पूर्वी राजधानी तक्षशिला से पश्चिमी राजधानी पुष्कलावती कुल्लू काँगड़ा फैला हुआ था जिसे उस समय त्रिगर्त कहा जाता था ।इसी में वह प्रदेश था जो सिंध नदी के उत्तर से दक्षिण तक फैला हुआ था ।इसके उत्तरी छोर पर सौबीर (सिंध) था, जिसे आजकल क़बायली इलाक़े की पहचान मिली है।पाणिनि ने इस प्रदेश में रहने वाले कबीलों की सूची बनाई और उनके संविधानों का अध्ययन किया ।इस प्रदेश को ग्रामणीय क्षेत्र कहा जाता था ।
२३- वासुदेव शरण अग्रवाल ने पाणिनि कृत अष्टाध्यायी के सूत्रों में वर्णित भारतीय सभ्यता के बिखरे सूत्रों को इकट्ठा कर उन्होंने इंडिया एज नोन टु पाणिनि (१९४१) की रचना की ।पाणिनि बुद्ध की तरह मध्य मार्ग के अनुयायी थे ।सम्भवतः उन्होंने तक्षशिला विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य भी किया है ।पाणिनि की कृति का प्रत्येक अक्षर व्याकरण में प्रमाण माना जाता है ।पतंजलि के अनुसार पाणिनि ने जो सूत्र एक बार लिखा उसे काटा नहीं ।
२४- पारिस्थितिकीय दर्शन अथवा गहन पारिस्थितिकीय को सैद्धांतिक आधारभूमि प्रदान करने का श्रेय नार्वे के प्रमुख दार्शनिक अर्ने नेस्स (१९१२-२००९) को जाता है ।उनके दार्शनिक विचारों पर स्पिनोजा, बौद्ध दर्शन और गॉंधी का प्रभाव है ।वर्ष १९६२ में प्रकाशित रिशेल कार्शन की रचना साइलेंट स्प्रिंग से नेस्स को गहरी प्रेरणा मिली।उन्होंने अपने पर्यावरणीय दृष्टिकोण में अहिंसा का विचार शामिल किया और दूसरी ओर व्यावहारिक स्तर पर अहिंसक विरोध प्रदर्शनों में भागीदारी की ।१९७२ में थर्ड वर्ल्ड फ्यूचर कांफ्रेंस में नेस्स ने अपनी प्रस्तुति में पहली बार सतही और गहन पारिस्थितिकी के बीच अंतर किया ।
२५- वर्ष १९७३ में प्रकाशित अपनी पुस्तक द शैलो एंड द डीप : लॉंग रेंज इकॉलॉजी मूवमेंट में उन्होंने स्पष्ट किया कि सतही पारिस्थितिकी प्रदूषण संसाधन- क्षरण की चर्चा करती है और इसका मुख्य उद्देश्य विकसित देशों के निवासियों के स्वास्थ्य और संवृद्धि की रक्षा करना है ।गहन पारिस्थितिकी के विचारकों में रिशेल कार्सन, एल्डो लियोपोल्ड, बैरी कॉमनर, पॉल सिअर्स और फ्रिटजोफ काप्रा प्रमुख हैं ।इन सभी की कोशिश है कि पर्यावरणीय चिंतन में मनुष्य की जगह प्रकृति को चिंतन के केन्द्र में लाया जाए ।
२६- इकॉलॉजी या पारिस्थितिकी शब्द का प्रयोग सबसे पहले अर्नेस्ट हेक्किल ने किया था ।यह अभिव्यक्ति जीवों और उनके अपने वातावरण के बीच आपसी रिश्तों से सम्बंधित है ।एक विचारधारा के रूप में सामने आने के लिए पारिस्थितिकवाद में तीन बुनियादी विशेषताएँ होनी चाहिए : पहली अवधारणाओं और मूल्यों का ऐसा समूह जो वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था की समीक्षा पेश करे ।दूसरी, किसी समाज की वैकल्पिक रूपरेखा प्रस्तुत करे और तीसरी बात वैकल्पिक रूपरेखा के अनुसार समाज को ढालने के लिए रणनीति और सामाजिक कार्यक्रम ।
२७- सन् १९७२ में लिमिट्स ऑफ ग्रोथ रिपोर्ट का प्रकाशन हुआ ।डॉनेला मीडॉ, डेनिस मीडॉस, जॉर्गन रेंडर और विलियम वेहन्स द्वारा तैयार इस रपट में चेतावनी दी गई थी कि अगर संसाधनों का दोहन मौजूदा दर से होता रहा तो आने वाले १०० वर्षों में मानवीय अस्तित्व ख़तरे में पड़ जाएगा ।ग्रोथ यानी संवृद्धि की सीमा सम्बन्धी थिसिज का पर्यावरणीय चिंतन की दिशा में बहुत महत्व है ।इस रपट ने मानव और प्रकृति के बीच परस्पर निर्भर सम्बन्धों पर ज़ोर दिया ।
२८- दिनांक ७ मई, १८८० को महाराष्ट्र के रत्नागिरी ज़िले में चिपलून के क़रीब पेढेम नामक स्थान पर चितपावन ब्राह्मण परिवार में जन्में पाण्डुरंग वामन काणे (१८८०-१९७२) संस्कृत के प्रकांड विद्वान और भाष्यकार हैं ।वह प्राचीन भारतीय इतिहास का पुनर्विवेचन कुछ इस तरह करना चाहते थे कि उससे न केवल समाज सुधार में बल्कि उससे भी आगे बढ़कर स्वराज्य प्राप्त करने में सहायता मिले ।उनकी विशाल पाँच खंडीय रचना, १९३० से १९६२ के बीच लिखी गई, हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र उनकी बौद्धिक उपलब्धियों का महान कीर्ति स्तंभ है ।काणे ने संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में अपने कार्य का प्रारंभ द हिस्ट्री ऑफ अलंकार लिट्रेचर से किया ।इसका प्रकाशन १९०५ में हुआ ।
२९- पाण्डुरंग वामन काणे का मानना था कि भारतीय संविधान द्वारा प्राचीन भारत में व्याप्त पारम्परिक विचारों और आचार- व्यवस्था के नियमों की अनदेखी करने के कारण नागर समाज में एक गलत अवधारणा ने जन्म लिया जिसके तहत लोग अपने अधिकारों के लिए तो सचेत दिखते हैं परन्तु अपने उत्तरदायित्व और कर्तव्य के प्रति उदासीन रहते हैं ।वर्ष १९५१ में प्रकाशित उनकी रचना द हिस्ट्री ऑफ संस्कृत पोएटिक्स को विद्वानों ने हाथों हाथ लिया ।धर्म शास्त्र विचार (१९३५), वैदिक बेसिस ऑफ हिन्दू लॉ (१९३६), हिन्दू कस्टम एंड माडर्न लॉ (१९५०) उनकी अन्य उल्लेखनीय कृतियाँ हैं ।
३०- पाण्डुरंग वामन काणे १९४७ से १९४९ के दौरान मुम्बई युनिवर्सिटी के कुलपति रहे ।१९५३ में वह इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए ।१९५८, १९५१ और १९५४ में वह इंटरनेशनल कांग्रेस ऑफ ओरियंटलिस्ट में भारत सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर शामिल हुए ।१९५१ में लंदन स्कूल ऑफ ओरियंटल ऐंड अफ्रीकन स्टडीज़ द्वारा फ़ेलोशिप प्रदान की गई ।अकादमिक जीवन में उनके योगदान के लिए भारत सरकार द्वारा उन्हें राज्य सभा सदस्य के रूप में मनोनीत किया गया ।१९५९ में मुम्बई यूनिवर्सिटी के एलफिंस्टन कालेज में नेशनल प्रोफ़ेसर ऑफ इण्डोलॉजी नियुक्त किया गया ।वर्ष १९६३ में भारत सरकार ने देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया ।
३१- फ़्रांसीसी चिंतक पिएर बोर्दियो (१९३०-२००२) संस्कृति और शिक्षा के समाजशास्त्रीय पहलुओं में सर्वेक्षण आधारित अनुसंधान और मानकीय सैद्धांतिक चिंतन का साथ- साथ प्रयोग किया ।उन्होंने हैबिट्स और फ़ील्ड की अवधारणाओं का विकास किया ।बोर्दियो के लिए हैबिट्स का मतलब था आजीवन ज्ञानार्जन और समाजीकरण की प्रक्रिया के ज़रिए बनी व्यक्ति की मनोवृत्तियाँ और फ़ील्ड का मतलब था सामाजिक परिस्थिति का वस्तुनिष्ठ यथार्थ ।उनके समाजशास्त्र की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि संस्कृति को एक भौतिक शक्ति के रूप में व्याख्यायित करके सांस्कृतिक पूँजी की अवधारणा का विकास है ।
३२- सामाजिक पूँजी ऐसे वास्तविक और निराकार संसाधनों का योगफल है जो किसी व्यक्ति या समूह को किसी सामाजिक नेटवर्क की सदस्यता की बदौलत हासिल होते हैं ।इस सामाजिक पूँजी को लगातार प्रासंगिक और प्रभावी बनाए रखने के लिए व्यक्ति आपसी मेलजोल में अपने समय का योजनाबद्ध निवेश करता है ।सामाजिक पूँजी से ही सांस्कृतिक पूँजी की अवधारणा निकलती है ।अंग्रेज़ शिक्षाशास्त्री और लेखक मैथ्यू अरनॉल्ड की रचना कल्चर ऐंड एनार्की (१८६९) में इसकी ओर संकेत किया गया था ।
३३- पियरो स्राफा (१८९८-१९८३) एक इतालवी अर्थशास्त्री हैं जिन्हें नव -रिकार्डोवादी स्कूल का प्रमुख अर्थशास्त्री माना जाता है ।उनका कहना था कि बाज़ार में आदर्श प्रतियोगिता का मॉडल चलता ही नहीं है ।बजाय इसके परस्पर निर्भरता और मोनोपॉली अर्थात् एकाधिकार और सीमित प्रतियोगिता का मॉडल अपनाया जाना चाहिए ।अर्थशास्त्र के इतिहास में कैम्ब्रिज विवाद के नाम से विख्यात बहस में स्राफा ने दावा किया था कि मूल्य का पारम्परिक सिद्धांत दरअसल वृत्ताकार है, इसलिए इस सिलसिले में एक नए सिद्धांत का प्रतिपादन किया जाना चाहिए ।
३४- क्लासिकल समझ के मुताबिक़ उत्पादन की प्रवृत्ति वृत्ताकार होती है अर्थात् वस्तुओं का प्रयोग वस्तुओं के उत्पादन में होता है और जितनी वस्तुओं से शुरुआत की गई थी उससे अधिक का उत्पादन होने की सूरत में अधिशेष पैदा होता है ।स्राफा ने इस मॉडल की सुसंगति पर ज़ोर देते हुए दिखाया कि इसके ज़रिए सापेक्षिक दामों अथवा मूल्य की व्याख्या की जा सकती है ।साथ ही मज़दूरी और मुनाफ़े के बीच आय के वितरण का निर्धारण भी किया जा सकता है ।
३५- केरल के कालीकट शहर के निकट कोट्टक्कल क़स्बे में दिनांक १६ मार्च, १८६९ को एक प्रतिष्ठित परिवार में जन्में पन्नियिन्पल्ली संकुन्नी वारियर जिन्हें पूरे देश में पी. एस. वारियर (१८६९-१९४४) के नाम से जाना जाता है, ने भारत में आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के पुनर्जागरण का अभियान चलाया ।उन्होंने आयुर्वेद की शिक्षा और औषधि निर्माण को आधुनिक, सेकुलर और वैज्ञानिक रूप दिया ।आज केरल का सबसे बड़ा ब्रांड केरल- आयुर्वेद इन्हीं वैद्य पी.एस.वारियर की ही विरासत है ।
३६- पी.एस.वारियर ने आयुर्वेद के मानकीकरण के लिए सबसे पहले १९०२ में कोट्टक्कल में औषधि निर्माण हेतु आर्य वैद्य शाला की स्थापना किया ।१९०७ में एलोपैथी और आयुर्वेद के बीच सामंजस्य तलाश करने के लिए उन्होंने आयुर्वेद वैद्य समाजम की स्थापना किया ।वर्ष १९१७ में वारियर ने आयुर्वेद की प्रामाणिकता शिक्षा के लिए आयुर्वेद पाठशाला की स्थापना किया ।आयुर्वेद में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रसार हेतु वारियर ने धन्वंतरि नामक आयुर्वेद जर्नल का सम्पादन किया ।१९३२ में भारत सरकार ने वारियर को वैद्य रत्नम की उपाधि से विभूषित किया ।
३७- पुराण का एक शब्द के रूप में अर्थ होता है- पुरानी कथाओं या आख्यापिकाओं का संग्रह ।पुराणों में अपने ज़माने के राजनीतिक, सामाजिक, कूटनीतिक और गृहस्थ जीवन के विविध पक्षों पर विचार किया गया है ।उन्होंने कृषि, वाणिज्य, राजधर्म, नृत्य, वाद्य, संगीत, मूर्तिकला, चित्रकला, वृक्षारोपण, वाप- कूप, तडाग की प्रतिष्ठा, उद्यान की सजावट, भवन, दुर्ग तथा मार्गों का निर्माण इत्यादि जीवनोपयोगी विविध विषयों को बहुत ही प्रमुखता से जगह दी गई है ।दार्शनिक स्तर पर पुराण बहुत जगह वेद के क़रीब हैं ।महाभारत के खिल पर्व की गणना हरिवंश पुराण के नाम से की जाती है ।
३८- विभिन्न स्रोतों से महापुराणों की संख्या सामान्यतः इस क्रम में १८ मानी जाती है : ब्रम्ह, पद्म, विष्णु, शिव या वायु, श्रीमद्भागवत, नारद, मार्कण्डेय, अग्नि, भविष्य, ब्रम्हवैवर्त, लिंग, वराह, स्कन्द, वाहन, कूर्म, मत्स्य, गरूड़ और ब्रम्हाण्ड । समझा जाता है कि भागवत, वाराह और विष्णु पुराण १२ वीं शताब्दी, ब्रम्ह पुराण १४ वीं शताब्दी, पद्म पुराण १६ वीं शताब्दी तथा नारदीय पुराण १६ वीं या १७ वीं शताब्दी की रचनाएँ हैं ।परन्तु अलबरूनी की १०३१ ईस्वी की भारत सम्बन्धी किताब में १८ महापुराणों एवं १८ उप पुराणों के नाम शामिल होने से इस मत का खंडन हो जाता है ।
३९- पुराण अपने मूल रूप में विशेषण हैं ।प्राचीन समय से जिस साहित्य का सम्बन्ध रहा वह पुराण कहलाने लगा ।आगे चलकर वह संज्ञा में बदल गया ।आदिपर्व में महाभारत को भी पुराण और पाँचवाँ वेद कहा गया है ।छांदोग्य उपनिषद में वेदों के साथ पुराण को भी पाँचवां वेद कहा गया है ।पुराणों में ब्रम्ह को प्रकृति में व्याप्त माना गया है ।यह एक अपने युग के मुताबिक़ क्रांतिकारी दार्शनिक विचार था ।
४०- पुरुषत्व एक ऐसी अवधारणा है जो जेण्डर व्यवहार को तय करती है ।पुरुष अध्ययन के विद्वान बॉब कॉनेल ने अपनी पुस्तक जेंडर एंड पावर में दिखाया है कि पुरुष अगर बेहतर सत्ता, संसाधनों और सामाजिक दर्जे का स्वामी है तो इसके पीछे एक प्रबल वर्चस्व की भूमिका है जिसका ऐतिहासिक रूप से पुनरुत्पादन होता रहता है ।उन्होंने यह भी कहा कि पुरुष होने का लाभ सभी श्रेणियों के पुरुषों को समान रूप से नहीं मिलता ।कॉनेल का यह सिद्धांत मल्टिपल मेस्कुलिनिटीज के नाम से जाना जाता है ।
४१- मीमांसा का तात्पर्य है पूजित विचार या पूजित जिज्ञासा ।एक दर्शन के रूप में मीमांसा का सम्बन्ध कर्मकाण्ड तथा वेद की व्याख्या से है ।यह वेद के मंत्र- ब्राह्मण रूपी पूर्व भाग या कर्मकाण्ड पर आधारित है ।अतः इसे पूर्व मीमांसा, कर्म- मीमांसा या धर्म- मीमांसा कहते हैं ।वेदान्त वेद के उत्तर भाग अर्थात् उपनिषद- भाग या ज्ञान कांड पर आधारित है अतः इसे उत्तर मीमांसा, ज्ञान मीमांसा या ब्रम्ह मीमांसा कहते हैं ।मीमांसा सूत्र के रचयिता आचार्य जैमिनि हैं ।
४२- जैमिनि रचित मीमांसा सूत्र में बारह अध्याय तथा तीन हज़ार सूत्र हैं ।इनमें बताया गया है कि क्या करना चाहिए तथा क्या नहीं करना चाहिए ।इसमें मुख्यतः धर्म की चर्चा है तथा धर्म जिज्ञासा से ही यह शुरू होता है ।आचार्य जैमिनि ने धर्म को वेद आधारित माना है ।वह मानते हैं कि फल किसी दाता पर निर्भर नहीं है बल्कि कर्म के अनुरूप स्वयं प्राप्त होता है ।जैमिनि की मान्यता थी कि कर्म ही मानव जीवन का आधार है ।प्राचीन काल में न्याय शब्द का प्रयोग पूर्व मीमांसा के लिए किया जाता था ।
४३- मीमांसा के सिद्धांतकारों ने कहा कि वेदों पर उनकी आस्था अंधविश्वास पर न होकर उनकी वैधता और प्रामाणिकता पर आधारित है ।मीमांसकों के अनुसार प्रत्येक प्रभाव का एक कारण होता है ।प्रत्येक कर्म का अपना फल होता है ।प्रत्येक वस्तु में एक अंतर्निहित एक शक्ति होती है ।यह शक्ति ही फल अथवा प्रभाव को जन्म देती है ।यदि इस शक्ति को नष्ट कर दिया जाए तो प्रभाव कार्यान्वित नहीं होता ।बीज का अंकुरण उसकी अंतर्निहित शक्ति का उदाहरण है ।जैमिनि इस रहस्यमयी शक्ति को अपूर्व कहते हैं ।
४४- जैमिनि का कहना है कि शब्द ठीक- ठीक वही ध्वनियाँ और नाद नहीं हैं, जिन्हें हम सुनते हैं ।शब्द वास्तव में अक्षरों से रचे जाते हैं, जो स्थिर और शाश्वत हैं ।ध्वनि शब्दों को स्पष्ट करती है ।परिवर्तन केवल उच्चारण और व्याख्या में होता है ।शब्द वास्तव में ज्यों के त्यों रहते हैं ।प्रकाश की किरण केवल उस वस्तु को प्रकाशित करती है जिस पर वह गिरती है, उसे वह रचती नहीं है ।मीमांसा दर्शन आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करके उसे शाश्वत मानता है ।शरीरस्थ आत्मा के होने पर चैतन्य की उत्पत्ति होती है ।
४५- पेटेंट बौद्धिक संपदा अधिकारों का एक महत्वपूर्ण आयाम है ।पेटेंट के ज़रिए ऐसे क्षेत्रों में आविष्कार की प्रवृतियों को होने वाले नुक़सानों को रोका जा सकता है, जहां किसी आविष्कार की नक़ल करने में बहुत कम लागत आती है ।पेटेंट देने की पहली शर्त यह होती है कि आविष्कार में नवीनता होनी चाहिए ।आविष्कार स्वयं प्रकट होने वाला न होकर उसे करने में अध्यवसाय और परिश्रम दिखना चाहिए । वर्ष १९९९ में प्रति दस लाख लोगों में धनी देशों में २७३, मध्यम दर्जे के विकसित देशों में सात, ब्राज़ील में तीन, चीन में दो और भारत में एक पेटेंट लाइसेंस दिया गया ।
४६- पेटी बूर्ज्वा फ़्रांसीसी भाषा का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है- बुर्ज के लोग ।फ़्रांस में बुर्ज शब्द का प्रयोग उस नगर के लिए किया जाता था जहां लोग एक चहारदीवारी में घिरे रहकर अपना काम करते थे ।इस पद को राजनीतिक दर्शन और अर्थशास्त्र में कार्ल मार्क्स ने प्रचलित किया ।उन्होंने अपनी दो रचनाओं सोशलिज्म : यूटोपियन एंड साइंटिफिक और थियरी ऑफ सरप्लस वैल्यू में इस फ्रेंच शब्द का प्रयोग ब्रिटिश मध्य वर्ग के संदर्भ में किया ।मार्क्स की स्पष्ट मान्यता थी कि मध्य वर्ग यानी पेटी बूर्ज्वा का बढ़ता हुआ आकर पूंजीवाद के विकास का महत्वपूर्ण पहलू होता है ।
४७- अमेरिका के गैरी इण्डियाना में जन्में, अर्थशास्त्रीय व्याख्याओं में गणितीय विधियों को स्थापित करने वाले पॉल सेमुअलसन (१९१५-२००९) अपने अनुसंधान और अवलोकनों से बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में इस अनुशासन के विमर्श को गहराई से प्रभावित किया ।उनका दावा था कि गणित के बिना अर्थशास्त्र को न तो व्यवस्थित क्रम दिया जा सकता है और न ही स्पष्टता प्रदान की जा सकती है ।वर्ष १९७० में उन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया ।सेमुअलसन ने पचास साल में ३८८ निबंध लिखे जो कलेक्टिड साइंटिफिक पेपर्स (१९६६-१९७७) में संकलित हैं ।अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में उनका फैक्टर प्राइस इक्विलीबिरियम थियोरम बहुत प्रसिद्ध है ।
४८- प्रगति का शाब्दिक रूप से अर्थ होता है- आगे की तरफ़ गति ।अग्रगति की यह अवधारणा सभ्यता की शुरुआत से ही मनुष्य के साथ है ।इस विचार के इतिहासकार रॉबर्ट निस्बेट ने अपनी पुस्तक द आइडिया ऑफ प्रोग्रेस में इसका उद्गम प्राचीन ईसाई विचारों में तलाशा है, परन्तु इसे मानवीय इतिहास की मुख्य चालक शक्ति बनाने का श्रेय युरोपीय ज्ञानोदय काल में विकसित हुए बुद्धिवादी और वैज्ञानिक विचारों को जाता है ।इसी के बाद से पश्चिमी बौद्धिक परम्परा ने इतिहास के बढ़ते कदमों की संकल्पना को अपना बुनियादी तत्व बना लिया ।
४९- इमैनुअल कांट ने प्रगति के सिद्धांत का सूत्रीकरण सांस्कृतिक और व्यक्तिगत धरातल पर उत्तरोत्तर ऊर्ध्वगामी आत्म- चेतना के रूप में किया ।कांट मानते थे कि मनुष्य प्रकृति की प्रच्छन्न योजना के मुताबिक़ अनिवार्यत: प्रगति करता चला जाएगा ।उन्नीसवीं सदी में जैविक क्रम- विकास के सिद्धांत ने इस विचार को प्रकृति के अनिवार्य नियम का प्रभामंडल प्रदान कर दिया और प्रगति की अभिव्यक्तियाँ आम तौर पर ग्रोथ और इवोल्यूशन जैसी जीव वैज्ञानिक शब्दावली में की जाने लगीं।
५०- प्रगति के विचार का मुख्य संदेश यह था कि अतीत की गिरफ़्त में रहने के बजाय उसकी कामयाबियों और नाकामियों से सबक सीख कर आगे बढ़ते चले जाना चाहिए ।प्रगति के सिद्धांत ने हर नई पीढ़ी को एक कार्यक्रम थमाया कि उसे अगली पीढ़ी द्वारा संचित ज्ञान में वृद्धि करनी है ।प्रगति के अपरिहार्य होने के आग्रह के तहत आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तनों के लिए होने वाली उथल-पुथल को आधुनिकीकरण का नाम दिया गया ।
नोट : उपरोक्त सभी तथ्य, अभय कुमार दुबे, द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘समाज विज्ञान विश्वकोष’ खण्ड ३, दूसरा संस्करण २०१६, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, ISBN : 978-81- 267-2849-7, से साभार लिए गए हैं ।
बहुत विस्तृत एवम् सारगर्भित अध्ययन । आपके सार्थक श्रम के लिए आपको बधाई।
बहुत बहुत धन्यवाद आपको सर