– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झाँसी (उत्तर-प्रदेश), फ़ोटो गैलरी एवं प्रकाशन प्रभारी : डॉ. संकेत सौरभ, नई दिल्ली, भारत । email : drrajbahadurmourya@gmail.Com, website : themahamaya. Com
(महाराष्ट्रीय सुधारणा, वरकरी सम्प्रदाय, महाराष्ट्रीय अस्मिता और नवजागरण, सदानंद मोरे, ज्योतिराव फुले, मराठा राष्ट्रवाद, गुरु रामदास, बालगंगाधर तिलक, महावीर प्रसाद द्विवेदी, माइकल वाल्जर, माइकल ओकशॉट, माइकेल मधुसूदन दत्त, माओ- त्से- तुंग, सांस्कृतिक क्रांति, मार्क ब्लॉक)
1- उन्नीसवीं सदी के महाराष्ट्रीय नवजागरण का मराठी नाम सुधारणा है । महाराष्ट्र में तेरहवीं और अठारहवीं सदी के दौरान धर्म और समाज सुधार के लिए संतों द्वारा चलाए गए आन्दोलन को भी सुधारणा कहा जाता है ।इस आन्दोलन के केन्द्र में जातिभेद का प्रश्न और महाराष्ट्रीय अस्मिता चेतना थी । बारहवीं सदी के महाराष्ट्र में संत चक्रधर के महानुभाव सम्प्रदाय से यह आन्दोलन शुरू हुआ ।उसके बाद आने वाले वरकरियों का भागवत धर्म बहुत प्रभावशाली और लोकप्रिय साबित हुआ ।वरकरियों की परम्परा नासिक के पास पंढरपुर में विठोबा या विट्ठल की भक्ति करने और हर साल इस जगह की यात्रा करने के रूप में मूलतः पाँचवीं सदी से चली आ रही है ।
2- वरकरी सम्प्रदाय में ज्ञानेश्वर और एकनाथ जैसे ब्राह्मण संत हुए तो नामदेव दर्जी । तुकाराम कुनबी, चोखामेला महार और गोरा कुम्हार भी हुए ।इनमें बहिणाबाई जैसी स्त्रियाँ और शेख मुहम्मद जैसे कुछ मुसलमान संत भी हुए । विट्ठल की भक्ति के अलावा वरकरी संतों ने मराठी भाषा के माध्यम से सभी महाराष्ट्रियों को एक करने का प्रयास किया । उन्होंने न सिर्फ़ अपना सारा साहित्य मराठी भाषा में लिखा, बल्कि अपनी भाषा के प्रति मराठी भाषियों गर्व की भावना भी पैदा किया । इस तरह संतों- भक्तों के आन्दोलन से सभी मराठी भाषियों में एक सांस्कृतिक समुदाय- एक जाति (नेशन) के रूप में खुद को पहचानने की चेतना विकसित हुई ।
3- महाराष्ट्रीय अस्मिता की यही चेतना आगे चलकर मराठा राज्य के उत्कर्ष की पृष्ठभूमि बनी और शिवाजी इसके प्रतीक बनकर उभरे । परमहंस सभा से निकले प्रार्थना समाज ने भी अपने संगठन के धार्मिक सिद्धांतों का निरूपण करते हुए उसे मराठी संतों की धार्मिक शिक्षाओं से जोड़ा । प्रार्थना समाज के ही दूसरे सुधारक नेता आर. जी. भण्डारकर ने वैष्णवइज्म, शैविज्म एंड माइनर रिलीजस सिस्टम नामक किताब लिखी । इसे भारत के धार्मिक इतिहास के अध्ययन में एक उल्लेखनीय रचना माना जाता है । उन्होंने नामदेव और तुकाराम जैसे संतो पर भी कलम चलाई ।
4- महाराष्ट्रीय नवजागरण के सबसे पहले प्रवर्तक बालशास्त्री जांभेकर ने, जिन्होंने दर्पण पत्रिका निकाल कर मराठी पत्रकारिता की नींव डाली, 1845 में ज्ञानेश्वरी को फिर से प्रकाशित किया ।परमहंस सभा के एक सदस्य तुकारामात्या पडवल ने तुकाराम के नाम से प्रचलित सभी रचनाओं को बहुत परिश्रम से जमा करके तुकाराम गाथा का सम्पादन और प्रकाशन किया । इसी दौर में रामदास का ग्रन्थ दासबोध और महीपति द्वारा लिखी गई मराठी संतों की की जीवनियों का संकलन भी फिर से प्रकाशित हुआ । यह सभी सुधारक उदार राष्ट्रवादी थे जिनकी मान्यता थी कि लोगों की एकता किसी भी राष्ट्रवाद की पहली शर्त होती है ।
5- महाराष्ट्र के संतों की समतामूलक दृष्टि की सबसे प्रखर अभिव्यक्ति शूद्र तुकाराम में हुई ।वर्णवादी श्रेष्ठता के दम्भ के खिलाफ सबसे ज़्यादा आक्रामक संत तुकाराम ही थे । तुकाराम सचमुच मेहनतकश शूद्र दलितों के संत थे ।उन्होंने बिल्कुल किसानों की भाषा में अभंग लिखे ।तुकाराम पुणे के पास देहू गाँव के थे और उनकी उपाधि मोरे थी । देहू और उसके आस-पास बसे उनके वंशजों में से एक विद्वान सदानंद मोरे ने महाराष्ट्र के आधुनिक सुधारकों पर तुकाराम के प्रभाव का वर्णन करते हुए महत्वपूर्ण लेख लिखा । जिसमें उन्होंने लिखा था कि बालशास्त्री जांभेकर के एक अनुयायी डाडोबा पांडुरंग तरफडकर ने मुम्बई में परमहंस सभा और गुजरात में मानवधर्म सभा का गठन किया था ।
6- डाडोवा खुद एक वरकरी परिवार से आए थे ।संत तुकाराम ने परमहंस उस व्यक्ति को कहा था जो जातिभेद और पारिवारिक प्रथाओं के बंधन से ऊपर उठ चुका हो । सन् 1866 में परमहंस सभा भंग कर दी गई ।उन्हीं से निकले हुए कुछ सदस्यों ने 1866 में मुम्बई पधारे केशवचन्द्र सेन के व्याख्यानों से प्रेरित होकर फिर से अपना संगठन खड़ा किया । इस बार उसका नाम प्रार्थना समाज रखा गया ।इस संगठन के सुधारकों का प्रोफ़ेसर अलेक्ज़ेंडर ग्रांट के प्रति काफी आदरभाव था । ग्रांट प्रांत के शिक्षा विभाग के निदेशक थे और मुम्बई विश्वविद्यालय उन्हीं के कार्यकाल में खुला । अरस्तू के दर्शन के अनुयायी ग्रांट भी तुकाराम से प्रभावित थे ।
7- सदानंद मोरे के मुताबिक़ प्रार्थना समाज के सुधारक जस्टिस रानाडे, आर. जी. भण्डारकर, एन. जी. चन्दावरकर और बी. ए. मोदक आदि तुकाराम से सिर्फ़ प्रेरणा ही नहीं लेते थे बल्कि अपने जीवन को भी उनके अभंगो के मुताबिक़ जीने की कोशिश करते थे । इन सुधारकों के लिए तुकाराम उनके मित्र, पथप्रदर्शक और दार्शनिक, तीनों थे ।रानाडे और चंदावरकर, मोदक और विट्ठल रामजी शिंदे तुकाराम के अभंगों पर कीर्तन किया करते थे । इन सुधारकों की सबसे ख़ास बात यह थी कि इन्होंने अपने संतों, गुरुओं और महापुरुषों को पश्चिमी विचारकों के मुक़ाबले में खड़ा किया ।संत तुकाराम का प्रभाव महाराष्ट्र के उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के साहित्यकारों पर भी पड़ा ।
8- महाराष्ट्र में गैर- ब्राह्मण सुधारकों के सबसे बड़े प्रतिनिधि ज्योतिराव गोविन्द राव फुले थे। फुले प्रार्थना समाज के उदार सुधारकों के कड़े आलोचक और परम्परानिष्ठ ब्राह्मणों के विरोधी थे ।फुले ने किसी भी ब्राह्मण संत पर विश्वास नहीं किया । लगभग पॉंच सौ वर्षों तक चले संतों के आन्दोलन में फुले ने जिस एक संत का नाम श्रद्धा से लिया , वह संत तुकाराम थे । फुले की नज़र में तुकाराम एकमात्र ऐसे संत थे जो दलितों- शूद्रों को ब्राह्मण धर्म के आध्यात्मिक और कर्मकांडी प्रपंचों से बाहर निकालने का रास्ता दिखाते हैं । अगर कोई संत शुद्रों के अनपढ़ राजा शिवाजी का सच्चा हितैषी था तो वह तुकाराम ही थे ।
9- ज्योतिराव फुले ने लिखा है कि, “ तुकाराम नाम का एक साधु पुरुष किसान के घर में पैदा हुआ ।वह किसानों को उनके जाल से मुक्त कर देगा, इस डर की वजह से भट्ट ब्राह्मणों के अटल वेदान्ती रामदास स्वामी ने गंगाभट्ट के सहयोग से अनपढ़ शिवाजी को गुमराह करने का निश्चय किया । उन्होंने अज्ञानी शिवाजी और निर्विकार तुकाराम का स्नेह सम्बन्ध नहीं बढ़ने दिया । दलितों शूद्रों के प्रति वरकरी सम्प्रदाय के ब्राह्मण संतों की उदारता को फुले ने संदेह की नज़रों से देखा क्योंकि वह प्रकारान्तर से वैदिक वर्ण- व्यवस्था को बनाए रखने का आग्रह करता था ।”
10- ज्योति राव फुले ने पूछा कि जब देश में मुसलमान आए और इस्लाम फैलने लगा, सिर्फ़ तभी इन ब्राह्मण साधुओं को दलित- शूद्रों की याद क्यों आयी ? उससे पहले कभी क्यों नहीं आयी ? फुले ने लिखा है कि मुसलमानों का शासन क़ायम हो जाने के बाद उस समय बहुत ही चतुर मुकुन्दराज, ज्ञानेश्वर, रामदास आदि ब्राह्मण संतों ने काल्पनिक भागवत ग्रन्थ के धोखेबाज़ अष्ट पहलू वाले गीता में पार्थ को जो उपदेश दिया था, उसी का विश्लेषण किया और उस उपदेश का समर्थन करने के लिए उन्होंने प्राकृत भाषा में विवेकसिन्धु, ज्ञानेश्वरी, दासबोधि जैसे पाखंडी ग्रन्थों की रचना की ।
11- ज्योति राव फुले ने लिखा कि इन्हीं ग्रन्थों के जाल में अनपढ़ शिवाजी जैसे महावीरों को फँसा कर उनको मुसलमानों के पीछे लगने के लिए मजबूर कर दिया ।इसी की वजह से मुसलमान लोगों को ब्राह्मणों के बारे में सोचने- समझने का समय ही नहीं मिला । यदि ऐसा न कहा जाए तो मुसलमान लोगों के इस देश में आने के संक्रांतिकाल में ब्राह्मण मुकुन्दराज को शूद्रों पर दया क्यों नहीं आई और उसके लिए विवेकसिंधु नाम का ग्रन्थ उसी समय क्यों लिखा गया ? इसके पीछे अनपढ़ शूद्रादि- अति शूद्र के मुसलमान हो जाने का डर था और तब ब्राह्मणों के मतलबी धर्म की बेइज़्ज़ती होनी थी ।अपने उन ग्रन्थों के द्वारा ब्राह्मणों ने किसानों के मन इतने गुमराह कर दिए कि वे क़ुरान और मुहम्मदी लोगों को नीच मानने लगे हैं, उनसे नफ़रत करने लगे हैं ।
12- सदानंद मोरे ने लिखा है कि प्रार्थना समाज से असंतुष्ट होकर जब फुले ने सत्यशोधक समाज बना लिया तो उसमें उनके एक सहयोगी कृष्णराव भालेकर एक वरकरी ही थे जिन्होंने सत्यशोधक समाज को आगे बढ़ाने के लिये वरकरियों की डिण्डी ( अभंग गाते हुए पंढरपुर जाने वाले तीर्थयात्रियों के जुलूस की प्रथा) का इस्तेमाल किया ।संतो के आन्दोलन में महाराष्ट्र धर्म शब्द का प्रयोग सत्रहवीं सदी में समर्थ रामदास ने शिवाजी के पुत्र सम्भाजी को लिखे एक पत्र में किया था ।
13- मराठा धर्म अथवा मराठा राष्ट्रवाद की व्याख्या रानाडे ने अपनी पुस्तक राइज़ ऑफ मराठा पॉवर में की है : ‘इसने लोकभाषाओं में मूल्यवान साहित्य रचा । पुरानी जातिप्रथा की कठोर संरचनाओं में सुधार किया ।शूद्रों को आध्यात्मिक शक्ति और सामाजिक महत्व की उस हैसियत तक पहुँचाया जो क़रीब- क़रीब ब्राह्मणों के बराबर थी ।इसने पारिवारिक सम्बन्धों को पवित्रता प्रदान की और स्त्री की दशा में सुधार किया ।इसने मराठी जाति (राष्ट्र) को ज़्यादा मानवीय बनाया । समाज में सहिष्णुता का प्रचार किया ।मुसलमानों के साथ मेलजोल बढ़ाया ।कालान्तर में यही मराठा गौरव का आधार बना ।
14- महाराष्ट्र के राजवाडे ने रामदास के प्रभाव में आकर दो टूक शब्दों में, ‘हिन्दू धर्म की प्रस्थापना, गौ, ब्राह्मण की रक्षा, स्वराज की स्थापना, मराठों का एकीकरण और नेतृत्व को महाराष्ट्र धर्म का प्रमुख अंग बताया ।’ यही शिवाजी और दूसरे मराठा शासकों के प्रेरणा स्रोत थे ।रामदास के महाराष्ट्र धर्म के पालन करने वाले को गौ और ब्राह्मण का प्रतिपालक होना भी अनिवार्य था । रामदास ने हिन्दुओं को ललकारते हुए कहा कि, ‘ कुत्तों को मार भगाओ और स्वराज्य कायम करो ।’सन् 1646 से 1796 तक महाराष्ट्र धर्म का प्रचार हुआ ।इसी के परिणाम स्वरूप हिन्दू पद पादशाही अस्तित्व में आयी ।
15- रामदास ने उस सहिष्णु हिन्दू धर्म की वकालत नहीं की जिसके गीत वरकरी संत गाते थे ।बल्कि युद्ध के लिए तैयार हिन्दू धर्म के गीत गाए । यानी इस हिन्दू धर्म को मानने वाले जो योद्धा होंगे वह पूरे भारत को जीतने के लिए लड़ेंगे । दूसरी विशेषता यह है कि ऐसा हिन्दू स्वराज्य क़ायम करने के लिए सिर्फ़ प्रतिरक्षा नहीं, बल्कि आक्रमण की रणनीति को अपनाना होगा । रामदास ने कहा कि धर्म की रक्षा के लिए सिर्फ़ प्राण देना ही काफ़ी नहीं है, बल्कि शत्रुओं के प्राण लेने भी हैं । इस तरह रामदास ने महाराष्ट्र धर्म के एक हमलावर हिन्दू की छवि को आदर्श के रूप में पेश किया ।
16- रामदास के इन उत्प्रेरक वचनों ने महाराष्ट्र की तत्कालीन युवा पीढ़ी को आकर्षित किया ।वासुदेव बलवंत फड़के, चापेकर बन्धु और वीर सावरकर इसी छवि को अपने मन में बसा कर राष्ट्रीय संग्राम में कूदे ।आगे चलकर सावरकर इसी विचारधारा के सिद्धांतकार बने और हिंदू पद पादशाही और सिक्स ग्लोरियस इपोक्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री नामक किताबें लिखीं । इन किताबों में रामदास द्वारा निरूपित महाराष्ट्र धर्म का ही प्रतिपादन राष्ट्रवादी आन्दोलन के सन्दर्भ में किया गया है । गाँधी के युवा अनुयायी विनोबा भावे ने 1923 में जब अपना पहला मराठी पत्र निकाला तो उन्होंने उसका नाम महाराष्ट्र धर्म ही रखा ।
17- मराठा इतिहास को हिन्दू पद पादशाही का नाम देते हुए सावरकर ने उन्हीं बातों को दोहराया जिन्हें रामदास की व्याख्या करते हुए राजवाडे ने कहा था कि, ‘ जैसे महाराष्ट्रीय सिर्फ़ अपने घर, ज़मीन या खेत के लिए नहीं लड़े थे बल्कि वह पूरे भारत में धर्म की स्थापना के लिए लड़े थे उसी तरह मराठों का असली पथ- प्रदर्शक सिद्धांत रक्षा नहीं बल्कि आगे बढ़ कर हमला करना है । इन विचारों को अमली रूप देने के लिए 1904 में सावरकर ने अभिनव भारत नाम से एक संगठन भी खड़ा किया ।
18- महाराष्ट्र में विकसित हुए असली नेता बालगंगाधर तिलक थे ।जिन्होंने कांग्रेस का नेता बनकर पूरे भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन पर अपनी छाप छोड़ी ।वह भी रामदास के महाराष्ट्र धर्म से प्रेरित और प्रभावित थे परन्तु सावरकर की तुलना में उदार थे ।तिलक ने वर्ण व्यवस्था में विश्वास करते हुए भी मुसलमान विरोध को हवा नहीं दी ।अपनी विख्यात रचना गीता रहस्य में तिलक ने वरकरी संतों के भागवत धर्म की तारीफ़ भी की । तिलक के अनुसार गीता मनुष्य को ज्ञान, कर्म, वैराग्य और भक्ति के बीच सामंजस्य बैठाते हुए मूलतः उचित कर्म करने का उपदेश देती है जिसे कर्मयोगशास्त्र कहा जा सकता है ।
19- बालगंगाधर तिलक की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उन्होंने महाराष्ट्र धर्म को विचारों के स्तर से आगे बढ़ाकर ठोस राजनीतिक आन्दोलन का अंग बनाया जो रानाडे नहीं कर सके थे ।1895 में उन्होंने अपने पत्र केसरी में शिवाजी स्मारक क़ायम करने का आन्दोलन चलाया और 1896 में शिवाजी महोत्सव का सिलसिला शुरू करके शिवाजी को महाराष्ट्र में आधुनिक आन्दोलन का सबसे बड़ा प्रेरणा पुरुष बना दिया । तिलक के मित्र और अनुयायी एन. सी. केलकर ने गांधी के नेतृत्व का विरोध करते हुए शिवाजी को राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रतीक बनाने पर ज़ोर दिया । गांधी की हत्या भी आख़िरकार सावरकर के एक अनुयायी नाथूराम गोडसे ने की ।
20- महाराष्ट्र में समाज सुधार के क्षेत्र में ज्योति राव फुले ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है ।फुले ने रामदास को शिवाजी का गुरु मानने से इंकार किया ।फुले के मुताबिक़ ये ब्राह्मण वास्तव में उनके गुरु नहीं बल्कि उन्होंने उनके राज्य का इस्तेमाल सभी ऊँचे पदों पर अपने लोगों को बैठाने के लिए किया । फुले ने शिवाजी के राज्य को शूद्रों के राज्य के रूप में गर्व से याद करते हुए शिवाजी को कुनबी कुलभूषण कहा । फुले के अनुसार गैर ब्राह्मण जातियों और ख़ासकर दलित- शूद्रों ने अपने साहस, शौर्य और अपने बीच के एक रत्न शिवाजी के ज़रिए जिस महान मराठा राज्य को क़ायम किया था, उसे ब्राह्मणों ने होशियारी से हड़प लिया ।
21- ज्योति राव फुले के नेतृत्व में महाराष्ट्रीय नवजागरण की गैर- ब्राह्मण धारा ने ब्राह्मणों, सुधारकों और परम्परानिष्ठों से समाज, संस्कृति और इतिहास के हर मुद्दे पर लोहा लिया । ब्राह्मणों की हर बात को काटते हुए, उनका तुर्की ब तुर्की जबाब देते हुए अपनी स्वतंत्र स्थापनाएँ रखीं । अगर ब्राह्मण ज्ञानदेव को ज्ञानेश्वरी का रचयिता मानते हैं तो गैर ब्राह्मणों ने कहा कि ज्ञानदेव कोई और थे और ज्ञानेश्वरी के रचनाकार ज्ञानेश्वर कोई और । ब्राह्मणों ने गर्व के साथ एक ब्राह्मण रामदास को शिवाजी का गुरु बताया ।गैर ब्राह्मणों ने इस दावे को बिल्कुल ख़ारिज कर दिया ।इन लोगों ने यह भी कहा कि तुकाराम की हत्या की गई थी ।
22- ज्योति राव फुले ने शिवाजी और मराठा राज्य के पूरे इतिहास की गैर- ब्राह्मणी व्याख्या को बहुत प्रभावशाली ढंग से स्थापित करने की कोशिश की ।इसके मुताबिक़ आर्यों की वर्णाश्रम संस्कृति से पहले का राजा बली श्रम करने वाले शूद्र किसानों का प्रिय राजा था ।फुले ने खेत को क्षेत्र और इसलिए खेती करने वालों को क्षत्रिय कहा, जो उनके मुताबिक़ शूद्रों को पहले से कहा जाता था ।बली का राज्य हर तरह से धनधान्य से भरा हुआ था, उनकी प्रजा खुशहाल थी ।तब आर्य ब्राह्मण वामन का रूप धारण करके आए जिन्होंने छल- कपट से बली का राज्य हड़प लिया और खुद राजा बन बैठे ।
23- ज्योति राव फुले ने लिखा कि शिवाजी शूद्रों के राजा थे । शूद्र सैनिकों के बल पर उन्होंने शूद्रों के कल्याण के लिए जो राज्य खड़ा किया था, उसे पेशवा ब्राह्मणों ने हड़प लिया ।शूद्रों की ताक़त से खड़े हुए मराठा राज्य में शूद्र फिर से ग़ुलामी की दशा में पहुँच गए ।फुले ने एक ओर मराठा राज्य के पतन और उसके बाद शूद्रों की बदहाली के लिए ब्राह्मणों को ज़िम्मेदार ठहराया, दूसरी ओर बली और शिवाजी के राज्य को शूद्रों के ऐसे गौरवपूर्ण इतिहास के रूप में पेश किया जिससे प्रेरणा लेकर वे फिर से खड़े होने और अपनी वर्तमान हालत को बदलने की लड़ाई लड़ सकते हैं ।
24- शिवाजी के बारे में राजाराम शास्त्री की पुस्तक शिवाजी चरित्र वर्ष 1988 में प्रकाशित हुई ।भागवत सेंट ज़ेवियर कॉलेज में संस्कृत के प्रोफ़ेसर और एक उदार ब्राह्मण सुधारक थे जो दलितों- शूद्रों की दशा सुधारने के लिए काम करते थे । शिवाजी चरित्र के अलावा उन्होंने महाराष्ट्रीय इतिहास पर दो किताबें और भी लिखी थीं : महाराष्ट्र धर्म (1895) और मराठ्या सम्बन्धी चार उद्गार (1895)। रोजालिंद के मुताबिक़ भागवत ने अपनी रचनाओं में इस बात पर ज़ोर दिया कि मराठा राज्य महाराष्ट्र की सभी जातियों के द्वारा मिल- जुल कर क़ायम किया गया था ।
25- शिवाजी से सम्बन्धित एक अन्य रचना शिवाजी महाराज को दादोजी कोंडदेव की सलाह वर्ष 1877 में छपी । इसके लेखक एकनाथ अनाजी जोशी एक परम्परानिष्ठ ब्राह्मण और इंदौर के एक अंग्रेज़ी स्कूल में सहायक हेडमास्टर थे ।उनकी किताबों को दक्षिण प्राइज फंड से पुरस्कार भी मिला था ।अपनी रचनाओं में उन्होंने शिवाजी को पूरे भारत में प्रचलित हिंदू धर्म का रक्षक नेता तथा क्षत्रिय बताया ।जोशी जी हिंदुओं के प्राचीन राम राज्य की चर्चा करते हैं और उसे स्वर्ण युग बताते हैं जिसे मुसलमान हमलावरों ने आकर बर्बाद कर दिया ।शिवाजी ने उस राज्य को मुसलमानों के अत्याचारों से मुक्त कराया ।
26- उत्तर- प्रदेश के जनपद रायबरेली के दौलतपुर गाँव में जन्में महावीर प्रसाद द्विवेदी (1864-1938) के प्रयत्नों से हिन्दी गद्य और पद्य की पक्की व्यवस्था तैयार हुई ।उन्होंने हिन्दी में लिए भाषा सम्बन्धी नया प्रतिमान विकसित किया ।उनके द्वारा सम्पादित पत्रिका सरस्वती तत्कालीन हिन्दी समाज के लिए ज्ञान की वाहक और प्रचार- प्रसार का माध्यम थी ।इस पत्रिका का स्वरूप और उद्देश्य देश- विदेश के ज्ञान- विज्ञान से हिंदी क्षेत्र को परिचित कराना था । हीरा डोम की कविता अछूत की शिकायत छाप कर दलित पीड़ा को अभिव्यक्ति देने का काम महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ही किया था । टेलीग्राफ इंस्पेक्टर के रूप में वह झाँसी में भी रहे ।
27- रामविलास शर्मा ने 1857 के संग्राम को हिन्दी नवजागरण का पहला युग, भारतेन्दु युग को दूसरा और महावीर प्रसाद द्विवेदी और उनके साथियों- सहयोगियों के काल को तीसरा युग करार दिया है ।कथा साहित्य में द्विवेदी- युग की मुख्य देन है- प्रेमचन्द ।आलोचना में रामचंद्र शुक्ल और कविता में सूर्य कान्त त्रिपाठी निराला ।द्विवेदी की रचना सम्पत्तिशास्त्र किसी भी हिन्दी लेखक द्वारा लिखी गई अर्थशास्त्र पर पहली पुस्तक है ।यह अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद द्वारा लूट और तबाही को लेकर लिखी गई यह पहली पुस्तक भी है । आज भी जो लोग भारत में अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद की भूमिका समझना चाहते हैं उनके लिए इस पुस्तक में ज्ञान का ख़ज़ाना है ।
28- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने राजनीतिक- आर्थिक चेतना के साथ आधुनिक विज्ञान की ओर भी ध्यान दिया ।वे समाज व्यवस्था की कुरीतियों को नष्ट और धार्मिक अंधविश्वास को निर्मूल करना चाहते थे । भारत में बृहस्पति और चार्वाक दर्शन की चिंतन धारा रही है जो वर्ण- व्यवस्था और पुरोहितवाद की तीखी आलोचना करती रही है ।द्विवेदी ने अपने लेख निरीश्वरवाद में चार्वाकी सर्व दर्शन संग्रह से अनेक श्लोक उद्धृत किए और भारतीय तर्क पर खड़े विवेकवाद को आदर दिया ।कबीर में यही विवेक परम्परा है ।द्विवेदी ने श्री हर्ष का कलियुग जैसा लेख लिखकर नैषधीय परम्परा का स्मरण कराया ।
29- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का प्रबल विचार था कि वेदों को ईश्वर ने नहीं मानवों ने रचा है ।यह अनुपम मानव- सृष्टि है ।वे आर्यभट्ट के गणित और ज्योतिष पर किए कार्य के प्रसंशक थे ।कालिदास की निरंकुशता, हिन्दी भाषा की उत्पत्ति, मिश्र बंधु का हिन्दी कविरत्न, तिलक का गीताभाष्य और ऐसे अनेक लेख और टिप्पणियों से उन्होंने हिन्दी के मौलिक समीक्षाशास्त्र का शिलान्यास किया ।वे मानते थे कि जैसे अनेक जातियों से मिलकर भारत एक राष्ट्र बना है, वैसे ही विभिन्न जातीय साहित्यों से मिलकर भारतीय साहित्य बना है ।वे कहते थे, “साहित्य में जो शक्ति छिपी होती है वह तोप, तलवार और बम के गोलों में भी नहीं पायी जाती ।”
30- माइकल वाल्जर (1935- ) अमेरिका के प्रसिद्ध समुदायवादी राजनीतिक दार्शनिक हैं ।उनके विचार उनकी किताब स्फियर्स ऑफ जस्टिस (1983) में व्यक्त हुए हैं ।वाल्जर का बुनियादी तर्क यह है कि किसी भी व्यवस्था को अपने- आप में न्यायपूर्ण और अन्यायपूर्ण नहीं माना जा सकता है ।सिर्फ़ किन्हीं वस्तुओं से जुड़े सामाजिक अर्थ के आधार पर किसी व्यवस्था का मूल्यांकन करना मुमकिन है ।वाल्जर ने जॉन रॉल्स की विख्यात रचना अ थियरी ऑफ जस्टिस (1971) में पेश किए गए न्याय के विचारों की आलोचना की । उनकी आलोचना का मुख्य आधार रॉल्स द्वारा किया जाने वाला सार्वभौमिकता का दावा है ।वाल्जर मानते हैं कि राजनीतिक सिद्धांतों को निश्चित तौर पर विशिष्ट समाजों की परम्पराओं और संस्कृति पर आधारित होना चाहिए ।
31- माइकल वाल्जर ने समानता या संसाधनों के वितरण के सार्वभौमवादी सिद्धांतों को नकारते हुए जटिल समानता का विचार पेश किया है । वाल्जर का तर्क है कि पहले लोग वस्तुओं को कल्पित करते हैं ।इसके बाद वे इन वस्तुओं का आपस में वितरण करते हैं ।यह बेहद महत्वपूर्ण है कि हम वस्तुओं के वितरण की जगह उनकी संकल्पना और उनके निर्माण पर अपना ध्यान केन्द्रित करें ।वस्तुओं के वितरण के सम्बन्ध में विशिष्ट बात यह है कि जब विभिन्न समाजों में वस्तुओं को अलग-अलग अर्थ दिए जाते हैं तो हर समाज में उनका वितरण भी स्वायत्त रूप से ही होना चाहिए ।वस्तुओं का हर समूह वितरण के एक विशिष्ट दायरे का निर्माण करता है, यही उसकी सच्ची कसौटी होती है ।
32- माइकल वाल्जर का मानना है कि लोगों के व्यवहार की एक निश्चित तार्किकता और संग्रहण की प्रवृत्ति को सभी सामाजिक क्षेत्रों के बारे में सच नहीं माना जा सकता । यह माना जाता है कि माता-पिता को स्नेही, विश्वासी, देखभाल करने वाला और नि: स्वार्थी होना चाहिए । नागरिकों को समान, निष्पक्ष और सामूहिक शुभ के नज़रिए से प्रेरित होना चाहिए ।परिवार में संसाधनों का वितरण वेतन के रूप में नहीं किया जाता है । एक लोकतंत्र में राजनीतिक पदों को रिश्तेदारों के बीच नहीं बाँटा जाना चाहिए । वाल्जर का मानना है कि यह उम्मीद करने का कोई कारण नहीं है कि सामाजिक जीवन के सभी दायरों में वितरण का एक जैसा मानक होना चाहिए ।
33- वाल्जर के बौद्धिक योगदानों में न्यायपूर्ण और अन्यायपूर्ण युद्ध के बारे में उनकी विवेचना भी शामिल है । उन्होंने सेंट थॉमस एक्विना के न्यायपूर्ण युद्ध के सिद्धांत को वर्तमान संदर्भ में पेश किया और युद्ध के दौरान भी नैतिकता के महत्व पर ज़ोर दिया । वाल्जर ने मैकियाविली के विचारों में निहित डर्टी हैंड के विचार को भी नए संदर्भों में पेश किया । वाल्जर के अनुसार राजनीतिज्ञ कुछ ऐसी जटिलताओं के बीच काम करते हैं कि कई दफ़ा लोगों की ज़्यादा बड़ी भलाई करने के लिए उन्हें कुछ ग़लत काम भी करने पड़ते हैं ।
34- केन्ट में जन्में तथा कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में इतिहास के अध्ययन से अपनी शिक्षा शुरू करने वाले ब्रिटिश दार्शनिक और राजनीतिक सिद्धान्तकार माइकल जोसफ़ ओकशॉट (1901-1990) को मुख्यतः उनके दो अवदानों के लिए जाना जाता है । एक दार्शनिक के तौर पर उनकी मान्यता थी कि मानवीय अनुभव को इतिहास, विज्ञान, आचरण और कविता से हासिल किए गए दृष्टिबिंदुओं से समझने की कोशिश करनी चाहिए । उनका विचार था कि अनुभव को समझने की यह चारों विधियाँ अपने आप में अनूठी, स्वत:पूर्ण लेकिन अनिवार्यत: सीमित हैं ।यह विचार 1933 में प्रकाशित उनकी कृति एक्सपीरिएंस ऐंड इट्स मोड्स में दर्ज हैं ।
35- माइकल जोसेफ ओकशॉट का मानना था कि राजनीति न तो सामूहिक मुक्ति की परियोजना है और न ही किसी अमूर्त लक्ष्य की प्राप्ति के लिए की जाती है ।उनके मुताबिक़ राजनीति तो एक ऐसे अथाह सागर में डूबने से किसी तरह बचे रहने का प्रयोजन है जहाँ न किसी को किनारा मिलता है और न किसी लंगर का सहारा ।चूँकि इस सागर का न कोई प्रारम्भ है और न कोई अंत, इसलिए राजनीति ज़्यादा से ज़्यादा बिगड़े हुए की मरम्मत करने की कला भर है । एक राजनीतिक सिद्धान्तकार के रूप में उनका कहना था कि किसी समुदाय की परम्पराओं और रिवाजों की पृष्ठभूमि को नज़रअंदाज़ करके राजनीतिक गतिविधि को सही ढंग से नहीं समझा जा सकता है ।
36- माइकल जोसेफ ओकशॉट के निबंधों का संग्रह वर्ष 1962 में रैशनलिज्म इन पॉलिटिक्स नाम से प्रकाशित हुआ ।वर्ष 1975 में प्रकाशित ऑन ह्यूमन कण्डक्ट को ओकशॉट के राजनीतिक दर्शन का सबसे बेहतरीन नमूना माना जाता है । उन्हें हॉब्स के दर्शन पर विशेष महारत हासिल थी ।ओकशॉट की भूमिका के साथ प्रकाशित हुआ लेवायथन का संस्करण राजनीतिशास्त्र के अध्येताओं के बीच सबसे ज़्यादा लोकप्रिय माना जाता है ।ओकशॉट की दार्शनिक कृति एक्सपीरिएंस ऐंड इट्स मोड्स एक बेहद जटिल किताब है ।उन पर भाववादी दार्शनिक जॉन मैकटैगार्ड के विचारों का असर पड़ा था ।
37- माइकल जोसेफ ओकशॉट के मुताबिक़ हम अनुभव को तब तक नहीं समझ सकते जब तक उसे सम्पूर्णता में और उसकी अपनी शर्तों पर न ग्रहण किया जाए । उनके लिहाज़ से सम्पूर्णता दो पक्षों आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ से मिलकर बनती है । वह कहते हैं कि शिक्षा वह प्रकिया है जो सिखाती है कि अनुभव के इन आयामों के आपसी संवाद को कैसे सुना जाए ।1989 में प्रकाशित अपनी रचना द वॉयस ऑफ लिबरल लर्निंग में ओकशॉट ने प्रशिक्षण और शिक्षा में अंतर करते हुए कहा कि ट्रेनिंग केवल एक ही आवाज़ सुनने की क्षमता पैदा करती है । राजनीतिक समाज को ओकशॉट दो क़िस्मों में बाँटकर देखते हैं : टेलियोक्रेटिक और नोमोक्रैटिक ।
38- माइकेल मधुसूदन दत्त (1824-1873) ने बंगाल के नवजागरण को साहित्य के क्षेत्र में रचनात्मक विश्वास दिया । वह पहले कवि हैं जिन्होंने एशिया में, विशेषकर भारत में अंग्रेज़ी पद्धति के अनुसार मुक्त- छन्द में काव्य- सृजन की शुरुआत की । उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना मेघनाद वध ने काव्य सृजन की एक पूरी परम्परा को पलटते हुए नवीन मानसिकता के लिए मौलिकता के द्वार खोल दिए ।बंगाल में माइकेल मधुसूदन दत्त के सृजन- कर्म से एक अभिनव सांस्कृतिक नवजागरण अवतरित हुआ । मैथिलीशरण गुप्त ने माइकेल की जिन तीन कृतियों का हिन्दी में विशिष्ट भूमिका के साथ अनुवाद प्रस्तुत किया है उनमें ब्रजांगना और वीरांगना के साथ मेघनाद वध काव्य भी शामिल है ।
39- माइकेल मधुसूदन दत्त राजनारायण दत्त तथा जान्ह्ववी देवी के इकलौते पुत्र थे ।उनका जन्म सागरदांरी गॉंव के दत्त परिवार में हुआ ।आज यह गॉंव बांग्लादेश के जैसोर जनपद में है ।सत्रह वर्ष की उम्र में ही वह नामी कवि बन गए । माइकेल मधुसूदन दत्त ने द एंग्लो सैक्सन ऐंड द हिंदू लेख में कहा है कि ‘ हिन्दू पतित हो चुका है- कभी वह फूल- फल वाला छायादार वृक्ष था पर अब उस पर गाज गिर गई है । उन्होंने धर्मांतरण करके ईसाई धर्म अपना लिया था ।1848 में उन्होंने रेबेका से शादी की और चार संतानों के पिता बने । रामकृष्ण परमहंस ने कहा था कि मेघनाद-बध जैसा काव्य बांग्ला में तो है ही नहीं, भारतवर्ष में भी दुर्लभ है ।
40- माइकेल मधुसूदन दत्त की अंग्रेज़ी में लिखी सर्वाधिक चर्चित कविता द कैप्टिव लेडी (संयोगिता स्वयंवर) है ।सन् 1859 में उनका बांग्ला नाटक शमिष्ठा प्रकाशित हुआ ।1839 में उन्होंने पद्मावती नाटक लिखा ।सन् 1856 में तिलोत्तमा सम्भव काव्य की रचना की । यह काव्य महाभारत की कथा के एक प्रकरण शुंड- उपशुंड राक्षसों पर केन्द्रित है ।इसके अतिरिक्त उन्होंने कृष्ण कुमारी और माया कानन नामक नाटक लिखा । बांग्ला के रचनाकारों ने माइकेल पर 900 पृष्ठों मधुस्मृति ग्रन्थ का प्रकाशन किया ।योगेन्द्रनाथ बसु ने उनका जीवन चरित लिखा ।
41- चीन की कम्युनिस्ट क्रान्ति के प्रमुख नेता, चीन लोक गणराज्य के आजीवन अध्यक्ष, राजनीतिक विचारक, दार्शनिक और कवि माओ त्से- तुंग (1893-1976) बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में चले तीसरी दुनिया के राष्ट्रीय मुक्ति संग्रामों के सैद्धान्तिक प्रेरणास्रोत माने जाते हैं ।26 दिसम्बर, 1893 को हूनान के एक मध्यवित्तीय किसान परिवार में पैदा हुए माओ त्से- तुंग के पिता कन्फ़्यूशियस के अनुयायी और माँ बौद्ध थीं ।माओ ने सरकार का नेतृत्व करने वाली कम्युनिस्ट पार्टी, व्यापक समाज, सशस्त्र सेना और बुद्धिजीवियों के बीच सम्बन्धों के पूरी तरह से नए विन्यास की वकालत की जिसके केन्द्र में सतत क्रान्ति का आग्रह था ।
42- क्रान्ति की रणनीति और समाजवादी समाज की रचना के संदर्भ में माओ का एक युगान्तर कारी योगदान मास लाइन या जन- दिशा के रूप में जाना जाता है । किसानों के बीच राजनीतिक काम करते हुए माओ ने निष्कर्ष निकाला था कि क्रांतिकारी सामूहिक चेतना, नैतिक प्रेरणाओं और जनता के उत्साह पर भरोसा करते हुए की जाने वाली गोलबंदी से किसी भी तरह के लक्ष्य वेधे जा सकते हैं ।माओ के इन विचारों के परिणामस्वरूप आगे चलकर चीनी और सोवियत कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच समाजवाद के निर्माण के प्रश्न पर सैद्धान्तिक वाद- विवाद हुआ जिसे विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन में महान बहस के नाम से जाना जाता है ।
43- माओ की पहली रचना ऑन द इम्पोर्टेंस ऑफ फ़िज़िकल एजुकेशन 1919 से पूर्व प्रकाशित हो चुकी थी ।बाद में माओ की दो और प्रमुख कृतियाँ सामने आईं : चीन में लाल राज- सत्ता क्यों टिक सकती है ? और ‘चिंगकांग पहाड़ियों में संघर्ष’।वर्ष 1973 में ‘अंतर्विरोधों के बारे में’ वर्ष 1938 में ‘दीर्घकालीन लोकयुद्ध के बारे में’ और युद्ध और रणनीति की समस्याएँ, वर्ष 1940 में नव- जनवाद के बारे में’ पुस्तकों का प्रकाशन हुआ ।
44- कियांगसी सोवियत नष्ट करने के लिए च्यांग काई शेक द्वारा चलाई गई पॉंच घेराबंदी मुहिमों से जूझते हुए 1934 में माओ को अपनी फौजें लेकर ऐतिहासिक लम्बी कूच करनी पड़ी जिसका विजयी अंत शेंसी प्रान्त में येनान का आधार इलाका बनाने में हुआ ।माओ के नाम से एक तीन दुनिया का सिद्धांत भी प्रचलित है जिसमें एशिया, अफ़्रीका और लातीनी अमेरिका के बहुत से मार्क्सवादी विश्व क्रान्ति की सम्भावनाएँ देखते हैं । इसका सिद्धान्तीकरण मुख्यतः दो अवधियों में सम्पन्न हुआ ।पहला दौर 1921 में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना से लेकर 1949 में चीन लोक गणराज्य की स्थापना तक चली सशस्त्र क्रान्ति की दीर्घकालीन प्रक्रिया का है ।9 सितम्बर, 1976 को लम्बी बीमारी के बाद माओ का निधन हो गया ।
45- वर्ष 1966 से 1969 के बीच चीन माओ के नेतृत्व में सांस्कृतिक क्रान्ति की ज़बरदस्त उथल-पुथल से गुजरा ।इसके पीछे माओ का मक़सद पार्टी और सरकार पर हावी होते जा रहे अभिजन और नौकरशाहाना रवैये को दुरुस्त करके जन- दिशा लागू करना था । माओ ने इसे मुख्यालय पर बमबारी की संज्ञा दी ।सांस्कृतिक क्रान्ति के तहत स्कूलों में दाख़िले रोक दिए गए और शिक्षा के सम्पूर्ण सर्वहाराकरण का वादा किया गया ।बौद्धिक कार्य पर शारीरिक श्रम के महत्व को स्थापित किया गया ।छात्र- कार्यकर्ता रेड गार्डों के रूप में संगठित किए गए । माओ ने उन्हें राजसत्ता पर क़ब्ज़ा करने का आदेश दिया और जन – मुक्ति सेना से उनका समर्थन करने के लिए कहा ।
46- दिनांक 12 मार्च, 1984 को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक रिवोल्यूशनरी इंटरनेशनलिस्ट मूवमेंट (आर आई एम) का गठन किया गया ।इसमें ईरान, भारत, श्रीलंका, इटली, कोलम्बिया, पेरू, तुर्की, हैती, नेपाल, न्यूज़ीलैंड, ब्रिटेन, अमेरिका और डोमिनिकन रिपब्लिक में सक्रिय ऐसे 17 संगठन शामिल थे जिनकी मान्यता थी कि माओ का विचार आज के ज़माने में मार्क्सवाद- लेनिनवाद की सर्वोच्च अभिव्यक्ति है, इसलिए अब इसे माओ विचार की सीमाओं को लाँघकर हमें माओवाद की विचारधारा के रूप में स्वीकृत कर लेना चाहिए ।फ़िलीपीन्स की माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी इसमें शामिल नहीं हुई, लेकिन आर आई एम ने इसका समर्थन किया ।
47- माओ का विचार था कि चीन जैसे पिछड़े देश में समाजवाद का निर्माण करने के लिए पूँजीपति वर्ग पर निर्भर नहीं रहा जा सकता, क्योंकि उसका चरित्र प्रतिगामी हो चुका है । इसके लिए एक नए तरह के लोकतंत्र की स्थापना करनी होगी जिसका नेतृत्व सीधे किसानों और मज़दूरों के हाथों में होगा ।यह लोकतंत्र जनता की भौतिक स्थितियाँ बेहतर करने का काम करेगा ताकि समाजवादी विकास के लिए रास्ता साफ़ किया जा सके । माओ की इस थिसिज को न्यू- डैमोक्रैसी या नव जनवाद कहा जाता है ।माओ अपने समय के पहले मार्क्सवादी चिंतक थे जिन्होंने फ़ौजी पहलुओं को सिद्धांतबद्ध किया तथा छापामार युद्ध की रणनीति का सूत्रीकरण किया ।
48- दिनांक 21 जुलाई, 2001 को दक्षिण एशिया की विभिन्न माओवादी पार्टियों और संगठनों ने कोआर्डीनेशन कमेटी ऑफ माओइस्ट पार्टीज़ ऐंड ऑर्गेनाइज़ेशंस इन साउथ एशिया (कॉमपोसा) का गठन किया ।इसमें नेपाल, भारत, श्रीलंका, भूटान, बांग्लादेश के संगठन शामिल हुए ।इस संगठन की बागडोर नेपाली माओवादियों के हाथों में रही ।21 सितम्बर, 2004 को भारत के माओवादी संगठनों ने मिलकर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का गठन किया । मुख्य तौर पर माओवाद सशस्त्र संघर्ष को सर्वोच्च प्रमुखता देने और संघर्ष के अन्य रूपों को व्यवहार में ख़ारिज कर देने के आग्रह के लिए जाना जाता है । वर्ष 1989 में प्रकाशित समीर अमीन की पुस्तक द फ्यूचर ऑफ माओइज्म एक महत्वपूर्ण कृति है ।
49- फ्रेंच विद्वान मार्क ब्लॉक (1864-1944) इतिहास लेखन की अनाल धारा के सह- संस्थापक और प्रवर्तक थे ।अनाल का लक्ष्य इतिहास के अनुशासन को प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक के कृत्रिम विभाजन तथा समाज को आदिम और सभ्य के पूर्वाग्रह जनित साँचों से मुक्त करना था ।इस बौद्धिक मुहिम में ब्लॉक ल्यूसियॉं फेब्र के सह- यात्री थे । इतिहास को सम्पूर्ण, अविभाजित और मानवीय बनाने के इस विख्यात प्रयोग में दोनों की समान भूमिका थी ।ब्लॉक ने फेब्र की इतिहास दृष्टि अपनायी लेकिन उसे अपने विशिष्ट योगदान से समृद्ध किया । उनके पिता गुस्ताव ब्लॉक खुद प्राचीन इतिहास के लब्ध प्रतिष्ठित इतिहासकार थे ।
50- मार्क ब्लॉक ने अपनी महत्वपूर्ण रचना फ्रैंच रूरल हिस्ट्री की शोध प्रक्रिया में रिग्रैसिव मैथड अपनाया जिसे इतिहास को घटनाओं के उल्टे क्रम में समझने का तरीक़ा कहा जा सकता है ।ब्लॉक प्रतिपादित करते हैं कि इतिहास में ज्ञात से अज्ञात की पड़ताल करना ज़्यादा सुकर होता है ।उनकी दूसरी उल्लेखनीय कृति द रॉयल टच है ।इस पुस्तक में उन्होंने चिकित्सा, मनोविज्ञान, मूर्ति कला और मानव विज्ञान जैसे अनुशासनों की अंतर्दृष्टियों का उपयोग करते हुए मध्ययुगीन फ़्रांस तथा इंग्लैंड में व्याप्त चमत्कारप्रियता और अंधविश्वासों की गहरी पड़ताल की है । अपनी एक और अन्य महत्वपूर्ण पुस्तक फ्यूडल सोसाइटी में ब्लॉक ने नवीं से तेरहवीं सदी के बीच पश्चिमी और मध्य यूरोपीय समाज की संरचना का सघन ब्योरा पेश किया है ।
नोट : उपरोक्त सभी तथ्य, अभय कुमार दुबे, द्वारा सम्पादित पुस्तक, ‘समाज विज्ञान विश्वकोश’ खंड 4, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण : 2016, ISBN : 978-81-267-2849-7 से साभार लिए गए हैं ।