– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर- प्रदेश), फ़ोटो गैलरी एवं प्रकाशन प्रभारी : डॉ. संकेत सौरभ, नई दिल्ली, भारत । email : drrajbahadurmourya @ Gmail.com, website : themahamaya. Com
(डायसपोरा, पुरोदर्शन, भारत में मीडिया, भारतीय रंगमंच, भारतीय राष्ट्रवाद, राजनीतिक संस्कृति, भारत में पंचायती राज, भारत में समाजशास्त्र, भारत में सिनेमा तथा फ़िल्म )
1- दुनिया में भारतवंशियों का डायसपोरा सबसे बड़ा है ।लगभग तीन करोड़ की संख्या वाला यह डायसपोरा विश्व के 28 देशों में फैला हुआ है । भारतीय समाज की ही तरह यह डायसपोरा भी बहुधर्मी, बहुजातीय और बहुभाषी है । भारत सरकार इस डायसपोरा समाज को दो तकनीकी श्रेणियों में रखकर परिभाषित करती है : अनिवासी भारतीय या प्रवासी भारतीय (एन आर आई) और भारतीय मूल का व्यक्ति (पी आई ओ)। नॉन रेजीडेंड का मतलब है प्रवासी भारतीय जो भारतवंशी तो है पर भारत के बाहर पैदा हुआ है और स्थायी रूप से बाहर ही रहता है और अपनी रिहायश के देश का नागरिक है ।
2- परसन ऑफ इंडियन ऑरिजन का मतलब है भारतीय मूल का वह व्यक्ति जो भारत का नागरिक नहीं है । कम से कम चार पीढ़ियों से विदेश में रहने वाले व्यक्ति को पी आई ओ का दर्जा मिल सकता है ।ऐसे नागरिकों पर वीज़ा और काम करने के परमिट पर कोई रोक नहीं है ।जनवरी, 2006 से भारत सरकार ने ओवरसीज़ सिटीजनशिप ऑफ इंडिया (ओ सी आई) की स्कीम शुरू की है जिसके तहत प्रवासियों को आज़ादी के बाद पहली बार एन आर आई और पी आई ओ को सीमित किस्म की दोहरी नागरिकता देने का प्रावधान किया गया है ।
3- ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो रोमानी लोगों या जिप्सियों की बड़ी संख्या में भारत से जाकर दूसरे देशों में बसने से भारतीय डायसपोरा की शुरुआत होती है ।भाषाई और जेनेटिक प्रमाण बताते हैं कि जिप्सियों का उद्गम मध्य भारत में है । मध्य एशिया के डोम और भारत के बंजारे रोमानी समाज के बचे हुए प्रतिनिधि ही माने जाते हैं । जिप्सी भारतवंशी माने जाते हैं और सारी दुनिया में उनके ख़िलाफ़ उत्पीडन के प्रमाण बड़े पैमाने पर उपलब्ध हैं ।कभी सैनिक कार्रवाई के कारण, कई व्यावसायिक कारणों से, कभी बंधुवा मज़दूर के रूप में भारतीय लोगों का प्रवासन होता रहा है ।
4- माना जाता है कि आस्ट्रेलिया में भारतीयों का आगमन उस ज़माने में हुआ था जब वहाँ ऊँटों के ज़रिए संचार व्यवस्था चलती थी । इन भारतीयों को अफ़ग़ान कहा जाता था ।आज आस्ट्रेलिया में क़रीब 2 लाख, 60 हज़ार भारतीय रहते हैं जिनमें ज़्यादातर हिंदू और सिक्ख हैं ।कनाडा में भारतीयों का आगमन उन्नीसवीं सदी में शुरू हुआ । 1919 तक कनाडा की सरकार इन्हें अपनी पत्नी और बच्चों को लाने की इजाज़त नहीं देती थी । वर्ष 1911 में कनाडा में पहला गुरुद्वारा बना ।शुरू में एशियाई महिलाओं को अमेरिका आने की अनुमति नहीं थी ।
5- भारत में उन्नीसवीं में गीता कपूर ने भारत में कलात्मक निरूपण की विधि पहचानते हुए पुरोदर्शन अथवा फ्रंटलिटी की थिसिज का सूत्रपात किया । दर्शक को सीधे सम्बोधित करने वाली इस विधि को मोड ऑफ डायरेक्ट एड्रेस की संज्ञा दी गई ।सिनेमा के लिए पुरोदर्शन या फ्रंटलिटी का मतलब होता है अभिनेता का दर्शक से सीधा साक्षात्कार यानी कैमरे में देखकर अभिनय करना । भारतीय फ़िल्म अध्ययन पुरोदर्शन को केवल फ़िल्मों के दायरे में ही प्रासंगिक नहीं मानता बल्कि चाक्षुष कला की सभी विविधताओं को समाहित करने का प्रयास करता है ।
6- तेलगू के सुपर स्टार नंदमूरि तारक रामाराव की राजनीतिक सफलताओं को जनमानस पर सिनेमा की गिरफ़्त के रूप में देखने वाली चिदानंद दास गुप्ता की कृति द पेंटिड फेस का प्रकाशन हुआ ।सुमिता एस. चक्रवर्ती ने अपनी कृति नैशनल आइडेंटिटी इन पॉप्युलर सिनेमा में व्यावसायिक फ़िल्मों को आधुनिक राष्ट्र- राज्य के परिप्रेक्ष्य में स्थित करके अभिव्यक्ति की समकालीन विधि के रूप में विश्लेषित किया । इसके अलावा जर्नल ऑफ आर्ट्स ऐंड आइडियाज़ में लिखने वाले कई अध्येताओं जैसे आशीष राज्याध्यक्ष, गीता कपूर, अनुराधा कपूर, रवि वासुदेवन, एम. माधव प्रसाद, विवेक धारेश्वर तथा तेजस्विनी निरंजना ने भारतीय आधुनिकता की जाँच- पड़ताल को केन्द्र में रखकर एक मीडिया के तौर पर व्यावसायिक सिनेमा पर प्रभावशाली लेखन किया ।
7- भारत में मीडिया के विकास को तीन चरणों में बाँट कर देखा जा सकता है । पन्द्रहवीं और सोलहवीं सदी में ईसाई मिशनरी धार्मिक साहित्य का प्रकाशन करने के लिए भारत में प्रिंटिंग प्रेस ला चुके थे । भारत का पहला अख़बार बंगाल गजट भी 29 जनवरी, 1780 को एक अंग्रेज़ जेम्स आगस्टस हिकी ने ही निकाला था । हिकी इस साप्ताहिक के ज़रिए भारत में ब्रिटिश समुदाय के अंतर्विरोधों को कटाक्ष भरी भाषा में व्यक्त करते थे, इसलिए उन्हें जल्दी ही गिरफ़्तार कर लिया गया और दो साल में अख़बार का प्रकाशन बन्द हो गया ।
8- उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक में कलकत्ता के पास श्रीरामपुर के मिशनरियों ने और तीसरे दशक में राजा राममोहन राय ने साप्ताहिक, मासिक और द्वैमासिक पत्र- पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू किया । पत्रकारिता के ज़रिए यह दो दृष्टिकोणों का टकराव था । श्रीरामपुर के मिशनरी भारतीय परम्परा को गर्हित साबित करते हुए ईसाइयत की श्रेष्ठता स्थापित करना चाहते थे, जबकि राजा राममोहन राय की भूमिका हिंदू धर्म और भारतीय समाज के आंतरिक आलोचक की थी । वे परम्परा के उन रूपों की आलोचना कर रहे थे जो आधुनिकता के प्रति सहज नहीं थे ।
9- वर्ष 1861 में एक अंग्रेज़ रॉबर्ट नाइट ने बम्बई के तीन अख़बारों का विलय करके टाइम्स ऑफ इंडिया की स्थापना की ।यह भी ब्रिटिश हितों की सेवा करने के लिए था । 1849 में गिरीश चन्द्र घोष ने पहला बंगाल रिकॉर्डर नाम से ऐसा पहला अख़बार निकाला जिसका स्वामित्व भारतीय हाथों में था ।1853 में इसका नाम बदलकर हिंदू पैट्रियट हो गया । हरिश्चन्द्र मुखर्जी के पराक्रमी सम्पादन में निकलने वाले इस पत्र ने विभिन्न प्रश्नों पर ब्रिटिश हुकूमत की कड़ी आलोचना का सूत्रपात किया ।1878 में अंग्रेजों ने वरनाकुलर प्रेस एक्ट बनाया ताकि अपनी आलोचना करने वाले प्रेस का मुँह बन्द कर सकें ।इसका भारत और ब्रिटेन में जम कर विरोध हुआ ।
10- बीसवीं सदी में बाल गंगाधर तिलक, गोखले, दादा भाई नौरोजी, सुरेंद्र नाथ बनर्जी, मदन मोहन मालवीय और रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने अख़बारों और पत्रिकाओं का प्रकाशन किया । खुद गांधी ने राष्ट्रीय पत्रकारिता में तीन- तीन अख़बार निकालकर योगदान दिया । इन राष्ट्रीय हस्तियों के नेतृत्व में मराठा, केसरी, बंगाली, हरिजन, नवजीवन, यंग इंडिया, अमृत बाज़ार पत्रिका, हिन्दुस्तानी एडवोकेट, ट्रिब्यून, अखबार- ए- आम, साधना, प्रबासी, हिन्दुस्तान रिव्यू और अभ्युदय जैसे पत्र निकले ।यह सभी उपनिवेशवाद विरोधी तर्कों और स्वाधीनता के विचार को अपना आधार बना रहे थे ।
11- कलकत्ता से निकलने वाला पत्र स्टेट्समैन, बम्बई का टाइम्स ऑफ इंडिया, मद्रास का मेल, लाहौर का सिविल एंड मिलिट्री गजट और इलाहाबाद का पायनियर खुले तौर पर अंग्रेज़ी शासन का गुणगान करते थे ।अंग्रेज़ी पत्रकारिता के महत्व को देखते हुए जल्दी ही मदन मोहन मालवीय, मुहम्मद अली जिन्ना, ऐनी बेसेंट, मोतीलाल नेहरू आदि ने राष्ट्रवादी विचारों वाले अंग्रेज़ी अख़बारों लीडर, कॉमरेड, मद्रास स्टेंडर्ड,न्यूज़, इंडिपेंडेंट तथा सिंध ऑब्ज़र्वर की शुरुआत की । दिल्ली से 1923 में कांग्रेस का समर्थन करने वाले भारतीय पूँजीपति घनश्याम दास बिडला ने द हिंदुस्तान टाइम्स का प्रकाशन शुरू किया ।
12- वर्ष 1938 में जवाहरलाल नेहरु ने अंग्रेज़ी के राष्ट्रवादी अख़बार नैशनल हैरल्ड की स्थापना की ।वर्ष 1826 में कलकत्ता से जुगल किशोर सुकुल ने उदंत मार्तण्ड नामक पहला हिंदी अख़बार प्रकाशित किया था । बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में हिन्दी में गणेश शंकर विद्यार्थी ने प्रताप, बाल मुकुंद गुप्त और अम्बिका शरण बाजपेयी ने भारत मित्र, महेश चन्द्र अग्रवाल ने विश्वमित्र और शिवप्रसाद गुप्त ने आज की स्थापना की ।यह एक प्रकार से हिन्दी प्रेस की शुरुआत थी ।
13- इसी दौरान उर्दू प्रेस की भी नींव पड़ी । अबुल कलाम आज़ाद ने अल- हिलाल और अल- बिलाग का प्रकाशन शुरू किया, मुहम्मद अली ने हमदर्द का। लखनऊ से तहक़ीक़ात, लाहौर से प्रताप और मिलाप और दिल्ली से तेज का प्रकाशन होने लगा ।बांग्ला में संध्या, नायक, बसुमती, हितबादी, नब शक्ति, आनंद बाज़ार पत्रिका, जुगांतर, कृषक और नबजुग जैसे प्रकाशन अपने- अपने दृष्टिकोणों से उपनिवेशवाद विरोधी अभियान में भागीदारी कर रहे थे ।
14- इसी दौरान मराठी में इन्दुप्रकाश, नवकाल, नवशक्ति और लोकमान्य, गुजराती में गुजराती पंच, सेवक, गुजराती और समाचार, वंदेमातरम्, दक्षिण भारत में मलयाला मनोरमा, मातृभूमि, स्वराज, अलअमीन, मलयाला राज्यम, देशाभिमानी, संयुक्त कर्नाटक, आंध्र पत्रिका, कल्कि, तंति, स्वदेश मित्रम्, देशोभक्तम् और दिनामणि पत्र निकल रहे थे ।ब्रिटिश प्रशासन ने 1924 में मद्रास में एक शौक़िया रेडियो क्लब बनाने की अनुमति दी । तीन साल बाद निजी क्षेत्र में ब्रॉडकास्ट कम्पनी ने बम्बई और कलकत्ता में नियमित रेडियो प्रसारण की शुरुआत की ।ब्रिटिश सरकार ने 1930 में ब्रॉडकास्टिंग को अपने हाथ में ले लिया और 1936 में उसका नामकरण आल इंडिया रेडियो या आकाशवाणी कर दिया ।
15- भारत सरकार ने 1952 और 1977 में दो प्रेस आयोग गठित किया ।1965 में एक संवैधानिक संस्था प्रेस परिषद की स्थापना हुई ।1956 में रजिस्ट्रेशन ऑफ बुक्स एक्ट के तहत प्रेस रजिस्ट्रार ऑफ इंडिया की स्थापना की गई । 1982 में बिहार प्रेस विधेयक और 1988 में लोकसभा द्वारा पारित किए गए मानहानि विधेयक को राजसत्ता पत्रकारों द्वारा किए गए आन्दोलन के कारण क़ानून में नहीं बदल पाए ।1948 में संविधान सभा में बोलते हुए जवाहरलाल नेहरु ने वादा किया था कि आज़ाद भारत में ब्रॉडकास्टिंग का ढाँचा ब्रिटिश ब्राडकास्टिंग कॉरपोरेशन की तर्ज़ पर होगा ।यह आश्वासन पूरा करने में आज़ाद भारत की सरकारों को पूरे 42 साल लग गए ।
16- वर्ष 1975-76 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने अमेरिका से एक सेटेलाइट उधार लिया ताकि देश के विभिन्न हिस्सों में, 2,400 गाँवों में कार्यक्रमों का प्रसारण हो सके ।इसे सेटेलाइट इंस्ट्रक्शनल टेलीविजन एक्सपेरीमेंट (साइट) कहा गया । वर्ष 1982 में दिल्ली एशियाड का प्रसारण करने के लिए रंगीन टी वी की शुरुआत हुई ।1990 तक उसके ट्रांसमीटरों की संख्या 519 और 1997 तक 900 हो गई ।
17- 1978 में बी जी वर्गीज की अध्यक्षता में गठित किए गए एक कार्यदल ने आकाश भारती नामक संस्था गठित करने का सुझाव दिया ।1985 से 1989 के बीच दूरदर्शन को आज़ादी का एक हल्का सा झोंका नसीब हुआ । इसका श्रेय भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी भास्कर घोष को जाता है जो इस दौरान दूरदर्शन के महानिदेशक रहे । प्रसार भारती विधेयक पारित कराने की ज़िम्मेदारी विश्वनाथ प्रताप सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने 1990 में पूरी की । वर्ष 1995 में भारत में इंटरनेट की शुरुआत हुई ।
18- भारतीय रंगमंच का उत्स संस्कृत रंगमंच में है जिसकी परम्परा अति प्राचीन है ।नाट्यशास्त्र में नाट्योत्पति का संदर्भ है कि ब्रम्हा के आदेश पर भरत मुनि ने वेदों के रस से नाट्य रचना की ।इसे पाँचवाँ वेद कहा गया है ।अन्य वेदों के विपरीत यह सभी वर्णों के लिए था । रस इसका केन्द्रीय तत्व था । यह बात भी महत्वपूर्ण है कि विलियम जोंस ने कालिदास के नाटक अभिज्ञान शाकुन्तलम् की खोज की और 1789 में इसका अनुवाद प्रकाशित किया ।शूद्रक, भवभूति, हर्ष, विशाखादत्त संस्कृत के उल्लेखनीय नाटककार हुए हैं । माइकल मधुसूदन दत्त के मेघनाद वध, दीनबन्धु मित्र के नीलदर्पण जैसे नाटकों ने समकालीन समय को अभिव्यक्त किया ।
19- भारतीय राष्ट्रवाद उपनिवेशवाद विरोधी राजनीति की देन है । इसकी विशेषता यह है कि भारतीय राज्य ने किसी एक धर्म को अपना राजकीय धर्म घोषित करने से परहेज़ किया है ।श्री लंका दो भाषाओं को राजभाषा मानता है जबकि भारत ने अपनी 24 भाषाओं को राजभाषा की मान्यता देकर अपने राष्ट्रवाद को बहुधार्मिक और बहुभाषी स्वरूप दिया है ।भारत में सांस्कृतिक रूप से विशिष्ट इकाइयों की परस्पर निर्भर राजनीति- आर्थिक एकता का नतीजा संघात्मक बन्दोबस्त में निकला है । भारत ने एक सम्प्रभु राज्य के भीतर सामुदायिक अधिकारों का प्रावधान किया है ।
20- भारतीय राष्ट्रवाद के जो पैरोकार इसे प्राचीन सभ्यता के आइने में देखना चाहते हैं उनका मक़सद भारतीय राष्ट्र का उद्गम मुसलमानों और अंग्रेजों के आगमन से पहले दिखाना है । यह लोग प्राचीन काल से भारत के भीतर जिस भौगोलिक एकता की आकांक्षा का ज़िक्र करते हैं, उसका स्रोत हिंदू संस्कृति है । भारतीय राष्ट्र को सामासिक संस्कृति की देन मानने वालों का मुख्य ज़ोर हिंदू और इस्लामिक संस्कृतियों का सम्मिलन दिखाने पर रहता है ।वे कहते हैं कि यह सामासिकता द्वंद्व और संश्लेषण की प्रक्रिया के ज़रिए हासिल की गई है ।
21- राजनीतिक संस्कृति के विशिष्ट भारतीय मॉडल की रचना का श्रेय रजनी कोठारी को जाता है । उन्होंने साठ के दशक में किए गए अपने अध्ययनों के आधार पर लिखी गई एक बहु- अनुशासनीय पुस्तक पॉलिटिक्स इन इंडिया (1969) में इसे पेश किया था । अपनी इस अनूठी रचना में कोठारी ने परम्परा को तीन हिस्सों में बाँट कर विश्लेषित किया है : भारतीय संस्कृति की महान परम्परा और ग्रामीण संस्कृति की लघु परम्पराओं के साथ- साथ बहु- सामाजिक और बहु- क्षेत्रीय राजनीतिक संस्कृति की मध्यवर्ती परम्पराएं । वे मानते हैं कि भारत में समूहन की प्रक्रिया इन्हीं मध्यवर्ती परम्पराओं के इर्द-गिर्द सम्पन्न हुई है ।
22- वर्ष 1950 में संवैधानिक गणराज्य के रूप में जिस भारतीय राज्य की नींव पड़ी उसके प्रमुख आयाम थे : सार्विक मताधिकार के आधार पर निर्वाचित सम्प्रभु विधायिका, सभी नागरिकों के मूलाधिकारों की संविधान द्वारा गारंटी, शासन की संसदीय प्रणाली, संसद के प्रति जबाबदेह कार्यपालिका और अप्रत्यक्ष निर्वाचन के ज़रिए चुना गया राष्ट्रपति, स्वतंत्र न्यायपालिका और केन्द्राभिमुख संघात्मक प्रणाली ।
23- सेलिग हैरिसन, मैक्सवेल और रोनाल्ड सेगल जैसे विद्वानों ने दावा किया था कि 1967 का आम चुनाव भारत का आख़िरी चुनाव होगा क्योंकि उसके बाद क्षेत्रीय, भाषायी, जातीय और साम्प्रदायिक दबावों के साथ-साथ आर्थिक संकट के कारण भारत का राजनीतिक केन्द्र बिखर जाएगा । विद्याधर नैपॉल जैसे अनिवासी व्याख्याकारों ने इंदिरा गांधी द्वारा थोपे गए आपातकाल को भारतीय लोकतंत्र की शोकांतिका घोषित कर दिया । उन्होंने व्यवस्था की समस्याओं को भारतीय सभ्यता के व्यापक संकट से जोड़ कर अंधकार का क्षेत्र जैसे ख़ौफ़नाक सूत्रीकरण कर डाले ।नैपॉल का कहना था कि आज भारत अकेला खड़ा है और उसकी पतनशील सभ्यता के पास न कोई विचार है और न ही कोई विदेशी विजेता जो उसके समाज को शांति और व्यवस्था का अवदान दे सके ।
24- भारत में गांधीवादी विचारधारा मानती थी कि विकास और सेकुलरीकरण के ज़रिए नया समाज पैदा किया जा सकता है ।यह विमर्श लोकतंत्र के हिसाब से समाज को बदलने के बजाय जनता की ज़रूरतों के हिसाब से लोकतंत्र को बदलने का पक्षधर था । भारतीय लोकतंत्र की सबसे बेहतरीन समझ इसी धारा के प्रतिपादकों ने बनायी ।पचास के दशक में राजनीतिशास्त्र के अध्येता रजनी कोठारी ने निष्कर्ष निकाला कि कांग्रेस सिर्फ़ एक पार्टी नहीं बल्कि एक प्रणाली है जो भारतीय समाज के संरचनात्मक चरित्र को समझकर ही उस पर लम्बे समय तक शासन कर सकी । उन्होंने इसे कांग्रेस सिस्टम की संज्ञा दी ।
25- तेरहवीं सदी में राष्ट्र का मतलब था एक ऐसी संरचना जिस पर सांस्कृतिक और राजनीतिक रंग- रुतबा रखने वाले समूहों के प्रतिनिधियों यानी सामाजिक अभिजनों का आधिपत्य हो ।सोलहवीं सदी में राष्ट्र का यह विचार बदला और उसे पीपुल या जन गणों का पर्याय मान लिया गया ।अर्थात् एक राष्ट्र की भू- क्षेत्रीय परिधि में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति राष्ट्रीय समुदाय का सदस्य मान लिया गया ।प्रतीकात्मक रूप से ही सही, पर राष्ट्र की अवधारणा में हुए इस परिवर्तन का मतलब था जन- साधारण का अभिजनों के समकक्ष आ जाना, हासियाग्रस्तों का केन्द्रीय मंच पर अवतरण हो जाना ।
26- भारत में वर्ष 1952 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम शुरू किया गया । जिससे उम्मीद थी कि वह ग्रामीण समाज और सरकारी ढाँचे के बीच की खाई पाटेगा ।यह पहली पंचवर्षीय योजना (1951-56) का प्रमुख पहलू था जिस पर फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन के भारतीय अध्याय के कर्ताधर्ता और कृषि अर्थशास्त्री अल्बर्ट एंसमिंगर द्वारा नेहरू को दिए गए सुझावों की छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती थी । इस योजना में कृषि क्षेत्र और सामुदायिक विकास पर बहुत ज़ोर दिया गया था ।1952 में ही पूरे देश को विकास खंडों में विभाजित किया गया जिसके आधार पर बाद में पंचायती राज कार्यक्रम बना ।
27- पंचायती राज की परियोजना दूसरी पंचवर्षीय योजना (1956-61) के तहत धरती पर उतारी गई । इस पंचवर्षीय योजना में अमेरिकी विशेषज्ञों की ज़्यादा नहीं सुनी गई । 1955 में ही सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी ने समाजवादी प्रारूप का समाज बनाने के लिए अपनी प्रतिबद्धता जता दी थी ।वर्ष 1957 तक देश में दो आम चुनाव और कई स्थानीय चुनाव हो चुके थे ।निर्वाचित होने, सत्ता मिलने और सत्ता से बेदख़ल होने की लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का पहला परिचय भारतवासियों को होने लगा था ।वर्ष 1957 में बलवंत राय मेहता समिति की रिपोर्ट भी आ चुकी थी ।
28- भारत में समाजशास्त्र के औपचारिक अध्ययन- अध्यापन की शुरुआत 1914 में बम्बई विश्वविद्यालय से हुई ।इसके बाद 1917 में कलकत्ता और 1921 में लखनऊ विश्वविद्यालय ने इसे अपने पाठ्यक्रम में शामिल किया । इस समय तक समाज के बारे में तथ्यात्मक सूचनाएँ जैसे- जाति व्यवस्था, पारिवारिक संरचना, विवाह की आयु तथा वैधव्य आदि को लेकर जनसंख्या सम्बन्धी रपटें और दस्तावेज लोकवृत्त का हिस्सा बनने लगे थे । लेकिन इसके बावजूद इस दौर में समाजशास्त्र के अंतर्गत जो पढ़ाया जा रहा था उसमें प्राच्यवादी दर्शन तथा जनजातीय विवरणों पर ज़्यादा ज़ोर दिया जाता था ।
29- समाजशास्त्र के भारतीय संस्करण का रूप विकसित करने का श्रेय बम्बई विश्वविद्यालय के पहले भारतीय अध्यक्ष गोविन्द सदाशिव घुर्ये को जाता है, जिन्होंने अपने शोध निर्देशन में समाजशास्त्रियों की एक समूची पीढ़ी को आकार दिया ।आज़ादी के बाद एम. एन. श्रीनिवास, के. एम. कपाडिया, वाई. बी. दामले, ए. आर. देसाई तथा एम. एस. ए. राव जैसे समाजशास्त्रियों की पीढ़ी के निर्माण का श्रेय घुर्ये को ही जाता है । उनके लेखन और शोध का दायरा बेहद व्यापक था जो जाति अध्ययन, आदिवासियों, शहरीकरण, भारतीय सभ्यता विमर्श, राजपूत स्थापत्य तथा भारतीय साधुओं के अध्ययन से लेकर बम्बई के मध्यवर्गीय लोगों की यौन आदतों के सर्वेक्षण तक फैला था ।
30- भारतीय समाजशास्त्र के आदि प्रणेताओं में राधा कमल मुखर्जी, धूर्जटि प्रसाद मुखर्जी, बी. एन. सील, बी. के. सरकार, एस. वी. केतकर, बी.एन. दत्ता तथा के. पी. चट्टोपाध्याय आदि के नाम उल्लेखनीय हैं ।राधाकमल मुखर्जी ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था, ज़मीन, जनसंख्या तथा भारत के श्रमिक वर्ग के अलावा खेती और किसानों की स्थितियों,अंतर – जातीय तनावों और शहरीकरण की समस्याओं का सूक्ष्म अध्ययन किया तो डी. पी. मुखर्जी के चिंतन का फलक भारतीय परम्परा और आधुनिकता के द्वंद्व तक फैला हुआ था । सील की रुचि तुलनात्मक समाजशास्त्र में थी ।वे समाजशास्त्र में सांख्यिकी के प्रयोग पर ज़ोर देते थे ।
31- सन् 1951 में घुर्ये के प्रयासों से सोसियोलॉजिकल सोसाइटी की स्थापना हुई ।वर्ष 1956 में देश में पहली बार ऑल इंडिया सोसियोलॉजिकल कांफ्रेंस का आयोजन किया गया ।1967 में दोनों संगठनों का विलय हो गया । वर्ष 1986 में नई दिल्ली में समाजशास्त्र का ग्यारहवाँ अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया ।सातवें और आठवें दशक में देश के विभिन्न शहरों- दिल्ली, बम्बई, अहमदाबाद, जयपुर, चंडीगढ़, पुणे, बंगलुरु, हैदराबाद तथा तिरुवनन्तपुरम में सामाजिक शोध संस्थान स्थापित किए गए ।
32- समाजशास्त्र की शोध विषयक पत्रिकाओं की शुरुआत 1921 में द जर्नल ऑफ सोसियोलॉजी से हुई ।इसका सम्पादन बड़ौदा कॉलेज के ब्रिटिश प्रोफ़ेसर एल्बन विडगेरे करते थे ।इस दिशा में दूसरा प्रयास द सोसियोलॉजिकल रिव्यू के रूप में सामने आया जिसके सम्पादन की ज़िम्मेदारी आर. के. मुखर्जी को दी गई ।वर्ष 1957 में कंट्रीब्युशन टू सोसियोलॉजी का प्रकाशन शुरू हुआ ।इसका सम्पादन फ़्रेंच समाजशास्त्री लुई दुमों तथा एफ. डी. पोकॉक करते थे ।1963 के बाद इस जर्नल का प्रकाशन- सम्पादन भारतीय समाजशास्त्रियों के हाथ में आ गया ।
33- इसी प्रकार कौंसिल फ़ॉर सोशल डिवलेपमेंट द्वारा प्रकाशित सोशल चेंज भी एक उल्लेखनीय नाम है ।इसी प्रकार इकॉनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली समाज- विज्ञानों में शोध गतिविधियों का एक स्थाई और समादृत मंच रहा है । इसी संदर्भ में हैदराबाद स्थित नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ रूरल डेवलपमेंट के त्रैमासिक जर्नल ऑफ रूरल डेवलपमेंट, नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ अर्बन अफ़ेयर्स, नई दिल्ली का अर्बन इंडिया तथा सेंटर फ़ॉर वुमन स्टडीज़ द्वारा प्रकाशित जर्नल ऑफ जेंडर स्टडीज़ समकालीन समाजशास्त्रीय शोध के महत्वपूर्ण मंच माने जाते हैं ।
34- समाजशास्त्रीय ज्ञान के सृजन में फ़िलहाल छह अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, भारतीय विश्वविद्यालय, भारतीय समाज विज्ञान अनुसंधान परिषद द्वारा सहायता प्राप्त संस्थान, एंथ्रोपोलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया तथा गैर सरकारी संगठन आदि सक्रिय हैं । इन संस्थाओं द्वारा सृजित समस्त ज्ञान में पारिभाषिक और सर्वोच्च ज्ञान अमेरिका और इंग्लैंड के विश्वविद्यालयों के विभागों द्वारा सृजित ज्ञान ही माना जाता है । भारत में अगर अध्ययन के भौगोलिक क्षेत्र पर निगाह डाली जाए तो यह ज़ाहिर होता है कि अधिकांश अध्ययन दिल्ली की दो सौ मीटर की परिधि में ही हुआ है ।
35- भारत में सिनेमा की शुरुआत 7 जुलाई, 1896 से मानी जाती है ।सर्वप्रथम लुमीरे ब्रदर्स ने अपने दूत मारिस सेस्टीयर के ज़रिए बम्बई में सिनेमेटोग्राफ़ी का प्रदर्शन किया ।हीरालाल सेन भारत के पहले फ़िल्मकार थे जिन्होंने 1898 में फ्लावर ऑफ पर्शिया नामक फ़िल्म बनाई जो लघु फ़िल्म की श्रेणी में आती थी ।सेन ने आगे चलकर अलीबाबा एंड फोर्टी थीव्ज नामक फ़िल्म भी बनाई ।लेकिन पूरी लम्बाई का पहला कथा – चित्र राजा हरिश्चन्द्र (1913) बनाने का श्रेय ढुंढिराज गोविन्द फालके (1870-1944) को मिला ।इन्हें फ़िल्म इंडस्ट्री दादा साहब फाल्के के नाम से पुकारती है ।
36- दादा साहब फाल्के फ़िल्म निर्माण की कला सीखने लंदन गए और वहाँ द बाइस्कोप पत्रिका के संपादक से मशविरा लिया और वाल्टन स्थित सिनेमा कम्पनियों, स्टूडियोज़ और फ़ैक्टरियों का दौरा किया ।जब वे भारत लौटे तो उनके पास फ़िल्म निर्माण की जो सामग्री थी उसमें पचीस हज़ार रुपये की क़ीमत का हाथ से चलाया जाने वाला मूवी कैमरा भी था ।
37- भारत में फ़िल्म थिएटरों की पहली श्रृंखला के मालिक कलकत्ता के व्यापारी जमशेदजी फ्राम जी मदन थे।उनकी दिलचस्पी फ़िल्म निर्माण में भी थी और वे हर साल क़रीब दस फ़िल्में बनाते थे ।बीस के दशक में बम्बई, कलकत्ता और पूना में बड़े- बड़े स्टूडियोज़ की स्थापना हुई ।बम्बई में बाम्बे टाकीज स्टूडियो, कोहिनूर फ़िल्म कम्पनी, रंजीत मूवीटोन स्टूडियो और इम्पीरियल फ़िल्म कम्पनी की स्थापना की गई ।तीस के दशक में मद्रास में आर्टिस्ट्स कॉरपोरेशन की स्थापना हुई ।इम्पीरियल फ़िल्म कम्पनी ने ही 1931 में भारत की पहली बोलती फ़िल्म आलमआरा का निर्माण किया ।आज़ादी से पहले हिमांशु राय और उनकी पत्नी देविका रानी ने यूरोप में अपनी फ़िल्म कर्मा के प्रदर्शन से हलचल मचा दी ।
38- महान भारतीय फ़िल्मकार सत्यजीत राय स्वयं मानते थे कि उनकी फ़िल्म पाथेर पांचाली (1955) पर इतालवी फ़िल्मकार विट्टोरियो डि सिका की कृति बाइसिकल थीफ (1948) और फ़्रांसीसी फ़िल्मकार ज्यॉं रेनुआ की दि रिवर (1951) का असर है ।डि सिका के नव यथार्थवाद ने जिन उल्लेखनीय भारतीय फ़िल्मकारों को प्रभावित किया उनमें बिमल रॉय भी शामिल थे जिनकी फ़िल्म दो बीघा ज़मीन (1953) ने सत्यजीत राय के उभरने से पहले ही भारतीय फ़िल्मों की पताका विश्व मंच पर फहरा दी थी ।
39- वर्ष 2009 में भारत ने कुल 2,961 फ़िल्में बनाईं जिसमें 1,288 कथा- चित्र थे ।क़रीब नब्बे देशों में भारतीय फ़िल्में प्रदर्शित की जाती हैं ।सौ फ़ीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का प्रावधान होने के बाद इक्कीसवीं सदी में भारतीय फ़िल्म उद्योग ट्वेंटियथ सेंचुरी फ़ॉक्स, वार्नर ब्रदर्स और सोनी पिक्चर्स जैसी अन्तर्राष्ट्रीय फ़िल्म कम्पनियों के लिए निवेश का एक आकर्षक मुकाम बन चुका है ।वर्ष 2003 में तीस फ़िल्म निर्माण कम्पनियाँ नैशनल स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध थीं ।वर्ष 1949 में भारत सरकार ने फिल्म्स डिविज़न की स्थापना किया ।1980 में फ़िल्म वित्त निगम को राष्ट्रीय फ़िल्म विकास निगम का रूप दे दिया गया ।
40- भारत में चालीस के दशक से साठ के दशक के बीच के काल को भारतीय सिनेमा का स्वर्ण युग माना जाता है ।जिसमें महबूब खान ने अंदाज, आन, अमर और मदर इंडिया जैसी फ़िल्में बनाई ।वी. शांताराम ने दुनिया न माने, आदमी, पड़ोसी, दो आँखें बारह हाथ, डॉ. कोटनीस की अमर कहानी जैसी फ़िल्मों का निर्माण किया ।राजकपूर ने अवारा, श्री चार सौ बीस, जागते रहो, जिस देश में गंगा बहती है, बूटपालिश जैसी फ़िल्में बनाई ।विमल रॉय की मधुमती, देवदास, परख, परिणीता, दो बीघा ज़मीन आयी ।गुरूदत्त ने प्यासा, कागज के फूल तथा साहब बीबी गुलाम बनाई ।बी.आर. चोपड़ा ने नया दौर, क़ानून, धूल का फूल तथा धर्म पुत्र जैसी फ़िल्में बनाई ।
41- इसी क्रम में कमाल अमरोही ने महल और दायरा, चेतन आनन्द ने नीचा नगर, आख़िरी ख़त, हक़ीक़त, अफ़सर, विजय आनन्द ने गाइड और विजय भट्ट ने बैजू बावरा जैसी फ़िल्में बनाई ।साठ के दशक में अंतिम वर्षों में शक्ति सामंत ने आराधना, अमर प्रेम, मनमोहन देसाई ने अमर- अकबर- एंथनी, प्रकाश मेहरा ने ज़ंजीर, मुक़द्दर का सिकन्दर, यश चोपड़ा ने दीवार, दाग, महेश भट्ट ने अर्थ, सारांश, और रमेश सिप्पी ने शोले और शक्ति जैसी फ़िल्में बनाई ।1946 में ख़्वाजा अहमद अब्बास के निर्देशन में धरती के लाल जैसी चर्चित फ़िल्म बनाई गई ।
42- फ़िल्मकार रितिक घटक ने 1943 में पड़े बंगाल के अकाल और 1947 में हुए भारत विभाजन ,की त्रासदी के अपने ऑंखों देखे अनुभव के आधार पर गहरे राजनीतिक अर्थों से सम्पन्न फ़िल्म- त्रयी – मेघे ढाके तारा(1960), कोमल गांधार (1961) और सुबर्णरेखा (1962) का निर्माण किया ।इसी दौर में मृणाल सेन ने भुवन सोम और खंडहर, मणि कौल ने दुविधा और उसकी रोटी, कुमार साहनी ने माया दर्पण, तरंग, खयाल गाथा, श्याम बेनेगल ने अंकुर, निशांत, मंथन, भूमिका, मंडी, एम. एस. सथ्यु ने गरम हवा, सईद अख़्तर मिर्ज़ा ने अल्बर्ट पिंटो को ग़ुस्सा क्यों आता है, अरविंद देसाई ने अजीब दास्तान जैसी चर्चित फ़िल्मों का निर्माण किया ।
43- वर्ष 2009 में भारत में हिन्दी में 235, तेलगू में 218, तमिल में 190, कन्नड़ में 177, मराठी में 99, मलयालम में 94, बांग्ला में 84, भोजपुरी में 64, गुजराती में 62, उड़िया में 17, पंजाबी में 15, अंग्रेज़ी में 9, असमिया में 5, राजस्थानी में 5, कोंकणी में 4, संथाली में 2, हरियाणवी में 1, तथा कोडवा, मैथिली, नागपुरी, राजबंसी, सम्बलपुरी, मिसिंग और नेपाली में एक- एक फ़िल्में बनाई गई हैं । 1932 के बाद कलकत्ता में फ़िल्मों के निर्माण का केंद्र टॉलीगंज का नामकरण हॉलीवुड की तर्ज़ पर टॉलीवुड कर दिया गया ।
44- मराठी भाषा की पहली सवाक् फ़िल्म होने का श्रेय अयोध्येचा राजा को है जो पहली हिन्दी सवाक् फ़िल्म आलमआरा के साल भर बाद बनी ।मराठी फ़िल्म उद्योग की नींव पहले कोल्हापुर में पड़ी, इसके बाद उसका केन्द्र पुणे बना ।तमिल अभिनेता कमल हासन ने सबसे ज़्यादा बार राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार जीता है । रजनीकांत देश के सबसे महँगे फ़िल्म कलाकार हैं ।तमिल फ़िल्म उद्योग ने मणिरत्नम, बालु महेंद्र, कैलासम् बालचंदर, बाला, एस. शंकर जैसे विख्यात निर्देशक और इलइया राजा और अल्ला रक्खा रहमान जैसे संगीत निर्देशक दिए हैं ।
45- आन्ध्र प्रदेश से ज़्यादा सिनेमा हाल देश के किसी भी राज्य में नहीं हैं ।हैदराबाद में भारत ही नहीं दुनिया का सबसे बड़ा फ़िल्म स्टूडियो कॉम्प्लेक्स रामो जी राव फ़िल्म सिटी है । 1947 के बाद केरल में पहले फ़िल्म स्टूडियो उदय की स्थापना हुई ।पहली प्रामाणिक मलयाली फ़िल्म होने का श्रेय नीलक्कुयिल को है जिसे राष्ट्रपति के रजक पदक से सम्मानित किया गया था । 1965 में रामू करियट के निर्देशन में तकाशी शिवशंकर पिल्लै की कहानी पर बनी चेम्मीन न केवल हिट साबित हुई, उसने सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी जीता ।
46- 1932 में नानूभाई वकील द्वारा निर्देशित नरसिंह मेहता पहली गुजराती फ़िल्म थी ।कन्नड़ फ़िल्मों में संस्कार और चोमना जैसी चर्चित फ़िल्म बनाई गई ।संदलवुड के नाम से मशहूर इस उद्योग ने गिरीश कर्नाड, गिरीश कासरवल्ली और जी वी अय्यर जैसे फ़िल्मकार दिए हैं । कन्नड़ सिनेमा ने अनन्त नाग, शंकर नाग और बी सरोजदेवी जैसे विख्यात एक्टरों को भी राष्ट्रीय मंच पर पेश किया है ।डॉ. राजकुमार कन्नड़ सिनेमा के सुपरस्टार थे। इसी प्रकार भोजपुरी फ़िल्मों का दौर भी 1962 में प्रदर्शित अत्यंत लोकप्रिय कुंदन कुमार द्वारा निर्देशित गंगा मैया तोहपे पियरी चढइबो और 1963 में प्रदर्शित एस. एन. त्रिपाठी निर्देशित बिदेसिया से शुरू हुआ ।
47- समकालीन पाश्चात्य राजनीतिक चिंतन में अपने मौलिक चिंतन एवं सहज सारगर्भित शैली के लिए प्रसिद्ध भीखू छोटालाल पारिख (1935-) को बहुसंस्कृतिवाद एवं गांधी दर्शन की मीमांसा के लिए विशेष रूप से जाना जाता है ।पारिख की अंतर्दृष्टि अत्यंत व्यापक है । वह सांस्कृतिक विविधता और साझा मानवता के प्रबल समर्थक हैं । वह मानवीय एकता और मानवीय पहचान को समृद्ध करने वाले समाज को बहुसांस्कृतिक समाज मानते हैं ।उनकी पुस्तक रीथिंकिंग मल्टीकल्चरिज्म इसकी प्रतिनिधि रचना है जिसमें उन्होंने साम्प्रदायिक, उपसांस्कृतिक एवं परिप्रेक्ष्यात्मक विविधता का ज़िक्र किया है ।
48-पारिख अपनी पुस्तक कंटेम्परेरी पॉलिटिकल थिंकर्स में समकालीन राजनीतिक चिंतन की तीन प्रवृत्तियों को रेखांकित किया है : समकालीन राजनीतिक दार्शनिक विचारधारा की बहस को नज़रअंदाज़ करते हैं ।आज के राजनीतिक दार्शनिकों में उस सक्रियतावाद की कमी है जिसकी अपेक्षा प्लेटो और हन्ना आरेंट को थी ।आज के राजनीतिक दर्शन में स्पष्टता की अपेक्षा भटकाव अधिक है ।पारिख आज की दुनिया के स्वरूप, प्रगति एवं लक्ष्य को देखते हुए कहते हैं कि आज राजनीति को सार्वदेशिक राजनीति के रूप में अग्रसर होना चाहिए ।
49- डॉ. आम्बेडकर का तर्क था कि विपक्षी के साथ संवाद क़ायम करना तो ठीक है पर संवाद की शर्तें तय करने में पिछले अनुभव, ऐतिहासिक और भौतिक आयामों का ख़्याल रखना पड़ेगा ।यह भी देखना पड़ेगा कि विपक्षी आपको समान हैसियत देता है या नहीं या उसका रवैया तर्कपूर्ण है या नहीं ।डॉ. अम्बेडकर का लेखन वर्तमान की आवश्यकताओं के मुताबिक़ अतीत से खोजे गए प्रमाणों से भरा हुआ है ।अपने अध्ययन के दौरान जब ब्राह्मणों ने बी.ए. के कोर्स में उन्हें संस्कृत नहीं पढ़ने दिया तो उन्हें फ़ारसी लेनी पड़ी ।
50- डॉ. अम्बेडकर ने भारत में अस्पृश्यता के संदर्भगत, परिस्थितिजन्य और तुलनात्मक प्रमाण खोज निकाले ।वे कहते थे कि जाति पृथा के केन्द्र में पवित्रता और अपवित्रता की अवधारणाएँ हैं जिनके बिना छुआ-छूत की प्रथा नहीं टिकाई जा सकती है । अपनी रचना एनहिलेशन ऑफ कास्ट्स में आम्बेडकर में सुझाव दिया कि अंतरजातीय विवाहों को प्रोत्साहन देकर और अछूतों को पुरोहित बनाकर हिन्दू धर्म को उसकी बुराइयों से छुटकारा दिलाया जा सकता है ।1919 में उन्होंने साउथबरो कमीशन के सामने अछूतों के लिए अलग मतदाता मंडलों की बात रखी थी ।
नोट : उपरोक्त सभी तथ्य, अभय कुमार दुबे द्वारा सम्पादित, पुस्तक समाज – विज्ञान विश्वकोश, खंड 4, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण 2016, ISBN : 978-81-267-2849-7 से साभार लिए गए हैं ।