– डॉ. राजबहादुर मौर्य, असिस्टेंट प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान, बुंदेलखंड कालेज, झांसी (उत्तर- प्रदेश)। फोटो गैलरी एवं प्रकाशन प्रभारी- डॉ. संकेत सौरभ, झांसी (उत्तर- प्रदेश) भारत।
1- आधुनिक युग के आरम्भ में फ्रांसीसी क्रांति (1789) के उन्नायकों ने ‘स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व’ का नारा बुलंद किया था। भारतीय संविधान की प्रस्तावना (1950) के अंतर्गत भी उपरोक्त लक्ष्यों के साथ ही ‘व्यक्ति की गरिमा’ और ‘राष्ट्र की एकता और अखंडता’ को बढ़ावा देने पर जोर दिया गया है।
2- बंधुत्व की आधुनिक संकल्पना के संकेत फ्रांसीसी दार्शनिक ज्यां जाक रूसो (1712-1778) के चिंतन से मिलते हैं।रूसो ने राज्य की संकल्पना एक समुदाय के रूप में की है, कानूनी व्यवस्था के रूप में नहीं। जर्मन दार्शनिक जी. डब्ल्यू. एफ. हीगल (1770-1831) ने यह विचार रखा था कि राज्य के संगठन का उपयुक्त आधार विश्व जनीन परार्थवाद है। अंग्रेज़ दार्शनिक टी. एच. ग्रीन (1836-1882) ने हीगल के आदर्शवाद को अंग्रेजी उदारवाद के साथ मिलाते हुए यह विचार रखा कि राज्य का जन्म समुदाय की नैतिक चेतना से होता है।
3- अंग्रेज दार्शनिक बर्नार्ड बोसांके (1858-1923) का विचार था कि राज्य ‘ समुदायों का समुदाय है।’ अर्नेस्ट बार्कर ने वर्ष 1951 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘प्रिंसिपल्स ऑफ सोशल एंड पॉलिटिकल थ्योरी’ (1951) के अंतर्गत लिखा कि बंधुत्व का व्यावहारिक रूप ‘ सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सामान्य व्यवस्था’ है।
4- मौरिस गिंसबर्ग ने अपनी विख्यात कृति ‘ऑन जस्टिस इन सोसायटी’ (1965) के अंतर्गत लिखा कि ‘‘ कभी- कभी विचार की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में अंतर किया जाता है। परंतु यदि विचार को अभिव्यक्त का अवसर न मिले तो उसका दम घुट जाता है।’’ जॉन स्टुअर्ट मिल ने भी नैतिक आधार पर भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की शानदार पैरवी की है।
5- वाल्टर बेजहॉट (1826-1877) का भी मत है कि ‘चर्चा की स्वतंत्रता और विरोधी मत के प्रति सहिष्णुता सारी सामाजिक प्रगति की कुंजी है’। विद्वान लेखक जकारिया चाफे (1885-1957) ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘फ्री स्पीच इन द युनाइटेड स्टेट्स’ (1948) के अंतर्गत लिखा कि ‘‘समाज और शासन का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है- सार्वजनिक महत्व के विषयों पर सत्य का अन्वेषण और प्रसार। यह तभी सम्भव है जब कि सारी चर्चा एकदम बेरोक- टोक हो।’’
6- वर्ष 1925 में ‘गिटलो बनाम न्यूयॉर्क’ के मुकदमे में अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय ने भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर तर्क संगत प्रतिबंध लगाया था। न्याय मूर्ति होम्स ने कहा था कि ‘‘यदि कोई वक्तव्य या प्रकाशन ठोस बुराई पैदा करने का स्पष्ट और वर्तमान खतरा उपस्थित करे तो ऐसे मामलों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाना विधिसम्मत होगा।’’
7- भारतीय संविधान में समाजवादी लक्ष्य तो रखे गए हैं परन्तु उसे संविधान का रूप नहीं दिया गया क्योंकि समाजवादी संविधान में नागरिकों के लिए सामाजिक और आर्थिक अधिकारों की निश्चित व्यवस्था की जाती है। उन्हें प्रतिस्पर्धी राजनीतिक दलों के कार्यक्रम पर आश्रित नहीं रहना पड़ता।
8- भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने ‘शंकरी प्रसाद बनाम भारतीय संघ’ (1952) के मामले में ‘सांविधानिक कानून’ और ‘सांविधिक कानून’ में अंतर को मान्यता दी थी। जबकि ‘गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य’ (1967) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने सांविधानिक कानून और सांविधिक कानून के बीच की विभाजन रेखा को मिटा देने का प्रयत्न किया।
9- ‘केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य’ (1973) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने गोलकनाथ के मामले का निर्णय रद्द कर दिया, परन्तु साथ ही यह भी घोषित किया कि संसद को ‘‘ संविधान के बुनियादी ढांचे में बदलाव करने’’ की शक्ति प्राप्त नहीं है। मिनर्वा मिल्स के मामले (1980) का निर्णय देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था दी है कि संसद को संविधान के संशोधन की असीमित शक्ति नहीं है।
10- न्यायिक सक्रियता, वह प्रवृत्ति है जिसमें देश की न्यायपालिका, सामाजिक और प्रशासनिक गतिविधियों को नियमित करने में शासन के अन्य अंगों- विधायिका और कार्यपालिका से बढ़ चढ़ कर भूमिका निभाने लगती है। सामाजिक अन्याय या प्रशासनिक शिथिलता की स्थिति उपस्थित होने पर न्यायालय अपने सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रति सजग हो जाते हैं। कानून की व्याख्या करते समय मानव मूल्यों को सम्मान देते हैं।
11- गांधीजी ने राजनीति और नैतिकता के बीच पुल का निर्माण करते हुए यह तर्क दिया कि राजनीति के क्षेत्र में साधन और साध्य दोनों समान रूप से पवित्र होने चाहिए। उनकी दृष्टि में जो राजनीति धर्म से विहीन है, वह मृत्यु जाल के तुल्य है और आत्मा को पतन के गर्त में धकेलती है। वह कहते हैं कि जैसा साधन होगा वैसा ही साध्य होगा।उनकी आत्मकथा ‘ सत्य के साथ प्रयोग’ (1929) है।
12- गांधीजी के अनुसार अहिंसा वह सिद्धांत या नीति है जिसमें अपने विरोधी को प्रेम से जीता जाता है, घृणा या लड़ाई से नहीं। गांधी जी की दृष्टि में किसी को कष्ट पहुंचाने का विचार या किसी का बुरा चाहना भी हिंसा है। अहिंसा निर्बल व्यक्ति का आश्रय नहीं बल्कि शक्तिशाली का अस्त्र है। यह भौतिक शक्ति को आध्यात्मिक शक्ति के आगे झुकाने की कला है। मार्टिन लूथर किंग (1929-1968) के शब्दों में, ‘‘ आज के अत्यंत विनाशकारी अस्त्रों के युग में हमारे सामने दो ही रास्ते हैं- या तो हम अहिंसा को अपना लें, या फिर अपने अस्तित्व को ही मिट जाने दें।’’
13- ओनोरे द बॉल्जाक (1799-1850) ने लिखा है कि ‘‘ अधिकारीतंत्र ऐसा दैत्याकार यंत्र है जिसे बौने लोग संचालित करते हैं।’’ जबकि आल्फ्रेड ई. स्मिथ (1873-1944) ने लिखा कि ‘‘ मेरे विचार से राष्ट्र की खुशहाली के लिए ख़तरे की बात यह होगी कि यहां कानून के शासन की जगह अधिकारीतंत्र का शासन स्थापित हो जाएगा।’’
14- शब्द मीमांसा, ऐसी गतिविधि है जिसमें विश्व को केवल भौतिक जगत के रूप में नहीं देखा जाता बल्कि इसे मानवीय चिंतन और कार्रवाई का विषय माना जाता है।इसकी मान्यता है कि केवल वैज्ञानिक व्याख्या ही ज्ञान की एकमात्र विधा नहीं है बल्कि मानव जगत के बारे में उपयुक्त प्रश्न उठाकर भी उसका ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।प्रश्नांकित विषय में ही उसकी आंतरिक व्याख्या निहित होती है।
15- ज्यां जाक रूसो (1712-1778) ने अपनी पुस्तक ‘ सोशल कांट्रैक्ट’ (1762) में लिखा कि ‘‘ मनुष्य जन्म से स्वतंत्र है, परंतु वह सब जगह बेड़ियों से जकड़ा है।’’ इसके विपरीत, कार्ल मार्क्स (1818-1883) ने ‘ कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो (1848) में लिखा कि ‘‘ दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ। तुम्हारे लिए पाने को सारी दुनिया पड़ी है और खोने के लिए सिर्फ तुम्हारी बेड़ियां हैं।’’
16- जे. डब्ल्यू. बर्गैस ने 1980 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ पॉलिटिकल साइंस एंड कंपेरेटिव कांस्टीट्यूशनल लॉ’ के अंतर्गत लिखा कि ‘‘ राज्य इतिहास की देन है। इस कथन का अर्थ यह है कि मानव समाज शुरू- शुरू में सर्वथा अपूर्ण था, फिर उसमें पूर्ण तथा विश्वजनीन मानव संगठन की दिशा में कुछ अनगढ़ रूप प्रकट हुए, जिसमें निरंतर सुधार होता गया।राज्य इस क्रमिक तथा निरंतर विकास का परिणाम है।’’
17- अपनी चर्चित कृति ‘ द पावर्टी ऑफ हिस्टोरिसिज्म’ (1957) के अंतर्गत कार्ल पॉपर ने लिखा कि ‘‘ इतिहास वाद सामाजिक परिवर्तन की किसी पूर्व निर्धारित योजना को अनिवार्य मानते हुए किसी विशेष विचारधारा के साथ जुड़े हुए सर्वाधिकार वाद को बढ़ावा देता है।’’ पॉपर ने प्रामाणिक नियमों और ऐतिहासिक प्रवृत्तियों में अंतर किया है। उसने तर्क दिया है कि ऐसा कोई नियम नहीं हो सकता जो सम्पूर्ण ऐतिहासिक प्रक्रिया पर लागू हो।
18- जर्मन दार्शनिक कार्ल मार्क्स की 1844 की कृति ‘ इकॉनॉमिक एंड फिलॉसॉफिक मैनुस्क्रिप्ट्स ऑफ- 1844’ में मानववादी चिंतन की झलक मिलती है। यहां पर मार्क्स ने ऐतिहासिक विकास के ऐसे स्तर की परिकल्पना की है जब मनुष्य प्रकृति वाद से निकलकर मानववाद में प्रवेश करेगा अर्थात् वह विवशता लोक से निकलकर स्वतंत्रता लोक की ओर अग्रसर होगा। यहां वह स्वयं अपना भाग्य विधाता होगा। मार्क्स ने इस गतिविधि को आत्म प्रेरित व्यवहार की संज्ञा दी है।
19- भारतीय दार्शनिक मानवेन्द्र नाथ राय (1886-1954) ने अपनी पुस्तक ‘ न्यू ह्यूमनिज्म : ए मैनीफेस्टो’(1947), ‘ रीजन, रोमेंटीसिज्म एंड रिवोल्यूशन’ ‘ द प्रॉब्लम्स ऑफ फ्रीडम’ और ‘ साइंटिफ़िक पॉलिटिक्स’ में नव मानववाद को ‘ उत्कट मानववाद’ या आमूल परिवर्तन वादी मानववाद तथा वैज्ञानिक मानववाद की संज्ञा दी है। इसका मूल स्वर मनुष्य की स्वतंत्रता है।
20- नव- मानववादी चिंतन के अनुसार, अज्ञान की स्थिति में मनुष्य अंधविश्वासों के जाल में फंस जाता है और अलौकिक शक्तियों में विश्वास करते हुए अपने आपको विवश अनुभव करता है जिससे उसकी सृजनात्मक शक्तियां कुंठित हो जाती हैं। ज्ञान और विज्ञान मनुष्य को इन निराधार विश्वासों से मुक्ति प्रदान करते हैं।राय का नव मानवतावाद मनुष्य को सम्पूर्ण सृष्टि का मानदंड स्वीकार करता है।
21- नव मानवतावाद, स्वतंत्रता के प्रयोग की अनंत सम्भावनाओं में आस्था रखते हुए उसे किसी ऐसी विचारधारा के साथ नहीं बांधना चाहता जो किसी पूर्व निर्धारित लक्ष्य की सिद्धि को ही उसके जीवन का ध्येय मानती हो। मनुष्य ही अपनी तर्क बुद्धि से समाज और नैतिकता के स्वरूप को निर्धारित करता है। अतः उसका स्थान सबसे पहले और सबसे ऊंचा है।
22- प्राचीन यूनानी चिंतन में प्लेटो ने मानव प्रकृति के बारे में कहा कि तृष्णा, भावावेग और ज्ञान मानव स्वभाव के तीन गुण होते हैं। जिसमें तृष्णा की प्रधानता होती है वह उद्योग व्यापार के लिए उपयुक्त होते हैं। भावावेग प्रधान व्यक्ति सैनिक बनने के लिए उपयुक्त होते हैं। ज्ञान प्रधान व्यक्ति दार्शनिक बनने के लिए उपयुक्त होते हैं। अरस्तू ने मानव प्रकृति के बारे में कहा कि ‘ मनुष्य स्वभावत: एक राजनीतिक प्राणी है।’
23- निकोलो मैकियावेली ने मानव स्वभाव के बारे में कहा कि ‘‘ मनुष्य अपने स्वभाव से कृतध्न, ढुलमुल, झूठा, डरपोक और लालची होता है।लोग अपने पिता की मृत्यु को जितनी जल्दी भूल जाते हैं, पैतृक धन की हानि को उतनी जल्दी नहीं भूल पाते।राजा को प्रजा के स्नेह का पात्र बनने से कहीं अच्छा यह होगा कि उसके मन में भय पैदा कर दिया जाए।’’
24- अंग्रेज दार्शनिक टॉमस हॉब्स (1588-1679) के अनुसार ‘‘मानव स्वभाव से स्वार्थी और निर्दय प्राणी है। अतः प्राकृतिक दशा में लड़ाई- झगड़े और छीना- झपटी का बोलबाला रहता है। यह ‘ सबके विरूद्ध सबके युद्ध’ की अवस्था है। इस अवस्था में मनुष्य का जीवन ‘एकाकी, दीन- हीन, घृणित, पाशविक और क्षणभंगुर’ होता है।हर मनुष्य एक दूसरे का शत्रु होता है।’’
25- अंग्रेज दार्शनिक जॉन लॉक (1632-1704) के अनुसार ‘‘ मनुष्य मूलतः शालीन, व्यवस्था प्रिय, मेल- जोल में विश्वास रखने वाले और अपने ऊपर शासन करने में समर्थ होते हैं। अतः प्राकृतिक दशा साधारणतया शांति, सद्भावना, परस्पर सहायता और रक्षा की दशा होती है।इस अवस्था में जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति मनुष्य के अधिकार होते हैं।’’ इन्हीं की रक्षा के लिए सरकार की आवश्यकता है।
26- जीन जैक्स रूसो के अनुसार प्राकृतिक अवस्था का मनुष्य सरल, समानतापूर्ण और सुखमय जीवन बिताता है। यहां तेरे- मेरे का कोई भेद नहीं होता है। सभ्यता के विकास ने समाज में विषमताओं को जन्म दिया है। रूसो, रूमानी शैली में ‘ प्रकृति की ओर लौट चलने’ का आह्वान करता है।
27- जरमी बेंथम (1748-1832) को उपयोगितावादी विचारक माना जाता है। उसने तर्क दिया कि प्रकृति ने मनुष्य को दो शक्तिशाली स्वामियों के नियंत्रण में रखा है, जिनके नाम हैं- सुख और दुःख। उसने इसकी गणना में ‘‘अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख’’ का सिद्धांत प्रतिपादित किया। इसी तर्क के आधार पर बेंथम ने मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था का समर्थन किया।
28- नागरिक अधिकार ऐसे अधिकार हैं जो किसी राज्य के नागरिक को केवल नागरिकता के आधार पर प्राप्त होते हैं और जिन्हें क़ानून के द्वारा सुरक्षित किया जाता है। नागरिक अधिकारों में कानून के समक्ष समानता, दैहिक स्वतंत्रता, वाणी, विचार और आस्था की स्वतंत्रता, मुक्त विचरण की स्वतंत्रता, व्यापार और व्यवसाय की स्वतंत्रता, अनुबंध की स्वतंत्रता और संपत्ति का अधिकार विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
29- मानव अधिकार ऐसे अधिकार हैं जो प्रत्येक मनुष्य को मनुष्य होने के नाते प्राप्त होने चाहिए।मानव अधिकारों का विचार क्षेत्र नागरिक अधिकारों की तुलना में अत्यंत विस्तृत है। मानव अधिकारों का विचार नागरिकता की सीमाओं से नहीं बंधा है। टॉमस पेन (1737-1809) ने प्राकृतिक अधिकारों को ही मनुष्य के अधिकार की संज्ञा दी है।
30- लॉक के अनुसार, ‘‘नागरिक समाज का निर्माण करते समय मनुष्य यह वचन देते हैं कि वे अब से अपने कृत्यों की जांच के लिए अपने न्यायाधीश स्वयं नहीं होंगे। अपने इस प्राकृतिक अधिकार का त्याग वे इस शर्त पर करते हैं कि राज्य उनके मूल प्राकृतिक अधिकार- अर्थात्, जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति के अधिकार की रक्षा करेगा। इस तरह राज्य की स्थापना एक धरोहर या न्यास के रूप में की जाती है।’’
31- अमेरिकी स्वाधीनता की घोषणा (1776) के अंतर्गत इस स्वयं सत्य की पुष्टि की गई थी कि ‘ सब मनुष्य जन्म से समान हैं। उनके जन्मदाता या सृजनकर्ता ने उन्हें कुछ अपरक्राम्य अधिकार प्रदान किए हैं, इनमें ‘ जीवन, स्वतंत्रता और सुख की साधना’ का अधिकार सम्मिलित है। इन्हीं अधिकारों की सुरक्षा के लिए सरकारों की स्थापना की जाती है। यदि कोई सरकार इन अधिकारों को नष्ट करने का प्रयास करे तो जनसाधारण उस सरकार को भंग कर सकते हैं।’’
32- १० दिसम्बर, १९४८ में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने मानव अधिकारों की विश्व व्यापी घोषणा किया। इस घोषणा में एक विस्तृत प्रस्तावना के अलावा 30 अनुच्छेद हैं। इसके अलावा ‘मानव अधिकार सम्बन्धी यूरोपीय अभिसमय’ (1950), ‘नागरिक और राजनीतिक अधिकार सम्बन्धी अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा’ (1966), ‘मानव अधिकार सम्बन्धी अमरीकी अभिसमय’ (1969), ‘हेल्सिंकी समझौते’ (1975) और ‘जनवादी एवं मानव अधिकार सम्बन्धी अफ्रीकी अधिकार पत्र’ (1981) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
33- मानव अधिकारों के उदारवादी सिद्धांत के मुख्य प्रवर्तक जॉन लॉक (1632-1704) हैं, जबकि स्वेच्छातंत्रवादी सिद्धांत के मुख्य प्रवर्तक राबर्ट नॉजिक (1938-2002)हैं। मानव अधिकारों का मार्क्सवादी सिद्धांत कार्ल मार्क्स (1818-1883) और लेनिन (1870-1924) की देन है। इसी प्रकार मानव अधिकारों का समुदायवादी सिद्धांत एलेस्टेयर मैकिंटायर (1929- ) की देन है। जबकि मानव अधिकारों के नारीवादी सिद्धांत का निरूपण कनाडियन- अमेरिकन चिंतक, शुलामिथ फायरस्टोन (1945-2012) तथा शीला रोबाथम (1953 -) ने किया है।
34- आदर्श वाद की मूल मान्यता है कि इस जगत में जिन भी वस्तुओं का अस्तित्व है, वे भौतिक वस्तुएं नहीं हैं बल्कि वे केवल मानसिक वस्तुएं अर्थात् प्रत्यय या विचार तत्व हैं।दूसरे शब्दों में सृष्टि का मूल तत्व या सार तत्व जड पदार्थ नहीं, बल्कि चेतन तत्व या चेतना है। आधुनिक राजनीतिक चिंतन के अंतर्गत आदर्शवाद की चिंता का मुख्य विषय स्वतंत्रता का नैतिक आधार है।जर्मन दार्शनिक इमैनुअल कांट और जी. डब्ल्यू. एफ. हीगल तथा अंग्रेज़ दार्शनिक टी. एच. ग्रीन और बर्नार्ड बोसांके आदर्शवाद के प्रमुख विचारक हैं।
35- जर्मन दार्शनिक इमैनुअल कांट(1724-1804) ने 1781 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ क्रिटीक ऑफ प्योर रीजन’ तथा 1785 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ ग्राउंडवर्क ऑफ मैटाफिजिक ऑफ मॉरल्स’ व 1717 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ मेटाफिजिकल एलीमेंट्स ऑफ जस्टिस’ के अंतर्गत अपने अनुभवातीत आदर्शवाद का निरूपण किया है।उनके अनुसार ‘‘ राजनीति को नैतिकता के सामने सदैव नतमस्तक रहना चाहिए।’’
36- जर्मन दार्शनिक जी. डब्ल्यू. एफ. हीगल (1770-1831) ने अपनी विख्यात कृति ‘ फिलॉस्फी ऑफ़ राइट्स’ (1821) में लिखा कि ‘‘ इतिहास एक निरंतर विकास की प्रक्रिया है, जिसकी मूल प्रेरणा विवेक, चेतना या चेतन तत्व है।यही सृष्टि का सार तत्व है।सारा सामाजिक परिवर्तन और विकास परस्पर विरोधी तत्वों या विचारों के संघर्ष का परिणाम है। इस पद्धति को द्वंद्वात्मक पद्धति कहा जाता है।
37- द्वंद्वात्मक पद्धति का अर्थ है, वह प्रक्रिया जिसके द्वारा बौद्धिक वाद- विवाद के अंतर्गत विचारों का निर्माण और स्पष्टीकरण होता है।इसका मूल है- निषेध का निषेध। इसकी तीन अवस्थाएं हैं- वाद, प्रतिवाद और संवाद।
38- हीगल की ऐतिहासिक व्याख्या के अनुसार राष्ट्र ही इतिहास की सार्थक इकाई है, व्यक्ति या उनके कोई अन्य समूह नहीं। सभ्यता का इतिहास राष्ट्रीय संस्कृतियों की श्रृंखला है। जिसमें प्रत्येक राष्ट्र सम्पूर्ण मानवीय उपलब्धि में अपना अपना विलक्षण और समयोचित योग देता है।हीगल के अनुसार ‘‘ राज्य धरती पर ईश्वर की शोभा यात्रा है।’’
39- हीगल ने नागरिक समाज और राज्य में स्पष्ट अंतर किया है। उनके अनुसार सामाजिक जीवन की तीन गतिविधियां हैं- परिवार, नागरिक समाज और राज्य। परिवार, विशेषोन्मुखी यथार्थवाद पर आधारित है। नागरिक समाज, विश्वजनीन स्वार्थ वाद या अहंवाद का क्षेत्र है। राज्य की आधारशिला, विश्वजनीन परार्थवाद है। इस प्रकार राज्य ऐसी संस्था है जिसमें परिवार और नागरिक समाज दोनों के उत्तम गुण पाए जाते हैं।
40- हीगल के अनुसार, ‘‘ राज्य मानवीय चेतना का विराट रूप है।’’ ‘‘यह विश्व में विवेक की यात्रा है। यह मनुष्य की स्वतंत्रता की उच्चतम अभिव्यक्ति है जो परिवार और नागरिक समाज के द्वंद्वात्मक संघर्ष के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आती है। चूंकि राज्य विवेक और चेतना की साकार प्रतिमा है इसलिए राज्य का कानून वस्तुपरक चेतना का मूर्त रूप है। अतः जो कोई कानून का पालन करता है, वही स्वतंत्र है।’’
41- टी. एच. ग्रीन (1836-1882) ने जॉन लॉक के प्राकृतिक अधिकारों और जरमी बेंथम के उपयोगितावाद का खंडन करते हुए नैतिक आधार पर उदारवाद का पुनर्निर्माण किया और कल्याणकारी राज्य की संकल्पना को आगे बढ़ाया। ग्रीन ने नैतिक ज्ञान को यथार्थ ज्ञान के रूप में मान्यता दिया।कर्म का युक्ति युक्त आधार इच्छा और विवेक है, तृष्णा और लालसा नहीं।मानव प्रकृति की यही धारणा सामान्य हित की संकल्पना की ओर जाती है।
42- वर्ष 1982 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘लेक्चर्स ऑन द प्रिंसिपल्स ऑफ पॉलिटिकल ऑब्लिगेशन’ में ग्रीन ने लिखा, ‘‘ राज्य ऐसी संस्था है जिसका ध्येय सामान्य हित को बढ़ावा देना है।’’ सामान्य हित का विचार ही राजनीतिक दायित्व का आधार है। ‘ समाज के बिना व्यक्ति कुछ नहीं होते- यह बात इतनी ही सच है कि व्यक्तियों के बिना ऐसा कोई समाज नहीं होता जैसा कि हम जानते हैं।’
43- टी. एच. ग्रीन के अनुसार, ‘‘मानवीय चेतना स्वतंत्रता का आधार प्रस्तुत करती है, स्वतंत्रता के साथ अधिकार जुड़े रहते हैं और अधिकार राज्य की मांग करते हैं।’’ ‘ स्वतंत्रता ऐसा करने या पाने की सकारात्मक शक्ति है जो करने योग्य या पाने योग्य हो।’ करने योग्य कार्य को करने या पाने योग्य वस्तु को पाने की इच्छा ही सद्- इच्छा है और सद्- इच्छा की पूर्ति की क्षमता या सकारात्मक शक्ति ही सकारात्मक स्वतंत्रता का सार तत्व है।
44- अंग्रेज दार्शनिक बर्नार्ड बोसांके(1848-1923) ने राज्य को एक नैतिक अभिकरण के रूप में परिभाषित करते हुए अपनी पुस्तक ‘ द फिलॉसॉफिकल थ्योरी ऑफ द स्टेट’(1899) में लिखा कि ‘‘ कोई व्यक्ति अकेले- अकेले सद्- इच्छा की पूर्ति नहीं कर सकता। क्योंकि इस तरीके से वह सम्पूर्ण मानव जाति की उपलब्धियों को आत्मसात नहीं कर सकता।’’
45- बोसांके ने कहा है कि ‘‘ व्यक्ति की स्वतंत्रता ‘ प्रतिबंध के अभाव में निहित नहीं, बल्कि उन आवेगों और भ्रामक कामनाओं के नियंत्रण में निहित है जो उसे नैतिक पतन की ओर ले जाती है।’’ उन्होंने कहा कि, यदि राज्य निर्धन लोगों को आर्थिक सहायता देने के बजाय सार्वजनिक शिक्षा का दायित्व संभाल ले तो वह मनुष्यों के आत्मोन्नयन की इच्छा पूरी करने में विशेष रूप से सहायक सिद्ध होगा।
46- सामाजिक विज्ञानों में अस्मिता की संकल्पना का प्रयोग बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से शुरू हुआ।इसका प्रमुख श्रेय डी. रीजमैन, एन. ग्लेजर और आर डैनी की चर्चित कृति, ‘ लोनली क्राउड’(1950) तथा एम. आर. स्टाइन और उसके सहयोगियों की सम्पादित पुस्तक ‘ आइडेंटिटी एंड एंक्जाइटी : सर्वाइकल ऑफ द पर्सन इन मास सोसायटी’(1960) को दिया जाता है।
47- अस्मिता के मनोवैज्ञानिक पक्ष का विश्लेषण जर्मन मनोविश्लेषक सिग्मंड फ्रायड (1856-1939) की देन माना जाता है। सिग्मंड फ्रायड ने अस्मिता को मानव व्यक्तित्व के विकास की स्वाभाविक अभिव्यक्ति माना है। जबकि नव फ्रायड वादी सिद्धांतकार एरिक एरिक्सन ने अपनी विख्यात कृति ‘ आइडेंटिटी : यूथ एंड क्राइसिस’(1968) में अस्मिता के संकट की बात की है।
48- अस्मिता के विश्लेषण की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए एच. लिख्स्टेंटाइन ने अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘ द डॉयलमा ऑफ ह्यूमन आइडेंटिटी’(1977) में लिखा कि लगातार बदलती हुई परिस्थितियों में भी तात्विक रूप पहले जैसा बना रहता है। जबकि विलियम जेम्स ने अपनी चर्चित कृति ‘ साइकॉलॉजी : दी ब्रीफर कोर्स’(1982) के अंतर्गत तर्क दिया कि मनुष्य की अस्मिता इस कथन से प्रकट होती है- ‘‘ मेरा यथार्थ रूप यह है’’।
49- जार्ज हर्बर्ट मीड ने अपनी विख्यात कृति ‘ माइंड, सैल्फ एंड सोसायटी’ (1934) के अंतर्गत मैं और मुझे मे अंतर करते हुए लिखा कि ‘‘ जब व्यक्ति अपने प्रति दूसरों के दृष्टिकोण का उत्तर देता है, तब वह मैं शब्द का प्रयोग करता है।जब वह अपने प्रति दूसरों के दृष्टिकोण के बारे में अपनी मान्यता व्यक्त करता है, तब वह मुझे शब्द का प्रयोग करता है।’’
50- ए. स्ट्रास की चर्चित कृति ‘ मिरर्स एंड मास्क्स : द सर्च फॉर आइडेंटिटी’(1969) के अनुसार, ‘‘अस्मिता का निर्धारण वह प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत हम समाज निर्मित श्रेणियों के संदर्भ में अपनी जगह ढूंढते हैं। भाषा इस प्रक्रिया का मुख्य उपकरण है।’’
नोट : उपरोक्त सभी तथ्य, ओम् प्रकाश गाबा, की पुस्तक ‘राजनीति विज्ञान विश्वकोष, ISBN 81-214-0683–8, प्रकाशन- नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दरियागंज, नई दिल्ली – ११००९३ से साभार लिए गए हैं।